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महावीर का अन्तस्तल
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गत रात्रि की बात है । मैं एक ट्रेवरी के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था । टेकरी के ऊपरी भाग में एक ऐसा वृक्ष था जो आडा होकर मेरे सिर पर, फैला हुआ था । रात्रि के पिछले पहर एक तापसी वहां आई। उनके बड़े बड़े, जंटा थे, वल्कल सुसने पहिन सक्खे थे। निकट के कुंड में उसने स्नान किया और टेकरी पर चढ़कर सुस वृक्ष पर चढ़ी और उसकी ऊपरी शाखाओं को पकड़कर नीची शाखाओं पर खड़ी होगई तीन वेग से ठंडी हवा चल रही थी, और वह ठंड के मारे कांप रही थी, दतवाणा बजा रही थी। इस प्रकार के घोर कष्ट सहने से असीम धर्म होजायगा ऐसी असकी समझ थी, पर उसके इस प्रयत्न झा फल था दूसरों को घोर कष्ट, जिससे कि पाप होरही था।
- तापसी टीक मेरे सिर पर थी। उसके वल्कलों में से जटाओं में से पानी की बूंदें गिर कर मेरे ऊपर पड़ती थीं। उधर ठंडी बूंद और ठंडी हवा, इधर नग्नशरीर, इससे पर्याप्त शीत वेदना होरही थी। . यह बात दूसरी है कि उन्नु वेदना ने मेरे मनको स्पर्श नहीं कर पाया । प्रारम्भ में कुछ क्षण तो मुझे वेदना हुई, पीछे में अपनी गुत्थी सुलझाने में लगगया । इसलिये सधेरे तक पता ही न लगा कि शरीर पर क्या बीतरही है।
. इस ध्यान का परिणाम यह हुआ कि मेरी गुत्थी सुलझ गई । वहुत दिनों से मैं इस विचार में था कि जगत के आकार के विषय में निर्णय क । क्योंकि जगत् के आकार का निर्णय किये बिना यात्मवाद पर विश्वास कराना कठिन है, और यात्मघाद पर विश्वास कराये विना ऐहिक-फल-निरपेक्ष धर्म कराना कठिन है। इसलिये लोक का ज्ञान आवश्यक है जिससे स्वर्ग नरकं आदि की व्यवस्था बनाई जासके ।