________________
महावीर का अन्तस्तल
३३]
mom
भी कुछ न बोली; पर उनके चेहरे से पता लग रहा था कि वे
कुछ कहना चाहती हैं । मैं भी सुत्सुकता से उनके मुँह की तरफ - इस तरह देखता रहा मानों में कुछ सुनना चाहता हूँ।
.. बड़े संकोच से और धीमे स्वर में सुनने कहा आपके प्रयत्न से अवश्य ही दुनिया के बहुत से दुःख दूर होंगे पर प्रकृति ने ही प्राणी को क्या कुछ कम कष्ट दे रक्ख है ? उनका क्या होगा ?
मैंने कहा मेरे प्रयत्न से ही दुनिया के सब पाप दूर न होजायेंगे, और प्राकृतिक कष्ट भी बने रहेंगे, फिर भी मनुप्य को उनसे बचाया जासकता है, और यह सब होसकता है मनुप्य को जीवन्मुक्त बनाकर ! जीवन्मुक्ति, मुक्ति गा मोक्ष का पाठ भी मनुष्य को देना है। सम्भव है, यह मोक्ष ही मनुष्य के सब दुःखों पर विजय पाने का अमोघ और अन्तिम अस्त्र हो।
देवी कुछ देर चुप रही फिर मुसकुराई, फिर उनने हँसते हुए कहा-ठीक है, मोक्ष का ही पाठ पढ़ाइये ! और इसके लिये पहली शिष्या मुझे बनाइये।
दर्वा को बुरा न लगे, इसलिये उत्तर में मैंने भी हँसदिया: पर घह हँसी अधिक समय तक टिक न सकी । मैने गम्भीर मा होकर कहा-मोक्ष का पाठ पढ़ाने के पहिले तो मुझे मोक्ष प्राप्त करना होगा और उसकी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना होगा। मुक्त ही मुक्ति का पाठ पढ़ा सकता है, दूसरों को मुक्त बना सकता है।
दर्वा कुछ समय चुप रहीं, फिर बोलीं-अच्छा है मुक्ति का अभ्यास कीजिये ! मैं मुक्ति साधक की सेवा करके ही अपने को कृतकृत्य समझूगी।