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प्राप्त भाव - श्रुतज्ञान का आलम्बन बना कर हमारे आचार्यों मनीषियों ने केवल आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक शास्त्रों की रचना अनेकों विषयों पर करके जैन दर्शन को विश्व दर्शन का गौरव दिलाया था। सोने के चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध इस पवित्र भारत भूमि पर समयसमय पर अनेकों विदेशी यात्री आये और हमारी पाण्डुलिपियों को सात समुद्र पार विदेश ले गये। हमारी सुरक्षा, संरक्षण के अभाव में कितने ले गये उसकी गणना तो नहीं की जा सकती है फिर भी विभिन्न खोजों के आधार पर एकत्रित सामग्री प्राप्त की है, उस आधार पर विक्रम सम्वत की पांचवी सदी में चीनी यात्री फाहयान भारत आया, वह १५२० ताडपत्र पर लिखित पाण्डुलिपियों को ले गया । विक्रम सम्वत् की सातवीं में चीनी यात्री हुएनसांग प्रथम बार १५५० ग्रन्थ तथा दूसरी बार २१७५ ग्रन्थ अपने साथ ले गया। इसके बाद सन् ४६४ में २५५० ताडपत्र पाण्डुलिपियों को ले गया। जर्मनी में ५००० पुस्तकालय हैं, वर्लिन के केवल एक ही पुस्तकालय में १२००० हस्तलिखित ग्रन्थों की गणना में अधिकांश जैनग्रन्थ हैं, अमेरिका वांशिगटन के एक ही पुस्तकालय में २० हजार ग्रन्थ हैं उनमें से अधिकांश जैन ग्रन्थ हैं। लन्दन शहर के एक ही पुस्तकालय में २० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। फ्रांस में पेरिस स्थित विब्लियोथिक नामक पुस्तकालय में १२ हजार ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत भाषा के जैन ग्रन्थ हैं। रूस के एक राष्ट्रीय पुस्तकालय में १२ हजार भारत से गये हुये हैं। इटली में ६००० ग्रन्थ प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के भारत से गये हुये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का पंचास्तिकाय ग्रन्थ का फारसी अनुवाद हुआ था वह भी आज भारत में न होकर विदेशों में है । आचार्य शर्ववर्म प्रणीत कातंत्र व्याकरण का भाटे भाषा में अनुवाद एवं उसी पर २७ प्रकार की टीकाऐं लिखी हुई हैं उनका भूटान, तिव्वत, वर्मा लंका में आज कल अध्ययन होता है। आज गन्धहस्तिमाहभाष्य जैसे अनुपम अद्वितीय ग्रन्थ के अस्तित्त्व का यूरोप के किसी
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भण्डार में रहने का संकेत मिल रहा है। जिस ग्रन्थ को प्राप्त करने के लिये २ लाख का इनाम घोषित हुआ है। हमें विदेशों से शिक्षा लेनी चाहिये कि हमारी अमूल्य धरोहर को प्राचीन पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण कर उनके प्रकाशन की व्यवस्था करनी चाहिये। जैसा की विदेशों के लोग इसमें रुचि ले रहे हैं। हम जाग्रत होकर इन शास्त्र भण्डारों की अमूल्य निधि को प्रमाणिक अक्षम भण्डार के रूप में सुरक्षित करने के लिये सम्पूर्ण अपेक्षावृत्ति को छोड़ उनके संरक्षण करने का प्रयास करें। अन्यथा दीमक, चूहे, एवं मौसम का दुष्प्रभाव इन भण्डारों की ज्ञाननिधि को समाप्त कर देगा और हम मातृविहीन हो जायेंगे ।
जिस प्रकार जैन पाण्डुलिपियों पर रोमांचकारी अत्याचार हुऐ हैं। वैसे ही जैन मन्दिरों, मूर्तियों, स्मारकों, स्तूपों पर खूब जुर्म ढाये गये हैं। बड़े-बड़े जैन तीर्थ मन्दिर, स्तूप और मूर्ति भंजकों ने धराशायी किये हैं। अफगानिस्तान, कश्मीर, सिन्धु, विलोचिस्तान, पंजाब, तक्षशिला तथा बंगलादेश आदि प्राचीन संस्कृति के बहुमूल्य क्षेत्रों में विनाश की लीलाऐं चलती रही हैं। प्रथम जैन मन्दिर का विध्वंश सन् १०३५ में वाराणसी में हुआ। जिसको श्री निभालितिगन ने लूटा। मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्धीन ऐवक ने सन् १९९४ में आक्रमण किया। मुसलमान इतिहासकार लिखते हैं कि बनारस में १००० मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया एवं उसकी सम्पत्ति व बनारस की लूट का सामान १४०० ऊंटों पर लाद कर ले गये । इतिहासकार श्री कुवेरनाथ शुक्ल लिखते कि सन् १४९४ से १४९६ तक सिकन्दर लोदी पुनः मन्दिरों को वरवाद करता रहा। एक हस्तलिखित ग्रन्थ जिसका नाम सामायिक नित्य प्रतिक्रमण पाठ है उसका सन्दर्भ देकर बतलाया है कि १५६२ में भेलपुर में पार्श्वनाथ मन्दिर था वह मन्दिर १४९४ से १४९६ में नष्ट किया गया फिर १५६२ में उसे पुनः बनाया गया। अनेकों जैन मूर्तियों, मन्दिरों गुफाओं शिलालेखों आदि को बौद्धों का बना लिया महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/26
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