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महावी ( का अन्तस्तल
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६-- अधूरी सान्त्वना
२४ जिन्नी ६४२८ इतिहास संवत . आज जब मैं देवी के कक्ष में गया तो देखा कि देवी के मुखमण्डल की आभा कुछ बदली हुई है । हल्की सी निश्चितता का थानन्द सपर छाया हुआ है। माता जी को जो मने बचन दिया है, उसके समाचार वहां उसी समय आगये होंगे । इसलिये देवी ने स्वागत किया तो लच्चो मुसकुराहट के साथ।
मैंने भी मुसकुराहट के साथ कहा-आखिर तुम जीतगई - देवि! .
देवीने कहा- मैं क्या जीतती, मैं तो कभी की हार चुकी थी, जीत तो माताजी की हुई ?
. मैंने कहा- हां, रथ माता जी का और बाण तुम्हारे ।
देवी सिर नीचा किये मुसकुराती रही और अंगूठे से जमीन कुरेदती रही । तब मैन कहा-अगर तुम माताजी के पास न जाती तो भी काम चलता।
मैं खड़ा था, देवी भी खड़ी थी, मेरी बात सुनते ही देवी मेरे पैरों से लिपट गई और करुण स्वर में बोली-अपराध क्षमा
हो देव, नारी अपने सुहाग के लिय न जाने क्या क्या कर . डालती है, फिर माताजी तो माताजी हैं, ऐसे अवसर पर उनकी
शरण में जाने में मुझे क्या लाज आती ? मैं अपनी अन्तर्वदना . आपको कैसे दिखाऊ ? अगर हृदय चीर करके दिखाने की चीज होता तो मैं दिखा देती कि आपके मुंह से निष्क्रमण की बात