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महावीर का अन्तस्तल
करना पड़ता था मानों मेरी सासूजी मरी हो और देवी की माताजी मरी हों। रात में तथा समय निकाल कर दिन में भी मुझे देवी को सान्त्वना देने का काम करना पड़ता था ।
.: मेरे पास से जो समय बचता, वह देवी भाभीजी के पास बितातीं। ऐसा भी मालूम हुआ कि वे भाभी के सामने दो। चार बार भैया से भी कुछ कह चुकी हैं । भैया के मुंह से निकले. हुए ये शब्द तो एक बार मेरे भी कान में पड़गये थे कि मैं क्या. पागल हूं, ऐसा कैसे होने दूंगा। . . . आज शाम को भाईजी से कुछ चर्चा होगई । मैंने कहाभाईजी ! आपको मालूम है कि मेरी रुचि गृह संसार में नहीं है. आपके काम में भी कोई सहायता नहीं कर पाता हूं जो काम मेरे . करने के लिये पड़ा है असके लिये निष्क्रमण करना जरूरी है। मैं सोच रहा हूं कि अगले महीने में..........। . .. मैं बात पूरी भी न कर पाया कि भाईजी ने मेरे मुंह पर 'हाथ रख दिया और बोल-वस ! बस ! भैया, बहुत कठोर मत बनो। मैं मानता हूं कि तुम बड़े ज्ञानी हो, महात्मा हो, तुम्हारा अवतार घर गृहस्थी की छोटी झझटों में बर्बाद होने के लिये नहीं हुआ है। तुम धर्म चक्रवर्ती तीर्थकर बनने वाले हो, तुम सारे संसार के लिये दया के अवतार हो, पर सारे संसार पर दया करने के पहिले अपने इस दुखी भाई पर भी दया करो। एक ही महिने में पिताजी और माताजी का वियोग हुआ। सिर पर से उनकी छाया क्या हटी, मालों घर का छप्पर ही झुढगया। यों ही सूना सूना घर मुझे खाये जारहा है, अब अगर तुम भी इसी समय चले गये तव तो मुझे पागल होकर धर छोड़ देना पड़ेगा।
भाईजी ने अपनी वात ऐसे व्यवस्थित ढंग से कही मानों उसकी तैयारी उनने पहिले कर रखी हो । उनका तर्क