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महावीर का अन्तस्तल
रुलाई का पूर कुछ कम होने पर मैंने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा- देवी क्या तुम समझती हो कि मैं तुमसे रुष्ट हूँ ?
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देवी ने सिर उठाया । उनकी आंखें आंसुओं से भरी हुई थीं । कुछ क्षण उनने गला साफ करने की चेष्टा की पर गला भरा ही रहा । तब वे रुंधे गले से ही बोलीं- आप महान है, आपको समझने की शक्ति मुझमें नहीं है, इसलिये नहीं कह सकती कि आप रुष्ट हैं कि नहीं ? फिर भी इतना जानती हूं कि आपको रुट होने का अधिकार है। मैंने आपकी साधना में कभी हाथ नहीं बढाया । जानती हूँ कि आपका मन किधर है, फिर भी उस दिशा में बढ़ने से मैंने आपको पीछे की ओर ही खींचा है, आपकी साधना के मार्ग में कंटीली झाड़ीसी बनकर खड़ी होगई हूँ और उसीका भयंकर और असह्य दण्ड मुझे आपकी ओर से मिल रहा है |
मैंने कहा - भूलती हो देवि ! मेरी साधना से तुम्हें वेदना पहुंच रही है, इतना मैं समझता हूं। पर मैं तुम्हें दण्ड दे रहा हूं यह तुम्हारा भ्रम है । मेरी साधना संसार पर अहिंसा की है, दया की है। मैं तुम्हें तो क्या एक कीड़ी को भी दंड नहीं देना
चाहता ।
देवी - पर जहां तक मैं समझती हूं. संसार के सन्त महंतों ने नारी की पर्वा कीड़ी बराबर भी नहीं की है। कम से कम पत्नी के रूप में तो नहीं ही की है ।
मेरे चेहरे पर मुसकुराहट आगई और मैंने मुसकराते हुए कहा- फफोले फोड़ रही हो देवी ।
देवी ने मुझसे कुछ कम मुसकराते हुए कहा - मैं ठीक कर रही हूं देव !
मैं तुम्हारा कहना निराधार नहीं है, पर है एकान्तवाद | Raina में आंशिक तथ्य होसकता है, पर उसे सत्य नहीं