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महावीर का अन्तरतल
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माताजी मेरे मुंह की तरफ देखती रहगई । मैंने कहाठीक ही कहता हूं मां ! उदासीन का अर्थ है उत्-आसीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ । जो जितना ज्यादा अदासीन अर्थात् ऊपर बैठा हुआ है वह उतना ही अधिक देख सकता है । भूतल से जितने दूर का दिखाई देता है प्रासाद पर बैठकर देखने से अससे वहुत अधिक दिखाई देता है गिरिशृंग पर बैठने से उससे भी अधिक । जो जितना अधिक उदासीन वह उतना ही अधिक दृष्टा ।
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माताजी मेरी बातें सुनकर चकित तो होगई पर सन्तुष्ट न हुई । उनने सन्देह के स्वर में पूछा - पर उदासीन होने से चक्रवर्ती कैसे बन सकोगे बेटा !
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मैंने कहा- मुझे चक्रवर्ती बनने की जरूरत नहीं है मां, * चक्रवता वनकर भी मैं उन अपराधियों को दण्ड नहीं दे सकता जिनका उल्लेख अभी कर चुका हूं । रामचन्द्रजी चक्रवर्ती थे सम्राट् थे पर वे क्या कर सके ? एक शूद्ध के तपस्या करने पर उन्हें इच्छा न रहने पर भी उसका वध करना पड़ा । चक्रवर्ती लोगों के हृदयों पर शासन नहीं कर सकता, और हृदयपरि वर्तन तो उसके लिये असम्भव है । ऐसा चक्रवर्ती बनकर मैं क्या करूंगा ?
माताजी फिर बेचैन हुई पर वे ज्यादा कुछ न बोल सकीं, सिर्फ इतना ही कहा तो फिर ?
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मैने कहा- मुझे इसकेलिये बड़ी भारी साधना करना पड़ेगी मां, निष्क्रमण करना पड़ेगा, वर्षों तपस्या करना पड़ेगी, कल्याण का मार्ग बनाकर दुनिया को उसकी झांकी दिखाना पड़ेगी । एक महान् आध्यात्मिक जगत् की रचना करना पड़ेगी । माताजी कातर स्वर में बोलीं- यह ठीक है बेटा, तुम ! जगत् का कल्याण करोगे; सुरूका ताप हरोगे, पर क्या मां के
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