Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 264
________________ कुछ चोरों के पकड़े जाने के बाद जो चोरी के आज यह भी विडम्बना देखने में आ रही है कि कारण सामने आए, वो इसप्रकार हैं - पुराने जीर्ण- जो मंदिर जंगलों/गाँवों से चोरी होती है उनके लिए शहरी शीर्ण दरवाजे, पुराने ताले, लोगों का दोनों समय कम समाज के अन्दर कोई चिन्गारी नहीं भड़कती है। जैसे आना-जाना, बूढ़े चौकीदार-व्यास-माली, मंदिर में गाँवों-तीर्थों-जंगलों की मूर्ति-मंदिरों से इनका कोई प्रवेश करने वालों पर दृष्टि नहीं, दिन में मंदिर में किसी सरोकार ही नहीं है। क्या वो हमारे आराध्य नहीं हैं या का नहीं रहना और मात्र दरवाजे लटके रहना, अपरिचित ऐतिहासिक महत्व नहीं रखते। क्या उनकी सुरक्षा करना मजदूरों, बढ़ई, पेन्टर, कारीगर, बिजली, मिस्त्री आदि मात्र उन्हीं गाँवों वालों की/तीर्थकमेटी वालों की है। का मंदिर में आना, मंदिरों में लम्बे समय तक ताले डले अन्ततोगत्वा गाँव वालों की तीर्थकमेटी वालों की संख्या रहना, समाज के घर के अभाव में, मंदिरों के आस- कम होने से प्रशासक पर अपना दबाब नहीं बना पाते पास किसी का नहीं रहना, सूनापन बना रहना, हैं और लम्बी प्रक्रिया से जूझ नहीं पाने से मर्ति आदि चौकीदार-माली-व्यास को बहुत कम वेतन देना, चोरों मिलते नहीं हैं। पुलिस प्रशासन बिना कार्यवाही के मात्र को बहुत कम सजा मिलना, सजा का भय न होना। आश्वासन देते रहते हैं, क्योंकि उनके पास अनेकों कार्य जैनियो जागो !!! श्रमण संस्कृति प्राचीन संस्कृति होते हैं। बिना अच्छे दबाब के वो अन्वेषण ही नहीं है। सर्वोदयी, सर्वजनहिताय, अहिंसामयी, नर से करते हैं। ऐसा पुलिस वालों से ही पता चला है। नारायण. प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनाने की संस्कति । सबसे बड़ी विडम्बना तो तब होती है कि शहरों है। ऐसी परमोपकारी संस्कृति के आराधना स्थल, में एक मंदिर में चोरी होती है तो दूसरे मंदिर वाले या आराध्य देव लुट रहे हैं और फिर भी हम सो रहे हैं। कालोनी वाले उनके आन्दोलनों में भाग तक नहीं लेते। अपने संसार के कार्यों में मशगूल हैं। नेतागिरी में, मात्र अपने मंदिरों तक सीमित रहने की सोच संस्कृति राजनीति में, पंथ व्यामोह में, गुटबाजी में, भेदभाव में, के लिए खतरनाक है। ध्यान रहे किसी भी मंदिर की मौजमस्ती में लगे हुए हैं। क्या ऐसे लोगों को सच्चा चोरी से हमारा इतिहास तो मिटता ही है एवं श्रद्धा टूटती श्रद्धान कहा जा सकता है ? क्या वो जैन कहला सकते । है। भक्ति नष्ट होती है, क्योंकि प्रत्येक मूर्ति साक्षात् हैं ? क्या वो देव-शास्त्र-गुरु के भक्त कहला सकते जीवित भगवान है उनकी प्राण-प्रतिष्ठा जो होती है। हैं ? विगत दिनों हुई जनसंख्या गिनती में जैनसमाज कोई पाषाण या धातु मात्र की नहीं है। अत: चोरी के को शत-प्रतिशत शिक्षित पाया गया। किन्तु निष्क्रियता समाचार सुनते ही अपने भगवान को बचाने के लिए से संस्कृति के आधार जिनबिम्बों की चोरी होना हमारी कदम नहीं उठाते हो तो आपका धर्म आप से पूछेगा शैक्षणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। कि तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति समर्पण का क्या औचित्य है? हमारे तीर्थंकर क्षत्रिय थे और हम उनके भक्त उठो, जागो, एकता संगठन के साथ आगे भले क्षत्रिय नहीं हैं, अपने आराध्य की भी रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें फिर अपने नाम के साथ जैन लिखने ___ बढ़ो! जहाँ-जहाँ पर जागृति एवं संगठनात्मक प्रक्रिया पर विचार कर लेना चाहिए या फिर अपने आपको पुरुष दिखाई गई, वहाँ पर मूतियाँ मिली है। चोरी से बचने मानने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। चोरी पर चोरी हो न के लिए लम्बे समय की खोजबीन से पता चला कि रही हैं, किन्तु सुरक्षा के कोई बन्दोबस्त नहीं किए जा यदि निम्नलिखित उपाय शीघ्र कर लिए जाएँ तो ९५% रहे हैं। यहाँ तक की संगठित होकर प्रशासन पर भी कोई से ९९% तक चोरियाँ रुक सकती हैं - दबाब नहीं बना रहे हैं। नेतृत्व के अभाव में अयोजनाबद्ध १. प्रत्येक मंदिर में जीर्ण-शीर्ण दरवाजे खिड़की आन्दोलन कर शक्ति को नष्टकर शान्त बैठ जाने वालों हों तो बदले जावें। को और क्या माना जा सकता है। २. प्रत्येक मंदिर के प्रत्येक दरवाजों में इन्टरलॉक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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