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महावीर का अन्तस्तल
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मैंने कहा-हां! .. शर्मा-बड़ी प्रसन्नता की बात है । पर दिग्विजय करने के वाद इस गरीव विष्णुशर्मा को न भूलियेगा।
मैं-सो तो न भूलूंगा पर मैं समझता हूँ कि मेरी दिग्विजय का फल चखने के लिये विष्णुशर्मा तैयार न होंगे।
शर्मा-ऐसा कौन मूर्ख होगा जो चक्रवर्ती की छत्रच्छाया से इनकार करदे । .
__ मैं-पर धर्म चक्रवर्ती की छाया में रहने को विरले ही तैयार होते हैं।
__शर्मा जी आश्चर्य से मुंह बाकर रहगये। थोड़ी देर स्तब्धता रही। किर उसने कहा-क्या धर्म-चक्र के द्वारा आप दिग्वि. जय करना चाहते है ? पर इससे क्या लाभ ? .
मैं-किसका लाभ ? मेरा या समाज का ?
शर्मा-आपका और समाज का भी । इसकाम में जीवन निकल जायगा पर सफलता न मिलेगी। जीवन भर कष्ट झुठाते रहना पड़ेगा तब आप को क्या लाभ हुआ! रही समाज की बात सो समाज तो कुत्ते की पूँछ की तरह है, वह कभी सीधीन होगी। देखिये न, वेद के निरर्थक क्रियाकांडों के विरोध में उपनिषत्कारों ने कैसे कैसे वाक्य लिखे, वेद को अपरा विद्या कह दिया, यज्ञ की आध्यात्मिक व्याख्या कर डाली पर यज्ञकांड तनिक भी नहीं घटे । समाज रूढ़ियों का दास वना ही हुआ है और हम लोग भी उस दासता से नहीं छूट पाते, छूटे तो भूखों मर जायँ। . .
मैं-पर अगर आप भूखों मरने की हिम्मत कर सकते तो भूखों भी न मरना पड़ता, इस दासता से भी छटते और समाज को भी छुड़ादेते।
कैसे कैसे वाया डाली पर यज्ञकाड
तालोग भी