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महावीर का अन्तस्तल
प्रकार एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि में आधिक पाप है। .
पर इस प्रकार का विचार करते समय मुझे पंचेन्द्रिय प्राणियों को दो भागों में विभक्त करना पड़ा है । कुछ प्राणी तो । ऐसे हैं जो मनुष्य के भावों को समझ सकते हैं। मनुष्य उन्हें सिखा सकता है, अपनी भाषा के संकेत समझा सकता है, वे मनुष्य के चेहरे को पढ़ सकते हैं, मनुष्य की अच्छी वुरी चेष्टाओं को या स्वर को पहिचान सकते हैं उससे प्रेम या वैर कर सकते है, इस प्रकार मनुष्य के साथ किसी न किसी तरह के कौटुम्बिक सम्बन्ध रखने की योग्यता रखते हैं। उनकी हिंसा करने में बहुत पाप है, और उनकी हिंसा में कम पार है जो ऐसी योग्यता नहीं रखते, भले ही उनके पांचों इन्द्रियाँ हो ।
अनुभव से मैंने जाना है कि जिनके पांच से कम इन्द्रियाँ हैं उनमें इस प्रकार समझदारी, जिससे वे मनुष्य से सामाजिकता स्थापित कर सके, नहीं होती। इसलिये मनप्य की दृष्टि से वे असंज्ञी ही कहलाये। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय तक सवको असंज्ञी, पंचेन्द्रिय में कुछ को असंही ठहराया है। इससे हिंसा अहिंसा के निर्णय करने में, हिंसा की तरतमता जानने में सुभीता होगा। - कुछ दर्शन ऐसे हैं जो मानते हैं कि प्रत्येक जीव के साथ मन होता है, यह बात ठीक है । वैसा मन कीड़ी मकौड़ियों में भी होता है, वे अपने पक्ष की और दूसरे पक्ष की कीड़ियों को पहिचानती हैं, लड़ती है, सहयोग करती हैं, संग्रह करती है, घर बनाती है परस्पर में सुनमें पूरी सामाजिकता होती है, इसलिये उन्हें मन तो है, फिर भी मैं उन्हें समनस्क नहीं कहना चाहता क्योंकि प्राणिमात्र के जो भावमन या तुच्छ मन है उससे किसी को समनस्क कहना व्यर्थ है, उससे हिंसा अहिंसा की तरतमता