________________
महावीर का अन्तस्तल
.
:.
:
.
२९.-स
: १३ वुधी ९४३३ इ. सं.
..
... ... सोचा तो मैंने यही था कि श्वेताम्बी नग में हीचौमासा करूंगा क्योंकि सुना था कि यहां का प्रदेशी राजा बड़ा धर्मात्मा है सो सचमुच वह बड़ा धर्मात्मा विनीत और सेवाभावी है। जिस दिन में इस नगरी में आया उसी दिन. चौथे पहर प्रदेशी राजा मुझसे मिलने आया । उसे यह पता लगगया था कि मैं एक क्षत्रिय राजकुमार हूं जो.तपस्या के लिये वैभव छोड़कर विहार कर रहा हूँ । इसालेये मेरा उमने वह सत्कार किया जो शायद ही किसी श्रमण ब्राह्मण को मिलता है। अपने अन्तःपुर मन्त्रीवर्ग:
और सचिव वर्ग, नगर का श्रीमन्तवर्ग और. :योद्धावर्ग को लेकर ''वह मेरी वंदना को आया । मेरे चारों तरफ़ इतने महर्द्धिक आदमी इकठे होगये कि साधारण जनता मेरे पास आने का साहस न दिखलासकी। ........ .. .. :
राजाने मुझसे अनुरोध किया कि मैं इसी नगरी में चौमासा करूं । मेने वचन तो नहीं दिया, ऊपर से इतना ही कहां । कि समय आने पर देखा जायगा। पर भीतर ही भीतर यह इच्छा थी ही कि यहां चातुर्मास करने से सब तरह का सुभीता रहेगा। खैर ! मैं यहां रहने लगा। नगर में सन्मानं, बहुत था और चूंकि बड़े बड़े महर्द्धिक मेरा सन्मान करते थे इसलिये मुझे देखते ही सारा नगर डर जाता था। मेरे ज्ञान में अनुराग किसी को न था और अभी मैंने वह ज्ञान पूरी तरह प्राप्त भी नहीं किया था जिसका सन्देश दुनिया को ,, मैं तो राजगीर या राजर्षि के नाम से.पुजरहा था।
.. पुजना या सत्कार पाना किसे बुरा लगता है फिर भी इसके बारे में संयम और विवेक की आवश्यकता है। जैसे विवाह