Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 2007
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 268
________________ मानसिकता दो धाराओं में विभक्त रही है। एक धारा कहती है कि जीवन सत्य है और हमारा कर्तव्य यह है कि हम बाधाओं पर विजय प्राप्त करके जीवन में जय लाभ करें एवं मानव- -बन्धुओं का उपकार करते हुए यज्ञादि से देवताओं को भी प्रसन्न करें, जिससे हम इस और उस, दोनों लोकों में सुख और आनन्द प्राप्त कर सकें। किन्तु दूसरी धारा की शिक्षा यह है कि जीवन नाशवान है। हम जो भी करें, किन्तु हमें रोग और शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, न मृत्यु से हम भाग सकते हैं। हमारे आनन्द की स्थिति वह थी, जब हमने जन्म नहीं लिया था। जन्म के कारण ही हम वासनाओं की जंजीर में पड़े हैं। अतएव हमारा श्रेष्ठ धर्म यह है कि उन सुखों को पीठ दे दें, जो हमें ललचा कर संसार बाँधते हैं। इस धारा के अनुसार मनुष्य को घर-बार छोड़कर संन्यास ले लेना चाहिए और देह - दंडनपूर्वक वह मार्ग पकड़ना चाहिए, जिससे आवागमन छूट जाय । अनुमान यह है कि कर्म और संन्यास में से कर्म तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में से प्रवृत्ति के सिद्धांत प्रमुख रूप से वैदिक हैं तथा संन्यास और निवृत्ति के सिद्धांत अधिकांश में प्राग्वैदिक मान्यताओं से पुष्ट हुए होंगे। किन्तु, आश्चर्य की बात है कि भारतीय अध्यात्म शास्त्र और दर्शन पर जितना प्रभाव संन्यास और निवृत्ति का है, उतना प्रभाव कर्म और प्रवृत्ति के सिद्धांतों का नहीं है। अथवा आश्चर्य की इसमें कोई बात नहीं है। ऋग्वेद के आधार पर यह मानना युक्तिसंगत है कि आर्य पराक्रमी मनुष्य थे। पराक्रमी मनुष्य संन्यासी की अपेक्षा 'कर्म को अधिक महत्व देता है । दुःखों से भाग खड़ा होने के बदले वह डटकर उनका सामना करता है। आर्यों का यह स्वभाव कई देशों में बिल्कुल अक्षुण्ण रह गया । विशेषतः यूरोप में उनकी पराक्रम-शीलता पर अधिक आँच नहीं आयी । किन्तु कई देशों की स्थानीय संस्कृति और परिस्थितियों ने आर्यों के भीतर भी पस्ती डाल दी एवं उनके मन को आर्यों की वैदिक संस्कृति के चारों ओर अपना जो विशाल जाल फैला Jain Education International दिया, उसे देखते हुए यह सूक्ति काफी समीचीन लगती है कि 'भारतीय संस्कृति के बीच वैदिक संस्कृति समुद्र टापू के समान है।' वैदिक और आगमिक तत्त्वों के बीच संघर्ष, कदाचित् वेदों के समय भी चलते होंगे, क्योंकि आगम हिंसा के विरुद्ध थे और यज्ञ में हिंसा होती थी । इस दृष्टि से जैन और बौद्ध धर्मों का मूल आगमों में अधिक, वेदान्त में कम मानना चाहिए। हाँ, जब गीता रची गयी, तब उनका रूप भागवत आगम का रूप हो गया। सांस्कृतिक समन्वय के इतिहास में भगवान कृष्ण का चरम महत्व यह है कि गीता के द्वारा उन्होंने भागवतों की भक्ति, वेदान्त के ज्ञान और सांख्य के दुरूह सूक्ष्म दर्शन को एकाकार कर दिया । कदाचित् महाभारत के पूर्व तक अक्षुण्ण रहा था। आर्यों का उत्साह और प्रवृत्तिमार्गी दृष्टिकोण, महाभारत की हिंसा ने भारत के मन को चूर कर दिया । वहीं से शायद यह शंका उत्पन्न हुई कि यज्ञ सद्धर्म नहीं है और जीवन का ध्येय सांसारिक विजय नहीं, प्रत्युत मोक्ष होना चाहिए। महाभारत की लड़ाई पहले हुई, उपनिषद् कदाचित् बाद को बने हैं। करने की प्रेरणा कर्मठता से आती है, प्रवृत्तिमार्गी संसार को सत्य मानकर जीवन के सुखों में वृद्धि विचारों से आती है। इसके विपरीत, मनुष्य जब मोक्ष को अधिक महत्व देने लगता है, तब कर्म के प्रति उसकी श्रद्धा शिथिल होने लगती है। मोक्ष-साधना के साथ, भीतर-भीतर यह भाव भी चलता है कि इन्द्रियतर्पण का दंड परलोक में नरकवास होगा। यह विलक्षण बात है कि वेदों में नरक और मोक्ष की कल्पना प्रायः नहीं के बराबर है। विश्रुत वैदिक विद्वान डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने लिखा है – 'बहुत से विद्वानों को भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि वैदिक संहिताओं में मुक्ति अथवा दुःख शब्द का प्रयोग एक बार भी हमको नहीं मिला ।' अन्यत्र उन्होंने यह भी लिखा है कि 'नरक शब्द ऋग्वेद संहिता, शुक्ल यजुर्वेद - वाजसनेयिमहावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/12 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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