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महावीर का अन्तस्तल
४३ - विरोध और सभ्यता
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१८ चिंगा ६४३८
आलभिका नगरी में मेरा सातवां चातुर्मास बहुत अच्छी तरह व्यतीत हुआ यहां भी कोई अपसर्ग नहीं हुआ । श्रमण विरोधी वातावरण अब काफी शान्त होगया है । नये तीर्थ की स्थापना की भीतरी भूमिका तो बन ही रही है पर बाहरी भूमिका भी वन रही है ।
चातुर्मास समाप्त कर मैं कुंडक ग्राम आया। यहां एक कामदेव का मन्दिर है । जीवन में काम पुरुषार्थ को भी एक स्थान तो है पर इस तरह काम की मूर्ति बनाकर उसके आगे वीभत्स नृत्य करना ठीक नहीं। मेरे विचार से तो आदर्श गुणों के और आदर्श मनुष्यों के ही मन्दिर बनाना चाहिये । और उनकी उपासना का तरीका भी ऐसा योग्य होना चाहिये जिससे जीवन पर कुछ अच्छा प्रभाव पढ़े । मन्दिरों की, उपासना का और उपासना के ध्येय का जो वर्तमान रूप है उसे मैं पसन्द नहीं करता ।
गोशाल को मेरे इन विचारों का परिचय हैं । इसलिये जब मैं विशाल मन्दिर के एक एकान्त भाग में ठहर गया और ध्यान में लीन होगया तब गोशाल ने एक उपद्रव खड़ा कर दिया । ये काम मन्दिर मुझे पसन्द नहीं हैं इसलिये झुंसने मूर्त्ति का भयंकर अपमान किया । मूर्ति के आगे खड़ा होकर उसे पुरुष चिन्ह बताने लगा । यह विरोध नहीं अलभ्यता की सीमा श्री । इसका परिणाम भी बहुत बुरा हुआ ।
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थोड़ी देर में मन्दिर का पुजारी आया और झुसने गोशाल की यह कुचेष्टा देखली । श्रमणों की निन्दा करने का यह बड़ा अच्छा अवसर था इसका उसने पूरा उपयोग किया । वह चुपचाप जाकर पड़ौस के लोगों को वुलालाया और चुपचाप