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महावीर का अन्तस्तल
इस समाचार से मुझे बहुत दुःख हुआ । एक विशाल राज्य की कल्पना मुझे प्रिय होने पर भी मैं यह पसन्द नहीं करता कि राजा लोग तनिक सी ताकत हाथमें आते ही इसप्रकार मनुष्यों का शिकार करने के लिये निकल पड़ें, डकैतों की तरह लूट खसोट करने लगें, न्यायका, अहिंसा का, मानवता का अपमान कर निरपराधों की हत्या करें, दासता की कुप्रथाको पनपायें । में अवश्य ही यथाशक्य इप्स अन्याय के विरोध में कुछ प्रयत्न करूंगा।
इस दिग्विजय यात्रा से मेरे मनमें एक विचार यह भी आया कि साधुओं को तो कहीं भी जाने में बाधा नहीं है पर गृहस्थों को दिशाओं में भ्रमण करने की भी मर्यादा लेलेना चाहिये । भ्रमण की मर्यादा से उनकी तृष्णा शान्त रहेगी। इस प्रकार दिग्वत या देशव्रत भी गृहस्थों के व्रतों में शामिल होना चाहिये।
अस्तु, इस भयंकर दासता के विरोध मैंने एक अभिग्रह लिया कि मैं किसी ऐसी दासी के हाथ से ही भिक्षा लूंगा जो कुलीन होने पर भी दासता के चक्र में पड़गई है और किसी कारण काराग्रह क कष्ट भोग रही है । आंसुओं से आंखें भिगोये
. इस अभिग्रह के साथ मैं प्रतिदिन मिक्षा लेने जाने लगा; पर भिक्षा न मिली । पहिले तो किसीको चिन्ता न हुई । पर जब शुद्ध प्रासुक भोजन भी मैंने नहीं लिया तब लोगों का कुतूहल बढ़ा। वे मेरी तरफ अधिक ध्यान देने लगे। मैंने देखा कि गजमार्ग या बड़े बड़े मार्गों में मेरा अभिग्रह पूरा न होगा । संकंटग्रस्त दासियाँ तो घरों के पिछवाड़े भाग में रक्खी जाती है। इसलिये मैं घरों के पिछवाहे भाग की गलियोंमें भिक्षा लेने के