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हो और साथ ही गृहस्थ की धार्मिक व सामाजिक मर्यादाओं के भीतर उसका काम पुरुषार्थ भी सिद्ध होता रहे ।
काम पुरुषार्थ का अर्थ केवल कामाभिलाषा या इन्द्रियों के विषय भोग मात्र नहीं हैं। काम का फलक विशाल है। कामना, इच्छा, अभिलाषा, वांछा आदि सभी प्रकार की आस-अभिलाष 'काम' के अंतर्गत ही आती हैं। श्रावक की कामनाएँ ऐसी और इतनी ही हों, जो उसके धर्म को खण्डित न करें और अर्थ - व्यवस्था के भी अनुकूल हों। आय से अधिक व्यय की आदत या चाह ही मनुष्य के जीवन में सारे अनर्थों की जड़ बनती 1
५. तदर्हगृहिणी स्थानालयो
अच्छे कुल-शील वाली स्नेहमयी पत्नी, सदाचारी सभ्य जनों की संगति या सत्समागम और ऐसी ही अनुकूलताओं से युक्त निवास-स्थान, ये सारे संयोग श्रावक को त्रिवर्ग की निर्दोष साधना में बाह्य कारण बनते हैं। जिसे ये तीनों अनुकूलताएँ प्राप्त हैं, वह गृहस्थ भाग्यशाली है।
६. ह्रीमय :
श्रावक को लज्जाशील होना चाहिए। लज्जा केवल स्त्रियों का आभूषण नहीं, वह पुरुषों का भी अनिवार्य गुण है। वास्तव में गृहस्थ को पाप वृत्तियों से और लोकनिंद्य कार्यों से बचाये रखने में लोकलाज का बड़ा हाथ होता है। लोकनिन्दा का भय न हो तो मनुष्य को राक्षस बनते देर नहीं लगती । पथभ्रष्ट होते हुए व्यक्ति के धर्म और व्रत उसे प्रत्यक्ष रूप से तत्काल कोई दण्ड नहीं देते, परन्तु लोकलाज तात्कालिक भय दिखाकर उसे पाप से बचाने में सहायक होती है, इसलिए यहाँ पण्डितजी ने लज्जा को भी श्रावक का गुण बताया है।
७. युक्ताहारविहार – स्वास्थ्य के अनुकूल तथा शरीर में मल वृद्धि, रोग वृद्धि और प्रमाद वृद्धि
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जिससे न होती हो, ऐसे संतुलित और भक्ष्याभक्ष्य के विवेक से निश्चित किये गये परिमित आहार और धर्मानुसार आचरण तथा संचरण का नियम यहाँ 'युक्ताहारविहार' के द्वारा कहा गया है। भोजन शुद्धि के बिना मनः शुद्धि संभव नहीं और अमर्यादित आवागमन के रहते व्रतादि का निर्वाह संभव नहीं, इसलिए श्रावक के यह गुण होना आवश्यक है। ८. आर्यसमितिः
संत समागम और सत्संगति को 'आर्यसमिति' कहा गया है। सज्जनों की संगति से मनुष्य में सद्गुणों का विकास होता है और दुष्प्रवृत्ति वाले नीच लोगों की संगति में रहने से वैसी ही प्रवृत्ति बनती रहती है। आर्यसमिति सदाचार के निर्माण में और त्रिवर्ग की सिद्धि में सहायक बनती है।
९. प्राज्ञ:
हेय - उपादेय का विचार और आत्म-निरीक्षण 'प्राज्ञ' का अभिप्राय है। श्रावक को सदा यह विचार करते रहना चाहिए कि मेरी प्रवृत्ति जैसी हो रही है, उसका फल क्या है ? जो मैं करने जा रहा हूँ वह उचित है या नहीं ? मेरे लिए करणीय है या अकरणीय ? उससे राज्य के नियमों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा ? उससे किसी के स्वत्व का हरण या किसी की हिंसा तो नहीं हो रही ? वे कार्य स्वहित और परहित में कहाँ तक कारण बन सकेंगे ? और मैंने आज जो किया है, वह मेरे लिए कहाँ तक योग्य था ? उसका फल तो मुझे ही भोगना होगा । निरन्तर ऐसा चिन्तन गृहस्थ को 'श्रावक' बनाये रखने में सहायक होता है ।
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१०. कृतज्ञ:
जीवन में कृतघ्नता से बचते रहना और उपकारी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते रहना इस नियम का आशय है । कृतज्ञता मन को निर्मल बनाती है और वात्सल्य तथा प्रभावना आदि गुणों में सहायक होती है ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /10
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