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महावीर का अन्तस्तल
लीन बैठा था कि लुहार की आवाज मेरे कानों में पड़ी। वह चिल्ला रहा था- इस नंगे को यहां किसने बुलाया ? छः महीने में तो मैं यहां आया और आते ही अपशकुन की मूर्त्ति एक श्रमण दिख पड़ा | निकालो इसको यहां से !
मेरी विचारधारा टूटी। सब लोग चुप रहे | किसीको साहस न हुआ कि मुझे निकाले । लुहार इससे और भी उत्तेजित हुआ और उत्तेजित होकर वह स्वयं ही मुझे निकालने को आगे बढ़ा | 'सिर तोड़ दूंगा तेरा' - कहता हुआ क्रोध में घन उठाकर दौड़ा | पर बेचारा बहुत निर्बल था इसलिये उसका तन मन क्रोधावेग को न सह सका और घन लिये हुए ही लड़खड़ाकर गिर पड़ा और मूच्छित होगया । लड़खड़ाने में उसके हाथ का न उसी के सिर पर पड़ा जिससे उसका सिर फट गया । थोड़ी देर में उसकी मूर्च्छा अनंत मूर्च्छा बनगई । उसके जीव ने शरीर छोड़ दिया । उसका श्रमण-विद्वेष उसका ही घातक सिद्ध हुआ । मुझे इस बात का खेद हुआ कि मेरे निमित्त से उसकी मौत हुई, यद्यपि इसमें मेरा तनिक भी अपराध न था ।
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मैंने देखा कि लुहार के मरने पर भृत्यों और दासों के मनमें कोई खेद नहीं था बल्कि उसके लड़खड़ाकर गिरते ही कोई कोई तो मुसकराने लगे थे। इससे मुझे यह समझने में देर न लगी कि भृत्य और दास श्रमण-भक्त हैं। यों तो जाति व्यवस्था की दृष्टि से लुहार को भी श्रवणभक होना चाहिये पर महर्द्धिक होने से इसे ब्राह्मणों का आशीर्वाद मिलता मालूम होता है । जीविका-लोभी ब्राह्मण-वर्ग अर्थ-लाम की दृष्टि से शुद्ध को भी सन्मान दे देते हैं । और पीढ़ियों से दबा हुआ शूद्र इतने में ही सन्तुष्ट होजाता है कि दूसरे शूद्रों से मैं अधिक सम्मानित हूँ । जाति-पांति का उच्च-नीचता का भूत, शूत्रों के मन में भी अली,