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'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।' कायेन मनसा वासा सर्वे एवापि च देहिषु । (मनुस्मृति) जो कार्य तुम्हें पसंद नहीं है, उसे दूसरों के अदु:ख जननी वृत्ति मैत्री, मैत्री विदां मता ॥ लिए कभी मत करो।
काय, मन, वचन से सम्पूर्ण जीवों के प्रति ऐसा सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं,
व्यवहार करना, जिससे दूसरों को कष्ट न पहुँचे, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। इसीप्रकार के व्यवहार को मैत्री व्यवहार कहते हैं। माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ,
पूज्यपाद स्वामी ने भी विश्व कल्याण के लिए सदा ममात्मा विदधातु देव॥१॥
जो भावना के सूत्र/गान दिए हैं, वे निम्नप्रकार हैं(भावना द्वात्रिंशतिका)
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभुवतु हे भगवान् ! मेरा प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री भाव
बलवान्धार्मिको भूमिपालः। रहे, गुणिजनों में प्रमोद भाव रहे, दुःखीजनों के लिए
काले-काले च सम्यक् वर्षतु करुणाभाव रहे, दुर्जनों के प्रति माध्यस्थ भाव ।
मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।। (साम्यभाव) रहे। आत्मवत्परत्र कुशल वृत्ति चिन्तन
दुर्भिक्षं चौरमारिः क्षणमपि शक्तिस्त्याग तपसी च धर्माधिगमोयाः।
____ जगतां भास्म भूजीवलोके। (नीतिवाक्यामृतं) जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु । अपने ही समान दूसरे प्राणियों का हित
___ सततं सर्वसौख्यं प्रदायि॥१५॥ (कल्याण) चितवन, करना शक्ति के अनुसार पात्रों
(शान्ति भक्ति) को दान देना और तपश्चरण करना – ये धर्म प्राप्ति के उपाय हैं।
सम्पूर्ण प्रजा क्षेम/कुशल होवे, धार्मिक राजा “सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः।
(नेता) शक्ति सम्पन्न होवे, समय-समय पर इन्द्रदेव सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात् ॥”
(बादल) सुवृष्टि करे, रोग नाश को प्राप्त होवे, दुर्भिक्ष,
चोरी, डकैती, आतंकवाद, दुःख, कलह, अशान्ति एक सम्पूर्ण जीव जगत सुखी, निरोगी, भद्र, विनयी
क्षण के लिए भी इस जीव जगत् में न रहे। सब जीवों को सदाचारी रहे । कोई भी कभी भी थोड़े भी दुःख को प्राप्त
सुख प्रदान करने वाले जिनेन्द्र भगवान का धर्मचक्र न करे।
(क्षमा, अहिंसा, दया, सत्य, मैत्री, संगठन आदि) सतत् शिवमस्तु सर्वजगतः परहित निरता भवन्तु भूत गणाः। प्रवर्तमान रहें। दोषा प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।।
यस्तु सर्वाणि भूतानि, आत्मन्येवानुपश्यति। सम्पूर्ण विश्व मंगलमय हो, जीव समूह परहित
सर्वभूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते ।। में निरत रहें, सम्पूर्ण दोष विनाश को प्राप्त हो जावें, लोक में भी सदा सर्वदा सम्पूर्ण प्रकार से सुखी रहें।
(उपनिषद्) मा काषीत् कोऽपि पापानि, माचभूत कोपि दुःखितः।
जो अतनिरीक्षण के द्वारा सब भूतों (प्राणियों) मुच्चता जगदव्येषां, मति मैत्री निगद्यते ।।
को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा ___ कोई भी पाप कार्य को न करें, कोई भी दुःखी का सब भूता म, वह फिर किसा से घृणा नहा करता है। न रहे, जगत् दुःख-कष्ट-वैरत्व से रहित हो जावे, ॐ शान्तिः ! ॐ शान्तिः !! ॐ शान्तिः !!! इसीप्रकार की भावना को मैत्री भावना कहते हैं। यह मंत्र/गीत/श्लोक प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ एवं
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/5
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