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महावीर का अन्तस्तल
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आज कृर्मग्राम में जहां मैं ठहरा था वहां से थोड़ी दूर एक तापस तपस्या कर रहा था । मध्यान्द्र के समय एक हाथ ऊंचा किये सूर्य मण्डल की तरफ दृष्टि रक्खे स्तंभ की तरह स्थिर खड़ा था | पीछे की तरफ उसकी जटाएँ कमर के नीचे तक लटक रही थीं। उसमें जूवें पड़गई थीं, वे कभी धरती पर गिर पड़ती तो वह तापस उन्हें उठाकर फिर सिर में डाल लेता इस तरह काफी कष्ट उठा रहा था।
कुछ तो धर्म के लिये बाह्य तपों की आवश्यकता है ही, क्योंकि कष्ट सहिष्णुता के विना साधुता तथा जनसेवा के मार्ग में आगे बढ़ा नहीं जासकता । फिर भी हाथ उठाने आदि के कृत्रिम तपों को या तपों के प्रदर्शनों को मैं ठीक नहीं समझता । प्रदर्शनों से वास्तविक तप तो क्षीण होजाता है सिर्फ जनता पर प्रभाव डालकर कुछ पूजा प्रतिष्ठा वसूल करना प्रधान बनजाता है। मेरे तीर्थ में बाह्य तपों को तो स्थान होगा, पर वाह्य तपों के प्रदर्शनों को नहीं । कष्ट सहिष्णुता का अभ्यास करना, समाज के ऊपर अपने जीवन का कम से कम बोझ डालना, किये हुए पापों या अपराधों की क्षति पूर्ति करना ही तपों का ध्येय है। अस्तु ।
मेरे ये विचार गोशाल अच्छी तरह समझता है और अपने स्वभाव से लाचार होकर बहुत बुरी तरह इनका समर्थन .. करता है । कूर्मग्राम में आने के थोड़े समय वाद ही वह उस.. तापस के पास गया, और उसकी तपस्या की हँसी उड़ाने लगा...
कुछ देर तक उस तापस ने उपेक्षा की, पर उसकी . उपेक्षा गोशाल ने निर्वलता समझी, इसलिये उसकी उद्दडता
और बढ़ती गई 1 तव उस तापस को क्रोध आगया और उसने गोशाल पर कुछ ऐसी मुद्रा से मांत्रिक प्रयोग किया कि गोशाल घबरागया, तब अस तापस ने भयंकर मुद्रा से हाथ फटकारते