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महावीर का अन्तस्तल
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मल्लिदेवी की कथा से मुझे एक विशेष बात और मिली कि शरीर की अशुचिता की भावना तुच्छ स्वार्थों को हटाने के लिये काफी अपयोगी होती है । वैराग्य को पैदा करने में और उसे टिकाये रखने में यह बहुत सहायक है । सोचता हूँ इस प्रकार की कुछ भावनाएँ और बनाऊंगा जो संसार के और विषय भोगों के मोह से मनुष्य को बचाकर रख सकें । यह ठीक है कि भावना किसी वस्तु के एक अंग को ही बतलाती है उसके आधार पर तत्व-ज्ञान या दर्शन सरीखी गम्भीर चर्चा नहीं दी जासकती, वह बुद्धि को प्रभावित भी नहीं कर सकती, किन्तु मन को प्रभावित अवश्य कर सकती है और उनके आधार से जीवन की दिशा भी बदली जासकती है ।
अस्तु ! यह अशुचि भावना तो है ही, पर एक दिन विचार कर और भी कुछ भावनाएँ निश्चित करूंगा और उसका एक व्यवस्थित पाठ बनाऊंगा ।
अभी अभी मेरे मन में यह विचार भी उठा हैं कि मल्लि देवी को मैं अपने तीर्थ में कोई खास स्थान हूँ । यद्यपि अभी निश्चय तो नहीं है फिर भी ऐसा ज्ञात होता है कि मैं जिस तीर्थ की स्थापना करूंगा उसे अनादि या बहुत प्राचीन तो सिद्ध करना ही होगा, क्योंकि इस के बिना यह भोला जगत असकी सचाई पर विश्वास ही न करेगा । वह तो यही कहेगा कि तुम्हारे तीर्थ की हमें क्या जरूरत है ? झुसके बिना अगर हमारे पुरखों का उदार हो गया तो हमारा भी हो जायगा और अगर यह कह कि मेरे तीर्थ के बिना आज तक किसी का उद्धार नहीं हुआ तब तो लोग मुझे पागल समझकर इतने जोर से हँसेंगे कि उस हँसी के प्रवाह में मेरा. तथिं ही उड़ जायगा । इसलिये सोचता हूँ कि मुझे अपने तीर्थ का संस्थापक बनना ठीक नहीं, जीर्णोद्धारक बनना ठीक होगा और इस प्रकार अनादि से अनन्त काल तक
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