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महावार । अन्तस्तल
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महापुरुप हैं । एसे महान् लोकोत्तर महापुरुष की पत्नी के गौरव के योग्य में नहीं हूँ । जब कभी मेरे दिल में ये विचार आते हैं तब अपनी क्षुद्रता का खयाल कर मैं सिकुड़ जाती हूं । फिर भी आपकी पत्ती नहीं तो आपकी दासी का स्थान सुरक्षित रखना चाहती है।
- यह कहकर देवी ने मुझे जोर से जकड़ लिया । उनके आंसुओं से मेरा वक्षःस्थल भींगने लगा।
आखिर आज भी बात अधूरी सी रही। मैं सान्त्वना देकर चला आया।
७-संन्यास और कर्मयोग
७-बुधी ६४२८ इ. सं. अय गर्मी ज्यादा पड़न लगी है, इसलिये आज शय्या प्रासाद के छतपर लगाई गई थी, देवी की शय्या भी अनतिदूर थी । पश्चिम में लालिमा नप्त होते ही म छतपर चला गया। सब लोग कामकाज में थे इसलिये छतपर एकान्त था और में एकान्त चाहता भी था । देवी ने तुरन्त सुपर्णा दासी को मजा किन्तु मैन ही उसे वापिस कर दिया। पर मेरे भाग्य में इससमय एकांत बदा ही न था, थोड़ी देर में जीने पर किसी के चढने की फिर आवाज आई । मैंने कहा-कौन ? सुपर्णा ? __ आवाज आई-सुपर्णा नहीं, विष्णुशर्मा ।
और आवाज के साथ अधेड़ उम्र के एक सज्जन आते दिखाई दिये। पास आकर उनने अपने ही आप कहना शुरू किया-माता जी से मालूम हुआ कि आप बड़े तत्वज्ञानी ह, इसलिये सोचा आपसे कुछ चर्चा करूं!
मैं-तो आप अभी माता जी के यहां से आरहे हैं ?