Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीरजयन्ती
स्मारिका 2007
स्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पदमपुरा, जयपुर प्रकाशक
अंक राजस्थान जैन सभा
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर सम्वत् 2533 भगवान महावीर का 2606 वाँ जयन्ती समारोह महावीर जयन्ती स्मारिका
200
239
प्रबन्ध सम्पादक श्री जय कुमार गोधा
अक
प्रधान सम्पादक श्री डॉ प्रेमचन्द रांवका
44
संयुक्त प्रबन्ध संपादक
श्री सुरेश बज श्री दर्शनकुमार बाकलीवाल
सम्पादक मण्डल डॉ. जिनेश्वरदास जैन श्री महेशचन्द चांदवाड
परामर्शदाता
श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला
GिE
प्रबन्ध मण्डल श्री निर्मल कुमार कासलीवाल, श्री रविन्द्र कुमार बैनाड़ा श्री अमरचन्द छाबड़ा (चन्दलाई वाले),श्री कैलाशचन्द सौगाणी श्री राजेन्द्र कुमार लुहाडिया, श्री सुनील कुमार बक्क्षी, श्री कुंथी लाल जैन श्री रमेशचन्द ढोलिया, श्री राकेश छाबड़ा, श्री कांती कुमार सेठी, श्री सुभाष गोधा
प्रकाशक कमल बाबू जैन
मंत्री
सभा
राजस्थान जैन सभा, जयपुर
(रजिस्ट्रेशन नं. 195/70-71) चाकसू का चौक, चाकसू का मन्दिर, जौहरी बाजार, जयपुर फोन : 2570511
Jamcuucatiommentional
FT PAVALE & Personal use only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमः श्री वर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानाम् त्रिलोकानाम् यद्विद्या दर्पणायते॥
श्री वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार हो, जिन्होंने समस्त कर्ममल को धो डाला है, एवं जिनके दिव्यज्ञान में दर्पण की भाँति आलोकाकाश सहित तीनों लोक एकसाथ झलकते हैं।
HainEmahiestha
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ORDS.0000000
महामंत्र णमोकार णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उबझायाण णमो लोएसव्व साहूर्ण एसो पंच णमोयारो सव्व पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं॥
IC
महावीर जवती स्मारिका 2007
national
Fol POVSE
D
O
mandariorg
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर जयन्ती के अ
PRIOR
सेठी परिवार की ओर से भगवान महावीर के चरणों
में शत्-शत् नमन्
सोहनलाल सेठी प्रमुख समाज सेवी एवं बिल्डर्स
अमराव देवी सेठी धर्मपत्नी सोहनलाल सेठी
नरेन्द्र सेठी पुत्र श्री सोहनलाल सेठी
रत्न व्यवसायी
निर्मला सेठी धर्मपत्नी नरेन्द्र सेठी
संगीता सेठी धर्मपत्नी स्व. श्री सुरेन्द्र सेठी
संचय सेठी पुत्र स्व. श्री सुरेन्द्र सेठी
जिनेन्द्र सेठी सुपुत्र नरेन्द्र सेठी
स्वाती सेठी धर्मपत्नी जिनेन्द्र सेठी
समीक्षा सेठी पुत्री जिनेन्द्र सेठी
नव्य सेठी पुत्र श्री जिनेन्द्र सेठी
मै. पद्ममिनि एन्टरप्राईजेज प्रा. लि.
(बिल्डर एवं डवलपर्स) ए-81, अत्रे पथ, श्याम नगर, जयपुर फोन : 2296069, 2296074
2615044,3945225
मै. सेठी ज्वैलर्स
(रत्न व्यवसायी) जयपुर फोन : 2565727, 2570733
3945225
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान जैन सभा
चाकसू का मंदिर, जौहरी बाजार, जयपुर-302 003 राजस्थान जैन सभा समाज से विनम्र अपील करती है कि निम्नांकित बिन्दुओं का दृढ़ता से पालन कर समाज की एकता का परिचय दें
जीमन में कम से कम व्यंजन परोसे जावें, परन्तु सब मिलाकर कुल व्यंजन बीस से अधिक न हों। इसके अन्तर्गत निम्न 10 बातों का ध्यान रखना जरूरी है(अ) व्यंजनों की संख्या में जल को नहीं जोड़ा जायेगा। (ब) सलाद की वस्तुएँ, ककड़ी, मिर्च, टमाटर, नींबूआदि को एक ही माना जायेगा।
मूंग, मोठ, चना आदि इन्हें अलग-अलग माना जायेगा। प्रत्येक किस्म के आचार को अलग-अलग माना जायेगा। मीठी चटनी व हरी चटनी को दो आइटम माना जायेगा।
तवे की सब्जी के अन्तर्गत तवे पर जितने प्रकार की सब्जी होगी, उन्हें उतनी ही मानी जायेंगी। (ल) यदि कई फलों के अलग-अलग ज्यूस बनाये गये हैं तो उन्हें अलग-अलग ही माना जायेगा। (व) ठंडाई-शरबत आदि को अलग-अलग माना जायेगा। (श) रोटियाँ/पूड़ियाँ जितनी भी प्रकार की बनाई जायेंगी, उन्हें अलग-अलग आईटम माना जायेगा।
(ह) माबे की या बंगाली अथवा आगरे के पेठे से निर्मित सभी मिठाईयाँ अलग-अलग मानी जायेंगी। 2. निमंत्रण-पत्र मितव्ययी हो और उन पर सूर्यास्त के बाद भोजन की व्यवस्था नहीं है'
अंकित किया जाना चाहिए। 3. निकासीव फेरे दिन में ही आयोजित किए जाने चाहिए। 4. मांगलिक एवं सामाजिक समारोहों के अवसर पर आयोजित भोज दिन में ही आयोजित किए जाने चाहिए। 5. मृत्युभोज नहीं किया जावेतथा घड़ों के अवसर पर बर्तन आदि वितरण नहीं किये जावें। 6. सगाई-विवाहादि कार्यक्रम सादगी से संपन्न हों तथा सजावट में मितव्ययता बरती जावे। 7. दहेज की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष न तो माँग करें और न ही विवाह के अवसर पर प्राप्त वस्तुओं का प्रदर्शन करें। 8. निकासी के अवसर पर ट्विस्ट नहीं करें। 9. व्रत व उपवास के उद्यापन पर एवं जिनेन्द्र भगवान की माल के पश्चात् बर्तन आदि वस्तुओं का वितरण नहीं करें और न
हीस्वीकार करें। 10. हिंसक सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग नहीं करें। 11. परस्पर अभिवादन में जय जिनेन्द्र बोलें। 12. डाक अथवा कोरियर से प्राप्त निमंत्रण पत्र को मान्यता देदें। 13. कीड़ों से निर्मितरेशमी वस्त्रों का त्याग करें।
Educatio
n
al
Perando
www.jainelibraryana
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
पदाधिकारीगण
श्री महेन्द्र कुमार जैन पाटनी
अध्यक्ष
श्री प्रेम चन्द छाबड़ा
उपाध्यक्ष
श्री कैलाश चन्द साह
उपाध्यक्ष
श्री कमल बाबू जैन
मंत्री
श्री शांति कुमार गोधा
संयुक्त मंत्री
श्री प्रकाश अजमेरा संयुक्त मंत्री
श्री अरुण कोड़ीवाल
कोषाध्यक्ष
BJain Education inteburnimal
For Private & Personal use only
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
कार्यकारिणी सदस्यगण
श्री रतनलाल छाबड़ा
श्री प्रकाचन्द ठोलिया
श्री भागचन्द छाबड़ा
श्री विजय कुमार सौगानी
श्री जय कुमार गोधा
श्रीमती स्नेहलता साह
श्री सुधीर बाकलीवाल (लाली)
श्री राजेन्द्र कुमार हाड़ा
श्री कुन्थीलाल जैन
श्री निर्मल कुमार कासलीवाल
श्री मनोज पापड़ीवाल
श्री मनीष बैद
श्री रमेशचन्द चाँदवाड़
श्री राकेश छाबड़ा
श्रीमती विमला पापड़ीवाल
श्रीमती शकुन्तला गोधा
श्री सुरेन्द्र मोहन जैन
श्री वीर बहादुर बज
Sawantedication-international
For Private & Personalit
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेष आमंत्रित सदस्यगण
श्री गणेश राणा
श्री विवेक काला
श्री राजेन्द्र के. गोधा
श्री सुमेर कुमार पाण्ड्या
श्री सुभाष गंगवाल
श्री कैलाशचन्द सौगानी
श्री सुमेरचन्द रांवका
श्री अनिल जैन
श्रीमती आभा जैन
श्री संजीव जैन
श्री अरुण काला
श्री पदमचन्द पाटनी
श्री निर्मल कुमार पाटनी
श्री धन कुमार लुहाड़िया श्री महावीर प्रसाद पहाड़िया श्री कैलाशचन्द गोधा
श्री योगेश कुमार टोडरका श्री महावीर कुमार बिन्दायका
श्रीमती कुसुम बज
श्री सरदारमल सौगानी श्री दर्शन कुमार बाकलीवाल
श्री नरेन्द्र कुमार सेठी
श्री हंसराज जैन
श्री राकेश तोतूका
श्री भारत भूषण जैन
श्री विनोद जैन कोटखावदा
www jainelibrary.org
For Private &Persuase only
in Education International
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्मारिका प्रकाशन के
स्तम्भ
श्री महेन्द्र कुमार जैन पाटनी
अध्यक्ष
श्री कमल बाबू जैन
श्री ज्ञान चन्द बिल्टीवाला
परामर्शदाता
मंत्री
डॉ. प्रेम चन्द रांवका प्रधान सम्पादक
श्री जय कुमार गोधा प्रबन्ध सम्पादक
lan Education
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
भजन संध्या की मुख्य अतिथि श्रीमती विमलाजी सोनी को प्रतीक चिह्न भेंट करते हुए सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी,
मंत्री कमल बाबू जैन, संयोजकगण श्रीमती शकुन्तला गोधा, श्रीमती स्नेहलता साह एवं श्री सरदारमल सौगानी
भक्ति संध्या राजस्थान जैव सभा
भक्ति संध्या में कार्यक्रम प्रस्तुत करती हुई महावीर महिला मंडल की सदस्यायें
गुजरथात नेतरामा तयार
याप
महावीर जयन्ती के असवर पर
आयोजित कवि सम्मेलन में मंच पर विराजित कवि गण
कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि श्री गणेशकुमारजी राणा को
स्मृति चिह्न भेंट करते हुए सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी, मंत्री कमल बाबू जैन,
श्री राजेन्द्र के. गोधा, उपाध्यक्ष कैलाशचंद साह, संयोजक शान्ति कुमार गोधा,
अरुण कोड़ीवाल
in Education International
"Foč Private & Personal Use Only
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
पूज्य १०८ आचार्य श्री विशद सागरजी के पावन सानिध्य में
प्रभात फेरी का दृश्य
कार्यालय
स्थान जैन सभा
महावीर जयंती के पूर्व दिन सभा कार्यालय पर
झंडारोहण
पूज्य १०८ आ श्री विशद सागर जी की जन्म जयंती पर सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी, मंत्री कमल बाबू जैन, संयुक्त मंत्री शांति कमार गोधा
जयपर
शोभा यात्रा में महिला जागृति संघ की सदस्याएँ।
ain Education international
Formate & Personal use
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मण्ड
आलुवीय
शोभायात्रा में श्री दि. जैन स्नेहिल वनिता संघ की सदस्यायें
शोभायात्रा में जैन समाज अशोकनगर की झाँकी एवं महिला मण्डल की सदस्यायें
Bol
F
शोभायात्रा में
श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन महिला मंडल मालवीय नगर की सदस्यायें
शोभायात्रा में जौहरी बाजार दिगम्बर जैन महिला समिति की सदस्यायें
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
शोभायात्रा में समवशरण की झांकी
Indian Look ● कैण्ड्स
क
जैन मन्दिरजी कालरापर स्वामी श्री दिगम्बर जैन महावीर नबक महिलामंडल
का रास्ता
का हार्दिक स्वारती है।
गम्बर जैन मन्दिर काही स्वामी स्वागत करता है।
शोभायात्रा में
श्री दिगम्बर जैन मंदिर महावीर नगर की झाँकी
महार
ठाकर
esgalt ta
PRENOTAPUR
शोभायात्रा में
टीले पर भगवान की मूर्ति पर गाय का दूध झरते हुए
की झांकी
श्री दिगम्बर जैन मंदिरजी कालाडेरा महावीर स्वामी गोपालजी का रास्ता, श्री दि. जैन महावीर नवयुवक एवं महिला मंडल द्वारा प्रस्तुत झाँकी
WILL FINA
ि
Oper
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिगम्बर जैनाचार्य विद्यालय, पाठशाला दुर्गापुरा की झाँकी
भिक जाला व
भास
NRNATीजन
मालवीय नगर समाज की
झाँकी
अहिंसा प्रमोहम त आओजीवन ज्योतिजनाएँ मजन कोहह्मगलेलगाये
जन-जब काम सजीवाभरा
पारा
मित
हावीर
नारी चेतना व नारी शक्ति की
झाँकी
श्री दिगम्बर जैन महिला मंडल
श्याम नगर की झाँकी
श्री दिगम्बरजनमाहलामण्डल
श्याम मार के द्वारा सजीव झाँकी महावीरकपूर्वभवपुलवामान महावी
For Private & Perspuse Qnly
www.jameliscary.org
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिनेन्द्र रथ में सारथी के रूप में विराजित श्रेष्ठी डॉ. त्रिलोकचन्दजी कोठारी व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती लाडा देवी
रक्तदान शिविर का उद्घाटन करते हुए श्री रामधनजी राजेश कुमार जी,
Jan Education International
साथ में सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी,
मंत्री कमल बाबू जैन, संयोजक मनोज पापड़ीवाल
विशाल स्वत
स्थान जैन सभा
सभा द्वारा आयोजित रक्तदान शिविर में श्री अशोकजी परनामी महापौर जयपुर, श्री रामधनजी राजेशकुमारजी उद्घाटन कर्ता, सभाध्यक्ष महेन्द कुमार पाटनी, संयोजक मनोज पापड़ीवाल एवं सरदार मल सौगानी
रामलीला मैदान में महावीर जयन्ती धर्मसभा में झंडारोहण करते हुए प्रसिद्ध रत्न व्यवसायी श्री नानगरामजी जैन जौहरी
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मसभा में दीप प्रज्वलन करते हुए. श्री उमरावमलजी संघी, साथ में खड़े हैं सांसद श्री रामदासजी अग्रवाल, श्री अशोकजी परनामी महापौर जयपुर, सभाध्यक्ष महेन्द कुमार पाटनी व श्रीमती शकुन्तला गोधा एवं मनोज पापड़ीवाल
सभा द्वारा प्रकाशित महावीर जयन्ती स्मारिका के ४३वें अंक का विमोचन करते हुए श्री रामदासजी अग्रवाल सांसद, साथ में श्री अशोकजी परनामी महापौर जयपुर, सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी, प्रधान सम्पादक डॉ. प्रेम चंद राँवका व प्रबन्ध सम्पादक जय कुमार गोधा
एक दिन में सर्वाधिक रक्तदान करनेवाली संस्था जयपुर इन्जीनियरिंग कॉलेज एण्ड रिसर्च सेन्टर को डॉ. प्रभा जैन शील्ड प्रदान करते हुए महापौर श्री अशोक जी परनामी जयपुर, साथ में संयोजक मनोज पापड़ीवाल, सह-संयोजक राकेश छाबड़ा एवं दर्शन कुमार बाकलीवाल
एक वर्ष में सर्वाधिक रक्तदान करने वाली संस्था भास्कर टी.वी.को विद्या विनोद काला स्मृति शील्ड प्रदान करते हुए सांसद श्री रामदासजी अग्रवाल, श्री अशोकजी परनामी महापौर, श्रेष्ठी श्री विवेकजी काला, संयोजक मनोज पापड़ीवाल, सह-संयोजक राकेश छाबड़ा एवं दर्शन कुमार बाकलीवाल
for Priva
Pereunalle
www.jainel
yorg
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर भगवान की जय
राजस्थान
धर्मसभा में विराजित १०८ आचार्य विशदसागरजी महाराज ससंघ एवं प्रर्वतक जयानंदजी विजय
महावीर जयन्ती धर्मसभा में भारी संख्या में उपस्थित महिलाएँ
de P
महावीर जयन्ती समा
राजन जैन सभी
senly
धर्मसभा में ध्वज वंदना के समय मंच पर
श्री त्रिलोकचंदजी कोठारी श्री रामधन जी जैन
श्री उमरावमलजी साह,
श्री रामदासजी अग्रवाल,
श्री अशोकजी परनामी,
श्री महेन्द्रकुमारजी पाटनी एवं श्री सोहनलालजी सेठी
महावीर जयन्ती धर्मसभा में उपस्थित विशाल जनसमुदाय
www.ainelllegary irg
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
जापपास्तादिकातकरता
य
HAI.
रामलीला मैदान में महावीर जयन्ती के उपलक्ष में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम का एक दृश्य
शासनजान
वीर शासन जयन्ती समारोह के अवसर पर आयाजित विचार गोष्ठी में द्वीप प्रज्ज्वलन करते हुए डॉ. पी.सी.जैन साथ में पदाधिकारी एवं अन्य गणमान्य महानुभाव
कल डिपो
भानजनसार
शाननं.136
द्वारा संचालित
5
श्री शान्तिकुमारजी जैन, पारस मेडिकल डिपो के सौजन्य से संचालित प्याउ का उद्घाटन, श्री शान्तिकुमारजी गोधा, एवं श्रीमती कमलादेवी साथ में सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी,
- मंत्री कमल बाबू जैन, संयुक्त मंत्री शान्ति कुमार गोधा, कार्यकारिणी सदस्य जय कुमार गोधा, एवं प्रकाश चन्द ठोलिया
गत्यागगनसमा आपका हार्दिक स्वागत करती है।
नबन्धप्रातयागताकापारितोषिक वितरण समारोह
के. सी. कटारिया चैरिटेबल ट्रस्ट के सौजन्य से आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता के पारितोषिक वितरण में मंच पर श्री राम चरण जी साह, मंत्री-महावीर बालिका विद्यालय ट्रस्टी-संदीपजी कटारिया सभाध्यक्ष-महेन्द्र कुमार पाटनी ट्रस्टी-श्री रोहितजी कटारिया, मंत्री-कमल बाबू जैन संयोजक-जय कुमार गोधा
ain
ritematonal
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन जैनसभा
जस्थ
न्यमनियो विकसि
के.सी. कटारिया चैरिटेबल ट्रस्ट के
सौजन्य से आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता के पारितोषिक
वितरण समारोह में विजेता छात्रा को पुरस्कृत करते हुए
श्री संदीपजी कटारिया ट्रस्टी
रनोबिकवित तरण समारोह
निबंध प्रतियोगिता में पारितोषिक प्राप्तकर्ता और सभा के पदाधिकारीगण एवं सदस्य तथा के. सी. कटारिया चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीगण, महावीर दिगम्बर जैन बालिका विद्यालय की प्रिन्सीपल श्रीमती इन्द्राजी पाटनी
यानमानसमाहित न्धप्रतियोगिता
श्री के.सी.कटारिया चैरीटेबिल ट्रस्ट एवं राजस्थान जैन सभा के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता में प्रतियोगी एवं संयोजक जय कुमार गोधाव ट्रस्टी श्री इन्दर चन्द जी कटारिया
दशलक्षण पर्व में बड़े दीवानजी के मंदिर में दीप प्रज्वलित करते हुए समाज सेवी श्री राजेन्द्र कुमारजी लुहाड़िया, साथ में सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार पाटनी, सरदार मल सौगानी, योगेश टोडरका, श्री निर्मल कुमार जी सेठी, श्री सुमति प्रकाश जी पाटोदी
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
लक्ष तस्था
WIKIS
दशलक्षण में मेधावी छात्र का सम्मान करते हुए सभाध्यक्ष महेन्द्रकुमार पाटनी मंत्री कमलबाबू जैन एवं संयोजक मनोज पापड़ीवाल
कारण
दशलक्षणपर्वसमारोह
राजस्थान जनाममा
उत्तम आकिंचन्य धर्म के दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुति करती हुई नवरंग बाल विद्यालय की छात्राएँ
परापगणार
दशलक्षण पर्व में सोलहकारण भावना के प्रवचनकार पं महेन्द्रकुमारजी शास्त्री को स्मृतिचिह्न भेंट करते हुए महेन्द्रकुमार पाटनी अध्यक्ष एवं कैलाशचंद साह उपाध्यक्ष
पशालतणपासह रा स्थान
दशलक्षण पर्व में मुख्य प्रवचनकार पं. पियूष जी शास्त्री को शाल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए सभा के पदाधिकारी एवं सदस्यगण
Jain
International
anvarmelirary.org
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमावीरस्यभषणम
क्षमावाणी कार्यक्रम में रामलीला मैदान में दीप प्रज्वलित करते हुए श्री राकेशजी नेकावाला एवं उनकी धर्मपत्नी साथ में हैं शान्तिकुमार गोधा संयुक्त मंत्री एवं श्रीमती स्नेहलता साह
एकपक्षमापनपर्वसमारोह
राजस्थान जैन समा
मंच पर विराजित १०८ आचार्य श्री निर्भयसागरजी
मुनि श्री सिद्धसेनजी आर्यिकाश्री विरागमती माताजी
एवं क्षु. धवलसागरजी
आचार्य १०८ श्री निर्भयसागरजी को नमोस्तु करते हुए श्री डॉ. एन. के.जैन कुलपति राजस्थान विश्वविद्यालय एवं माननीय श्री नगेन्द्रकुमारजी जैन पूर्व मुख्य न्यायाधीश मद्रास व कर्नाटक उच्च न्यायालय तथा अध्यक्ष मानवाधिकार आयोग राजस्थान
यभूषणम
१० दिन के उपवास करने वालों को सम्मानित करते हुए श्रेष्ठी श्री दीनदयालजी पाटनी एवं उनकी पत्नी श्रीमती निर्मला देवी पाटनी साथ में हैं शान्ति कुमार गोधा, मंत्री कमल बाबू जैन, श्रीमती स्नेहलता साह, श्रीमती शकुन्तला गोधा एवं मनीष बैद
in Education Intemational
FORavateermany
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामूहिक क्षमापन पर्व समारोह में
प्रवचन देते हुए पूज्य १०८ आ.निर्भयसागरजी महाराज,
१०८ मुनिश्री सिद्धसेनजी, १०५ आर्यिका विरागमति माताजी
एवं अतिथिगण
सामूहिकक्षमापनपर्वसमारोह
राजस्थान
हिंसा
सभा द्वारा ३१ दिन के
उपवास करनेवाली श्रीमती भारती गंगवाल का
सम्मान करते हुए सभा के पदाधिकारी गण
एवं सदस्य गण
सामूहिकक्षमापनपर्वसमारोह
सामूहिक क्षमापन पर्व समारोह में रामलीला मैदान में एक दूसरे से क्षमायाचना करते हुए
अहिंसा परमोधर्मः राजस्थान जैन सभा.जयपर
सामूहिक क्षमापन पर्व पर मंच पर विराजमान श्री दीनदयालजी पाटनी. डॉ. एन. के. जैन, माननीय श्री नगेन्द्रकुमारजी जैन, महेन्द्रकुमार पाटनी, श्री राजेन्द्र के. गोधा, श्री विमल कुमार जी पाण्ड्या एवं मंत्री कमल बाबू जैन
Education International
For Private & Personar use only
Jainelibrary.org
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर निर्वाण महोत्सव पर पूजन एवं भक्ति करते हुए सभा के पदाधिकारी तथा वर्धमान सेवक मंडल
एवं जैन संगीत मंडल बापू नगर के सदस्य गण
वागणाणालिका जैन सभालायलाइ रात
भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव पर सामूहिक लाडू चढ़ाते हुए सभा के पदाधिकारी व समस्त जैन समाज
भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव पर तोतूका सभागार में उपस्थित साधर्मी भाई-बहन
Education International
P
arenteyorga
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर जयन्ती सम्मान समारोह में
दीप प्रज्वलित करते हुए
राजस्थान विधानसभा के मुख्यसचेतक श्री महावीरप्रसादजी
जैन विधायक एवं श्रेष्ठी श्री विवेकजी काला, साथ में हैं श्री रतनलालजी छाबड़ा,
सभा के पूर्व अध्यक्ष
एवं सभा के पदाधिकारी गण राजस्थान जैन समा.जयपुर
महावीर जयन्ती सम्मान समारोह में मंच पर शान्तिकुमारजी गोधा कमलबाबू जैन, रतनलाल छाबड़ा श्री महावीरप्रसादजी जैन श्री विवेकजी काला, कैलाशचंद साह अरुण कोड़ीवाल एवं प्रकाश अजमेरा, उद्बोधन देते हुए सभाध्यक्ष
महावीर जयन्ती सम्मान समारोह में सभाध्यक्ष श्री महेन्द्र कुमार पाटनी, मुख्य सचेतक श्री महावीर प्रसाद जी जैन को शाल ओढ़ाकर सम्मान करते हुए, साथ में हैं श्री विवेकजी काला एवं अरुण कोड़ीवाल
महावीर जयन्ती सम्मान समारोह में श्री विवेकजी काला एवं श्री महावीरप्रसादजी जैन, श्यामनगर दि. जैन मंडल को सम्मानित करते हुए। साथ में हैं महेन्द्रकुमार पाटनी, शान्तिकुमार गोधा, कमलबाबू जैन एवं स्नेहलता साह
Jal Education International
For Private & Personal use o
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
शानसभा.जयपुर
पसर
महावीर जयन्ती सम्मान समारोह में सामाजिक कुरीति निवारण से सम्बन्धित स्टीकर का विमोचन करते हुए श्री विवेकजी काला राष्ट्रीय अध्यक्ष दिगम्बर जैन महासमिति, श्री महावीर प्रसाद जी जैन मुख्य सचेतक राजस्थान । विधानसभा एवं सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार जैन पाटनी एवं साथ में श्रीमती स्नेहलता साह
महावीर जयन्ती सम्मान समारोह में समागत पुरुष एवं महिला वर्ग
राजस्थान जैन सभा एवं दिगम्बर जैन मन्दिर वाकलीबालान के संयुक्त तत्त्वावधान में चल रहे होम्योपैथिक चिकित्सालय में मरीज की जाँच करते हुए
चिकित्सक
lain
ucat an International
For Private & Personal Used
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
हमें
जी
Pleas
राजस्थान जैन सभा एवं दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा तेरापंथियान के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित संगीत प्रशिक्षण केन्द्र में राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत श्री अजीत जैन से प्रशिक्षण लेते हुए प्रशिक्षणार्थी एवं अवलोकन करते हुए मंत्री कमल बाबू जैन
श्री
शिक्षण
सभा
र्केट
राजस्थान जैन सभा द्वारा एस. एम. एस. अस्पताल के उसी वार्ड के मरीजों को दवाइयों और फलों का वितरण कर स्वास्थ्य समाचार पूँछते हुए सभा के पदाधिकारी व सदस्य गण और संयोजक निर्मल कासलीवाल तथा कुंथीलाल रांवका
Pre
राजस्थान जैन सभा द्वारा श्वेताम्बर स्कूल में आयोजित चित्रकला प्रतियोगिता में प्रतियोगी एवं संयोजक विनोद कोटखावदा और अतिथि श्री राजेन्द्रजी लुहाड़िया तथा सभा के पदाधिकारी व कार्यकारिणी सदस्यगण
श्री शान्तिनाथ संगीत क्षण केन्द्र
राजस्थान जैन सभा एवं दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा तेरापंथियान के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित सिलाई
प्रशिक्षण केन्द्र के प्रशिक्षार्थियों को पुरस्कार देते हुए मंत्री कमल बाबू जैन साथ में संयोजिका श्रीमती विमला देवी
सभा
www.jainelibrary org
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थान जैन सभा जयपुर के तत्वाधान में
वजके पुत्रचकवा मास्टर जन्म तीसमारोह
गोष्टी
राजस्थान जैन सभा द्वारा भगवान आदिनाथ एवं उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के जन्म-जयन्ती समारोह पर
आयोजित विचार गोष्ठी अध्यक्ष श्री प्रकाशचन्द पाटोदी एवं वक्तागण तथा सभा के अध्यक्ष व मंत्री एवं बोलते हुए संयोजक प्रकाश अजमेरा
भगवान ऋषभदव
उनके पुत्रमल जन्मजयन्ती समाई
विचार गोष
मुनि श्री विनम्रसागर जी महाराज के
सानिध्य में दिगम्बर जैन मन्दिर मोहनबाड़ी के सौजन्य से सभा द्वारा मोहनबाड़ी में आयोजित भगवान
आदिनाथ जयन्ती समारोह पर भक्तामर विधान पूजा के अवसर पर सभा एवं मन्दिर के पदाधिकारी
राजस्थान जैन सभा द्वारा महावीर जयन्त (31-3-2007) को होने वाले रक्तदान शिविर के बहुरंगीय पोस्टर का विमोचन करते हुए गुजरात के राज्यपाल महामहि पं.श्री नवलकिशोरजी शर्मा, साथ में
श्री बृजकिशोरजी शर्मा विधायक (जयपुर ग्रामीण) सभा के पदाधिकारी - संयोजक मनोज पापड़ीवाल
वादविवाद प्रतियोगिता में माहेश्वरी बालिका विद्यालय को रनिंग शील्ड
प्रदान करते हुए सभाध्यक्ष महेन्द्र कुमार जैन पाटनी साथ में सभा के पदाधिकारी
एवं सदस्यगण
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ आशीर्वाद
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
बड़ी प्रसन्नता का प्रसंग है कि पूर्व वर्षों की भाँति इस वर्ष भी भगवान महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन हो रहा है।
पूर्व जन्मों से ही जिन का जीवन परोपकार में ही व्यतीत होता आ रहा है, उनके गुणों का वर्णन उनके वचनों का प्रकाशन किसी भी रूप में
और कितना भी प्रकाशित करें, वह थोड़ा ही है। वर्तमान में प्राणी भूलों से भरा है। इसलिए इस स्मारिका का प्रकाशन भी प्रतिवर्ष आवश्यक है। जिसकी पूर्ति हो रही है। परम पूज्य मुनि कुंजर आचार्य श्री आदिसागरजी अंकलीकर ने बताया कि बार-बार स्मरण करने से आम्नाय नाम का स्वाध्याय होता है और आगे भी स्मृति बनी रहती हैं।
यह स्मारिका आत्मा को निखारने में दर्पणवत् सहायक है तथा कर्मों की ग्रन्थियों को खुलने के लिए जरूरी है। इसका लेखन पठन-पाठन, मनन-चिंतन, वितरण आदि केवलज्ञान ज्योति को प्रकटने वाली है।
अत: इसके प्रकाशन के कार्य में जो प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोगी हैं तथा संपादक महोदय को मेरा शुभाशीर्वाद हैं। वे इसी प्रकार से जिनवाणी की सेवा करते हुए केवलज्ञान ज्योति को प्रगट करें।
- आचार्य सन्मति सागर, ओरंगाबाद
महावीर जयन्ती स्मारिका'2007
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ आशीर्वाद
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
अर्हम्
भगवान महावीर ने जो कहा, वह पच्चीस शतक पुराना है, पर जो सत्य हैं वह न पुराना होता है और न नया, वह कालिक होता है। सार्वभौम, सार्वदेशिक और सर्वात्रिक होता है। इसलिए वह आज भी उतना प्रासंगिक हैं, जितना दाई हजार वर्ष पहले था। संभवत: आज अधिक प्रासंगिक हैं। हिंसा, आतंकवाद, उग्रवाद, हत्या, आत्म-हत्या, भ्रूण हत्या आदि हिंसा की समस्याओं ने वातावरण को अधिक विषाक्त बना दिया। पर्यावरण का प्रदूषण एक विकट समस्या है। उससे कहीं अधिक विकट समस्या है मानसिक बौद्धिक और भावनात्मक प्रदूषण। वर्तमान अर्थशास्त्र आदि की एकांगी अवधारणाओं के कारण सचाई को देखने का दृष्टिकोण बदला हुआ है। इस परिस्थिति में हम भगवान महावीर को और उनकी वाणी को पढ़ने का प्रयत्न करें तो संभव है - उलझी हुई गुत्थी सुलझ जावेगी।
राजस्थान जैन सभा जयपुर द्वारा प्रकाशित महावीर जयन्ती स्मारिका में भगवान महावीर दर्शन की प्रासंगिकता रेखांकित होगी, यह विश्वास किया जा सकता है।
- आचार्य महाप्रज्ञ, बीकानेर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ आशीर्वाद
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
विगत अनेक वर्षों की महान परंपरा को जीवन्त एवं वर्द्धन करने हेतु राजस्थान जैन सभा प्रवर्तमान वर्ष में भी महावीर जयन्ती के उपलक्ष्य में स्मारिका प्रकाशन करने जा रही है। मेरा एतदर्थ शुभाशीर्वाद के साथ-साथ शुभकामनाएँ हैं।
राजस्थान जैन सभा जो कार्य कर रही है, उसे और भी उत्तरोत्तर संवर्द्धन करती हुई जैन एकता, संस्कार, सदाचार, समता, समन्वय आदि को पोषण, क्रियाशील बनायें तथा भगवान महावीर के महान उदारवादी, सहिष्णु, सर्वजीव हिताय, सर्वजन सुखाय, विश्वकल्याणकारी, वैज्ञानिक-आध्यात्मिक सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसारप्रायोगिककरण करने में नव कोटि से संलग्न रहें।
- आचार्य कनकनन्दी, उदयपुर
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
ल्यायमात्रा
शुभ आशीर्वाद
परस्परोपग्रहोजीवानाम्
पंचम काल में जीव का जन्म मिथ्यात्व के ही साथ होता है। महापुरुष जन्म से ही सम्यक्त्व के साथ जन्मते हैं। उसी क्रम में भगवान महावीर ने जन्म लिया और भारत वर्ष को परम अहिंसा, जिसके अंदर सत्य, अटैर्य, अपरिग्रह, संयम छुपा हुआ है, जो जैन दर्शन की निधि हैं, का संदेश दिया है।
राजस्थान जैन सभा जयपुर द्वारा वर्ष २००७ में महावीर जयन्ती स्मारिका डॉ. श्री प्रेमचन्दजी रांवका (प्रधान संपादक) द्वारा संपादन कर समाज को नव चेतना एवं आगमानुसार सम्यक्त्व का पोषणा हेतु किए कार्य हेतु आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहने से भी पीछे न रहे सकने के हेतु महावीर की चर्चा के लिए समाज को निर्देशित करना आवश्यक समझता हूँ। वर्ण भेद, पंथ भेद, जाति भेद आदि से परे अगर हम विराट समुदाय, विराट विचार महावीर की विशिष्टता को स्पष्ट कर सके, संकुचित दायरे से परे महावीर भगवान की वाणी को पत्रिका के माध्यम से जन-जन तक पहुँचावें और समाज में संकीर्णता समाप्त हो। जीवमात्र को अभय देकर अहिंसा, प्रेम, वात्सल्य, करुणा को जन्म दें तो महावीर जयन्ती के अर्थ को जान सकेंगे।
समाज को प्रभु महावीर ने जो आत्म-ज्ञान के आनंद की अनुभूति का मार्ग प्रशस्त किया है, उसे सहेजे रखना ही महावीर जयन्ती मनाना है। हम अगर बिखरे रहे, पंथवाद, पण्डितवाद में उलझे रहे तो जयन्ती नहीं महावीर को धोका देना ही होगा। आज महावीर के चरणों में समर्पण की अत्यन्त आवश्यकता है।
- आचार्य निर्भय सागर, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Корпорира
शुभ आशीर्वाद
卐
राजस्थान जैन सभा के तत्त्वावधान में प्रतिवर्ष 'महावीर जयन्ती स्मारिका' का प्रकाशन होता है । यह शुभ पावन कार्य है ।
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने १२ वर्ष की कठोर मौन आत्म-साधना के उपरान्त जो कैवल्य की प्राप्ति की, उसका निर्वचन उनके परम शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर ने भगवान की ॐकारमयी ध्वनि को ग्रहण कर जन-जन तक प्रस्फुटित किया । भगवान महावीर के निवार्ण होने पर इन्द्रभूति को कैवल्य की प्राप्ति हुई ।
पश्चातवर्ती कॆवलियों और श्रुतकेवलियों एवं आचार्यों ने चारों अनुयोगों में जैनधर्म-दर्शन को निबद्ध किया। परवर्ती दिगम्बराचार्यों ने अपने पंचाचारों के द्वारा प्राणीमात्र के हितार्थ इह लॉक के अभ्युदय और पारलौकिक निःश्रेयस का संदेश दिया ।
भगवान महावीर की जन्म जयन्ती के पावन अवसर पर वीर प्रभु का पावन संदेश 'स्मारिका' के माध्यम से जन-जन तक पहुँचे, सब अपना कल्याण करें, इसी भावना के साथ स्मारिका के प्रबन्ध संपादक व प्रकाशक संस्था को शुभाशीर्वाद हैं।
- मुनि पावन सागर, जयपुर
рррррррррррррррррррррррррр
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाजारा
.
my
AIMIायात्रा गानाMap
शुभ आशीर्वाद
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
हम जिनके शासन काल में वर्तमान में चल रहे हैं उन परम पिता परमेश्वर की आराधना करना हमारा परम ध्येय हैं। उनके संदेश जन-जन तक पहुँचाना हमार ध्येय होना चाहिए और जब भी उन प्रभु महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस या वर्धन दिवस (जन्म जयंती) आवे तो इतनी जोर व जोश से प्रचार-प्रसार हो कि सारे हिंदुस्तान के मुख पर ही नहीं विदेशों में भी टी वी के माध्यम से विदेशियों के मुख पर भी भगवान महावीर का नाम अवश्य आ जाये, तभी हमारी भगवान के प्रति कृतज्ञता अभिव्यक्त होती है।
आज हिंदुस्तान को ही नहीं सारे विश्व को वे सिद्धान्त मान्य हैं जो भगवान महावीर के २६०० वर्ष पूर्व कहे थे। विज्ञान जितनी ज्यादा खोज करेगा भगवान महावीर के सिद्धान्त उतने ही सिद्ध होते चले जायेंगे।
राजस्थान जैन सभा ने महावीर जयन्ती उत्सव को अत्यंत उत्साहित होकर प्रभावना करने का संकल्प किया है, जो आज के भौतिक युग में बहुत ही जरूरी है। जब तक जैन समाज में ऐसा संकल्प लेने वाली मुख्य समितियाँ नहीं होंगी, तब तक उच्च स्तर का प्रचार-प्रसार असंभव है।
राजस्थान जैन सभा के प्रभावक संकल्प के विचार वाले समिति के सभी सदस्यों को मेरी मंगलमय भावना है। सभा उत्तरोत्तर प्रगति करती रहे, इस हेतु सभी को शुभाशीर्वाद है।
- मुनि विनम्रसागर संघस्थ संत शिरोमणि राष्ट्रसंत वात्सल्यमूर्ति परमपूज्य जैनाचार्य श्री विरागसागरजी महाराज, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
Naxanthal गायन) Fariya
)
mi
सन्दा
सत्यमेव जयते
मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि राजस्थान जैन सभा, जयपुर द्वारा विगत वर्ष की भांति इस वर्ष भी भगवान महावीर की जयंती के अवसर पर स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है।
जैन सभा द्वारा भगवान महावीर के अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह आदि के सिद्धान्तों को जन-जन तक पहुँचाने का जो कार्य किया जा रहा है, वह वास्तव में सराहनीय है। मुझे आशा है कि इस स्मारिका में भगवान महावीर के सिद्धान्तों तथा उनके जीवन आदर्शों का समावेश किया जायेगा।
मैं राजस्थान जैन सभा की निरंतर प्रगति की कामना करते हुए इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका के प्रकाशन के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
नई दिल्ली 20 फरवरी,2007
भैरोंसिंह शेखावत उप-राष्ट्रपति, भारत
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
ATO
SARA
८७
सत्यमेव जयते मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि राजस्थान जैन सभा, जयपुर की ओर से 31 मार्च, 2007 को महावीर जयन्ती स्मारिका के चव्वालीसवें अंक का प्रकाशन किया जा रहा है।
भगवान महावीर ने अहिंसा को परम-धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित किया था। सत्य, अहिंसा एवं अपरिग्रह जैसे उनके महान सिद्धान्तों से समूचे विश्व का मार्ग प्रशस्त हुआ है। इन सिद्धान्तों का अनुशीलन कर मनुष्य अपना जीवन सार्थक कर सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रचार-प्रसार के माध्यमों से इन महाव्रतों को अधिकाधिक प्रचारित किया जाय। यह खुशी की बात है कि प्रकाशन में भगवान महावीर के सिद्धान्त, उनका जीवन, जैन संस्कृति एवं धर्म के इतिहास जैसी उपादेय सामग्री का समावेश किया जा रहा है।
आशा है प्रकाशन जैन धर्म के अनुयायियों के साथ-साथ अन्य धर्मावलम्बियों के लिये भी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण सिद्ध होगी।
___ में प्रकाशन की सफलता के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ।
- वसुन्धरा राजे मुख्य मंत्री, राजस्थान
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
यी यो यो यो दिलो को ल
ला ला ला लायो लोगो
सन्देश
मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि राजस्थान जैन सभा द्वारा विगत 43 वर्षों से महावीर जयन्ती के पावन अवसर पर स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है तथा इसका आगामी अंक 31 मार्च, 2007 को प्रकाशित होने जा रहा है
यह एक अत्यन्त सराहनीय प्रयास है ।
मैं इस हेतु समस्त पदाधिकारियों को धन्यवाद देता हूँ तथा इसके सफल प्रकाशन हेतु अपनी शुभ कामनाएँ प्रेषित करता हूँ ।
VERSITY
एन. के. जैन
कुलपति
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
RAJAST
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्देश
हमें प्रसन्नता है कि राजस्थान जैन सभा पूर्व वर्षों की भाँति इस वर्ष भी भगवान महावीर की २६०६वीं जन्म जयन्ती पर महावीर जयन्ती स्मारिका' का प्रकाशन कर रही है। यह और भी प्रसन्नता की बात है कि महावीर जयन्ती स्मारिका का 31 मार्च, 2007 को प्रकाशित होने वाला अंक ४४वाँ अंक होगा। लम्बे समय से बहुत ही सुन्दर कलेवर में उपयोगी सामग्री के साथ ‘महावीर जयन्ती स्मारिका' का प्रकाशन एक बड़ी उपलब्धि है। इस अवसर पर राजस्थान जैन सभा के सभी पदाधिकारी एवं कार्यकर्ताओं को जैन समाज की ओर से साधुवाद प्रस्तुत है। श्रमण संस्कृति परंपरा के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने ऐसे समय पर सत्य और अहिंसा का बिगुल बजाया था जब भारत जैसे देश में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में इसकी अत्यन्त आवश्यकता थी। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह आज भी विश्व के हर प्राणी के लिए मौलिक सिद्धान्त हैं। जिस देश ने और जिस समाज ने इन सिद्धान्तों को हृदय से अपनाया है, उसकी निरन्तर प्रगति हुई है।
देश के विभिन्न भागों में पद विहार करते हुए दिगम्बर जैन आचार्य एवं संतगण निरन्तर धर्म प्रभावना कर रहे हैं। लगभग सभी तीर्थ क्षेत्रों में आगन्तुक यात्रियों की सुख-सुविधाओं को दृष्टि में रखते हुए विकास कार्य भी किए जा रहे हैं। गत वर्ष भगवान बाहुबली की श्रवणबेलगोला में 1025 वर्षों से खड़ी 57 फुट उतुंग प्रतिमा का 12 वर्षों के उपरान्त सम्पन्न हुआ महा-मस्तकाभिषेक और जनवरी, 2008 में मध्यप्रदेश में बड़वानी में भगवान आदिनाथ की 84 फुट उतुंग प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक पूरे समाज को एक मंच पर लाने वाले कार्यक्रम हैं। देश के दिगम्बर जैन समाज ने ऐसे समारोहों का भरपूर लाभ उठाया है। जहाँ कतिपय राजनेताओं द्वारा एक ओर जैन धर्म के स्वतंत्र अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लगाये जा रहे हैं, वहीं कुछ तीर्थों को लेकर विवाद विभिन्न न्यायालयों में लम्बे अर्से से लम्बित हैं। ऐसे में जैन एकता की जितनी आवश्यकता आज महसूस की जा रही है, उतनी सम्भवतः पिछले वर्षों में नहीं थी। यदि वर्ष 2007 को जैन समाज की एकता के वर्ष के रूप में मनाया जा सके तो निश्चित ही भगवान महावीर की जन्म जयन्ती हमारे लिए सुखद संदेश देने वाली सिद्ध होगी।
भगवान आदिनाथ से भगवान महावीर तक श्रमण संस्कृति परंपरा के महापुरुषों द्वारा दिये गये सिद्धान्त हम सभी आत्मसात कर सकें और अपने जीवन को दिन-प्रतिदिन बेहतर बना सकें, इसी मंगल कामना के साथ 'महावीर जयन्ती स्मारिका' के प्रकाशन के अवसर पर राजस्थान जैन सभा परिवार को हार्दिक शुभ कामनाएँ।
- नरेश कुमार सेठी, अध्यक्ष - भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्देश
बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी राजस्थान जैन सभा भगवान महावीर की 2606वी पावन जयन्ती के अवसर पर महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन करने जा रही है ।
भगवान महावीर के उपदेशों को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से स्मारिका का प्रकाशन प्रशंसनीय है। भगवान महावीर के उपेदश हमें लोगों के बीच में शान्ति, अहिंसा और सौहार्द्र की भावना बनाने के लिए प्रेरित करते रहेंगे।
राजस्थान जैन सभा स्मारिका प्रकाशन का जो महत्वपूर्ण कार्य कर रही है, यह कार्य ही नहीं है अपितु जैनागम की बहुत बड़ी सेवा हैं ।
राजस्थान जैन सभा के समस्त पदाधिकारी गण, प्रधान सम्पादक, प्रबन्ध सम्पादक और लेखकों के प्रसास से स्मारिका का स्वरूप प्रतिवर्ष निखरता आ रहा है । मैं उनको हार्दिक बधाई देता हूँ तथा कामना करता हूँ कि स्मारिका व सभा की निरन्तर प्रगति हो ।
-
- निर्मल कुमार सेठी
अध्यक्ष, भारतवर्षीय दिगम्बर जैन धर्म संरक्षिणी महासभा, जयपुर
yaya
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
योज
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
PAR
PIPPIN
रामराजार
सन्देश
यह जानकर अत्यन्त ही हर्ष हुआ कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी राजस्थान जैन सभा भगवान महावीर जयन्ती के पुनीत अवसर पर महावीर जयन्ती स्मारिका का 44वाँ अंक प्रकाशित करने जा रही है।
आज सारी मानवता आतंकवाद के भयाकान्त साये में सिहर-सिहर कर जी रही है। विश्व शान्ति आज बारूद के ढेर पर बैंठी अपने अस्तित्व को बनाये रखने की बाट जो रही है। जीवन के हर क्षेत्र में गला-काट प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। विश्व में क्षुद्र और स्वार्थी राजनीति का अजगर अपनी विर्षली फुकारों से भ्रष्टाचार, जातिवाद, घृणा, हिंसा को पनपा रहा है। जीवन मूल्यों का अध:पतन और अवमूल्यन हो रहा है।
इस भयावह स्थिति में भगवान महावीर का सिद्धान्त 'जियो और जीन दो' समय की प्रथम आवश्यकता है। अगर मानवता को बचाना है, विश्व शान्ति की स्थापना करनी है, परस्पर समन्वय, एकता को बढ़ावा देना है और जैन धर्म को जनधर्म बनाना है तो हमें आज महावीर के सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और अनेकान्तवाद की अलख को पुन: जगाना होगा। तभी एक शान्त, समस्या-विहिन समाज, राष्ट्र और विश्व का निर्माण संभव हो सकेगा।
मुझे पूर्ण आस्था है कि स्मारिका का प्रकाशन इस पावन उद्देश्य की प्राप्ति में एक सशक्त शंखनाद फूंकने में सफल होगा। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
-विवेक काला अध्यक्ष – दिगम्बर जैन महासमिति
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यक्ष की कलम से...
विश्व वंद्य 1003 भगवान महावीर की 2606वीं तब से अनवरत रूप से इसका प्रकाशन हो रहा है। पावन जयन्ती चैत्र शुक्ला तेरस दिनांक 31-03-2007 स्मारिका में प्रकाशित रचनाएँ बहुत ही उच्च श्रेणी की को आरही है। आज भगवान महावीर के पावन सिद्धान्तों होती हैं। स्मारिका में तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना, की पहले से अधिक आवश्यकता है। इनको जीवन में दर्शन एवं अध्यात्म, इतिहास और संस्कृति, भक्ति एवं उतारने से विश्व के प्राणीमात्र का कल्याण हो सकता है। शोध पर सारगर्भित रचनाएँ प्रकाशित होती हैं।
राजस्थान जैन सभा अपनी स्थापना वर्ष से ही इस वर्ष भी स्मारिका के प्रधान सम्पादक का समग्र जैन समाज की ओर से महावीर जयन्ती समारोह गुरुतर भार सभा द्वारा प्रसिद्ध विद्वान डॉ. प्रेमचन्दजी विभिन्न कार्यक्रमों के साथ आयोजित करती आ रही रांवका को सौंपा है। इन्होंने इसका बहुत ही विद्वता है। इन कार्यक्रमों में समाज का पूर्ण सहयोग प्राप्त होता पूर्वक सम्पादन किया हैं। उनके प्रति अपनी ओर से है। इस वर्ष भी महावीर जयन्ती के चार दिवसीय तथा सभा की ओर से कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। आपने कार्यक्रम रखे गये हैं, जिसमें भक्ति संध्या, कवि सम्मलेन, अपना अमूल्य समय प्रदान कर, विद्वान लेखकों से प्रभात फेरी, शोभायात्रा, धर्मसभा व सांस्कृतिक संपर्क कर रचनाएँ प्राप्त की। उनका सम्पादन कर कार्यक्रम आयोजित होंगे। महावीर जयन्ती के अवसर स्मारिका में प्रकाशित किया। इनके सहयोगी सम्पादक पर महावीर जयन्ती स्मारिका भी प्रकाशित की जावेगी। मण्डल के सदस्य सर्वश्री डॉ. जे. डी. जैन एवं इसका विमोचन भी धर्म सभा में होगा। महावीर जयन्ती श्री महेशचन्दजी चांदवाड़ द्वारा स्मारिका के प्रकाशन के दिन ही विशाल रक्तदान शिविर का भी आयोजन में प्रदत्त सहयोग के लिए मैं मेरी ओर से तथा सभा की किया जावेगा।
ओर से आभार प्रकट करता हूँ। इस वर्ष भी धर्मसभा में जयपुर स्थित जैन श्रीमान् ज्ञानचन्दजी बिल्टीवाला ने वर्षों तक आचार्य, साधु, संत पधारेंगे तथा जन साधारण को स्मारिका के प्रधान सम्पादक का महत्वपूर्ण दायित्व अपने प्रवचनों के माध्यम से भगवान महावीर के उपदेशों निभाया। वे अब स्मारिका के प्रमुख परामर्शदाता हैं। व शिक्षा के बारे में बतायेंगे।
उनका स्मारिका के लिए हमेशा महत्वपूर्ण परामर्श राजस्थान जैन सभा गत 43 वर्षों से भगवान मिलता रहा है। मैं उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। महावीर की जयन्ती के अवसर पर महावीर जयन्ती स्मारिका के प्रकाशन में विज्ञापनों के माध्यम स्मारिका का प्रकाशन करती आ रही है। इस वर्ष इसका से अर्थ संग्रह करना, विज्ञापन दाताओं से सम्पर्क, 44वाँ अंक प्रकाशित हो रहा है। सभा द्वारा स्मारिका का विज्ञापन प्राप्त करना, उनको छपवाना, प्रेस का चयन, प्रकाशन देश के प्रसिद्ध विद्वान श्रद्धेय चैनसुखदासजी स्मारिका के वितरण की व्यवस्था, विज्ञापन दाताओं न्यायतीर्थ जयपर की प्रेरणा से प्रारम्भ किया गया था। को भिजवाना, राशि प्राप्त करना आदि महत्वपूर्ण कार्य
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
सबपि
प्रबन्ध सम्पादक करता है। प्रबन्ध सम्पादक स्मारिका जैन मन्दिर मोहनबाड़ी में भगवान आदिनाथ की पावन की रीढ़ है। इस महत्वपूर्ण पद पर सभा की कार्यकारिणी जयन्ती के उपलक्ष्य में सामूहिक पूजन का आयोजन, ने इस वर्ष भी कार्यकारिणी के वरिष्ट सदस्य श्री भट्टारकजी नसियाँ में भगवान महावीर के निर्वाण जयकुमारजी गोधा को मनोनीत किया है। वे गत 5 वर्षों महोत्सव पर सामूहिक लाडू चढ़ाने का कार्यक्रम तथा से स्मारिका के प्रबन्ध सम्पादक का कार्य सम्हाल रहे महावीर जयन्ती सम्मान समारोह का आयोजन, हैं। इनके कार्यकाल में हर वर्ष विज्ञापनों की राशि बढ़ राजस्थान चेम्बर एंड इंडस्ट्रीज (एम. आई. रोड़) में रही है तथा वसूली भी बढ़ रही है। वे स्मारिका से विचार गोष्ठी तथा कवि सम्मेलन का आयोजन, महावीर
कार्यरात-दिन लगाकर पर्णनिष्ठा.लगन दिगम्बर जैन बालिका विद्यालय में वाद-विवाद व कर्मठता से सम्हाल रहे हैं। मैं अपनी ओर से तथा प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता का पारितोषिक वितरण सभा की कार्यकारिणी की ओर से उनका बहुत आभारी समारोह, एस. एस. जैन सुबोध हा. सै. स्कूल में निबंध हूँ। संयुक्त प्रबन्ध सम्पादक श्री सुरेशजी बज एवं श्री प्रतियोगिता का आयोजन, जैन श्वेताम्बर हा. स्कूल दर्शन कुमारजी बाकलीवाल द्वारा प्रदत्त सहयोग के में चित्रकला प्रतियोगिता आदि कार्यक्रम इनके सहयोग लिए मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ। श्री निर्मल से आयोजित हुए। मैं इन संस्थाओं के पदाधिकारियों कुमारजी कासलीवाल, श्री अमरचन्दजी छाबड़ा, श्री के प्रति आभार प्रकट करता हूँ तथा आशा करता हूँ सुनील कुमारजी, श्री रवीन्द्र कुमारजी बैनाडा, श्री आर. कि इनका भविष्य में भी पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहेगा। के. लुहाड़िया, श्री उमरावमलजी संघी द्वारा प्रदत्त
सभा का कार्यालय चाकसू के चौक स्थित सहयोग को भुलाया नहीं जा सकता है। मैं इनके प्रति दिगम्बर जैन मन्दिर चाकस में स्थित है इस मन्दिर के आभार प्रकट करता हूँ।
अध्यक्ष श्री राजेन्द्र कुमारजी ठोलिया व उनकी _स्मारिका के लिए जिन लेखकों, कवियों, कार्यकारिणी के सदस्यों की ओर से सभा की सभी विद्वानों ने हमारे निवेदन पर अपनी रचनाएँ भिजवाई गतिविधियों के लिए पूर्ण सहयोग मिलता है। हैं, उनके हम अन्यन्त आभारी हैं। जिन-जिन संस्थानों
महावीर जयन्ती के अवसर पर आयोजित ने/व्यक्तियों ने अपने विज्ञापन प्रदान कर सहयोग प्रदान किया तथा जिन्होंने प्रयत्न कर विज्ञापन प्राप्त करवाये
रक्तदान शिविर के आयोजन में सवाई मानसिंह हैं, उन सभी के प्रति मैं आभार प्रदर्शित करता हूँ।
चिकित्सालय रक्त बैंक, सन्तोकबा दुर्लभजी अस्पताल
रक्त बैंक, स्वास्थ्य कल्याण केन्द्र रक्त बैंक के सभा की गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने
चिकित्सकों, टेक्निशियनों व कर्मचारियों का भी मैं में विविध संस्थाओं और मण्डलों, मन्दिरों द्वारा निरन्तर
आभारी हूँ। जिनके सहयोग से सभा सुचारू रूप से सहयोग प्राप्त होता रहता है। दिगम्बर जैन मन्दिर महावीर
रक्तदान शिविर आयोजन करने में सफल रहती है। स्वामी कालाडेरा, गोपालजी का रास्ता में हर वर्ष भजन
महावीर जयन्ती के अवसर पर सभा द्वारा आयोजित संध्या का आयोजन होता है। दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा, (तेरहपंथ) दड़ा व सभा के सहयोग से महिला सिलाई
रक्तदान शिविर में जिन-जिन ने भी रक्तदान कर सहयोग प्रशिक्षण केन्द्र एवं संगीत प्रशिक्षण केन्द्र चलता है।
प्रदान किया, उनके इस मानव सेवा के कार्य व सहयोग बड़े दीवानजी के मन्दिर में भाद्रपद मास में 10 दिन तक
के लिए मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। आशा दशलक्षण पर्व का आयोजन होता है। दिगम्बर जैन करता हूँ कि इस वर्ष भी यह शिविर सफलता पूर्वक मन्दिर बाकलीवालान के सहयोग से सभा द्वारा सम्पन्न होगा। होम्योपैथिक चिकित्सालय चलाया जाता है। दिगम्बर चाकसू के चौक के सोनी परिवार के द्वारा
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर जयन्ती के पहले दिन सभा द्वारा आयोजित गोधा एवं श्री प्रकाशजी अजमेरा, कोषाध्यक्ष श्री अरुण प्रभात फेरी के बाद चाकसू के चौक में सहभागियों कोड़ीवाल कार्यकारिणी के समस्त सदस्य गणों, के लिए हर वर्ष नाश्ते का प्रबन्ध किया जाता है, अभ्यर्थित सदस्य गणों, विशेष आमंत्रित महानुभावों, जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
विद्वानों, श्रेष्ठियों, साधर्मी बहनों व भाइयों, शुभचिन्तकों
व सहयोगियों एवं सभा के विभिन्न कार्यक्रमों के सभा को अपने कार्यक्रमों में सभी युवा
संयोजकों द्वारा प्रदत्त सहयोग के लिए आभार प्रकट मण्डलों, महिला मण्डलों, दिगम्बर जैन सोश्यल ग्रुप,
करता हूँ। सभा के कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में दैनिक, जैन सोश्यल ग्रुप, दिगम्बर जैन महासमिति, धर्म
पाक्षिक, मासिक व साप्ताहिक पत्रों, पत्रकारों, टी.वी. संरक्षिणी महासभा, दिगम्बर जैन परिषद्, अखिल चैनल्स व आकाशवाणी द्वारा प्रदत्त सहयोग के लिए भारतीय दिगम्बर जैन युवा परिषद्, राजस्थान जैन उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ। विभिन्न कार्यक्रमों युवा महासभा आदि का पूर्ण सहयोग मिलता रहा के संयोजकों व समारोह के अतिथियों के प्रति मैं है। मैं इनके पदाधिकारियों के प्रति आभार प्रकट आभार प्रकट करता हूँ। करता हूँ।
___महावीर जयन्ती के अवसर पर राज्य के विभिन्न महावीर जयन्ती शोभायात्रा में भाग लेने वाले व्यापारियों से राशि एकत्रित करने में तथा शोभायात्रा सभी स्कूलों, महाविद्यालयों, विभिन्न बैण्डों, झाँकी में बैजेज के माध्यम से राशि प्राप्त करने में जिन-जिन प्रस्तुत करने वाली संस्थाओं, भजन मण्डलों ने सहयोग महानुभावों ने सहयोग प्रदान किया है, मैं उनके प्रति प्रदान किया। सभा उनके प्रति आभार प्रकट करती आभार प्रकट करता हूँ। है। महावीर जयन्ती की शोभायात्रा में जगह-जगह सभा ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों के निवारण फल वितरण व दूध, मिल्करोज, ठंडे पानी के प्रबन्ध हेतु विभिन्न संस्थाओं से सम्पर्क किया, उन्हें कुरीतियाँ करने वालों, बर्फ की आपूर्तिकर्ता श्री प्रेमचन्दजी समाप्त करने हेतु प्रेरित किया। बाढ़ पीड़ितों के लिए गंगवाल, पानी की आपूर्तिकर्ता श्री दीनदयालजी राहतकार्य में सहयोग प्रदान किया। ऋषभदेव में जैन पाटनी व छात्रों को लड्डू वितरणकर्ता-महानुभावों, समाज के व्यक्तियों/परिवारों पर जो अत्याचार हुआ, क्षमापन पर्व समारोह पर खोपरा-मिश्री वितरण करने उसके विरुद्ध आवाज उठाकर सरकार से अत्याचार को वाली संस्थाओं के प्रति आभार प्रदर्शित करता हूँ। रोकने, सुरक्षा प्रदान करने तथा नुक्सान का मुआवजा
नगर निगम जयपर राजस्थान जैन सभा को देने तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 04-01-2007 को हमेशा महावीर जयन्ती व सामूहिक क्षमापन पर्वसमारोह
जो फैसला दिया है, उसकी अनुपालना करवाने हेतु पर रामलीला मैदान निशुल्क आवंटित करता है। मैं
- ज्ञापन प्रस्तुत किया है। जयपुर नगर निगम के महापौर तथा जोन आयुक्त एवं
अन्त में मैं जिन्होंने भी सभा को किसी भी प्रकार अन्य अधिकारियों व कर्मचारियों को धन्यवाद अर्पित
का सहयोग प्रदान किया, उसके लिए उनके प्रति आभार करता हूँ।
प्रकट करता हूँ। सभी से अनुरोध है कि सभा के अधिक
से अधिक सदस्य बनाकर एकता का परिचय दें। सभा के निर्वतमान अध्यक्ष श्री रतनलालजी छाबड़ा का सभा को पूर्ण मार्गदर्शन व सहयोग मिलता है, मैं उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
भवदीय सभा के उपाध्यक्ष श्री प्रेमचन्दजी छाबड़ा एवं
महेन्द्र कुमार जैन पाटनी श्री कैलाशचन्दजी शाह, संयुक्त मंत्री श्री शान्तिकुमारजी
अध्यक्ष, राजस्थान जैन सभा जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आलेख मंत्री की लेखनी से...
सम्पूर्ण विश्व में आस्थाओं के केन्द्र विश्व वंद्य आभारी हैं। स्मारिका में जिन विद्वान्, लेखकों व 1008 तीर्थंकर महावीर का 2606वाँ जन्म जयन्ती कवियों ने रचनाएँ भिजवाई हैं, उनके प्रति मैं आभार समारोह दिनांक 28 मार्च से 31 मार्च 2007 तक प्रकट करता हूँ। राजस्थान जैन सभा द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों के साथ इस वर्ष भी सभा की कार्यकारिणी ने स्मारिका मनाया जा रहा है। आचार्य श्री विशदसागरजी महाराज, के प्रधान सम्पादक गुरुतर भार प्रसिद्ध विद्वान डॉ. आचार्य श्री निर्भयसागरजी महाराज, मुनि श्री विनम्र प्रेमचन्दजी रावका को सौंपा है। डॉ. रांवकाजी ने सागरजी महाराज, मुनि श्री पावनसागरजी महाराज, अत्यधिक व्यस्तताओं के बावजूद हमारे अनुरोध को मुनि श्री श्रेयाससागरजी महाराज ससंघके पावन सानिध्य स्वीकार कर स्मारिका में उच्च स्तरीय लेखों एवं में इस वर्ष महावीर जयन्ती समारोह मनाया जा रहा है। कविताओं का संकलन कर अपनी प्रतिभा का परिचय मैं उनके चरणों में नमन करता हूँ।
दिया है। भारत वर्ष के मूर्धन्य विद्वानों के लेख एवं भगवान महावीर के उपदेशों का जनमानस में आचार्यों व मुनिराजों के आशीर्वाद प्राप्त कर स्मारिका प्रचार-प्रसार व सभा को सामाजिक गतिविधियों की के लिए उपयोगी सामग्री का सृजन किया है। सभा जानकारी हेतु विगत 43 वर्षों से अनवरत् भगवान उनके द्वारा प्रदत्त सहयोग के लिए हार्दिक आभार प्रगट महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा करती है। है। इस वर्ष भी पावन जयन्ती के शुभ अवसर पर इस कार्य को सफल बनाने के लिए स्मारिका दिनांक 31 मार्च 2007 को स्मारिका का 44वाँ अंक के परामर्शदाता श्री ज्ञानचन्दजी बिल्टीवाला, संपादक आपके समक्ष प्रस्तुत कर हमें प्रसन्नता एवं गौरव का मण्डल के डॉ. जे. डी. जैन एवं श्री महेशजी चांदवाड़
ने अपनी उपयोगी सेवाएं प्रदान की हैं। हम उनके प्रति स्मारिका में भगवान महावीर के जीवन दर्शन, भी आभार प्रगट करते हैं। उनके उपदेशों की महत्ता, कविताएँ एवं अन्य सम- सभा ने स्मारिका के प्रबन्ध सम्पादक का गुरुतर सामयिक विषयों पर ऐतिहासिक सामग्री प्रस्तुत की भार श्री जयकुमारजी गोधा को सौंपा है। जिन्होंने गई है। जिससे स्मारिका की उपयोगिता अपने आप स्मारिका के लिए विज्ञापन जटाने एवं उसकी साजबन गई है। ज्ञातव्य रहे इस स्मारिका को संदर्भित सज्जा को नया रूप प्रदान करने में अपनी पारिवारिक ग्रन्थ के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। स्मारिका में व्यस्तताओं के होते हए भी अथक परिश्रम किया है। आचार्यों, मुनिराजों के आशीर्वाद एवं राजनेताओं व जिससे स्मारिका का स्वरूप आकर्षक व भव्य बन समाज-सेवियों के संदेश प्राप्त हुए हैं, हम उनके प्रति सका है। उनके द्वारा किये गये प्रशंसनीय प्रयासों व
अनुभव हो रहा है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
सहयोग के लिए हम उनके प्रति आभार प्रगट करते हैं। शोभा यात्रा समिति - श्री नवीनसेन जैन, इस कार्य हेतु श्री दर्शनकुमारजी बाकलीवाल एवं श्री कैलाश गोधा, श्री अशोक लुहाड़िया, श्रीमती श्री सुरेशजी बज ने संयुक्त-प्रबन्ध सम्पादक के रूप में मृदुला पाण्ड्या , श्री सुरेश बज, श्री राजेन्द्र लुहाड़िया, जो सहयोग प्रदान किया है, हम उनके भी आभारी हैं। श्री हनुमान प्रसाद पाटोदी, श्री महेन्द्र शाह, श्रीमती प्रबन्ध मण्डल के अन्य सभी सदस्यों का, विज्ञापन शीला डोड्या, श्रीमती कल्पना जैन, श्रीमती अरुण दाताओं, विज्ञापन लाकर सहयोग प्रदान करने वालों जैन, श्री विजय सौगाणी, श्रीमती आशा बड़जात्या, का एवं किसी भी रूप में स्मारिका से जुड़े हुए सभी श्री अजय सेठी, श्री पूरणमल अजमेरा, श्री ज्ञानचन्द महानुभावों का भी आभार प्रदर्शित करते हैं, जिनके बिलाला, श्री प्रदीप गोधा, श्री सुभाष जैन, श्री नवीन सहयोग से स्मारिका का कार्य पूर्ण हुआ है। सभा के सौगाणी, श्री विनोद जैन कोटखावदा, श्रीमती विद्युत अध्यक्ष श्री महेन्द्रकुमारजी जैन पाटनी द्वारा स्मारिका लुहाड़िया, श्रीमती कुसुम बज, श्री प्रेमचन्द बड़जात्या। हेतु दिये गये अमूल्य सुझाव ही नहीं, अपितु विज्ञापनों
सांस्कृतिक कार्यक्रम - श्रीमती स्नेहलता को जुटाने से सभी कार्य सहज बन पड़े हैं। आपके
शाह, श्री महावीरकुमार बिंदायक्या, श्री धनकुमार कठिन प्रयासों से स्मारिका से लेकर विज्ञापन एवं अन्य
लुहाड़िया। व्यवस्थाओं में आपका भरपूर सहयोग रहा है। मैं उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। पूर्व अध्यक्ष
सामान्य व्यवस्था समिति - संयोजक श्री रतनलालजी छाबड़ा, कार्यसमिति के सभी श्री शान्तिकुमार गोधा, सहयोगी श्री सुभाष गोधा, श्री पदाधिकारियों व सदस्यों के प्रति भी आभार प्रदर्शित सुरेशचन्द काला एवं पदमचन्द शाह। करता हूँ, जिनके सहयोग से हम सभी कार्य सफलता रक्तदान परामर्शक - डॉ. सुभाष गंगवाल, पूर्वक कर सके हैं।
डॉ. विनय सोनी, डॉ. निर्मल जैन, डॉ. सुभाष काला, महावीर जयन्ती समारोह के विभिन्न कार्यक्रमों डॉ. ज्ञानचन्द सोगाणी, डॉ. प्रभा लुहाड़िया, डॉ. के लिए निम्न प्रकार से समितियों का गठन किया गया दिलीप काला, संयोजक - श्री मनोज पापड़ीवाल, है, इनके संयोजकों व सहयोगी सदस्यों द्वारा प्रदत्त परामर्शक - श्री राकेश छाबड़ा, श्री दर्शनकुमार सहयोग के लिए आभार प्रगट करता हूँ। बाकलीवाल, सहयोगी श्री महेन्द्रगंगवाल, श्री सौभाग
कवि सम्मेलन- श्री शान्तिकुमारजी गोधा, मल जैन, श्री महावीर सुरेन्द्र जैन, श्री अंशुल पाटनी, श्री अरुण कोड़ीवाल, श्रीमती शीला डोड्या, श्री विनोद श्री अरिकेत जैन। छाबड़ा।
मुख्य जुलूस अर्थव्यवस्था - श्री सरदार भक्ति संध्या- श्रीमती विमला पापड़ीवाल मलजी सौगाणी, श्री वीरबहादुर बज। एवं श्रीमती कुसुम बज।
अर्थव्यवस्था समिति-श्री विमलचंद गोधा, प्रभात फेरी- श्री मनीष बैद, श्री प्रदीप जैन, श्री सुरेश बज, श्री देवकुमार शाह, श्री पदमचन्द पाटनी, श्री सुभाष जैन पाण्ड्या , श्री सुरेन्द्र कुमार पाटनी, श्री राजमल छाबड़ा, श्री संजय काला, श्री राजेन्द्र श्रीमती शीला डोड्या, श्रीमती विमला गोधा। कुमार लुहाड़िया, श्री सुरेन्द्र मोहन जैन, श्री कैलाशचन्द
शोभा यात्रा-- श्री अरुण कोड़ीवाल बिंदायक्या, श्री भागचन्द छाबड़ा, श्री प्रदीप ठोलिया, (परामर्शक), श्री योगेश टोडरका (संयोजक), श्री योगेश टोडरका, श्री कैलाशचंद सौगानी, श्री श्री राकेश छाबड़ा (संयोजक)।
कैलाशचंद लुहाड़िया, श्री शरद गंगवाल। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रचार-प्रसार - श्री रमेशचन्द चांदवाड़, स्मारिका के समय पर प्रकाशन व सुन्दर साज-सज्जा श्री मनीष बैद।
के लिए मैं संस्थान के संचालक श्री रमेशचन्दजी शास्त्री महावीर जयन्ती समारोह समिति :
जैन कम्प्यूटर्स का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ, हम उनके
आभारी हैं। महावीर जयन्ती समारोह को वृहत् रूप देने हेतु
कार्यालय के काम को सुचारू रूप से चलाने समाज के गणमान्य महानुभावों, जयपुर स्थित मन्दिरों के प्रतिनिधियों, जैन समाज के सभी वर्गों, महिलाओं,
हेतु श्री प्रमोद जैन एवं श्री अनिल जैन का भी सहयोग
प्राप्त हुआ। युवाओं व संस्थागत प्रतिनिधियों को मिलाकर एक समारोह समिति का गठन भी किया गया, जिससे सभा
उपरोक्त समितियों के सभी संयोजकगणों व
सदस्यों द्वारा महावीर जयन्ती के समस्त कार्यक्रमों को को भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। सभा उनके प्रति आभार प्रकट करती है।
उच्चता एवं ऐतिहासिकता प्रदान करने में सक्षम होंगे,
जिससे राजस्थान जैन सभा का काम उत्तरोत्तर प्रगति इस स्मारिका के प्रकाशन के लिए मुद्रण सम्बन्धी की ओर अग्रसर हो सकेगा। सभी कार्य मे. जैन कम्प्यूटर्स जयपुर पर सम्पन्न हुए।
-- इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ! जय महावीर !
-कमलबाबू जैन मंत्री, राजस्थान जैन सभा, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय
वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीसवें तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर के 2606वीं पावन जयन्ती समारोह
शुभ अवसर पर राजस्थान जैन सभा द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाश्य " महावीर जयन्ती स्मारिका" का यह 44वाँ पुष्प मनीषी सुधीजनों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष एवं गौरव का अनुभव करते हैं। इस अंक प्रकाशन के साथ राजस्थान जैन सभा अपनी स्थापना के 54 वर्ष पूर्ण कर 55वें वर्ष में प्रवेश कर रही है ।
" महावीर जयन्ती स्मारिका" का सर्वप्रथम शुभारम्भ जैन दर्शन के विश्रुत विद्वान मनीषी, राजस्थान जैन सभा के प्रेरक संस्थापक प्रातः स्मरणीय गुरुवर्य्य पण्डित श्री चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ द्वारा सन् 1962 में हुआ था। उन्होंने तीर्थंकर महावीर के सर्वोदयी सिद्धान्तों को मानवीय समाज को उपलब्ध कराने हेतु राजस्थान जैन सभा को 'स्मारिका' के प्रकाशन की प्रेरणा दी। उनके निर्देश को सभा ने बहुमान पूर्वक क्रियान्वित किया। सन् 1962 से 66 तक पाँच अंकों का विद्वतापूर्ण सम्पादन कर पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ ने समाज को सन्मार्ग प्रदान किया। उनकी ज्ञान- प्रसूत लेखनी से सुसम्पादित महावीर जयन्ती स्मारिका का सर्वत्र समादर हुआ और यह सन्दर्भग्रन्थ रूप में बहुमानित हुई। परिणाम स्वरूप ' स्मारिका प्रकाशन' राजस्थान जैन सभा की एक अपरिहार्य गतिविधि बन गई, जो अद्यावधि गतिमान है। पूज्य
पण्डित सा. ने स्मारिका को स्वयं की प्रज्ञापूर्ण लेखनी एवं विद्वान मनीषियों के सहयोग से संदर्भ ग्रन्थ के साथ स्वाध्याय ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान किया। जिससे यह स्मारिका ग्रन्थ रूप में विद्वानों, शोधार्थियों, साधुसन्तों एवं सामाजिकों के लिए अत्यन्त उपादेय बन कर सिद्ध हुआ । जैन एवं साहित्य समाज के प्रति उनकी यह अनुकम्पा वाचामगोचर है। उनकी प्रज्ञा मनीषा को सर्वदा नमन है।
स्व. पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ के पश्चात् उन्हीं के सुयोग्य प्रसिद्ध विद्वान शिष्यद्वय पण्डित श्री भंवरलालजी पोल्याका और जैन साहित्य के प्रथ इतिहासज्ञ विद्वान डॉ. श्री कस्तूरचन्दजी कासलीवाल के द्वारा स्मारिका का विद्वता पूर्ण सम्पादन हुआ । 1967 से 1982 तक इन दोनों विद्वान सम्पादकों ने स्मारिका को साहित्यिक परिपक्वता प्रदान की और पू. पं. सा. . के प्रज्ञापूर्ण सम्पादन कर्म को संरक्षित और संवर्द्धित किया। तत्पश्चात् पण्डित चैनसुखदासजी के ही शिष्य सम सम्प्रति आध्यात्मिक तत्त्ववेत्ता पं. श्री ज्ञानचन्दजी बिल्टीवाला ने सन् 1983 से 2002 तक के दो दशकों में महावीर जयन्ती स्मारिका का अपनी दार्शनिक ज्ञानाराधना से सुसम्पादन कर समाज के लिए अध्यात्म पाथेय प्रस्तुत किया। इन गुरु तुल्य विद्वान सम्पादक त्रय के ज्ञानोपयोगी सम्पादन के प्रति मत हूँ ।
महावीर जयन्ती स्मारिका - 2007
-
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
गत पाँच वर्षों से पं. श्री ज्ञानचन्दजी बिल्टीवाला सा. के निर्देश एवं प्रेरणा तथा राजस्थान जैन सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध समाज सेवी एवं इतिहास लेखक आदरणीय श्री महेन्द्र कुमारजी पाटनी सा. एवं मंत्री श्री कमलबाबू जी जैन के अनुरोध पर मैं स्मारिका के सम्पादन कर्म में प्रविष्ट होकर प्रवृत्त हूँ । इस गुरुतर दायित्व के निर्वहन में गुरुतुल्य प्रधान सम्पादकों का ही प्रेरणारूप सम्बल है ।
'महावीर जयन्ती स्मारिका' के प्रकाशन का उद्देश्य जैनाजैन जनता में भगवान महावीर के जीवन, दर्शन और उनके सर्वोपयोगी उपदेशों का प्रसार कर जैन साहित्य, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व आदि विषयों पर शोधपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करना रहा है। साहित्य शब्द से तात्पर्य ऐसी रचनाओं से है जो पाठकों में सद्भाव जागृत करें, जिसमें मानव-मात्र का हित - चिन्तन निहित हो । सत्यं शिवं सुन्दरम् से समन्वित उदात्त भावों का संचरण हो । इसी दृष्टि से स्मारिका में रचनाओं का चयन कर प्रकाशन किया गया है।
तीर्थंकर महावीर के शाश्वत हितकारी उपदेशों / संदेशों को जन-जन तक पहुँचाने की दृष्टि से स्मारिका में पूज्य आचार्यों, मुनिराजों, सन्तों, विद्वान् मनीषियों एवं सामाजिक चिन्तकों के सर्वोपयोगी आलेखों का चयन कर प्रकाशित किया गया है । इस अंक में नवीन लेखों के साथ ऐसे दुर्लभ एवं बहुमूल्य लेखों को भी प्रकाशित किया गया है जो आज से 40-45 वर्ष पूर्व जैन विद्या के प्राच्य-वरिष्ठ विद्वानों द्वारा लिखे गये थे, जिनकी आज भी प्रासंगिकता एवं समाजोपयोगी आवश्यकता है। जिनका अभिज्ञान कराना आज भी अपेक्षित और हितावह है। आचार्य श्री विद्यानन्दजी मुनिराज और आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की प्रेरणा से प्राकृत विद्या एवं जिन भाषित में भी ऐसे ही प्राच्य एवं बहुमूल्य लेखों को जन हिताय प्रकाशित किया जा रहा है। निश्चित ही ये रचनाएँ मानवीय समाज को विविध क्षेत्रों में दिशाबोध प्रदान करती हैं।
इनमें उल्लेखनीय हैं पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् का तीर्थंकर महावीर, क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी कृत अध्यात्म और अहिंसा, पं. कैलाशचन्दजी शास्त्री द्वारा रचित अध्यात्म और सिद्धान्त, पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ का भक्ति का फल, डॉ. कस्तूरचन्दजी कासलीवाल का राजस्थानी जैन सन्तों की साहित्य साधना, राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर रचित जैन संस्कृति वेदपूर्व है, पं. श्री भंवरलालजी न्यायतीर्थ रचित जयपुर के जैन दीवान और डॉ. ज्योतिप्रसादजी जैन का दिगत्वरत्व का महत्व ।
चार खण्डों में विभक्त स्मारिका के प्रथम खण्ड भगवान महावीर : जीवन एवं दर्शन में सर्वप्रथम आचार्य भगवन्त श्री कुन्दकुन्द द्वारा प्राकृत में रचित चौबीस तीर्थंकरों की भक्तिपरक गाथाएँ और संस्कृत में रचित मंगलाष्टक का हिन्दी गद्यानुवाद मंगलाचरण स्वरूप है। जैन विद्या के प्रसिद्ध वरिष्ठ विद्वान डॉ. महेन्द्रसागरजी प्रचण्डिया की दो गद्य गद्य रचनाएँ मर्मस्पर्शी और सारगर्भित हैं। इस खण्ड के अन्य आलेखों में पूर्वराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन का तीर्थंकर महावीर, श्री नीरजजी जैन का महावीर का श्रावक, श्री चंचलमल चौरडिया का महावीर का वीतराग दर्शन, डॉ. नरेन्द्र भानावत का वर्तमान में भगवान महावीर के चिन्तन की सार्थकता, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल का महावीर का घटना प्रधान जीवन नहीं, डॉ. दयानन्द भार्गव का भगवान महावीर की साधना आदि भगवान महावीर के जीवन एवं दर्शन को विशेष उद्घाटित करते हैं।
द्वितीय खण्ड : अध्यात्म और सिद्धान्त में आचार्य श्री सन्मतिसागरजी का मोक्ष पदार्थ मुक्ति मार्ग में पाथेय है। क्षुल्लक श्री जिनेन्द्रजी वर्णी का अध्यात्म
अहिंसा और पं. कैलाशचन्दजी शास्त्री का अध्यात्म और सिद्धान्त, आर्यिका शीतलमति का द्रव्य गुण, पण्डित श्री शिवचरणलालजी का निश्चय - व्यवहार, श्री बिल्टीवालाजी का अन्तरात्मा की अन्तर्मुखता आदि महावीर जयन्ती स्मारिका - 2007
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेख जैन दर्शन के सिद्धान्तों का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत नतमस्तक हैं, जिनके आलेखों एवं शुभाशीर्वादों से करते हैं।
स्मारिका गौरवान्वित हुई है। विद्वान लेखक मनीषियों ततीय खण्ड: भक्ति और साहित्य-साधना के प्रति कृतज्ञ हैं, जिनसे स्मारिका संदर्भ ग्रन्थ बनता में आचार्य श्री विद्यानन्दजी मुनिराज और आचार्य श्री
यी है। उपराष्ट्रपति श्री भैरोसिंहजी शेखावत, राजस्थान विद्यासागरजी महाराज के क्रमश: भक्ति में मक्ति का विश्वविद्यालय के कुलपति श्री एन. के. जैन एवं अंकुर और आचार्य साधुस्तुति तथा पं. चैनसुखदासजी।
तथापं. चैनसखदासजी मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री एन. न्यायतीर्थ का भक्ति का फल और डॉ. भंवरदेवी पाटनी के. जैन के प्रति शुभकामना सन्देश हेतु अनुगृहीत हैं। का जिनेन्द्र भक्ति लेख परक महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। जो राजस्थान जैन सभा के अध्यक्ष श्री महेन्द्र मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करती हैं। इस अंक में कुमारजी पाटनी, मंत्री श्री कमलबाबूजी जैन, प्रबन्ध डॉ. कासलीवालजी के जैन संतों की साहित्य साधना संपादक श्री जयकुमारजी गोधा एवं कार्यकारिणी के के अतिरिक्त सल्लेखना से संबंधित तीन आलेख सामयिक सभी सदस्य साधुवाद के पात्र हैं, जो प्रतिवर्ष स्मारिका शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं।
प्रकाशन में सक्रिय रहते हैं। स्मारिका सम्पादन में पं. चतर्थ खण्ड : संस्कति और इतिहास में श्री ज्ञानचन्दजी बिल्टीवाला के निरन्तर मार्गदर्शन एवं आचार्य श्री कनकनन्दीजी का प्राचीन भारत के गणतंत्र. श्री डॉ. जिनेश्वरदासजी जैन एवं श्री महेशचन्दजी श्री रामधारी सिंह दिनकर का जैन संस्कृति वेद पर्व है. चांदवाड़ा के सहयोग के लिए आभारी हूँ। स्मारिका डॉ. राजेन्द्र बंसल का वैशाली में महावीर दर्शन, के समय पर शुद्ध एवं सुन्दर मुद्रण हेतु श्री रमेशचन्दजी श्री महेन्द्र कुमारजी पाटनी का ऐतिहासिक अतिशय जैन शास्त्री, जैन कम्प्यूटर्स को भूरिश: धन्यवाद है। क्षेत्र घोघा, पं. भंवरलालजी न्यायतीर्थ का जैन दीवान, महावीर जयन्ती स्मारिका का यह 44वाँ अंक डॉ. शैलेन्द्र रस्तोगी का जिन छत्र आदि लेख जैन भगवान महावीर के सर्वोदयी सिद्धान्तों को समाहित संस्कृति की प्राचीनता एवं प्रभाव से परिचय कराते हैं। करता हुआ सभी जन-मन के लिए मंगलकारी होवे।
स्मारिका में आचार्य श्री सन्मतिसागरजी सभी को सौख्यकारी होवे। सभी आत्मोत्थान में जयेन्द्र महाराज, आचार्य श्री विद्यानन्दजी मनिराज. आचार्य व जयवन्त हो। इन्हीं मंगल भावनाओं के साथ वीर श्री विद्यासागरजी महाराज, आचार्य श्री कनकनन्दीजी प्रभुः पातुनः। महाराज, आचार्य श्री निर्भयसागरजी महाराज एवं मुनि
- डॉ. प्रेमचन्द रांवका श्री पावनसागरजी और विनम्रसागरजी के चरणों में
22, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर
दूरभाष : 0141-2545570
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आभार
प्रबन्ध सम्पादक की ओर से ..
ॐ अर्हन्तसिद्धसाधुभ्यो नमः
जिन-शासन के नायक चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की जन्म जयन्ती के पावन पर्व पर महावीर जयन्ती स्मारिका का 44 वाँ अंक आपके समक्ष सहर्ष प्रस्तुत है ।
स्मारिका के 44 वें अंक के प्रबन्ध सम्पादक के गुरुतर भार को वहन करने के लिए गत वर्षों की निरन्तरता में मुझे पुनः अवसर दिये जाने के निर्णय के प्रति मैं, राजस्थान जैन सभा की कार्यकारिणी का आभार व्यक्त करता हूँ।
स्मारिका के द्वारा जैन धर्म एवं भगवान महावीर के सन्देशों आदि को सरल सारगर्भित भाषा
अधिकाधिक प्रबुद्ध सुधी पाठकों की रुचि अनुसार उन तक पहुँचाने में पठनीय सामग्री के चयन करने
श्रम साध्य कार्य करने के लिए हमारे परामर्शदाता श्री ज्ञानचन्दजी बिल्टीवाला, प्रधान सम्पादक डॉ. प्रेमचन्दजी रांवका एवं उनके सहयोगी श्री महेशचन्दजी चाँदवाड़ और डॉ. जे. डी. जैन के योगदान के लिए इन सबका आभार ।
स्मारिका का मुद्रण आर्थिक उपलब्धता पर निर्भर करता है और इसकी उपलब्धता ही इसके निरन्तर आकर्षक रूप में प्रकाशित होते रहने का आधार है। स्मारिका में प्रकाशित विज्ञापनों की प्राप्ति
को लक्ष्यानुसार गति देने के कार्य में गत वर्षों की भाँति इस वर्ष भी सभा अध्यक्ष श्री महेन्द्रकुमारजी जैन पाटनी का यथासमय सम्पूर्ण मार्गदर्शन, सहयोग एवं साथ हर प्रकार से मुझे स्नेह सहित बराबर मिलता रहा है। इस क्रम में पूर्व की भाँति श्री पाटनीजी ने विज्ञापन दाताओं, विज्ञापन प्रदाताओं से सम्पर्क साधने में अपने व्यस्ततम समय में से समय दिया, हम साथ-साथ कई स्थानों पर गये, इस मूल्यवान सम्पूर्ण सहयोग के लिए मैं उनका अत्यन्त आभार माता हूँ।
मंत्री श्री कमलबाबूजी, ने स्वयं के स्तर से प्रयास करके यथासमय विज्ञापन जुटाकर सहयोग दिया। इसके लिए इनका एवं सभा के अन्य पदाधिकारियों व श्री अरुणजी कोड़ीवाल से मिले सहयोग के लिए उन सबका आभार व्यक्त करता हूँ।
श्री प्रेमचन्दजी छाबडा उपाध्यक्ष तथा वरिष्ठ साथी श्री प्रकाशचन्दजी ठोलिया का पूर्व वर्षों की भाँति ही पूरा-पूरा सहयोग मुझे मिला है। इसके लिए आभारी हूँ ।
स्मारिका में बड़ी राशि के विज्ञापन देने वालों में श्री गणेशजी राणा, श्री अशोकजी पाटनी किशनगढ, श्री विवेकजी काला, श्री नरेशचन्दजी जैन, श्री प्रदीपजी जैन, श्री अनिलजी सोनी,
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सोहनलालजी सेठी, श्री सुदीपजी सोनी, एवं बड़े श्री ओमप्रकाशजी जैन, श्री कैलाशजी गोधा, प्रतिष्ठानों आदि का आभारी हूँ।
श्री दिनेशकुमारजी गोधा, श्री हरकचन्दजी, श्री आर. के. लहाडियाजी. श्री रविन्द्र श्री श्रेयांसकुमारजी बाकलीवाल, श्री मनोजजी कुमारजी जैन बैनाडा, श्री अमरचन्दजी छाबड़ा के
पापड़ीवाल, श्री विनयजी जैन, श्री अविनाशजी जैन, प्रयत्नों से मिले विज्ञापनों के सहयोग के लिए मुझे
से श्री योगेशकुमारजी टोडरका, श्री जिनेन्द्रजी पाटनी, इनका आभार व्यक्त करने में प्रसन्नता का अनुभव
श्री नरेन्द्रकुमारजी ठोलिया, श्री भागचन्दजी छाबड़ा, हो रहा है।
श्री विजयकुमारजी सौगाणी, श्रीकैलाशचन्दजी गोधा,
श्री राकेशजी गोधा, श्री मनीषजी बैद, श्री विनोदजी प्रतिवर्ष स्मारिका में विज्ञापन दिलाने के
छाबड़ा, श्री विवेकजी पाटनी, श्री जिनेन्द्रकुमारजी लिए समाज के कई गणमान्य महानुभावों से सम्पर्क
कासलीवाल, श्री जयकुमारजी पाटनी कालाडेरावाले, होता है। और उनमें से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से श्री सभाषजी जैन, श्री राकेशजी जैन, श्री अशोकजी कईयों का उल्लेखनीय सहयोग मुझे मिला है, इसके
कोड़ीबाल, श्री राकेशजी छाबड़ा, श्री राकेशजी लिए मैं उनके प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुये
संघी, श्री वीर बहादुरजी बज, श्री ए.के. साह साहब, भविष्य में भी पूर्ण सहयोग की अभिलाषा रखता हूँ।
श्री कान्तीकुमारजी सेठी, श्री राकेशजी ठोलिया, श्री मुझे मिले उल्लेखनीय सहयोग में श्री किशोरजी
सुनीलजी बख्शी सहित उपर्युक्त महानुभावों एवं इनके सरावगी, श्री त्रिलोकचन्दजी कोठारी, श्री मुकेशजी
अतिरिक्त अन्य महानुभावों से मिले सहयोग के लिए छाबड़ा, श्रीमती श्वेताजी पाण्डया, श्री अभयजी
सभी का आभार एवं भविष्य में भी सहयोग की गोधा, श्री आमोदजी दीवान, श्री कमलकुमारजी
आशा। गंगवाल, डॉ. सुभाषजी गंगवाल, श्री कमलचन्दजी छाबड़ा, श्री उमरावमलजी संघी, श्री एम. के. जी
प्रबन्ध मंडल के मेरे साथी श्री सुरेशजी बज जैन, श्री एकेन्द्रकुमार जी, श्री कैलाशजी साह, तथा श्री दर्शनकुमारजी बाकलीवाल, निर्मलकुमारजी श्री सुरेन्द्रमोहनजी, श्री प्रेमचन्दजी बड़जात्या, श्रीमती कासलावाल आधक साक्रय
__कासलीवाल अधिक सक्रिय रहे हैं - इस हेतु मैं इनका वन्दनाजी टोंग्या, श्रीमती मधुजी पाटनी. आभार व्यक्त करता हूँ। श्री भारत भूषणजी जैन, श्री विनोदजी कोटखावदा, मुद्रण कार्य में श्री रमेशचन्दजी शास्त्री, जैन श्री प्रकाशजी अजमेरा, श्री शांतिकुमारजी गोधा, कम्प्यूटर्स का सहयोग मिला है, उन्होंने समय पर कार्य श्री रमेशचन्दजी चाँदवाड़, श्री सुधीरजी (लाली), बहुत सुन्दरता से पूर्ण किया उनको धन्यवाद ! श्री रामबाबूजी जैन, श्री सन्दीपजी पापडीवाल,
- जयकुमार गोधा श्री अनिलजी जैन, श्री सुरज्ञानीलालजी जैन,
प्रबन्ध सम्पादक, महावीर जयन्ती स्मारिका
राजस्थान जैन सभा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान जैन सभा, जयपुर
कार्यकारिणी के सदस्यों की सूची | क्र. | नाम
फोन मोबाईल श्री महेन्द्र कुमार जैन पाटनी, अध्यक्ष
2705831 2070953 D-127, सावित्री पथ, बापूनगर, जयपुर
9829499222 श्री प्रेमचन्द छाबड़ा, उपाध्यक्ष
3268599 2, न्यू कॉलोनी, एम.आई. रोड़, जयपुर श्री कैलाशचन्द साह, उपाध्यक्ष
2313068 | 9829016068 106, गली नम्बर-2, हिम्मतनगर, टोंकरोड़, जयपुर श्री कमलबाबू जैन, मंत्री
2603942 18, सवाईपाव की बगीची, जनता कॉलोनी,जयपुर 2611045 श्री शांति कुमार गोधा, संयुक्त मंत्री
2575514 589, गोधों का चौक,हल्दियों का रास्ता, जयपुर श्री प्रकाश अजमेरा, संयुक्त मंत्री
2592274 | 9414520475 801, बरकत नगर, टोंक फाटक, जयपुर श्री अरुण कोड़ीवाल, कोषाध्यक्ष
2569425 | 9414606129 कोड़ीवाल भवन, दाई की गली, घीवालों का रास्ता, जयपुर श्री श्री रतनलाल छाबड़ा, कार्यकारिणी सदस्य
2762853 श्री प्रकाचन्द ठोलिया, कार्यकारिणी सदस्य
2719100 श्री भागचन्द छाबड़ा, कार्यकारिणी सदस्य
2549618 | 9314871933 श्री विजय कुमार सौगानी, कार्यकारिणी सदस्य
2760860 9828454050 श्री जय कुमार गोधा, कार्यकारिणी सदस्य
2575931 श्रीमती स्नेहलता साह, कार्यकारिणी सदस्य
2709674 9414071604 श्री सुधीर बाकलीवाल (लाली), कार्यकारिणी सदस्य 2324575 9829156031 श्री राजेन्द्र कुमार हाड़ा, कार्यकारिणी सदस्य
2522833 9829078048 श्री कुन्थीलाल जैन, कार्यकारिणी सदस्य
2594213 9829038213 श्री निर्मल कुमार कासलीवाल, कार्यकारिणी सदस्य
2594043 श्री मनोज पापड़ीवाल, कार्यकारिणी सदस्य
2315598 9828014598 श्री मनीष बैद, कार्यकारिणी सदस्य
2709959 9414068572 श्री रमेशचन्द चाँदवाड़, कार्यकारिणी सदस्य
2524487 9414931891 श्री राकेश छाबड़ा, कार्यकारिणी सदस्य
2762853 9829991785 श्रीमती विमला पापड़ीवाल, कार्यकारिणी सदस्य
2565645 श्रीमती शकुन्तला गोधा, कार्यकारिणी सदस्य
2565416 श्री सुरेन्द्र मोहन जैन, कार्यकारिणी सदस्य
2313429 9414336124 श्री वीर बहादुर बज, कार्यकारिणी सदस्य
2720606 9414203345
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान जैन सभा, जयपुर विशेष आमंत्रित सदस्यों की सूची
| क्र.
फोन
मोबाईल
9829200003 9829066611 9414044688
9314866200
9414337555 9829049526 9828020776
नाम श्री गणेश राणा श्री विवेक काला श्री राजेन्द्र के. गोधा श्री सुमेर कुमार पाण्ड्या श्री सुभाष गंगवाल श्री संजीव जैन श्री कैलाशचन्द सौगानी श्री अनिल जैन (आर. पी. एस.) श्रीमती आभा जैन (आर. पी. एस.) श्री अरुण काला श्री पदमचन्द पाटनी श्री निर्मल कुमार पाटनी श्री धन कुमार लुहाड़िया श्री महावीर प्रसाद पहाड़िया श्री कैलाशचन्द गोधा श्री योगेश कुमार टोडरका श्री महावीर कुमार बिन्दायका श्री सुमेरचन्द राँवका श्री सरदारमल सौगानी श्री दर्शन कुमार बाकलीवाल श्रीमती कुसुम बज श्री नरेन्द्र कुमार सेठी श्री हंसराज जैन श्री राकेश तोतुका श्री भारत भूषण जैन श्री विनोद जैन कोटखावदा
2311966 5102222 2705888 2602862 2521491 2314582 2594514 2552366 2382789 2520672 2300960 2701164 2317083 2374207 2709989 2324537 2560650 2200258 2318727 5183902 2570138 2615044 2245595 2760424 2545239 2328004
9829064235 9414932441 9829060160
9414771158
9828467965 9414073035
26.]
9828363615 9314278866
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थान जैन सभा की गतिविधियाँ
2006-2007
MANANDMINIMiamsteries
राजस्थान जैन सभा की स्थापना 1953 में विभिन्न प्रकार के यथासंभव प्रयास करना एवं इस हेतु हुई। समग्र जैन समाज की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था आवश्यक विभिन्न आयोजनों को करना। का गौरव हासिल करते हुए अपने अनवरत् व उक्त सभी उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सभा बहुआयामी कार्यक्रमों का निर्वहन करते हुए अपने 54 द्वारा वर्ष 2005-2006 में कई महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न वर्ष पूर्ण कर रही है। यह समाज की एकता-सामाजिक किये गये। सुदृढ़ता व धार्मिक उन्नति के लिए निरन्तर कार्यों को
| महावीर जयन्ती समारोह : कर रही है, इसके प्रमुख उद्देश्यों में क्रमश: -
__ भगवान महावीर का 2605वाँ जन्म कल्याणक जैन समाज के आयतनों, साहित्यिक,
समारोह दिनांक 8 अप्रैल से 11 अप्रैल 2006 तक सांस्कृतिक धरोहर व संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु
राजस्थान जैन सभा द्वारा समग्र जैन समाज के सहयोग कार्यक्रम आयोजित करना एवं सहयोग करना।
से निम्न कार्यक्रमानुसार आयोजित किए गयेविभिन्न जैन संस्थाओं से संपर्क साधना और
कवि सम्मेलन : उन्हें समाज हित में संगठित कर एक सूत्र में बांधना व कार्य करने के लिए प्रेरित करना।
दिनांक 8 अप्रैल, 2006 को सायं 8 बजे
राजस्थान चेम्बर भवन लॉन, एम.आई. रोड, जयपुर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में फैली हुई सामाजिक
में आध्यात्मिक कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ, कुरीतियों को समाज के सहयोग से दूर करना।
जिसकी अध्यक्षता श्री राजेन्द्र गोधा, प्रधान संपादक समाज सेवा एवं धार्मिक प्रवृत्तियों के लिए समाचार जगत, मख्य अतिथि श्री गणेश कमार राणा, लोगों को प्रेरित करना तथा प्रेरणार्थ समाज-सेवियों विशिष्ट अतिथि श्री एस. के. जैन थे। कवि सम्मेलन को सम्मानित करना।
देर रात तक चला, जिसमें कवियों ने अपनी शानदार __जैन मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए प्राणीमात्र प्रस्तुतियाँ प्रदान की, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा की गई। की सेवा, जीवदया एवं अहिंसा के कार्यों को इसके संयोजकथे श्री अरुण कोड़ीवाल, श्रीशान्तिकुमार परिस्तिथियों अनुसार प्रमुखता से सहायता एवं सहयोग गोधा। प्रदान करना।
__ भक्ति संध्या : जैन समाज के सर्वांगीण विकास, जिनमें
दिनांक 9 अप्रैल, 2006 को सायं 7.00 बजे सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, साहित्यिक महावीर स्वामी का मन्दिर, गोपालजी का रास्ता जयपुर एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के संदर्भ में विकास के लिए में भक्ति संध्या का आयोजन किया गया, जिसकी मुख्य
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
अतिथि श्रीमती विमला देवी सोनी थी। कार्यक्रम घोड़े, विभिन्न बैण्ड, रथ व महिला मण्डलों की सदस्याएँ, संयोजक श्रीमती स्नेहलता शाह, श्रीमती शकुन्तला शिक्षण संस्थाओं के बच्चे अपने गणवेश में चल रहे गोधा थी। सर्वप्रथम सायं 7.00 बजे आरती एवं थे। विभिन्न भजन मण्डलियाँ भजन गाते हुए पूरे भक्तामर स्तोत्र पाठ का आयोजन जैन सोशल ग्रुप वातावरण को महावीरमय बनाये हुई थी। पूरे मार्ग में हेरिटेज सिटी जयपुर के सदस्यों के द्वारा सम्पन्न हुआ जगह-जगह शोभा यात्रा का स्वागत किया जा रहा था। एवं 8.00 बजे जयपुर की महिला मण्डलों एवं अन्य शोभा यात्रा के प्रमुख संयोजक श्री अरुण कोडीवाल, कलाकारों ने भक्तिरस के कार्यक्रमों को प्रस्तुत कर सभी
श्री योगेश टोडरका व श्रीमती कुसुम बज थे, जिन्होंने को भक्तिरस में सराबोर कर दिया।
बहुत ही सुन्दर ढंग से जुलूस को संजोया। इस कार्य प्रभातफेरी :
में उनके सहयोगी रहे श्री राजकुमार बरड़िया, श्रीमती दिनांक 10 अप्रैल, 2006 को प्रात: 6.00 शीलाडोड्या, श्री निर्मल गोधा, श्री अशोक लुहाड़िया, बजे प्रभातफेरी महावीर पार्क से प्रारंभ होकर शहर के श्री सुरेन्द्र बज, श्री प्रदीप जैन, श्रीमती कुसुम बज, विभिन्न मार्गों से होती हुई चाकसू के चौक पर विसर्जित श्री कैलाश गोधा, श्री अनिल जैन (आर.पी.एस), हुई। सभा कार्यालय पर सभा के अध्यक्ष श्री महेन्द्र श्री नवीनसेन जैन, श्री प्रदीप जैन, श्री राजेन्द्र लुहाड़िया, कुमार जैन पाटनी द्वारा 8.30 बजे ध्वजारोहण किया श्री महेन्द्र शाह, श्री विजय सोगाणी, श्री शांतीकुमार गया एवं महिला मण्डलों द्वारा झण्डागायन प्रस्तुत किया गोधा, श्री कैलाशचन्द गोधा, श्री निर्मल गोधा, श्री गया। चाकसू के चौक में स्थित जैन परिवारों द्वारा मृदुला पाण्ड्या, श्री सुरेश बज, श्री अशोक लुहाड़िया, अल्पाहार करवाया गया। प्रभात फेरी में जयपुर के श्रीमतीशीलागोधा, श्रीमती कल्पना जैन, श्री राजकुमार महिला मण्डलों, युवा मण्डलों, जैन सोशल ग्रुपों एवं
बड़जात्या, श्री वसन्त बाकलीवाल, श्री प्रेमचन्द छाबड़ा समाज की अन्य-अन्य संस्थाओं के प्रतिनिधि एवं
(फेशनहट)। महानुभावों ने भाग लिया। प्रभात फेरी के संयोजक थे श्रीमती कुसुम बज, श्रीमती इन्द्रा बड़जात्या, श्री प्रदीप
लड्डू वितरण : जैन,श्री सुभाष कुमार बज, श्री धनकुमार लुहाड़िया। ___ महावीर जयन्ती की शोभा यात्रा में भाग लेने शोभा यात्रा :
वाले स्कूल के छात्र-छात्राओं एवं मण्डलों को श्री
निर्मल कुमार पाटनी बापू नगर व कासलीवाल परिवार महावीर जयंती के पावन दिवस 11 अप्रैल को प्रात: 7.00 बजे विशाल जुलूस महावीर पार्क से
के सहयोग से लड्डू वितरण किये गये।
झाँकियों एवं मण्डल-मण्डलियों में निम्न रवाना होकर लालजी सांड का रास्ता, चौड़ा रास्ता, त्रिपोलिया बाजार, जौहरी बाजार, सांगानेरी गेट व संस्थाओं ने प्रथम, द्वितीय व तृतीय स्थान प्राप्त किया एम.आई. रोड होता हुआ रामलीला मैदान पहुँचकर झाँकियों में : धर्मसभा में परिवर्तित हुआ। शोभा यात्रा में विभिन्न आदर्श नगर जैन सभा
प्रथम महिला मण्डलों, जैन सोशल ग्रुप, दिगम्बर जैन सोशल श्याम नगर जैन समाज
द्वितीय ग्रुप, युवा मण्डलों, शिक्षण संस्थाओं के बच्चों एवं दिगम्बर जैन सोशल ग्रुप राज. रीजन द्वितीय समाज की अन्य संस्थाओं द्वारा जैन सिद्धान्तों पर अम्बाबाड़ी जैन समाज तृतीय आधारित झाँकियाँ निकाली गई। शोभा यात्रा में हाथी, दि. जैन महावीर स्कूल, सी स्कीम तृतीय
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
भजन मण्डल :
अग्रवाल ने की। विशिष्ट अतिथि माननीय श्री दिगम्बर जैन महिला मण्डल,
सोहनलाल सेठी थे। जौहरी बाजार, जयपुर
प्रथम
महावीर जयन्ती स्मारिका का विमोचन : स्नेह वनिता संघ
द्वितीय
महावीर जयन्ती समारोह की धर्मसभा में दिगम्बर जैन महिला मण्डल
माननीय श्री रामदास अग्रवाल सांसद द्वारा स्मारिका महावीर स्वामी मन्दिर
तृतीय के 43वें अंक का विमोचन किया गया। डॉ. प्रेमचन्द्र महिला जागृति संघ
तृतीय रांवका स्मारिका के प्रधान सम्पादक थे एवं परामर्शदाता छात्रा अनुभाग :
श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला सम्पादक मण्डल में श्री दि. जैन महावीर बालिका
डॉ. पी.सी. जैन एवं श्री महेशचन्द चांदवाड़ थे। विद्यालय
प्रथम
श्री जयकुमार गोधा स्मारिका के प्रबन्ध सम्पादक थे वीर बालिका स्कूल
द्वितीय एवं प्रबन्ध मण्डल में श्री सुरेशचन्द्र बज एवं पद्यावती जैन गर्ल्स सी. सैकेण्डरी
श्री निर्मल कासलीवाल थे। इसी अवसर पर महावीर स्कूल, जयपुर
तृतीय
जयन्ती विशेषांक के रूप में निकाली जानेवाली विभिन्न छात्रा अनुभाग:
पत्र-पत्रिकाओं का विमोचन भी उनके सम्पादकों द्वारा श्री महावीर दि. जैन स्कूल,
करवाया गया। सी स्कीम, जयपुर
प्रथम
रक्तदान शिविर : श्री महावीर दिगम्बर जैन पब्लिक
महावीर जयन्ती के अवसर पर पूर्व विधानसभा स्कूल, सी स्कीम, जयपुर
प्रथम
में विपक्ष के नेता श्री बी.डी. कल्ला द्वारा रक्तदान स्टीकर श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत
का विमोचन करवाया गया। उसी क्रम में महावीर महाविद्यालय
द्वितीय जयन्ती के शुभदिवस पर रामलीला मैदान में विशाल धर्मसभा :
रक्तदान शिविर का आयोजन किया गया। रक्तदान का आचार्य श्री विशदसागरजी महाराज ससंघ के उद्घाटन श्री रामधन राजेशकुमार सिविर ज्वैलर्स वाले पावन सानिध्य में प्रात: 9.30 बजे धर्मसभा का कार्यक्रम
ने 8.00 बजे किया। सवाई मानसिंह चिकित्सालय, प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम ध्वजारोहण का कार्यक्रम माननीय
स्वास्थ्य कल्याण बैंक एवं सन्तोकबा दुर्लभजी ब्लड श्री नानगराम जैन (रत्न व्यवसायी) के कर-कमलों
बैंक, जयपुर के सहयोग से यह शिविर लगाया गया।
जिसमें करीब 260 व्यक्तियों द्वारा रक्तदान किया गया। द्वारा संपन्न किया गया। श्री वीर बालिका उ.मा.
रक्तदान हेतु स्वेच्छिक रक्तदान का पंजीयन भी किया विद्यालय की छात्राओं द्वारा बैण्ड वादन कर झण्डे का
गया। संख्यागत एक वर्ष में सर्वाधिक रक्तदान करने हेतु अभिवादन किया। तत्पश्चात् पद्मावती जैन उ.मा.
स्व. विद्याविनोदजी काला की स्मृति में संस्थाओं के विद्यालय की छात्राओं द्वारा मंगलाचरण प्रस्तुत किया
द्वारा सर्वाधिक रक्तदान देने के लिए भास्कर मल्टीनेट गया। समाज सेवी श्री उमरावमल संघी द्वारा दीप लिमिटेड, भास्कर ग्रप को एवं एक दिन में सर्वाधिक प्रज्ज्वलन किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि रक्तदान हेतु डॉ. श्रीमती प्रभा गोधा चल बैजयन्ती, माननीय श्री अशोक परनामी, महापौर जयपुर एवं जयपुर इंजीनियरिंग कॉलेज एण्ड रिसर्च सेन्टर सीतापुरा अध्यक्षता माननीय राजसभा सदस्य श्री रामदास को प्रदान की गई।
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
रक्तदान के परामर्शक थे डॉ. विनय सोनी, काला, राष्ट्रीय अध्यक्ष दि. जैन महासमिति थे। इस डॉ. निर्मल जैन, डॉ. सुभाष काला, डॉ. प्रभा लुहाड़िया, अवसर पर स्टीकर का विमोचन भी किया गया। डॉ. ज्ञानचन्द सोगानी, डॉ. दिलीप जैन। श्री मनोज
दशलक्षण पर्व समारोह : पापड़ीवाल रक्तदान शिविर के संयोजक थे जिन्होंने इस
सदैव की भाँति इस वर्ष भी दिनांक 28 अगस्त कार्य हेतु सभी व्यवस्थाएँ अपने स्तर पर पूर्ण की। उनके से 6 सितम्बर 2006 तक श्री दि. जैन मन्दिर बड़ा इस कार्य में सहयोगी रहे श्री निर्मल गोधा, म
गाधा, दीवानजी के परिसर में सभा द्वारा दशलक्षण धर्मसमारोह श्री सौभागमल जैन, श्री महावीर सुरेन्द्र जैन, श्री अशुल पूर्वक मनाया गया। प्रतिदिन पण्डित महेन्द्रकुमार शास्त्री पाटनी व श्री अरिकेत जैन।
द्वारा सोलहकारणभावना पर प्रवचन, विभिन्न संस्थाओं सांस्कृतिक कार्यक्रम :
द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति एवं आध्यात्मिक दिनांक 11 अप्रैल 06 को सायंकाल 8.00 प्रवक्ता पण्डित पीयूष शास्त्री, जयपुर द्वारा दशधर्मों पर बजे महिला जागति संघ द्वारा नाटक प्रस्तुत किया प्रवचन दिया गया। प्रवचन के पश्चात् प्रश्नमंच का गया। इसके संयोजक श्रीमती स्नेहलता शाह एवं श्री कार्यक्रम भी होता था। दसवीं से लेकर स्नातकोत्तर महावीर कुमार बिन्दायका थे। नाटक की मनोहारी परीक्षाओं में प्रथम दस में स्थान एवं 80 प्रतिशत से प्रस्तुति रही।
अधिक अंक प्राप्तकर्ताओं का सम्मान भी किया गया।
राज्यस्तरीय प्रशासकीय सेवाओं सी.एस., सी.ए. व उक्त सभी कार्यक्रमों की सामान्य व्यवस्था के .. संयोजक श्री शान्तिकुमार गोधा थे, जिन्होंने सुव्यस्थित
समकक्ष डिग्रीधारियों का सम्मान भी किया गया।
कार्यक्रम के संयोजक थे श्री मनोज पापड़ीवाल व तरीके से सभी व्यवस्थाएँ पूरी की।
श्री योगेश टोडरका। वीर शासन जयन्ती :
सामूहिक क्षमापन पर्व : 11 जुलाई 2006 को चाकसूके मन्दिर में वीर दिनांक 9 सितम्बर 2006 को रामलीला मैदान शासन जयन्ती मनायी गई, जिसके मुख्य अतिथि में 108 आचार्य श्री निर्भयसागरजी, 108 मुनि श्री डॉ.पी.सी. जैन गाँधीनगर थे। डॉ. शीतलचन्द जैन एवं सिद्धसेनसागरजी, 105 क्षल्लक श्री धवलसागरजी श्री बुद्धिप्रकाश भास्कर ने वीरशासन जयन्ती के संबंध
महाराज के पावन सानिध्य में क्षमापन पर्व का आयोजन में सभा को संबोधित किया।
किया गया, जिसमें 10 दिन एवं उससे अधिक दिवस अन्य धार्मिक समारोह :
तक उपवास करने वाले व्यक्तियों का सम्मान किया सम्मान समारोह :
गया। माननीय श्री एन.के. जैन कुलपति राजस्थान
विश्वद्यिालय द्वारा अध्यक्षता की गई। दीप प्रज्वलन राजस्थान जैन सभा द्वारा दिनांक 25 नवम्बर
श्री राकेश जैन नेकीवाला ने किया एवं विशिष्ट अतिथि 2006 को सायं 7.00 बजे भट्टारकजी नसियां स्थित
श्री विमल कुमार पाण्ड्या , श्री दीनदयाल पाटनी व श्री कुन्दकुन्द सभागार महावीर जयन्ती समारोह में सहयोग
राजेन्द्र के. गोधा थे। समारोह के अन्त में खोपरा-मिश्री देने वाली सम्माननीय संस्थाओं एवं व्यक्तियों का सम्मान
का वितरण हुआ। किया गया। जिसके संयोजक थे श्री शान्तिकुमार गोधा। समारोह के मुख्य अतिथि थे माननीय श्री महावीरप्रसाद
महावीर निर्वाण महोत्सव : जैन मुख्य सचेतक राजस्थान एवं अध्यक्ष श्री विवेक दिनांक 21 अक्टूबर 2006 को भट्टारकजी
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
की नसियां के तोतूका सभागार में सभा द्वारा भगवान सभी व्यवस्थाओं के लिए श्री शान्तिकुमार गोधा को महावीर के 2533वे निर्वाण कल्याण महोत्सव के संयोजक बनाया गया था। विधान का कार्य पं. प्रद्युम्न अवसर पर पूजन एवं सामूहिक लाडूचढ़ाने का कार्यक्रम कुमारजी द्वारा सम्पन्न करवाया गया। सम्पन्न हआ। इस कार्यक्रम के संयोजक श्रीशांतिकुमार समाजोपयोगी कार्य : गोधा थे।
महिला उद्योग एवं सिलाई केन्द्र कुरीतियों के निवारण हेतु समाज की सभा :
सभा द्वारा दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा तेरापंथी समाज की प्रतिनिधिसस्थाओं के प्रतिनिधिगणों के संयक्त तत्त्वावधान में सिलाई प्रशिक्षण केन्द्र वर्षभर एवं प्रमुख महानुभावों की उपस्थिति सभा कार्यालय चलता है, जिसमें कई महिलाओं एवं बालिकाओं को चाकसू के मन्दिर में मीटिंग रखी गई, जिसमें सभी सिलाई का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। समयवक्ताओं ने शादी-विवाहों में 20 से अधिक व्यंजन न समय पर केन्द्र में निर्मित वस्तुओं की प्रदर्शनी भी लगाई बनाये जावें; दिन में फेरे कराने व फिजूलखर्ची पर जाती है। इस कार्यक्रम की संयोजिका श्रीमती विमलाज अंकुश लगाने पर जोर दिया।
पापड़ीवाल हैं। ऋषभदेव जयन्ती समारोह :
संगीत प्रशिक्षण केन्द्र: जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव
सभा द्वारा राष्ट्रपति से पुरस्कृत श्री अजित जैन एवं उनके पुत्र भरत जिनके नाम से भारतवर्ष देश का अनुराग संगीत संस्थान के निर्देशन में दि. जैन मन्दिर
बड़ा तेरापंथी पर संगीत प्रशिक्षण का कार्यक्रम वर्ष भर नाम पड़ा, उनका दो दिवसीय कार्यक्रम दिनांक 12
चलता रहता है। यहाँ पर महिलाओं एवं बालिकाओं मार्च से 13 मार्च तक सभा द्वारा मनाया गया। दिनांक
को संगीत का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस कार्यक्रम 12 मार्च को सायंकाल 7.30 बजे मोहनलाल की संयोजक श्रीमती विमला पापड़ीवाल हैं। सुखाड़िया सभागार चैम्बर भवन पर भगवान ऋषभदेव
होम्योपैथिक चिकित्सालय : के संदर्भ में विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया,
राजस्थान जैन सभाएवं श्री दिगम्बर जैन मन्दिर जिससे प्रमुख वक्ताओं में सर्वश्री प्रो. दयानंद भार्गव,
बाकलीवालान् के संयुक्त तत्त्वावधान में होम्योपैथिक डॉ. सुषमा सिंघवी एवं श्री दिनेश गंगवाल थे, जिन्होंने
चिकित्सालय वर्ष भर चलाया जाता है। जिसका अपने-अपने विचार रखे। समारोह के मुख्य अतिथि
_ जनसाधारण को लाभ मिलता है। इसके संयोजक श्री श्री प्रकाशचन्द पाटोदी थे। विचार गोष्ठी के संयोजक धनकमार लहाडिया हैं। थे श्री प्रकाश अजमेरा थे।
सवाई मानसिंह चिकित्सालय में वार्ड नं. इसी क्रम में दिनांक 13 मार्च को तीर्थंकर 3 सी को गोद : । ऋषभदेव के जन्म दिवस पर मुनि श्री विनम्रसागरजी सवाई मानसिंह चिकित्सालय में वार्ड 3 सी को ससंघ के सान्निध्य में श्री दिगम्बर जैन मन्दिर मोहनबाड़ी सभा ने गोद ले रखा है। जिसमें इस वार्ड की की प्रबन्ध समिति के सहयोग से साजो पर भक्तामर आवश्यकतानुसार रख-रखाव व समान की पूर्ति सभा मण्डल विधान का पूजन किया गया। जिसमें कई द्वारा की जाती है। साथ ही समय-समय पर सभा के महानुभावों ने भाग लिया। श्रीजी के अभिषेक व माला सदस्यों एवं अन्य महानुभावों द्वारा यहाँ फल वितरण के पश्चात् सामूहिक भोज का आयोजन किया गया। का कार्यक्रम भी चलता रहता है। इसकी व्यवस्थाओं
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
की देखरेख हेतु श्री निर्मल कासलीवाल एवं कुन्थीलाल का आयोजन किया गया। इसमें विभिन्न स्कूलों के रांवका को संयोजक बनाया गया है। सभा द्वारा समय- बच्चों ने भाग लिया। इस कार्यक्रम के संयोजक थे श्री समय पर असहाय व्यक्तियों को दवाई उपलब्ध करवाई विजयकुमार सोगानी। प्रतियोगिता का विषय था वर्तमान जाती हैं एवं चिकित्सा सेवाओं के लिए कैम्पस् का परिप्रेक्ष्य में संयुक्त परिवार का औचित्य। आयोजन भी किया जाता है।
अन्य विविध कार्य : मेधावी छात्रों को पी.एच.डी. के लिए
आम कार्यों के अलावासमाज में व्याप्त कुरीतियों छात्रवृत्ति :
को दूर करने एवं शादी-विवाह में 20 से अधिक व्यंजन सभा जैन दर्शन पर राजस्थान विश्वविद्यालय न बनाने के संदर्भ में भी सभा समय-समय कार्यक्रम से पी.एच.डी. करने वाले छात्रों में छात्रवृत्तियों के रूप चलाती रहती है। साथ ही शाकाहार का प्रचार-प्रसार, में अनुदान भी प्रदान करती है। विगत वर्षों में दो छात्रों गौ-हत्या पर प्रतिबंध, बाढ या प्राकृतिक आपदाओं को डॉ. पी.सी. जैन की सलाह पर यह छात्रवृत्ति प्रदान में मदद, विविध अवसरों व जयन्तियों पर मांस व की गई है। इसके अलावा स्कूलों व अन्य जैन शिक्षा मदिरा की दुकानों को बंद करवाने के लिए सरकार से के आयतनों में भी समय-समय पर स्थितियों के अनुरूप अनुरोध, खुले रूप से मांस की बिक्री पर रोक; पुस्तकों, सभा सहायता प्रदान करती रहती है।
कपड़ों व फलों, दवाईयों का वितरण एवं अन्य सहायता व्यक्तित्व एवं बौद्धिक विकास हेतु
कार्यक्रमों पर भी वर्ष भर सभा कार्य करती रहती है। कार्यक्रम :
प्याऊ: निबन्ध प्रतियोगिता :
सभा द्वारा इस वर्ष जोहरी बजार में श्री 28 जनवरी 2007 को सुबोध स्कूल, जौहरी
र शान्तिकुमार गोधा पारस मेडिकल के सहयोग से प्याऊ बाजार में श्री के.सी. कटारिया चैरिटेबल ट्रस्ट बापूनगर :
लगाई गई, इसका नियमित संचालन श्री शांतिकुमार
गोधा द्वारा किया गया। के सौजन्य से निबन्ध प्रतियोगिता आयोजित की गई। . जिसमें विभिन्न स्कूलों के 300 छात्र-छात्राओं ने भाग
आभार : राजस्थान जैन सभा द्वारा वर्ष भर लिया।
किए जानेवाले कार्यक्रमों की एक विस्तृत श्रृंखला है
जिसे पूर्ण करना किसी अकेले व्यक्ति का कार्य नहीं है। चित्रकला :
मैं उन सभी संयोजकों व सहयोगियों का जिन्होंने अपनी दिनांक 28 फरवरी 2007 को जैन श्वेताम्बर पूर्ण निष्ठा व लगन से कार्यक्रमों को सफल बनाया है, स्कूल घीवालों के रास्ता पर हुई चित्रकला प्रतियोगिता उनका आभारी हैं। में 350 बच्चों ने भाग लिया। श्री राजेन्द्र लुहाड़िया,
कार्यकारिणी के सभी सदस्यगण जिनके श्री संजीव काला विशिष्ट अतिथि थे। संयोजक
मार्गदर्शन एवं सुझावों से सभी कार्य पूर्ण हुए उसका श्री विनोद जैन कोटखावदा एवं सहयोगी श्री नरेन्द्र
मुझे अहसास है, मैं उन सभी के प्रति आदर का भाव ठोलिया थे।
रखते हुए आभार व्यक्त करता हूँ। सभा के अध्यक्ष श्री वाद-विवाद प्रतियोगिता :
महेन्द्र कुमार जैन पाटनी ने वर्ष भर मेरा मार्गदर्शन किया दिनांक 17 मार्च 2007 को दोपहर 2.00 एवं सभी कार्य आगे होकर सम्पन्न करवाये व पुत्रवत् बजे श्री महावीर दिग. जैन बालिका विद्यालय, चोरुकों आशीर्वाद रखा। आपके सतत् प्रयासों समन्वय से का रास्ता, जयपुर में सभा द्वारा वाद-विवाद प्रतियोगिता सभा हमेशा उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर रही है।
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हुआ आभारी हूँ। में सहयोग प्रदान किया, मैं सभा की ओर से सभी का निवर्तमान अध्यक्ष श्री रतनलाल छाबड़ा, उपाध्यक्ष श्री आभारी हूँ। प्रेमचन्द छाबड़ा एवं श्री कैलाश चन्द साह ने मेरा आचार्य श्री 108 विशदसागरजी महाराज ससंघ मार्गदर्शन कर सहयोग प्रदान किया। मैं उनका हृदय से की, व्यवस्था करने में श्री निर्मल कुमार कासलीवाल,
आभारी हूँ। कोषाध्यक्ष श्री अरुण कोड़ीवाल ने आर्थिक श्री कन्थीलाल रांवका. श्री महेन्द्र गंगवाल एवं व्यवस्थाओं को पूरा किया। मैं उनका आभारी हूँ। श्री श्री निर्मल गोधा ने अपना अपर्व सहयोग प्रदान किया, शांति कुमार गोधा एवं प्रकाश अजमेरा संयुक्त मत्री का उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। उनके सहयोग के लिए आभारी हूँ। कार्यसमिति के सदस्य श्री प्रकाशचन्द ठोलिया, श्री जयकुमार गोधा,
महावीर जयन्ती समारोह समिति 2006 में श्री भागचन्द छाबड़ा, श्री अरुण सोनी, श्री विजय
समाज के सभी वर्गों के महानुभावों ने सम्मिलित होकर कुमार सोगाणी, श्रीमती स्नेहलता शाह, श्री सुधीर
जो अपूर्व सहयोग प्रदान किया, उसके लिए मैं उनका बाकलीवाल, श्री कुन्थीलाल रांवका, श्री मनोज बहुत-बहुत आभारा है। पापड़ीवाल, श्री निर्मल कासलीवाल एवं श्री मनीष बैद राजस्थान जैन सभा द्वारा इस वर्ष आयोजित ने समय-समय पर अनिवार्य सभी कार्यक्रमों में सभी परम्परागत महोत्सव व कार्यक्रम आशातीत रूप सहभागिता निभाते हुए सहयोग प्रदान किया। मैं उनका से सफल रहे व कार्यक्रम की कुछ नई कड़ियों का भी आभारी हूँ।
सृजन भी हुआ। जिसकी समग्र जैन समाज ने मुक्त सभा के विशेष आमंत्रित सदस्यों में श्री राजेन्द्र कण्ठ से प्रशसा की है। समाज की सभी संस्थाओं व के. गोधा श्री विवेक काला. श्री समेर कमार पाण्ड्या पुरुषां, महिलाओं एव युवावर्ग का इसकी सफलता में एवं श्री गणेश कुमार राणा ने हर तरह से मेरे प्रति भारी योगदान रहा है। सभा का यह वट वृक्ष 54वें वर्ष विश्वास का भाव रखते हए मार्गदर्शन एवं सहयोग में प्रवेश कर चुका है। आपका आशीर्वाद स्नेह घ, प्रदान किया, मैं उनका हृदय से आभारी हैं। मेरे स्नेही शुभकामनाएं इसके साथ चिरकाल तक जुड़ी रहे, ऐसी श्री निर्मल कुमार पाटनी, श्री सुमेर कुमार रांवका,
हम सभी की आकांक्षा है। स्वर्णिम वर्ष की सफलताएँ श्री नरेन्द्र कुमार सेठी, श्री महावीर प्रसाद पहाड़िया एवं
आगे भी नये सौपान का सृजन करे तो आइये हम श्री पदमचन्द पाटनी ने हमेशा मेरा हौसला बनाये रखा,
सभी इसके लिए सतत् प्रयास करते रहें। पूर्व वर्ष में मैं उनका आभारी हूँ।
मेरे द्वारा किसी अनुचित व कठोरपूर्ण व्यवहार से किसी
के अन्तस्थल को ठेस पहुँची हो तो मैं खेद व्यक्त अन्य सहयोगियों में श्री रमेशचन्द चांदवाड़,
करता हूँ। डॉ. आभा जैन, श्री राकेश छाबड़ा, श्री धनकुमार लुहाड़िया, श्री कैलाश गोधा, श्री योगेश टोडरका,
__ भविष्य में भी आपका स्नेह व सहयोग प्राप्त श्री महावीर बिन्दायका, श्री सरदारमल सोगाणी. हाता रहा श्री विनोद जैन कोटखावदा, श्रीमती विमलापापड़ीवाल, इसी आशा एवं विश्वास के साथ सभी को श्रीमती कुसुम बज, श्री कैलाशचन्द सोगाणी एवं महावीर जयन्ती की शुभकामनाएँ। श्री वीर बहादुर बज ने सभी कार्यक्रमों को सफल बनाने
- कमलबाबू जैन मंत्री, राजस्थान जैन सभा, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका-2007
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ आशीर्वाद
परस्परोपग्रहो जीवानाम्
जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा सत्य है धरती और आकाश का स्थान है, उसी प्रकार भगवान महावीर और उनके सत्-सिद्धान्त भी अटल और अचल हैं; जन-जन के लिए हृदयग्राही हैं - इसी से महावीर की पहिचान विश्व के मानचित्र पर सर्वोत्तम हैं।
राजस्थान जैन सभा महावीर जयन्ती को उच्च स्तर पर मनाती आ रही है, साथ ही 2004 में हमारे प्रथम वर्षायोग के अवसर पर आशीर्वाद और निर्देश से वीर शासन जयन्ती मनाने का संकल्प लिया और निरन्तर उत्साह पूर्वक सम्पन कर रहे हैं। इस वर्ष 2007 में नया कदम रहा कि रथ के ऊपर श्री 1008 महावीर भगवान की मूर्ति विराजमान कर रथ यात्रा निकाली, जिससे समय नर-नारी दर्शन का लाभ प्राप्त कर सके। हमारा सभी के लिए पूर्ण आशीर्वाद है। इसी प्रकार भगवान महावीर के सिद्धान्तों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए सतत् कार्यशील रहकर जिन धर्म की धारा में अवगाहन करते रहें। और जिन धर्म का ध्वज सतत् अपनी आभा बिखेरकर जन-मन को सन्तप्त करता रहे।
- आचार्य विशदसागर, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्देश ।
सत्यमेव जयते
मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि राजस्थान जैन सभा जयपुर दारा भगवान महावीर की पावन जयन्ती के अवसर पर गत 43 वर्षों से महावीर जयन्ती स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है । मुझे आशा है यह स्मारिका पठनीय, संग्रहणीय व प्रेरणा का स्रोत बनेगी।
भगवान महावीर ने तो प्राणी मात्र के प्रति प्रेम दया व करुणा का संदेश दिया था, हम उसी महावीर के अनुयायी हैं। एक बार पुनः हमें अपनी सोच को मजबूत करना होगा और भारतीय संस्कृति के परम मंत्र अहिंसा परमोधर्म: को गहराई से आत्मसात् करना होगा। जीव जन्तुओं की रक्षा करनी होगी। इसी को हृदयंगम कर साधु-संतों ने जीवदया को धर्म का एक प्रमुख स्तम्भ माना है।
मैं आपके प्रयासों की सराहना करते हुए प्रकाशित होने वाली स्मारिका की सफलता हेतु अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
गांधीनगर 22 मार्च,2007
नवल किशोर शर्मा राज्यपाल, गुजरात
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
|
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्देश
भगवान महावीर के संदेश जियो और जीने दो के प्रचार को रेखांकित करते हुए राजस्थान जैन समाज का सौभाग्य है कि राजस्थान जैन सभा द्वारा भगवान महावीर के सिद्धान्तों के प्रतिपादन में महावीर जयन्ती के उपलक्ष्य में एक स्मारिका का प्रकाशन किया जा रहा है।
राजस्थान जैन सभा के सभी पदाधिकारी एवं कार्यकर्ता बंधुओं को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ एवं महावीर जयन्ती पर सभी को हार्दिक बधाई।
धन्यवाद !
(प्रदीप कुमार सिंह कासलीवाल)
राष्ट्रीय अध्यक्ष दिगम्बर जैन सोशल ग्रुप फैडरेशन
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007/9
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
मर
सन्देश
मुझे जानकर बड़ा हर्ष हुआ है कि राजस्थान जैन सभा द्वारा गत कई वर्षों से महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन किया जाता है ।
इस स्मारिका में प्रकाशित लेखों से पाठकों को जैन धर्म और सिद्धान्तों की जानकारियाँ मिलती हैं और ज्ञान बढ़ाती हैं ।
स्मारिका के इस अंक हेतु मेरी एवं परिषद की पूरी कार्यकारिणी की ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई प्रेषित हैं । जय महावीर !
बलवन्त राय जैन राष्ट्रीय अध्यक्ष,
अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद्
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रथम खण्ड भगवान महावीर : जीवन व दर्शन 1. चउवीस तित्थयर भक्ति आचार्य कुन्दकुन्द 2. मङ्गलाष्टक (भावानुवाद) 3. आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया 4. जब बालक से विभु बने डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया, डी.लिट् 4-5 5. तीर्थंकर महावीर
डॉ. एस. राधाकृष्णन् (पूर्व राष्ट्रपति) 6-8 6. महावीर का श्रावक . नीरज जैन
9-11 7. महावीर का वीतराग दर्शन चंचलमल चोरडिया
12-15 8. वर्तमान में भगवान महावीर के तत्त्व-चिंतन की सार्थकता डॉ. नरेन्द्र भानावत
16-18 9. केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) भगवान महावीर डॉ. अनामिका जैन
19-20 10. भगवान महावीर के सिद्धान्त : आज के परिवेश में ललित कुमार जैन
21-22 11. भगवान महावीर प्रभु का तीसरा भव मरीचि के रूप में राजमल सिंघवी
23-24 12. भगवान महावीर और उनका जीवन दर्शन ज्ञानचन्द रांवका
25-26 13. भगवान महावीर के विचार : विश्वशान्ति के व्यवहार डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन
27-30 14. भगवान महावीर का जीवन घटना प्रदान क्यों नहीं ? डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
31-34 15. भगवान महावीर की साधना डॉ. दयानन्द भार्गव 16. विश्व शान्ति के प्रेरक भगवान महावीर
श्रीमती चन्द्रकान्ता छाबड़ा 37 17. भगवान महावीर का सर्वोदय तीर्थ और श्रावकाचरण प्रवीण चन्द्र छाबड़ा
38-39 118. महावीर नमन
श्रीमती कोकिला जैन
35-36
40
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
चवीस तित्थयर भत्ति
आचार्य कुन्दकुन्द
त्थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे । णरपवरलो यमहिए, विहुयरयमले महापण्णे ||१||
मल -
मैं अनन्त जिनेन्द्रों, तीर्थंकरों और केवलियों की स्तुति करता हूँ। वे सभी माहात्म्य को प्राप्त, रज- विधूत ( रहित ) और प्रमुख मानवों से लोक में पूजित हैं अथवा मानवों में प्रमुख और लोक - पूज्य हैं। लोयस्सुज्जोयकरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे |
अरहंते कित्तिस्से चउवीसं चेव केवलिणो ॥२॥
लोक को (उपदेश द्वारा) प्रकाशित करनेवाले, धर्मरूपी तीर्थ के कर्ता अरहंत जिनों को मैं नमस्कार करता हूँ तथा चौबीस केवली तीर्थंकर का मैं कीर्तन करता हूँ ।
उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमपहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥३॥
मैं ऋषभ और अजित जिन की वन्दना करता हूँ; संभव, अभिनन्दन और सुमति की वन्दना करता पद्मप्रभ, सुपार्श्व और चन्द्रप्रभ को वन्दन करता हूँ ।
सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयलं सेयंसं च वासुपुज्जं च । विमलमणतं भयवं धम्मं संतिं च वंदामि ||४॥
सुविधि (पुष्पदंत) शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति की वन्दना करता हूँ। कुंथुं च जिणवरिंद, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं । वंदे अरिट्ठणेमिं तह पासं वड्ढमाणं च ॥५॥
I
जिनवर कुन्थु, अर (नाथ), मल्लि (नाथ), सुव्रत (मुनिसुव्रतनाथ), नमि (नाथ), अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), पार्श्व तथा वर्धमान (महावीर) की वन्दना करता हूँ ।
एवं मए अभिgया विहुयरयमला पहीणजरमरणा । चवीसं वि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयं || ६ ||
इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किये गये, कर्म-रजमल से रहित, जरा-मरण से रहित जिनवर चौबीस तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों।
कित्तिय वंदिय महिया आ लोगोत्तमा जिणा सिद्धा । अरोग्गणाणलाहं दिंतु समाहिं च मे बोहिं ॥७॥
जो मेरे द्वारा (लोकों द्वारा भी) वचन से कीर्तित, पूजित और वंदित हैं, जो लोक में उत्तम हैं तथा कृतकृत्य हैं, वे जिन मुझे आरोग्यलाभ, ज्ञानलाभ, समाधि और बोधि प्रदान करें।
चंदेहिं णिम्मलयरा आइच्चेहिं अहियं पहाता । सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ||८||
चन्द्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रभावान, सागर के समान गम्भीर सिद्ध (आत्म-कार्य सिद्ध होने से अरहंत भी सिद्ध हैं), मुझे (लौकिक और आत्मिक दोनों) सिद्धि प्रदान करें ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /1
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
220252200000
मङ्गलाष्टक (भाषानुवाद)
अणिमादि अनेक ऋद्धियों से युक्त तथा नमन से सम्पन्न हैं, तीन प्रकार के बल से युक्त हैं और बुद्धि करते हुये सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों के मुकुटों में लगे हुये आदि सात प्रकार की ऋद्धियों के अधिपति हैं, वे जगत्पूज्य कान्ति युक्त रत्नों की प्रभा से जिनके चरणों के नख रूपी गणधर देव सबका मंगल करें ।।५।। चन्द्र भासमान हो रहे हैं, जो प्रवचन रूपी वारिधि को ऋषभ जिन की कैलाश, वीर जिन की पावापुर, वृद्धिंगत करने के लिये चन्द्रमा के समान हैं, जो सदा वासुपूज्य की चम्पा, नेमीश्वर की ऊर्जयन्त और शेष अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं और जिनकी योगीजन जिनों की सम्मेद शिखर निर्माण भूमियाँ हैं। विभव सम्पन्न स्तुति करते हैं, वे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय वे निर्वाण भूमियाँ मंगल करें॥६॥ और साधु सब का मंगल करें ।।१।।
__ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी और वैमानिकों निर्दोष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के निवास स्थान में तथा मेरु कुलाचल, जम्बूवृक्ष, यह पवित्र रत्नत्रय है। श्री सम्पन्न मुक्ति नगर के स्वामी शाल्मलीवृक्ष, चैत्यवृक्ष, वक्षारगिरि, विजयार्धगिरि, भगवान जिनदेव ने इसे अपवर्ग को देने वाला धर्म कहा इक्ष्वाकारगिरि, कुण्डलगिरि, नन्दीश्वरद्वीप और मानुषोत्तर है। इस प्रकार जो यह तीन प्रकार का धर्म कहा गया है पर्वत पर स्थित जिन चैत्यालय आपका मंगल करें॥७॥ वह तथा इसके साथ सूक्ति सुधा, समस्त जिन प्रतिमा देवों ने समस्त तीर्थंकरों के जो गर्भावतार
और लक्ष्मी का आकार भूत जिनालय मिलकर चार महोत्सव, जन्माभिषेक महोत्सव, परिनिष्क्रमण उत्सव, प्रकार का धर्म कहा गया है - वह मंगल करे ॥२॥ केवलज्ञान महोत्सव और निर्वाण महोत्सव किये, वे
तीन लोकों में विख्यात जो नाभेय आदि चौबीस पञ्चकल्याणक सकल का निरन्तर मंगल करें।।८।। तीर्थंकर हुए हैं, अनेक प्रकार की विभूति से युक्त जो भरत इस प्रकार तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक महोत्सवों
आदि बारह चक्रवर्ती हुए हैं, जो सत्ताइस - नारायण, के समय तथा प्रात:काल जो बुद्धिमान हर्षपूर्वक सौभाग्य प्रतिनारायण और बलभद्र हुये हैं, वे तीनों कालों में और सम्पत्ति को देने वाले इस जिन-मंगलाष्टक को प्रसिद्ध त्रेसठ महापुरुष सकल का मंगल करें॥३॥ सुनते हैं और पढ़ते हैं, वे सज्जन पुरुष धर्म, अर्थ और
___ काम पुरुषार्थ से युक्त लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं और अन्त जयाटिक आठ देवियाँ, सोलह विद्या दवता, अपाय रहित मोक्ष लक्ष्मी को भी प्राप्त करते है।॥९॥ तीर्थंकरों की चौबीस माताएँ और चौबीस पिता तथा उनके चौबीस यक्ष और चौबीस यक्षिणी, बत्तीस इन्द्र,
मनोरथाः सन्तु मनोज्ञ-सम्पदः,
सत्कीर्तयः सम्प्रति सम्भवन्तु । तिथि देवता, आठ दिक्कन्यायें और दस दिक्पाल ये सब
व्रजन्तु विघ्नानि धनं वलिष्ठं, देवगण आप सब का मंगल करें।।४।।
जिनेश्वरश्रीपद पूजनाद्वः ।। जो उत्तम तप से वृद्धि को प्राप्त हुई पंच सर्वोषधि
श्री जिनेन्द्र देव के चरणों के अर्चन से आप सब ऋद्धियों के स्वामी हैं, जो अष्टांग महा निमित्तों में कुशल के मनोरथ सिद्ध हों, मनवांछित सम्पत्ति, धन, यश प्राप्त हैं. आठ चारण ऋद्धियों के धारी हैं, पांच प्रकार के ज्ञान हों तथा समस्त विघ्न दूर हों।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/2
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का...
- विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का, घर-घर में गूंजे शहनाई। अवनी से अम्बर तक हरषे, विवुध-लोक से अमृत बरसे, राजमहल भर गया मोद से, कुण्डग्राम में बजे बधाई। आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का, घर-घर में गूंजे शहनाई॥१॥ अग-जग सारा हो उठा मुखर, किन्नरियाँ अब गा रहीं मधुर, परियाँ अद्भुत नाच रहीं हैं, मंजीरों की ध्वनि गहराई। आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का, घर-घर में गूंजे शहनाई।२।। जागा आपस में सदाचार, मन में सबके हों सद्विचार, सब द्वेष-द्वन्द्व मिट चले त्वरत्, हो गये सभी भाई-भाई। आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का, घर-घर में गूंजे शहनाई॥३॥ सब अहंकार गज से उतरें, जब अंतर में समता पसरे, सब कपट-दिखावा बिनस चले, जब वही आर्जवी पुरबाई।
आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का, घर-घर में गूंजे शहनाई।।४। संयम से सधता है जीवन, निर्मल हो जाये अन्तर्मन, निर्मल मन ही धर्म हमारा, हरता हरदय पीर-पराई। आज जन्म दिन सन्मति प्रभु का, घर-घर में गूंजे शहनाई।।५।।
0 मंगल कलश, सर्वोदय नगर, अलीगढ़ (उ.प्र.) २०२००१ वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये , महाऽर्णवे पर्वत मस्तके वा।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा , रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।। वन में, रण में, शत्रुओं में, जल में, अग्नि में, समुद्र में और पर्वत की चोटी पर असावधान और विषम अवस्था में पुरुष की रक्षा पूर्व जन्म के पुण्य ही करते हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/3
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
35555528
3888
- गण या विष से ।
जब बालक से विभु बने
विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया, डी.लिट्
जनम-मरण मिलकर प्राणी को संसारी बनाते नहाते रहे और शची जब उनका पोछन करती है, तो हैं। संसार उसके सुख-दुख भोगने की प्रयोगशाला है। जब बार-बार पोछने पर भी कपोल प्रदेश से जल बिन्दु अपने कर्मानुसार वह यहाँ अपनी आयुष्य अवधि भोगने पुछने का नाम नहीं लेता, तो वह साश्चर्य हैरान हो आता है। जन्म लेकर वह कर्म करने लगता है। गृहीत जाती है। शची को हैरान देखकर देवेन्द्र पूछते हैं। पास
और अगृहीत कर्मोदय होने पर वह सुख-दुख भोगता आकर वे विभु को पेखते और कपोल प्रदेश को परखते है। सुख और दुख स्वभाव से स्वाभिमानी होते हैं। हैं। देवेन्द्र शची से कहते हैं - आप नहीं जानती, किसी प्राणी के पास वे बिना बुलाये कभी नहीं आते आपके नाक के आभूषण में जो मोती जड़ा हुआ है, हैं। प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मों के माध्यम से सुख उसका प्रतिबिम्ब प्रभु के निर्मल कपोल प्रदेश पर पड़ता
और दुख बुलाता है। इस रहस्य को सामान्यत: वह नहीं है। दरअसल वह मोती नग का प्रतिबिम्ब है, जल बिन्दु जानता। भगवान महावीर ने इस रहस्य का उजागरण नहीं। किया था।
शची एक तरफ हटीं कि जल बिन्दु भी हट सोलह कारण भावनाओं को चिन्तवन करते- गया। कंचन सी काया है बालक वर्द्धमान की। कंचन करते उन्हें तीर्थंकर कर्म बंध गया था। महारानी त्रिशला सी काया में यह सब संभव है। की कुक्षि में जब उन्होंने प्रवेश किया, उससे पूर्व ही प्रभु वर्द्धमान के पंच नामों की महिमा को लोक में रतनन की वृष्टि होने लगी थी। दुकाल-सुकाल पुराणों ने बार-बार गाया और दुहराया है। वर्द्धमान, में परिणत हो उठा था। प्राणियों के सारे संताप प्रायः सन्मति, वीर, अतिवीर और महावीर संज्ञायें सार्थक सान्त हो गये। तीर्थंकर जीवन की पाँच घटनाओं - सिद्ध और प्रसिद्ध होती गयीं। गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष घटा करती हैं। इनसे महावीर के वचन, तप और संयम-साधना से लोक के प्राणियों का कल्याण होता है, अत: यहाँ इन्हें अनप्राणित होने से प्रवचन बन गये। वचन जब प्रवचन कल्याणक कहा जाता है।
बन जाते हैं, तब बौद्धिक प्रदूषण समाप्त हो जाता है। भगवान महावीर का जन्म कल्याणक बड़ी भगवान महावीर के व्यवहार कार्य प्रदूषण हर्ता हैं। धूमधाम से मनाया गया। कुण्डग्राम गर्वित हो उठा। महावीर के यथायोग्य तप-संयम साधना करते राजमहल में मंजीरे बजने लगे और बधाये गाये जाने सभी कल्याणक संपन्न होने लगे। ज्ञान कल्याणक संपन्न लगे। राज्य में राजकीय उपहार बाटे गये। निरीह निहाल होने पर स्थान-स्थान पर समवशरण सभाओं के हो उठे। विवुध शिरोमणि देवेन्द्र बालक विभु को नहान आयोजन किये गये। मानस्तम्भ की रचना सारे मान हेतु पाण्डुक शिला पर ले गये। सहस्र अठोतर कलशों समाप्त करने का अमोघ उपाय है। वेदज्ञ गौतम अपने से उनका नहान हुआ। प्रभावंत बालक रूप विभु निष्कम्प अनेक शिष्यों के साथ वहाँ पहुँचते हैं। वे तीर्थंकर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/4
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर की खिरती वणी के बीच अनेक प्रश्न कर करने पर श्रावक वर्णी, क्षुल्लक, ऐलक तथा आर्यिका अपना वैदुष्य प्रमाणित करना चाहते हैं। सभा में वे ज्यों बनकर आत्म-साधना में प्रवृत्त होते हैं। इसके उपरान्त ही प्रवेश करते हैं, उन्हें सामने ही मानस्तम्भ के दर्शन साधक साधु, उपाध्याय, आचार्य पद को प्राप्त करता हो जाते हैं और उनके दर्शन करते ही इनके सारे विरोध है। चार घातिया कर्मों को क्षयकर साधक स्वयं को अनुरोध में बदल गये। वे आगे बढ़ते प्रभु महावीर के अरिहंत पद पर प्रविष्ट पाता है। चौदहवें गुणस्थान को चरणों में विनत होकर गौतम गणधर की पदवी से प्राप्त कर क्षणभर में सिद्ध बन जाता है। ये ही पंच परमेष्ठी अलंकृत किये जाते हैं। उनकी निरक्षरी खिरती वाणी पद कहलाते हैं। जैन पंच परमेष्ठी की नित्य वंदना करते को समझने की सामर्थ्य रखने वाले गौतम ने उसे सरल हैं। यहाँ व्यक्ति की अपेक्षा आत्मिक गुणों की वंदना शब्दावलि में व्याख्यायित किया।
करने का विधान है। व्यक्ति वंदना से परावलम्बन और तीर्थंकर लोक कल्याणार्थ तीर्थ की स्थापना आत्मिक गुणों की वंदना करने से स्वावलम्बन के करते हैं। तीर्थ का अभिप्राय है - भवसागर से पार संस्कार उत्पन्न हुआ करते हैं। उतरने के लिए वह तट अथवा किनारा विशेष । यहीं आज ऐसे ही महान सुधी साधक जिनकी साधना से साधक भवसागर पार उतरने का प्रयास करता है। साध से सिद्ध पद तक निर्बाध चलती है, के जन्म तीर्थंकर की दिव्य देशना सुनकर भले प्राणी अपना जयन्ती का संदर्भ उपलब्ध है। चैत्र शुक्ला त्रयोदशी कल्याण करते हैं। व्यक्ति उदय और वर्गोदय के साथ- को भगवान महावीर का जन्मोत्सव मनाया जाता है। साथ भगवान वर्द्धमान सर्वोदय की व्यवस्था करते हैं। इस अवसर पर मात्र जयकारे लगाने से काम नहीं
__गृहस्थ और साधक के रूप में समाज को दो चलता। काम तब पूरा होता है, जब उनके आत्मिक भागों में विभक्त किया गया। गृहस्थ के लिए षट् गुणों को देखकर अपनी बिसरी आत्मिक सत्ता को
आवश्यकों के नित्य और निरन्तर पालने को निर्देश जगायें, उसे प्रयोग और उपयोग में लायें और कल्याण दिया गया। देव-दर्शन, गुरु-वंदना, तप, संयम, में प्रवृत्त होवें। स्वाध्याय और दान षट् आवश्यकों के पालने से जीवन
इत्यलम् ! मूर्छा मुक्त हो जाता है। त्रेपन नैत्यिक पालने की
- मंगल कलश, सर्वोदय नगर, अलीगढ़ क्रियायें गृहस्थ को श्रावक पद पर प्रोन्नत कर देती हैं।
(उ.प्र.) २०२००१, फोन नं. ०५७१-२४१०४८६ छटवीं से लेकर ग्यारह प्रतिमाओं के पालन
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रह सन्धौ ।
भव सम-चित्तः सर्वत्र त्वं, वांछस्यशु यदि तीर्थकरत्वम् ।। शत्रु व मित्र में अथवा पुत्र व बंधु में तोड़-जोड़ करने का प्रयत्न मत कर। यदि तीर्थंकर पद प्राप्त करना चाहता है, तो सर्वत्र समता भावी बन।
- सुभाषित
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/5
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
डॉ. एस. राधाकृष्णन् ( पूर्व राष्ट्रपति)
आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में है, वह अगोचर है, इन्द्रियातीत है। मनुष्य इस ब्रह्माण्ड के भंवर से छिटका हुआ छींटा नहीं है। आत्मा की हैसियत से वह भौतिक और सामाजिक जगत से उभर कर ऊपर उठा है। यदि हम मानव आत्मा की अंतर्मुखता का नहीं समझ पाते, तो अपने आपको गंवा बैठते हैं।
तीर्थंकर महावीर
चिन्तन का अक्ष बदला -
ईसा पूर्व ८०० से २०० के बीच के युग में मानव-इतिहास का अक्ष मानो बदल गया। इस अवधि में विश्व के चिंतन का अक्ष प्रकृति के अध्ययन से हटकर मानव जीवन के चिंतन पर आ टिका। चीन में लाओत्से और कन्फ्यूशस, भारत में उपनिषदों के ऋषि, महावीर और गौतम बुद्ध, ईरान में जरतुश्त, जूडिया में पैगम्बरों की परम्परा और यूनान में पीथागोरस, सुकरात और अफलातून इन सबने अपना ध्यान प्रकृति से हटाकर मनुष्य की आत्मा के अध्ययन पर केन्द्रित किया ।
आत्मिक संग्रामों का महावीर
मानव जाति के इन महापुरुषों में से एक हैं महावीर । उन्हें 'जिन' अर्थात् विजेता कहा गया है। उन्होंने राज्य और साम्राज्य नहीं जीते, अपितु आत्मा को जीता । सो उन्हें ‘महावीर' कहा गया है - सांसारिक युद्धों का नहीं, अपितु आत्मिक संग्रामों का महावीर । तप, संयम, आत्मशुद्धि और विवेक की अनवरत प्रक्रिया से उन्होंने अपना उत्थान करके दिव्य पुरुष का पद प्राप्त कर लिया। उनका उदाहरण हमें भी आत्मविजय के उस आदर्श का अनुसरण करने की प्रेरणा देता है ।
—
—
यह देश अपने इतिहास के आरंभ से ही इस महान आदर्श का कायल रहा है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के जमाने से आज तक के प्रतीकों, प्रतिमाओं और पवित्र अवशेषों पर दृष्टिपात करें, तो वे हमें इस परंपरा की याद दिलाते हैं कि हमारे यहाँ आदर्श मानव उसे ही माना गया है, जो आत्मा की सर्वोपरिता और भौतिकतत्त्वों पर आत्मतत्त्व की श्रेष्ठता प्रस्थापित करे । देश के धार्मिक दिगंत पर हावी रहा है। यह आदर्श पिछली चार या पाँच सहस्राद्वियों से हमारे
आत्मवान बनें.
जिस महावाक्य के द्वारा विश्व उपनिषदों को जानता है, वह 'तत्त्वमसि' - तुम वह हो। इसमें आत्मा की दिव्य बनने की शक्यता का दावा किया गया है और हमें उद्बोधित किया गया है कि हम नष्ट किये जा सकने वाले इस शरीर को, मोड़े और बदले जा सकने वाले अपने मन को आत्मा समझने की भूल न करें । आत्मा प्रत्येक व्यक्ति में है, वह अगोचर है, इन्द्रियातीत है । मनुष्य इस ब्रह्माण्ड के भंवर से छिटका हुआ छींटा नहीं है। आत्मा की हैसियत से वह भौतिक और सामाजिक जगत से उभर कर ऊपर उठा है। यदि हम मानव आत्मा की अंतर्मुखता का नहीं समझ पाते, तो अपने आपको गंवा बैठते हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /6
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
हममें से अधिकांश जन सदा ही सांसारिक को जानना चाहते हैं, तो हमें श्रवण, मनन, निदिध्यान व्याप्तियों में निमग्न रहते हैं। हम अपने आपको स्वास्थ्य, का अभ्यास करना होगा। भगवद्गीता ने इसी बात को धन, साजोसामान, जमीन, जायदाद आदि सांसारिक यों कहा है - 'तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।' वस्तुओं में गंवा देते हैं। वे हम पर स्वामित्व करने इन्हीं तीन महान सिद्धांतों को महावीर ने सम्यग्दर्शन, लगती हैं, हमें उनके स्वामी नहीं रह जाते। ये लोग सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से प्रतिपादित आत्मघाती हैं। उपनिषदों ने इन्हें 'आत्महनोः जनाः' किया है। कहा है। इस तरह हमारे देश में हमें आत्मवान बनने
हममें यह विश्वास होना चाहिए, यह श्रद्धा को कहा गया है।
होनी चाहिए कि सांसारिक पदार्थों में श्रेष्ठतर कुछ है। समस्त विज्ञानों में आत्मविज्ञान सर्वोपरि है - कोरी श्रद्धा से, विचार विहीन अंधश्रद्धा से काम नहीं अध्यात्म विद्या विद्यानाम् । उपनिषद् हमसे कहते हैं - चलेगा। हममें ज्ञान होना चाहिए - मनन। श्रद्धा की आत्मानं विद्धि । शंकराचार्य ने आत्मानात्मवस्तुविवेकः निष्पत्ति को मनन – ज्ञान की निष्पत्ति में बदल देता है, अर्थात् आत्मा और अनात्मा की पहचान को आत्मिक किन्तु कोरा सैद्धान्तिक ज्ञान काफी नहीं है। वाक्यार्थजीवन की अनिवार्य शर्त बताया है। अपनी आत्मा पर ज्ञानमात्रेण न अमृतम् - शास्त्र शब्दार्थ मात्र जान लेने स्वामित्व से बढ़कर दूसरी चीज संसार में नहीं है। से अमरत्व नहीं मिल जाता। उन महान सिद्धान्तों को इसीलिए विभिन्न लेखक हमसे यह कहते हैं कि असली अपने जीव में उतारना चाहिए। चारित्र बहुत जरूरी है। मनुष्य वह है, जो अपनी समस्त सांसारिक वस्तुएँ
हम दर्शन, प्राणिपात या श्रवण से आरम्भ करते आत्मा की महिमा को अधिगत करने में लगा दे। हैं। ज्ञान, मनन या परिप्रश्न पर पहुँचते हैं, फिर उपनिषद् में एक लब प्रकरण में बताया गया है कि पात, निदिध्यासन, सेवा या चारित्र पर आते हैं। जैसा कि पत्नी, संपत्ति सब अपनी आत्मा को अधिगत करने के बारे
जैन तत्त्व चिन्तकों ने बताया है, ये अनिवार्य हैं। अवसर मात्र हैं - आत्मनुस्त कामाय ।
अहिंसा का कार्य-क्षेत्र बढ़ायें - जो संयम द्वारा, निष्कलंक जीवन द्वारा इस स्थिति को प्राप्त कर ले, परमेष्ठी है। जो पूर्ण मुक्ति प्राप्त
चारित्र यानी सदाचार के मूल तत्त्व क्या हैं ? कर ले, वह अर्हत् है। वह पुनर्जन्म की संभावना से,
जैन गुरु हमें विभिन्न व्रत अपनाने को कहते हैं। प्रत्येक काल के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त है। महावीर के रूप
जैन को पाँच व्रत लेने पड़ते हैं - अहिंसा, सत्य, में हमारे समक्ष ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है, जो सांसारिक
अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। सबसे महत्वपूर्ण व्रत है वस्तुओं को त्याग देता है, जो भौतिक बंधनों में नहीं
अहिंसा, यानी जीवों को कष्ट न पहुँचाने का व्रत । कई फंसता, अपितु जो मानव आत्मा की आंतरिक मद्रिया इस हद तक इसे ले जाते हैं कि कृषि भी छोड़ देते हैं. को अधिगत कर लेता है।
क्योंकि जमीन की जुताई में कई जीव कुचले जाते हैं।
हिंसा से पूर्णतः विरति इस संसार में संभव नहीं है। जैसा ___ कैसे हम इस आदर्श का अनुसरण करें ? वह
कि महाभारत में कहा गया है - जीवो जीवस्य जीवनम् । मार्ग क्या है जिससे हम यह आत्म साक्षात्कार, यह
हमसे जो आशा की जाती है, वह यह है कि अहिंसा आत्मजय कर सकते हैं ?
का कार्य-क्षेत्र बढ़ायें - यत्नादल्पतरा भवेत् । हम प्रयत्न तीन महान सिद्धान्त -
करें कि बल प्रयोग का क्षेत्र घटे, रजामंदी का क्षेत्र बढ़े। हमारे धर्मग्रन्थ हमें बताते हैं कि यदि आत्मा इसप्रकार अहिंसा हमारा आदर्श है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/7
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
वस्तु अनेक धर्मात्मक
यदि अहिंसा को हम अपना आदर्श मानते हैं, तो उससे एक और चीज निष्पन्न होती है, जिसे जैनों ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त का रूप दिया है। जैन कहते हैं कि निर्भ्रात सत्य, केवलज्ञान हमारा लक्ष्य है, परन्तु हम तो सत्य का एक अंश ही जानते हैं। वस्तु 'अनेक धर्मात्मक' है, उसके अनेक पहलू हैं, वह
है। लोग उसका यह या वह पहलू ही देखते हैं, परन्तु उनकी दृष्टि आंशिक है, अस्थायी है, सोपाधिक है। सत्य को वही जान सकता है, जो वासनाओं से मुक्त हो ।
-
यह विचार हममें यह दृष्टि उपजाता है कि हम ठीक समझते हैं वह गलत भी हो सकता है। यह हमें इसका एहसास कराता है कि मानवीय अनुमान अनिश्चययुक्त होते हैं। यह हमें विश्वास दिलाता है कि हमारे गहरे से गहरे विश्वास भी परिवर्तनशील और अस्थिर हो सकते हैं ।
जैन चिंतक इस बारे में छह अंधों और हाथी का दृष्टांत देते हैं। एक अंधा हाथी के कान छूकर कहता है कि हाथी सूप की तरह है। दूसरा अंधा उसके पैरों को आलिंगन करता है और कहता है कि हाथी खंभे जैसा है। मगर इनमें से हर एक असलियत का एक अंश ही बता रहा है। ये अंश एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। उनमें परस्पर वह संबंध नहीं है, जो अंधकार और प्रकाश के बीच होता है, वे परस्पर उसी तरह संबद्ध हैं। जैसे वर्णक्रम के विभिन्न रंग परस्पर संबद्ध होते हैं । उन्हें विरोधी नहीं विपर्याय मानना चाहिए। वे सत्य के वैकल्पिक पाठ्यांक ( रीडिंग) हैं।
मानना चाहिए। एक ही मूलभूत सत्य के विभिन्न पहलू । सत्य के एक पक्ष पर बहुत अधिक बल देना हाथी को छूने वाले अपनी-अपनी बात का आग्रह करने के समान है।
विवेक दृष्टि अपनायें -
वैयक्तिक स्वातंत्र्य और सामाजिक न्याय दोनों मानव कल्याण के लिए परमावश्यक हैं। हम एक के महत्व को बढ़ा-चढ़ा कर कहें या दूसरे को घटाकर कहें, यह हो सकता है । किन्तु जो आदमी अनेकान्तवाद, सप्तभंगीनय या स्याद्वाद के जैन विचार को मानकर चलता है वह इसप्रकार के सांस्कृतिक कठमुल्लापन को नहीं मानता। वह अपने और विरोधी मतों में क्या सही है और क्या गलत है, इसका विवेक करने और उनमें उच्चतर विवेक साधने के लिए सदा तत्पर रहता है। यही दृष्टि हमें अपनानी चाहिए।
इस तरह संयम की आवश्यकता, अहिंसा और दूसरे के दृष्टिकोण एवं विचारों के प्रति सहिष्णुता और समझ का भाव - ये उन शिक्षाओं में से कुछ हैं, जो महावीर के जीवन से हम ले सकते हैं। यदि इन चीजों को हम स्मरण रखें और हृदय में धारण करें तो हम महावीर के प्रति अपने महान ऋण का छोटा-सा अंश चुका रहे होंगे।
O
- भगवान महावीर : आधुनिक संदर्भ से साभार
आज संसार नवजन्म की वेदना में से गुजर रहा है । हमार लक्ष्य तो 'एक विश्व' है, परन्तु एकता के बजाय विभक्तता हमारे युग का लक्षण है । द्वंद्वात्मक विश्व - व्यवस्था हमें यह सोचने को प्रलोभित करती है। कि यह पक्ष सत्य है और वह पक्ष असत्य है और हमें उसका खंडन करना है। असल में हमें इन्हें विकल्प
भारतीय संसद के संयुक्त अधिवेशन (दि. २३-०२-०७ को) में राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के अभिभाषण की उदात्त भावों से भरी अन्तिम काव्य पंक्तियाँ -
सदाचारी व्यक्ति का चरित्र निश्छल होता है। निश्छल चरित्र से घर में मेल-मिलाप रहता है । घर में मेल-मिलाप से देश व्यवस्थित होता है । व्यवस्थित देश से विश्वभर में शांति आती है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /8
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
COMMIT9330985998088888888888888888888888888888888888888888883
महावीर का श्रावक
नीरज जैन
श्रावकाचारों में श्रावक की जो परिभाषा बताई स्वामी-द्रोह, मित्र-द्रोह, विश्वासघात, चोरी, वंचना गई है उसके अनुसार उसे एक नीति सम्पन्न और सब और कर-अपवंचना आदि निन्दित और वर्जित उपायों प्रकार से प्रामाणिक जीवन जीने वाला आदर्श नागरिक से प्राप्त धन का उपयोग उसके लिए त्याज्य बताया गया होना चाहिए, बारहवीं शताब्दी के महान विद्वान पण्डित है। धर्मकार्यों में ऐसे कलंकित धन के उपयोग का तो आशाधरजी ने अपने ग्रन्थ में आदर्श श्रावक का जो निषेध है ही, परन्तु परिवार पालन के लिए भी उसका प्रभावक शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है, उस पर एक दृष्टि निषेध श्रावक का पहला नियम निरूपित करके उसके डाल लेने से जैन श्रावक की सारी विशेषताएँ हमें स्पष्ट महत्व को रेखांकित किया गया है। हो जायेंगी -
२. गुणगुरून् यजन - न्यायापात्तधना यजन्गुरुगुरुन् सद्गास्त्रिवग भज-
उसे गुणों के प्रति आदर, गुणवान व्यक्तियों के बन्योन्यानुगुणं तदहगृहिणीस्थानालयो ह्रीमयः। प्रति सम्मान और गुरुजनों के प्रति सदा पूज्यता का भाव युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी:,
होना चाहिए। श्रण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभी: सागारधर्मं चरेत्।।
३. सद्गीः - - पं. आशाधरजी, सागार धर्मामृत - १/११
श्रावक को मीठे और हितकर वचनों का प्रयोग पण्डितजी ने इस श्लोक में श्रावक को आचरण
करने वाला होना चाहिए। समाज में कलह और अशांति करने योग्य चौदह नियम बताये हैं जिन्हें हम जैन श्रावक
फैलाकर सामाजिक वात्सल्य को खण्डित करने वाले के 'चौदह मूलगुण' भी कह सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो श्रावक इन प्रारम्भिक नियमों के प्रति सचेत
वचनों का प्रयोग उसे नहीं करना चाहिए। रहेगा और उनकी विराधना को पाप मानकर चलेगा. ४. अन्योन्यानुगुणं त्रिवर्ग भजन् - वही पूज्य समन्तभद्राचार्य महाराज के 'गृहस्थो धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ 'त्रिवर्ग' कहलाते मोक्षमार्गस्थो' की कसौटी पर भी खरा उतर सकता है। हैं। श्रावक को अपनी जीवन पद्धति ऐसी बनानी चाहिए भगवान महावीर के हर आराधक को और हर अनुयायी जिसके माध्यम से इन तीनों पुरुषार्थों की निर्विरोध साधना को सही अर्थों में श्रावक होना चाहिए, इसलिए आइये संभव हो सके। एक बार इन नियमों को समझ लें।
यहाँ तात्पर्य यह है कि गृहस्थ जीवन में इतना १. न्यायोपात्त धनम् -
धर्मरहे जो श्रावक के अर्थ और काम पुरुषार्थ को नियंत्रित यह श्रावक का पहला नियम है। शायद यही करते हुए भी उनका विघातक या बाधक न हो। सबसे कठिन भी होगा। श्रावक को न्यायपूर्वक अर्जित श्रावक का अर्थ पुरुषार्थ । ऐसी मर्यादाओं से किये गये धन से ही अपनी आजीविका चलाना चाहिये। नियंत्रित होना चाहिए, जिससे उसके धर्म की हानि न
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-119
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो और साथ ही गृहस्थ की धार्मिक व सामाजिक मर्यादाओं के भीतर उसका काम पुरुषार्थ भी सिद्ध होता रहे ।
काम पुरुषार्थ का अर्थ केवल कामाभिलाषा या इन्द्रियों के विषय भोग मात्र नहीं हैं। काम का फलक विशाल है। कामना, इच्छा, अभिलाषा, वांछा आदि सभी प्रकार की आस-अभिलाष 'काम' के अंतर्गत ही आती हैं। श्रावक की कामनाएँ ऐसी और इतनी ही हों, जो उसके धर्म को खण्डित न करें और अर्थ - व्यवस्था के भी अनुकूल हों। आय से अधिक व्यय की आदत या चाह ही मनुष्य के जीवन में सारे अनर्थों की जड़ बनती 1
५. तदर्हगृहिणी स्थानालयो
अच्छे कुल-शील वाली स्नेहमयी पत्नी, सदाचारी सभ्य जनों की संगति या सत्समागम और ऐसी ही अनुकूलताओं से युक्त निवास-स्थान, ये सारे संयोग श्रावक को त्रिवर्ग की निर्दोष साधना में बाह्य कारण बनते हैं। जिसे ये तीनों अनुकूलताएँ प्राप्त हैं, वह गृहस्थ भाग्यशाली है।
६. ह्रीमय :
श्रावक को लज्जाशील होना चाहिए। लज्जा केवल स्त्रियों का आभूषण नहीं, वह पुरुषों का भी अनिवार्य गुण है। वास्तव में गृहस्थ को पाप वृत्तियों से और लोकनिंद्य कार्यों से बचाये रखने में लोकलाज का बड़ा हाथ होता है। लोकनिन्दा का भय न हो तो मनुष्य को राक्षस बनते देर नहीं लगती । पथभ्रष्ट होते हुए व्यक्ति के धर्म और व्रत उसे प्रत्यक्ष रूप से तत्काल कोई दण्ड नहीं देते, परन्तु लोकलाज तात्कालिक भय दिखाकर उसे पाप से बचाने में सहायक होती है, इसलिए यहाँ पण्डितजी ने लज्जा को भी श्रावक का गुण बताया है।
७. युक्ताहारविहार – स्वास्थ्य के अनुकूल तथा शरीर में मल वृद्धि, रोग वृद्धि और प्रमाद वृद्धि
जिससे न होती हो, ऐसे संतुलित और भक्ष्याभक्ष्य के विवेक से निश्चित किये गये परिमित आहार और धर्मानुसार आचरण तथा संचरण का नियम यहाँ 'युक्ताहारविहार' के द्वारा कहा गया है। भोजन शुद्धि के बिना मनः शुद्धि संभव नहीं और अमर्यादित आवागमन के रहते व्रतादि का निर्वाह संभव नहीं, इसलिए श्रावक के यह गुण होना आवश्यक है। ८. आर्यसमितिः
संत समागम और सत्संगति को 'आर्यसमिति' कहा गया है। सज्जनों की संगति से मनुष्य में सद्गुणों का विकास होता है और दुष्प्रवृत्ति वाले नीच लोगों की संगति में रहने से वैसी ही प्रवृत्ति बनती रहती है। आर्यसमिति सदाचार के निर्माण में और त्रिवर्ग की सिद्धि में सहायक बनती है।
९. प्राज्ञ:
हेय - उपादेय का विचार और आत्म-निरीक्षण 'प्राज्ञ' का अभिप्राय है। श्रावक को सदा यह विचार करते रहना चाहिए कि मेरी प्रवृत्ति जैसी हो रही है, उसका फल क्या है ? जो मैं करने जा रहा हूँ वह उचित है या नहीं ? मेरे लिए करणीय है या अकरणीय ? उससे राज्य के नियमों का उल्लंघन तो नहीं हो रहा ? उससे किसी के स्वत्व का हरण या किसी की हिंसा तो नहीं हो रही ? वे कार्य स्वहित और परहित में कहाँ तक कारण बन सकेंगे ? और मैंने आज जो किया है, वह मेरे लिए कहाँ तक योग्य था ? उसका फल तो मुझे ही भोगना होगा । निरन्तर ऐसा चिन्तन गृहस्थ को 'श्रावक' बनाये रखने में सहायक होता है ।
-
१०. कृतज्ञ:
जीवन में कृतघ्नता से बचते रहना और उपकारी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते रहना इस नियम का आशय है । कृतज्ञता मन को निर्मल बनाती है और वात्सल्य तथा प्रभावना आदि गुणों में सहायक होती है ।
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /10
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
११. वशी -
उत्कृष्ट गुण के रूप में व्याख्यापित किया गया है। ___पंच इन्द्रियों की चपलता पर तथा अंतरंग में साधक को दयालु होना ही चाहिए । दया से ही परिणामों उठती क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों की में वह कोमलता संभव है, जिसमें धर्म का अंकुरारोपण तरंगों पर सतत दृष्टि रखना और उन्हें नियंत्रित करते होता है। रहना यानी अपने मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों को १४. अघभी - अपने वश में रखना इस गुण की परिभाषा है। यह गुण वैसे तो सम्यग्दष्टि जीव को सात प्रकार के भयों अन्य अनेक गुणों के विकास में सहायक होता है। से रहित, निर्भीक होना चाहिए, परन्तु उसे किसी से १२. श्रण्वन् धर्म विधिम् -
डरना भी आवश्यक है। यहाँ शास्त्रकार ने 'अघभी' धर्म उपार्जन के कारणों को 'धर्म विधि' कहा कहकर पाप से भय को श्रावक का चौदहवाँ गुण कहा है। जिन कारणों से धर्म की वद्धि होती है - ऐसे व्रत. है। जब तक जीव पाप से और पाप के फल से डरेगा अनुष्ठान, साधना, तपस्या आदि की चर्चा करना अथवा नहीं, तब तक पुण्य के कार्य उसके जीवन में नहीं आ संसार, शरीर और भोगों में आसक्ति घटाकर मन में सकते और जब तक पुण्य के कार्यों को तात्कालिक विरक्ति उपजाने वाले प्रसंगों के सुनने में रुचि रखना, उपादेय मानकर उनमें संलग्नता नहीं होगी, तब तक बार-बार वैसे संयोग जुटाने का प्रयास करते रहना और जीवन में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता। ऐसे प्रसंगों का प्रसार करना 'श्रण्वन् धर्म विधिं' के . इस प्रकार इन चौदह गुणों को धारण करने अंतर्गत् प्रस्तुत किया गया है। इससे साधक के दोनों वाला व्यक्ति ही महावीर का श्रावक कहलाने का लोक सुधरते हैं।
अधिकारी कहा जाने योग्य है। ये न्यूनतम अर्हताएँ हैं १३. दयालु -
जो बिना कोई व्रत धारण किये भी श्रावक जीवन में 'धर्मस्य मूलं दया' तथा 'जियो और जीने दो'
अनिवार्यतः विद्यमान होनी चाहिए। आदि सूत्र वाक्यों के द्वारा जैन श्रावक के लिए दया को
- शांति सदन, कंपनी बाग, सतना (म.प्र.)
सा भार्या या प्रियं ब्रूते, स पुत्रो यत्र निर्वृत्तिः। तन्मित्रं यत्र विश्वासः, स देशो यत्र जीव्यते॥
पत्नी वही है, जो मीठा बोलती है। पुत्र वही है, जिससे शान्ति प्राप्त हो। मित्र वही है, जिस पर विश्वास किया जा सके और अपना देश वही है, जहाँ सुखपूर्वक जिया जा सके।
- शान्ति पर्व, महाभारत
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/11
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर का वीतराग दर्शन
838-88988888883
0 चंचलमल चोरडिया
महावीर का दर्शन पूर्णत: वैज्ञानिक - वे साक्षात् ज्ञाता, द्रष्टा, वीतरागी होते हैं। भगवान
इस संसार में समय-समय पर अनेक महापुरुष महावीर से पूर्व भी इस अवसर्पिणी काल में तेईस हो चुके हैं, जिन्होंने पीडित मानव को सन्मार्ग पर तीर्थंकर हो चुके हैं, जिन्होंने धर्म के शाश्वत स्वरूप लगाने का प्रयास किया। प्रायः सभी धर्म-प्रवर्तक का बोध कराया । महावीर ने किसी नये धर्म का प्रतिपादन अपनी-अपनी विशिष्टताओं से अलंकत रहे। उन्होंने नहीं किया, परन्तु उसी सनातन सत्य का साक्षात्कार देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपनी-अपनी कर प्राणिमात्र के कल्याण हेतु उपदेश दिया। सभी प्रज्ञा के अनुसार तत्कालीन समस्याओं के समाधान में सर्वज्ञों के उपदेश सिद्धान्त समान होते हैं, क्योंकि सत्य सहयोग दिया। मानव को उसके परम लक्ष्य एवं कर्तव्यों सनातन होता है। आवश्यकता है उसके सही स्वरूप का बोध कराया। नर से नारायण और आत्मा से को समझने एवं अपनाने की। धर्म आचरण की वस्तु परमात्मा बनने की कला सिखलाई। उनमें आस्था है, थोपने की नहीं। इसी कारण जैनियो के महामत्र रखने वाले विभिन्न धर्मावलम्बी अनुयायी आज भी नमस्कार, मंगलपाठ एवं अनुष्ठानों की साधना में गुणों उसका आचरण करने का प्रयास करते हैं। प्राय: सभी को ही महत्व दिया गया। किसी महापुरुष की नाम से व्यक्ति अपने-अपने धर्म अथवा आचरण को सर्वश्रेष्ठ पूजा अथवा गुणगान नहीं किया गया है। अतः यह मानते हैं। परन्तु धर्म क्या है ? उसका आचरण क्यों मानना गलत होगा कि जैन धर्म के नाम से प्रज्वलित
और कैसे किया जाना चाहिए ? धर्म तो सदैव धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर थे। कल्याणकारी होता है। अपरिवर्तनीय होता है। महावीर मात्र नाम नहींउसमें वैमनस्य, विरोध और विभेद को कोई स्थान महावीर मात्र नाम नहीं है, उसका सम्बन्ध कर्म नहीं। धर्म अलग है और साम्प्रदायिकता अलग से है. कथन मात्र से नहीं। जो वे करना चाहते थे. है। धर्म तो प्राणी मात्र को जन्म, जरा एवं मृत्यु रूपी उसका पहले स्वयं अनुभव किया। शारीरिक बल से चक्रव्यूह से मुक्त करता है। धर्म की प्रामाणिकता उसके मानसिक बल ज्यादा शक्तिशाली होता है और आत्मबल मानने वाले अनुयायियों की संख्या के आधार पर नहीं, के सामने सारे बल तुच्छ हैं। युद्ध में हजारों योद्धाओं अपितु उसके सिद्धांतों की सूक्ष्मता पर निर्भर करती है। को जीतने की अपेक्षा अपने आपको जीतना, स्वयं को इस दृष्टि से जितना स्पष्ट, तर्क संगत, वैज्ञानिक एवं संयमित. नियमित, नियंत्रित. अनुशासित रखना ज्यादा सूक्ष्म विश्लेषण भगवान महावीर ने किया, अन्यत्र दष्कर है। आत्मा पर आये कर्मों का आवरण हटते ही दुर्लभ है।
व्यक्ति सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्व शक्तिमान एवं त्रिकाल महावीर जैन-धर्म के प्रवर्तक नहीं - ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है। सम्पूर्ण आत्मानुभूति की जैन परम्परा में तीर्थंकरों का स्थान सर्वोपरि है। अवस्था में विज्ञान की भौतिक जानकारी तो होती ही
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/12
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
है, परन्तु उससे भी कहीं अधिक ब्रह्माण्ड के वर्तमान, विवेचन महावीर ने श्रमणाचार की नियमावलि में किया भूत एवं भविष्य की सूक्ष्मतर एवं सम्पूर्ण जानकारी हो उसकी अन्यत्र कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज जाती है। वास्तव में वे जीवन के सर्वोच्च कलाकार, भी बढ़ती मायावृत्ति एवं शिथिलाचार के बावजूद पथ प्रदर्शक एवं सर्वोच्च वैज्ञानिक होते हैं। उनका महावीर की परम्परा के श्रमण और श्रमणी वर्ग, जिस उपदेश भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिए न हो सूक्ष्म अहिंसा का पालन कर अपनी जीवनचर्या चलाते कर जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति हेतु होता है। हैं, वैसी कठोर आचार संहिता अन्यत्र ढूँढना कठिन
__ महावीर को समझने के लिए हमें पहले अपने है। वास्तव में महावीर का उपदेश प्राणिमात्र के लिए सभी पूर्वाग्रहों को छोड़ना होगा। उनका प्रत्येक आचरण उपयोगी है। वहाँ भेदभाव और आशंकाओं की कोई एवं उपदेश सनातन सत्य पर आधारित है, जिसको गुंजाइश नहीं। न तो किसी के साथ भेदभाव, न अपने समझने के लिए आवश्यक है व्यापक दृष्टिकोण। उनके भक्तों के लिए विशेष रियायत । उनके विराट् व्यक्तित्व उपदेश विषम परिस्थितियों एवं काल के थपेड़ों के को चन्द प्रसंगो के आधार पर परखा जा सकता है। बावजूद आज भी अक्षुण्ण बने हुए हैं। आध्यात्मिक प्रतिकूलता आत्मबल की कसौटी - साधना में उनका दृष्टिकोण सम्पूर्णता की खोज पर महावीर ने साधना हेतु राजपाट छोड़ा। पद, आधारित था। अनुशासनहीनता के बीच उनका जोर पैसे और परिवार का त्याग किया। अगर वे चाहते तो आत्मानुशासन पर था। उन्होंने आत्म-विकास के लिए अपने राज्य में भी एकान्त साधना कर सकते थे। परन्त ज्ञान एवं क्रिया के समन्वित प्रयास को आवश्यक उन्होंने साधन के लिए प्रतिकल क्षेत्र चना जहाँ उनका बतलाया। वे उस ढोंगवाद को नहीं मानते जो कोई परिचित नहीं था। वे जानते थे कि आत्मबल की भोगी होते हुए भी अपने आपको परम योगी मानते परीक्षा प्रतिकूलता में ही हो सकती है। परन्तु आज हम हैं। भोगी निर्विकारी कैसे हो सकता है ? जो मन प्रतिकूलताओं को पसन्द नहीं करते। उन्होंने पद, पैसा में होगा वही तो आचरण में प्रदर्शित होगा। उन्होंने और परिवार का मोह त्यागा। परन्तु आज प्रायः हम भाव क्रिया के महत्व को भी उजागर किया। मात्र जड़ पद, पैसे और परिवार के पीछे दीवाने बन अपने आपको क्रियाकाण्डों से व्यक्ति का उत्थान नहीं हो सकता। उनके अनुयायी समझने का अहम् करें, कितना उन्होंने यतना अर्थात् विवेक में ही धर्म माना। यदि अप्रासंगिक है। इस पर सारे पर्वाग्रह छोड शद्ध चिन्तन हमारा प्रत्येक कार्य विवेक एवं प्रज्ञानुसार हो तो नवीन अपेक्षित है। कर्मों के बन्ध की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। उनके
स्वालम्बन के उद्घोषक - अनुसार प्रमाद विकास में सर्वाधिक बाधक है प्रमाद अर्थात् सुषुप्त अथवा असावधान । अज्ञानी ही प्रमादी
महावीर आत्म-साधना में स्वालम्बन के पक्षधर होता है। जो स्वयं असजग है. अपने प्रति भी ईमानदारी थे। मनुष्य को अपने कर्मों का क्षय अपने ही पुरुषार्थ नहीं, वह दूसरों को कैसे जगा देगा। अत: भगवान
से करना होता है। अत: वे साधना पथ पर अकेले ही महावीर ने स्वयं साढ़े बारह वर्ष तक उग्र साधना कर
आगे बढ़े। जब देवों के सम्राट शक्रेन्द्र उनकी सेवा में पूर्णता प्राप्त की। जब तक सर्वज्ञ न बने, पूर्ण मौन रहे।
उपस्थित हो प्रार्थना करने लगे - "भगवन् ! आपको परन्तु जागृत होने के पश्चात् संसार को सही मार्ग का
साधना काल में भयंकर उपसर्ग (कष्ट) आने की उपदेश देने में कंजूसी नहीं की। जीवन में प्रवृत्ति और
संभावना है, अत: मैं आपकी सेवा में रहकर उससे निवृत्ति की जितनी सूक्ष्मतम, तर्कसंगत व्याख्या और रक्षा करना चाहता हूँ।" उसके प्रत्युत्तर में भगवान
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/13
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर ने कहा - "आज तक कोई भी प्राणी नारी उत्थान - दूसरों की सहायता से अपने समस्त कर्मों से मुक्त भगवान महावीर के युग में भारतीय नारी की नहीं हुआ। किये हुए कर्मों का भुगतान तो स्वयं बहुत दुर्दशा थी। नारी उत्पीड़न की तरफ जन साधारण को ही करना पड़ता है।" इस प्रकार उन्होंने प्राणीमात्र का ध्यान आकर्षित करने हेतु अपने साधना काल में में स्वाबलम्बी बन अपनी सुषुप्त चेतना को जागृत करने उन्होंने तेरह बोलों का कठोर अभिग्रह (संकल्प) लिया। का आत्मविश्वास जागृत किया। स्वावलम्बन की पहली जिसके अनुसार उन्होंने तब तक भिक्षा ग्रहण न करने शर्त है स्वाधीनता । पराधीनता दुःख का कारण है, जो का निश्चय किया, जब तक कोई तीन दिन की भूखी दासता में जकड़ती है। स्वाधीनता में ही सुख है। वही रोती हई, भूतकाल की राजकुमारी, हाथों में हथकड़ी अपनी शक्तियों के विकास का केन्द्र बिन्दु है। स्वाधीनता और पैरों में बेडिया पहिने, सिर से मुण्डित अबला उन्हें से ही अपनी अनन्त शक्तियों का द्वार खुलता है। जिससे भिक्षा नहीं देगी। कैसी उपेक्षित थी नारी उस युग में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र प्रकट होता ? सहज ही कल्पना की जा सकती है। है। महावीर कठोर, परन्तु हृदयग्राही आत्मानुशासन के
ऐसे समय में नारी को अपने धर्म-संघ में दीक्षित प्रवर्तक थे। साधक यदि कठोर मार्ग पर न चले तो
कर श्रमणी बनाना तथा अपने धर्म-तीर्थ में साधु और उसके फिसलने की संभावना सदैव बनी रहती है। अतः
श्रावक के समकक्ष क्रमशः साध्वी तथा श्राविका को वे स्वयं कठोर चर्या में रहे तथा अपने शिष्य समुदाय
स्थान देना उस युग का कितना क्रान्तिकारी कदम के लिए भी उन्होंने कठोर श्रमणाचार का निर्देशन किया।
होगा। उन्होंने भक्त और भगवान के बीच की खाई को समाप्त करने का उपदेश दिया। वे भक्त को सदैव भक्त ही रखने
जातिवाद का प्रतिकार - के पक्षधर नहीं थे। अवतारवाद की मान्यता उन्हें स्वीकार भगवान महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि मनुष्य नहीं थी। उन्होंने प्राणिमात्र के अन्दर उस परम परमात्म जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। हरिकेशबल जैसे पद को पहिचाना। इसी कारण उनके सम्पर्क में आकर नीच कुल में जन्मे क्षुद्र को अपने धर्म संघ में दीक्षित सम्यक् साधना में पुरुषार्थ करने वाले अनेक साधक कर, धर्म के नाम पर जातिवाद का उन्होंने प्रतीकार उनके समकक्ष सर्वज्ञ बन गये।
किया। जातिवाद के नाम पर राष्ट्र में विघटन करने वालों अनन्त करुणामय व्यक्तित्व -
एवं अपने स्वार्थों से प्रेरित अनुसूचित एवं नीच जातियों
के उत्थान का दावा करने वालों को महावीर के जीवन दुनिया में मातृत्व में ही इतनी शक्ति है कि अपने
प्रसंगों का अध्ययन कर अहम् छोड़ देना चाहिए। बच्चे के प्रति अपार अनुराग होने से माता के स्तनों में दूध आने लगता है। महावीर के जीवन के अलावा
पाप से घृणा करो, पापी से नहीं - संसार में आज तक ऐसा दृष्टान्त उपलब्ध नहीं कि भगवान महावीर ने अर्जुनमाली जैसे ११४१ चण्डकौशिक जैसा भयंकर दृष्टि विषधारी सर्प काटे व्यक्तियों की हत्या करने वाले को अपने संघ में दीक्षित और रक्त के स्थान पर दूध की धारा बहे। प्राणिमात्र कर साधना के क्षेत्र में इतना गतिमान किया कि छह के प्रति कितनी दया, करुणा, अनुकम्पा और मास के अन्दर ही उसने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर कल्याण की भावना होगी - ऐसे महापुरुष में, लिया। भगवान महावीर ने इस घटना के माध्यम से जन जिसकी सहज कल्पना भी नहीं की जा सकती। साधारण को प्रतिबोधित किया कि पाप से घृणा करो,
पापी से नहीं। क्योंकि पापी कभी भी पाप छोड़ धर्मी महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/14
|
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
बन सकता है, परन्तु पाप कभी धर्म नहीं हो सकता । पर है । उतार-चढ़ाव, मान-अपमान, अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियों में अपने आपको विचलित न होने देने का मूल मन्त्र है। दूसरी बात यह है कि जब तक जीवजीव का सूक्ष्मतम भेद समझ में नहीं आवेगा, अहिंसा का पालन पूर्ण रूप से नहीं हो सकता। पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल में चेतना को सर्वज्ञ ही जान सकते हैं। वर्तमान विज्ञान की पहुँच से भी वह बहुत परे है । इसी कारण अन्य धर्मों में सूक्ष्म हिंसा से बचने का प्रावधान एवं सोच नहीं है, जितनी बारीकी से जैन श्रमणाचार की नियमावली में प्रतिपादित किया गया है।
राग-द्वेष त्यागे बिना मोक्ष नहीं
संपूर्ण सत्य की व्याख्या और सूक्ष्मतम विश्लेषण वही कर सकता है, जो स्वयं वीतरागी है। उसका न तो किसी के प्रति राग है और न किसी के प्रति द्वेष । जब तक राग और द्वेष रहेगा अपने भक्तों के प्रति ममत्व और अन्य की उपेक्षा होना संभव है । विश्व के इतिहास में शायद ही कहीं ऐसा दृष्टांत मिलता है कि भक्त अपने परम लक्ष्य को तब तक प्राप्त न कर सका, जब तक उसको अपने आराध्य के प्रति राग था । भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को भी तब तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई, जब तक कि उनका भगवान के प्रति राग समाप्त नहीं हुआ। आज जो साम्प्रदायिक कट्टरता से धर्म बदनाम हो रहा है, उसका रूप विकृत हो रहा है, अपने को ही अच्छा और अन्य को बुरा बतला कर घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है, उन सभी धर्म के ठेकेदारों को चिन्तन करना होगा कि कहीं उनका आचरण उनके आत्म-विकास में बाधक तो नहीं है ?
सम्यक्त्व ही साधना का केन्द्र -
भगवान महावीर ने मिथ्यात्व अथवा गलत धारणा, मान्यता, श्रद्धा को मोक्ष की साधना में सबसे अधिक बाधक माना। सम्यक्त्व (सही दृष्टि) के बिना सच्चा ज्ञान और आचरण सम्यक् नहीं हो सकता । उनकी साधना का लक्ष्य था समभाव से वीतरागता की प्राप्ति। समता ही धर्म का लक्षण है। वह विवादों से
महावीर का दर्शन सभी के लिए जीवन्त दर्शन है, अलौकिक दर्शन है। उसके अभाव में ज्ञानी का ज्ञान, पण्डित का पाण्डित्य, विद्वान की विद्वत्ता, धार्मिक का धर्माचरण, भक्तों की भक्ति, अहिंसकों की अहिंसा, न्यायाधीश का न्याय, राजनेताओं की राजनीति, वैज्ञानिकों की वैज्ञानिक शोध, चिकित्सकों की चिकित्सा, लेखकों का लेखन, कवि का काव्य अधूरा है। कहने का सारांश यही है कि महावीर के सिद्धान्तों से मतभेद रखना, उन्हें अस्वीकारना, चिन्तनशील, प्रज्ञावान, विवेकवान व्यक्ति के लिए संभव नहीं। फिर वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो ? उनके दर्शन में अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह का समग्र दर्शन है, जो शाश्वत सत्य की आधार-शिला पर प्ररूपित किया गया है ।
D
- चोरड़िया भवन, जालोरी गेट के बाहर, जोधपुर, ३४२००३. फोन नं. ३५०९६, ३५४७१
कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम् । आत्मज्ञान विहिना मूढाः ते पच्यन्ते नरक निगूढ़ा : ॥ - काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर, 'मैं कौन हूँ' भावना कर । आत्म ज्ञान से विहीन मूढ़जन नरक में गिरते हैं।
-
-
• इसप्रकार आत्मा के विषय - नीति तत्त्वसार
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/15
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्तमान में भगवान महावीर के तत्त्व-चिन्तन की सार्थकता
0 डॉ. नरेन्द्र भानावत महावीर का विराट् व्यक्तित्व - व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अनात्मीयता का फासला बढ़ता
वर्द्धमान भगवान महावीर विराट् व्यक्तित्व के गया। वैज्ञानिक अविष्कारों ने राष्ट्रों की दूरी तो कम की, धनी थे। वे क्रांति के रूप में उत्पन्न हए थे। उनमें शक्ति, पर मानसिक दूरी बढ़ा दी। व्यक्ति के जीवन में धार्मिकता शील, सौन्दर्य का अद्भुत प्रकाश था। उनकी दृष्टि बड़ी रहित नैतिकता और आचरण रहित विचार शीलता पैनी थी। यद्यपि वे राजकमार थे. समस्त राजसी ऐश्वर्य पनपने लगी। वर्तमान युग का यही सबसे बड़ा उनके चरणों में लौटते थे. तथापि पीडित मानवता और अन्तर्विरोध और सांस्कृतिक संकट है । भगवान महावीर दलित-शोषित जन-जीवन से उन्हें सहानभति थी। की विचारधारा को ठीक तरह से हृदयंगम करने पर समाज में व्याप्त अर्थजनित विषमता और मन में उदधत समाजवादी लक्ष्य की प्राप्ति भी संभव है और बढ़ते हए कामजन्य वासनाओं के दुर्दमनीय नाग को अहिंसा, इस सांस्कृतिक संकट से मुक्ति भी। संयम और तप के गारुड़ी संस्पर्श से कील कर वे समता, आवश्यकता से अधिक संग्रह : सामाजिक सद्भाव और स्नेह की धारा अजस्र रूप में प्रवाहित अपराध - करना चाहते थे। इस महान उत्तरदायित्व को, जीवन महावीर ने अपने राजसी जीवन में और उसके के इस लोकसंग्रही लक्ष्य को उन्होंने पूर्ण निष्ठा और चारों ओर जो अनन्त वैभव सम्पत्ति देखी. उससे यह सजगता के साथ संपादित किया।
अनुभव किया कि आवश्यकता से अधिक संग्रह करना वैज्ञानिक और सार्वकालिक चिन्तन - पाप है। साम्य अपराध है, आत्मा को छलना है। महावीर का जीवन-दर्शन और उनका तत्त्व
आनन्द का रास्ता है, अपनी इच्छाओं को कम करना, चिन्तन इतना अधिक वैज्ञानिक और सार्वकालिक लगता है कि वह आज की हमारी जटिल समस्याओं के
र पास जो अनावश्यक संग्रह है, उपयोगिता कहीं और समाधान के लिए भी पर्याप्त है। आज की प्रमुख समस्या
है। कहीं ऐसा प्राणिवर्ग है, जो उस सामग्री में वंचित है सामाजिक-आर्थिक विषमता को दूर करने की।
है, जो अभाव में संतप्त है, आकुल है। अतः हमें उस इसके लिए मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष को हल के रूप में
अनावश्यक सामग्री को संगृहीत कर उचित नहीं। यह रखा। शोषक और शोषित के अनवरत पारस्परिक
अपने प्रति ही नहीं, समाज के प्रति छलना है, धोखा संघर्ष को अनिवार्य माना और जीवन की अन्तस् भाव
है, अपराध है, - ऐसे विचार को अपरिग्रह-दर्शन कहा
गया है। जिसका मूल मन्तव्य है किसी के प्रति ममत्व चेतना को नकार कर केवल भौतिक जड़ता को ही सृष्टि
न रखना। वस्तु के प्रति भी नहीं, व्यक्ति के प्रति भी का आधार माना। इसका जो दुष्परिणाम हुआ वह हमारे सामने है। हमें गति तो मिल गयी, पर दिशा नहीं,
नहीं, स्वयं अपने प्रति भी नहीं। शक्ति तो मिल गयी, पर विवेक नहीं, सामाजिक वैषम्य
ममत्व भाव न हो - तो सतही रूप से कम होता हुआ नजर आया, पर वस्तु के प्रति ममता न होने पर हम अनावश्यक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/16
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामग्री का तो संचय करेंगे नहीं, आवश्यक सामग्री को बढ़कर इतना अधिक सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी भी दूसरों के लिए विसर्जित करेंगे। आज के संकट नहीं रह जाता। योग साधना की यही चरम परिणति है। काल में संग्रह-वृत्ति (होर्डिंग हेबिट्स) और तज्जनित संक्षेप में महावीर की इस विचारधारा का अर्थ व्यावसायिक लाभ-वृत्ति पनपी है, उससे दूर हम तब है कि हम अपने जीवन को इतना संयमित और तपोमय तक नहीं हो सकते, जब तक कि अपरिग्रह-दर्शन के बनायें कि दूसरों का लेशमात्र भी शोषण न हो, साथ इस पहलू को हम आत्मसात् न कर लें।
ही स्वयं में हम इतनी शक्ति, पुरुषार्थ और क्षमता भी व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो, इसका दार्शनिक अर्जित कर लें कि दूसरा हमारा शोषण न कर सके। पहलू इतना है कि व्यक्ति स्वप्नों तक ही न सोचे, जीवन-व्रत-साधना - परिवार के सदस्यों के हिता का हा रक्षा न कर, वरन् प्रश्न है ऐसे जीवन को कैसे जिया जाए ? जीवन उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर में शील और शक्ति का यह संयम कैसे हो ? इसके लिए अग्रसर हो। आज प्रशासन और अन्य लोगों में जो महावीर ने “जीवन-व्रत-साधना" का प्रारूप प्रस्तत अनैतिकता व्यवहृत है, उसके मूल में “अपनों के प्रति किया। साधना-जीवन को दो वर्गों में बाँटते हए उन्होंने ममता” का भाव ही मूल रूप से प्रेरक कारण है । इसका बारह व्रत बतलाये। प्रथम वर्ग, जो पूर्णतया इन व्रतों अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व से मुक्त की साधना करता है. वह श्रमण है. मनि है. संत है और हो जाय । इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना है कि व्यक्ति दसरा वर्ग, जो अंशत: इन व्रतों को अपनाता है, वह “स्व” के दायरे से निकलकर सब तक पहुँचे। स्वार्थ श्रावक है, गृहस्थ है, संसारी है। की संकीर्ण सीमा को लांघ कर परार्थ के विस्तृत क्षेत्र
इन बारह व्रतों की तीन श्रेणियाँ हैं – पाँच में आये। उसके जीवन की यही साधना है। महापुरुष
रुष अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अणुव्रतों
. इसी जीवन-पद्धति पर आगे बढ़ते हैं। महावीर क्या,
क्या, में श्रावक स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और बुद्ध सभी इस व्यामोह से परे हटकर आत्मजयी बने।
परिग्रह का त्याग करता है। व्यक्ति तथा समाज के जो जिस अनुपात में इस अनासक्त भाव को आत्मसात् जीवन-यापन के लिए वह आवश्यक सक्ष्म हिंसा का कर सकता है, वह उसी अनुपात में लोक सम्मान का त्याग नहीं करता। जबकि श्रमण इसका भी त्याग करता अधिकारी होता है। आज के तथाकथित नेताओं के
है, पर उसे भी यथाशक्ति सीमित करने का प्रयत्न करता व्यक्तित्व का विश्लेषण इसके आधार पर किया जा है। इन व्रतों में समाजवादी समाज रचना के सभी सकता है। नेताओं के संबंध में आज जो दृष्टि बदली
आवश्यक तत्त्व विद्यमान है। है और उस नेता अर्थ का जो अपकर्ष हुआ है, उसके
प्रथम अणुव्रत में निरपराध प्राणी को मारना पीछे यही लोक-दृष्टि सक्रिय है।
निषिद्ध है, किन्तु अपराधी को दण्ड देने की छूट है। “अपने प्रति भी ममता न हो”- यह अपरिग्रह दूसरे अणव्रत में धन, सम्पत्ति, परिवार आदि के विषय दर्शन का चरम लक्ष्य है। श्रवण संस्कृति में इसीलिए में दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलना निषिद्ध शारीरिक कष्ट सहन की ओर अधिक महत्व दिया है। है। तीसरे व्रत में व्यवहार शुद्धि पर बल दिया गया है। तो दूसरी ओर इस पार्थिव देह विसर्जन (सल्लेखना) का व्यापार करते समय अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे विधान किया गया है। वैदिक संस्कृति में जो समाधि देना, दूध में पानी आदि मिला देना, झूठा नाप-तोल अवस्था या संत मत में जो सहजावस्था है, वह इसी तथा राज-व्यवस्था के विरुद्ध आचरण करना निषिद्ध कोटि की है। इस अवस्था में व्यक्ति “स्व” से आगे है। इस व्रत में चोरी करना तो वर्जित है ही, किन्तु चोर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/17
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
को किसी प्रकार की सहायता देना या चुरायी हुई वस्तु हुआ था। उसके जीवन और भाग्य को नियंत्रित करती को खरीदना भी वर्जित है। चौथा व्रत स्वदार-संतोष थी कोई परोक्ष अलौकिक सत्ता। महावीर ने ईश्वर के है, जो एक ओर काम-भावना पर नियमन है, तो दूसरी इस संचालक रूप का तीव्रता के साथ खण्डन कर इस
और पारिवारिक संगठन का अनिवार्य तत्त्व है। पाँचवें बात पर जोर दिया कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का अणुव्रत में श्रावक स्वेच्छापूर्वक धन-सम्पत्ति, नौकर- निर्माता है। उसके जीवन को नियंत्रित करते हैं, उसके चाकर आदि की मर्यादा करता है।
द्वारा किये गये कार्य। इसे उन्होंने 'कर्म' कह कर तीन गुणव्रतों में प्रवृत्ति के क्षेत्र को सीमित करने पुकारा। वह स्वयं कृत कर्मों के द्वारा ही अच्छे या बुरे पर बल दिया गया है। शोषण की हिंसात्मक प्रवृत्तियों फल भोगता है। इस विचार ने नैराश्यपूर्ण असहाय के क्षेत्र को मर्यादित एवं उत्तरोत्तर संकुचित करते जाना जीवन में आशा, आस्था और पुरुषार्थ का आलोक ही इन गुणव्रतों का उद्देश्य है। छठा व्रत इसी का विधान बिखेरा और व्यक्ति स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होकर करता है। सातवें व्रत में योग्य वस्तुओं के उपभोग को कर्मण्य बना। सीमित करने का आदेश है। आठवें में अनर्थदण्ड ईश्वर के संबंध में जो दूसरी मौलिक मान्यता अर्थात् निरर्थक प्रवृत्तियों को रोकने का विधान है। जैन दर्शन की है, वह भी कम महत्व की नहीं। ईश्वर
चार शिक्षाव्रतों में आत्मा के परिष्कार के लिए एक नहीं, अनेक हैं। प्रत्येक साधक अपनी आत्मा को कुछ अनुष्ठानों का विधान है। नवाँ सामाजिक व्रत जीतकर, चरम साधना के द्वारा ईश्वरत्व की अवस्था समता की आराधना पर, दसवाँ संयम पर, ग्यारहवाँ को प्राप्त कर सकता है। मानव जीवन की सर्वोच्च तपस्या पर और बारहवाँ सुपात्रदान पर बल देता है। उत्थान रेखा ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । इस विचार-धारा इन बारह व्रतों की साधना के अलावा श्रावक
या आत्म-साधना का मार्ग प्रशस्त किया। आज की के लिए पन्द्रह कर्मादान भी वर्जित है अर्थात उसे ऐसे शब्दावली में कहा जा सकता है कि ईश्वर के एकाधिकार व्यापार नहीं करने चाहिए, जिनमें हिंसा की मात्रा
को समाप्त कर महावीर की विचारधारा ने उसे जनतंत्रीय अधिक हो या जो समाज-विरोधी तत्त्वों का पोषण
को पद्धति के अनुरूप विकेन्द्रित कर सबके लिए प्राप्य बना करते हों। उदाहरणत: चोरों-डाकुओं या वैश्याओं को
दिया। शर्त रही जीवन की सरलता, शुद्धता और मन नियुक्त कर उन्हें अपनी आय का साधन नहीं बनाना की दृढ़ता। जिस प्रकार राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति चाहिए। इस व्रत-विधान को देखकर यह निश्चित रूप
आज प्रत्येक नागरिक के लिए सुगम है, उसी प्रकार
आ से कहा जा सकता है कि महावीर ने एक नवीन और
ये आध्यात्मिक अधिकार भी उसे सहज प्राप्त हो गये आदर्श समाज-रचना का मार्ग प्रस्तुत किया, जिसका
हैं। शूद्रों का और पतित समझी जाने वाली नारी जाति आधार तो आध्यात्मिक जीवन जीना है, पर जो मार्क्स
का समुद्धार करके भी महावीर ने समाज-देह को पुष्ट
किया। आध्यात्मिक उत्थान की चरम सीमा को स्पर्श के समाजवादी लक्ष्य से भिन्न नहीं है।
करने का मार्ग भी उन्होंने सबके लिए खोल दिया, चाहे ईश्वर का जनतंत्रीय स्वरूप -
वह स्त्री हो या पुरुष, चाहे वह शूद्र हो या चाहे और ईश्वर के संबंध में जो जैन विचारधारा है, वह कोई। भी आज की जनतंत्रात्मक और आत्मस्वातन्त्र्य की विचारधारा के अनुकूल है। महावीर के समय का
- सी-२३५ ए, दयानन्द मार्ग, समाज बहुदेवोपासना और व्यर्थ के कर्मकाण्ड से बँधा
तिलक नगर, जयपुर-४ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/18
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) भगवान महावीर
- डॉ. अनामिका जैन
आज से लगभग २६०० वर्ष पूर्व जैन धर्म के केवलज्ञान की यही विशेषता है। यह सूक्ष्म, अन्तरित इस युग के चौबीसवें तीर्थंकर कालजयी महापुरुष और दूरवर्ती सभी पदार्थों को हाथ पर रखे हुए आवले महावीर स्वामी का चैत्र सुदी त्रयोदशी को बिहार के के समान अत्यन्त स्पष्टरूप से जानता है । सूक्ष्म अर्थात् कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ व माता त्रिशला के पुत्र रूप दृष्टि से दूर, अन्तरित अर्थात् काल से दूर और दूरवर्ती में जन्म हुआ। यह तो सुविदित है कि महावीर से पहले यानि क्षेत्र से दूर। परमाणु एवं कर्म-वर्गणायें सूक्ष्म हैं, ऋषभादि २३ तीर्थंकर हो चुके हैं तथा वर्तमान में राम, रावण, कृष्ण आदि काल से दूर/अन्तरित हैं और भगवान महावीर का शासनकाल प्रवर्तमान है, जो सुमेरु पर्वत, देव-नरकगति अनेक समुद्र व द्वीपादि क्षेत्र उत्सर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के निर्वाण काल तक से दूर होने से दूरवर्ती कहे जाते हैं। ये सूक्ष्म, अन्तरित चलेगा। जन्म से ही महावीर अपनी आत्मा के रंग में और दूरवर्ती सभी पदार्थ केवलज्ञान रूपी दर्पण में निमग्न, सांसारिक राग-रंग, मोह-माया के जंजाल से समान रूप से युगपत प्रतिभासित होते हैं। बिना एकसर्वथा दूर रहे और तीस वर्ष की आयु में ही मार्गशीर्ष दूसरे के सम्पर्क में आये प्रतिसमय लोकालोक के सभी कृष्णा दशमी के दिन नग्न दिगम्बरी दीक्षा धारण कर पदार्थ ज्ञान दर्पण में झलकते रहते हैं। मुनि हो गये।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रत्येक पदार्थ की आपने बारह वर्षों तक घोर तपश्चरण किया। भविष्य की पर्याय सुनिश्चित होने से केवली भगवान तत्पश्चात् एक दिन जुम्बिका गाँव के पास ऋजुकूला उन्हें अत्यन्त स्पष्टरूप से जानते हैं। ऐसा नहीं होता तो नदी के तट पर जब शाल्मलि वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अपने ज्ञान में कैसे जानते कि थे, उस शुभ दिवस बैसाख शुक्ला दशमी को आपने मारीचि एक कोड़ाकोड़ी सागर के बाद इसी भरतक्षेत्र पूर्ण रूपेण शुद्ध दशा अर्जित करके अर्थात् चार प्रकार में चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर होंगे। जिनकी के घातिया कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त कर जयन्ती आज हर्षोल्लास से हम मना रहे हैं। लिया।
भगवान नेमिनाथ ने भी बारह वर्ष पहले द्वारका पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की भाँति केवलज्ञान की प्राप्ति दहन की स्थिति बता दी थी। ऐसी ही सुनिश्चित पर महावीर सर्वज्ञ हुए अर्थात् सम्पूर्ण/परिपूर्ण ज्ञान के भविष्य संबंधी लाखों घोषणाएँ जिनवाणी में भरी हैं, धारक हुए। सम्पूर्ण जगत में लोकालोक में जितने भी जिससे यह स्पष्ट होता है कि जिनेन्द्र भगवान भूत, पदार्थ हैं, उन सभी को उनके सम्पूर्ण गुण और भूत, भविष्य एवं वर्तमान की समस्त पर्यायों को युगपत भविष्य एवं वर्तमान की समस्त पर्यायों (अवस्थाओं) आत्मा से प्रत्यक्ष जानते हैं। यही तो केवलज्ञान एवं सहित एक समय में बिना किसी की सहायता के, सर्वज्ञता की महिमा है, जो जैन दर्शन की विशेषता है। इन्द्रियों के बिना, सीधे आत्मा से प्रत्यक्ष जाना - मनि महावीर ने दीक्षा लेने के १२ वर्ष बाद
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/19
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञान प्राप्त किया और अरहंत भगवान बने। इससे पूर्व वे मुनिराज महावीर थे, राजकुमार थे। “भगवान की दिव्यध्वनि प्रयोजनभूत मूलवस्तु की मुख्यता खिरती है। वह मूलवस्तु जीवादि तत्त्वार्थ हैं और उसमें भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की एकतारूप मुक्ति
मार्ग का निरूपण होता है।” केवलज्ञान होने के बाद भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी, जिसमें छह द्रव्य, सात तत्त्व रूप मोक्षमार्ग का उद्घाटन हुआ ।
केवलज्ञानी तीर्थंकर की धर्मसभा समवशरण कहलाती है। उसकी रचना सौधर्म इन्द्र के माध्यम से होती है। वह गोलाकार होती है, बीच में भगवान विराजमान होते हैं और चारों ओर श्रोतागण बैठते हैं। उसमें चारों ओर मिलाकर १२ सभाएँ होती हैं, जिनमें मुनिराज, आर्यिका श्रावक एवं श्राविकाओं के साथसाथ देव-देवांगनाएँ तथा पशु-पक्षी भी श्रोताओं के रूप में बैठते हैं। चारों ओर बैठे लोगों में से किसी की ओर से उनकी पीठ नहीं होती, सभी को ऐसा लगता है कि मानो भगवान का मुख उनकी ही ओर है। उनका मुख चारों ओर होने से उन्हें चतुर्मुख भी कहा है। उनके चार मुख नहीं होते, परन्तु कुछ ऐसा अतिशय होता है कि उनका मुख चारों ओर बैठे जीवों को दिखाई देता
है । इसी तरह के अनेक अतिशय केवली भगवान के समवशरण में देखने में आते हैं।
केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद भगवान महावीर की दिव्यध्वनि दिन में तीन-तीन बार खिरती थी और प्रत्येक बार का समय छह घड़ी होता था। एक घड़ी २४ मिनट की होती है। इस प्रकार प्रतिदिन कुल ७ घंटे और १२ मिनट उनकी दिव्य देशना होती थी ।
भगवान की दिव्य देशना को गौतम गणधर ने ११ अंग १४ पूर्वी में गुथित किया और परवर्ती आचार्यों के माध्यम से उसका कुछ अंश आज हमें द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और कथानुयोग के रूप में उपलब्ध है। इनके आधार पर भारत के एवं विदेशों के विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों में अनुसंधान एवं उच्च स्तर के शोध हो रहें हैं, जो मानव समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित होंगे। केवलज्ञान में समाहित सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान का लाभ तो हम जैसे छद्मस्थ जीवों को इस काल में मिलना संभव नहीं है, परन्तु आत्मकल्याण एवं मानव हित के लिए उनकी देशना का उपलब्ध अंश युग-युग तक कल्याणकारी हो ।
ए - ३१, अनिता कालोनी, जयपुर (राज.)
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्णं प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद्स्याद्वा न वा वधः ॥
प्रमादी है, असावधान है, दूसरों को कष्ट पहुँचाने की भावना रखता है, वह पहले तो स्वयं अपनी ही आत्मा का घात करता है। दूसरे प्राणियों
का घात तो पीछे की बात है, वह हो या न हो ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/20
1
भगवान महावीर
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
38833885888888
भगवान महावीर के सिद्धांत : आज के परिवेश में
ललित कुमार जैन
जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर देना, पुरुष के समान स्त्री को भी प्रतिष्ठा देना, यहाँ तक का जन्म वैशाली गणराज्य के राजा सिद्धार्थ की रानी कि किसी प्राणीमात्र को भी नहीं सताना अहिंसक त्रिशला की कुक्षि से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन आज समाज तैयार करना है। से लगभग २६०६ वर्ष पूर्व वैशाली के कुण्डग्राम में अपरिग्रह - आज संसार में प्रत्येक मनुष्य के हुआ। भगवान महावीर के जन्म से पूर्व पृथ्वी पर सामने भोजन, वस्त्र, आवास की मुख्य समस्या है। इस अत्याचार-अनाचार, शोषण, हिंसा, संघर्ष एवं समस्या का समाधान अपरिग्रह के द्वारा संभव है। आज कुरीतियों का साम्राज्य था। धर्म के नाम पर पशुवध के समय में परिग्रह ने तीन बुराइयों को जन्म दिया है। किया जाता था, नारी दासता के बन्धन में कैद थी। १. विषमता, २. विलासिता, ३. करता। जब वस्तुओं ऐसे समय में भगवान महावीर ने संसार के प्राणिमात्र का संग्रह एक स्थान पर हो जाता है, तब दूसरे उनके के कल्याण हेतु संसार को असार जानकर ३० वर्ष की अभाव में दुखी हो जाते हैं। गरीबी-अमीरी, ऊँच-नीच युवावस्था में वैराग्य धारण कर १२ वर्ष तक कठोर तप आदि समस्याएँ इसी का परिणाम है। परिग्रह के सब कर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त किया। भगवान साधन सामाजिक जीवन में करता, घणा और शोषण महावीर ने ३० वर्ष तक भारत में विहार कर प्राणिमात्र को जन्म देते हैं। अत: अपने पास उतना रखना जितना के कल्याण हेतु जैन धर्म का उपदेश जनभाषा में दिया। आवश्यक है, बाकी शेष समाज को समर्पित करना ही
भगवान महावीर ने अपने उपदेश में जिओ और अपरिग्रह है। जीने दो एवं मित्ति मे सव्व भूएसु अर्थात् संसार में सभी अतः भगवान महावीर ने भ्रमित एवं अज्ञानी प्राणियों से मेरी मैत्री का संदेश दिया। यह आज के प्राणियों को अपरिग्रह का दिशा बोध दिया। यदि समय में जहाँ विश्व आतंकवाद और संप्रदायवाद से सम्पूर्ण मानव समाज सुख व शांति चाहता है तो त्रस्त है, उनसे मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित करते हैं। अपरिग्रह को अपनावे। भगवान महावीर ने जिस सामाजिक क्रान्ति को भोमानता ।
अनेकान्तवाद - मानवीय एवं आर्थिक जन्म दिया, उसमें अहिंसा, अपरिग्रह एवं स्याद्वाद- असमानता के साथ-साथ वैचारिक मतभेद भी समाज अनेकान्तवाद के सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं। जो वर्तमान में द्वन्द्व को जन्म देते हैं, जिसके कारण समाज रचनात्मक समय में भी प्रासंगिक हैं।
प्रवृत्तियों को विकसित नहीं कर सकता। मानव के अहिंसा- भगवान महावीर ने कहा कि ऊँच- आपसी मतभेद संकुचित संघर्ष के कारण बन जाते हैं, नीच हिंसा की पराकाष्ठा है । प्रत्येक मनुष्य का अस्तित्व इससे सामाजिक समरसता नष्ट हो जाती है। ऐसी गौरवपूर्ण है, उसकी गरिमा को बनाये रखने, वर्ग- स्थिति से छुटकारा प्राप्त करने हेतु भगवान महावीर ने शोषण नहीं करने, दलित लोगों को सामाजिक सम्मान अनेकान्तवाद का संदेश सभी को दिया तथा स्पष्ट किया
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/21
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचसूत्र महावीर
कि उसकी अपनी दृष्टि ही सर्वोपरि न होकर दूसरे की दृष्टि भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
इस संदेश से व्यक्तियों एवं राष्ट्रों के मध्य अनुचित सांप्रदायिक संघर्ष समाप्त हो सकता है। आज जितनी भी अशांति और संघर्ष है, उसके प्रति सत्ताग्रह, वर्द्धमान महावीर के, पंचशील सिद्धान्त, महत्वाकांक्षा एवं अहंकार है। यदि विवाद एवं अशान्ति विश्व शान्ति सुख वरद हैं, मंत्र अचूक दुख सान्त। के सभी पहलओं को दष्टिगत रखकर अनेकान्तवाद की मंत्र अचूक दुख सान्त, जीव कल्याणक वृष है, दति से निर्णय करे तो विश्व में व्याप्त अशान्ति का जीओ, जीने दो ध्येय, अहिंसा धर्म सत्र है। वातावरण समाप्त हो सकता है। अनेकान्तवाद के संबंध भाई चारा भव्य, दया करुणा सनेह है. में भगवान महावीर ने कहा कि प्रत्येक वस्तु के अनेक
तन-मन मंगल भाव, सुहृद वात्सल्य प्रेम है।
सत्य सदा शाश्वत रहा, आत्म स्वभाव स्वरूप, पहलू होते हैं, जब तक उस वस्तु के सभी पहलुओं को
___ निर्विकल्प परमार्थ मय, हित मित प्रिय वच भूप। नहीं देखेंगे, तब तक सत्य को प्राप्त नहीं करेंगे। अतः
हित, मित, प्रिय वच भूप, श्रेष्ठतम मित्रभाव है, सत्य और अहिंसा की भूमिका में भगवान महावीर का
मिलन सार, शुचि सरल, प्रेयतम श्रेय भाव है। स्याद्वाद-अनेकान्तवाद सार्वभौमिक सिद्धांत है, इसमे सत्यमेव जयवन्त, सांच को आंच नहीं है, लोकहित एवं लोक संग्रह की भावना गर्भित है। सदाचार सम्पन्न, सत्यता जगत पूज्य है। अनेकान्तवाद धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और वृष अचौर्य की शानशुचि, निष्कपट नर श्रेष्ठ, आर्थिक विषमताओं को दूर करने का अमोघ अस्त्र है। रहे निडर बढ़े आत्मबल, सम्मानित जगज्येष्ठ । दूसरे के दृष्टिकोण का अनादर करना एवं उसके अस्तित्व सम्मानित जग ज्येष्ठ, न भ्रष्टाचार प्रबल है, को अस्वीकार करना ही संघर्ष का मूल कारण है । अतः मृदु ऋजु भाव सुकृत्य, न मायाचार सबल है। संघर्षों को दूर करने हेतु आज के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक अभियान, अचौर्य सुख-शान्ति सदन है, अनेकान्तवाद-स्याद्वाद प्रासंगिक है।
निर्भय रहे नर-नारि चौर्य कृत्य तजे शिवम् है। सार रूप में भगवान महावीर की वाणी जो
र ब्रह्मचर्य व्रत श्रेष्ठतम, तन-मन स्फूर्ति,
सन्तोषी स्व 'दार' में, शील सुमंगल मूर्ति । प्राणीमात्र के कल्याण हेतु कही गई, वह २६०० वर्ष
शील सुमंगल मूर्ति, बहिन बेटी माँ तिय है, से अधिक का समय व्यतीत होने पर आज भी
मर्यादा संकल्प, जितेन्द्रिय जीवन जय है। कल्याणकारी है।
भोग लिप्सा, व्यभिचार, कुदृष्टि पाप तंत्र है, - ५९, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर ब्रह्मचर्य व्रत शुचिर, दिया भवि ब्रह्म मंत्र है।
परिग्रह का परिमाण कर, अनासक्त धन पंक,
सन्तोषी सुखिया सदा, न्याय-नीति नहि शंक। जाति, देह के आश्रित है और न्याय-नीति नहि शंक, उदार उदात्त शुभम् है, देह आत्मा के संसार का कारण है। सुख सम्पत्ति को बाँट, विश्व कल्याण निहित है। इसलिए जो जाति का अभिमान करने 'पंचसूत्र' महावीर, समाज, नर, राष्ट्र सुहित है, वाले हैं, वे संसार से छूट नहीं सकते। 'वीर जयन्ती' दिवस, विमल जग मंगलमय है। “वीरदेशना” से साभार
डॉ. विमला जैन, १/३४४,सुहागनगर, फिरोजाबाद
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/22
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर प्रभु का तीसरा भव मरीचि के रूप में
0 राजमल सिंघवी
नयसार के जीवन में आई हुई प्रकाश के एक देखकर लोग उनको धर्म पूछते, तो वे सच्चा संयम तो पल ने उसके जीवन में एक नया ही मोड़ दिया और भगवान ऋषभ प्रभु के मुनि धर्म को ही बताते। अपनी वह सौधर्म देवलोक में देव हुआ। एक दिन देवलोक त्रुटि मानते हुए उनकी आँख में एक छिपा हुआ आँसू का विराट आयुष्य का काल भी पूर्ण हुआ और वह आ जाता । इस प्रकार अनके मनुष्यों को सद्धर्म समझाकर देव विशाल वैभवों से भरे हुए महाराजा भरत के यहाँ वे उनको ऋषभ प्रभु के श्रमण संघ में ही शामिल करते। उनके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम रखा विहार भी वे प्रभु के साथ ही करते थे। कुछ वर्ष तक गया मरीचि । महाराजा भरत ऋषभप्रभु की वंदना करने ऐसा चलता रहा। आचार से अलग हुए मरीचि, विचार आए। मरीचि भी साथ ही था। प्रभु की पहली देशना से अलग नहीं हुए। कई श्रावकों को उन्होंने ऋषभ प्रभु के श्रवण से ही उनमें संयम की लगन जग गई। पिता का मुनि धर्म दिलवाया। भरत राजा की अनुमति मिल गई तो संसार की ऋद्धि कई वर्ष बीत गए। विनीता नगरी का उद्यान को ठुकराकर मरीचि ने मुनि धर्म स्वीकार किया। ऋषभ प्रभु के पधारने से प्रसन्न हुआ । महाराजा भरत
भगवान के साथ विहार करते हुए मरीचि मुनि उनकी धर्म देशना सुनने आये। भविष्य में होने वाले संयम धर्म की एक-एक सीढ़ी को पावन बनाते हुए तीर्थंकर, चक्रवर्तियों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवों एवं आगे बढ़ने लगे, किन्तु एक ऐसा प्रमाद का पल आ बलदेवों को जानने की भरत की इच्छा की पूर्ति प्रभु गया कि मुनि मोहाधीन हो गये। गरमी के दिन थे, की वाणी से हुई। भरत ने अंत में पूछा कि 'भगवान भगवान का मुनि धर्म तो छत्र की छाया को नहीं मानता, इस समवशरण में क्या कोई ऐसा जीव है जिसके भाग्य जूतियों से प्रेम करने की इसमें आज्ञा नहीं थी। स्नान में तीर्थंकरत्व का लेख लिखा हो।' तब भगवान ने कहा के साथ तो इसका स्नहे था ही नहीं। विलेपन की बात कि 'हे भरत, यह मरीचि चरम तीर्थंकर महावीर की तो इसमें थी ही नहीं। मुनि मरीचि इस परीषह से टक्कर आत्मा है।' अपने पुत्र का ऐसा महान भविष्य सुनते नहीं ले सके। मुनि ने नया वेश धारण कर लिया। मुनि ही भरत ने रोमांच अनुभव किया। प्रभु ने फिर फरमाया मरीचि ने त्रिदंडी संन्यास धारण कर लिया। सिर पर कि हे भरत, मरीचि भगवान महावीर होगा। वह इसके शिखा रखकर मुंडन, हाथ में दण्ड, थोड़ा परिग्रह, बीच में कई महान ऋद्धियों का स्वामी बनेगा । पोदनपुर भगवाँ कपड़े, छाया के लिए छत्र, चंदन का सुगंधित में त्रिपुष्ट नामक पहिला वासुदेव एवं विदेह क्षेत्र की लेप, अल्प जल से स्नान और पाँव में जूतियाँ। प्रमाद मूकापुरी नगरी में प्रिय मित्र नाम का चक्रवर्ती होने के के पल में मरीचि मुनि ने नया वेश सर्जित किया। लेख भी मरीचि के भाग्य में लिखे हुए हैं। आचार से दूर हुए मरीचि विचार से तो भगवान ऋषभ देशना पूरी हई । भरत महाराजा का हृदय मरीचि प्रभु के ही अनुयायी रहे थे, किन्तु इनका नया वेश में छिपे हुए भविष्य के महावीर को वंदन करने के लिए
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/23
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
लालायित हुआ तो वे मरीचि के पास आकर वंदन करते तो मैं उसको प्रतिबोध करके मेरा शिष्य बनाऊँ। उसकी हुए बोले कि 'मरीचि तुम संन्यासी हो, भगवा तुम्हारा बीमारी समाप्त हुई, तब वह जब स्वस्थ होकर विचरण वेश है, भरत के प्रथम चक्रवर्ती की तुम संतान हो, करने लगा, तब कपिल नाम का एक धर्म-जिज्ञासु इसकारण नहीं, किन्तु तुम चौबीसवें तीर्थपति महावीर मरीचि के पास आया। आरंभ में तो मरीचि ने उसको होने वाले हो। अतः मैं तुम्हें वंदन करता हूँ। त्रिपष्ट ऋषभ संघ में ही धर्म बताया, किन्तु उसकी डगमगाती वासुदेव एवं प्रियमित्र चक्रवर्ती भी तम होगे. किन्त मेरा विचार-ज्योत अभी पूरी बुझी नहीं थी। कपिल ने फिर वंदन तो तुम्हारे में छिपे हुए महावीर को ही है।'
पूछा कि 'यदि धर्म भगवान ऋषभ प्रभु के संघ में ही
है, तो फिर आपने यह नया वेश कैसे पहना है।' तब भरत विदा हुए। मरीचि भविष्य की अपनी
मरीचि ने अपनी अशक्ति को स्वीकार करते हुए कहा ऋद्धि की कल्पना को पचा नहीं सका। उसके हृदय में
कि 'अशान्त हूँ, किन्तु धर्म तो वही है।' कपिल ने गर्व से भरे हुए शब्द घूमने लगे कि 'मैं वासुदेव, मैं
- फिर पूछा कि क्या धर्म ऋषभ संघ में ही है? क्या आप चक्रवर्ती, मैं तीर्थंकर।'
में उसका अंश भी नहीं है?' मरीचि खड़ा हो गया एवं अपने आनन्द तथा
तब मरीचि ने आँख के आगे उसका बीमारी हर्ष को व्यक्त करता हुआ गर्व-नृत्य करते हुए बोला
का काल ताजा हुआ और उसको मुनियों द्वारा बताई कि 'वासुदेवों में मैं पहला, चक्रवर्तियों में मेरे पिता
हुई सेवा-हीनता का विचार आया । कपिल में उसको पहले, तीर्थंकरों में मेरे पितामह ऋषभ प्रभु पहले।
शिष्यत्व की योग्यता दिखाई दी। उसके पतन के इस अहो, मेरा कैसा उत्तम कुल है?' इस गर्व-नृत्य में
पल में सावधानी खोकर मरीचि ने उत्तर दिया कि मरीचि ने कुल का मद करने से नीच गोत्र का कर्म बांध
'कपिल साधु के मार्ग में भी धर्म है और मेरे मार्ग में लिया।
भी धर्म है।' कपिल को तो धर्म की छाप की आवश्यकता कई वर्ष बीत गए। भगवान श्री ऋषभ प्रभु का थी। इसके सच और झूठ की परीक्षा किए बिना ही निर्वाण हो गया। अब मरीचि के लिए स्वतंत्र विचरण कपिल ने भगवाँ वस्त्र धारण किए। तब मरीचि के हृदय का मार्ग खुला था, किन्तु उसमें रही हुई विचार-श्रद्धा में संतोष व्याप्त हुआ। उसके छोटे से लोभ ने मिथ्यात्व ने उसको भगवान ऋषभ प्रभु के साधु संघ के साथ ही के उदय को जगाकर आत्मा को अंधकार में फेंक दिया। रहने दिया। फिर भी एक पल ऐसा आया जब मरीचि इस प्रकार कपिल से आरंभ हुई मिथ्यादर्शन की कुल्हाड़ी की विचार-ज्योत आँधी में अटक गई।
का हत्था बन गया। मरीचि बीमार हुआ। शिष्य तो उसके कोई भी धर्म संयम में है और यहाँ असंयम में भी है।' था नहीं। उसकी सेवा कौन करे? निर्ग्रन्थ साधुओं की मात्र इतने से सत्य मार्ग से विपरीत वचन से मरीचि के आचार संहिता असंयमी-मरीचि की सेवा करने से लिए संसार का दीर्घ परिभ्रमण खड़ा हो गया। मरीचि रोकती थी। तब मरीचि के मन में व्याधि की एक आँधी और कपिल की एक जोडी बन गई। मरीचि के जीवन आयी. जिससे उसकी विचार-ज्योत डगमगा गई। के अंतिम पल तक भी उसके विपरीत-प्ररूपण का यह मरीचि ने सोचा कि 'ये मुनि कैसे हैं कि उन्होंने अपनी पाप अनालोचित ही रहा एवं उसने भगवाँ वेश में ही
आँख की शर्म भी खो दी। मैंने कितने कुमारों को देह त्याग किया। प्रतिबोध करके उनके संघ में शामिल किये हैं, फिर भी आज मैं बीमार पड़ा हूँ तब भी वे मेरे पास नहीं फटकते।' अत: मरीचि ने निर्णय किया कि अब कोई वैरागी आवे
0 बी-६१, सेठी कालोनी, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/24
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर और उनका जीवन दर्शन
भगवान महावीर को समझने के लिए मात्र उनके वर्तमान को जानना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए उनके पूर्व हजारों-हजारों वर्षों के काल को समझना भी आवश्यक है। भगवान महावीर जैनधर्म के भरतक्षेत्र के वर्तमान युग के चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर हुए है ।
इस युग में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव हुए, उन्होंने असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प – इन षट्कर्मों का प्रजा को उपदेश दिया और उस पर चलने से ही सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। वे अंक और लिपि विद्या के स्रष्टा थे। प्रजा को धर्म का उपदेश दिया और उस पर चलने से ही सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया । ऋषभदेव द्वारा प्रशस्त मार्ग का अनुसरण भगवान अजितनाथ ने किया और इसे आगे बढ़ाया। इसी प्रकार आगे के तीर्थंकर अनुसरण करते हुए आगे आगे बढ़ते गये। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि महावीर का जीव पूर्व में ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि था। ऋषभदेव के ज्ञान में यह बात आ गई थी कि यही मरीचि का जीव आगे जाकर चौबीसवाँ अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा। जब मरीचि को यह पता लगा कि मैं आगे जाकर इस युग का अन्तिम तीर्थंकर महावीर होने वाला हूँ। तो वह उन्मत्त होकर विचरण करने लगा और मनगढ़न्त तत्त्वों का उपदेश देने लगा। आगे जाकर यही मरीचि सांख्यमत का संस्थापक बना । कुतप के प्रभाव से मरकर पुरुरवा भील हुआ, सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ, पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग में देव हुआ यह इसका चौथा भव था ।
इस प्रकार भव भ्रमण करता हुआ तेईसवें भव
ज्ञानचन्द रांवका
में सिंह के रूप में जन्म लिया । एक दिन यह सिंह भूख से पीड़ित होकर एक हरिण को पकड़ कर खा रहा था उस समय दो चरण ऋद्धि मुनि आकाश गमन करते हुए वहाँ उतरे और उस सिंह को संबोधन दिया - " हे जीव ! तूने जो त्रिपृष्ट नारायण के भव में राजमद से घोर पापार्जन किया था, उसके परिणाम स्वरूप नरकों में घोर यातनाएँ सही और अब भी तू दीन पशुओं को मारमार कर खा रहा है और पापार्जन कर रहा है। मुनिराज के वचनों को सुन कर उसे जाति स्मरण हो गया और अपने पूर्व भवों को याद करके हरिण को छोड़ कर आँखों से अश्रुधारा बहाते हुए निश्चल खड़ा रहा। उन मुनिराज ने उसे निकट भव्य और अन्तिम तीर्थंकर जानकर धर्मोपदेश दिया तथा पशु मारने और मांस खाने का त्याग कराया, सम्यक्त्व को ग्रहण कराया, जो बराबर अन्तिम तीर्थंकर महावीर के भव तक बना रहा। अन्त में संन्यास पूर्वक मरण कर वह सिंह स्वर्ग में देव हुआ ।
पुन: संसार भ्रमण करता हुआ ३१वें भव में नन्द राजा हुआ और प्रोष्ठिल मुनिराज के पास धर्म का स्वरूप सुन कर जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। इसी मध्य षोडश कारण भावनाओं का चिन्तवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और समाधि पूर्वक मरण करके प्राणत स्वर्ग में देव हुआ । यहाँ आयु पूर्ण करके राजा सिद्धार्थ के महावीर नाम का पुत्र होता है । पूर्व भव के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आध्यात्मिक विकास की चरमोत्कर्ष स्थिति तक पहुँचना किसी एक भव की साधना का परिणाम नहीं है इसके लिए अनेकों भवों तक साधना करनी पड़ती है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/25
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आज से लगभग २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने तीस वर्ष की आयु में मार्गशीर्ष महावीर के जन्म के समय भारत वर्ष में हिंसा का खुला कृष्णा दशमी को जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली, उसी ताण्डव नृत्य हो रहा था। पशुओं को यज्ञ में होमा जाता समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। सर्वप्रथम उनका था। अश्वमेध, गोमेध आदि यज्ञ होते रहते थे। यहाँ आहार राजा 'कूल' के यहाँ हुआ। पश्चात् बारह वर्ष तक कि नरमेध नाम का यज्ञ भी होता था, जिसमें रूप- तक आत्म-साधना में लीन हो गये। वैसाख शुक्ला यौवन सम्पन्न मनुष्यों तक की यज्ञ में आहुति दी जाती दशमी को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई, अब वे महावीर थी। महिलाओं की इज्जत सुरक्षित नहीं थी। दिन में से भगवान महावीर हो गये। उसी समय सौधर्म की ही लूट-खसोट, डाँके, आगजनि होती रहती थी। आज्ञा से कुबेर ने समवशरण (धर्मसभा) की रचना की। जिनके कारण प्रजा भयाक्रान्त रहती थी। समस्त भारत गणधर का अभाव होने के कारण ६६ दिन तक की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी। शूद्रों को धर्म दिव्यध्वनि प्रगट नहीं हुई। निमित्त पाकर इन्द्रभूति गौतम का अध्ययन-श्रवण करना वर्जित था। उन्हें अधर्मी भगवान महावीर के प्रथम गणधर हुए। इस प्रकार ६६ और अस्पृश्य समझा जाता था। दास-दासी प्रथा का दिन बाद श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को भगवान का प्रथम बोलबाला था और इन पर घोर अत्याचार होता था। धर्मोपदेश हुआ। तीस वर्ष तक वे निरन्तर पृथ्वीतल पर चौराहों पर इनकी नीलामी होती थी और इन्हें बन्धक विहार करते रहे और समाज को सभी प्रकार की हिंसा बनाकर रखा जाता था। इस प्रकार की धार्मिक एवं का तर्क-संगत विरोध करने का उपदेश दिया। उन्होंने सामाजिक विषम परिस्थितियों के समय भगवान महावीर तर्क दिया कि संसार में प्रत्येक प्राणी (जीवमात्र) स्वतंत्र का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ। सम्पूर्ण संसार है, उसे भी जीने का उतना ही अधिकार है जितना हमें में शान्ति की लहर दौड़ गई। स्वर्गों में भी वादित्र बजने है। भगवान महावीर ने एक बहुत बड़ा मूल मंत्र दिया लगे जिससे यह ज्ञात हुआ कि पृथ्वी तल पर भगवान 'जिओ और जीने दो'। इस मंत्र के माध्यम से अहिंसा का जन्म हुआ है। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से सभी इन्द्र की पुनः स्थापना हुई। इसके सार को जन-जन तक पृथ्वी तल पर आये और भगवान का जन्म कल्याणक पहुँचाया गया, परिणाम यह हुआ कि उस समय व्याप्त मनाया। पाण्डुक-शिला पर भगवान का जन्माभिषेक धर्मान्धता दूर हुई। महावीर की सोच अत्यन्त व्यापक किया गया। सौधर्म इन्द्र ने शची के साथ सभी इन्द्रों थी। उनके उपदेश वाणी तक ही सीमित नहीं थे, उन्होंने सहित नृत्य-गान करके जन्म की खुशियाँ मनाईं और पहले स्वयं के जीवन में उतारा, अनुभव किया तत्पश्चात् भगवान का 'वर्धमान' नाम रखकर सभी वापस स्वर्ग उपदेश दिया। परिणाम स्वरूप अहिंसक समाज का को चले गये। भगवान जन्म से ही तीन ज्ञान - मति, निर्माण हुआ। भगवान ने आचरण की शुद्धि पर विशेष श्रुत, अवधि के धारक थे। उन्हें विद्याध्ययन की विशेष बल दिया। आवश्यकता नहीं थी। बाल्यकाल में अनेक घटनाएँ हुईं
उन्होंने कहा – 'जब तक मनुष्य का आचरण जिनके कारण उनका नाम वीर, महावीर, अतिवीर और शुद्ध नहीं होता, उस समय तक आत्मिक उत्थान होना सन्मति रखा गया। उस समय भारतवर्ष की जो सामाजिक संभव नहीं है।' इसके लिए महावीर ने अहिंसा, सत्य. परिस्थितियाँ थीं उनका महावीर ने बहुत बारीकी से अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पाँच नियम अध्ययन/चिंतवन किया और निर्णय किया कि मैं अपना ।
(व्रत) आवश्यक बताये। गृहस्थ के लिए अणुव्रत और जीवन जनता के उद्धार में ही लगाऊँगा। फलस्वरूप मुनि के लिए महाव्रत के रूप में पालन करने को कहा। उन्होंने विवाह नहीं किया और राज्य भार संभालने से
0 अमृत कलश, १५७ श्रीजी नगर, भी इंकार कर दिया।
दुर्गापुरा, जयपुर ३०२०१८ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/26
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
20585085803636888863
38888888888888888
भगवान महावीर के विचार : विश्वशान्ति के व्यवहार
ॐ
88858528986288
888888888888888222222200028
- डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती'
२४वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म होने पर भी उस युग में सर्व प्रथम पराधीनता, शोषण, ५९९ वर्ष ईसा पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वैशाली नरबलि, पशुबलि, यज्ञकर्म में हिंसा, नारी परतंत्रता के निकटस्थ कुण्डग्राम में वहाँ के नृपति सिद्धार्थ के आदि दुष्प्रवृत्तियों का विरोध किया और प्राणी-प्राणी यहाँ उनकी रानी प्रियकारिणी त्रिशला के गर्भ से हुआ में एकात्म रूप समानता मानकर अमीर-गरीब और था। जन्म के साथ उनका नाम वर्द्धमान रखा गया, ऊँच-नीच की दूरी समाप्त करने के लिए प्राणी हितार्थ क्योंकि उनके जन्म से संपूर्ण प्रकृति एवं मानव समाज अहिंसक एवं अपरिग्रही क्रान्ति का सूत्रपात किया। में हर स्तर पर वृद्धि देखी और अनुभव की गई। उनकी यह क्रान्ति न एक के लिए थी, न अनेक के लिए कालांतर में वे वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर थी; बल्कि सबके लिए थी। यह वर्गोदय के विपरीत के नाम से प्रसिद्ध हुये। वे सामान्य से असाधारण सर्वोदय की सार्थक पहल थी। उनका मानना था कि व्यक्तित्व को प्राप्त होकर महान बने। उनके सिद्धान्त मनुष्य जन्म से न दुराचारी होता है न सदाचारी; बल्कि
और उनके द्वारा प्रतिपादित शिक्षाओं ने जन सामान्य उसके कुकर्म ही उसे दुराचारी और सुकर्म ही सदाचारी को प्रभावित और लाभान्वित किया। अत: आज भी बनाते हैं। उन्होंने जातिमूलक और दैवमूलक व्यवस्था पूज्य हैं और उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। के विपरीत पुरुषार्थवादी कर्ममूलक व्यवस्था को उचित मैं उनके २६०६वें जन्म दिवस चैत्र शुक्ल त्रयोदशी मानते हुए उद्घोष किया कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु के अवसर पर सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ कर्म से महान बनता है। अत: महान बनने के लिए ऐसे प्रेषित करते हुए कहना चाहता हूँ कि हम सभी उसी विचार एवं कार्य किये जायें जिनसे किसी भी प्राणी को मार्ग का अनुसरण करें, जिसे भगवान महावीर ने कष्ट न हो । यही कारण है कि उन्होंने शारीरिक (कायिक) बताया और प्रशस्त किया था।
हिंसा के साथ-साथ वैचारिक हिंसा के त्याग पर बल व्यक्ति विकास करना चाहता है - देह से लेकर दिया। यह सत्य है कि मन के विचार ही वाणी में आत्मा तक। हम जिस परवेश में होंगे वहाँ यदि प्रस्फुटित होते हैं और कालान्तर में हिंसा का मार्ग अनुकूलता होगी तो विकास के अवसर होंगे और यदि पकड़कर शारीरिक क्षति या कायिक हिंसा में बदल प्रतिकूलता होगी तो विकास की गति रुकेगी। भगवान जाते हैं। अतः सबसे पहले हमें मन को पवित्र बनाना महावीर की दृष्टि में हमारी आत्मा ही सर्वोपरि साध्य चाहिए। मन की पवित्रता पवित्र भावों से ही आ सकती
और मनुष्य शरीर ही सर्वोतम साधन है। भगवान महावीर है। इसलिए कहा गया है कि - के विचार नैतिकता, शरणागत वात्सल्य, समभाव, जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो। सौहार्द्र और सर्वोत्कर्ष की भावना से युक्त हैं। भगवान तं इच्छ परस्सवि य एत्ति एगं जिणसासणं ।। महावीर स्वामी ने स्वात्मबल से विपरीत परिस्थितियाँ अर्थात जैसे तम अपने प्रति चाहते हो और जैसा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/27
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुम अपने प्रति नहीं चाहते हो; दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो। जिनशासन का सार सिर्फ इतना ही है।
'भगवती आराधना' में आचार्य शिवार्य ने लिखा है कि -
जह ते णपियं दुक्खं तहेव तेसिं पि जाण जीवाणं । एवं णच्चा अप्पोव मिवो जीवेसु होदि सदा ।।
अर्थात् जिस प्रकार तुम्हें दु:ख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है; ऐसा ज्ञात कर सर्व जीवों को आत्मा के समान समझकर दुःख से निवृत्त हो ।
भगवान महावीर ने कहा कि धर्म वही है जिसमें विश्व बंधुत्व की भावना हो; जिसका आदर्श स्वयं जिओ और दूसरों का जीने दो का हो। जहाँ प्राणी का हित नहीं वहाँ धर्म कदापि संभव नहीं है। अतः “परस्परोपग्रहो जीवानाम्" की भावना को जीवन में चरितार्थ करना आवश्यक है। वैसे ही संसार में जितने जीव हैं वे एक-दूसरे का उपकार करके ही जीवित रह सकते हैं । अपकार करने वाला न तो जी सकता है और न सुख-शान्ति को प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति एक जैसे कार्यों के लिए अपना पारिश्रमिक नहीं लेते थे अपितु एक-दूसरे के विचारों, कार्यों, श्रम एवं वस्तु का विनिमय करते थे। इन कारणों से उस समय का मानव आर्थिक संकटों से पीड़ित नहीं था, किन्तु धर्माचरण के लिए व्यक्ति धर्मान्धों और पाखण्डियों के चक्कर में इतना फँसा हुआ था कि स्वविवेक का प्रयोग न कर मात्र पशुनरबलि रूप घोर निंद्य पापाचरण को ही धर्माचरण मान बैठा था। ऐसे समय आवश्यकता थी उनका स्वविवेक जगाने की, उनके पुरुषार्थ के उद्घाटन की और यह कार्य किया भगवान महावीर ने अपने सर्वोदय तीर्थ के माध्यम से। यह सर्वोदय तीर्थ आज भी जयवन्त है,
जरूरी है।
भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सर्वोदय का तात्पर्य था – मनुष्य के अन्तर में विद्यमान सद्गुणों का
उदय । सद्गुणों के द्वारा ही मनुष्य अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। विकारों पर पूर्ण विजय रूप लक्ष्य से परम लक्ष्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वास्तव में सर्वोदय का सिद्धान्त ऐसी आध्यात्मिक भित्तियों पर स्थित है जो व्यक्ति को अकर्मण्य से कर्मण्य और कर्तव्य परायण बनने की प्रेरणा देता है; साथ ही पर से निज की ओर और निज से पर की ओर का संकेत भी; अतः पहले स्वयं का आचरण निर्मल बनायें बाद में अपने जैसा चारित्रवान बनने की दूसरों को प्रेरणा दें।
"सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय " अमृतरूपी जिनवाणी के उपदेष्टा भगवान महावीर स्वामी के इस धर्मतीर्थ को विक्रम की चतुर्थ शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने “सर्वोदय तीर्थ' की संज्ञा देते हुए कहा है कि
-
-
सर्वान्तवद् तदगुण मुख्य कल्पं,
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् ॥ सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्,
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
अर्थात् हे भगवान महावीर ! आपका सर्वोदय तीर्थ सापेक्ष होने से सभी धर्मों को लिए हुए है। इसमें मुख्य और गौण की विवक्षा से कथन है। अतः कोई विरोध नहीं आता; किन्तु मिथ्यावादियों के कथन निरपेक्ष होने से संपूर्णतः वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं । आपका शासन/तत्त्वोपदेश सर्व आपदाओं का अन्त करने और समस्त संसार के प्राणियों को संसार - सागर से पार करने में समर्थ है, अत: वह सर्वोदय तीर्थ है।
भगवान महावीर ने कहा कि एक दूसरे के विचारों का आदर करो, भले ही वे तुम्हें इष्ट हों या न हों। उन्होंने अहिंसा मूलक आचार व्यवस्था और अनेकान्त मूलक विचार व्यवस्था का प्रतिपादन किया। जब दृष्टि आचारोन्मुख होती है तो वह अहिंसा से युक्त हो जाती है और जब यह विचारोन्मुखी होती है तो महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /28
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेका
अनेकान्त से युक्त हो जाती है। अनेकान्त बताता है भगवान महावीर के विचार एक वैचारिक क्रान्ति कि वस्तु के अनेक पक्ष होते हैं। जिनका एक साथ हैं जिनका हिंसा में नहीं अहिंसा में अटूट विश्वास है। व्यवहार या कथन संभव नहीं है, अत: मुख्य और गौण इन विचारों का पालक सत्याचरण में आस्था रखता है। की विवक्षा लेकर कथन करना चाहिए। आज जो राष्ट्र अचौर्य उसकी साधना है और अपरिग्रह उसका लक्ष्य एक-दूसरे के विचारों का आदर करते हुए संवाद के है। वह आवश्यकता से अधिक धन का संचय नहीं लिए तैयार होते हैं, संवाद करते हैं वे अपनी समस्याओं बल्कि त्याग करता है और वह भी स्वेच्छा से। वह को भी सुलझा लेते हैं और अपने आप को आत्मनिर्भरता जोड़ने से अधिक छोड़ने में विश्वास करता है। तभी की ओर भी ले जाने में समर्थ हो जाते हैं। वैचारिक उसे ब्रह्मचर्य रूप साध्य की प्राप्ति होती है। आज जीवन संवाद का ही परिणाम है कि आज विश्व शीत युद्ध के में सत्य की साधना कठिन हो गयी है, जबकि इसके भय को पीछे छोड़ चुका है। भगवान महावीर का यह बिना सामाजिक समरसता, शुचिता और सर्वोदय की
चार वैचारिक हिंसा से तो बचाता भावना नहीं बन सकती है। सच्चाई के रास्ते पर चलने ही है, वह दैहिक हिंसा को भी वर्जित करता है। वाला व्यक्ति ही सामाजिक होता है जिसका लक्ष्य है
पश्चिमी देशों में यह माना जाता है कि - "भूमा वै सुखं, नाल्पे सुखमस्ति' अर्थात् समष्टि बहसंख्यक लोगों का सख, उनका अभ्युदय बढाना के सुख में ही मानव का सच्चा सुख निहित है. अल्प प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। सुख का अर्थ वे मात्र के सुख में सुख नहीं है। शारीरिक या आर्थिक मानते हैं, आत्मिक नहीं। वे यदि भगवान महावीर ने कहा कि कामनाओं को बहुतों को सुख मिलता है तो कुछ लोगों को पीड़ा जीतो; क्योंकि कामनाओं का कोई अन्त नहीं है। पहुँचाने के लिए भी बुरा नहीं मानते; जबकि भगवान कामनायें असीम हैं और व्यक्ति भी अनेक हैं । हम सोचें महावीर द्वारा निर्दिष्ट सर्वोदय न तो अल्पसंख्यक है, कि हम किसको क्या दे सकते हैं? दाता का भाव रखना न ही बहुसंख्यावादी। उसका उद्देश्य १०० में से ५१ समष्टि हित के लिए जरूरी है। दूसरे या समष्टि के या १०० में से ९९ का उदय नहीं; बल्कि १०० में १०० उत्थान की चाह सर्वोदय की सक्रियता की हार्दिक का उदय है, इसलिए वर्तमान के उपयोगितावादियों के भावना का प्रतीक है। अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का सिद्धान्त आज हम जिस आतंकवाद को देख रहे हैं उनके विचारों से मेल नहीं खाता।
उसके मूल में कहीं न कहीं अधिकतम भूमि, अधिकतम भगवान महावीर स्वामी ने जीवन के विकास राज्य और अधिकतम संसाधनों पर अपना कब्जा हेतु अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य; करना है। भगवान महावीर की दृष्टि में यह सोच ही ये पाँच सूत्र बताये; जिनसे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास गलत है। वे कहते हैं कि प्रकृति के पास इतना है कि होता है। वास्तव में सामाजिक उत्थान करने के लिए वह तुम्हारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है; एक यह आदर्श व्यवस्था है। यह सिद्धान्त सामाजिक लेकिन तुम्हारी इच्छाओं की नहीं, क्योंकि इच्छायें जीवन का इस प्रकार संगठन व संवर्द्धन करना चाहते असीम होती हैं जिनकी पूर्ति न इच्छा करने वाला कर हैं कि प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सकता है और न ही कोई शासक या राजा। अतः सके। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह दूसरे सर्वप्रथम अपनी इच्छाओं को संयमित करो और जो के विकास के लिए साधन उपलब्ध कराये। संसाधन तुम्हें प्राप्त हैं उनका बेहतर उपयोग करते हुए
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/29
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीना सीखो। जो व्यक्ति सहअस्तित्व में विश्वास करता है। यदि हमें अपने अस्तित्व को बचाये रखना है तो है, दूसरे के विचारों का आदर करता है वह कभी भी हमें दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए। सही किसी की हिंसा नहीं कर सकता। जरूरी है कि हम सहिष्णुता है और सही सहअस्तित्व की भावना है। व्यक्ति के मन में सद्विचार और अहिंसक भावनाओं समाज के कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए को प्रतिष्ठित करें। उसे संयम से जीना सिखायें। अपनी संपदा का स्वेच्छा से विजर्सन करना अपरिग्रह
भगवान महावीर ने कर चोरी को राष्ट्रदोह मानते है। समाज में संग्रह की प्रवृत्ति उथल-पुथल मचाती है। हुए इसे असत्य आचारण माना है। जो राष्ट्र के विकास यदि इसका उचित समाधान नहीं किया गया तो जनसंघर्ष के लिए आर्थिक विषमता दूर करना चाहते है उन्हें शोषण या वर्ग संघर्ष की स्थिति बनती है। अत: न तो अधिक
और शोषणकारियों से बचना चाहिए। आर्थिक विषमता धन का प्रदर्शन करना चाहिए और न ही आवश्यकता के कारण सामाजिक शोषण भी होता है। यह प्रत्यक्ष- से अधिक धन का संचय करना चाहिए। तभी हम शांति अप्रत्यक्ष चोरी से उत्पन्न होता है। इससे बचने के लिए से जीवन-यापन कर सकते हैं। सुख, शांति त्याग में भगवान महावीर ने कहा कि श्रम करो, श्रम का आदर है, संचय में नहीं। करना सीखो। वेसच्चे अर्थों में श्रमण थे। उन्होंने अस्तेय/
भगवान महावीर ने नारियों का सम्मान सुरक्षित अचौर्य को परिभाषित करते हुये कहा कि
करना पारिवारिक एवं सामाजिक कर्तव्य माना, क्योंकि 'अदत्तादानमस्तेयं' अर्थात् बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण नारी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है। चंदना के उद्धार से करना चोरी है। कल, बल, छल या दूसरे तरीकों से जिस उन्होंने यह संदेश जन-जन में दिया कि स्त्री भी समाज पर अपना अधिकार नहीं है उन वस्तुओं का स्वयं ग्रहण में पुरुषों की तरह आदर एवं सम्मान की पात्र है। आज करना, दूसरों को दे देना चोरी है। इससे बचना चाहिए। तो लोग गर्भ में ही कन्याओं की भ्रूण हत्या कर रहे हैं जो व्यक्ति अस्तेय भावना को अपना लेता है वह राष्ट्र उन्हें इस पाप से बचना चाहिए। यह राष्ट्र एवं समाज के की सपदा का सबसे बड़ा सरक्षक होता है। प्रति द्रोह है जिसकी अनुमति न धर्म देता है और न
- भगवान महावीर ने बताया कि संसार के सभी समाज । संयमी जीवन सुख का संवाहक होता है, इसलिए प्राणियों में एक जैसी आत्मा है। भले ही उनके शरीर भगवान महावीर ने स्वस्त्री या स्वपुरुष से ही रमण करने उनकी गतियों के अनुरूप हो सकते हैं। इस भेद के का गृहस्थों को संदेश दिया और साधुओं से कहा कि आधार पर किसी का हनन नहीं करना चाहिए। जिओ वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आत्महित करें। और जीने दो का सिद्धान्त यही बताता है। इस नियम का पालन करने पर एड्स जैसी भयंकर बीमारी उन्होंने कहा कि -
की उत्पत्ति को रोका जा सकता है। सव्वे पाणा पियाउआ सुहसाया दुक्खपडिकूला। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर अपियवहा पियजीविणो जिविउ कामा ।।
के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और यह सभी समस्याओं सव्वेसिं जीवियं पियं का समुचित समाधान करने में समर्थ है। हम सब इन्हें
अपनाकर अपना जीवन सुखमय बना सकते हैं। अर्थात् सभी प्राणियों को आयु प्रिय है। सभी सुख चाहते हैं, दुःख से घबड़ाते हैं। वध नहीं चाहते ॥ एल-६५, न्यू इन्दिरा नगर, बुरहानपुर (म.प्र.) हैं, जीने की इच्छा करते हैं, सबको अपना जीवन प्यारा
फोन नं. २५७६६२
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/30
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर का जीवन घटना प्रधान क्यों नहीं?
डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त दर्शन ने अनेकों की शंकाएँ ममाप्त की हों, अनेकों को जितने गूढ, गंभीर व ग्राह्य हैं, उनका वर्तमान जीवन सन्मार्ग दिखाया हो, सत्पथ में लगाया हो, उनकी (भव) उतना ही सादा, सरल एवं सपाट है, उसमें महानता को किसी एक की शंका को समाप्त करने वाली विविधताओं को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। उनका वर्तमान घटना कुछ विशेष व्यक्त नहीं कर सकती। जीवन घटना-बहुल नहीं है । घटनाओं में उनके व्यक्तित्व बढ़ते तो अपूर्ण हैं, जो पूर्णता को प्राप्त हो चुका को खोजना भी व्यर्थ है।
हो - उसे 'वर्द्धमान' कहना कहाँ तक सार्थक हो घटना समग्र-जीवन के एक खण्ड पर प्रकाश सकता है? इसी प्रकार महावीर की वीरता को सांप और डालती है। घटनाओं में जीवन को देखना उसे बाँटना हाथी वाली घटनाओं से नापना कहाँ तक संगत है? है। भगवान महावीर का व्यक्तित्व अखण्ड है, यह एक विचारने की बात है। अविभाज्य है, उसका विभाजन संभव नहीं है। उनके यद्यपि महावीर के जीवनसंबंधी उक्त घटनाएँ व्यक्तित्व को घटनाओं में बाँटना, उनके व्यक्तित्व को शास्त्रों में वर्णित हैं, तथापि वे बालक वर्द्धमान को खण्डित करना है।
वृद्धिंगत बताती हैं, भगवान महावीर को नहीं। सांप से ___अखण्डित दर्पण में बिम्ब अखण्ड और विशाल न डरना बालक वर्द्धमान के लिए गौरव की बात हो प्रतिबिम्बित होते हैं, किन्तु कांच के टूट जाने पर सकती है, हाथी को वश में करना राजकुमार वर्द्धमान प्रतिबिम्ब भी अनेक और क्षुद्र हो जाते हैं। उनकी के लिए प्रशंसनीय कार्य हो सकता है, भगवान महावीर एकता और विशालता खण्डित हो जाती है। वे अपना के लिए नहीं। आचार्यों ने उन्हें यथास्थान ही इंगित वास्तविक अर्थ खो देते हैं।
किया है। वन-विहारी पूर्ण अभय को प्राप्त महावीर एवं भगवान महावीर के आकाशवत विशाल और पूर्ण वीतरागी सर्वस्वातंत्र्य के उद्घोषक तीर्थंकर भगवान सागर से गंभीर व्यक्तित्व को बालक वर्द्धमान की बाल- महावीर के लिए साँप से न डरना, हाथी को काबू में सुलभ क्रीड़ाओं से जोड़ने पर उनकी गरिमा बढ़ती नहीं, रखना क्या महत्व रखते हैं? वरन् खण्डित होती है।
___ तीर्थंकर महावीर के विराट व्यक्तित्व को समझने 'सन्मति' शब्द का कितना भी महान अर्थ क्यों के लिए हमें उन्हें विरागी-वीतरागी दृष्टिकोण से देखना न हो, पर केवलज्ञान की विराटता को वह अपने में नहीं होगा। वे धर्म क्षेत्र के वीर, अतिवीर और महावीर थे, समेट सकता। केवलज्ञानी के लिए सन्मति नाम छोटा युद्धक्षेत्र में पर को जीता जाता है और धर्मक्षेत्र में स्वयं ही पड़ेगा, ओछा ही रहेगा। वह केवलज्ञानी की महानता को। युद्धक्षेत्र में पर को मारा जाता है और धर्मक्षेत्र में व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो सकता। जिनकी वाणी एवं अपने विकारों को।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/31
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर की वीरता में दौड़-धूप नहीं, उछल- टूटने का सवाल ही नहीं उठता। वे तो बचपन से ही कूद नहीं, मारकाट नहीं, हाहाकार नहीं, अनन्त शांति सरल, शांत एवं चिंतनशील व्यक्तित्व के धनी थे। है। उनके व्यक्तित्व में वैभव की नहीं, वीतराग-विज्ञान उपद्रव करना उनके स्वभाव में ही न था और बिना की विराटता है।
उपद्रव के दांत टूटना, घुटने फूटना संभव नहीं। जब-जब यह कहा जाता है कि महावीर का कुछ लोगों का कहना यह भी है कि न सही जीवन घटना-प्रधान नहीं है, तब उसका आशय यही बचपन में, पर जवानी तो घटनाओं का ही काल है। होता है कि दुर्घटना-प्रधान नहीं, क्योंकि तीर्थंकर के जवानी में तो कुछ न कुछ घटा ही होगा। जीवन में आवश्यक शुभ घटनायें तो पंचकल्याणक ही पर बन्धवर ! जवानी में दुर्घटनाएँ उनके साथ हैं। वे तो महावीर के जीवन में घटी ही थीं। दुर्घटनाएँ घटती हैं, जिन पर जवानी चढ़ती है महावीर तो जवानी घटना कोई अच्छी बात तो है नहीं कि जिनके घटे बिना पर चढ़े थे, जवानी उन पर नहीं। जवानी चढने का अर्थ जीवन, जीवन ही न रहे और एक बात यह भी तो है है-यौवन संबंधी विकृतियाँ उत्पन्न होना और जवानी कि दुर्घटनाएँ या तो पाप के उदय से घटती है या पर चढ़ने का तात्पर्य शारीरिक सौष्ठव का पूर्णता को पापभाव के कारण।
प्राप्त होना है। जिसके जीवन में न पाप का उदय हो और उन्होंने द्रोह का अभाव किया था, अत: उन्हें न पापभाव हो, तो फिर दुर्घटनाएँ कैसे घटेंगी, क्यों अद्रोही ही कहा जा सकता है, विद्रोही नहीं। द्रोह, द्रोह घटेंगी? अनिष्ट संयोग पाप के उदय के बिना संभव को उत्पन्न करता है, द्रोह से अद्रोह का जन्म नहीं हो नहीं हैं तथा वैभव और भोगों में उलझाव पापभाव सकता। उन्होंने किसी के प्रति विद्रोह करके घर नहीं के बिना असम्भव है।
छोड़ा था। उनका त्याग विद्रोहमूलक न था। उनके भोग के भावरूप पापभाव के सद्भाव में त्याग और संयम के कारणों को दूसरों में खोजना उनके घटनेवाली घटनाओं में शादी एक ऐसी दुर्घटना है, साथ अन्याय है। वे 'न काहू से दोस्ती न काहू से बैर' जिसके घट जाने पर दुर्घटनाओं का कभी न समाप्त के रास्ते पर चले थे। होनेवाला सिलसिला आरम्भ हो जाता है। सौभाग्य वैराग्य या विराग राग के अभाव का नाम है, से महावीर के जीवन में यह दुर्घटना न घट सकी। विद्रोह का नाम नहीं। वे वैरागी राग के अभाव के कारण एक कारण यह भी है कि उनका जीवन घटना-प्रधान बने थे. न कि विद्रोह के कारण। महावीर वैरागी नहीं है।
. राजकुमार थे, न कि विद्रोही। महावीर जैसे अद्रोही लोग कहते हैं कि बचपन में किसके साथ क्या महामानव में विद्रोह खोज लेना अभूतपूर्व खोजबुद्धि नहीं घटता, किसके घुटने नहीं फूटते, किसके दांत नहीं का परिणाम है, बालू में तेल निकालने जैसा यत्न है, टूटते? महावीर के साथ भी निश्चितरूप से यह सब कुछ बन्ध्या के पुत्र के विवाह-वर्णनवत् कल्पना की उड़ाने घटा ही होगा, भले ही आचार्यों ने न लिखा हो। हैं, जिनका न ओर है न छोर।
पर भाई साहब ! दुर्घनाएँ बचपन से नहीं, घर में जो कुछ घटता है, अपनी ओर से घटता बचपने से घटती हैं, महावीर के बचपन तो आया था, है, पर वन में तो बाहर से बहुत कुछ घट जाने के प्रसंग पर बचपना उनमें नहीं था, अत: घुटने फूटने और दांत रहते हैं, क्योंकि घर में बाहर के आक्रमण से सुरक्षा का
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/32
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रबंध प्रायः रहता है। यदि कोई उत्पात हो तो अन्तर साधु बनने में वेष पलटना पड़ता है, साधु होने के विकारों के कारण ही होता देखा जाता है, पर वन में स्वयं पलट जाता है। स्वयं के बदल जाने पर वेष में बाहर से सुरक्षा-प्रबंध का अभाव होने से घटनाएँ भी सहज ही बदल जाता है। वेष बदल क्या जाता है, घटने की सम्भावना अधिक रहती हैं। माना कि महावीर सहज वेष हो जाता है, यथाजात वेष हो जाता है; जैसा का अन्तर विशुद्ध था, अत: घर में कुछ न घटा, पर पैदा हुआ था वही रह जाता है, बाकी सब कुछ छूट वन में तो घटा ही होगा?
जाता है। हाँ ! हाँ अवश्व घटा था, पर लोक जैसे घटने वस्तुतः साधु की कोई ड्रेस नहीं है, सब ड्रेसों को घटना मानता है, वैसा कुछ नहीं घटा था। राग- का त्याग ही साधु का वेष है। ड्रेस बदलने से साधुता द्वेष घट गये थे, तब तो वे वन को गये ही थे। क्या राग- नहीं आती, साधुता आने पर ड्रेस छूट जाती है। द्वेष का घटना कोई घटना नहीं है? पर बहिर्मुखी दृष्टिवाले यथाजातरूप (नग्न) ही सहज वेष है। और सब वेष को राग-द्वेष घटने में कुछ घटना सा नहीं लगता। यदि तो श्रमसाध्य हैं, धारण करनेरूप हैं। वे साधु के वेष तिजोरी में से लाख दो लाख रुपया घट जायें, शरीर नहीं हो सकते; क्योंकि उनमें गांठ है, उनमें गांठ बांधना में से कुछ खून घट जाये, आँख, नाक, कान घट जाय, अनिवार्य है। साधुता बंधन नहीं है, उसमें सर्वबन्धनों कट जाय तो इसे बहुत बड़ी घटना लगती है, पर राग- की अस्वीकृति है। साधु का कोई वेष नहीं होता, द्वेष घट जाय तो इसे घटना ही नहीं लगता। नग्नता कोई वेष नहीं। वेष साज-संभार है, साधु को
वन में ही तो महावीर रागी से वीतरागी बने थे. सजने-संवरने की फुर्सत ही कहाँ है ? उसका सजने का अल्पज्ञानी से पूर्णज्ञानी बने थे। सर्वज्ञता और तीर्थंकरत्व भाव ही चला गया है। सजने में 'मैं दूसरों को कैसा वन में ही तो पाया था। क्या ये घटनाएँ छोटी हैं? क्या लगता हूँ ?' का भाव प्रमुख रहता है। साधु को दूसरों कम हैं? इनसे बड़ी भी कोई घटना हो सकती है? मानव से प्रयोजन ही नहीं है, वह जैसा है, वैसा ही है। वह से भगवान बन जाना कोई छोटी घटना है? पर जगत् अपने में ऐसा मग्न है कि दूसरों के बारे में सोचने का को तो इसमें कोई घटना सी ही नहीं लगती। तोड़-फोड़ काम ही नहीं। दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी की रुचिवाले जगत को तोड-फोड में ही घटना नजर उसे परवाह ही नहीं। सर्व वेष शृंगार के सूचक हैं, साधु आती है। अन्तर में शान्ति से चाहे जो कछ घट जाय, को शृंगार की आवश्यकता ही नहीं। अत: उसका कोई उसे वह घटना सा ही नहीं लगता। अन्तर में जो कुछ वेष नहीं होता। प्रतिपल घट रहा है, वह तो उसे दिखाई नहीं देता, बाहर दिगम्बर कोई वेष नहीं है, संप्रदाय नहीं है; में कुछ हलचल हो, तभी कुछ घटा सा लगता है। वस्तु का स्वरूप है। पर हम वेषों को देखने के आदी
महावीर के साथ वन में क्या घटा था ? वन हो गये हैं कि वेष के बिना सोच ही नहीं सकते। हमारी में जाने से पूर्व ही महावीर बहत कछ तो वीतरागी हो भाषा वेषों की भाषा हो गई है। अतः हमारे लिए ही गये थे. रहा-सहा राग भी तोड, पूर्ण वीतरागी बनने. दिगम्बर भी वेष हो गया है। हो क्या गया - कहा जाने नग्न दिगम्बर हो, वन को चल पड़े थे। उनके लिए वन लगा है। सब वेषों में कुछ उतारना पड़ता है और कुछ
और नगर में कोई भेद नहीं रहा था। सब कुछ छूट गया पहिनना होता है, पर इसमें छोड़ना ही छोड़ना है, था, वे सब से टूट गये थे। उन्होंने सब कुछ छोड़ा था; ओढ़ना कुछ भी नहीं। छोड़ना भी क्या, उघड़ना है, कुछ ओढ़ा न था। वे साधु बने नहीं, हो गये थे। छूटना है। अन्दर से सब कुछ छूट गया है, देह भी छूट
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/33
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
गयी है, पर बाहर से अभी वस्त्र ही छूटे हैं, देह छूटने उन्हें अपना शत्रु मानो तो मानो, अपना मित्र मानो में अभी कुछ समय लग सकता है, पर वह भी छूटनी तो मानो; अब वे किसी के कुछ भी न रह गये थे। है; क्योंकि उसके प्रति भी जो राग था, वह टूट चुका किसी का कुछ रहने में कुछ लगाव होता है, उन्हें है। देह रह गयी है तो रह गयी है, जब छूटेगी तब छूट जगत् से कोई लगाव ही न रहा था। जायेगी; पर परवाह उसकी भी छूट गयी है।
एक अघट घटना महावीर के जीवन में अवश्य __मुनिराज वर्द्धमान नगर छोड़ वन में चले गये। घटी थी। आज से २५३३ वर्ष पहले दीपावली के दिन पर वे वन में भी गए कहाँ हैं ? वे तो अपने में चले जब वे घट (देह) से अलग हो गये थे, घट-पट के वासी गये हैं, उनका वन में भी अपनत्व कहाँ है ? उन्हें होकर भी घटवासी न रहे थे, गृहवासी और वनवासी वनवासी कहना भी उपचार है, वे वन में भी कहाँ तो बहुत दूर की बात है, अन्तिम घट (देह) को भी रहे ? वे तो आत्मवासी हैं। न उन्हें नगर से लगाव है, त्याग मुक्त हो गये थे। न वन से; वे तो दोनों से अलग हो गये हैं, उनका तो इससे अभूतपूर्व घटना किसी के जीवन में कोई पर से अलगाव ही अलगाव है।
अन्य नहीं हो सकती, पर यह जगत इसको घटना माने रागी वन में जायेगा तो कुटिया बनायेगा, वहाँ तब न ? भी घर बसायेगा, ग्राम और नगर बसायेगा; भले ही इसप्रकार सर्वथा अलिप्त, सम्पूर्णत: आत्मनिष्ठ उसका नाम कुछ भी हो, है तो घर ही। रागी वन में महावीर के जीवन को समझने के लिए उनके अन्तर में भी मंदिर के नाम पर महल बसायेगा, महलों में भी झांकना होगा कि उनके अन्तर में क्या कुछ घटा ? उन्हें उपवन बसायेगा। वह वन में रहकर भी महलों को बाहरी घटनाओं से नापना, बाहरी घटनाओं में बांधना छोड़ेगा नहीं, महल में रहकर भी वन को छोड़ेगा नहीं। संभव नहीं है।
नहाना-धोना सब कुछ छूट गया था। वे स्नान यदि हमने उनके ऊपर अघट-घटनाओं को और दंत-धोवन के विकल्प से भी परे थे। शत्रु और थोपने की कोशिश की तो वास्तविक महावीर तिरोहित मित्र में समभाव रखनेवाले मुनिराज वर्द्धमान गिरि हो जावेंगे, वे हमारी पकड़ से बाहर हो जावेंगे और जो कन्दराओं में वास करते थे।
महावीर हमारे हाथ लगेंगे, वे वास्तविक महावीर न वस्तुत: न उनका कोई शत्र ही रहा था और होंगे, तेरी-मेरी कल्पना के महावीर होंगे। न कोई मित्र । मित्र और शत्रु राग-द्वेष की उपज हैं। यदि हमें वास्तविक महावीर चाहिए तो उन्हें जब उनके राग-द्वेष ही समाप्तप्राय: थे, तब शत्रु-मित्रों कल्पनाओं के घेरों में न घेरिये, उन्हें समझने का यत्न के रहने का कोई प्रश्न ही नहीं रह गया था। मित्र कीजिए, अपनी विकृत कल्पनाओं को उन पर थोपने रागियों के होते हैं और शत्रु द्वेषियों के - वीतरागियों की अनधिकार चेष्टा मत कीजिए। का कौन मित्र और कौन शत्रु । कोई उनसे शत्रुता करो तो करो, मित्रता करो तो करो; उन पर उनकी कोई
- श्री टोडरमल स्मारक भवन, प्रतिक्रिया नहीं होती है। शत्रु-मित्र के प्रति समभाव
ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५ का अर्थ ही शत्रु-मित्र का अभाव है। उनके लिए उनका न कोई शत्रु था और न कोई मित्र। अन्य लोग
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/34
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर की साधना
डॉ. दयानन्द भार्गव विपुल
वे लम्बे समय तक त्राटक करते। स्त्रियाँ उन्हें लुभाने का प्रयत्न करतीं, किन्तु वे विचलित नहीं होते थे। वे न सम्मान करने वालों पर कोई अनुग्रह करते थे, न पीड़ा देने वालों का निग्रह। वे इन्द्रियों तथा मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति पर संयम रखते थे । वे न हिंसा करते थे, न किसी से करवाते थे । न वे स्वयं पात्र रखते थे, न किसी दूसरे के पात्र उपयोग करते थे, वे करपात्री थे।
भगवान महावीर का एक ऐसा भी जीवन-वृत्त उपलब्ध है जो किसी प्रकार के अतिमानवीय (सुपर ह्युमन) तथा अतिप्राकृतिक (सुपर नेचुरल) अंश से सर्वथा मुक्त है, किन्तु जिसमें उनका महामानव रूप पूरी तरह उभरकर आता है। आज के बुद्धिवादी युग में ऐसे जीवन-वृत्त का महत्व और भी अधिक है - यह कहने की आवश्यकता नहीं। यह जीवन-वृत्त आँखों देखा हाल जैसा विश्वसनीय है । गवेषणात्मक दृष्टि से यह जीवन-वृत्त आचारांग में दिया गया है। अत: इसे भगवान महावीर का प्राचीनतम उल्लेख भी माना जा सकता है। महावीर जयन्ती के अवसर पर इसी जीवनवृत्त का सार संक्षेप नीचे दिया जा रहा है। आचारांग का अधिकांश भाग गद्यात्मक है, किन्तु यह जीवनवृत्त पद्यात्मक है। प्राचीनकाल में मनुष्य के लिए गद्य की अपेक्षा पद्य रचना अधिक सहज थी । अतः इस जीवन-वृत्त का पद्यात्मक होना इसकी अर्वाचीनता की अपेक्षा प्राचीनता ही सिद्ध करता है।
-
इस जीवन-वृत्त के कहने वाले हैं भगवान महावीर के साक्षात् शिष्य सुधर्मा स्वामी और सुनने वाले हैं जम्बू स्वामी। जीवन-वृत्त यहाँ से प्रारम्भ होता है कि जब भगवान महावीर ने यथार्थ को जानकर संन्यास ग्रहण किया, तब हेमन्त ऋतु । उस हेमन्त ऋतु में भी उन्होंने शरीर को वस्त्र से आच्छादित नहीं करने का निर्णय किया। उनके शरीर पर प्रारम्भ में सुगन्धित द्रव्यों का लेप था, जिससे आकृष्ट होकर भौरें उनके शरीर पर आते और डंक मारते, किन्तु वे उस कष्ट को अविचलित भाव से सहन करते ।
वे मात्रानुसार ही खाते-पीते थे, रसीला भोजन नहीं करते थे । वे इस प्रकार चलते थे कि किसी को कष्ट न हो। वे निर्वस्त्र तो थे ही, शिशिर में भी हाथों को शरीर से चिपका कर सर्दी से बचने का प्रयत्न नहीं करते। लोग उनका परिचय पूछते तो वे चुप रहते। इस पर लोग उन पर क्रुद्ध होते, पर वे शान्त रहते । कोई उनके कहीं रहने पर आपत्ति करता तो वे उस स्थान को छोड़ देते। वे कम खाते थे। रोग होने पर औषधि नहीं लेते थे । तैल-मर्दन तो दूर वे दन्त प्रक्षालन से भी बचते । शिशिर में वे धूप में रहते । वे अत्यन्त रूखासूखा भोजन करते । वे लम्बे समय तक निराहार तथा निर्जल रहते थे। उनका मन समाधि में लगा था। वे पाप न करते, न करवाते, न अनमोदन करते। उन्होंने क्रोध, मान, माया तथा लोभ को शान्त कर दिया। वे शब्द और रूप के प्रति पूर्णत: अनासक्त रहे । उन्होंने कभी प्रमाद नहीं किया। उनके मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति पूर्णतः संयत थी। वे पूरे साधना काल में इसी प्रकार अप्रमत्त रहे।
तो ऐसा है भगवान महावीर की चर्या का
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/35
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीनतम उल्लेख । न कहीं देवी-देवताओं जैसी कि चाहे स्वयं को कितना भी कष्ट हो किन्तु किसी छोटे अलौकिक शक्तियों का दखल, न नरक-स्वर्ग जैसी से छोटे प्राणी को रंचमात्र भी कष्ट देना उन्हें स्वीकार्य नहीं परोक्ष अवधारणाओं का उल्लेख, न कहीं भगवान महावीर था। उन्होंने पाया कि अहिंसा और सुख-भोग-सुविधा की किसी ऐसी शक्ति का उल्लेख जो सहसा अविश्वसनीय एक साथ नहीं रह सकते। अत: उन्होंने कष्ट-सहिष्णुता हो। सम्पूर्ण जीवन-वृत्त ऐसा है मानों स्वयं भगवान और कठोर तपश्चर्या के द्वारा अहिंसा को साधा, महावीर ने अपने मुख से ही सुधर्मा स्वामी को सुनाया आरामतलबी द्वारा नहीं। वे विलासिता से तो कोसों दूर हो। भगवान महावीर की उपरोक्त जीवनचर्या एक ऐसे रहे। उन्होंने अपनी पैनी अन्तर्दृष्टि से पृथ्वी, जल, अग्नि पुरुषार्थमय जीवन की गाथा है जो हमें भी पुरुषार्थ के और वायु तक में चेतना को देख लिया। वनस्पति की लिए प्रेरित करती है। वह न अविश्वसनीय है, न ऐसी तो बात ही क्या ? अत: उनकी अहिंसा इतनी व्यापक कि हम उसका अनुसरण न कर सकें। __ थी कि वे भूतमात्र के प्रति करुणा से भरे थे।
____ महावीर का एक ही लक्ष्य था। उस लक्ष्य को भगवान महावीर के उपदेशों को आज नए सत्य का साक्षात्कार कहें, आत्म-साक्षात्कार कहें, संदर्भो में देखने की आवश्यकता है। हम जहाँ-तहाँ मुक्ति कहें, कषाय-विजय कहें या और कोई भी नाम खनिजों की खोज में पृथ्वी को खोद डाल दे रहे हैं, दें। उस लक्ष्य के पीछे उन्होंने सुख-सुविधा छोड़ी और जल को और वायु को प्रदूषित कर रहे हैं। पर्यावरणविद् प्रतिकूलता स्वेच्छा से ओढ़ी भी। इसे लक्ष्यैकचक्षुष्कता स्थावरों की इस हिंसा से चिन्तित हैं। विकास के नाम कहें या तप। उन्होंने उपादान को ही महत्व दिया, पर विलासिता बढ़ रही है और साथ ही अमीर और निमित्तों को नहीं। सतत् जागरुकता उनका एकमात्र गरीब के बीच की खाई भी बढ़ रही है। बड़े कष्टों की ध्येयवाक्य था। प्रमाद को उन्होंने विषधर सर्प की भाँति कौन कहे, हम तो अहंकार पर छोटी सी चोट पड़ने पर त्याज्य माना। जिन भोगों के पीछे सामान्य व्यक्ति संसार को सिर पर उठा लेते हैं ? पचासों बातें हैं, दौड़ता है, उन भोगों से वे इस तरह दूर रहे जैसे प्रज्वलित महावीर जयन्ती पर उनमें से कोई पाँच बातें ही तो ग्रहण दावानल से दूर रहा जाता है।
करें। ऐसा करके हम अपना कल्याण करेंगे, कोई महावीर उन्होंने अहिंसा का इस दृढ़ता से पालन किया स्वामी पर अहसान नहीं करेंगे।
- डी-१४८, जी-१, पैराडाइज अपार्टमेन्ट, दुर्गामार्ग, बनीपार्क, जयपुर
धम्मो मंगल मुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमस्संति जस्स धम्मे सयामणो॥
- धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है, जो अहिंसा, संयम और तपरूप है। जिसका मन उस धर्म में संलग्न है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं।
- सूत्रांग-आचारांग
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/36
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
vacationsaAROR
विश्व शान्ति के प्रेरक भगवान महावीर
0 श्रीमती चन्द्रकान्ता छाबड़ा तीर्थंकर की श्रमण परम्परा में तीर्थंकर महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हैं। वैशाली गणराज्य में जन्मे महावीर ने जनमानस में अहिंसा, अपरिग्रह, और अनेकान्त के सामाजिक मूल्यों की स्थापना कर प्राणी मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। विश्व के सामने महावीर ने समता की भूमि पर आरूढ़ होकर पारिवारिक, राजनैतिक तथा साम्प्रदायिक विघटन की मान्यताओं से परे रहने का आह्वान किया तथा अपने उपदेशों में अनेकान्त के मार्ग पर चल कर ही इस विघटन और वैमनस्यों से बचने का मार्ग बताया।
___ महावीर भगवान के सिद्धान्त किसी पंथ या देश तक ही सीमित नहीं है, समग्र मानव जाति के लिए उपयोगी हैं। विश्व के देशों में हथियारों की होड़ (मानव विनाशकारी अस्त्र) व आर्थिक प्रतिद्वंदता के कारण, जो कटुता (मारो हड़पो) की होड़ मची है, वो सब महावीर के अहिंसा के सिद्धांत के प्रचार-प्रसार से ही कम या हल हो सकती है। भगवान महावीर ने अपने दिव्यज्ञान के आलोक से जिन महान सिद्धांतों का प्रचार किया उनमें सर्वजीव समभाव और सर्व जाति समभाव सबसे मुख्य है और यही तीनों सिद्धांत रामबाण-औषधि है, जो विश्व की समस्याओं को आसानी से हल करके मानव जाति को सुख चैन अमन का मार्ग प्रशस्त कर सकते है। महात्मा गांधी ने भगवान महावीर के अहिंसा के सिद्धान्त के माध्यम से ही भारत को अंग्रेजों से आजाद कराया। भगवान महावीर ने विश्व को यह संदेश दिया कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान हैं। धर्म रहित मनुष्य पशु से भी गया-बीता है। महावीर के समोशरण में गाय व सिंह एक साथ बैठकर उनके उपदेश सुनते थे। यह उनकी अहिंसा का ही प्रभाव है। भगवान महावीर ने विश्व के सामने स्याद्वाद व अनेकान्त के द्वारा आपसी विरोधाभास तथा विभिन्न सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को समझना तथा उचित सम्मान देना सिखाया। स्याद्वाद वैयक्तिक व सामूहिक वैमनस्य तथा शत्रुता दूर करके एक-दूसरे के प्रति साम्यभाव स्थापित करने का एक सशक्त माध्यम है। इस प्रकार भगवान महावीर ने सामाजिक विषमता, ऊंच-नीच, असहिष्णुता इत्यादि का संदेश देकर मानव को विश्व बंधुत्व का संदेश दिया।
आज चारों ओर विश्व शान्ति के नारे तो लगाए जाते हैं, किन्तु विश्व शान्ति इन्सान से कोसों दूर है। अगर हमें हिंसादि पापों से विश्व जनमत को बचाना है तो हमें महावीर भगवान के पांच सूत्र १. अहिंसा २. सत्य ३. आचौर्य ४. ब्रह्मचर्य ५. अपरिग्रह आदि के माध्यम से विश्व को बताना होगा।
___ आज का मानव महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, ईसा, अल्लाह आदि को तो मानने तैयार है, किन्तु उनकी बात (सिद्धान्त) मानने को तैयार नहीं है। ये महापुरुष हमारे लिए दर्पण की भांति हैं। आज विश्व में अज्ञान का अन्धकार छाया हुआ है, उसे दूर करने के लिए भगवान महावीर के सिद्धान्त उनकी देशना को अपनाना होगा। हमें महावीर बनने के लिए भोग में नहीं योग में जीना होगा। विश्व का नक्शा बदलने के पहले स्वयं का नक्शा बदलना होगा। यह कटु सत्य है कि इन्सान ही भगवान बनता है। भगवान कहीं आसमान से उतरकर नहीं आते हैं। अत: भगवान महावीर का तो प्राणीमात्र को यही आह्वान है कि निरीह पशुओं का कत्ल, दौलत के लिए खूनी जंग, सातों व्यसनों का और पांचों पापों का हमारी मानसिकता पर जड़त्व होना आदि कई बुराईयों को अहिंसा, सत्य, अचोर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के आचरण से दूर कर वसुधैव कुटुम्बकम् को चरितार्थ करें।
0 ३५/८८, मानसरोवर जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/37
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
933
भगवान महावीर का सर्वोदय तीर्थ और श्रावकाचरण
0 प्रवीण चन्द्र छाबड़ा
भगवान महावीर की अनेकान्तिनी धारा और के लिए भी अपने से निर्धारित क्षेत्र में ही विहार करता दर्शन की स्वामी समन्तभद्राचार्य ने सर्वोदय-तीर्थ कह है और उपयोग के लिए अर्जन करता है। भोजन, वस्त्र, कर वन्दना की है। सर्वोदय-तीर्थ में उन्होंने श्रावक धर्म अलंकार आदि भोग सामग्री का परिमाण किए रहता के लिए आचार-संहिता का निर्माण किया, जिससे है। शरीरिक क्रियाओं में सावधान होता है। नियमित श्रावक के लिए पाँच अणुव्रत तथा सप्त शिक्षाव्रत व सामयिक, स्वाध्याय व ध्यान द्वारा भाव और भाषा को नियमों की अनुपालना के साथ ग्यारह चरणों (प्रतिमा) शुद्ध किए रहता है। अतिथि का सम्मान करता है। का निर्धारण किया। इन प्रतिमाओं का धारी होकर अपने शुद्ध अर्जन में से त्यागी, व्रतियों, मुनिराजों आदि श्रावक त्यागी विरागी होता हुआ वीतरागी होने का पथ को आहार देता है, सेवा करता है। अपने अर्जन का प्रशस्त करता है। अपनी साधना द्वारा श्रमण होने की एक भाग दान के लिए रखता है, जो सुपात्र, जन-सेवा तैयारी करता है। श्रावक, श्रमण धर्म की धुरी है, तथा लोक-कल्याण के लिए होता है। संवाहक है। श्रावक का दर्शन विशुद्ध होता है। गृहस्थ
श्रावक, गृहस्थ होकर भी लोकैषणा और होकर भी वह त्यागी-व्रती होता है। पद व सत्ता उसे प्रलोभन से अपने को बचाये रखता है। यह उसकी विमोहित नहीं करती। वह किसी को बाधता नहीं, अनपम साधना होती है। अपने सौख्य भाव से सबको बंधता भी नहीं है। वह अपना स्वामी स्वयं होता है।
अपना बनाये रखता है, सब में बाँट कर चलता है। अन्य के लिए भी स्वामी या दास नहीं होता है। वह
श्रावक व्रती होता है और व्रत साधन के लिए होते हैं। राष्ट्र और समाज गरिमामय होता है, जिसके नागरिक
कामना और आकांक्षा को लेकर व्रत वासना होता है, श्रावक होते हैं। श्रावक अपनी स्वतंत्रता के प्रति जहाँ
जो मूर्छा है, प्रमाद है। वह अपने सदाचरण को सावचेत है, वहाँ अन्य की स्वतंत्रता के प्रति संवदेनशील होता है। वह अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता और
धार्मिक और सामाजिक दायित्व मान कर चलता है,
उसका व्यापार नहीं करता । आचार, व्रत, नियम, बंधन करने भी नहीं देता।
नहीं होते, उपचार होते हैं। वह इनका दिखावा नहीं श्रावक, अतिचारी, अविचारी, मायाचारी और
करता और इनके लिए सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता। कपटचारी नहीं होता। वह मिथ्या दोषारोपण नहीं करता,
उनके लिए रूढ़िगत भी नहीं होता। रूढ़िगत होना जड़ चुगली के लिए नहीं होता, झूठी शपथ नहीं लेता। मिलावट व बनावट करने तथा चोर-बाजारी के लिए
के लिए होना है और दिखावा प्रवंचना है, धोखा है। नहीं होता। क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, राग
व्रत अपने को संयमी व साधनामय बनाये रखने तथा से अपने को शाबिचाता श्रावक अनुशासित किए रहने के लिए होते हैं। अपने लिए सीमा और परिधि निश्चित कर जीवन- श्रावक सनागरिक होता है। राष्ट्र और समाज जगत का व्यवहार करता है। श्रावक व्यापार व व्यवहार के लिए होता है। अपनी स्वतंत्रता के साथ अन्य की
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/38
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वतंत्रता के प्रति उपग्रही होता है, सहयोगी होता है। धन समाज में विषमता पैदा करता है। चोरी का यह जनतंत्र की सफलता व राष्ट्र की समृद्धि तथा समाज का धन अनाचार है और यह उछाल भी इसी तरह लेता गौरव परस्पर सहयोगी होकर रहने तथा पुरुषार्थमय है। श्रावक किसी भी स्थिति में अन्य की भावना को नागरिकों में निहित होता है। सब एक के लिए और ठेस पहुँचाता नहीं है। अपने वैभव का प्रदर्शन वह नहीं एक सब के लिए होने लगते हैं तो जनतंत्र अपने से करता । उसका वैभव धन नहीं, चरित्र होता है और वह सार्थक हआ जाता है। अन्य की कीमत पर सुविधा का अपने से व्यक्त होता है। श्रावक का जीवन-व्यवहार, भोग अतिक्रमण हैं जो संघर्ष के लिए होता है। वर्ग- विधि-विधान के अनुरूप होता है। वह निषेधात्मक वर्ण, जाति, भाषा व सीमाओं का संघर्ष और विरोध नहीं होता। व्यसनों से बचना, रात्रि भोजन नहीं करना, अतिक्रमण के कारण ही होता है। जनतंत्र की पहली मास-मधु, कंदमूल आदि का सेवन नहीं करना भी शर्त है कि हर नागरिक अन्य के प्रति संवेदनशील हो,
उसका विधानी आचरण है। यह सब उसके चरित्र के स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करे। अपनी सीमा और
साथ है। वह अपव्ययी नहीं होता। अपनी दैनिक-चर्या
में भी जल, वायु, अग्नि आदि का अपव्यय नहीं मर्यादा में रहते हुए अपने लिए उपयोगी व उपभोगी रहे।
करता। एक बूंद पानी भी अनावश्यक बिखरती है तो कार फुटपाथ पर चलते नागरिक को धुआँ से भरती है,
उसके लिए प्रायश्चित का कारण बनती है। वह उपभोग प्रदूषण का निर्माण करती है, चोट पहुँचाती है तो वह
करता है सावचेत होते हुए। श्रावक जानता है कि हर अतिक्रमण है। छड़ी रखने का अधिकार है, लेकिन वस्त व पदार्थ उपयोग के लिए है। इनका उपभोग घुमाते हुए किसी को आहत करने का नहीं है। जनतंत्र
। जनता सहयोग के साथ है। वस्तु या पदार्थ की सीमा है और की पहली शर्त जन को सम्मान और स्वतंत्रता देना है।
इन पर अधिकार और दुरुपयोग किए रहना अन्य को धन का प्रदर्शन अन्य को दयनीय बनाता है तो वह जन वंचित करना है। अनेकान्तिक धारा श्रावक की चिन्तन के प्रति द्रोह है। चोरी और जारी का चलना और इससे धारा होती है और वह कभी आग्रही होकर नहीं रहता, समाज को विद्रूप बना कर स्वेच्छाचारी होते जाना आग्रह राग है, मोह है जो बन्धन है। समाज को पतन की ओर ले जाना है। किसी भी व्यक्ति, सर्वोदय-तीर्थ में श्रावक सबके उदय व मंगल परिवार या समाज को व्यवहार और आचार में के लिए होता है। वीरम जयत शासनम. आत्मानशासन स्वेच्छाचारी होने को अधिकार नहीं दिया जा सकता। के लिए है, जहाँ स्वाश्रयी होकर पुरुषार्थी होने की प्रेरणा साम्राज्यी व्यवस्था में प्रदर्शन और शान-शक्ति के लिए है। सम्यक् श्रवण करने व तदुनसार आचरण करने अवसर रहे हों, लेकिन जनतंत्र में इनको चलने देना वाला श्रावक है। कविवर दौलतरामजी के शब्दों में - अन्य सबको पराभूत करना है।
'गेही पे गृह में न रचे, ज्यों जल तैं भिन्न कमल है।' सर्वोदय तीर्थ में श्रावक समता के लिए होता श्रावक गृहस्थाश्रम में होकर भी जल में कमल की तरह है। वह समाज के प्रति अपने कर्तव्य बोध के साथ सहजभावी हुआ रहता है। इसलिए बनारसीदासजी ने दायित्व के लिए होता है। अपने अधिकारों के लिए श्रावक को इक्कीस गुणों से विभूषित किया है और उन जागरुक होता है और अन्य के अधिकारों के प्रति सजग गुणों की वंदना की है। श्रावक होना, अपने को सार्थक रहता है। वह अपने पुरुषार्थ से अर्जित धन और संपदा करना है, सहज होकर आग्रह मुक्त जीवन जीना है। के लिए आकृष्ट नहीं होता और बादल की तरह दिये रहने में होता है। करों की चोरी को अपराध मानता है।
___ - २, न्यू कालोनी, जयपुर करों की चोरी वृत्ति होकर व्यवहार हो जाती है। तो ऐसा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/39
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर - नमन
श्रीमती कोकिला जैन
परम वीर देवाधिदेव- त्रिभुवन पति सम्यक् ज्योतित हो,
जगत्साक्षी शिवमार्ग प्रशासक केवल ज्योति प्रभाकर हो । मोह महातम नाश हेतु तुम शान्ति विमल सुधाकर हो,
विश्ववंद्य और पतित पावन प्रभु दीन बन्धु दुख भंजक हो । प्राणी मात्र पर दया और करुणा की पावन सलिला हो,
क्षमा प्रेम सौहार्द्रपूर्ण वात्सल्य की पावन मूर्ति हो । नष्ट किये चउ घाति कर्म हित मित प्रिय उपदेशक हो,
दिव्यध्वनि देकर कल्याण भविजन के मार्ग दर्शक हो । दस-अष्ट महाभाषामयी वाणी सर्वांग खिरी लघुभाषक हो,
ध्वनि ओंकार से गूथी गणधर जिनवाणी नायक तुम हो । समवशरण की सभा बैठे भविजन सत्भव दिग्दर्शक हो,
चार अनन्त चतुष्टय धारी अष्ट प्रातिहार्यों से युत हो । रत्नत्रय की सीढी चढ़ शिव मराग प्रशस्त कराते हो,
सुगुण छियालीस गुण अनंत अर्हत पद के भासी हो । अष्ट कर्म अरि नष्ट किये सिद्धालय मे जो तिष्ठे हो,
निर्विकार अविकार निरंजन सिद्ध चक्र के स्वामी हो । जन्म-जयन्ती आज मनायें त्रिशला सिद्धार्थ के नन्दन हो,
वैशाली कुण्डग्राम की मेदिनी के विकसित पावन जलज ही हो । जीओ और जीने दो सबको नारा शान्तिमय देते हो,
वीतराग निर्ग्रथ रूप यह निजानन्द रमण के दर्शक हो । ऐसी शक्ति वरदे प्रभुवर, आचरण आपसा हम पावें,
सम्यक् की प्राप्ति हो सबको, “कोकिल” शत-शत नमन करे ।।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /40
२झ ५ शास्त्री नगर जयपुर
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय खण्ड: अध्यात्म और सिद्धान्त
1-3
4-6
आचार्य श्री सन्मतिसागरजी क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आर्यिका शीतलमतिजी पण्डित शिवचरनलाल जैन
7-14
15-16
17-22
पण्डित ज्ञानचन्द बिल्टीवाला
23-25
डॉ. श्रेयांस कुमार जैन
26-34
1. मोक्ष पदार्थ 2. अध्यात्म व अहिंसा 3. अध्यात्म और सिद्धान्त 4. द्रव्य के साधारण गुण 5. निश्चय-व्यवहार 6. अन्तरात्मा की अन्तर्मुखता और
उसका उद्भव लघुतत्त्वस्फोट के परिप्रेक्ष्य में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि के कृतित्व
का वैशिष्ट्य 8. आचार्य अमृतचन्द्र एवं
उनका लघुतत्त्वस्फोट 9. देखनेवालेकोदेखनेका उपाय 10. जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त 11. तत्त्व बोध 12. कर्म सिद्धान्त एवं समाज
न्याय व्यवस्था 13. निज आत्मा ही परम ध्येय 14. जैन दर्शन में लोक की संरचना 15. मोक्षमार्ग की द्विविधता 16. जैन दर्शन का पुनरावलोकन 17. जैन दर्शन में कर्मबंध प्रक्रिया
35-39
40-45
वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल बाबूलाल जैन, इंजीनियर डॉ. प्रेमचन्द रांवका आचार्य महाप्रज्ञ
46-50
50
51-55
56-58
डॉ. महिमा बासल्ल महेश चन्द्र चांदवाड़ लोकेश जैन पं. मूलचन्द लुहाड़िया डॉ. नारायणलाल कछारा डॉ. शीतलचन्द जैन
59-61
62-63
64-70
71-72
FORSL
o nal Use Only
www.jainen ranyos
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोक्ष पदार्थ
आत्मा को समझो, उसके स्वभाव और विभाव की पहिचान को और विभाव के कारणों को समझ कर उन्हें दूर करने का पुरुषार्थ करो, मोक्ष अवश्य प्राप्त होगा ।
मोक्ष और तत्त्व सामान्यतया समानार्थक हैं तथा जीव तत्त्व का सारभूत पदार्थ मोक्ष है। मोक्ष शब्द का अर्थ छूटना है, अतः मोक्ष शब्द ही बद्धदशा का संकेत है। पहले बद्धदशा होगी तभी तो उससे छूटने रूप मुक्त दशा हो सकेगी। जीव की बद्धदशा अनादिकालीन है। इसका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि वह कभी नष्ट नहीं होगी। भव्यजीव की बद्धदशा अनादि सान्त है । आगम में कहा भी है
'कश्चिज्जीवः कृत्स्न कर्मभिर्विप्रमुच्यते बन्ध हेत्वभावनिर्जरावत्त्वात्' अर्थात् कोई जीव समस्त कर्मों से - कर्म प्रदेशों से विप्रमुक्त होता है, क्योंकि वह बंध कारणों के अभाव और निर्जरा से युक्त होता है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी मोक्ष का यही लक्षण कहा है. 'बंध हेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्न कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ’ बंध हेत्वभाव अर्थात् संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का विशेषेण प्रकर्षेण च- विशेष और प्रकर्षता के साथ छूट जाना मोक्ष है। यह मोक्ष मोहक्षय पूर्वक
होता है। पहले मोह का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है और उसके बाद मोक्ष प्राप्त होता है। नाम के आदि अक्षर से संपूर्ण नाम को बोध प्राप्त होता है। अतः 'मो' से मोह और 'क्ष' से क्षय का बोध होता है। इस प्रकार मो. क्ष. शब्द ही मोहक्षय को सूचित करता है। मोह, बंध का कारण है तो उसका क्षय मोक्ष का कारण अवश्य होगा ।
आचार्य श्री सन्मतिसागरजी
'मलादेर्वैकल्यं हिमण्यादेर्नैर्मल्यं' मल आदि का अभाव होना ही मणि आदि की निर्मलता है। इसी प्रकार भावकर्म और द्रव्यकर्म रूप मल का अभाव होना ही आत्मा की निर्मलता है। आत्मा की निर्मलता कहो या मोक्ष, एक ही बात है। पहले भाव मोक्ष होता है। पीछे द्रव्य मोक्ष। भावों की मलिनता ही इस जीव को परेशान करती है 'पर: ईशानोयस्य स परेशान:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार परेशान का अर्थ परतंत्र होना है, लोक में परेशान का अर्थ कष्टदशापन्न होता है। आत्मा यद्यपि अनंत शक्ति संपन्न है तथापि मोहजनित मलिनता उसकी उस अनंत शक्ति को प्रकट नहीं होने देती। सब जानते हैं कि पानी अग्नि को बुझा देता है आग पर पानी पड़ा और अग्नि बुझी। परन्तु जब पानी और आग के बीच एक सूत मोटी तांबा, पीतल आदि की चद्दर होती है तब वह आग पानी को गर्म करके भाप बना-बनाकर समाप्त कर देती है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म के बीच यदि मोहजन्य मलिनता रूपी चद्दर विद्यमान है तो कर्म आत्मा को अत्यंत दुखी कर देते हैं। जो आत्मा कर्मों को नष्ट करने का सामर्थ्य नहीं रखती है वह मोहजन्य मलिनता के सद्भाव में समयबद्ध प्रमाण कर्मों के द्वारा बद्ध हो जाती है।
धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्गो विपर्यादिश्यते बंधः ॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/1
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
सांख्य कारिका में कहा है कि धर्म से ऊर्ध्व एते ये तु समुलसन्ति गमन होता है अर्थात् स्वर्ग की प्राप्ति होती है, अधर्म
विविधा भावाः प्रथग्लक्षणासे नीचे गमन होता है अर्थात् नरक की प्राप्ति होती है,
स्तेहं नास्मि यतोऽत्रते मम ज्ञान से अपवर्ग – मोक्ष प्राप्त होता है और अज्ञान से
परद्रव्यं समग्रा अपि। बंध होता है।
मोक्षाभिलाषियों जीवों को अपने चित्त की प्रवृत्ति यदि कर्म बंध से बचना है तो अज्ञान से बचो। को उदात्त बनाकर निरंतर इस सिद्धांत की उपासना यहाँ अज्ञान का अर्थ मोहोदय से दूषित मिथ्याज्ञान है।
करना चाहिए कि मैं तो एक शुद्ध चैतन्य ज्योतिःस्वरूप मोक्षाभिलाषी जीव को उससे दूर रहना चाहिए। यह
ही हूँ। ये जो नाना प्रकार के विकारी भाव समुल्लसित
हो रहे हैं वे सबके सब परद्रव्य हैं, मेरे नहीं हैं। जीव मोक्षप्राप्ति के लिए प्रयत्न तो करता है, परन्तु स्वरूप की ओर लक्ष्य न होने से उसका वह प्रयत्न सफल नहीं
___ इतना पुरुषार्थ तो प्रत्येक जीव को करना चाहिए
कि वह स्वभाव-विभाव को समझ सके। गोताखोर हो पाता । एक ओर पत्थरों के ढेर में 'पारसमणि' है यह
मनुष्य अपने मुँह में तेल भर कर गोता लगाता है। सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए कोई तैयार हुआ।
तलहटी में पहुंचने पर वह तेल को मुँह से निकाल देता 'पारसमणि' के घिसने से लोहा स्वर्णमय हो जाता है,
__ है जिससे वहाँ की सब वस्तुयें उस को स्पष्ट दिखाई देने यह सुनकर पत्थरों के ढेर से एक पत्थर उठाता और लोहे लगती हैं - यह मगर है. यह मच्छ है. यह प्रवाल है. पर घिस कर झट से जलाशय में फैंक देता। यह करते- यह मोती है। इसी प्रकार मोक्षार्थी पुरुष भेदविज्ञान के करते एक बार पारसमणि उसके हाथ में आया, संस्कार प्रकाश में स्व और पर को अच्छी तरह समझने लगता वश उसने उसे लोहे पर घिसा और पानी में फेंक दिया। है। पर को समझकर जो उसका परित्याग करता है और पानी में फैंक देने के बाद जब लोहा देखता है तो वह अपने स्वरूप में संवृत रहता है वही बंध से बचता है। सुवर्णमय दिखता है। परन्तु पारसमणि को तो वह संस्कार कहा है - वश पानी में फैंक चुका था। अब उसकी पुन: प्राप्ति दूभर परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतापराधवान्। हो गई। इसी प्रकार संस्कार वश यह जीव शरीराश्रित वध्येतानपराधो ना स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः। क्रियाएँ तो बहुत करता है, परन्तु स्वभाव की ओर लक्ष्य परद्रव्य को ग्रहण करने वाला मनुष्य अपराधी नहीं देता। क्रियाओं के करने का निषेध नहीं है अपने पद कहलाता है और अपराधी होने से बंध को प्राप्त होता के अनुरूप क्रियाओं को करना आवश्यक है। परन्तु उन है, परन्तु जो मुनि स्वकीय द्रव्य में - अपने ज्ञाता-दृष्टा क्रियाओं को करते हुए अपने वीतराग स्वभाव की ओर स्वरूप में संवृत रहता है वह अपराधी नहीं कहलाता लक्ष्य भी तो रक्खो। उसके बिना केवल क्रियाओं से क्या और इसलिए बंध को प्राप्त नहीं होता। होने जाने वाला है ?
यह जीव शेखचिल्ली के समान अपने आप
संकल्पों को उत्पन्न करता है और उनमें निमग्न हो दुःख अमृतचंद्रसूरि ने कहा है -
उठाता है। एक गाँव में शेखचिल्ली ! नाम का एक सिद्धान्तोऽयमुदात्ता चित्त
आदमी रहता था, गरीब होने से मजदूरी करता था। चरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यता,
एक बार एक तेलिन ने उससे कहा- भैया शेखचिल्ली शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं
हमारी यह तेल की मटकी (घड़ा) हमारे घर पहुँचा दो, ___ज्योतिः सदैवास्म्यहं। दो पैसे तुम्हें दूंगी। दो पैसे मिलने की आशा से
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/2
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
शेखचिल्ली ने तेल की मटकी अपने सिर पर रख ली। विस्तार बहुत हो गया, योग, बौद्ध, वैशेषिक, चलते-चलते वह सोचता है कि दो पैसों से अमुक चीज सांख्य, वेदांती आदि मोक्ष का स्वरूप कैसा मानते हैं, लाकर बाजार में बेचूंगा तो दो आने हो जायेंगे और उस स्वरूप में कहाँ क्या कमी है? इसकी चर्चा जरूरी दो आने की अमुक चीज लाकर बेचूंगा तो दो रुपये थी। यह भी बताना था कि किस -किस गुणस्थान में हो जावेंगे। धीरे-धीरे मैं बड़ा आदमी हो जाऊंगा एक किन-किन कर्म प्रकृतियों का क्षय होकर अंत में मोक्ष मकान बनवा लूगा, घर में स्त्री आ जाएगी, बाल-बच्चे प्राप्त होता है। परन्तु इसकी आवश्यकता नहीं समझ कर हो जावेंगे, दोपहर के समय बच्चे आकर कहेंगे - दादा गौण कर दिया है। रोटी हो गई, भोजन कर लो। तब मैं अकड़कर कहूँगा शुद्धनय से आत्मा का जो स्वभाव कहा है, कि कर लूँगा, अभी क्या जल्दी है ? इसी धुन में उसने उसी को प्राप्त करने का प्रयत्न होना चाहिए। सिर हिलाया, जिससे तेल की मटकी नीचे गिरकर फूट
जो पस्सदि अप्पाणं अवद्धपुढे अणण्णय णियदं । गई, तेल वह गया। तेलिन कहती है - यह तूने क्या
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं विजाणाहि ॥ किया ? हमारी मटकी फोड़ दी, तेल बेकार कर दिया।
जो आत्मा को अवद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, शेखचिल्ली ने कहा कि तेरी तो मटकी ही फूटी है, पर अविशेष और पर के संयोग से रहित देखता है, उसे मेरी तो गृहस्थी चौपट हो गई। वास्तव यही दशा संसार शुद्धनय जानो। यही भाव अमतचंद्रस्वामी ने के प्राणियों की हो रही है।
‘आत्मस्वभावं परभावभिन्न' तथा 'एकत्वं नियतस्य करिष्यामि करिष्यामि करिष्यमीतिचिन्तया। शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः' आदि कलश काव्यों में मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्मृतं॥ कहा है।
करने-करने की चिन्ता में यह जीव मरने की आजकल वक्ता लोग श्रोताओं को प्रसन्न करने बात भूल जाता है। अपनी इच्छाओं को निरंतर बढ़ाता का प्रयत्न करते हैं। इसलिए इधर-उधर की चर्चा करके ही रहता है। पर उनकी पूर्ति नहीं कर पाता। एक कवि भगवान महावीर के आत्मतत्त्व के सिद्धान्त को अछूता ने कहा है -
छोड़ देते हैं। परन्तु यह निश्चित है कि उसके छोड़ देने नि:स्वो निष्कशतं शती
से न श्रोताओं को लाभ होगा और न वक्ताओं का दशशतं लक्षं सहस्राधिपो, वक्तापन सफल होगा। कहा है - लक्षेशः क्षितिपालितां
विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरामुद्दण्ड बाग्ऽम्वराः, क्षितिपतिश्चक्रेशतां वांछति।
शृंगारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यान मातन्वते। चक्रेशः पुनरिंद्रतां सुरपति
एते च प्रतिसद्य संति वहवो व्यामोह विस्तारिणो, ब्राह्मं पदं वांछति,
येभ्यस्तत्परमात्म तत्त्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः।। ब्रह्माविष्णुपदं हरिहरपदं ह्याशावधिं को गतः॥
अपने को विद्वान मानने वाले तथा सभा में
उद्दण्ड वचनों का आडंवर करने वाले वक्ता शृंगारादि जिसके पास कुछ नहीं है वह सौ मुहरें चाहता
रसों से आनंद जनक व्याख्यान करते हैं, सो व्यामोह है, सौ मुंहरे वाला हजार चाहता है, हजार वाला लाख चाहता है, राजा चक्रवर्ती होना चाहता है, ब्रह्मा-विष्णु
को विस्तृत करने वाले ऐसे वक्ता घर-घर में विद्यमान
हैं परन्तु जिनसे परमात्म तत्त्व विषयक ज्ञान प्राप्त होता पद की इच्छा रखता है और विष्णु शंकर बनना चाहता है। वास्तव में आशा की सीमा को कौन प्राप्त हआ है? ह व वक्ता दुलभ है। अर्थात् कोई नहीं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/3
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म व अहिंसा
388890628
possess
53384
0 क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी
__आज यह देखकर बड़ा हर्ष हो रहा है कि समझा जाता रहा, पर अब ऐसा समझना योग्य नहीं। आपके हृदय में जहाँ अहिंसा के प्रति प्रेम हैं, वहाँ अपने जीवन में नित्य ही निवास करने वाली अध्यात्म के प्रति भी कुछ कम आस्था नहीं है। विश्व तथा इस जीवन को अत्यन्त अन्धकारमय बना देने जैन मिशन के मंच पर अहिंसा सम्मेलन के साथ-साथ वाली प्रतिदिन की चिन्ताओं, व्याकलताओं व अध्यात्म सम्मेलन को भी स्थान मिलना इस बात का कलकलाहटों से भला कौन व्यक्ति अपरिचित है तथा साक्षी है।
कौन इन कुटिल चिन्ताओं से मुक्त होना नहीं चाहता। यद्यपि 'अध्यात्म' शब्द अपने विषय की सबके हृदय की एक ही आवाज है तथा एक ही समस्या सूक्ष्मता व गहनता के कारण कुछ जटिल सा प्रतीत है और वह यह कि किस प्रकार जीवन कुछ हल्का बन होता है तथा इसका विषय भी साधारणतया कुछ शुष्क पाये। आज का जीवन सर पर एक भार बन कर रह सा प्रतीत हुआ करता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं गया है। किस प्रकार इसे वास्तविक जीवन बनाया है। इसके विषय में शुष्कता की प्रतीति का कारण जाये। एक व्यक्ति के प्रति दूसरे व्यक्ति का तथा एक केवल विद्वजनों की कथन-पद्धति है। जो जटिल से देश के प्रति दूसरे देश का संकुचित दृष्टि से देखना जटिलतर बनाकर उपस्थित की जाती है। वास्तव में जीवन में बैठे हुए भय का परिचय देता है। इसका कारण अध्यात्म शब्द का अर्थ स्वभाव है। गीता में अध्यात्म क्या है तथा इस भय को किस प्रकार मिटाया जा सकता का लक्षण करते हुए बताया गया है कि अक्षर ब्रह्म है ? अर्थात् आत्मा का परम स्वभाव अध्यात्म कहलाता यद्यपि आज का विश्व भी इसी समस्या को है और स्वभाव क्योंकि नित्य ही अनुभव व प्रतीति में सुलझाने के प्रति प्रयत्नशील बना हआ है। वैज्ञानिक आने वाला नित्य है। अतः प्रत्यक्ष है और इसलिए उन्नति के इस युग में बराबर आगे बढ़ता चला जा रहा
है। यह आशा करता हुआ कि सम्भवतः वह इस अपना स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति जानता है, समस्या को सुलझा सके और मानव जीवन को सुन्दर इसलिए उसमें बैठे हुए दुःख व सुख से, चिन्ताओं व व निश्चिन्त बना सके। पर फल क्या निकल रहा है सो निश्चिन्तताओं व निराकुलताओं से, अशान्ति या शान्ति अदृष्ट नहीं है। चिन्ता व भय घटने की बजाय बराबर से, हिंसा या अहिंसा से, अकर्तव्य व कर्तव्यों से बढ़ते जा रहे हैं। मानव सृष्टि आज जीवन व मृत्यु के अपरिचित रहना असम्भव है। अध्यात्म अपना जीवन हिंडोले में झूल रही है। न जाने कब ये अणुबम विस्फुटित है, अपने जीवन का सार है, जिसको हर व्यक्ति पढ़ होकर जगत में प्रलय मचा दें और यह आज का भौतिक सकता है। अतः छिपा नहीं रह सकता और इसलिए विज्ञान सर्व विश्व को विनाश की गोद में सुलाकर स्वयं यह गुप्त नहीं कहा जा सकता। आज तक उसे हौआ भी वहीं विश्राम पा ले।
सरल।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/4
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
भो ! बुद्धिशाली मानव ! क्या विचारा है कि आज की यह बाहरी उन्नति आन्तरिक जीवन की उन्नति है या अवनति ! वास्तव में जीवन की उन्नति इस विज्ञान में नहीं बल्कि अध्यात्म-विज्ञान में निहित है। बाहर के वैज्ञानिक आकर्षणों से अन्धा हुआ मानव आज अपने आन्तरिक विज्ञान से आँखें मोड़ बैठा है। यही कारण है जीवन की चिन्ताओं का तथा संशय व भय का । अध्यात्म दो-चार योगियों का ही कर्त्तव्य हो और शेष मानव समाज का नहीं ऐसा नहीं है। अध्यात्म मानव जीवन का सार है। चाहे वह गृहस्थ में रहता हुआ मानव जीवन का अंश बना हुआ हो और चाहे योगी के रूप में स्वतन्त्र जीवन बिता रहा हो ।
योगी की बात छोड़िये। देखना यह है कि सामाजिक व्यवस्था में अध्यात्म किस रूप में सहायक हो सकता है तथा अहिंसा-सम्मेलन में बताई गयी अनेकों बातों की पूर्ति इस अकेले अध्यात्म के द्वारा कैसे हो जाती है ? अध्यात्म वास्तव में वह महान तत्त्व है जो जीवन की हर दिशा में उपयोगी है, क्योंकि वह स्वयं जीवन है । अध्यात्म अन्तशुद्धि (Moral) का निर्माता है और इसलिये मानव को दानवता से हटाकर मानवता के दर्शन कराता है। यदि ऐसा है तो विचारिये कि क्या अहिंसा तथा सामाजिक व राजकीय व्यवस्था हमसे अछूती रह सकेगी। जहाँ अध्यात्म है वहाँ ही सच्ची व स्वाभाविक अहिंसा और सामाजिकता है। जहाँ अध्यात्म नहीं, वहाँ वह भी नहीं। क्योंकि अध्यात्म के अभाव में अपनायी जानेवाली अहिंसा व सामाजिकता कृत्रिम है स्वाभाविक नहीं, और कृत्रिमता कभी स्थायी नहीं हुआ करती। यही कारण है कि महात्मा गांधी के नाम की दुहाई देनेवाली आज की भारत समाज मांस प्रचार के प्रति और पंचशील को स्वीकार कर लेने वाले अनेकों देश युद्ध व संहार के प्रति बढ़े चले जा रहे हैं। समस्या का कोई सच्चा हल हो सकता है तो वह अध्यात्म ही है ।
अध्यात्म हमको जिस एक छोटे से सिद्धान्त का
दर्शन कराता है वह केवल इतना है कि यह अन्तर से उठने वाली जो “मैं” है वह ही वास्तव में जीवन है। वह चैतन्यमूर्ति है व अमूर्तिक है, वह इन्द्रिय से अगोचर है, वह ज्ञानात्मक है। दुःख व सुख, चिन्ता व शान्ति सब वहाँ ही उत्पन्न होते हैं, तथा वह ही उनका उपभोग करने में समर्थ है। यह बाहर में दृष्ट शरीर मैं रूप नहीं है । यह भौतिक है अचेतन है । दुःख या सुख, चिन्ता या शान्ति इसकी उपज नहीं है और न ही वह इसका उपभोग कर सकता है। यह पहिला मैं तत्त्व नित्य व अविनाशी है और यह शरीर बाह्य व अनित्य, अर्थात् चिता में रखकर जला दिया जाने वाला। उस “मैं” तत्त्व को ही आत्मा कहते हैं, जो अन्तर हृदय में ज्ञान द्वारा प्रवेश पाकर ही देखा जाना व महसूस किया जाना सम्भव है। न नेत्रों के द्वारा देखा जा सकता है और न ही शरीर द्वारा महसूस किया जा सकता है।
बस इतना सा ही अध्यात्म का मूल विषय है। जो यद्यपि छोटा दिखता है पर अपनी गहनता के कारण अनन्त विस्तार युक्त है । यह हमें हमारे उस वर्तमान
प्रवाह की भूल को दर्शाता है जो केवल शरीर को जीवन मानकर बहता हुआ जीवन से अत्यन्त दूर हुआ जा रहा है। यदि मैं यह समझ जाऊँ कि मैं तो अन्तर्विलास रूप चैतन्य तत्त्व हूँ। मेरी शान्ति व अशान्ति का मूल वह ही है। इस शरीर से वास्तव में मेरा कोई
ता नहीं, तो मेरी प्रवृत्ति में अवश्य अन्तर पड़ जाये । वही काम मेरे लिये कर्तव्य हो जाये, जिसके द्वारा कि अन्तर्शान्ति का निर्माण हो या उसको कुछ सहायता मिले। हर वह कार्य जो जीवन में कल्पनायें, विकल्प व चिन्तायें उत्पन्न करे, मेरे लिये अकर्तव्य हो जाये । कर्तव्य से अकर्तव्य की कसौटी लौकिक न्याय नहीं बल्कि अन्तरंग शान्ति हो जाये, वर्तमान का स्वार्थ टल जाये । यदि कोई कार्य भविष्य में जाकर भी अशान्ति का कारण बन जाये तो वह भी मेरे लिये अकर्तव्य हो जाये ।
शान्ति का इतना बहुमान प्रकट हो गया है,
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/5
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिसके जीवन में, वह क्या दूसरे की शान्ति को किसी अन्तर की पुकार की प्रेरणा पाते रहने के कारण ही भी प्रकार से बाधित करने का प्रयत्न करेगा। क्या वह उसका आचरण अहिंसामयी हो जाता है, क्योंकि दूसरों कोई भी कार्य ऐसा करेगा, क्या कोई भी विचार ऐसा की आवश्यकता का भी वह उतना ही सम्मान करने मन में लायेगा, क्या कोई भी वचन ऐसा कहेगा, लग जाता है जितना कि अपनी आवश्यकता का। जिसके द्वारा कि किसी भी छोटे या बड़े प्राणी को कीड़े
अपनी आवश्यकताओं की होली में दूसरों की को या मनुष्य को, गाय को या सुअर को किसी भी
आवश्यकताओं को स्वाहा कर देने की बजाय दूसरों प्रकार की मानसिक या शारीरिक पीड़ा हो जाए ?
की आवश्यकताओं की वेदी पर ही अपनी कदापि नहीं करेगा। जो काम स्वयं उसे अपने लिए
आवश्यकताओं की बलि चढ़ा देने में ही उसे शान्ति रुचता नहीं वह दूसरे के लिए भी प्रयोग करना उसके
व हर्ष की प्रतीति होती है। जिसको कार्यान्वित रूप देने लिए अकर्तव्य हो जायेगा। प्राण से मार देने का तो प्रश्न
के लिये वह अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर नहीं। झूठ, चोरी, व्यभिचार, जुआ, मनोरंजन व विलास आदि के द्वारा भी वह किसी को कष्ट नहीं पहँचा लता है। सकता। यह कार्य उसके जीवन में कृत्रिम रूप से नहीं, इन बातों के अतिरिक्त और अहिंसा है ही क्या? बल्कि स्वाभाविक रूप से ही होने लगता है। इसमें अध्यात्म. अहिंसा का अत्यन्त व्यापक रूप है इस एक किसी अन्य की प्रेरणा की उसे प्रतीक्षा नहीं होती वह में ही स्वतः प्राण-हनन, असत्य, चोरी, व्यभिचार, स्वयं उसके जीवन की अन्तर्रेरणा है।
संचय आदि सर्व बातों का निषेध हो जाता है। इसीलिये इतना ही नहीं विश्व की सबसे बड़ी माँग जो अहिंसा वास्तव में अध्यात्म की पुत्री है और जिस आज साम्यवाद (Communism) के रूप में सामने समाज में अहिंसा के सब अंगों की प्रवृत्ति हो वहाँ भय आ रही है, उसके जीवन का स्वाभाविक कर्तव्य बन और संशय का काम क्या ? इस प्रकार अध्यात्म ही जाता है। राज्य नियम के कारण से नहीं, बल्कि स्वयं वास्तविक अहिंसा और सामाजिक धर्म है। ।
कोऽहं कस्त्वं कुतः आयातः का मे जननी को मे तातः। इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥
- मैं कौन हूँ, तू कौन है, कहाँ से आया है, कौन मेरी माता है, कौन मेरा पिता है ? यह सब असार है – ऐसा चिन्तवन कर। यह विश्व स्वप्न के समान है। इसे छोड़कर आत्म-चिन्तन कर।
- वैराग्य शतक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/6
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
अध्यात्म और सिद्धान्त
प्रारम्भ में जिनवाणी बारह अंगों और चौदह पूर्वों में विभक्त थी । अंगों और पूर्वो का लोप हो जाने पर आचार्यों ने जो ग्रन्थ रचना की है, वह उत्तरकाल
चार अनुयोगों में विभक्त हुई। उनका नाम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग है। जिसमें एक पुरुष से सम्बद्ध कथा होती है उसे चरित कहते हैं और जिसमें त्रेसठ शलाका पुरुषों के जीवन से सम्बद्ध कथा होती है उसे पुराण कहते हैं। ये चरित और पुराण दोनों प्रथमानुयोग कहे जाते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने इस अनुयोग को पुण्यवर्धक तथा बोधि और समाधि का निधान कहा है। अर्थात् जहाँ एक ओर इसमें उपयोग लगाने से पुण्यबन्ध होता है, वहीं दूसरी ओर रत्नत्रय की तथा उत्तम ध्यान की प्राप्ति भी इससे होती है । इस अनुयोग को प्रथम स्थान दिया गया है तथा उसे नाम भी प्रथमानुयाग दिया है। जैसे सबसे पहली कक्षा और परीक्षा का नाम प्रथमा है; क्योंकि प्राथमिकों के लिये, जो उसमें प्रवेश करना चाहते हैं, वही उपयोगी है, उसी तरह जिनवाणी में प्रवेश करने वाले प्राथमिकों
लिये प्रथमानुयोग का स्वाध्याय उपयोगी होता है। कथाओं में रुचि होने से पाठक का मन उसमें रम जाता है और फिर धीरे-धीरे वह उसमें वर्णित रहस्य को जानने के लिये उत्सुक हो उठता है । स्व. बाबा भागीरथजी वर्णी कहा करते थे कि पद्मपुराण की कथा सुनकर मैंने पढ़ना सीखा और मैं जैनधर्म स्वीकार करके वर्णी बन गया। अतः इस अनुयोग की महत्ता किसी भी अन्य अनुयोग से कम नहीं है ।
२. दूसरे अनुयोग का नाम करणानुयोग है। करण का अर्थ परिणाम भी है और गणित के सूत्रों को
स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री
भी कहते हैं । इसीसे श्वेताम्बर परम्परा में इसे गणितानुयोग भी कहते हैं। इसमें लोक और अलोक का विभाग, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों का विभाग, तथा गति, इन्द्रिय आदि मार्गणाओं का कथन होता है। एक तरह से यह अनुयोग समस्त जिनशासन का प्राणभूत है । इसके अध्ययन से संसार में भटकते हुए संसारी जीव को अपनी वर्तमान दशा का, उसके कारणों का तथा उससे निकलने के मार्ग का सम्यक्बोध होता है । करणानुयोग जीव की आन्तरिक दशा को तोलने के लिये तुला जैसा है। करणानुयोग के अनुसार जो सम्यग्दृष्टि होता है, वही सच्चा सम्यग्दृष्टि होता है, वही संसार सागर को पार करने में समर्थ होता है ।
३. तीसरे अनुयोग का नाम चरणानुयोग है । इसमें गृहस्थों और मुनियों के चारित्र का, उनकी उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के उपायों का कथन रहता है। इस अनुयोग का चलन सदा विशेष रहा है - इसी के कारण
आज भी जैनी - जैनी कहे जाते हैं।
४. अन्तिम चतुर्थ अनुयोग द्रव्यानुयोग है। इसमें जीव-अजीव, पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष आदि पदार्थों और तत्त्वों का कथन रहता है । प्रसिद्ध मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) तथा समयसार इसी अनुयोग में गर्भित हैं।
दिगम्बर परम्परा में जो साहित्य आज उपलब्ध है, उसमें सबसे प्राचीन कषायपाहुड़ और षट्खण्डागम हैं। कषायपाहुड़ की रचना आचार्य गुणधर ने और षट्खण्डागम की रचना भूतबली - पुष्पदन्त ने की थी । दोनों ही सिद्धान्तग्रन्थ पूर्वी से सम्बद्ध हैं तथा उनका मुख्य प्रतिपाद्य विषय कर्मसिद्धान्त है। भूतबलीमहावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/7
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुष्पदन्त के गुरू आचार्य धरसेन महाकर्म प्रकृति प्राभृत परम्परा का प्रवर्तन होने पर भी सबने अपने को के ज्ञाता थे, वही उन्होंने भूतबली-पुष्पदन्त को पढ़ाया कुन्दकुन्दाम्नायी ही स्वीकार किया है। प्रतिष्ठित मूर्तियों था और उसी के आधार पर भूतबली-पुष्पदन्त ने पर प्रायः मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख अंकित षट्खण्डागम की रचना की थी। इसी प्रकार कषायपाहुड़ पाया जाता है। पर चूर्णिसूत्रों के रचयिता आचार्य यतिवृषभ भी आर्य इन आचार्य कुन्दकुन्द को अध्यात्म का प्रणेता नागहस्ति और आर्यमंक्षु के शिष्य थे। और नागहस्ति या प्रमुख प्रवक्ता माना जाता है। इन्होंने जहाँ तथा आर्यमंक्षु भी कर्मप्रकृति प्राभृत के ज्ञाता थे। षट्खण्डागम सिद्धान्त पर परिकर्म नामक व्याख्या रची, श्रुतावतार कर्ता आचार्य इन्द्रनन्दि के अनुसार आचार्य वहाँ इन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, पद्मनन्दि ने कुण्डकुन्दपुर में गुरुपरिपाटी से दोनों सिद्धान्त नियमसार जैसे ग्रन्थ भी रचे । इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द ग्रन्थों को जाना तथा षटखण्डागम के आद्य तीन खण्डों सिद्धान्त और अध्यात्म दोनों के ही प्रवक्ता थे। पर परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा। यथा -
आचार्य कुन्दकुन्द के प्रथम टीकाकार आचार्य एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन्। अमृतचन्द्र जी के टीकाग्रन्थों ने अध्यात्मरूपी प्रासाद गुरुपरिपाट्यां ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ पर कलशारोहण का कार्य किया। इसी में समयसार की श्री पद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादश सहस्रपरिमाणः।।
टीका से आगत पद्यों के संकलनकर्ता ने उसे समयसार
कलश नाम दिया। इन्हीं कलशों को लेकर कविवर ग्रन्थ परिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्स्य ।।१६१॥
बनारसीदास ने हिन्दी में नाटक-समयसार रचा, जिसे आचार्य कुन्दकुन्द ने परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा
सुनकर हृदय के फाटक खुल जाते हैं। किन्तु अमृतचन्द्र था, इस पर हमने कुन्दकुन्द-प्राभृत-संग्रह की प्रस्तावना जी ने केवल समयसारादि पर टीकाएँ ही नहीं लिखीं, में विस्तार से विचार किया है और धवला टीका में प्राप्त तत्त्वार्थसत्र के आधार पर तत्त्वार्थसार जैसा ग्रन्थ भी उद्धरणों के आधार पर इन्द्रनन्दि के उक्त कथन का रचा तथा जैन श्रावकाचार पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय जैसा समर्थन किया है।
ग्रन्थ रचा और उनका एक अमूल्य ग्रन्थरत्न तो अभी कुन्दकुन्द-प्राभृत-संग्रह का संकलन इसी दृष्टि ही प्रकाश में आया, जिसमें २५-२५ श्लोकों के २५ से किया गया है कि पाठकों को यह ज्ञात हो जाये प्रकरण हैं । यह स्तुतिरूप ग्रन्थरत्न एक अलौकिक कृति कि कुन्दकुन्द ने किस-किस विषय पर क्या कहा है. जैसा है। अत्यन्त क्लिष्ट है, शब्द और अर्थ दोनों ही क्योंकि परम्परा से हम शास्त्र के प्रारम्भ मे यह श्लोक दृष्टियों से अति गम्भीर है। विद्वत्परिषद् में मंत्री पं. पढ़ते हैं
पन्नालालजी साहित्याचार्य ने बड़े श्रम से श्लोकों का
अभिप्राय स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उसी के मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी।
आधार पर अंग्रेजी अनुवाद के साथ यह ग्रन्थरत्न सेठ मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥ दलपतभाई, लालभाई जैन विद्या संस्थान अहमदाबाद
इसमें भगवान महावीर और गौतम गणधर के से प्रकाशित हुआ है। उससे व्यवहार और निश्चय दृष्टि पश्चात् ही आचार्य कुन्दकुन्द को मङ्गलं-स्वरूप कहा पर विशेष प्रकाश पड़ने की पूर्ण संभावना है। है। और उनके पश्चात् जैनधर्म को मंगलस्वरूप कहा है। यह सब लिखने का मेरा प्रयोजन यह है कि
उक्त श्लोक कब किसने रचा यह ज्ञात नहीं है। आज जो सिद्धांत और अध्यात्म या व्यवहार और किन्तु इससे जिनशासन में आचार्य कुन्दकुन्द का कितना निश्चय के मध्य में भेद की दीवार जैसी खड़ी की जा महत्व है यह स्पष्ट हो जाता है। उत्तरकाल में भट्टारक रही है, उसकी ओर से सम्बुद्ध पाठकों और विद्वानों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/8
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
को सावधान करूँ। सबसे प्रथम हमें यह देखना होगा कि सिद्धान्त की क्या परिभाषा है और अध्यात्म की क्या परिभाषा है । षट्खण्डागम सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। जयधवला की प्रशस्ति में टीकाकार जिनसेनाचार्य ने लिखा है - 'सिद्धानां कीर्तनादन्ते यः सिद्धान्तः प्रसिद्धिभाक् ।' अर्थात् सिद्धों का वर्णन अन्त में होने से, जो सिद्धान्त नाम से प्रसिद्ध है । इसका आशय यह है कि संसारी जीव का वर्णन प्रारंभ करके उसके सिद्ध पद तक पहुँचने की प्रक्रिया का जिसमें वर्णन होता है, उसे सिद्धान्त कहते हैं । जैसे तत्त्वार्थसूत्र में संसारी जीव के स्वरूप का वर्णन प्रारंभ करके अन्तिम दसवें अध्याय के अन्त में सिद्धों का वर्णन है। इसी प्रकार जीवकाण्ड में गुणस्थानों और मार्गणाओं के द्वारा जीव का वर्णन करके अन्त में कहा है गुणजीवठाणरहिया सण्णा पज्जत्ति पाणपरिहीणा । सेस णवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होंति ॥ ७३२||
—
अर्थात् सिद्ध जीव गुणस्थान से रहित, जीवस्थान से रहित, संज्ञा-पर्याप्ति-प्राण से रहित और चौदह में से नौ मार्गणाओं से रहित सदा शुद्ध होते हैं। अतः तत्वार्थसूत्र, गोम्मटसार जैसे ग्रन्थ जो षट्खण्डागम सिद्धान्त के आधार पर रचे गये हैं, सिद्धान्त कहे जाते हैं।
एक शुद्ध आत्मा को आधार बनाकर जिसमें कथन होता है उसे अध्यात्म ग्रन्थ कहते हैं । जैसे समयसार के जीवाजीवाधिकार के प्रारम्भ में कहा है कि जीव के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संस्थान, संहनन, वर्ग, वर्गणा, जीवस्थान, बन्धस्थान आदि नहीं हैं । अर्थात् गोम्मट्सार में प्रारम्भ से ही जिन बातों को आधार बनाकर संसारी जीव का वर्णन किया गया है, समयसार के प्रारम्भ में ही शुद्ध जीव का स्वरूप बतलाने की दृष्टि से उन सबका निषेध किया है। इससे पाठक भ्रम में पड़ जाता है और वह अपनी दृष्टि से एक को गलत और दूसरे को ठीक मान बैठता है। इसी से विवाद पैदा होता है। जिसने पहले गोम्मटसार पढ़ा है, वह समयसार
को पढ़कर विमूढ़ जैसा हो जाता है और जो समयसार पढ़ते हैं वे सिद्धान्त ग्रन्थों से ही विमुख हो जाते हैं, क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थों में उन्हीं का वर्णन है, जिन्हें समयसार में जीव का नहीं कहा। अतः वे केवल शुद्ध जीव का वर्णन सुनकर ही आत्मविभोर हो जाते हैं और अपनी वर्तमान दशा और उसके कारणों को सुनना भी व्यर्थ समझते हैं । फलतः आज समयसार का रसिया शेष जिनवाणी को ही हेय मान बैठता है। उसकी दृष्टि में यदि उपादेय है, तो केवल समयसार है, शेष सब हे हैं। न उसे चरणानुयोग रुचिकर है ओर न करणानुयोग रुचिकर है। ऐसे लोगों के लिये ही अमृतचन्द्र जी ने पञ्चास्तिकाय की अपनी टीका के अन्त में एक गाथा उद्घृत की है
णिच्चयमालंबता णिच्चयदो णिच्चयं अजाणता । णासंति चरणकरणं बाहिरचरणालसा केई || अर्थात् निश्चय का आलम्बन लेनेवाले, किन्तु निश्चय से निश्चय को न जानने वाले कुछ जीव बाह्य आचरण में आलसी होकर चरणरूप परिणाम का विनाश करते हैं।
से
इसी प्रकार जो प्रारम्भ से ही व्यवहारासक्त हैं और उसे ही एक मात्र मोक्ष का कारण मानकर निश्चय इसलिए विरक्त हैं कि पूर्व में उन्होंने कभी निश्चय की चर्चा नहीं सुनी। अतः प्रायः ऐसे लोग, जिनमें विद्वान और त्यागी व्रती भी हैं, समयसार की चर्चा से या आत्मा की चर्चा से भड़क उठते हैं। उसे वे सुनना भी पसन्द नहीं करते । कोई-कोई तो समयसार के रचयिता होने के कारण आचार्य कुन्दकुन्द से भी विमुख जैसे हो गये हैं और क्रियाकाण्ड को ही मोक्ष का मार्ग मानकर उसी में आसक्त रहते हैं। ऐसे व्यवहारवादियों को भी लक्ष्य करके अमृतचन्द्रजी ने पंचास्तिकाय की अपनी टीका में एक गाथा उद्धृत की है -
चरणकरणप्पहाणा ससमयपरमत्थमुक्कवावाहा । चरणकरणस्स सारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति ॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/9
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् जो चारित्र - परिणाम प्रधान हैं अर्थात् शुद्ध आत्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, अनुष्ठान रूप निश्चय मोक्षमार्ग से उदासीन रहकर या उसकी उपेक्षा करके केवल शुभानुष्ठानरूप व्यवहारमार्ग को ही मोक्षमार्ग मानते हैं और स्व-समयरूप परमार्थ में व्यापार रहित हैं, वे चारित्र परिणाम का सार जो निश्चय शुद्ध आत्मा है, उसे नहीं जानते। इसी से समयसार की गाथा १२ की टीका में अमृतचन्द्रजी ने एक गाथा उद्धृत की हैजइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइतित्थं, अण्णेण पुण तच्चं ॥
अर्थात् यदि जैनमत का प्रवर्तन चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों को मत छोड़ो, क्योंकि एक व्यवहारनय बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तु स्वरूप) का विनाश हो जायेगा ।
टीका में स्पष्ट किया है। गाथा १३ में संसारी जीव के अशुद्धय से चौदह मार्गणा और गुणस्थानों की अपेक्षा चौदह भेद कहे हैं। और शुद्धनय से सब जीवों को शुद्ध कहा है। इसकी टीका में कहा है कि 'गुणजीवापज्जत्ती' आदि गाथा में जो बीस प्ररूपणा कही है, वह धवल, जयधवल और महाधवल नामक तीन सिद्धान्त ग्रन्थों के बीजपदभूत हैं । और गाथा के चतुर्थ पाद में जो 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' कहा है, जो कि शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाशक है, वह पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार नामक प्राभृतों का बीजपदभूत है। इसी के आगे कहा है कि अध्यात्म ग्रन्थ का बीजपदभूत, जो शुद्ध आत्म-स्वरूप कहा है, वही उपादेय है।
इस तरह सिद्धान्त संसारी जीव की वर्तमान दशा का चित्रण करता है, जो शुद्ध जीव का स्वरूप न होने से व्यवहारनय का विषय है तथा हेय है। अध्यात्म इसके पश्चात् ही अमृतचन्द्रजी ने नीचे लिखा शुद्ध आत्मतत्त्व का प्रकाशक है, जो निश्चय नय का स्वर्ण कलश कहा है विषय है तथा उपादेय है। उभयनयविरीधध्वंसिनी स्यात्पदा
हेय और उपादेय
जो संसारी जीव आत्महित करना चाहता है, उसे सबसे प्रथम हेय और उपादेय का बोध होना आवश्यक है। यदि कदाचित् उसने हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मान लिया, तो वह आत्महित नहीं कर सकता। इसी से आगम में तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। अतः मुमुक्षु को तत्त्वार्थ का विचार करके उसकी श्रद्धा करनी चाहिए। इस विषय में आगम या सिद्धान्त और अध्यात्म में भेद नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है । समयसार में भूतार्थनय से जाने गये तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। मूल तत्त्व तो दो ही हैं - जीव और अजीव । इन्हीं के मिलन के फलस्वरूप आस्रव और बन्ध तत्त्व की निष्पत्ति हुई। वे ही दो संसार के कारण हैं। और संसार से छूटने के उपाय संवर, निर्जरा हैं, उनका फल मोक्ष है। इनमें पुण्य और पाप को मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि, महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/10
जिन वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥ निश्चय और व्यवहार में परस्पर विरोध है, क्योंकि एक शुद्ध द्रव्य का निरूपक है और दूसरा अशुद्ध द्रव्य का । उस विरोध को दूर करनेवाले भगवान जिनेन्द्र के स्यात्पद से अंकित वचन हैं अर्थात् स्याद्वाद नय गर्भित द्वादशांग वाणी है । जो उसमें रमण करते हैं, प्रीतिपूर्वक उसका अभ्यास करते हैं, वे स्वयं मिथ्यात्व का वमन करके परमस्वरूप, अतिशय प्रकाशमान उस शुद्ध आत्मा का अवलोकन करते हैं, जो नया नहीं है तथा एकान्त नय के पक्ष से अखण्डित है।
सिद्धान्त और अध्यात्म दोनों का ही चरम लक्ष्य यही है, भिन्न नहीं है। किन्तु दोनों की कथन शैली
अन्तर है। जहाँ तक हम जान सके, सिद्धान्त और अध्यात्म के इस अन्तर को ब्रह्मदेवजी ने अपनी द्रव्यसंग्रह
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थवार्तिक आदि में यह स्पष्ट किया है कि पुण्य और सुख के कारण पुण्यबन्ध की भावना करता है। आचार्य पाप का अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध तत्त्व में होता है। कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में अरहन्त अवस्था के समय इसलिए इन्हें पृथक् तत्त्व नहीं माना है। अत: आस्रव जिस पुण्य उदय की चर्चा की है, वह पुण्य ऐसा ही होता
और बन्ध तत्त्व संसार के कारण होने से हेय हैं, तब है, जो नहीं चाहते हुए भी बंधता है। उनमें गर्भित पुण्य और पाप कर्म उपादेय कैसे हो सकते सम्यग्दृष्टि श्रावक तो जिनपूजन प्रारंभ करते हुए हैं और उनमें उपादेय बुद्धि रखने वाला सम्यग्दृष्टि कैसे भावना भाता है - हो सकता है ?
अस्मिन् ज्वलविमलकेवलबोधवह्नौ यह ठीक है कि शास्त्रकारों ने पुण्यकार्य करने पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि। की प्रेरणा दी है, क्योंकि जीव को पाप कार्यों से बचाना
मैं इस प्रज्वलित निर्मल केवलज्ञानरूप अग्नि है। अत: पुण्यकर्म की उपयोगिता पाप से बचने मात्र में एकाग्रमन होकर समग्र पण्य की आहति देता है। इस में है। किन्तु इससे पुण्य उपादेय नहीं हो जाता। सम्यग्दृष्टि
ष्ट प्रकार जो पुण्यकार्य करते हुए पुण्य की आहुति देते हैं, भी पुण्य कार्य करता है, किन्तु पुण्यास्रव या पुण्यबन्ध
उनकी भावना परम्परा से मोक्ष का कारण होती है। को उपादेय नहीं मानता। इसी से किन्हीं ग्रन्थकार ने सम्यग्दृष्टि के पुण्य को परम्परा से मोक्ष का कारण कह
अतः उक्त तत्त्वों में उपादेय जो एक जीव तत्त्व दिया है।
ही है, उसी की यथार्थ श्रद्धा से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती भावसंग्रह में आचार्य देवसेन ने इस विषय में
है। इसमें कोई मतभेद नहीं है। जो कुछ कहा है, वह पठनीय है। वह कहते हैं कि जब
तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पाँच भाव कहे हैं - तक गृह-व्यापार नहीं छूटता, तब तक गृह-व्यापार में औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक एवं होने वाला पाप भी नहीं छूटता। और जब तक पाप पारिणामिक । इन पाँचों भावों में से किस भाव से मोक्ष कर्मों का परिहार न हो, तब तक पुण्य बन्धक कार्यों होता है - इसका खुलासा आगम और अध्यात्म दोनों को मत छोड़ो, अन्यथा दुर्गति में जाना होगा। जिसने से किया गया है। गृह-व्यापार से विरक्त होकर जिनमुद्रा धारण की है और धवला और जयधवला (पु. १, प. ५) टीका प्रमादी नहीं है, उसे पुण्य बन्ध के कारणों का त्याग से एक गाथा उद्धृत है - करना चाहिए। पुण्यबन्ध बुरा नहीं है, पुण्यबन्ध की
ओदइया बंधयरा उवसमखयमिस्सया हु मोक्खयरा। चाह बुरी है। स्वामी कार्तिकेय ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा ४१० आदि) में कहा है - जो पुण्य की भी भावो हु पारिणामिओ करणोभयवज्जिओ होइ ।। इच्छा करता है, वह संसार की इच्छा करता है, क्योंकि समयसार की टीका में जयसेनाचार्य ने आगम पुण्यबन्ध सुगति का कारण है और मोक्ष पुण्य के क्षय और अध्यात्म का समन्वय करते हुए लिखा हैसे प्राप्त होता है। पुण्य की चाह से पुण्यबन्ध नहीं होता। औदयिक भाव बन्धकारक हैं। औपशमिक, क्षायिक, किन्तु जो पुण्य को नहीं चाहते, उनके ही सातिशय मिश्रभाव मोक्षकारक हैं। किन्तु पारिणामिकभाव बन्ध पुण्यबन्ध होता है। मन्द कषाय से पुण्यबन्ध होता है। का भी कारण नहीं है और मोक्ष का भी कारण नहीं अतः पुण्य का हेतु मन्द कषाय है और मन्दकषाय है। औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक सम्यग्दृष्टि के ही होती है। क्योंकि वह पुण्य से प्राप्त होने भाव पर्याय रूप हैं। शुद्ध पारिणामिक द्रव्यरूप है। और वाले सांसारिक सुख को पाप का बीज मानता है। परस्पर सापेक्ष द्रव्यपर्यायरूप आत्मद्रव्य है। उनमें से इसलिए वह न ऐसे सुख की वांछा करता है और न ऐसे जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व इन तीन पारिणामिक भावों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/11
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
में से शक्तिरूप शुद्धजीवत्व - पारिणामिक भाव शुद्धद्रव्यार्थिकनय से निरावरण है। उसकी संज्ञा शुद्धपारिणामिक है। वह बन्ध और मोक्ष पर्यायरूप परिणति से रहित है। और जो दस प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व हैं, वे पर्यायार्थिक नयाश्रित होने से अशुद्ध पारिणामिक भाव कहलाते हैं। इन तीनों में से भव्यत्व पारिणामिक भाव को ढाँकनेवाला पर्यायार्थिकनय से जीव के सम्यक्त्व आदि गुणों का घातक मोहादि कर्म हैं । जब कालादि लब्धिवश भव्यत्व शक्ति की व्यक्ति होती है, तब यह जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव लक्षणवाले निज परमात्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् अनुरण रूप पर्याय से परिणमन करता है। इस परिणमन को आगम की भाषा में औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक
अभिमुख परिणाम या शुद्धोपयोग आदि कहते हैं।
इस तरह आगम और अध्यात्म में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का क्रमादि भिन्न नहीं है। जिसे करणानुयोग चरणानुयोग में औपशमिक आदि नामों से कहते हैं, उसे ही अध्यात्म में शुद्धोपयोग शब्द से कहते हैं । अतः अध्यात्म में अविरत सम्यग्दृष्टि को भी शुद्धोपयोगी कहा है। शुद्धोपयोग शब्द का भी एक ही अर्थ नहीं है। शुद्ध-उपयोग तो यथार्थ में ऊपर के गुणस्थानों में होता है । किन्तु शुद्ध के लिये उपयोग और शुद्ध का उपयोग नीचे के गुणस्थानों में होता है। इसी शुद्धात्मा के प्रति अभिमुख परिणाम को भी शुद्धोपयोग कहा है। उसके बिना आगे के गुणस्थानों में शुद्ध -
उपयोग होना संभव नहीं है ।
किसी भी अनुयोग में सम्यग्दर्शन का महत्व निर्विवाद है। सम्यग्दर्शन के बिना न ज्ञान सम्यक् होता है और न चारित्र। सम्यग्दर्शन के अभाव में दिगम्बर मुनि भी मुनि नहीं है, यह आगम का विधान है। सम्यग्दर्शन के होने पर ही अनन्त संसार सान्त होता है। छहढाला में जो कहा है
मुनिव्रतधार अनन्तवार ग्रैवेयक उपजायो । पे निज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो ।
तब प्रश्न होता है कि शुभोपयोग रूप धर्म है
भाव कहते हैं और अध्यात्म की भाषा में शुद्धात्मा के या नहीं है? और उसे करना चाहिये या नहीं?
यह सम्यग्दर्शन विहीन मुनिव्रत के लिये ही कहा है, क्योंकि द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि भी नौग्रैवेयक तक जा सकता है। अतः सम्यग्दर्शन विहीन चारित्र से भी स्वर्गसुख मिल सकता है, किन्तु मोक्षलाभ नहीं हो सकता। जो सांसारिक सुख की कामना से धर्माचरण करते हैं, वे धर्मात्मा कहलाने के पात्र नहीं हैं। किन्तु जो मोक्ष सुख की कामना से धर्म करते हैं, व सच्चे धर्मात्मा होते हैं और यथार्थ धर्म वही है जिससे कर्म कटते हैं ।
शुभोपयोग का धर्म के साथ सम्बन्ध
प्रवचनसार गाथा ११ में कहा है जब यह धर्मपरिणत स्वभाव आत्मा शुद्धोपयोग रूप परिणमन करता है, तब निर्वाण सुख पाता है और यदि शुभोपयोगरूप परिणमन करता है, तब स्वर्गसुख प्राप्त करता है अर्थात् उसके पुण्यबन्ध होता है ।
यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि धर्मपरिणत आत्मा ही शुभोपयोगी होता है, अतः उसे अधर्मात्मा तो नहीं कह सकते। आचार्य अमृतचन्द्रजी ने इसकी उत्थानिका में शुद्धपरिणाम की तरह शुभपरिणाम का सम्बन्ध चारित्रपरिणाम के साथ बतलाया है -
" अथ चारित्रपरिणाम सम्पर्क सम्भववतो: शुद्धशुभपरिणामयोः ।” किन्तु शुभोपयोगी के चारित्र को कथंचिद् विरुद्ध कार्यकारी कहा है । अत: जैसे शुद्धोपयोग की तुलना में शुभोपयोग हेय है उसी प्रकार अशुभपयोग की तुलना में शुभोपयोग हेय नहीं है । अत: उसे अशुभोपयोग की तरह सर्वथा हेय कहना उचित नहीं है और न सर्वथा उपादेय कहना ही उचित है; क्योंकि शुभोपयोग के रहते हुये निर्वाण लाभ सम्भव नहीं है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/12
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवचनसार में ही गाथा २४५ में श्रमणों के दो एकदेश रत्नत्रय नहीं है किन्तु उसके साथ में जो भेद किये हैं - शुद्धोपयोगी अनास्रव होते हैं और शुभरागरूप शुभोपयोग रहता है, वह उस कर्म का शुभोपयोगी सास्रव होते हैं।
कारण है। वह श्लोक इस प्रकार है - ___इसकी टीका में अमृतचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। है कि जो मुनिपद धारण करके भी कषाय का लेश स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥ जीवित होने से शुद्धोपयोग की भूमिका पर चढ़ने में
इसका अन्वयार्थ इसप्रकार है - (असमग्रं) असमर्थ हैं, वे क्या श्रमण नहीं हो सकते? उत्तर में एकटेश रिलायं) रत्नत्रय को (भावयतः पालन प्रवचनसार की प्रारम्भ की गाथा ११ का प्रमाण देकर करने वाले के (य:कर्मबन्धोऽस्ति) जो कर्मबन्ध होता अमतचन्द्रजी ने जोर देकर कहा है कि शुभोपयोग का है. (स अवश्यं) वह अवश्य ही (विपक्षकृतः) विपक्ष धर्म के साथ एकार्थसमवाय है अर्थात् धर्म और राणाटिकत है।
मार रागादिकृत है। शुभोपयोग एक साथ रह सकते हैं, इसलिये धर्म का सद्भाव होने से श्रमण शुभोपयोगी भी होते हैं, किन्तु
यह तीन चरणों का अर्थ है। अन्तिम चरण
स्वतन्त्र है, वह उक्त कथन के समर्थन में युक्ति है कि वे शुद्धोपयोगी श्रमणों के तुल्य नहीं होते।
वह बन्ध रत्नत्रयकृत क्यों नहीं है , रागकृत क्यों है? आगे गाथा२५४ की टीका में अमृतचन्द्रजी ने
क्योंकि (मोक्षोपाय:) जो मोक्ष का कारण होता है वह कहा है कि श्रमणों के शुभोपयोग की मुख्यता नहीं
(बन्धनोपायो न ) बन्ध का कारण नहीं होता। आगे रहती, गौणता रहती है, क्योंकि वे महाव्रती होते हैं और
- अमृतचन्द्रजी ने अपने इसी कथन की पुष्टि की है कि महाव्रत या समस्त विरति शुद्धात्मा की प्रकाशक है,
जितने अंश में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र किन्तु गृहस्थों के तो समस्तविरति नहीं होती, अतः
है उतने अंश में बन्ध नहीं है, जितने अंश में राग है उनके शुद्धात्मा के प्रकाशन का अभाव होने से तथा
उतने अंश में बन्ध होता है। कषाय का सद्भाव होने से शुभोपयोग की मुख्यता है। तथा जैसे स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य की किरणों का
किन्तु इतने स्पष्ट कथन के होते हुए भी कुछ संयोग पाकर ईधन जल उठता है, उसी प्रकार गहस्थ विद्वान् उक्त श्लोक के चतुर्थ चरण को भी पहले के को राग के संयोग से शद्धात्मा का अनुभव होने से वह चरणों के साथ मिलाकर ऐसा अर्थ करते हैं कि वह शुभोपयोग क्रम से परमनिर्वाण सुख का कारण होने से
विपक्षकृत बन्ध अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, बन्धन मुख्य है।
का उपाय नहीं है। किसी भी सिद्धान्त ग्रन्थ में ___इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रजी ने श्रावक के
कर्मबन्ध को, भले ही वह पुण्यबन्ध हो, मोक्ष का शभोपयोग की मख्यता स्वीकार की है। सिद्धान्त तो अवश्य उपाय नहीं कहा है। फिर अमृतचन्द्रजी तो यह स्वीकार करता ही है। किन्तु वह शभोपयोग आगे ही लिखते हैं - शुद्धोपयोग सापेक्ष होना चाहिये। निज शुद्धात्मा ही 'आस्रवति यस्तु पुण्यं शुभोपयोगस्य सोऽयमपराधः।' उपादेय है इस प्रकार की रुचि शुभोपयोगी को होती है, जो पुण्य का आस्रव होता है, वह तो शुभोपयोग तभी वह शुभोपयोग, शुभोपयोग कहलाता है। का अपराध है।' जो ग्रन्थकार पुण्यास्रव को शुभोपयोग
अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अन्त में आचार्य का अपराध कहता है, वह उस अपराध को मोक्ष का अमृतचन्द्रजी ने कहा है कि एकदेश रत्नत्रय का पालन उपाय कैसे कह सकता है ? करनेवालों के जो कर्मबन्ध होता है, उसका कारण इस प्रकार मझे तो सिद्धान्त और अध्यात्म में
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/13
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
कोई विरोध प्रतीत नहीं होता। विरोध तो सिद्धान्त और किन्तु आज तो सम्यक्त्व के लिये वस्तुस्वरूप अध्यात्म का पक्ष लेने वालों में है और वह तब तक की उपलब्धि को आवश्यक नहीं माना जाता। आज दूरी नहीं हो सकता, जब तक वे अमृतचन्द्रजी के शब्दों तो चारित्र धारण कर लेने मात्र से ही सब समस्या हल मैं अपने मोह को स्वयं वमन करके सिद्धान्त-अध्यात्म हो जाती है। आगम और अध्यात्म में प्रतिपादित धर्म रूप जिनवचन में रमण नहीं करते। पक्षव्यामोह को सम्यक्त्व से प्रारम्भ होता है। किन्तु आज के लोकाचार त्यागे बिना जिनवाणी का रहस्य उद्घाटित नहीं होता, का धर्म सम्यक्त्व से नहीं, चारित्र से प्रारम्भ होता है। जिनवाणी स्याद्वादनयगर्भित है। जितने वचन के मार्ग इस उल्टी गंगा के बहने से न व्यक्ति ही लाभान्वित होता हैं, उतने ही नयवाद हैं, अत: नयदृष्टि के बिना जिनागम है और न समाज ही। इस स्थिति पर सभी को शान्ति के वचनों का समन्वय नहीं हो सकता। इसी से आचार्य से विचार करना चाहिये। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार देवसेन ने नयचक्र में कहा -
जिनेन्द्र शासन में कोई विरोध नहीं है, विरोध हममें हैं। जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थुसरूवउवलद्धी। वत्थुसरूवविहीणा सम्मादिट्ठी कह होति ।। - श्री आदिनाथ जिनेन्द्र बिम्बप्रतिष्ठा एवं गजरथ 'जिनके नयरूपी दृष्टि नहीं है, उन्हें वस्तु स्वरूप
महोत्सव मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) की उपलब्धि नहीं हो सकती, और वस्तु-स्वरूप की
सन् १९७९, स्मारिका से साभार उपलब्धि के बिना सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं?'
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४४ निश्चय से राग-द्वेषादि भावों का प्रकट न होना ही अहिंसा है और उन रागद्वेषादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन सिद्धान्त का सार है।
एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी॥
पुरुषार्थसिद्धयुपाय २२५ दही की मथानी की रस्सी को खेंचने वाली ग्वालिनी की तरह जिनेन्द्र देव की स्याद्वाद नीति अथवा निश्चय-व्यवहाररूप नीति वस्तु के स्वरूप को एक सम्यग्दर्शन से अपनी
ओर खेचती है तो दूसरे से - सम्यग्ज्ञान से शिथिल करती है और अन्त में सम्यक्चारित्र से सिद्धरूप कार्य को उत्पन्न करने से जैन सिद्धान्त को जीतती है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/14
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्य के साधारण गुण
33302024
o आर्यिका शीतलमतिजी संघस्थ : आ. सन्मतिसागरजी महाराज
आत्मकल्याण के लिए सबसे आवश्यक अंग अथवा गुण गुणी के अभेद कथन की अपेक्षा सत् सम्यग्दर्शन है। संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, रूप ही है, स्वतः सिद्ध है - किसी अन्य व्यक्ति के सुख की उपलब्धि मोक्ष में होती है अत: उसकी ओर द्वारा बनाया हुआ नहीं है, अनादि निधन है, स्वसहाय ही ज्ञानी जीव का पुरुषार्थ होता है। उसके पुरुषार्थ का है और निर्विकल्प है। सीधा अर्थ यह है कि संसार पहला कदम सम्यग्दर्शन है। समन्तभद्र स्वामी ने यथार्थ के अंदर ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है, जो अस्तित्त्व देव-शास्त्र-गुरू का तीन मूढ़ताओं तथा आठ मदों से गुण से रहित हो। रहित एवं आठ अंगों से सहित श्रद्धान करने को
२. दूसरा वस्तुत्त्व गुण का अर्थ है - सम्यग्दर्शन कहा है। उमास्वामी ने तत्वार्थ श्रद्धान को अर्थक्रियाकारित्वं वस्तत्वं अर्थात अर्थ क्रियाकारी होना सम्यग्दर्शन बताया है और कुद-कुद स्वामी ने अबद्धस्पष्ट ही वस्तु का वस्तत्त्व है। तषा निवारण, वस्त्र प्रक्षालन, तथा असयुक्त आदि विशेषणों से युक्त आत्मा के श्रद्धान तथा स्नान आदि पानी के कार्य हैं. इन कार्यों से पानी को सम्यग्दर्शन कहा है । सम्यग्दर्शन के सब लक्षण इसी की यथार्थता जानी जाती है। मगतष्णा में यह सब नहीं लक्षण के साधक हैं। सीधे साधे शब्दों में कहा जाय ।
होते इसलिए वह पानी नहीं है किन्तु भ्रममात्र है। तो पदार्थ का सही-सही रूप अपनी बुद्धि में अंकित
३. तीसरा गुण द्रव्यत्व है वह परिणमन-शीलता हो जाय, यही सम्यग्दर्शन है। पदार्थ के सही स्वरूप
लक्षण वाला द्रव्यत्व गुण कहलाता है। द्रव्य की यह को समझने के लिए उसके असाधरण-विशिष्ट गुणों पर
परिणमनशीलता स्वप्रत्यय और स्व-पर प्रत्यय के भेद तो दृष्टि दी ही जाती है पर अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व,
से दो प्रकार की होती है। धर्म, अधर्म, आकाश और प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व-इन छह साधारण
काल इनकी परिणमन शीलता स्वप्रत्यय है । यद्यपि इन गुणों पर भी दृष्टि देना आवश्यक है। इसके बिना वस्तु
___ में भी काल द्रव्य की अपेक्षा स्व पर प्रत्ययपना आता की पूर्णता नहीं होती। यहाँ संक्षेप से इन गुणों के स्वरूप
है। पर उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। जीव और पर विचार करना है।
पुद्गल, इन दो द्रव्यों की परिणमन-शीलता स्व-प्रत्यय १. प्रथम अस्तित्व गुण का अर्थ सत्ता अर्थात् और स्व-पर प्रत्यय दोनों प्रकार की होती है। प्रत्यय मौजूदगी है। मौजूदगी ही पदार्थ का पहला लक्षण है। का अर्थ कारण है अर्थात् निमित्त कारण है। यद्यपि पंचाध्यायीकार ने कहा है।
निमित्त कारण स्वयं कार्यरूप परिणमन नहीं करता है तत्त्वंसल्लाक्षणिकंसन्मानं वा यतः स्वत: सिद्धं । तथापि वह कार्य की सिद्धि में आवश्यक है। उपादान तस्मादनादिनिधनंस्वसहायंनिर्विकल्प च ॥ स्वयं कार्यरूप परिणत है अत: उपादानोपादेयभाव एक तत्त्व अर्थात् पदार्थ सत् लक्षण वाला है। द्रव्य में बनता है । कर्तृकर्मभाव का निरूपण भी आचार्यों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/15
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
ने एक ही द्रव्य में किया है। निमित्त-नैमित्तिक भाव दो जाती है; मिथ्यादृष्टि जीव संकल्प और विकल्प में फँसा द्रव्यों में बनता है। इस विषय में कुन्दकुन्द स्वामी कहते रहता है पर सम्यग्दृष्टि जीव उनसे उभरने लगता है। हैं कि जीव के परिणाम-रागादि भावरूप हेतु को पाकर विकल्प उतना हानिकारक नहीं होता जितना कि पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमन करते हैं और पुद्गल संकल्प। विकल्प तो श्रुतज्ञान का अंश है परन्तु कर्म को निमित्त पाकर जीव भी रागादिरूप परिणमन संकल्प मोहजनित इच्छाओं का जाल है। सम्यग्दृष्टि करता है। जीव का विभाव परिणमन अनिमित्तक नहीं की इच्छाओं का जाल आगे-आगे कम होता जाता है। हैं। यथा -
प्रथम गुणस्थान से लेकर तृतीय गुणस्थान तक के जीव जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुगला परिणमंति। की इच्छाएँ दर्शनमोह के साथ रहती हैं परन्तु चतुर्थादि पुग्गल कम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणमइ ।।
गुणस्थानवी जीव की इच्छाएँ मात्र चारित्रमोह जनित
होती हैं, अतः उनका रूप ही दूसरा होता है। सम्यग्दृष्टि ४. चौथा प्रमेयत्व गुण है जो प्रमाण का विषय
भोजन तो करता है परन्तु भोजन में अमुक वस्तु ही होना है अर्थात् किसी न किसी के ज्ञान का विषय है वह प्रमेय
चाहिए, ऐसा भाव उसका नहीं होता । सम्यग्दृष्टि कपड़ा कहलाता है। संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो
तो पहनता है परन्तु ऐसा ही कपड़ा होना चाहिए यह किसी के ज्ञान का विषय न हो।
उसका अभिप्राय नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान ५. पाँचवाँ अगुरुलघुत्व गुण है इसका अर्थ है
और वैराग्य की शक्ति नियम से होती है, अतः इन - एक द्रव्य का दूसरे द्रव्यरूप नहीं परिणमना । जीव
शक्तियों के अनुरूप ही प्रवृत्ति होती है। कभी पुद्गलरूप नहीं होता और पुद्गल कभी जीवरूप
समयसार के आत्मख्यातिकार लिखते हैं - नहीं होता। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अत्यंताभाव
स्व-पर समाना, समान समाना, समान त्रिविधभाव रहता है। अत्यंताभाव का अर्थ है जो त्रिकाल में भी
धारणात्मिका, साधारणासाधारण साधारणासाधारण उसरूप न हो सके।
धर्मस्वशक्ति अर्थात् स्व-पर के समान, असमान और ६. छटवाँ प्रदेशत्व गुण का अर्थ प्रदेशों से
समानासमान ये तीन भेदरूप भावों को धारणा स्वरूप सहित होना। जीव, धर्म और अधर्म ये तीनों द्रव्य
साधारण, असाधारण और साधारणासाधारण धर्मत्व असंख्यात प्रदेशी हैं, काल द्रव्य एक प्रदेशी है,
शक्ति है। आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है और पुद्गल संख्यात,
इसके विपरीत स्वरूप समझने पर क्या होता है असंख्यात तथा अनंतप्रदेशी है। पुद्गल का परमाणु
इस बात को श्लोकवार्तिकाकार ने बताया है - एक प्रदेशी ही है परन्तु स्कन्ध में संख्यात, असंख्यात
सपक्षेविपक्षे च भवेत् साधारणस्तु सः। और अनंत प्रदेश होते हैं। इस प्रदेशत्व गुण के कारण
प्रस्तूभयस्याद्वधावृत्तः स त्व सा साधारणोमतः अर्थात् द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है।
व्यभिचारी हेत्वाभास तीन प्रकार का है – साधारण, आकार के बिना वस्तु खरविषाणवत् होती है अर्थात्
असाधारण और अनुपसंहारी। उसमें जो हेतु सपक्ष व अस्तित्व से रहित होती है।
विपक्ष दोनों में रह जाता है वह साधारण है और जो इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, पदार्थ के यथार्थ स्वरूप हेतु सपक्ष और विपक्ष दोनों में नहीं ठहरता वह को जानकर उसकी दृढ़ प्रतीति करता है। सम्यग्दृष्टि असाधारण है। जीव मोक्षमार्गी कहलाता है। उसकी परिणति ही बदल
.
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/16
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
निश्चय-व्यवहार
-
आत्मस्वरूप को सुखमय बनाने के लिए उसके परिज्ञान की महती आवश्यकता है। ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है। ज्ञान की समीचीनता का नाम ही प्रमाण है। कहा भी है – 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' । प्रमाण के अंशों को नय कहते हैं । 'प्रमाणांशाः नयाः उक्ताः' । सारांश में कह सकते हैं कि ज्ञान की समीचीनता, चाहे वह समग्र रूप में हो अथवा आंशिक रूप में, आत्मस्वरूप को समझने का उपाय है। 'नयतीति नय:' अर्थात् जो किसी एक लक्ष्य पर पहुँचता है, ले जाता है, वह नय है । यदि लक्ष्य की ओर अग्रसर होना है तो नयों की आवश्यकता है। नयों के दो काम इस प्रकार ज्ञात होते हैं - एक तो ज्ञान में सहायक होना, दूसरा अग्रसर कराना । अन्य शब्दों में क्रिया या गतिशीलता सम्मुख ज्ञान के साधनों को नय कहा जा सकता है।
अनेकान्त जैन दर्शन का मूल है। वस्तु अनन्त धर्म वाली है। उन धर्मों को विभिन्न दृष्टियों से ही जाना जा सकता है, इन्हीं दृष्टियों को नय कहते हैं। पदार्थ की यथात्मकता के सफल अवबोधक होने से सभी नय सार्थक हैं। आगम और अध्यात्म इन दो रूपों में श्रुतज्ञान को विभक्त किया जाता है, अलग-अलग दो श्रुतज्ञान निरपेक्ष नहीं हैं। दोनों का हर काल में सहयोगी निरूपण है । इसीलिए आगमिक नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक
तथा आध्यात्मिक नय निश्चय और व्यवहार ३६ में अंक ३ और ६ के समान विपरीत दिशोन्मुख न होकर ६३ में परस्पर सहयोगाकांक्षी के रूप में अवस्थित हैं। किसी अपेक्षा से आगम में वर्णित द्रव्यार्थिक नय को निश्चयनय और पर्यायार्थिक नय को व्यवहारनय कह सकते हैं। आचार्यों ने अध्यात्म में स्थान-स्थान पर निश्चय और
पं. शिवचरनलाल जैन
व्यवहार इन दो नयों का नाम लेकर प्रयोग किया है। अपेक्षा को स्पष्ट करना उनकी दृष्टि में सर्वत्र उपयोगी रहा है ताकि पाठक को भ्रम अथवा छल न हो। परिभाषाएँ -
१. निश्चिनोति निश्चीयते अनेन वा इति निश्चयः
जो तत्त्व परिचय कराता है अथवा जिससे अर्थावधारण किया जाता है या निश्चित किया जाता है, वह निश्चय है ।
-
२. निश्चयनय एवम्भूतः
निश्चयनय एवम्भूत है। (श्लोकवार्तिक १-७) ३. परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः - परमार्थ के विशेषण से संशयादि की रहितता होने से निश्चय है । ( प्रवचनसार, ता.वृ.-९३) ४. अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः -
जो अभेद और अनुपचार से वस्तु का निश्चय कराता है, वह निश्चय है । (आलापपद्धति ९) ५. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणी हि । (स.प्रा.)
जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष (सामान्य) और असंयुक्त देखता है, निश्चय (शुद्ध निश्चनय) जानना चाहिए।
वह
६. आत्माश्रितो निश्चयोनयः - ( स. सा. आ. - २७२)
आत्मा ही जिसका आश्रय है, वह निश्चय है । ७. अभिन्नकर्तृ कर्मादि विषयो निश्चयो नयः - कर्ता, कर्म आदि को अभिन्न विषय करने वाला निश्चय नय है । ( तत्त्वानुशासन / ५९, अनगार धर्मामृत / १/१०२) महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/17
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहार नय
१. पडिख्वं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो -वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना व्यवहार नय है । (धवला १ / १ )
—
—
२. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधि पूर्वकमवहरणं व्यवहारः – संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार है । (सर्वार्थसिद्धि १/३३)
३. भेदोपचराभ्यां व्यवहरतीति व्यवहारः - जो भेद और उपचार से व्यवहार करता है, वह व्यवहार है।
४. जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो .......
एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुणपर्यायों का भेदरूप उपचार करता है, वह व्यवहार नय कहा जाता है।
५. पराश्रितो व्यवहारः – परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (स.प्रा. आत्मख्याति २७२ )
६. व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थो न परमार्थः - स यथा गुणगुणिनो सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।
विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है । यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं । जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी भेद करता है, वह व्यवहार नय है। (पंचाध्यायी/पू./५२२)
यहाँ अशुद्ध निश्चय नय से आत्मा को चेतन परिणाम (भावकर्म राग-द्वेष आदि) का कर्त्ता बताया है तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध भावों का कर्त्ता बताया है। यद्यपि यहाँ स्पष्ट रूप से अशुद्ध निश्चय नय का उल्लेख नहीं किया गया है, तथापि शुद्ध नय से अन्य
८. जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो निश्चय नय निरूपित किया गया है, वह अशुद्ध निश्चय व्यवहारो । ( छहढाला) नय ही है।
७. व्यवहारनयो भिन्न कर्तृकर्मादिगोचरः व्यवहार नय भिन्न कर्ता - कर्मादि विषयक है।
उपरोक्त परिभाषाएँ निश्चय और व्यवहार के स्वरूप को समझने में उपयोगी हैं। इन नयों की परिभाषाएँ अध्यात्म में बहुत मिलती हैं। सब सापेक्ष हैं। यहाँ दोनों का पृथक्-पृथक् एवं समन्वित वर्णन किया जाता है। निश्चय नय - जिससे मूल पदार्थ का निश्चय
किया जाता है, वह निश्चय नय है । यह नय वस्तु के मूल तत्त्व को देखता है । यद्यपि परपदार्थों की संगति भी वास्तविक है तथापि यह उसको दृष्टिगत नहीं करता है । जैसे आत्मा और पुद्गल संसार में मिले हुए द्रव्य हैं। ऐसी स्थिति में भी शरीरादि परद्रव्यों को पृथक् ही मानते हुए केवल आत्मद्रव्य को ही ग्रहण करता है। पर्यायों पर भी दृष्टि नहीं डालता है। आगम भाषा का द्रव्यार्थिक नय अपेक्षा दृष्टि से निश्चय नय माना जा सकता है किन्तु पूर्णतया दोनों का स्वरूप एक नहीं है क्योंकि वहाँ व्यवहार को भी द्रव्यार्थिक माना गया है। स्वाश्रितो व्यवहारः • इस लक्षण के अनुसार इस नय का प्रयोजन स्वद्रव्य है । निश्चय नय दो प्रकार का है । १. शुद्ध निश्चय नय, २. अशुद्ध निश्चय नय । शुद्ध द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है वह शुद्ध निश्चय नय है। इसे आगम भाषा में वर्णित परमभावग्राही शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कह सकते हैं। अशुद्ध द्रव्य जिसका प्रयोजन है, वह अशुद्ध निश्चय नय कहलाता है। आगम भाषा में जिसे कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कह सकते हैं। वृहद्रव्यसंग्रह में उपरोक्त दो नयों का प्रयोग देखिये पुग्गल कम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदण कम्माणादा सुद्धणया सुद्ध भावाणं ॥ ८ ॥
समयसार कलश १० में शुद्ध नय का लक्षण देखियेआत्मस्वभावं परभावभिन्नं आपूर्ण माद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति॥
आत्म स्वभाव को परभावों से भिन्न, आपूर्ण, आदि अन्त रहित, एकरूप तथा संकल्प विकल्प जाल महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2 / 18
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
के हैं।
से रहित प्रकाशित करता हुआ शुद्ध नय (शुद्ध निश्चय) १. स्वभाव व्यंजन पर्यायार्थिक नय, उदय को प्राप्त होता है।
२. विभाव व्यंजन पर्यायार्थिक नय । आचार्य अमृतचन्दजी ने निश्चय नय से अपने अन्य दृष्टि से व्यवहार के निम्न चार भेद हैं - भावरूप परिणमन करने वाले को को कहा है - १. अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय - जैस य: परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। जीव के केवलज्ञान आदि गुण हैं। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ।। २. उपचरित सद्भूत व्यवहार नय - जैसे जीव
जीव राग-द्वेष भाव का भी कर्ता है तथा शुद्धभाव के मतिज्ञान आदि विभाव गुण हैं। (वीतराग भाव) का भी। दोनों प्रकार के भावों का कर्ता
३. अनुचरित असद्भूत व्यवहार नय - संश्लेष एक नय से नहीं हो सकता। दो नय चाहिए। वे दोनो ही सहित शरीरादि पदार्थ जीव के हैं। निश्चय नय हैं। दोनों के विषय विरुद्ध हैं। अत: वे शुद्ध निश्चय नय और अशुद्ध निश्चय नय ही हो सकते हैं।
४. उपचरित असद्भूत व्यवहार नय – जिनका
संश्लेष सम्बन्ध नहीं है - ऐसे पुत्र, मित्र, गृहादि जीव चूँकि जीव का परिणमन शुद्ध रूप से एवं अशुद्ध रूप से, दोनों से होता है, अत: आचार्य श्री की दृष्टि में दोनों को निश्चय रूप से मान्यता प्राप्त है। परमार्थ
उपरोक्त प्रकार दोनों नयों का संक्षेप से स्वरूप दृष्टि से अशुद्ध निश्चय भी व्यवहार ही है।
वर्णन किया। व्यवहार नय – ऊपर कह आये हैं कि जो भेद
जीवादिक पदार्थों के परिज्ञान के लिए प्रमाण और उपचार से व्यवहार करता है. वह व्यवहार नय है। और नयों की उपयोगिता है। जिसप्रकार हम किसी इसका विषय अनपचार भी है, जैसा कि इसके भेद- वस्तु को हर पहलू से घुमा फिराकर देखते हैं, उसीप्रकार प्रभेदों से प्रकट है। गुण और गुणी में भेद करना इसका विभिन्न नयों (Points of view) या दृष्टिकोणों से कार्य है तथा भेद में भी अभेद की सिद्धि करना भी समन्वित रूप से हमें जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों को (उपचार) इसका कार्य है। जैसे जीव और पुद्गल में जानना आवश्यक है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अत: भेद है किन्तु यह इनको एक कहता है। जैसे - किसी एक ही नय द्वारा उसका सर्वांगीण ज्ञान अशक्य “ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु
है। हाँ, “अर्पितानर्पित सिद्धेः” - इस वचन के अनुसार एक्को।” (समयसार गाथा २७)
किसी नय को किसी समय में मुख्य और किसी को गौण व्यवहार नय देह और जीव को एक कहता है।
करना पड़ता है। नयों को चक्षु की उपमा दी है।
नय योजना - कौन-सा नय किस अवस्था में “पराश्रितो व्यवहारः” – इस वचन के अनुसार
, प्रयोजनीय है, इसे दृष्टि में रखकर आचार्य कुन्दकुन्द ने यह नय पर के आश्रय से प्रवृत्ति करता है। परद्रव्यों। द्रव्यकर्म, शरीर-परिग्रहादि नोकर्म को तथा उनके
समयसार की १२वीं गाथा में कहा है - सम्बन्ध से होने वाले कार्यों को जीव का मानता है। सुद्धो सुद्धादे सो णायव्वो परमभावदरिसीहिं । जीव कर्म करता है, जन्म-मरण करता है, संसारी है, ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ।।१२।। मूर्तिक है, पौद्गलिक कर्मों का भोक्ता है, बद्ध और जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रस्पृष्ट है, आदि का वर्णन करता है। इस नय को आगम वान हो गये हैं अर्थात् परमभावदर्शी हैं, उनको तो शुद्ध भाषा में पेक्ष या पर्यायार्थिक नय कहते हैं। यह द्रव्य द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है को नहीं देखता, पर्याय को ही विषय करता है। इस किन्तु जो अपरमभाव में स्थित हैं, उनके लिए व्यवहार नय को भी दो भेदों में विभक्त किया जा सकता है। का उपदेश दिया गया है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/19
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहार नय को समयसार जैसे शुद्ध अध्यात्म संसार, शरीर और भोगों से अन्त:करण से एवं बाह्य एवं विशुद्ध ध्यान विषयक ग्रन्थों में अभूतार्थ भी कहा रूप से विरक्त साधु ही हैं। इसका अर्थ यह नहीं लेना गया है, जिसका अर्थ असत्यार्थ भी किया गया है। चाहिए कि इन ग्रन्थों को गृहस्थ को पढ़ना ही नहीं इसका मतलब यह ही है कि जब योगी शुद्धोपयोग की चाहिए, अपितु ये ग्रन्थ ऊपर बताये गये भाव को अवस्था में पहुँचता है, उसकी अपेक्षा यह अप्रयोजनभूत अर्थात् मुनिपरक उपदेशता को ध्यान में रखकर ही है। इसका आशय यह नहीं है कि यह सर्वथा असत्यार्थ अध्येय हैं। इस सावधनी से अध्यात्म का हार्द समझने है। अपने विषय की अपेक्षा अथवा प्रमाण की दृष्टि में में चूक न होगी। व्यवहार नय बाहरी फोटो के समान वह भी उतना ही भूतार्थ है जितना कि निश्चय । आचार्य पदार्थ का चित्रण करता है, निश्चय नय एक्सरे के फोटो अमृतचन्द्र स्वामी ने आत्मख्याति में बतलाया है कि के समान अन्तरंग एवं निर्लिप्त चित्रण करता है। आचार्य जब कमल को जल सम्पृक्त अवस्था की दृष्टि से देखते कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है कि जिसप्रकार अनार्य भाषा हैं तो कमल जल में है, यह व्यवहार कथन भूतार्थ है। के बिना म्लेच्छ को समझाना अशक्य है, उसीप्रकार जब जल की तरफ दृष्टि न करके मात्र कमल को देखते बिना व्यवहार के निश्चय का उपदेश अशक्य है। हैं तो कमल जल से भिन्न है, यह निश्चय कथन भूतार्थ जिसप्रकार अक्षर के भेद-प्रभेद रूप विन्यास के बिना है। वास्तविकता यह है कि कोई नय की सत्यार्थता बालक को सर्वप्रथम अक्षरज्ञान नहीं हो सकता, अपितु होती है। प्रयोजन निकल जाने पर वही अभूतार्थ, उसे “अ” के पेट, चूलिका, दण्ड, रेखा () - 1) असत्यार्थ कहलाता है। यदि व्यवहार नय सर्वथा अलग-अलग बताने पड़ते हैं तथा उन अवयवों से ही अभूतार्थ होता तो उसे अनेकान्त सम्यक् प्रमाण के भेदों "अ" बनता है, उसीप्रकार व्यवहार नय प्राथमिक में स्थान कैसे मिलता।
जीवों को उपयोगी है एवं व्यवहार भेदों के एकत्रीकरण नय चाहे व्यवहार हो या निश्चय, सभी नयवादों से ही निश्चय का स्वरूप बनता है। को पर समय कहा गया है। देखिये -
व्यवहार निश्चय का साधन है -निश्चय साध्य जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। है, व्यवहार साधन है। आचार्य अमृतचन्द्रजी ने भी जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया॥ तत्त्वार्थसार में कहा है - (द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र)।
निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । ऊपर परमार्थ परमभाव की चर्चा की है।
तत्राद्यः साध्यरूप स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनः ।। परमभाव में स्थित मुनि हैं। इस विषय में स्थान-स्थान
एक ही मोक्षमार्ग दो प्रकार है - १. निश्चय, पर आचार्यों ने स्पष्टीकरण भी किया है। २. व्यवहार। निश्चय साध्य है, व्यवहार साधन है।
बिना व्यवहार के निश्चय की सिद्धि त्रिकाल में संभव समयप्राभृत में देखिये -
नहीं है। द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र में माइल्लधवल मोत्तूण णिच्छयळं ववहारेण विदुसा पवटंति। कहते हैं - परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ होदि।। णो ववहोरण विणा णिच्छयसिद्धी कया वि णिदिट्ठा। णिच्छयणयासिदापुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं। साहणहेऊ जम्हा तम्हा य भणिय सो ववहारो।।
निश्चय नय-परक अध्यात्म ग्रन्थों की रचना आचार्य अमृतचन्द्रजी ने पंचास्तिकाय की टीका आचार्य कुन्दकुन्द आदि महर्षियों ने श्रमणों को लक्ष्य में (गाथा नं. १६७ से १७२ तक) इस साध्य-साधन में रखकर की है। यथास्थान “मुनेः” आदि सम्बोधन भाव को दृढ़ता से प्रतिपादित किया है, तीनों रत्नों को पदों का प्रयोग भी किया है। इस शैली के पात्र वस्तुतः (व्यवहार व निश्चय) दोनों रूपों में मान्यता दी है
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/20
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्यवहार को निश्चय का बीज लिखा है। यानि व्यवहार उसी कथन को सम्पूर्ण सत्य मानकर वैसा ही निरूपण ही निश्चय रूप में परिवर्तित हो जाता है। जो निश्चय करता है। द्रव्य को सर्वथा शुद्ध मानता है परन्तु आप
और व्यवहार में किसी एक का भी पक्षपात करता है, साक्षात् रागी हो रहा है। उस विकार को पर (अन्य) वह देशना का फल प्राप्त नहीं करता। निष्पक्षता ही फल मानकर उससे बचने का उपाय नहीं करता। यद्यपि की उत्पादक है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा भी है - अशुद्ध है तथापि भ्रम से अपने को शुद्ध मानकर एक व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्यतत्त्वेन भवति मध्यस्थः। उसी शुद्ध आत्मा का चिन्तन करता है। द्रव्य से पर्याय प्राप्नोति देशनायाः स एवं फलमविकलं शिष्यः॥ को सर्वथा भिन्न मानकर, अस्पृष्ट मानकर सन्तुष्ट हो
किसी नय की अवहेलना वस्तु तत्त्व की जाता है, जबकि द्रव्य से पर्याय तन्मय है। वह रागादिक अवहेलना है। नय तो जानने के लिए दो आँखों के विकार को पर्याय मात्र में मानता है, विकारों का आधार समान हैं। समय-समय पर प्रत्येक नय काम में आता पर्याय ही मानता है। इस मान्यता का जीव दही, गुण है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने गोपिका के उदाहरण खाकर प्रमादी हुए के समान आत्मस्वरूप से च्युत से अनेकान्तमय जैनी नीति को प्रस्तुत किया है- बहिरात्मा है। एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
निश्चयैकान्ती एक ज्ञान मात्र को ही वास्तविक अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी॥ मोक्षमार्ग मानता है, तथा चारित्र तो स्वतः हो जायेगा, (पुरुषार्थसिद्धयुपाय २२५) ऐसा जानकर चारित्र और तप हेतु उत्साही नहीं होता।
नियतिवाद, क्रमबद्ध पर्यायत्व और कूटस्थता के एकान्त जैसे गोपिका मक्खन निकालने के लिए मथानी
ज्वर से पीड़ित रहता है। समयप्राभृतादि अध्यात्म के की रस्सी से दोनों छोरों को पकड़े रहती है, गौण मुख्य
उपदेश का अनर्थकर, सम्यग्दृष्टि अबन्धक है एवं वह करती है, उसीप्रकार तत्त्व जिज्ञासु रस्सी स्थानीय प्रमाण
भोगों से निर्जरा को प्राप्त होता है, ऐसा श्रद्धान कर भोग के दोनों अंश व्यवहर-निश्चय, इनमें से किसी को
व पाप से विरक्त नहीं होता। शुभोपयोग को किसी भी छोड़ता नहीं है, यथासमय गौण-मुख्य करता है।
प्रकार शुद्धोपयोग का साधक नहीं मानता । व्यवहार को निश्चयाभास - जो शुद्ध अध्यात्म ग्रन्थों का निश्चय का साधक नहीं मानता। प्रथम ही निश्चय पठन करके निश्चय नय के वास्तविक अर्थ को न मोक्षमार्ग तथा बाद में व्यवहार का सदभाव मानता है। जानता हुआ व्यवहार धर्म, शुभ प्रवृत्ति, शुभोपयोग व्यवहार के कथन को अवास्तविक मानता है. कहता रूप अणुव्रत महाव्रत रूप सराग चारित्र को सर्वथा हेय है कि यह कहा है, ऐसा है नहीं। विवक्षा को नहीं मानता है, जिसने पाप क्रियाओं को अब तक छोड़ा समझता। शद्धोपयोग के गीत गाता हआ अशुभ नहीं है, जिसे गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि विषयक परिणामों से नरकादि कगति का पात्र होता है । इसप्रकार करणानुयोग का ज्ञान नहीं है, जो शुभ को सर्वथा बन्ध निश्चयाभासी स्वयं तो अपनी हानि करता ही है. साथ का कारण मानता है तथा चारित्र एव चारित्रधारी मुनि, ही समाज को भी पाप पंक में डबो देता है। आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओं की उपेक्षा करता है,
व्यवहारैकान्त - जिसको निश्चय नय के द्वारा जीव को सर्वथा कर्म का अकर्ता मानता है, वह
वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं है, मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड निश्चयाभासी है। उसका निश्चय आभासमात्र है, वह
को धारण करता है, देखादेखी और भाव के बिना निश्चयैकान्ती है।
अर्थात् बिना निर्धारण के तप संयम अंगीकार करता है, जीव को शुद्ध निश्चय नय से कर्म का अकर्ता जिसको अपनी भाव-परिणति बिगड़ती रहने का भय कहा गया है एवं शुभ भाव को भी हेय कहा गया है। नहीं है. अन्तरंग में कषाय की तीव्रता है. जो कषाय
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/21
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
को शान्त करने के लिए ज्ञान की उपयोगिता की उपेक्षा में कर्म सामान्य अपेक्षा समानता होने पर भी बड़ा करता है, जो बिना मोक्ष लक्ष्य के देवपूजा आदि अन्तर है। षट्कर्म तथा बाह्य तपश्चरण आदि को ही साक्षात्
आचार्य कुन्दकुन्द बारसाणुवेक्खा में कहते हैंमोक्षमार्ग रूप सर्वस्व समझकर अपने को धर्मात्मा
वर वय तवेहि संग्गो मा दुक्खं णिरइ इयरेहिं । मानता है, चारित्र की विशुद्धि में कारण दर्शन-ज्ञान की
छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेदं ।। ओर जिसका लक्ष्य नहीं है, जिसके मोक्षमार्ग में
आचार्य पूज्यपाद स्वामी समाधिशतक श्लोक प्रयोजनभूत सात तत्त्वों को जानने का विचार नहीं है,
८४ में कहते हैं - वह व्यवहाराभासी है। यद्यपि ऐसे मनुष्य से समाज को हानि नहीं है, वह व्यवहाराभासी है। तथा पुण्य कार्यों
अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः। के सम्पादन से लाभ भी है, तथापि व्यवहारभासी मोक्ष
त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पद्मात्मनः।। का पात्र नहीं है।
यहाँ बताया है कि मोक्षार्थी को पाप को छोड़कर उभयाभास - जो व्यवहार और निश्चय दोनों व्रतो (पुण्य) को आदर पूर्वक निष्ठापूर्वक ग्रहण करना को अलग-अलग मोक्षमार्ग मानता है. वह उभयाभासी चाहिए। परम पद मिलने पर व्रत भी अपने आप छट है। व्यवहार और निश्चय ये दोनों प्रमाण के अंश हैं। जाते हैं। उस स्थिति में संकल्प-विकल्प का अभाव इनका लक्ष्य एक ही पदार्थ होता है, किन्तु उभयाभासी है, अत: त्याग और ग्रहण के लिए भी अवकाश नहीं दोनों को स्वतन्त्र रूप से मानकर दो मोक्षमार्ग मानता है। फिर निश्चय व्रत तो कभी नहीं छूटते। है। ऐसा उभयाभासी सच्ची प्रतीति से अनभिज्ञ है। उपरोक्त प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार पूर्वक उपरोक्त प्रकार नयों के दुरुपयोग देखने में आता
निश्चय को मानता है। कुछ लोग कहते हैं कि पहले है। समीचीन दृष्टि से देखने वाला व्यक्ति व्यवहार को
निश्चय होता है, बाद में व्यवहार । सो निश्चय का अर्थ साधन और निश्चय को साध्य मानता है। वह जानता
उद्देश्य या इरादे को ध्यान में रखकर ऐसा कथन करते है कि मोक्षमार्ग एक है, उसके दो पहलू हैं। वे परस्पर
हैं। यहाँ विचारणीय यह है कि ऐसा इरादा, प्रतीति सो विरुद्ध लगने पर भी अविरोधी हैं। समयसार के १५वें
व्यवहार ही है। निश्चय की प्राप्ति होने के बाद व्यवहार कलश में कहा भी है -
की क्या आवश्यकता है ? एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमीप्सुभिः।
इस विषय में पं. टोडरमलजी का पुरुषार्थसिद्धि साध्यसाधकभावेन द्विधैकं समुपास्यताम् ।।
उपाय में समागत यह छन्द विशेष उपयोगी है - जो सिद्धि के इच्छुक हैं उन्हें साध्य-साधन भाव
कोऊ नय निश्चय सों आतमा को शुद्ध मानि, से दो रूपों को धारण करने वाले किन्तु वस्तु रूप से
___भये हैं सुछंद न पिछानै निज सुद्धता। एक आत्मा की सम्यक् उपासना करना चाहिए। मुमुक्षु
कोऊ व्यवहार जप-तप-दान-शील को ही, को न निश्चय का पक्ष है, न व्यवहार का । वह बाह्य
आतम को हित जानि छांड़त न मुद्धता ।। धर्मसाधन करते हुए अन्तरंग भाव विशुद्धि पर ध्यान
कोऊ व्यवहार नय निश्चय के मारग को, रखता है तथा क्रम को स्वीकार कर पहले पाप को
भिन्न-भिन्न पहचान करें निज उद्धता। छोड़कर पुण्य का निष्ठावान होकर आचरण करता है।
जब जानें निश्चय के भेद व्यवहार सब, पश्चात् जब शुद्धोपयोग में स्थित हो जाता है तो ऐसी
कारण है उपचार मानें तब बुद्धता ।। परम मुनिदशा में पुण्य भी अपने आप छूट जाता है, किन्तु पुण्य के विषय में ऐसा नहीं है। पाप और पुण्य
- श्याम भवन, बजाना देवी रोड, मैनपुरी (उ.प्र.)
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/22
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तरात्मा की अन्तर्मुखता और उसका उद्भव
D पण्डित ज्ञानचन्द बिल्टीवाला
अपना सुख गुण जिसका परिणमन/वर्तन निरन्तर हमारे चेतन-अवचेतन स्तरों पर हुआ जा रहा है। चेतन स्तर पर हमारी धारणाओं, अभ्यासों के अनुरूप सुख-दुःख रूप अनुभव का, संवेदन का विषय बनता है। अवचेतन स्तर पर तो उसकी सुखरूप ही गंगा निरन्तर बहे जा रही है, पर बहिर्मुखी होने से बहिरात्मा उसका वेदन नहीं कर पाता, निकट प्रकट अपनी अमृत गंगा में निमज्जन से, उसके शीतल स्पर्श से, रोग-शोकहारी उसके आस्वाद से वंचित बना रहता है। सुख की प्यास वह छोड़ नहीं सकता, उसका चाहे स्वच्छ, निर्मल रूप में पान करे अथवा थोथा, मलिन, कुरूप रूप में उसे पिये, उसे पीना ही पड़ेगा। ऐसे ही उसके ज्ञान, वीर्य, अजरता - अमरता आदि गुणों की कथा है। स्वभाव रूप या विकृत रूप, पूरे विशाल रूप में या बौने, विपरीत आदि विभाव रूप में वे उसके अनुभव / संवेदन के विषय बनेंगे ही, एक क्षण को भी वह उनसे रिक्त नहीं हो सकता। अज्ञान ज्ञान का विपरीत रूप है और छद्यस्थता उसका बौना रूप । दुर्बलता उसके आकाश प्रमाण लोहे के गोले को उठाने की सामर्थ्य से भी अनन्त गुणी सामर्थ्य रूप उसके वीर्य गुण का तुच्छ, बौना रूप है और उसके सभी दुःखों का मूल है। वीर्य बाह्य के आक्रमण रूप तथा न गुण की महानता न देह के रोग आदि रूप तिरस्कार सहन करती, उसके तेज के आगे सभी उपसर्ग, परीषह निस्तेज हो जाते हैं। वीर्य गुण महान हो और ज्ञान एवं श्रद्धा सम्यक् हुई हो अर्थात् संसार की चतुर्गति रूप कैद से मुक्त हो शाश्वत शान्ति - सुख भोगने की ललक व्यक्ति में परिणमन /
बाह्य पदार्थों से न दु:ख आता है न सुख । दोनों वर्तन करने लगी हो, तो वीर्य गुण को संपूर्ण गुणों पर के वे आलम्बन ही होते हैं, उनके आलम्बन से हमारा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/23
जीव/ आत्मा तीन प्रकार के होते हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा बहिर्मुखी / पराश्रयी होता है, अन्तरात्मा अन्तर्मुखी / स्वाश्रयी होता है तथा परमात्मा निर्विकल्प होता है।
संसार दशा में जीव पर अष्ट कर्मों की कालिख उसके प्रदेश-प्रदेश पर पुती हुई है। कालिख पोतने वाला अन्य कोई नहीं, वह स्वयं है और ऐसा कर वह अपने परमात्मस्वरूप को आवृत्त कर स्वयं को बौना, तुच्छ, विकारग्रस्त बना वैसा ही अनुभव किये जा रहा है। इन्द्रिय द्वारों से जैसा स्वयं को व अन्यों को देखता है, वैसा ही स्वयं को व अन्यों को मानता है, अनुभव करता है और कर्मोदय की वैतरणी में गथपथ करता रहता है। इस वैतरणी के भूख, प्यास, रोग आदि के सापों एवं क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि के मगरमच्छों के दंशों से पीड़ित हो कराहता है। तथा कभी इस वैतरणी के कोमल त्वचा वाली मछलियों के स्पर्श होते हैं और खुशनुमा कागजी फूलों की नकली सुगन्ध इसके नासिका द्वारों से ग्रहण होती है तो खुश हो लेता है और चाहता है कि यह स्पर्श और गन्ध उसे मिलते रहें। इस हेतु भारी दौड़ भाग करता है। उसे पता नहीं कि न तो कराहट/ पीड़ा बाहर से आती है और न खुशी / सुख बाहर से आता है। दोनों ही उसके सुख गुण के दो रूप परिणमन हैं। एक बिल्कुल ही विपरीत, बहुत असुहावना तथा दूसरा है तो सुहावना पर है विपरीत मान्यता युक्त और इसलिए उसकी कर्म कालिख को बढ़ाने वाला एवं उसे दुःख में ही धकेलने वाला है।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
पड़ी बेड़ियाँ तोड़ने और भुज्यमान आयु की समाप्ति पर अन्तरास्मा का, अपने प्रति सही समझ और श्रद्धा से तन की कारा से प्रभु आत्मा को मुक्त करने में विलम्ब संपन्न उस सम्यग्दृष्टि का वीर्य वृद्धि को प्राप्त करता हुआ नहीं होता।
शीघ्र ही एक दिन उसे कीचड़ से पूरा बाहर निकाल देता वस्तु के गुणों में परस्पर गुण-गुणी संबंध होता है और वह कृतकृत्य परमात्मा बन जाता है। यदि अपने है। यदि ज्ञान में विपर्यय है तो फिर वीर्य. सख आदि प्रति सही समझ श्रद्धा हो जाने पर भी कर्म कीचड़ से गुण विपरीत दिशा में ही परिणमन करेंगे तथा विपरीत बाहर निकलने के अध्यवसाय में वह अपनी पूरी सामर्थ्य दिशा में परिणमन करते हए कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं नहीं झोंकता तो कर्म कीचड़ उसे और जकड़ लेता है. कर सकते, विपरीत दिशा में उनका वर्तन जहर रूप ही उसे अपनी सही समझ एवं श्रद्धा से हाथ धोना पड़ता होगा और वे चक्रवर्ती को चक्रवर्ती पद में मरण करने है और सूंड के अग्रभाग में भी और छोटापन आ वह पर नरक में ले जायेंगे। इसी प्रकार वीर्याल्पता से ग्रसित और बौना बन जाता है। व्यक्ति का ज्ञान सम्यक् होते भी आधा अधूरा रहेगा, अध्यवसायी अन्तरात्मा अन्यों के भी बाह्य में सर्वज्ञ नहीं बन सकेगा। यही तो कारण है कि आज इस कर्मोदय जनित रूप देख उन्हें उतना ही और वैसा ही पंचम काल में वीर्याल्पता (हीन संहनन) के कारण मानने का भ्रम नहीं करता/अपनी भाँति उसे उनके भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी साधुजन अप्रमत्त-विरत सातवें गुणस्थान अवचेतन स्तर पर पूरे ‘हाथी' रूप का अहसास हो से ऊपर आरोहण कर क्षपक श्रेणी क्या, उपशम श्रेणी जाता है। और, वह जानता है कि अन्यों के त्रिकाल भी नहीं चढ़ पाते, न ही कोष्ठ बुद्धि आदि ऋद्धियों के सत्य रूप को स्वीकार न कर उन्हें कर्मोदय जनित धारक हो पाते। दूसरी ओर, महान वीर्य के धारी जल तुच्छता से ग्रसित ही देख यदि वह उनका निरादर तथा में कमल की भाँति अलिप्त रह छह खण्ड के अधिपति शोषण करेगा तो उसमें स्वयं में भी कर्मोदय जनित भरत चक्रवर्ती पद छोड़ अन्तर्मुहुर्त में केवलज्ञानी तुच्छता एवं विपर्यास का विस्तार होगा। वे अपने परमात्मा बन जाते हैं।
यथार्थ स्वरूप को पहचाने, इस हेतु उनकी रुचि हो तो कर्म बादलों के आवरण के पीछे छिपे परे उन्हें उनके सत्य स्वरूप के बोध हेतु उन्हें उपदेश देता तेजस्वी आत्म सूर्य का बहिर्मुखी बहिरात्मा को ज्ञान- है, अन्यथा मौन रहता है, क्योंकि हर व्यक्ति अपना श्रद्धान नहीं होता। वह मिथ्यादृष्टि होता है। उसने अपने भाग्य विधाता स्वयं है अन्य नहीं, यह वह भले प्रकार अवचेतन स्तर पर निरन्तर वर्तन करते ज्ञान-सुख-वीर्य जानता है। हाँ, कोई रुचिपूर्वक अपने और जगत के आदि गुणों के महान ज्ञानाकाश में, महान सुख के समुद्र पदार्थों के सत्य स्वरूप का परिचय प्राप्त करना चाहे में झोंककर अपनी महिमा को पहचाना नहीं है, स्वीकार
और वह न बताये, तो उसके श्रद्धा-ज्ञान पर आवरण नहीं किया है। पहचानने और स्वीकार कर लेने पर वह आयेंगे ही। केवलज्ञानी परमात्मा बनने पर तो यहाँअपने को मात्र पानी के बाहर निकले संड के अग्रभाग वहाँ विहार कर कल्याण की रुचिवाले, संसार के दु:खों जितना ही नहीं मानता। अब उसे अपने को कीचड में से भयभीत जनों को सही मार्ग दिखाने, मिथ्या मार्गों फँसा है तो भी, पुरा 'हाथी' होने में सन्देह नहीं होता। से विरत हो वे स्व-पर कल्याण साधने वाले बनें इस उसका अज्ञान जनित विपर्यास मिटा है, संदेह दूर हआ हेतु वीतराग होते ही अनिच्छ ही वचन योग कार्य करता है और यदि वह अपने को कीचड से बाहर, सालम्ब है और सदेही परमात्मा द्वारा जगज्जनों का कल्याण निरालम्ब जैसे भी बने, निकालने का अध्यवसाय/ होता है। यदि सदेही परमात्मा के उपकार की यह वर्षा पुरुषार्थ करता है, तो फिर अपने वीर्य /बल के अनुसार न हो तो आत्म-कल्याण की दिशा का, छद्मस्थ रहते वह जितना निकाल सके, निकाल लेता है और उस छद्मस्थों के सहारे मात्र से, प्राप्त होना असंभव है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/24
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐसा क्यों? क्या छद्मस्थ प्रणीत धर्मों में 'जैसा करो वैसा भरो' का केवली प्रणीत उपदेश उनके ही अपने बल पर नहीं समझ लिया गया है ? नहीं। उन्होंने करणी का फल देने वाले के रूप में ईश्वर को किसी न किसी रूप में स्वीकार कर उसकी भक्ति द्वारा अनिष्ट से बचने और इष्ट फल को प्राप्त करने का मानव में विश्वास पैदा किया है। जबकि इस प्रकार का कोई नियन्ता, विधाता प्रत्यक्ष या अनुमान किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता । तथा, केवली गम्य कर्मबन्ध और उदय के रूप में वह सत्य सत्यरूप से समझ में आ जाता है एवं अनिष्ट के परिहार तथा इष्ट की प्राप्ति हेतु अन्य किसी शक्ति विशेष के आगे गिड़गिड़ाये बिना अपने भाव जगत में सुधारकर उनके संक्रमण, निर्जरा, उपशमन आदि द्वारों के ज्ञात हो जाने से स्वालम्बन की / व्यक्ति स्वातन्त्र्य की प्रेरणा मिलती है, पराश्रय की दुर्बलता एवं पराधीनता का भी मोहताज नहीं रहता, पुण्योदय ही उसकी छाया बन चारों ओर अनुकूलता उत्पन्न करता है, उसका जयनाद गुँजाता है।
पुनः, क्या आज मनोविज्ञानी, परामनोविज्ञानी ने अपने ही छद्मस्थ ज्ञान के बल से अवचेतन स्तर पर छिपी ज्ञान, बल आदि की गहराईयों को खोज नहीं लिया है, क्या उन्होंने यह नहीं जान लिया है कि चेतन स्तर पर 'पहाड़' की चोटी हमें दिख रही है, पर पहाड़' उतना ही नहीं है, पानी के नीचे पूरा 'पहाड़' है? इतना तो जान लिया है, पर फिर भी वे बहिर्मुखी बहिरात्मा ही बने हुए हैं। चेतन-अवचेतन स्तर का द्वैत मिटकर निर्विकल्प अद्वैत, परमात्म दशा का उनका लक्ष्य न बना होने से, द्वैतरूप भयानक संसार दशा से बाहर निकल उत्तम सुख रूप मुक्त परमात्म दशा को प्राप्त करने की लगन / ललक बिना वे अन्तरात्मा नहीं कहे जा सकते, उन्हें सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं है वे मिथ्यादृष्टि ही हैं। हाँ, वे अन्तरात्मा रूप को प्राप्त करने के निकट अवश्य हो गये हैं, यदि उन्हें केवली के बताये कर्मावरण से घिरे परमात्म सूर्य का परिचय / बोध प्राप्त हो जाये ।
आज भौतिकी के क्षेत्र में मोबाइल, इन्टरनेट और कम्प्यूटर की शोध खोज ने, निर्माण ने क्या हमारे मूल स्वरूप को खोज निकाला है, हमारे परमात्म स्वरूप की झलक दिखायी है? नहीं। उसके यंत्रों द्वारा जीवात्मा के देहान्तर गमन के प्रमाणित हो जाने पर भी, नहीं। मोबाईल, कम्प्यूटर आदि में सूचना बाहर से भरी जाती है । अतः या तो नैयायिकों की भाँति देह रहित जीवात्मा को भौतिक विज्ञानी जड़ मानेंगे और ज्ञान को मन, इन्द्रिय मात्र का कार्य अथवा सांख्य मत वालों की भाँति जीवात्मा को मात्र चेतन कहेंगे और पदार्थ ज्ञानको प्रकृतिका / जड़ जगत का कार्य बतायेंगे ।
अंग्रेज दार्शनिक लाँक ने बच्चे को खाली स्लेट (Tabula rasa) माना तथा कहा वह सब संस्कार बाहर से ग्रहण करता है। यूनानी दार्शनिक सुकरात ने बिना सिखाये बच्चे के स्तन पान के ज्ञान को पूर्वजन्म का संस्कार कहा । वह स्वयं अपने प्रश्नों के हल प्राप्त करने को अपने अन्तर में झाँका करता था और उत्तर प्राप्त कर संतुष्ट होता था, पर देह रहित रूप में जीवात्मा का क्या स्वरूप है, इसका उसे भी अहसास नहीं था। उस अहसास के होने, दृढ़ता से होने हेतु आवश्यक है परमात्म पद को प्राप्त हुए का आगम, उसका दिशा निर्देश । और तब, पूर्वी पश्चिमी दार्शनिकों के चिन्तन, मनोविज्ञान परामनोविज्ञान भौतिक विज्ञान आदि के शोध-खोज आधे-अधूरेपने के, विपर्यास के दोष से मुक्त हो मानव के चतुर्गति भ्रमण की दारुणता से मुक्ति में, स्व-पर कल्याण के ठोस धरातल पर स्थित होने में सहयोगी बन सकते हैं। ऐसा हो जाने पर, केवल पारलौकिक प्रकाश की प्राप्ति से ही मानव गद्गद् नहीं होगा, उसका लौकिक पक्ष भी सुहावना, सुन्दर हो जायेगा, जो केवलज्ञानी जनों द्वारा प्रदत्त पारलौकिक प्रकाश के अभाव में परस्पर धार्मिक विद्वेष एवं आरंभपरिग्रह के पिशाचों की गिरफ्त में नारकीय बन रहा है। D अजबघर के पीछे, किशनपोल बाजार, जयपुर ३ (राज.)
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/25
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
लघुतत्त्वस्फोट के परिप्रेक्ष्य में आ० अमृतचन्द्रसूरि के कृतित्व का वैशिष्ट्य
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत
अध्यात्म विद्या पारङ्गत आचार्यप्रवर श्री अमृतचन्द्रसूरि दिगम्बर परम्परा के उद्भट मनीषी थे। इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय की टीका लिखकर उनकी आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टियों का पल्लवन तथा सम्यक् व्याख्यान कर महती कीर्ति अर्जित की। साथ ही पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ, आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर तत्त्वार्थसार और जिनस्तवन रूप में लघुतत्त्वस्फोट लिखकर जैन वाङ्मय की समृद्धि में महान् योगदान दिया ।
लघुतत्त्वस्फोट की प्राप्ति भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव काल में हुई अतः इससे पूर्व अमृतचन्द्रसूरि के कृतित्व में इसका उल्लेख भी नहीं मिलता है। इसकी पाण्डुलिपि पण्डित श्री पन्नालाल साहित्याचार्य प्रभृति विद्वानों को उपलब्ध करायी गई, उन्होंने संशोधन और अनुवाद करके महनीय कार्य किया। इसके अनन्तर पण्डित श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला जयपुर द्वारा भी विशेषार्थ सहित व्याख्या लिखी गई। इन मनीषियों ने यह अद्भुत कृति स्वाध्यायियों के स्वाध्याय का विषय बनायी । यह इनकी महती कृपा है और जिनागम के प्रति विशेष भक्ति का निदर्शन है।
“लघुतत्त्वस्फोट” आचार्य अमृतचन्द्रसूरि की रचना है क्योंकि उन्होंने इसकी अन्तिम सन्धि में अमृतचन्द्रसूरि का उल्लेख किया है।' ग्रन्थ समाप्ति के अनन्तर श्लोक में “अमृतचन्द्र कवीन्द्र” पद का प्रयोग है।' आचार्य अमृतचन्द्र के साथ कवीन्द्र विशेषण पूर्ण सार्थक है क्योंकि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक और दार्शनिक शैली में समयसार कलश और लघुतत्त्वस्फोट जैसी बेजोड काव्यकृतियों का सृजन किया है। इनमें इनका कवीन्द्रत्व स्पष्ट दिखता है। स्तुति काव्यों में लघुतत्त्वस्फोट से श्रेष्ठ रचना देखने को नहीं मिलती है। यद्यपि वाग्मी आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित स्तोत्र काव्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तथापि अध्यात्म और सिद्धान्त से परिपूर्ण यह स्तुति काव्य अतुलनीय है। इसका प्रत्येक पद्य काव्य के समस्त गुणों से समलंकृत है। इसकी भाषा प्रौढ है। शैली गम्भीर है । छन्द, अलंकार, रस, गुण, रीति आदि जो काव्य के विशिष्ट तत्त्व होते हैं वे सभी इसमें विद्यमान हैं । समयसार कलश के समान ही रचना है अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह रचना अमृतचन्द्रसूरि की है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि कृत ग्रन्थत्रय ( समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय) की टीकाएँ अपने आप में परिपूर्ण हैं और पुरुषार्थसिद्धयुपाय, तत्त्वार्थसार, अमृतकलश लोकोत्तर रचनाएँ हैं, फिर भी लघुता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा है कि नाना प्रकार के वर्णों से पद बन गये, पदों से वाक्य बन गये और वाक्यों से यह ग्रन्थ बन गये - इनमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। इस शक्तिमणित कोश नामक लघुतत्त्वस्फोट में कहीं भी कर्तृत्व का अहंकार नहीं झलकता है। प्रत्येक स्तुति के बाद स्वयं को जिनत्व के प्रति समर्पण के साथ आत्मोपलब्धि की कामना की गई है। सर्वत्र सर्वज्ञ रूप की रचना की है।
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/26
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
नितान्तमिद्धेन तपो विशेषितं तथा प्रभो मां ज्वलयस्व तेजसा। यथैव मां त्वां सकलं चराचरं प्रधयं विश्वं ज्वलयन् ज्वलाम्यहम् ।।२५॥५
हे प्रभो ! मुझे तेज के द्वारा इस प्रकार प्रज्वलित करो जिसप्रकार मैं अपने आपको और समस्त चराचर विश्व को प्रज्वलित करता हुआ सब ओर से प्रज्वलित होने लगूं।
विनयभाव और सरलता तो आचार्य अमृतचन्द्र के रोम-रोम में भरी हुई थी यही कारण है छठवीं स्तुति के अन्त में शुद्धचैतन्यत्व की प्राप्ति न होने में स्वयं की जड़ता/अज्ञानता को ही कारण मानते हुए कहते हैं -
प्रसह्य मां भावनयाऽनया भवान् विशन्नयः पिण्डमिवाग्निरुत्कटः। करोति नाद्यापि यदेकचिन्मयं गुणो निजोऽयं जडिमा ममैव सः।।२५।।६
हे भगवन् ! लोहपिण्ड के भीतर प्रवेश करने वाली प्रचण्ड अग्नि के समान आप इस भावना के द्वारा हठात्/बलपूर्वक मेरे भीतर प्रविष्ट होते हुए मुझे आज भी जो एक चैतन्य रूप नहीं कर रहे हैं यह मेरा ही वह निजी जड़ता/अज्ञानता रूप गुण है। .
इसीप्रकार प्रत्येक स्तुति के अन्त में सर्वज्ञत्व की भावना की है, अन्तिम स्तुति के अन्त में कामना करते हुए लिखते हैं -
ज्ञानाग्नौ पुटपाक एष घटतामत्यन्तमन्तर्बहिः , प्रारब्धोद्धतसंयमस्य सततं विष्वक् प्रदीपस्य मे। येनाशेषकषायकिट्टगलनस्पष्टी भवद् वैभवाः, सम्यक् भान्त्यनुभूतिवर्त्य पतिताः सर्वाः स्वाभावाश्रियः ।।
उत्कृष्ट संयम के पालक मेरी ज्ञानरूपी अग्नि में यह पुटपाक घटित हो, जिससे समस्त कषायरूपी अन्तरंग मल के गलने से जिनका वैभव स्पष्ट हो रहा है - ऐसी समस्त स्वभाव रूप लक्ष्मियाँ अनुभूति के मार्ग में पड़कर सम्यक् रूप से सुशोभित हो।
इस स्तुति काव्य में विशेषरूप से अध्यात्म विषयक चर्चा है। इसमें कारण-कार्य संबंध, निश्चय-व्यवहार, क्रम-अक्रमवर्ती पर्याय, द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य व्यवस्था, शुद्धात्मानुभूति, स्याद्वाद-अनेकान्त आदि सभी सैद्धान्तिक विषयों की मीमांसा संक्षिप्त में सारगर्भित रूप से की गई है। स्तुतियाँ दार्शनिक विवेचन से ओतप्रोत होते हुए भी आध्यात्मिक हैं। समन्तभद्र स्वामी की स्तुतियों में दार्शनिकता विद्यमान है। आचार्य अमृतचन्द्र कृत इस स्तुति में आध्यात्मिकता का वैभव है।
इस काव्य की प्रथम स्तुति में चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना की गई है। चौबीस तीर्थंकरों का नाम स्मरणपूर्वक अभेदत्व की चर्चा कर अन्त में लिखते हैं -
ये भावयन्त्यविकलार्थवती जिनानां, नामावलीममृतचन्द्रचिदेकपीताम्। विश्वं पिबन्ति सकलं किल लीलमैव, पीयन्त एव न कदाचन ते परेण ॥७/२५ ।। लघुतत्त्वस्फोट
जो भव्यजीव अमृतचन्द्रसूरि के ज्ञान के द्वारा गृहीत परिपूर्ण अर्थ से युक्त ऋषभादि तीर्थंकरों की नामावली रूप इस स्तुति का चिन्तन करते हैं, वे निश्चय से अनायास ही समस्त विश्व का ग्रहण करते हैं - सर्वज्ञ हो
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/27
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाते हैं और वे किसी भी समय कर्म - नोकर्मरूप परद्रव्य के द्वारा नहीं ग्रहण किये जाते हैं अर्थात् कर्मबन्ध से छूट जाते हैं।
इसमें अध्यात्म की वर्षा हो रही है । व्याजस्तुति स्तुत्य है । द्वितीय स्तुति से पच्चीसवीं स्तुति पर्यन्त सामान्यरूप से स्तुतियाँ की गई हैं, किसी विशेष नाम की विवक्षा नहीं रखी गई और प्रत्येक स्तुति किसी विशेष सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए जिनेन्द्र स्तवन रूप में की गई है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि कवि ही नहीं कवीन्द्र थे, अतः भावानुकूल पदों के चयन में उन्हें कठिनाई प्रतीत नहीं होती । उनकी वाग्धारा गङ्गा के प्रवाह के समान अखण्डगति से प्रवाहित हुई है। प्रथम पच्चीसिका में वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है।
यद्भाति भाति तदिहाथ च (न) भात्यभाति । नाभाति भाति स च भाति न यो नभाति ॥ भाभाति भात्यपि च भाति न भात्यभाति । सा चाभिनन्दन विभान्त्यभिनन्दति त्वाम ॥ ४ / १ ||
जो ज्ञान ज्ञानगुण से तन्मय रहने के कारण दैदीप्यमान होने वाले इस आत्मा में सुशोभित रहता है और ज्ञानगुण से अतन्मय होने के कारण दैदीप्यमान न रहने वाले अन्य पदार्थ में सुशोभित नहीं होता । इसीप्रकार जो ज्ञायक अतिशय सुशोभित रहने वाले आत्मा में सुशोभित रहता है। और सुशोभित न रहने वाले अन्य पदार्थ में सुशोभित नहीं होता । इसीप्रकार जो ज्ञानरूप दीप्ति दैदीप्यमान आत्मा में अत्यन्त सुशोभित होता है और अदैदीप्यमान ज्ञान से रहित अन्य पदार्थ में सुशोभित नहीं होता। हे अभिनन्दन जिनेन्द्र ! विशिष्टरूप से सुशोभित होनेवाली वह ज्ञानदीप्ति आपका अभिनन्दन करती है ।
यहाँ ज्ञानगुण, ज्ञायकस्वभाव और ज्ञप्तिक्रिया - इन तीन विशेषताओं का अस्ति और नास्ति पक्ष से एक आत्मा में समावेश करते हुए अभिनन्दन जिनेन्द्र की स्तुति की है ।
आत्मा के दर्शन - ज्ञान गुण शाश्वत हैं इनमें दर्शन निर्विकल्प घटपटादि के विकल्प से रहित और ज्ञान सविकल्प घटपटादि के विकल्प से सहित माना गया है। ज्ञान और दर्शन क्षायोपशमिक और क्षायिक के भेद से दो रूप होता है। क्षायोपशमिक दशा में दर्शन और ज्ञान क्रमवर्ती होने से पूर्ण निर्मल नहीं होते हैं किन्तु क्षायिक दर्शन और ज्ञान केवलदर्शन और केवलज्ञान अक्रमवर्ती होने से पूर्ण विशद हैं। इसी सिद्धान्त को स्तुति करते हुए उपस्थित किया है - हे जिनेन्द्र ! जो मनुष्य विकल्प रहित और विकल्प सहित निर्मल दर्शन और ज्ञान रूप आपके इस तेज की श्रद्धा करते हैं, वे समस्त लोक अलोक रूप विश्व का स्पर्श करते हुए समस्त विश्व से पृथक् परमात्म अवस्था को प्राप्त अनाद्यनन्त शुद्ध आत्मा को प्राप्त होते हैं । ४
ग्याहरवीं स्तुति में आत्मा के दर्शन ज्ञान गुण का वैशिष्ट्य बतलाते हुए जिनेन्द्र स्तवन है । स्तुतिकार आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि हे भगवन् ! मिथ्यात्वरूपी रात्रि को नष्ट करने की सामर्थ्य आप में ही है। जिनेन्द्र भगवान का उपदेश यही है मिथ्यात्वदशा में अज्ञानवश बाँधे हुए अशुभ कर्मों की अनुभागशक्ति, सम्यक्त्व के होते ही क्षीण हो जाती है, शुभ कर्मों की अनुभाग शक्ति बढ़ जाती है और सत्ता स्थित कर्मों की निर्जरा होने लगती है ।
एक साथ ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग प्रकट होने पर अनन्त बल तो प्रकट होना ही है साथ में पूर्ण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/28
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
सुख सम्पन्नता होती है। केवली भगवान के ज्ञानावरण और दर्शनावरण का सर्वथा उच्छेद होने से एक साथ उभयोपयोग की प्रकटता है, अतः पूर्ण सुखी हैं जैसा कि ग्याहरवीं स्तुति में लिखा है -
अखण्डदर्शनज्ञान प्राग्लभ्यग्लापिताऽखिलः। अनाकुलः सदा तिष्ठेन्नेकान्तेन सुखी भवेत् ॥१२॥११ लघुतत्त्वस्फोट
पूर्ण दर्शन और ज्ञान की सामर्थ्य से जिन्होंने सबको गृहीत कर दिया है, एक साथ समस्त पदार्थों को जान लिया है इसलिए जो निरन्तर आकुलता से रहित स्थित हैं ऐसे आप नियम से सुख सम्पन्न हैं।
जैन सिद्धान्तों की मीमांसा आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी सहजरूप से करते हुए बढ़ते हैं इसीलिए वे ज्ञानधारा की क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती परिणति का व्याख्यान सरल शब्दों में करते हुए कहते हैं -
अक्रमात्क्रममाक्रम्य कर्षन्त्यपि परात्मनोः। अनन्ता बोधधारेयं क्रमेण तव कृष्यते ।।१२ ।।७ लघुतत्त्वस्फोट
हे भगवन् ! आपकी स्व-पर विषयक यह अनन्त ज्ञानधारा क्रम को उल्लंघन कर अक्रम से खींचती हुई भी क्रम से खींची जा रही है अर्थात् निज-पर को जानने वाली ज्ञान की धारा छद्मस्थ अवस्था में पदार्थों को क्रम से जानती है, किन्तु सर्वज्ञदशा में वह क्रम को छोड़कर अक्रम - एकसाथ जानने लगी है। इसप्रकार वह स्वभाव की अपेक्षा अक्रमवर्ती है तथापि ज्ञेयों की अपेक्षा क्रमवर्ती है।
आत्मा अनेक भवों में पृथक्-पृथक् शरीर धारण करती है, उन पर्यायों की विवक्षा से अनेकरूप है उन पर्यायों में जो ज्ञानादिक गुण साथ-साथ रहे हैं, उन गुणों की अपेक्षा एकरूप है। पर्यायों की अपेक्षा अनेक और गुणों की अपेक्षा एकत्व के निरूपण के साथ क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती विवों (परिणतियों) से सुरक्षित चैतन्यमात्र ही आपका स्वरूप है, ऐसा नहीं समझने वाले अज्ञानीजन इस संसार में व्यर्थ ही दोनों पक्षों के अत्यधिक आग्रह के प्रसार से भ्रमण करते रहते हैं। यह जानकर इस समय हृदय विदीर्ण सा हो रहा है। यहाँ पण्डित ज्ञानचन्द्र जैन जयपुर ने टिप्पणी दी है – “आत्मा क्रमवर्ती पर्यायों की अनित्यता तथा अक्रमवर्ती गुणों की नित्यता वाला है दोनों में किसी का भी विशेष आग्रह व्यक्ति की दुर्गति का कारण होता है।” यह टिप्पणी विचारणीय है। यहाँ पर्यायों की क्रमवर्तिता और अक्रमवर्तिता न मानना ही चिन्तनीय है।
चैतन्यस्वभाव की महिमा का व्याख्यान लघुतत्त्वस्फोट में विशेष रूप से किया गया है। चैतन्यस्वभाव की प्राप्ति विशिष्ट पुण्यशाली को ही होती है। निकटभव्य चैतन्यस्वभाव की आकांक्षा रखने वाला प्राणी वीतराग सर्वज्ञ की सच्ची श्रद्धा करने वाला होता है और वही स्वानुभव से परिपूर्ण होता है
त्वमेक एवैक रसस्वभाव: सुनिर्भरः स्वानुभवेन कामम्।
अखण्डचित्पिण्ड विपिण्डित श्री विगाहसे सैन्धवखिल्यलीलाम् ॥१३॥९ लघुतत्त्वस्फोट - जो एक ज्ञायक स्वभाव से सहित है, जो स्वानुभव से यथेच्छ परिपूर्ण है और जिनकी आभ्यन्तर लक्ष्मी अखण्ड चैतन्य के पिण्ड के सहित है - ऐसे एक आप ही नमक की डली की लीला को प्राप्त हो रहे हैं।
यहाँ आचार्य श्री ने शुद्धात्मा अरिहन्त भगवान के स्तवन के द्वारा शुद्धस्वरूप का प्रतिपादन किया है। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश ज्ञायक स्वभाव से परिपूर्ण होता है तभी पूर्ण रूप से शुद्धात्मा का अनुभव संभव है। जहाँ रागभाव है वहाँ शुद्धात्मा का अनुभव असंभव है। यहाँ से यह तात्पर्य ग्रहण किया जा सकता है कि गृहस्थ को या प्रमत्तदशा युक्त साधक को शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता है क्योंकि अनुभव आंशिक नहीं अपितु पूर्ण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/29
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वभाव का कहा गया है अर्थात् जिसप्रकार नमक की डली का एक-एक कण क्षार रस से व्याप्त है, उसीप्रकार शुद्धात्मा का एक-एक प्रदेश ज्ञायक स्वभाव से परिपूर्ण है। जब क्षायोपशमिक ज्ञान-चारित्र मोहजनित राग से सहित होता है, तब वह नाना ज्ञेयों में संलग्न रहता है किन्तु जब वह राग से रहित हो जाता है तब स्वरूप में स्थिर होता है।
राग से रहित पूर्ण वीतरागदशा को प्राप्त क्षायिकज्ञानी ही यथेच्छ स्वानुभव से परिपूर्ण हैं, उनकी स्तुति में जैसा आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रतिपादित किया है -
विशुद्धचित्पूरपरिप्लुतस्त्वमार्द एव स्वरसेन भासि। प्रालेयपिण्डः परितो विभाति सदाई एवाद्रवता युतोऽपि॥१४॥९ लघुतत्त्वस्फोट
विशुद्ध चैतन्य के पूर में सब ओर से डूबे हुए आप आत्मरस से अत्यन्त आर्द्र ही सुशोभित हो रहे हैं, क्योंकि बर्फ का पिण्ड घनरूपता से युक्त होने पर भी सर्वदा सब ओर से आर्द्र ही प्रतीत होता है अर्थात् जिसप्रकार बर्फ का पिण्ड यद्यपि द्रवता-तरलता से युक्त ही रहता है, उसमें से पानी झरता हुआ मालूम होता है, उसीप्रकार विशुद्ध चैतन्य के पूर से प्लावित रहने वाले शुद्धात्मा के अनुभावक एक मात्र ज्ञायकस्वभाव से परिपूर्ण होते हैं।
अरिहन्त या क्षायिकज्ञान के धारक आत्मा पारदर्शी होते हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो वे स्वानुभव से रहित होते तथा चैतन्यरूप वस्तु की महिमा में इच्छा को नहीं छोड़ते अर्थात् इच्छारहित आत्मदर्शी को स्वानुभवकर्ता स्वीकार किया गया है। इसी परम्परा का आश्रय लेकर कहा गया है -
अखण्डितः स्वानुभवस्तवायं समग्रपिण्डीकृत बोधसारः। ददाति नैवान्तरमुद्धतायाः समन्ततो ज्ञानपरम्पराया:॥१०/१०॥ लघुतत्त्वस्फोट
हे भगवन् ! जिसमें ज्ञान का सार सम्पूर्णरूप से एकत्र समाविष्ट किया गया है, ऐसा यह आपका कभी न खण्डित होने वाला स्वानुभव सब ओर से बहुत भारी ज्ञान की परम्परा को अवकाश नहीं देता है। इसका भाव यह है कि ज्ञान का फल स्वानुभूति है। जब स्वानुभव होता है तब विकल्पात्मक ज्ञान की परम्परा स्वयं समाप्त हो जाती है। स्वानुभव काल में ज्ञान और ज्ञेय का विकल्प समाप्त हो जाता है।
___ इस कथन से स्पष्ट है कि छद्मस्थ को शुद्धात्मा का पूर्ण अनुभव करना शक्य नहीं है। इस काल में छद्मस्थावस्था के धारक ही हैं। अत: मिथ्या प्रलाप न तो करना चाहिए और न सुनना चाहिए कि अविरत सम्यग्दृष्टि, शुद्धात्मा का पूर्ण अनुभव कर सकता है और इस पंचमकाल में भी उसके अनुभव करने वाले हैं, जो पूज्य/आराध्य हैं। पंचमकाल का कोई भी व्यक्ति ज्ञान और ज्ञेय के विकल्प से दूर नहीं रह सकता। अतः वास्तविक रूप से क्षायिकज्ञानी को ही पूर्णज्ञानी और निरन्तर स्वानुभूति कर्ता मानना चाहिए। इसीलिए नवीं स्तुति में कहा गया है -
निषीदस्ते स्वमहिम्न्यनन्ते निरन्तर प्रस्फुरितानुभूतिः। स्फुट: सदोदेत्ययमेक एव विश्रान्त विश्वोभिभरः स्वभावः॥१७॥१० लघुतत्त्वस्फोट
अन्तरहित स्वकीय आत्मा की महिमा में स्थित रहने वाले आपका यह एक ही स्वभाव सदा उदित रहता है, जो निरन्तर प्रकट हुई स्वानुभूति से सहित है, स्पष्ट है और जिसमें समस्त तरंगों का समूह ज्ञानसन्ततियाँ विकल्पों का जाल विश्रान्त हो जाता है, शान्त हो जाता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/30
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
विकल्प समाप्त होने पर जैसे ज्ञान-ज्ञेय का अभिन्नपना उत्पन्न होता है, उसीप्रकार दृष्टा और दृश्य का भी अभेद होता है। आत्मा ज्ञान अथवा दर्शन मात्र रूप से सुशोभित होता है जैसा कि स्तुतिकार ने भी कहा है -
स्वस्मै स्वतः स्वः स्वमिहैकभावं स्वस्मिन् स्वयं पश्यति सुप्रसन्नः।। अभिन्नदृग्दृश्यतया स्थितोऽस्मान्न कारकाणीश दृगेव भासि ।।९/९ ।। लघुतत्त्वस्फोट
हे भगवन् ! यहाँ अत्यन्त निर्मलता को प्राप्त हुए आप अपने आपमें, अपने आपके लिए, अपने आपसे, एक अपने आपको, अपने आपके द्वारा देख रहे हैं - निर्विकल्प रूप से जान रहे हैं। इसप्रकार हे नाथ ! आप दृष्टा और दृश्य के अभेद से स्थित हैं, इसलिए दृष्टि क्रिया के कारक नहीं है आप दर्शनरूप ही सुशोभित हो रहे हैं। शुद्धात्मा में क्रिया-कारक, काल और देश का विभाग नहीं पाया जाता है। चेतनद्रव्य से ही परिणमन करता है। भाव और भाववान् में अभेद भी होता है। गुण-गुणी में प्रदेश भेद न दिखलाकर स्तुति की है।
वस्तु का स्वभाव विधि और निषेधरूप है। स्वचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु विधिरूप होती है और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेधरूप होती है। ज्ञान में ज्ञेय है यह विधिपक्ष है और ज्ञान में ज्ञेय नहीं है यह निषेध पक्ष है। "ज्ञान में ज्ञेय का विकल्प आता है" इस अपेक्षा से विधि पक्ष की सिद्धि होती है और “ज्ञान में ज्ञेय के प्रदेश नहीं
आते हैं" इस अपेक्षा से निषेधपक्ष की सिद्धि होती है। जिसप्रकार दर्पण में पड़ा हुआ मयूर का प्रतिबिम्ब दर्पण से भिन्न नहीं है, उसीप्रकार ज्ञान में आया हुआ ज्ञेय का विकल्प ज्ञान से भिन्न नहीं है इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेय में अभेद है किन्तु दर्पण और मयूर का विचार करते हैं तब दर्पण भिन्न और मयूर भिन्न ज्ञात होता है, इसीप्रकार जब ज्ञान और उसमें आने वाले ज्ञेय पदार्थों का विचार किया जाता है तब ज्ञान और ज्ञेय पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं । हे भगवन् ! आपका ज्ञान अपनी अनन्त सामर्थ्य से समस्त पदार्थों को जानता है अर्थात् वे समस्त पदार्थ विकल्प की अपेक्षा आपके ज्ञान में आते हैं तो भी उनके साथ आपके ज्ञान अथवा गुण-गुणी की अभेद विवक्षा से आपमें संकरभाव प्राप्त नहीं होता। इसका यही तात्पर्य है कि आप पदार्थरूप नहीं होते और पदार्थ आप रूप नहीं होते। आप सदा स्व-पर के विभाग को धारण करते रहते हैं।
द्रव्य में एक-अनेक, नित्यानित्य की व्यवस्था को दर्शाने के लिए ही स्तुति के माध्यम से अपने आराध्य में एकत्व-अनेकत्व नित्यानित्यत्व दर्शाया गया है -
अनेकोऽपि प्रपद्य त्वामेकत्वं प्रतिपद्यते। एकोऽपि त्वमनेकत्वमनेकं प्राप्य गच्छति ।।१८।११
अर्थात् अनेक भी आपको प्राप्तकर एकपने को प्राप्त होता है और आप एक होकर भी अनेक को प्राप्त कर अनेकपने को प्राप्त हो रहे हैं।
यहाँ स्पष्ट है कि गुण और पर्याय संख्या की अपेक्षा अनेक हैं तथा एक द्रव्य में अवस्थित रहते हैं उसकी अपेक्षा एक है।
साक्षादनित्यमप्येघाति त्वां प्राप्य नित्यताम्। त्वं तु नित्योऽप्यनित्यत्वमनित्यं प्राप्य गाहसे ।।९ ॥११ लघुतत्त्वस्फोट
यह पर्याय रूप तत्त्व साक्षात् अनित्य होकर भी द्रव्य स्वरूप आपको प्राप्त कर नित्यपने को प्राप्त होता है और आप नित्य होकर भी अनित्यरूप पर्याय को प्राप्तकर अनित्यपने को प्राप्त होते हैं।
यह वास्तविक सिद्धान्त है कि द्रव्य पर्याय से तन्मय होकर रहता है, द्रव्य की त्रैकालिक शुद्धता इसी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/31
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
से बाधित होती हैं। जब पर्याय को गौणकर द्रव्य को प्रधान बनाया जाता है, तब अनित्यत्व तत्त्व नित्यत्व को प्राप्त होता है और जब द्रव्य को गौणकर पर्याय को प्रधानता दी जाती है, तब नित्य तत्त्व अनित्यत्व को प्राप्त होता है
1
प्रत्येक पदार्थ तीन रूप में सत् है । अर्थरूप, ज्ञानरूप और शब्दरूप । ज्ञान का विषय चराचर जगत् है किन्तु ज्ञान तदाधीन नहीं है। न ज्ञान ज्ञेय में जाता है और न ज्ञेय ज्ञान में आता है। दोनों स्वतंत्र हैं, फिर पदार्थ चिन्मय भासित होते हैं। इसीप्रकार शब्द सत्ता पुद्गल पर्यायरूप है। तथापि उन शब्दों की वाचक शक्ति आपके ज्ञान एक कोने में पड़ी रहती है। इसी प्रसंग में बाह्य पदार्थ का अपलाप करने वाले बौद्धों का निराकरण किया गया है।
जिनशासन स्याद्वादमुद्रा से प्रतिष्ठित होने के कारण एकपदार्थ में एक साथ रहने वाले विरोधी धर्मों की अवस्थिति को स्वीकार करता है। आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी इसका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
-
अवस्थितिः सा तव देव दृष्टेर्विरुद्धधर्मेष्वनवस्थितिर्या ।
स्खलन्ति यद्यत्र गिरः स्खलन्तु जातं हि तावन्महदन्तरालम् ॥ ८ ॥१९ लघुतत्त्वस्फोट
हे देव ! विरुद्ध धर्मों में जो एक के होकर नहीं रहना है, वह आपकी दृष्टि की स्थिरता है - आपके सिद्धान्त की स्थिरता है। यदि इस विषय में वचन स्खलित होते हैं तो स्खलित हों क्योंकि दोनों - आप तथा अन्य की दृष्टि में बहुत अन्तर -भेद सम्पूर्णरूप से सिद्ध हो गया ।
जिनेन्द्र भगवान द्वारा ही स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रणयन किया गया है जैसा कि आठवीं स्तुति में आचार्यवर्य ने लिखा भी है
-
गिरां बलाधान विधान हेतो: स्याद्वादमुद्रामसृजस्त्वमेव ।
तदङ्कितास्ते तदतत्स्वभावं वदन्ति वस्तु स्वयमस्खलन्तः ॥ २० ॥८ लघुतत्त्वस्फोट
हे भगवन् ! शब्दों में दृढ़ता स्थापित करने के लिए आपने ही स्याद्वाद मुद्रा को रचा है, इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया है। इसलिए उस स्याद्वादमुद्रा से चिन्हित वे शब्द स्खलित न होते हुए अपने आप वस्तु को तत्-अतत् स्वभाव से युक्त कहते हैं ।
संसार के पदार्थ विधि और निषेध दोनों रूपों से कहे जाते हैं अर्थात् स्वकीय चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति आदि विधिरूप हैं और परचतुष्टय की अपेक्षा निषेध आदि नास्तिरूप हैं। पदार्थ का कथन करने वाले शब्द अभिधा शक्ति के कारण नियंत्रित होने से दो विरोधी धर्मों में से एक को कहकर क्षीणशक्ति हो जाते हैं दूसरे धर्म को कहने की उनमें सामर्थ्य नहीं रहती। एक अंश के कहने से वस्तु का पूर्णस्वरूप कथन में नहीं आ पाता । इस स्थिति में हे भगवन् ! आपके अनुग्रह से स्याद्वाद का - कथञ्चित्वाद का आविर्भाव हुआ । उसके प्रबल समर्थन से शब्द दोनों स्वभावों से युक्त तत्त्वार्थ का व्याख्यान करने में समर्थ होते हैं । अर्थात् स्याद्वाद का समर्थन प्राप्त कर ही शब्द यह कहने में समर्थ होते हैं कि स्व की अपेक्षा से पदार्थ अस्तिरूप है । पर की अपेक्षा से नास्ति रूप है । '
स्याद्वाद और अनेकान्त आचार्य अमृतचन्द्र के प्रिय प्रतिपाद्य हैं, उन्होंने इस स्तुतिकाव्य में तो बाहुल्यरूप से इस जैनदर्शन के प्राणतत्त्व की मीमांसा की है और अपने द्वारा की हुई टीकाओं में अनेकान्त-स्याद्वाद को ही सर्वप्रथम नमन किया। स्मरण किया है । "
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/32
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपने को एक ही वस्तु प्रतिसमय माना गया है उसी को दर्शाते हुए स्तुतिकार ने कहा है - य एवास्तमुपैषि त्वं स एवोदीयसे स्वयम्। स एव ध्रुवतां धत्से य एवास्तमितोदितः ।।२०।११ लघुतत्त्वस्फोट
जो ही आप व्यय को प्राप्त होते हैं, वही आप स्वयं उत्पाद को प्राप्त होते हैं और जो ही आप व्यय होकर उत्पाद को प्राप्त होते हैं. वही ध्रुवपने को धारण करते हैं।
यहाँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यपने से द्रव्य को तन्मय बताया है। आचार्य समन्तभद्र ने घट का व्यय मौलि का उत्पाद और स्वर्ण के ध्रुवरूप सद्भाव के उदाहरण के माध्यम से एक ही वस्तु की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता सिद्ध की है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने द्रव्य के लक्षण को बताते हुए ‘उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत्' 'सत् द्रव्यलक्षणम्' कहा ही है।
स्तुति के द्वारा संयम और तप का भी माहात्म्य दिखलाया है - हे प्रभो ! निरन्तर ज्ञानरूपी रसायन का पान करते हुए और बहिरंग तथा अन्तरंग संयम का निर्दोष पालन करते हुए निश्चित ही मैं तुम्हारे समान हो जाऊँगा। इसीप्रकार नौवीं स्तुति में संयम और तप को लेकर स्तुति की है - हे भगवन् ! आपने परमार्थ के विचार के सार को अपनाया, निर्भय होकर एकाकी रहने की प्रतिज्ञा की, अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग किया और प्राणियों पर दया भाव किया। आपका पक्षपात रहित होते हुए भी समस्त प्राणियों में पक्षपात था। आतापन योग करते समय सूर्य की तीक्ष्ण किरणें आपके शरीर को जलाती थीं किन्तु आप कर्मफल के परिपाक की भावना में उन्हें अमृत के कणों के समान मानते थे। रात्रि में शवासन से स्थित रहते हुए शृंगालों ने आपके सूखे शरीर को अपने दाँतों से काटा। बुद्धिमान रोगी जैसे रोग को दूर करने के लिए उपवास करते हैं, वैसे ही आपने अनादि रोग को दूर करने के लिए एकमास, अर्द्धमास के उपवास किये । इसप्रकार सम्पूर्ण आत्मबल से संयम को धारण करके कषाय के क्षय से केवलज्ञानी हुए और मोक्षमार्ग का उपदेश दिया।
___ आचार्य अमृतचन्द ने ज्ञान के साथ संयम-तप आदि को आवश्यक माना है। समयसार में विशेषरूप से भेदविज्ञान का कथन होने से आचार्य अमृतचन्द्र ने संयम-तप पर जोर नहीं दिया। अतः कुछ स्वाध्यायियों ने तप-संयम को गौणकर व्याख्यान देना शुरु किये और आचार्य अमृतचन्द्र के विषय में भी कहना शुरु किया कि इन्होंने ज्ञान को ही बल दिया है। ज्ञान की मुख्यता में इन्हीं का उल्लेख किया गया। यह दोष एकांगी अध्ययन का फल होता है। किसी भी आचार्य का समग्र साहित्य पढ़कर ही उसके प्रमाण देना उचित होता है। स्तुतिकर्ता ने १९वीं स्तुति में कारण-कार्य सम्बन्ध को दर्शाते हुए अभेदनय की दृष्टि में कर्ता, कर्म और क्रिया तीनों एक ही पदार्थ हैं, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, इसलिए आराध्य में उनका भेद नहीं किया।
बौद्धाभिमत ज्ञानद्वैत का निराकरण कर जैनसम्मत ज्ञानाद्वैत का वर्णन भी विस्तार से किया है। बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डनकर जिनमत की स्थापना महत्वपूर्ण है ।१२
सामान्य विशेष की सम्यक् मीमांसा इस स्तुतिकाव्य में श्री अमृतचन्द्रसूरि के द्वारा की गई है - सामान्यस्योल्लसति महिमा किं बिनासौ विशेषै - नि: सामान्या स्वमिह किममी धीरयन्ते विशेषाः। एकद्रव्यग्लपितविततानन्त पर्याय पुञ्जो, दृक्संवित्तिस्फुरित सरसस्त्वं हि वस्तुत्वमेषि ।।६ ॥२२
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/33
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषों के बिना क्या सामान्य की महिमा उल्लसित होती है अर्थात् नहीं। इस लोक में सामान्य से रहित ये विशेष क्या अपने आपको धारण करते हैं ? अर्थात् नहीं। निश्चय से जिनके एक द्रव्य की विस्तृत अनन्त पर्यायों का समूह बीत चुका है अर्थात् जो नाना पर्यायों के द्वारा विशेष रूप हैं और जो दर्शन-ज्ञान के चमत्कार से सरस हैं अर्थात् दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा सामान्य रूप हैं - ऐसे आप वस्तुपने को प्राप्त होते हैं।
यहाँ नैयायिक वैशेषिकों के एकान्तमत का खण्डन हो गया और पदार्थ की सामान्य-विशेषात्मकता सिद्ध की गई है।
केवलज्ञान के माहात्म्य का अलौकिक वर्णन हृदय ग्राह्य बनाना आचार्य अमृतचन्द्र की रचना का वैशिष्ट्य है।३ निश्चय-व्यवहार का आश्रय लेकर स्तुतियाँ की हैं। आचार्य स्वयं दसवीं स्तुति करते हुए कहते हैं कि मैं विशुद्ध विज्ञानघन आपकी एकमात्र शुद्धनय की दृष्टि से स्तुति करूँगा। इसका तात्पर्य यह है कि इससे पूर्व व्यवहार दृष्टि रही, क्योंकि बाह्य क्रियाकलापों को लेकर स्तुतियाँ की गई हैं, व्यवहार धर्म के रूप में क्रियायें आवश्यक होती हैं।
__इसप्रकार सम्यक् परिशीलन करने पर कहा जा सकता है कि इस स्तुतिकाव्य में सभी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया गया है। इसका यह विवेचन समयसार आदि ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरि द्वारा ही किया जाना संभव है, क्योंकि अमृत कलश से भाषा-भाव आदि सभी विषयों में साम्य है। निःसन्देह यह रचना स्तुतिकाव्य जगत् में अनुपम एवं महत्त्वपूर्ण है।
१.
m »i
फुटनोट -
इत्यमृतचन्द्रसूरीणां कृतिः शक्तिम (भ) णितकोशो नाम लघुतत्त्वस्फोटः समाप्तः ।
लघुतत्त्वस्फोट ३. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, स.सा. पंचास्तिकाय, प्रवचनसार
लघुतत्त्वस्फोट २/२ एवं क्रमाक्रमविवर्तिविवर्त्त गुप्त, चिन्मात्रमेव तव तत्त्वमतर्कयन्तः। एतज्जगत्युभयतोऽतिरसप्रसारा निस्सारमद्य हृदयं जिनदीर्यतीव ।।९/२ भावो भवन भासि हि भाव एव चिताभवाश्चिन्मय एव भासि । भावो न वा भासि चिदेव भासि न वा विभो भास्यसि चिच्चिदेकः ।।२४/१०॥ लघुतत्त्वस्फोट प्रत्यक्षमुत्तिष्ठति निष्ठरेयं स्याद्वादमुद्रा हठकारतस्ते।
अनेकशः शब्दपथोपनीतं संस्कृत्य विश्वंससमस्खलन्ती॥१८/८।। लघुतत्त्वस्फोट ८. लघुतत्त्वस्फोट १/१७ ९. समयसार कलश-२, पंचास्तिकाय, पुरुषार्थसिद्धयुपाय १०. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पत्ति स्थितिष्वयम्।
शोकः प्रमोद माध्यस्थं जनो याति स हेतुकम्॥ आप्त मीमांसा ११. लघुतत्त्वस्फोट १३ से १५/१९ १२. वही, १२ से १५/२० १३. वही २०वी स्तुति १४. वही २४वी एवं २५वीं स्तुति
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/34
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
आ. अमृतचन्द्र एवं उनका लघुतत्त्वस्फोट
| वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल
आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी रचनाओं के द्वारा तत्त्वदर्शन ही नहीं कराया बल्कि जैन समाज एवं जैनागम एक दिशा प्रदान की है। उन्होंने पाँचों ही पापों को हिंसा में गर्भित किया है, तथा समझाया है कि यह जीव पर की हिंसा के भावों से स्व-हिंसा करता है तथा कर्मबन्ध करके चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है, कर्मबन्ध करके अपने स्व-गुणों को स्वयं ही ढकता है और यह ही इस जीव का सबसे बड़ा अज्ञान है कि वह अपराध करता है, लेकिन यह नहीं समझता कि अपराध करके पर की हानि नहीं करता बल्कि स्वयं की ही हानि करता है ।
आचार्य अमृतचन्द्र सन् ९०५ से ९५५ तक आचार्यपद और मुनिपद पर आसीन थे । आप चोटी के विद्वान, कालिदास और माघ कवि समान कवि एवं ऊँचे दर्जे के तपस्वी थे। आपने घोर तप करते हुए अनेक ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना तथा कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा रचित समयसार की आत्मख्याति, प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका तथा पंचास्तिकाय की समयव्याख्या की। आपकी स्वतन्त्र रचनाओं में तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धिउपाय, परमअध्यात्म तरंगिणी तथा लघुतत्त्वस्फोट जैसी रचनाएँ उपलब्ध हैं । लघुतत्त्वस्फोट जैन वाङ्मय का संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ है इस ग्रन्थ में तीर्थंकरों की स्तुति के माध्यम से तत्त्वज्ञान कराया गया है। लघु शब्द से आचार्यजी ने अपने ज्ञान की लघुता दिखाई है क्योंकि पूर्णज्ञान सिन्धु सर्वज्ञ भगवान ही होते हैं, सर्वज्ञ भगवान की वाणी को गणधर समझते हैं तथा आचार्य गणधरों की वाणी का अनुसरण करते हैं। लघु शब्द लगाने का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि भगवान की वाणी का अनन्तवाँ भाग ही लिखने में आता है। अस्तु ! कुछ भी हो यह ग्रन्थ भगवान की वाणी का ही एक भाग है। इस ग्रन्थ का अनुवाद सर्वप्रथम पद्भानाम जैनी ने केलीफोरनिया में अंग्रेजी भाषा में किया। इसके पश्चात् पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा हिन्दी भाषा में पण्डित कैलाशचन्दजी की विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ | श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला ने इस ग्रन्थ का अनुवाद किया जो अखिल भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद प्रकाशित करवाया। मैंने (प्रभुदयाल कासलीवाल) भी इस ग्रन्थ का सरलतम हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद किया है जो सरस्वती ग्रन्थमाला की ओर से सन् २००० में प्रकाशित किया गया है।
यह ग्रन्थ अनेक छन्दों में रचा गया है। छन्दों के नाम वसन्ततिलका, वंशस्थ, अनुष्टुप, मन्जुभाषिणी, महर्षिणी, वियोगिनी तथा मंत्रमयूर हैं। प्रथम सर्ग में चौबीस तीर्थंकरों की एक श्लोक में स्तुति करते हुए तत्त्वज्ञान कराया गया है।
प्रथम सर्ग की चतुर्थ स्तुति -
-
यद्भाति भाति तदिहाथ च (न) भात्यभाति । नाभाति भाति स च भाति न यो नभाति ।।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/35
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाभाति भात्यपि च भाति न भात्यभाति ।
सा चाभिनन्दन विभान्त्यभिनन्दति त्वाम ॥४॥१ __ अर्थात् यहाँ ज्ञानगुण, आत्मा का ज्ञायक स्वभाव और ज्ञप्ति क्रिया का विश्लेषण करते हुए आचार्य कहते हैं कि ज्ञान आत्मा की वस्तु है। अत: आत्मा में रहते हुए शोभा को प्राप्त होता है वह आत्मा के अतिरिक्त अन्य स्थान में न रहता है अतः शोभित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। ज्ञप्ति क्रिया भी जहाँ ज्ञान परिणमन होता है वहाँ ही रहती है और इस ज्ञप्ति क्रिया के कारण ही आत्मा ज्ञान गुण का स्वामी या ज्ञायक कहलाता है । हे अभिनन्दन नाथ ! वह ज्ञान दीप्ति आप में रहकर अभिनन्दन करती है। चौबीसवीं स्तुति में -
आत्मीकृता चलितचित् परिणाम मात्र। विश्वोदय प्रलय पालन कर्तृकत ।। नो कर्तृ बोधूनाथ बोदपि बोध मात्र ।
तद् वर्धमान तव धाम किमद्भुते न ॥२४।।१ अर्थात् तुम अविनाशी, तुम चित्स्वरूप ज्योतिर्मय हो। अविचलित चित्त तुम सत्स्वरूप स्वाभाविक हो अरु ज्ञप्ति क्रिया के कर्ता हो। कर्ता भी नहीं, बोद्धा भी नहीं इक उदित ज्ञानमय ज्योति हो। हे वर्धमान ! सद्ज्ञान धाम आश्चर्यकारी अति अद्भुत हो। सर्ग ३ में सामायिक के लिये मोहत्याग को आवश्यक बतलाते हुए आचार्य कहते हैं -
हे प्रभु मोह व्यूह छोड़ जो सकल पाप का त्याग करें। दर्शन ज्ञान की दृढता से निज आत्मा में जो लीन रहें।। वे निश्चय सामायिक करते सामायिक वे कहलाते।
हे प्रभु आप भी बने सामायिक स्वात्मद्रव्य लीनता से ॥२॥३ अर्थात् मोह त्याग से सामायिक और सामायिक से आत्मलीनता होती है, संयम से शुद्धि और शुद्धि से मोह त्याग होता है। श्रेणी प्रवेश समय में विशिष्ट शुद्ध परिणाम होते हैं -
परिणामों की विशिष्ट शुद्धता श्रेणी प्रवेश समय में थी। अध:प्रवृत्तकरण तब प्रकटा प्रभु श्रेणी आरूढ हुए ।। प्रबल पराक्रम धारी हे प्रभु मोहशत्रु का ध्वंश किया।
मोहशत्रु के क्रोधादि सैनिकों को भी तुमने भगा दिया ।३।।१२ पदार्थ में पर्यायें क्रमवर्ती तथा गुण अक्रम होते हैं -
पर्यायें क्रमवर्ती गुण अक्रम पदार्थ में होते हैं। आप प्रभु इन दो भावों को धारण करके रहते हैं। अनित्य आप पर्यायों से गुण से अनित्यता नहीं कभी। हो नित्य आप या नित्य नहीं एकान्तवादिता सत्य नहीं॥४॥१८
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/36
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आज टेलीवीजन, मोबाइल, टेलीफोन का युग है – शब्द सन्तति के विषय में आचार्य फरमाते हैं - 'शब्दों की सन्तति चलती है शाब्दिक प्रवाह न मिटने से।४।१३' सर्ग ५ में आचार्य संसार का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं -
सब ही पदार्थ यहाँ सत्स्वरूप हैं, निज स्वरूप से सब न्यारे। सत्स्वरूप सादृश्य सभी में महा सत्ता में सब गर्भित रे॥ अनन्त पदार्थ जगत में हैं परिणमन प्रतिक्षण करते हैं। परिणमन प्रतिक्षण होने से पर्याय अनन्त बदलते हैं। पर्याय पुरातन हटती है वह नव स्वरूप पा जाती है।
पर्याय अनन्त पदार्थों की प्रभु ज्ञान में भासित होती हैं ।।५ आत्मा में अनन्त चतुष्टय वैभव अविनाशी और अनन्त हैं -
अनन्त चतुष्टय वैभव इस आत्मा में अनादि अनन्त कहा। परिवर्तन क्रम क्रम से हो ऐसा ही द्रव्य स्वभाव रहा ।। इस ही स्वभाव की सीमा में प्रभु का वैभव भी उदित हुआ।
नित्य और अविनाशी बन अविचल शोभा को प्राप्त हुआ।। अर्थात् जीव को अपनी स्वभाव की सीमा में रहना पड़ता है। पर्याय और द्रव्य अभिन्न बनकर रहते हैं
पर्याय द्रव्य को ना छोड़े और द्रव्य नहीं पर्याय बिना।
द्रव्य स्वरूप पर्याययुक्त है पर्याय द्रव्य में निहित सदा ॥५॥२० सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर भी पुरुषार्थ करने पर ही कर्मक्षय होकर मुक्ति प्राप्त होती है।
पुरुषार्थ बने सम्यक् जिसका अरु लक्ष्य मुक्ति का निश्चित हो।
क्रम क्रम से शुद्ध बने वह तब ही मुक्ति सम्पदा निश्चित हो ॥६॥१० क्योंकि असाता वेदनीय काल में वीर प्रभु के साथ भी ऐसा ही हुआ -
निकाचित कर्म उदय में आते फल देकर क्षय होते थे। प्रभु ! अकेले उन्हें भोगते वन खण्डों में तप करते थे।। धैर्य प्रभु का अद्वितीय था कातर कभी न होते थे।
शुद्धोपयोग में प्रतिक्षण रह आत्मा को शुद्ध बनाते थे।। इसके फल स्वरूप -
केवलज्ञान सम्पदा पायी वे परिपूर्ण इसी से हैं। अनन्तवीर्य के धारी हैं वे सदा अजेय इसी से हैं।। आत्मतत्त्व को पाया प्रभु ने हुए अवस्थित सम्यक् रूप । नित्यरूप जिनवर का है यह क्षणिकवाद का खण्डन रूप॥४॥१९
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/37
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
अब केवलज्ञान होने के बाद -
इसलिये
जिनवर है शुद्धात्म जगत में ज्ञाता दृष्टा उनका रूप । ज्ञान तेज लोकोत्तर उनका अतः जानते विश्व स्वरूप ॥ वे ज्ञाता हैं पर के निश्चित करें नहीं वे पर स्पर्श । पृथक् सदा प्रतिभासित होते राग द्वेष का कर के ध्वंस ॥४ ॥ २०
हे प्रभु ! कुशल पुरुषार्थी बने आत्म निज शुद्ध किया । आत्मतत्त्व की निरमलता से सहज आत्म गुण प्राप्त किया || आचार्य अपने आप के प्रतिदृढ निश्चय से कहते हैं -
मैं समवशरण की महिमा गाकर तेरा यश फैलाता हूँ । मैं अनन्त चतुष्टय प्राप्त करूँगा निश्चय कर गुण गाता हूँ ॥ ४ ॥ २५
भगवान ने सिद्ध पद प्राप्त कर लिया आचार्य कहते हैं -
श्री जिनवर हैं पूर्ण ज्ञान युत तन उनका अब बढे नहीं । लेकिन प्रभु की महिमा अब लोक शिखर के पार गयी ।। पूर्णमान का क्षय होने से अति विनम्र नमते नाहीं । पूर्ण आत्म गुण प्रकट हुए वे नमन करें अब निज को ही ॥
आचार्य अमृतचन्द्र के मन में स्वयं को शुद्ध बनाकर शुद्ध बने रहने की भारी वैचारिक दृढता है, तथा उनकी धारणा है कि वे शुद्ध हो गये हैं वे निश्चित अर्हत पद प्राप्त कर सकेंगे।
देखिये .
मोह पाश को दूर हटाकर जागृत बन प्रभु शरण हुआ । हे प्रभु चरण कमल छू तेरे गुणानुवाद में लीन हुआ ।।
गुण तेरे पाकर प्रभु अब मैं तुम सम बन जाऊँ हे नाथ ! शुद्ध पूर्ण कर दो हे स्वामी, गोद तुम्हारी पाऊँ नाथ ॥ १५ ॥ २५
शोभित है ।
ज्ञान आपका नाथ पूर्ण कला समूह से वह अद्वितीय अरु निरुपमेय वर्णन शब्दों से असम्भव है । जो प्राप्त हुआ है ज्ञान मुझे श्रुतज्ञान की इक चिनगारी है।
वह चिनगारी बनकर ज्ञान सूर्य चमके प्रभु मेरी स्तुति है || १६ || २५
प्रभु ! अस्तमय भाव विश्व से लिये हुए मैं रहूँ सदा । रहूँ ज्ञान मैं, बनूँ ज्ञान मैं, और बनूँ कृतकृत्य सदा ॥ २० ॥ २५ अनन्त ज्ञान स्वरूपनाथ एकांश ज्ञान तुम्हारे से । मेरी ज्ञान अग्नि हे जिनवर ! धमनक्रिया दारुणता से ||
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/38
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
भस्मक रोगवत् बढे निरन्तर अतः आप वर दो मुझको । प्रवेश करें मुझ में पदार्थ सब, अन्तर्ज्ञेयता हो मुझको || २१ || २५ दर्शन ज्ञान चरित सम्यग् का जो आलम्बन ले चलते हैं। प्रभु ज्ञान सुधारस पीते आत्मशुद्ध कर लेते हैं । हे प्रभु मुझ अमृत को वह परमार्थ तत्त्व है प्राप्त हुआ । सद्ज्ञान क्रिया कर आलम्बन बनूँ शुद्ध व्रत आज लिया ||२३|| २५ प्रभु पमाद से हीन बना कुछ ज्ञान प्राप्त करके मैं भी ।
जान सका आनन्द ज्ञान का अतः ज्ञान रस आप्लावित ॥
स्नान कर रहा प्रतिक्षण मैं तो ज्ञानानन्दी सागर में ।
नमक घुले पानी में जिस विधि, मैं अमृत घुला ज्ञानरस में || २४ ॥ २५
मैंने इस महान ग्रन्थ का हिन्दी में पद्यानुवाद किया है, मुझ में भी आचार्य प्रभु जैसे भाव उमड़े वे निम्न प्रकार हैं.
—
जिसको पीकर अज्ञान नशे वह जिनागम अमृत का प्याला है मैं नमन करूँ जिनागम को जो अमर बनाने वाला है । जिनागम ने ध्यान विधि बतलायी जो चंचल मन का ताला है। वह ध्यान विधि मैं प्राप्त करूँ का करती ज्ञान उजाला है । वह स्वानुभूति को देती है जो निरविकल्प रस वाली है । उस ही ध्यान से प्रभु दर्श मिले वह अमृत रस का प्याला है । प्रभु नमन करे सद्गुरु अमृत को प्रभु दर्श कराने वाला है । जिससे आत्मा मन शुद्ध बने उस पथ पर ले जाने वाला है ।।
ए २८, जनता कालोनी,
आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रय तेजसा सततमेव । दान तपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥
रत्नत्रय (सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र) के तेज से निरन्तर अपनी आत्मा को प्रभावना युक्त करना चाहिए और दान, तप, जिन - 1 - पूजा, विद्या और अतिशय से जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए ।
- पुरुषार्थसिद्धयुपाय ॥३०॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/39
जयपुर
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
देखने वाले को देखने का उपाय
- बाबूलाल जैन, इंजिनियर डॉ. अलवर्ट आइन्सटाइन ने अपने अन्तिम व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा आत्मा की समय में कहा था कि मैंने इस जीवन में बहुत कुछ जाना अनुभूति परोक्ष रूप से होती है। केवल शुद्ध आत्मा देखा, परन्तु देखने वाले को नहीं देखा। मैं उसे अगले का समावलोकन होता है मिथ्यात्व कर्म के उदय के भव में देख पाऊँ, यह मेरी अंतिम इच्छा है। अभाव में निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान की
देखने वाले को देखने का मार्ग जिनागम में उत्पत्ति होती है और चारित्र मोहनीय के उदय के अभाव समयसार, नियमसार ग्रन्थों में बहत विस्तत रूप से में सम्यक् चारित्र की वृद्धि होती है। इनके माध्यम से बताया गया है। मोहनीय कर्म ने आत्मा को देखने ही सम्यक् ज्ञायक स्वभाव की अनुभूति होती है। वही जानने की शक्ति का आवरण कर रखा है। वह दो प्रकार आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति है, उसी समय यह जीव का है - १. दर्शन मोहनीय, २. चारित्र मोहनीयः। दर्शन शुद्ध आत्मा को अर्थात् जानने वाले को जानता है। मोहनीय के उदय से इस जीव को मिथ्या भ्रान्ति रहती आत्मतत्त्व की श्रद्धा उत्पन्न होने पर ही मिथ्यात्व है तथा चारित्र मोहनीय के उदय से इस जीव के निरन्तर कर्म का विध्वंस करने वाली सच्ची व्यवहारात्मक दृष्टि क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम होते रहते हैं। इन उत्पन्न होती है। अत: जिनागम में कहे गये छह द्रव्य, परिणामों का अभाव होने पर ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान- सात तत्त्व, देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान होना अनिवार्य चारित्र की प्राप्ति हो सकती है, तब ही यह जीव शुद्ध है, उसी के बल पर दर्शन मोहनीय कर्म की फलदान आत्मा की अनुभूति कर सकता है।
शक्ति हीन होकर उदीरणा होती रहती है। उनका अत्यन्त (१) अतः प्रथम सम्यक् व्यवहार से मिथ्या
हीन उदय होने पर उस समय यह जीव मतिज्ञान, व्यवहार को नाश करें। व्यवहार सायन-जात- श्रुतज्ञान को बहिरंग प्रवृत्ति से समेटकर आत्मा के चारित्ररूप निरन्तर परिणाम करने से दर्शन मोहनीय
सम्मुख करता है, तब मिथ्यात्व कर्म का उपशम होना प्रकति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होकर उदीरणा हो प्रारभ हा जाता है। जाती है। उससे दर्शन मोहनीय कर्म की फलदान शक्ति मतिज्ञान, श्रुतज्ञान में इतनी शक्ति है कि वह बहुत हीन हो जाती है।
अपनी आत्मा को भी अपना ज्ञान का विषय बना लेता (२) निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के द्वारा
है। इसके लिए यह मानना जरूरी है कि भगवान महावीर व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निवृत्ति होती है। का कहा गया आगम सर्वज्ञ प्रणीत है। अतः भगवान (३) परम-पारिणामिकभाव-स्वभाव के द्वारा
महावीर सर्वज्ञ थे, यह हम सिद्ध करते हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की निवृत्ति हो जाती
सर्वज्ञ की सिद्धि - है। तब ही यह जीवन नयातीत होकर प्रत्यक्ष शुद्ध भगवान महावीर द्वारा कहे गये जिनागम की आत्मा की अनुभूति करता है।
परीक्षा करना चाहिए। जिनागम परीक्षा प्रधान आगम
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/40
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। परीक्षा करने पर अगर वह खरी उतरती है तो भगवान कर पाये हैं। इससे सिद्ध है कि भगवान महावीर सर्वज्ञ महावीर में श्रद्धा उत्पन्न हो जावेगी और इस तरह सच्चे थे, उनका कहा हुआ शास्त्र सत्य है, कसौटी पर खरा देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धा हो जावेगी और अपनी शुद्ध उतरता है। आत्मा पर श्रद्धा उत्पन्न हो जावेगी, वही श्रद्धा-ज्ञान से (५)६ महीने ८ समय में ६०८ जीव मोक्ष जाते यह जीव मिथ्यात्व कर्म का विध्वंस करना प्रारंभ कर हैं और ६०८ जीव ही नित्य निगोद से निकलते हैं। देता है और आत्म-तत्त्व को जान लेता है। अतीत काल अनादि है, इसलिए वह काल अनन्त है।
आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभू-स्तोत्र में कहा है इसप्रकार अनन्त जीव मोक्ष को प्राप्त कर सिद्ध कि हे भगवान ! आपने वस्तु को उत्पाद-व्यय- शिला पर विराजमान हैं। वे कभी भी अब संसार में नहीं ध्रौव्यात्मक देखा है। इससे सिद्ध है कि आप सर्वज्ञ हैं। आयेंगे। आने वाला भविष्य काल अतीत काल से भी विश्व में नई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती है और न किसी अनन्त गना है। जीव केवल अनन्त ही हैं। तो क्या यह वस्तु का नाश हो सकता है और सब वस्तुएँ निरन्तर संसार जीव रहित हो जायेगा ? कभी नहीं होगा। अपनी अवस्था को बदल रही है, पुरानी अवस्था का जिनागम में कहा है कि इस संसार में असंख्यात त्याग नवीन अवस्था की उत्पत्ति और वस्तु वही-वही लोकप्रमाण निगोद शरीर हैं और एक निगोद शरीर में की रहती है, वह ध्रौव्य है।
अनन्त निगोद जीव हैं, एक निगोद शरीर के जीव भी (१) मनुष्य पर्याय का व्यय और पशु पर्याय की अनन्त होने से वे भी समाप्त नहीं होंगे और आगामी उत्पत्ति और जीव द्रव्य वही-वही है।
भविष्य काल में भी अनन्त जीव मोक्ष जाने पर भी (२) मेरी बचपन की पर्याय का व्यय और यवा समाप्त नहीं होंगे; क्योंकि जिनागम का सिद्धान्त है वद्ध पर्याय का उत्पाद और मैं वही-वही हूँ. जो उस अनन्त में से अनन्त घटाओ तो भी अनन्त बचेगा। यह पाठशाला में पढता था। मेरा जीव ध्रौव्य है। सिद्धान्त आज भी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। इससे (३) मोमबत्ती को जलाने पर उसकी लौ बाहर
सिद्ध है कि भगवान महावीर सर्वज्ञ थे। नहीं निकले तो मोम का व्यय गैस की उत्पत्ति और
जिनवाणी सर्वज्ञ भगवान की कही हुई है, जो उसका वजन वही-वही रहता है, वह ध्रौव्य है।
आज भी उपलब्ध है, उसके अनुसार विश्व के छह
घटक हैं। जीव, परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश और इस सारे विश्व में छह द्रव्य निरन्तर उत्पाद
काल। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य व्यय कर रहे हैं और सभी द्रव्य वही के वही ही हैं, अनादि अनन्त हैं। यह सिद्धान्त सर्वज्ञ ही देख सकते
अमूर्तिक हैं व उनमें स्पर्शन, रस, गंध और वर्ण आदि
नहीं होने से वे आधुनिक वैज्ञानिक के विषय के बाहर हैं अन्य नहीं।
हैं। परमाणु भी एक प्रदेशी है वह भी जिनागम के (४) जैनागम में समय की व्याख्या की है। एक
अनुसार इतना सूक्ष्म है कि उसको भी वैज्ञानिक नहीं परमाणु को पास वाले परमाणु को मंदगति से पार करने देख सकते हैं। परमाण व
देख सकते हैं। परमाणु का जिनागम में विस्तार से वर्णन में जितना समय लगेगा, वह एक समय है। भगवान ।
मिलता है। अनन्त परमाणु के समूह को वर्गणा कहते महावीर ने दोनों परमाणुओं को देखकर गति का निर्धारण हैं। २३ वर्गणा रूप कथन धवला पुस्तक १४ में विस्तृत किया था।
रूप से वर्णन किया गया है। उनमें एक, दो, तीन, एक समय सेकण्ड/१०५०° है, जबकि वैज्ञानिक संख्यात, असंख्यात, अनन्त परमाणु के समूह भी अब तक केवल सेकण्ड/१०° तक ही समय का ज्ञान वैज्ञानिकों के पहुँच के बाहर हैं। वे भी केवल आहार
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/41
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्गणा, तैजस वर्गणा, कार्माण वर्गणा, भाषा वर्गणा वर्गणा में विद्युतमय शक्ति चुम्बकीय शक्ति ऊर्जा प्रकाश
और मनोवर्गणा को ही अपना विषय बना सकते हैं, शीतलता होती है। वे निरन्तर परिवर्तनशील हैं। क्योंकि ये वर्गणा अनन्त परमाणु के बंध और विभाजन क्रियावति शक्ति से सहित हैं। वह निगेटिव रूप और में बनती हैं। परमाणु में अनन्त गुण हैं - स्पर्श, रस, पोजेटिव रूप होते हैं। दीपायन मुनि को क्रोध आया वर्ण, गंध, ऊर्जा, विद्युत, रूक्षपना, स्निग्ध आदि। था, तब उनके बायें कन्धे से १०० गुणा १०० मील
रूक्ष परमाणु का रूक्ष परमाणु के साथ बंध का लम्बा चौड़ा तेजस शरीर का पुतला ऊर्जा रूप होता है। जिसको वैज्ञानिक इलेक्टान कहते हैं। स्निग्ध प्रकाश रूप निकला था। उसने समस्त द्वारिका को भस्म परमाणु का बंध स्निग्ध परमाणु के साथ होता है, कर दिया था। अर्थात् तेजस शरीर में अनन्त ऊर्जा जिसको वैज्ञानिक प्रोटोन कहते हैं और स्निग्ध परमाणु प्रकाश होता है। का रूक्ष परमाणु के साथ जो बंध होता है, उसको चारण ऋद्धि धारी मुनि जब मथुरा आये थे वहाँ वैज्ञानिक न्यूट्रोन कहते हैं। इस तरह का जिनागम में महामारी दुर्भिक्ष देखकर इतनी करूणा आई कि उनके बहुत विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। इससे सिद्ध है कि दाहिने कन्धे से १०० गुणा १०० मील लम्बा-चौड़ा भगवान महावीर सर्वज्ञ थे। परमाणु में क्रियावती शक्ति शुक्ल रूप शीतल तेजस शरीर निकला था जिससे है निरन्तर पूर्व अवस्था का त्याग और नवीन अवस्था समस्त दुर्भिक्ष समाप्त कर, महामारी समाप्त कर पेड़ों में की प्राप्ति और परमाणु वह का वही रहता है, जो ध्रौव्य फल फूल पैदा कर, अमृत की वर्षा करके वापिस है। यह संसार अनन्त सूक्ष्म निगोदिया जीव से बिना मुनियों के शरीर में आ गया था। अत: तेजस वर्गणायें किसी आधार के तथा बादर निगोदिया जीवों से शीतल रूप भी होती हैं। अत: आधुनिक विज्ञान केवल वनस्पति, मनुष्य, पशुओं, शरीरों के आधार से भरा तेजस, कार्मण, भाषा वर्गणा, आहारक आदि वर्गणाओं हुआ है। वे एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण करते तक ही सीमित हैं। उनको विश्व रूप मानते हैं। वे जीव, हैं। वे मारणान्तिक समुद्घात निरन्तर करते हैं, उससे धर्म, अधर्म, आकाश, काल की सत्ता स्वीकार नहीं उनका तैजस-कार्माण शरीर की वर्गणा उनके शरीर को करते हैं, क्योंकि वे अमूर्तिक होने से उनके विषय के छोड़कर जहाँ वे उत्पन्न होते हैं, वहाँ जाकर वापिस बाहर हैं। उनके शरीर में प्रवेश करती है, फिर वे मरते हैं। इस संसारी जीवों के तीन शरीर (१) औदारिक तरह यह विश्व तैजस और कार्मण वर्गणा से ठसाठस शरीर (२) तेजस शरीर (३) कार्मण शरीर अनादि से भरा हुआ है। आधुनिक वैज्ञानिक उनकी वर्गणाओं को है और जब तक सिद्ध अवस्था प्राप्त नहीं करेंगे, तब पकड़कर उनको ही विश्व का एक मात्र घटक मानते तक तीनों रहेंगे। जीव जब राग-द्वेष-मोह भाव करता हैं, अन्य किसी की भी सत्ता नहीं मानते हैं। है तो आत्मा के प्रदेशों में कम्पन होता है, चुम्बकीय
“वैज्ञानिक के अनुसार विश्व अपृथक्भूत, क्षेत्र बनता है और कार्माणवर्गणायें कर्म रूप होकर ऊर्जा, पेटों का गतिशील जाल है, इसके घटक विद्युत आत्मा में चिपकती हैं। यह बंध चार प्रकार का है - चुम्बकीय, विकिरण, बल क्षेत्र स्वतंत्र पृथक व्यक्तिनिष्ठ (१) प्रकृति बंध :- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अधिक है। इसके कार्यकारी बल कणों के गतिशील वेदनीय, अन्तराय, मोहनीय, नाम, गोत्र आयु रूप पेटर्न हैं और विनियमित होते रहते हैं। इससे बल एवं प्रकृति बंध हैं। (२) प्रदेश बंध :- एक समयप्रबद्ध कर्म पदार्थ कण एकीकृत रूप में पाये जाते हैं”। यह सब परमाणु जिसमें अनन्त परमाणु होते हैं, वे कार्माण शरीर तथ्य केवल तेजस वर्णणा में ही उपलब्ध है। तेजस से बंध जाते हैं। (३) स्थिति बंध :- उन कर्म परमाणु
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/42
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
का आत्मा के साथ बंध के काल को स्थिति कहते हैं उस काल के समाप्त होने पर वे कर्म परमाणु फल देकर खिर जाते हैं । (४) अनुभाग बंध :- फल देने की शक्ति को अनुभाग बंध कहते हैं। जब वे कर्म अपनी स्थिति पूरी कर उदय में आते हैं, तब जीव में राग-द्वेष - मोह भाव की उत्पत्ति करते हैं - ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध ही भावबंध है, फिर भावबंध - राग-द्वेष - मोह भावों से आत्मा में कम्पन होता है उससे नये कर्म परमाणु आत्मा में बंधते हैं, यह द्रव्यबंध है । फिर द्रव्यबंध परमाणु का उदय आने पर जीव में राग-द्वेषमोह भाव उत्पन्न होते हैं। यह भावबंध है । इस तरह अनादि काल से इस जीव के द्रव्यबंध से भावबंध और भावबंध से द्रव्यबंध चल रहा है। इसलिए यह जीव अनादिकाल से चौरासी लाख योनियों में जन्म मरण कर रहा है।
इस अनादिकाल सन्तति को छेदने का उपाय केवल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर ही संभव है । सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है और राग, द्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यक्चारित्र बलपूर्वक धारण करना पड़ता है। सम्यक्चारित्र में ५ महाव्रत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह हैं। व्रतों
धारण करके मुनि अवस्था धारण कर तप के बल पर आठों कर्मों को नष्ट कर सिद्ध दशा प्राप्त कर सकता है । सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए १. जीव तत्त्व, २. अजीव तत्त्व, ३. आस्रव तत्त्व, ४. बंध तत्त्व, ५. संवर तत्त्व, ६. निर्जरा तत्त्व, ७. मोक्षतत्त्व - इन सातों तत्त्वों को समझना आवश्यक है।
जीव तत्त्व - जीव तत्त्व में अनन्त गुण हैं। उनमें मुख्य ज्ञान गुण अनन्त शक्ति रूप है, जिसको ज्ञानावरण कर्म ने आवरण कर रखा है।
ज्ञानावरण कर्म - ज्ञानावरण कर्म के क्षय होने पर केवलज्ञान सर्वज्ञता प्रगट हो जाती है और तीनों लोकों की तीनों काल की बात युगपद् जानते हैं ।
दर्शनावरण कर्म - जीव में तीनों लोकों को देखने की शक्ति है, परन्तु वह दर्शनावरण कर्म के आवरण से छिपी हुई है। उसके क्षय होने पर केवलदर्शन प्रगट हो जाता है ।
उसको अन्तराय कर्म ने ढक रखा है, उसके क्षय होने अन्तराय कर्म - जीव में अनन्त वीर्य शक्ति है, पर अनन्तवीर्य उत्पन्न हो जाता है ।
मोहनीय कर्म - दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से तत्त्व श्रद्धान नहीं होता है और शरीर आदि को ही जीव अपना मानता है । चारित्र मोहनीय के उदय से राग-द्वेष निरन्तर करता है।
नाम कर्म - तीनों शरीर की रचना औदारिक, तैजस, कार्मण नामकर्म के उदय से बनती है।
गोत्र कर्म - उच्चता, नीचता इस कर्म के उदय से होती है।
वेदनीय कर्म आत्मा में अनन्त अव्याबाध सुख है, परन्तु वेदनीय कर्म ने ढक रखा है और इस जीव को निरन्तर सुखी - दुःखी करता रहता है।
आयु कर्म - आत्मा को औदारिक शरीर से बांध रखता है और एक भुज्यमान आयु खत्म होने के पहले ही अगले भव की आयु यह जीव बांध लेता है और वहीं जाकर जन्म लेता है जिसकी आयु बंधी थी । (२) अजीव तत्त्व पुद्गल परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये अजीव तत्त्व हैं। इनमें जानने देखने की शक्ति नहीं है ।
• राग, द्वेष, मोह के द्वारा
(३) आस्रव तत्त्व कर्मों का आत्मा में आना
।
-
(४) बंध तत्त्व कर्मों का प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग सहित कार्मण शरीर में बंधना ।
(५) संवर तत्त्व - राग, द्वेष के अभाव में कर्म का आत्मा में आना रुक जाना ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/43
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
(६) निर्जरा तत्त्व - तप के बल पर कर्मों का तप, त्याग (दान) से तथा श्रावकों के बारह व्रतों का झड़ जाना।
अभ्यास करने से कषाय की मन्दता होती है और विशुद्ध (७) मोक्ष तत्त्व - आठों कर्मों के झड़ने पर परिणाम हो जाते हैं, वही क्षायोपशमिक लब्धि है। आत्मा में आठ गुण होते हैं और एक ही समय में (२) विशुद्धि लब्धि - प्रतिसमय अनन्तगुणी सिद्धशिला पर पहुँच जाते हैं। फिर वहाँ से कभी भी हीन कम से उदिरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न अज्ञान संसार में नहीं आते।
आदि अशुभ कर्मों के बन्ध का विरोधी जो जीव का मिथ्यात्व कर्म के उदय से ही यह जीव अनादि परिणाम है, उसे विशुद्ध लब्धि कहते हैं। उसकी प्राप्ति से संसार में भटक रहा है। उसका उपशम, क्षय, का नाम विशुद्धि लब्धि है। क्षयोपशम होने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। तब सातावेदनीय कर्म के बंध के कारण उमास्वामी सच्चे देव जो सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी मानकर ने तत्वार्थ सूत्र में निम्न बताये है :उनका श्रद्धान करने से तथा उनके द्वारा कथित शास्त्रों भूत, व्रत, अनुकम्पा, दान, सराग संयम, योग का अध्ययन करने पर उनके बताये हुए मार्ग पर चलने क्षांति, शौच तथा संयमासंयम, अकाम निर्जरा, पर तथा निर्ग्रन्थ मुनियों की शरण लेने पर तथा छह बालतप, अर्हन्त भक्ति और वैयावत्ति आदि सातावेदनीय पदार्थ – जीव, परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश, काल के आस्रव के कारण हैं। तथा उपरोक्त कहे हुए सात तत्त्वों का श्रद्धान करने पर
असातावेदनीय बंध के कारण-निज पर तथा मिथ्यात्व कर्म का अनुभाग तथा उसकी सत्ता अनन्त दोनों के विषय में दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन बंध गणी हीन रह जाती है। इसका विस्तृत वर्णन समससार, और परिदेवन असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं। प्रवचनसार, लब्धिसार में उपलब्ध है। कषाय की
अत: विशुद्धि लब्धि के लिए साता वेदनीय के योग्य मन्दता के लिए श्रावकों को बारह व्रतों को अभ्यास
एवं असाता वेदनीय के परिहार कारी परिणाम आवश्यक रूप लेना चाहिए। श्रावकों को कम से कम दो बार
हैं। उससे ही यह विशुद्धि लब्धि प्राप्त होती है। एकान्त में सामायिक करना चाहिए। इससे परिणाम विशुद्ध होते हैं। जिनेन्द्र की पूजन करने से मिथ्यात्व
(३) देशना लब्धि :- छह द्रव्यों और नौ आदि कर्म की सत्ता कम रह जाती है और उनके फल
पदार्थों के उपदेश का नाम देशना लब्धि है, उस देशना देने की शक्ति अनन्तगुणी हीन होकर उदीरणा हो जाती
से परिणमित आचार्य आदि की उपलब्धि को और है। धवला पस्तक छह में तथा लब्धिसार गन्थ में पाँच उपदिष्ट अर्थ को ग्रहण धारण तथा विचारण की शक्ति लब्धियों का स्वरूप निम्नप्रकार बताया है - ..
के समागम को देशना लब्धि कहते हैं। (१) क्षायोपशमिक लब्धि - पूर्व संचित कर्मों
(४) प्रायोग्य लब्धि :- सब कर्मों की उत्कृष्ट के मल रूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय
स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंत: विशद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन होते हुए
कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विःस्थानीय अवस्थान में उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं, उस समय क्षायोपशमिक
- अनुभाग के करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। प्रायोग्य लब्धि होती है। यहाँ पर यथार्थ उपदेश मिलने पर और
लब्धि में ३४ वंधापसरण होते हैं। उनके ४६ प्रकृति उसको धारण चिन्तन करने पर तथा गृहस्थ के षट् का स
का संवर होता है। आवश्यक- देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम,
अंतिम ३४वाँ बंधापसरण केवल प्रथम सम्यक्
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/44
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शन प्राप्त करने वाले के ही होता है और वही करण ही होते हैं। यहाँ पर चार आवश्यक होते हैं। (१) गुण लब्धि में प्रवेश करता है। ३४वें बंधापसरण में अस्थिर, संक्रमण, (२) गुणश्रेणी निक्षेप (३) स्थिति काण्डक अशुभ, अयशस्कीर्ति, अरति शोक व असाता वेदनीय घात (४) अनुभागकाण्डक घात। की बंध व्युत्छित्ति होती है। इन छ: प्रकृतियों का प्रमत्त पाप प्रकृति का अनुभाग अनन्त गुणा हीन हो सयंत गुणस्थान में बंध होता है और अप्रमत्त गुणस्थान जाता है और पुण्य प्रकृति का अनुभाग अनन्त गुणा में इन छ: प्रकृतियों का संवर होता है। अतः प्रायोग्य अधिक हो जाता है। इसका बहुत भाग निकलने पर लब्धि के अन्त में यह जीव अप्रमत्तवर्ती शुभ भाव कर अन्तरकरण होता है, जिसमें दर्शन मोहनीय प्रकृति का लेता है जब ही करण लब्धि में प्रवेश करता है। अतः द्रव्य प्रथम स्थिति में तथा दूसरी स्थिति में निक्षेपण कर सम्यक्दर्शन को प्राप्त करने के लिए उपरोक्त परिणाम देता है और अन्तरकरण में दर्शन मोहनीय की सत्ता नहीं बल पूर्वक करने पड़ते हैं। श्रावक सामायिक काल में रहती। अनिवृत्तिकरण काल समाप्त होने पर दर्शन अप्रमत्तवर्ती शुभ भाव कर लेता है ऐसा कथन रत्नकरण्ड मोहनीय के तीन टुकड़े हो जाते हैं और वे उपशम हो श्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, अनगार धर्मामृत तथा जाते हैं सम्यक् दर्शन हो जाता है और यह जीव अनादि महापुराण आदि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। अत: करणलब्धि काल से जिसको प्राप्त नहीं किया था उस सम्यक दर्शन में प्रवेश करने के लिए उपरोक्त परिणाम बल पूर्वक को प्राप्त कर लेता है। करण लब्धि में परिणाम आत्मा करने पड़ते हैं। वही जीव उछलकर करण लब्धि में के सम्मुख होते हैं और अनन्त-अनन्त गुणे विशुद्ध होते प्रवेश कर सकता है।
जाते हैं। उसी के बल पर दर्शन मोहनीय का उपशम, करण लब्धि :- (१) अधःप्रवृत्तकरण में ।
क्षयोपशम कर लेता है। बाद में केवली भगवान के समानवी जीव के परिणाम समान भी होते हैं और
सानिध्य में क्षायिक सम्यक् दर्शन प्राप्त करके मुनिलिंग असमान भी होते हैं।
धारण करते हैं। तप के बल पर आठों कर्मों का क्षय
करके सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। ऐसी सिद्ध (२) अपूर्वकरण लब्धि में जीव के परिणाम
अवस्था सब लोग प्राप्त करें - इसी भावना के साथ अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं। सादृश्य नहीं होते हैं।
विराम लेता हूँ। (३) अनिवृत्तिकरण लब्धि में समान वर्ती जीव के परिणाम समान होते हैं और असमानवर्ती के असमान
0 बाबूलाल जैन, छावनी-कोटा
आत्मानस्नापयेन्नित्यम् ज्ञानवारिणा चारुणा। येन निर्मलतां याति जनो जन्मान्तरेष्वपि ॥
- आत्मा को नित्य ही ज्ञान रूपी पवित्र जल से स्नान कराना (स्वाध्याय से आत्मोन्मुख) चाहिये; जिससे मानव भव-भवान्तरों में भी निर्मलता को प्राप्त होता है। अर्थात् आत्मशुद्धि होती है।
- चाणक्य
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/45
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शन में कर्म - सिद्धान्त
डॉ. प्रेमचन्द रांवका
१. संचित कर्म - पूर्वजन्मों में किये गये उन कर्मों का ढ़ेर, जिनका फल भोगना बाकी है।
भारत के सभी आस्तिक दर्शनों में जीव जगत की विविधता को स्वीकार किया गया है। उसे सहेतुक माना है। उस हेतु को वेदान्ती अविद्या, बौद्ध वासना, सांख्य क्लेश, न्याय वैशेषिक अदृष्ट तथा जैन 'कर्म' जो वर्तमान में भोगना है। कहते हैं। कई दर्शन कर्म का सामान्य निर्देशमात्र करते हैं और कई उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करते - करते बहुत आगे बढ़ जाते हैं।
न्याय दर्शन के अनुसार अच्छे-बुरे कर्मों का फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार मानता है । बौद्धों ने चित्तगत वासना को कर्म माना है। जो सुख-दुःख का हेतु है। जैनदर्शन कर्म को स्वतंत्र तत्त्व मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं स्कन्ध है । वे समस्त लोक में जीवात्मा की अच्छीबुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बंधते हैं। बंधने के बाद, तुरन्त फल न देकर उनका परिपाक होता है। यह सत् अवस्था है। परिपाक के बाद उनसे सुख-दुःखरूप फल मिलता है, यह उदय अवस्था । अन्य दर्शनों में कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध अवस्थायें बतायी हैं। ये ठीक क्रमशः बन्ध, सत् और उदय की
समानार्थक हैं।
अन्य दर्शन में कर्म को चार प्रकार का माना गया है १. शुभ और शुभ विपाक, २. शुभ और अशुभ विपाक, ३. अशुभ और शुभ विपाक, ४. अशुभ और अशुभ विपाक । विपाक का अर्थ है – पकना । आध्यात्मिक परिभाषा में कर्म विपाक का अर्थ है जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का शुभ-अशुभ परिणाम या फल । कर्म विपाक तीन प्रकार के कर्मों का होता है
२. प्रारब्ध कर्म - संचित कर्मों का वह अंश
-
३. क्रियमाण कर्म - वर्तमान भव में किये जाने वाले कर्म – इनमें से कुछ का फल तो इसी जन्म में मिल जाता है; बाकी कर्म संचित कर्मों के ढ़ेर से जुड जाते हैं।
क्रियमाण कर्म चार प्रकार के होते हैं १. नित्यकर्म - खानपान, स्नान, सोना आदि । २. नैमित्तिक कर्म- जो कर्म किसी निमित्त से किये जाते हैं। जीवकार्थ - नौकरी, व्यवसाय ।
-
३. काम्य कर्म - पूजा-पाठ, अनुष्ठान (उद्देश्य) कार्य में सफलता, अनिष्ट निवारण आदि के लिये । ४. निषिद्ध कर्म - जिन कर्मों का धर्मशास्त्र में निषेध किया गया हो । पाप, अपराध ।
कर्म विपाक के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा को है, जब तक कि संचित कर्मों का क्षय न हो जाय। अपने कर्मों का फल जन्म-जन्मान्तर में भोगना पड़ता जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य कहते हैं । वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों परम्पराएँ कर्म विपाक के सिद्धान्त को मानती हैं। पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसी पर आधारित है; क्योंकि पुनर्जन्म के बिना कर्मों का फल नहीं भोगा जा सकता। शुभ कर्मों का अशुभ फल तब होता है, जब कोई कर्म फल की आकांक्षा से या उसमें आसक्त होकर किया जावे। दान, परोपकार आदि पुण्य कार्य भी यदि प्रतिफल की इच्छा से किये जाते हैं, तो बंध का कारण होते हैं। अशुभ
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/46
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्मों का शुभफल उस अवस्था में होता है, जब वे आसक्ति रहित हों । लोक कल्याणकारी हों और धर्मपालन के निमित्त हों । राष्ट्र रक्षार्थ युद्ध ।
गीता, उपनिषद् आदि में अच्छे-बुरे को जैसे 'कर्म' कहा है; वैसे जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं है। जैन दर्शनानुसार कर्म शब्द आत्मा पर लगे हुये सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। आत्मा की प्रत्येक सूक्ष्म और स्थूल मानसिक, वाचिक और प्रवृत्ति के द्वारा उसका आकर्षण होता है। इसके बाद स्वीकरण (आत्मीकरण या जीव और कर्म परमाणुओं का एकीभाव) होता है ।
कर्म के हेतुओं को भावकर्म और कर्म-पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहा जाता है। इनमें निमित्त - नैमित्तिक भाव है। भावकर्म से द्रव्यकर्म का संग्रह और द्रव्यकर्म के उदय से भावकर्म तीव्र होता है ।
आत्मा और कर्म का सम्बन्ध
बन्ध की अपेक्षा से जीव और पुद्गल अभिन्न / एकमेक हैं। लक्षण की दृष्टि से वे दोनों भिन्न हैं । जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन । जीव अमूर्त है और पुद्गल मूर्त है । इन्द्रिय के विषय आदि मूर्त हैं । उनको भोगने वाली इन्द्रियाँ मूर्त हैं। उनसे होने वाला सुखदु:ख मूर्त हैं। आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्म से सम्बन्ध कैसे होता है ?
-
प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। वह अनादिकाल से ही
बद्ध और विकारी है। कर्मबद्ध आत्माएँ कथञ्चित् (किसी एक अपेक्षा से) मूर्त है अर्थात् निश्चय दृष्टि से अमूर्त होते हुये भी वे संसारदशा में मूर्त होती हैं।
जीव प्रकार के हैं - रूपी और अरूपी । मुक्त जीव अरूपी है और संसारी जीव रूपी । निश्चय दृष्टि से जीव अमूर्त और अरूपी ही है। कर्म मुक्त आत्मा
फिर कभी कर्म का बन्ध नहीं होता। कर्मबद्ध आत्मा केही कर्म बंधते हैं। कर्म और आत्मा का अनादि काल से सम्बन्ध चला आ रहा है। कर्म सम्बन्ध के अनुकूल
आत्मा की परिणति ही बन्ध का हेतु है। उसके कारण हैं प्रमाद और योग । शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग द्वारा कर्म का बन्ध करता है। क्रोध, मान, माया और लोभ भी बन्ध के कारण हैं। 'पंचास्तिकाय' गाथा १२८, १२९ एवं १३० में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं (संस्कृत छाया-प्राकृत से)
-
यः खलु संसारस्थो जीवस्ततस्तु भवति परिणामः । परिणामत्कर्म कर्मणो भवति गतिषु गतिः ॥
गतिमधिगतस्य देहो देहादिन्द्रियाणि जायन्ते । तैस्तु विषयग्रहणं ततो रागो वा द्वेषो वा ॥
जायते जीवस्यैवं भाव: संसार चक्रवाले। इति जिनवरैर्भणितोऽनादिनिधनः सनिधनो वा ॥
• यह जो जीव संसार में स्थित है, उसके निरन्तर राग-द्वेष परिणाम होते हैं। उन परिणामों से नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं । इन्द्रियों से विषयों को ग्रहण करता है। विषय ग्रहण से इष्ट विषयों से राग और अनिष्ट विषयों से द्वेष करता है । इस प्रकार संसार रूपी चक्र में पडे हुए जीव के परिणामों से कर्मबन्ध और कर्मबन्ध से राग-द्वेष रूप भाव होते रहते हैं । यह चक्र अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि - अनन्त है और भव्यजीव की अपेक्षा से अनादि-सान्त है।
इससे स्पष्ट होता है कि संसारी जीव अनादिकाल से मूर्तिक कर्मों से बंधा हुआ है। इसलिये एक तरह से वह भी मूर्तिक हो रहा है। जैन दर्शन में कर्म के दो भेद हैं- द्रव्यकर्म और भावकर्म । जीव से संबद्ध कर्म पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहते हैं और द्रव्यकर्म के प्रभाव से होनेवाले जीव के राग-द्वेष रूप भावों को भावकर्म कहते हैं । द्रव्यकर्म भावकर्म का कारण है और भावकर्म द्रव्यकर्म का कारण है। न बिना द्रव्यकर्म के भावकर्म होते हैं और न बिना भावकर्म के द्रव्यकर्म होते हैं।
आत्मा और कर्म का संयोग बन्ध कहलाता है जो चार प्रकार का है। प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/47
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुभाग । कर्म-पुद्गलों का आत्मा के साथ एकीभूत आयु कर्म जीव को चार गतियों में से किसी होना प्रदेश बन्ध है। कर्म परमाणु का कार्य-भेद के एक में जन्म दिलाता है। नाम कर्म के उदय से जीव अनुसार आठ वर्गों में विभक्त होना प्रकृति बन्ध है। कर्म शुभाशुभ शरीर पाता है। गोत्र कर्म के उदय से जीव की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, उच्च, निम्न बनता है। अन्तराय से आत्मशक्ति का वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। कर्म प्रतिघात होता है। चार अघातिया कर्म परमाणुओं का का आत्मा के साथ निश्चित समय तक रहना स्थिति विलय मुक्ति के समय एक साथ होता है। चार घातिया बन्ध है। स्थिति पकने पर कर्म का उदय में आकर कर्मों के नाश से अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य आत्मा से अलग होने की अवधि स्थिति बन्ध कर्म की प्राप्ति होती है। आत्मा की ओर कर्म परमाणुओं का पुद्गलों में रस की तीव्रता मंदता का निर्धारण अनुभाग आना आस्रव, आत्मा के साथ कर्मों का संयोग बंध, बन्ध है।
आत्मा में कर्म परमाणु का आना रुक जाना संवर, बन्ध के उक्त चारों प्रकार एक साथ होते हैं। आत्मा से कर्मों का हटाना निर्जरा, आत्मा से कर्म कर्म की व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं। आत्मा परमाणुओं का पूर्णतः नष्ट होना मोक्ष है। के साथ कर्म-पुद्गलों के आश्लेष या एकीभाव की कर्म शास्त्र की भाषा में शरीर नाम कर्म के उदय दृष्टि से प्रदेश बन्ध सबसे पहला है। इसके होते ही उनमें काल में चंचलता रहती है। मानसिक, वाचिक और स्वभाव निर्माण, काल-मर्यादा और फल शक्ति का शारीरिक क्रिया से आत्मप्रदेशों में कम्पन होता है। निर्माण होता है।
उसके द्वारा कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है। शुभ चेतना के दो रूप हैं, ज्ञान - वस्तुस्वरूप का
परिणति के समय शुभ और अशुभ परिणति के समय विमर्श करना और दर्शन – वस्तु स्वरूप का ग्रहण ।
अशुभ कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है । मोह कर्म करना। इनके आवरण ज्ञानावरण और दर्शनावरण जिनसे के उदय से जीव राग-द्वेष में परिणत होता है; तब वह आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुण का अवरोध होता है । आत्मा अशुभ कर्मों का बंध करता है। मोह रहित प्रवृत्ति करते को विकत बनाने वाले पुदगल मोहनीय हैं। इसके दो समय शरीर नाम कर्म के उदय से जीव शुभ कर्म का भेद - दर्शन मोह व चारित्र मोह। श्रद्धा को विकत बंध करता है। ज्ञानावरण के उदय से तीव्र दर्शनावरण (विपरीत) करने वाला दर्शन मोह और कषाय के द्वारा का उदय तीव्र होता है। दर्शनावरण के उदय से तीव्र आत्मा के चारित्र गुण को विकत बनाने वाला चारित्र दर्शनमोह का उदय तीव्र होता है। दर्शन मोह के उदय मोह है। आत्म शक्ति का प्रतिरोध करने वाले पुद्गल
से तीव्र मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय अन्तराय कहलाते हैं। ये चारों घातिया कर्म हैं। उनके से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है। इस क्षय के लिये आत्मा को आत्मोन्मुखी तीव्र प्रयत्न करना
कर्म बंध का मुख्य हेतु कषाय है। कषाय के मूल में होता है।
राग-द्वेष हैं और राग-द्वेष के मूल में मिथ्यात्व है। ज्ञानावरण के उदय से जीव ज्ञातव्य विषय को
जैन दर्शन कर्म-फल का नियमन करने के लिये नहीं जानता। दर्शनावरण के उदय से जीव दष्टव्य विषय ईश्वर को आवश्यक नहीं समझता। कर्म-परमाणुओं को नहीं देख पाता। सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव में जीवात्मा के संबंध से एक विशिष्ट परिणाम होता है। सुख की अनुभूति करता है। असातावेदनीय के उदय वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, से दुःख की अनुभूति होती है। मोहनीय के उदय से जीव पुद्गल-परिणाम आदि उदयानुकूल सामग्री से विपाक मिथ्यात्वी बनता है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र प्रदर्शन में समर्थ हो जीवात्मा के संस्कारों को विकृत - ये चार अघातिया कर्म हैं।
करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है। सही अर्थ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/48
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
में आत्मा अपने किये का अपने आप फल भोगता है। कर्म बन्धनों से मुक्ति के लिये आगम कहते हैं कर्म परमाणु सहकारी या सचेतक का कार्य करते हैं। - इहलोक, परलोक, पूजा श्लाघा आदि के लिये धर्म विष और अमृत, पथ्य और अपथ्य का भोजन को कुछ मत करो, आत्मशुद्धि के लिये करो। यही बात भी ज्ञान नहीं होता; फिर भी जीव का संयोग पा उनकी वेदान्तवादियों ने कही है 'मोक्षार्थी को काम्य और वैसी परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये' क्योंकि आत्मखानेवाले को इष्ट या अनिष्ट फल मिलता है। विज्ञान साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार-भ्रमण के क्षेत्र में परमाणु की विचित्र शक्ति और उसके नियमन हेतु है। भगवान महावीर ने कहा है - 'पुण्य और पाप के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कर्मों की फलदान इन दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है। जीव शुभ और शक्ति के बारे में कोई संदेह नहीं रहता।
अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है।' कर्म का उदय दो प्रकार से होता है - १. प्राप्त गीता भी यही कहती है - 'बुद्धिमान सुकृत और दुष्कृत काल कर्म का उदय - बंधी हुई स्थिति के अनुसार दोनों को छोड़ देता है।' उचित समय पर स्वतः कर्म उदय में आते हैं। २. अप्राप्त अयोगी अवस्था से पूर्व सत्प्रवृत्ति के साथ काल कर्म का उदय - काल प्राप्त होने से पूर्व ही पुण्यबन्ध अनिवार्य रूप से होता है। फिर भी पुण्य की परिस्थिति या प्रयत्न विशेष के द्वारा कर्म का उदय में इच्छा से कोई भी सत्प्रवृति नहीं करनी चाहिये । प्रत्येक आना । बन्ध और उदय के अन्तर का काल अबाधा सत्प्रवृत्ति का लक्ष्य आत्म विकास होना चाहिये । काल है। कर्म का परिपाक और उदय अपने आप भी भारतीय दर्शनों का यही चरम लक्ष्य है। लौकिक होता है और दूसरों के द्वारा भी-सहेतुक भी होता है अभ्युदय धर्म का आनुषंगिक फल है जो धर्म के साथ
और निर्हेतुक भी। तीव्र परिपाक से स्वतः क्रोध में होना अपने आप फलने वाला है। यह शाश्वत चरम लक्ष्य निर्हेतुक।
नहीं है। पुण्य-पाप - मन-वचन और काय की जैनदर्शन में धर्म और पुण्य दो पृथक् तत्त्व हैं। शुभाशुभ क्रिया ही पुण्य-पाप है। पुण्य-पाप दोनों शाब्दिक दृष्टि से पुण्य शब्द धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त विजातीय तत्त्व हैं। अत: दोनों आत्मा की परतंत्रता के होता है; किन्तु तत्त्वमीमांसा में ये कभी एक नहीं होते। हेतु हैं। जैनाचार्यों ने पुण्य को सोने की और पाप को धर्म आत्मा की राग-द्वेष हीन परिणति है और पुण्य लोहे की बेडी से तुलना की है। स्वतंत्रता के इच्छुक शुभकर्ममय पुद्गल है। दूसरे शब्दों में धर्म आत्मा की मुमुक्षु के लिये ये दोनों हेय हैं। मोक्ष का हेतु रत्नत्रय पर्याय है और पुण्य पुद्गल की पर्याय है। धर्म आत्महै। जो व्यक्ति इस तत्त्व को नहीं जानता वही पुण्य को शुद्धि का साधन है और पुण्य आत्मा के लिये बन्धन है। उपादेय और पाप को हेय मानता है। निश्चय दृष्टि से
आत्मा स्वतंत्र है या कर्म के आधीन? ये दोनों हेय हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य और पाप
कर्म की मुख्य दो अवस्थाएँ हैं - बन्ध और को आकर्षण करने वाली विचारधारा को परसमय
उदय। दूसरे शब्दों में ग्रहण और फल । जीव, कर्म ग्रहण अर्थात् जैन सिद्धान्त से परे माना है। पुण्य काम्य नहीं
करने में स्वतन्त्र है और उसका फल भोगने में परतन्त्र । है। आचार्य योगीन्दु के शब्दों में ‘वह पुण्य किस काम
जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतंत्र का जो राज्य देकर जीव को दुःख परम्परा की ओर
है, इच्छानुसार चढ़ता है। प्रमादवश गिर जाए तो वह ढ़केल दे। आत्म-दर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति
गिरने में स्वतंत्र नहीं है। विष खाने में स्वतंत्र है और मर जाए यह अच्छा है; किन्तु आत्म-दर्शन से विमुख -
वमुख उसका परिणाम भोगने में परतंत्र । एक रोगी व्यक्ति भी होकर पुण्य चाहे, वह अच्छा नहीं।'
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/49
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
गरिष्ठ से गरिष्ठ पदार्थ खा सकता है, किन्तु उसके फल द्वारा कर्म/भाग्य में परिवर्तन किया जा सकता है। स्वरूप होनेवाले अजीर्ण से नहीं बच सकता। कर्मफल कायवाङ्मन: कर्मयोगः - योग द्वारा कर्म से बन्ध व भोगने में जीव स्वतंत्र नहीं है। कहीं-कहीं जीव उसमें मुक्त हुआ जा सकता है। संवर और निर्जरा कर्म मुक्ति स्वतंत्र भी होता है। जीव और कर्म का संघर्ष चलता का कारण है। संचित कर्म तपस्या द्वारा नष्ट हो जाते रहता है। जीव के काल आदि लब्धियों की अनुकूलता हैं। कोई फल डाली पर पक कर टूटता है और किसी होती है, तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों फल को प्रयत्न से पकाया जाता है। पकते दोनों हैं, की बहलता होती है; तब जीव उनसे दब जाता है। प्रक्रिया भिन्न है। जो सहज पक
का काल इसलिये कहीं जीव कर्म के अधीन है, तो कहीं कर्म लम्बा होता है, जो प्रयत्न से पकता है उसका काल जीव के अधीन। संयम, त्याग, तपस्या की ऊर्जा से छोटा है। कर्म का परिपाक भी ठीक इसी तरह है। विपाक से पूर्व भी कर्म को न्यून कर देता है। स्थिति निश्चित काल से पकना सविपाक कर्म निर्जरा है और
और फल शक्ति नष्ट कर उन्हें शीघ्र तोड़ डालने के लिये निश्चित काल से पूर्व तपस्या द्वारा निर्जरा अविपाक तपस्या की जाती है। पातंजल योगभाष्य में भी अदृष्ट निर्जरा है। इसी का नाम मोक्ष है। यद्यपि आत्मा कर्म जन्म वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ बतायी है। उनमें से का अनादि संबंध है। तथापि स्वर्ण-मृत्तिका, घी-दूध एक गति है – कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित की भाँति मिले हुये भी तपाग्नि से आत्मा से कर्म पुद्गल आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं। ध्यानाग्नि-ज्ञानाग्नि वा अलग किये जा सकते हैं। कषाय, राग, द्वेष को नष्ट सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणः।।
कर वीतरागी बन आत्मा मुक्त बन जाता है। कर्म हीनता इसी को जैनदर्शन में उदीरणा कहा है। पुरुषार्थ ही मुक्ति है।
०२२, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर (राज.)
तत्त्व बोध जैन धर्म निर्वाणवादी धर्म है । वह निर्वाण को मानकर चलता है। धर्म की अंतिम मंजिल है निर्वाण। निर्वाणवादी धर्म से निर्वाण से पहले आत्मा का होना जरूरी है। धर्म का पहला बिन्द है आत्मा और अन्तिम बिन्द है निर्वाण । जैनाचार्यों ने आत्मा को देखा, अनुभव किया और जाना - आत्मा एक रूप में नहीं है, वह स्वरूपत: एक है, चैतन्यमय है, फिर भी विभाजित है। उसे तीन भागों में देखा गया - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा वह है, जो आत्मा के बाहर परिक्रमा कर रहा है, भीतर प्रविष्ट नहीं हो रहा है। मकान का दरवाजा बन्द है, व्यक्ति भीतर नहीं हो सकता। उसका कारण है मिथ्या दृष्टिकोण। जब तक दृष्टिकोण मिथ्या रहता है, अपनी आत्मा में अपना प्रवेश नहीं हो सकता। अपने ही घर में अपना प्रवेश निषिद्ध हो जाता है। बड़ा आश्चर्य है - अपना ही घर और अपने लिए प्रवेश निषिद्ध । इस स्थिति में जब आदमी बाहर भटकता है तो वह है कल्पना का साम्राज्य बहुत बढ़ा लेता है। आज के युग की जो सबसे बड़ी सामाजिक समस्या है, वह काल्पनिक दृष्टि। मनुष्य ने आवश्यकता के कुछ ऐसे मानदंड बना लिए, कृत्रिम रेखाएँ खींच लीं, विकसित व्यक्ति और विकसित समाज की अपनी अवधारणाएँ बना लीं
और वह उन्हें पाने की भाग-दौड़ में व्यथित होने लगा। सामाजिक समस्या का एक अनन्य उदाहरण है। आदमी काल्पनिक आवश्यकताओं के लिए क्या-क्या नहीं करता। उनकी पूर्ति के लिए किन दुःखद स्थितियों में वर्तमान युग का व्यक्ति जी रहा है। यह हमारे सामने बहुत स्पष्ट है। वर्टेड रसेल ने अपनी पुस्तक में लिखा है - अगर ये काल्पनिक आवश्यकताएँ समाप्त हो जाएँ तो समाज की सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी, समस्याओं का समाधान मिल जाएगा।
- आचार्य महाप्रज्ञ
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/50
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
कर्म सिद्धान्त एवं समाज - न्याय व्यवस्था
डॉ. महिमा बासल्ल
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, रूप मूर्त- पुद्गलों का निमित्त पाकर अर्थात् शरीर की इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण करने पर आत्मा राग-द्वेष एवं मोह रूप में परिणमन करती है, इसी से कर्मों का बंधन होता है । कर्मों का उत्पादक मोह तथा उसके बीज राग एवं द्वेष हैं। कर्म की उपाधि से आत्मा का शुद्ध स्वभाव आच्छदित हो जाता है। कर्मों के बंधन से आत्मा की विरूप अवस्था हो जाती है। बंधनों का अभाव अथवा आवरणों का हटना ही मुक्ति है। मुक्ति की दशा में आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाती है। इस तथ्य को भारतीय दर्शन स्वीकार करते हैं । आत्मा के "आवरणों” को भिन्न नामों द्वारा व्यक्त किया गया है। किन्तु मूल अवधारणा में अंतर नहीं है। आत्मा के आवरण को जैन दर्शन कर्म- पुद्गल, बौद्ध दर्शन तृष्णा एवं वासना, वेदान्त दर्शन अविद्याअज्ञान के कारण माया तथा योग दर्शन प्रकृति के नाम से अभिहित करते हैं ।
आध्यात्मिक दृष्टि से कर्म सिद्धान्त पर बड़ी गहराई से विचार हुआ है उसके सामाजिक सन्दर्भों की प्रासंगिकता पर भी विचार करना अपेक्षित है। आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति माया के कारण अपना प्रकृत स्वभाव भूल जाता है। राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वशीभूत होकर मन, वचन, काय से कर्मों का संचय करता है। जैसे दूध और पानी परस्पर मिल जाते हैं, वैसे ही कर्म पुद्गल के परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार लौह-पिण्ड को अग्नि में डाल देने पर उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा के असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्म वर्गणा के पुद्गल संश्लिष्ट हो जाते हैं।
जीव अनादि काल से संसारी है । दैहिक स्थितियों से जकड़ी हुई आत्मा के क्रियाकलापों में शरीर (पुद्गल) सहायक एवं बाधक होता है। आत्मा का गुण चैतन्य और पुद्गल का गुण अचैतन्य है । आत्मा एवं पुद्गल भिन्न धर्मी हैं फिर भी इनका अनादि प्रवाही संबंध है। आत्मा एवं शरीर के संयोग से "वैभाविक” गुण उत्पन्न होते हैं। ये हैं - पौद्गलिक मन, श्वास-प्रश्वास, आहार, भाषा। ये गुण न तो आत्मा के हैं और न शरीर के हैं। दोनों के संयोग से ही ये उत्पन्न होते हैं। मनुष्य की मृत्यु के समय श्वासप्रश्वास, आहार, एवं भाषा के गुण तो समाप्त हो जाते हैं किन्तु पुद्गल - कर्म के आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाने के कारण एक “पौद्गलिक” शरीर उसके साथ निर्मित हो जाता है जो देहान्तर करते समय उसके साथ रहता है।
आवरणों को हटाकर मुक्त किस प्रकार हुआ जा सकता है ? कर्त्तावादी सम्प्रदाय परमेश्वर के अनुग्रह शक्तिपात, दीक्षा तथा उपाय को इसके हेतु मान लेते हैं। जो दर्शन जीव में ही कर्मों को करने की स्वातंत्र्य शक्ति मानकर जीवात्मा के पुरुषार्थ को स्वीकृति प्रदान करते हैं तथा कर्मानुसार फल प्राप्ति में विश्वास रखते हैं। वे साधना मार्ग तथा साधनों पर विश्वास रखते हैं। कोई शील, समाधि तथा प्रज्ञा का विधान करता है। कोई श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन का उपदेश देता है। जैनदर्शन सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के सम्मिलित रूप को मोक्ष-मार्ग का कारण मानता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/51
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र में कहा है – 'सम्यक्दर्शन- आकर आध्यात्मिक दृष्टि एवं सामाजिक दृष्टि परस्पर ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।'
पूरक हो जाती है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जो कर्म सिद्धान्त में समाज एवं न्याय व्यवस्था पर कर्म करता है वही उसका फल भोगता है। जो जैसा विचार करने के पूर्व पुण्य एवं पाप प्रकृतियों के बंध के कर्म करता है उसके अनुसार वैसा ही कर्मफल भोगता कारण पर दृष्टि डालना समीचीन होगा। जैन दर्शन के है। इसी कारण सभी जीवों में आत्म शक्ति होते हुए अनुसार पुण्य प्रकृतियाँ बंधने के नव प्रकार बताए गये भी वे कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन की नाना हैं- १. अन्न पुण्य – अन्नदान, २. पान पुण्य - पीने गतियों, योनियों, स्थितियों में भिन्नरूप में परिभ्रमित हैं। की वस्तु देने से, ३. वत्थपुण्य - वस्त्र दान, ४. लयन यह कर्म का सामाजिक संदर्भ है। सामाजिक स्तर पर पुण्य - स्थान देने से, ५. शयन पुण्य - शयन स्थान कर्मवाद व्यक्ति के पुरुषार्थ को जाग्रत करता है। यह सुविधा बिछौने आदि, ६. मन पुण्य - मन में शुभ उसे सही मायने में सामाजिक एवं मानवीय बनने की विचारों से, ७. वचन पुण्य - शुभ वचन से, ८. काया प्रेरणा प्रदान करता है। उसमें नैतिकता के संस्कारों को पुण्य – शरीर से शुभ अनुकूल मनोज्ञ करने से, उपजाता है, व्यक्ति को यह विश्वास दिलाता है कि ९. नमस्कार पुण्य - बड़ों को गुरुजनों को, माताअच्छे कर्म का फल अच्छा होता है तथा बुरे कर्म का पिता आदि को नमस्कार करने से।। फल बुरा होता है। राग-द्वेष वाला पापकर्मी जीव संसार शुभ पुण्य कर्मों के फल निम्न प्रकार से बताए में उसी प्रकार पीड़ित होता है जैसे विषम मार्ग पर गए हैं – १. परोपकार से अनायास लक्ष्मी प्राप्त होती चलता हुआ अन्धा व्यक्ति। प्राणी जैसे कर्म करते हैं है। २. सविधा दान से मेधावी होता है। ३. रोगी वृद्ध उनका फल उन्हें उन्हीं के कमों द्वारा स्वतः मिल जाता असक्त जनों की सेवा से शरीर निरोगी व स्वस्थ होता है। कर्म के फल भोग के लिये कर्म और उसके करने है। ४. देव-गुरु-धर्म की विशिष्ट भक्ति से जीव तीर्थंकर वाले के अतिरिक्त किसी तीसरी शक्ति की आवश्यकता प्रकृति का बंध कर सकता है। ५. जीव दया से सुख नहीं है। समान स्थितियों में भी दो व्यक्तियों की भिन्न साधन मिलते हैं। ६. वीतराग संयम से मोक्ष प्राप्ति होती मानसिक प्रतिक्रियाएँ कर्म भेद को स्पष्ट करती हैं। है। इसके विपरीत पाप प्रकृति बांधने के १८ हेतु बताए
__ कर्म वर्गणा के परमाणु लोक में सर्वत्र भरे हैं, गए हैं - १. प्राणातिपात - जीव हिंसा २. मृषावाद हमें कर्म करने ही पडेंगे। शरीर है तो क्रिया भी होगी। - असत्य झूठ ३. अदत्तादान – चोरी ४. मैथुन - क्रिया होगी तो कर्म वर्गणा के परमाणु आत्म प्रदेशों की अब्रह्म ५. परिग्रह ६. क्रोध ७. मान ८. माया ९. लोभ
ओर आकृष्ट होंगे ही। तो क्या हम क्रिया करना बंद १०. राग ११. द्वेष १२. कलह १३. अभ्यास्थान (झूठा कर दें ? क्या ऐसी स्थिति में सामाजिक जीवन चल कलंक) १४. पैशुन्य (चुगली) १५. परपरिवाद - सकता है? महावीर ने इन जिज्ञासाओं का समाधान दूसरों की निंदा/अनुचित टीका टिप्पणी १६. रतिकिया, उन्होंने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के अरति १७. माया मृषावाद १८. मिथ्यादर्शन शल्य। चित्त को बहुत गहरे से प्रभावित किया, उन्होंने लोक अशुभ कर्म व उनके फल निम्न प्रकार बताए के जीव मात्र के उद्धार का वैज्ञानिक मार्ग खोज निकाला। गये हैं -१. हरे वक्षों के काटने-कटाने से व पशु हिंसा उन्होंने संसार में प्रणियों के प्रति आत्मतुल्यता भाव की से संतान नहीं होती है। २. गर्भ गिराने से बांझपन होता जागति का उपदेश दिया। शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों है। ३. कन्द मल या कच्चे फलों को तोडने से गर्भ में पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया। यहाँ ही मृत्यु होती है या अल्पायु होती है। ४. मधुमक्खियों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/52
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
के छत्ते जलाने या तुडाने से या देव-गुरू की निन्दा से करता है तो वह स्वयं भी वैसी प्रताड़ना प्राप्त करेगा, प्राणी अंधे बहरे और गूंगे होते हैं। ५. परस्त्री/परपुरुष व्यक्त-अव्यक्त रूप से ही कर्म सिद्धान्त है। सेवन से पेट में पथरी आदि व्याधियाँ होती हैं। ६. पति
पाप, पुण्य प्रकृतियों के बंध एवं उनके शुभको सता कर कष्ट देने से बाल विधवा होती है। ७. अशभ का फल जानकर व्यक्ति का आचार-विचार नियम लेकर भंग करने से लघुवय में स्त्री, पति वियोग
व्यवहार बहुत कुछ बदलेगा। पुण्य प्रकृति के उदय से होता है। ८. किसी के संतान का वियोग करने से सख शान्ति और समद्धि प्राप्त होगी. समाज में सम्मान लघुवय में माता-पिता की मृत्यु हो जाती है। ९. दम्पत्ति प्राप्त होगा। शुभ कर्मों के शुभ फल तो अवश्य ही प्राप्त में झगड़ा कराने से पति-पत्नी में अशान्ति रहती है। होंगे. उन्हें कभी कोई रोक नहीं सकता। परिवार की
जैनदर्शन के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म प्रकृतियों व्यवस्था कुछ अलग हो सकती है। लेकिन व्यक्ति स्वयं के बंध के उपरोक्त कारण बताए गए हैं, इनको ही ध्यान पाप-पुण्य प्रकृति बन्ध के सिद्धान्त के अनुसार अपनी में रखते हुए हमारे व्यक्ति समाज परिवार के रहन-सहन आचार संहिता निर्धारित कर सकता है। की व्यवस्था एवं नियम निर्धारित किये गए हैं।
समाज की व्यक्ति के बाद दूसरी इकाई परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति है - है। सभी मतों के अनुसार गृहस्थ धर्म सबसे श्रेष्ठ है। उसके बाद परिवार फिर समाज एवं राष्ट्र । सबसे पहिले अगर गृहस्थ धर्म न हो तो संसार ही समाप्त हो जाए। कर्म सिद्धान्त के अनुसार एक व्यक्ति की जीवन व्यवस्था गृहस्थ सभी का पालन पोषण करता है। जिस युग में पर दृष्टि डालना उचित होगा। जैन दर्शन में कर्म एक परिवार व्यवस्था नहीं थी तब घोर अव्यवस्था रही विशिष्ट सिद्धान्त है जो प्रतिपादित करता है कि व्यक्ति होगी, न किसी का कोई पति, न पत्नी, न किसी की को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल स्वतः भोगना ही सन्तान सब तरह से अशान्ति अव्यवस्था रही होगी। पड़ता है और अपने सुख-दुख के लिये वह स्वयं इसी सुव्यवस्था बनाए रखने के लिये परिवार की संरचना जिम्मेदार है अन्य कोई नहीं। कर्म सिद्धान्त व्यक्ति, की गई। स्त्री-पुरुष के विवाह संस्कार निर्धारित किए परिवार के रहन-सहन की प्रक्रिया नियम या दिशा गए। धर्म, देव, गुरुजनों की साक्षी में विवाह सम्पन्न निर्देश नहीं देता। यद्यपि व्यक्ति-परिवार के लिए व्रत किए जाने लगे। सन्तानोत्पत्ति हुई उनके शिक्षा-दीक्षा, नियम-अणुव्रत आदि अलग से निर्धारित किए गए हैं। संस्कार की जिम्मेदारी परिवार जनों पर निर्धारित हुई। एक व्यक्ति अपने आप में स्वतंत्र होता है। पारिवारिक माता-पिता दोनों अपने घर-व्यापार, व्यवसाय आदि बन्धन उसके लिए नहीं होते। विभिन्न धर्मों एवं की जिम्मेदारी निभाने लगे। पहिले बताए गए शुभदर्शनशास्त्रों में मीमांसित कर्म सिद्धान्तों को वह चाहे अशुभ पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार ही गृहस्थों के नियम समझे न समझे लेकिन उसका व्यवहार एवं आचरण निर्धारित किए गए। गृहस्थों को जो नियम लेने होते ऐसा नहीं हो सकता कि वह अन्य व्यक्तियों के कष्ट का हैं उन्हें व्रत कहा जाता है, जो बारह निम्न प्रकार से कारण बन जाए। सामान्य बुद्धिवाला व्यक्ति भी यह हैं - १. पाँच अणुव्रत २. चार शिक्षाव्रत ३. तीन समझता है कि वह दूसरों के सुख का कारण बनकर गुणव्रत। दूसरों से सुख प्राप्ति का कारण बन सकता है, जितना ये बारह श्रावक के व्रत हैं नियम हैं - आचार मान-सम्मान-स्नेह आत्मीयता का भाव वह दूसरों के संहिता है। परिवार समाज की इकाई है, शभ-अशुभ प्रति रखेगा, उसे भी बदले में वैसा ही स्नेह सम्मान कर्मों के शभ-अशभ फल तो प्राप्त होते ही हैं। सामान्य मिलेगा। अगर वह दूसरों का अपमान करता है, प्रताडित रूप से सभी मत वाले न्यूनाधिक इस सिद्धान्त में
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/53
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
विश्वास करते हैं लेकिन फिर भी परिवार को सुचारू होता है। उस समय महावीर की बात बहुत ही क्रांतिकारी रूप से, सुख शान्ति पूर्वक चलाने के लिए कुछ नियम, थी। जन्म से नहीं, श्रेष्ठ कर्म से- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य कुछ व्रत आवश्यक हैं। जैन दर्शन में उपरोक्त १२ व्रत और शूद्र होता है। उन्होंने शूद्रों को भी वह स्थान दिया निर्धारित किए गए हैं। प्रत्येक गृहस्थ श्रावक-श्राविका जो उच्चतम वर्ग के ब्राह्मणों को था। शुभ कर्म करने से को यह नियम लेने चाहिए। गृहस्थ धर्म चूँकि सर्वश्रेष्ठ शूद्र भी ब्राह्मण और उससे भी श्रेष्ठ पद का अधिकारी हो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, सकता है - कर्म की महिमा और श्रेष्ठता बताने वाले मोक्ष का साधन है। अतः इसका सुचारू, निर्द्वन्द और सर्वप्रथम युगान्तकारी महावीर ही थे। सफल रूप में गतिशील रहना भी आवश्यक है और
आज के युग में भी साम्यवादी विचारधारा के इनके नियम भी आवश्यक हैं। सर्वविदित है आज के
निहित सिद्धान्त यही हैं, महावीर सबसे पहले चिन्तक युग में घर परिवार में कितने द्वंद क्लेश हैं जिसकी वजह
साम्यवादी विचारधारक थे। उन्होंने शोषित वर्ग को से परिवार के समस्त सदस्य भयंकर रूप से त्रस्त रहते
शोषण मुक्त समाज में लाने का उपक्रम किया। वहीं हैं, परिवार टूट रहे हैं, बच्चों का जीवन कष्टमय हो रहा है, जितना अधिक क्रोध-मान एवं अन्य कषाय भाव
शोषणमुक्त समाज की चिन्तन धारा महावीर के विचारों बढ़ रहे हैं, परिवार में संताप, तनाव और अंततः
में जन्म ले चुकी थी। फर्क सिर्फ इतना है कि आज का विघटन होता जा रहा है। अगर परिवार के सदस्य पुण्य
साम्यवाद हिंसा नरसंहार में विश्वास करता है जबकि पाप प्रकृति बंध के कारण और उनके प्रभाव को समझेंगे,
महावीर विचारों में परिवर्तन करते थे। वे हिंसात्मक १२ व्रतों के अनुसार अपने आपका आचरण व्यवस्थित
विचारों के बिना स्नेह, अहिंसा, विश्वप्रेम के आदर्शों रखें तो कोई कारण नहीं कि परिवार में क्लेश कष्ट और
से समाज की धारा में परिवर्तन लाए। बहुत कुछ अमंगल हो। अहिंसा-मात्र जीव हिंसा ही नहीं अपितु
परिवर्तन हुआ, आज विश्व में जो शान्ति समभाव है, किसी भी प्राणी के मन को मन-वचन-कर्म से कष्ट देना वह महावीर की ही देन है। संसार सुख-दुख मय ही भी हिंसा है। अतः त्याज्य है। ब्रह्मचर्य स्वपति, पत्नी है। प्रत्येक संसारी जीव के साथ सुख-दुख सर्वदा के सन्तोषव्रत है, स्त्री-पुरुष अपने पति पत्नी के अलावा लिए जुिड़े हुए हैं। कभी सावन के मेघों की तरह सुखों अन्य किसी से भी कुशील संबंध न रखें तो परिवार की की लहर उमड़ती है तो कभी दुखों के झंझावात प्रलय बहुत सी समस्याएँ स्वतः हल हो जाएंगी। इसी प्रकार की तरह आ जाते हैं। क्षणभर में भयंकर दुर्घटनाएं हो अपरिग्रह व्रत है एक सीमा में धन सम्पति रखने से जाती हैं और हँसते खेलते परिवार दु:खों के सागर में व्यक्ति की अनन्त उलझनें लोभ, मोह की प्रवृत्तियाँ कम डूब जाते हैं । युद्ध होते हैं, लाखों मनुष्य काल के गर्त हो जाएगी। असीमित धन, ऐश्वर्य की कामनाएँ मानव में समा जाते हैं उनके परिवारजन जीवन भर दुःखों की को हमेशा अशान्त ही रखेंगी।
त्रासदी झेलते रह जाते हैं। जैन दर्शन में ये व्यवस्थाएँ कर्मफल के सिद्धान्तों विचारणीय है कि क्या ये सब घटनाएँ महज के अनुरूप ही की गई हैं। श्रावक के व्रतों में शुद्ध भोजन संयोग मात्र हैं या अगर ईश्वर है तो उसकी इच्छा से पान, मद्य मांस निषेध, गुरुजनों की विनय, अतिथि ही ये सब महान् नरसंहार व हिंसा होती है। वह स्वयं सेवा आदि बहुत कुछ समाविष्ट हैं जिसके आचरण से अपने मन से या हृदय की सन्तुष्टि के लिये सबको सुखों परिवार सुखी समृद्ध रह सकता है। महावीर ने कहा - के उपहार या दु:खों की आपदाएँ दे देता है। निस्संदेह
'कम्मणा बंम्मणा होई. कम्मणा होई खतिया' ऐसा नहीं होगा। अगर कार्य-कारण पर विचार किया कर्म से ही ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय जाए तो इसी निष्कर्ष पर हम पहुँचेंगे कि प्रत्येक जीव
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/54
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
को सुख - दुःख उपने वर्तमान अथवा पूर्व कर्मों से ही प्राप्त होते हैं। अगर फल भोगते हैं तो यह अपने आप में स्वतः सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था है। सिद्धान्त रूप से फिर किसी न्यास व्यवस्था की आवश्यकता नही रह जाती लेकिन समाज एवं राष्ट्र में अपनी विशेष न्यास व्यवस्था सर्वदा अवश्यंभावी मानी गई है। सभी व्यक्ति परोपकारी, दयालु, धर्मशील नहीं हो सकते और व्यक्ति बिना कुछ पुरुषार्थ के रातों-रात अबिलम्ब प्रभूत धन लाभ करके सांसारिक सुख प्राप्त करना चाहते हैं। उसके लिए सहज उपाय के रूप में चोरी, हिंसा, कपट आदि क रास्ते अपनाने लगते हैं । कभी-कभी उन्हें तत्काल अर्थलाभ हो भी जाता है। वे यह नहीं सोच पाते या विश्वास नहीं कर पाते कि उन्हें अपने अशुभ कर्मों का फल भविष्य में भोगना पड़ेगा। वे प्रत्यक्ष तत्काल अर्थलाभ ही देख पाते हैं। विडंबना यह भी है कि कर्म पुद्गल परमाणु इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे बंधते, फल देते, क्षय होते आँखों से दिखाई नहीं देते। जबकि अर्थ लाभ धन-सम्पत्ति की प्राप्ति दिखाई देती है और उस लाभ को कई प्राणी छोड़ नहीं पाते। ऐसे लोगों के लिए जो असामाजिक हैं, हिंसक, चोर तस्कर हैं ऐसी न्याय व्यवस्था आवश्यक है जो उन्हें उचित दंड दे सके और वे लोग समझ सकें कि अनैतिक कार्यों का फल तत्काल इस रूप में भी उन्हें मिलेगा। प्रत्येक देश की सरकार जिस पर जनता की शांति शासन व्यवस्था उन्हें करनी होती है - पूरा पुलिस, खुफिया सेना, सुरक्षा बल होते हैं। न्यायालय होते हैं जहाँ अपराधों की जाँच होती है और अपराधियों को सजा दी जाती है।
यद्यपि यह सब है सुरक्षा - न्याय व्यवस्था सरकार करती है, लेकिन अनैतिक अशुभ कर्मों का फल तो अपराधी को भोगना ही होता है। वह किसी भी रूप में हो सकता है। अगर एक हिंसा का या चोरी का अपराधी जेल जाता है तो वह भी अशुभ कर्मों का फल ही माना जाएगा, चाहे वह सरकारी या न्यायाधिकारीयों के माध्यम से ही हो। अगर कदाचित् किन्हीं कारणों
से वह जेल की सजा से बच जाता है तब भी वह समाज की नजरों से गिर जाता है, उसका मान-सम्मान समाप्त हो जाता है, सब जगह तिरस्कृत हो जाता है, उसे अपना जीवन पुलिस वालों से भागकर उनकी नजरों से छिपाकर ही गुजारना होता है। जीवन की सुख शान्ति उससे दूर रहती है। यह भी दूसरे प्रकार का अशुभ कर्म फल है
1
कई बार आकस्मिक भयंकर कष्ट कई प्राणियों के जीवन में आते हैं, कभी असाध्य बीमारी जीवन में आती है, कभी व्यापार में घाटा हो जाता है, कभी दुर्घटना में अपंगता हो जाती है, कभी मृत्यु भी हो जाती है, कभी प्रिय परिवारजनों का वियोग हो जसता है, ये सभी बिल्कुल संयोगमात्र नहीं, अतीत के अशुभ कर्मों के फल ही माने जाऐंगे, जो कभी तो तत्काल और कभी लम्बी अवधि के बाद भी फलीभूत हो सकते हैं। कठिनाई यही है कि प्रायः सर्वदा अशुभ कर्म और उनके फल में कार्य कारण भाव स्पष्ट प्रतीत नहीं होता दिखता है। यही कारण है कि संसार में अनिष्ट कर्म हिंसा, चोरी कपट आदि समाप्त नहीं होते तथा लोभ, कषाय भाव संसा प्राणी में न्यूनाधिक अवस्था में सदैव विद्यमान है और रहेगा। लेकिन कर्म एवं उनके फल का सिद्धान्त अटल है और सर्वदा रहेगा ।
O
स्थायी पताः जय - विद्या
प्लाट नं. ६, मंगल विहार विस्तार कासलीवाल पथ, गोपालपुरा बाईपास रोड़ जयपुर - ३०२०१८ ( राजस्थान )
दयालु पुरुषों के कानों की शोभा शास्त्र सुनने से है, कुण्डल पहनने से नहीं । उनके हाथों की शोभा दान करने से है, कंगन पहनने से नहीं। उनके शरीर की शोभा परोपकार करने से है, चन्दन लगाने से नहीं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/55
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
8888888
निज आत्मा ही परम ध्येय
8608
0 महेश चन्द्र चांदवाड़
पूजा करने के लिए मंदिर की आवश्यकता ३. वेदना प्रभाव आर्त्त ध्यान – शरीर की पीड़ा पड़ती है, किन्तु पूज्य बनने के लिए मंदिर की होने पर उसके संबंध में मन में चिन्तन होता रहे, उसे आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार ज्ञानी बनने के लिए वेदना प्रभाव आर्त ध्यान कहते हैं। मात्र शास्त्रों और ग्रन्थों की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान ४. निदान बन्ध आर्त ध्यान - भोगों के विषयों तो आत्मा का धर्म है। अपने परिणामों को निर्मल करें, की चाह संबंधी मन में जो ध्यान होता रहता है. उसे यही धर्म है। जब शुभ कर्म करेंगे, तो देव गति का बंध निदान बन्ध आर्त ध्यान कहते हैं। होगा और अशुभ कर्म करेंगे, तो नरक और तिर्यंच गति ।
रौद्र ध्यान - का बंध होगा। जबकि शुद्धोपयोग से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः निज में निज का रमण यह निर्ग्रन्थ योगी
१. हिंसानन्द रौद्र ध्यान – मन में हिंसा के प्रति की दशा है, अतएव उत्तम क्षमा. मार्दव, आर्जव. ही चिन्तन चलता रहे, उसी में आनन्द मानता रहे, उसे शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और हिसानन्द रौद्र ध्यान कहते है। ब्रह्मचर्य के लिए किसी बाहरी तत्त्व की आवश्यकता २. मृषानन्द रौद्र ध्यान – मन में झूठ के लिए नहीं होती, यह तो जीव का स्वभाव है और यही धर्म ही चिन्तन रहे, उसी में आनन्द मानता रहे, उसे मृषानन्द है। अत: राग, द्वेष और मोह को छोड़कर निज आत्मा रौद्र ध्यान कहते हैं। का ध्यान करना चाहिए।
३. चौर्यानन्द रौद्र ध्यान – चोरी करने में ही ध्यान चार प्रकार के हैं – १. आर्त ध्यान, २. जिसे आनन्द आए और मन में चोरी का ही चिन्तन रहे, रौद्र ध्यान, ३. धर्म ध्यान, ४. शुक्ल ध्यान । इनके भी उसे चौर्यानन्द रौद्र ध्यान कहते हैं। चार-चार भेद हैं।
४. परिग्रहानन्द रौद्र ध्यान - परिग्रह बढ़ाने आर्त ध्यान -
और उसी में आनन्द मानने के चिन्तन को परिग्रहानन्द १. इष्ट वियोगज आर्त ध्यान – इष्ट वस्त के द्रि ध्यान कहते है। वियोग होने पर मन में जो चिन्तन होता है, उसे इष्ट इस प्रकार रौद्र ध्यान से भी मन में शान्ति नहीं वियोगज आर्त ध्यान कहते हैं।
मिलती और यह संसार भ्रमण में ही सहायक होगा। २. अनिष्ट वियोगज आर्त ध्यान - अनिष्ट वस्तु धर्म ध्यान - के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए मन में जो
१. आज्ञा विचय धर्म ध्यान - जिनागम की चिन्तन होता है, उसे अनिष्ट वियोगज आर्त ध्यान आज्ञा से तत्त्वों का चिन्तन हो, उसे आज्ञा विचय धर्म कहते हैं।
ध्यान कहते हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/56
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. अपाय विचय धर्म ध्यान • अपने या पर प्रतिरागादि भाव जो दुःख के मूल हैं, उनके विनाश के लिए मन में चिन्तन हो, उसे अपाय विचय धर्म ध्यान कहते हैं।
३. विपाक विचय धर्म ध्यान - कर्मों के फल के संबंध में संवेगवर्द्धक चिन्तन को विपाक विचय धर्म ध्यान कहते हैं ।
४. संस्थान विचय धर्म ध्यान लोक के आकार, काल आदि के आश्रय से जीव के परिभ्रमणादि विषयक असारता का चिन्तन करना व अरिहन्त, सिद्ध मंत्र पद आदि के आश्रय से तत्त्व चिन्तन करने को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहते हैं ।
इस प्रकार धर्म ध्यान से जीव संसार के दुःखों से मुक्त हो सकता है और परम सुख की प्राप्ति कर सकता है।
-
—
शुक्ल ध्यान
१. पृथकत्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान अर्थ, याशव शब्दों के परिवर्तन सहित जिनवाणी के संबंध में चिन्तन करना पृथकत्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान है।
- एक
२. एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान -1 ही अर्थ में एक ही योग से उन्हीं शब्दों में जिनवाणी के संबंध में चिन्तन करने को एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान कहते हैं ।
-
३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान – सयोग केवली के अंतिम अन्तर्मुहुर्त में जब कि बादर योग भी नष्ट हो जाता है, तब सूक्ष्म काययोग से भी दूर होने के लिए जो योग, उपयोग की स्थिरता होती है, उसे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान कहते हैं ।
४. व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान - समस्त योग नष्ट हो चुकने पर अयोग केवली से यह व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान होता है ।
नहीं है।
इस प्रकार शुक्ल ध्यान पंचम काल में संभव
इस पंचम काल में आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान तो प्रायः लगा ही रहता है और यही पाप का मार्ग है। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में से अभी मात्र धर्म ध्यान का ही अभ्यास किया जा सकता है। इसी से पुण्य बंध होगा और स्वर्ग लोक में जाकर वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्य कुल में जन्म लेकर काल लब्धि होने पर शुक्ल ध्यान करके जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। इसीलिए मानव को विचार करना चाहिए कि वह तो जन्म, जरा और मृत्यु से रहित निरंजन स्वभावी आत्मा है । अत: इस दुर्लभ मानव भव में निज आत्म तत्त्व को समझने का प्रयास करें और संसार की
सभी वस्तुओं को पर समझते हुए अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करें, उसी का ध्यान करें।
अब प्रश्न यह है कि ध्यान किया कैसे जाय ? ध्येय क्या है ? जब तक ध्येय का ज्ञान नहीं होगा तब तक ध्यान किसका किया जाय ?
वास्तव में निश्चय दृष्टि से शुद्धात्मा ही हमारा परम ध्येय है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से पंच परमेष्ठी ध्येय हैं। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - ये पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही विराजते हैं । इसलिए आत्मा ही हमारा परम ध्यान केन्द्र है।
जो रत्नत्रय को धारण करके ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं, वे साधु परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। जो जिनागम के सिद्धान्तों को जानते हैं और वीतराग धर्म की देशना से अन्यों के कल्याण में प्रवृत्त हैं, ऐसे साधु परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। जो मुनियों में श्रेष्ठ हैं, जिन्होंने सांसारिक विषयों को तुच्छ समझ कर छोड़ दिया है और आत्म-कल्याण हेतु शिक्षा-दीक्षा देते हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं और लोकालोक को प्रकाशित कर रहे हैं, ऐसे अरहंत परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। इनके अतिरिक्त
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/57
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर देने व लोक के अग्रभाग में आत्म शक्ति प्रबल करने हेतु सम्पूर्ण इन्द्रियों विराजने वाले परम-पारिणामिक स्वभाव में लीन ज्ञायक की खिड़कियों को बंद करके बैठता है, तब अंतरंग की स्वभावी परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी हमारे परम ध्येय हैं। भाप अंतरंग में उत्पन्न होती है। निज की ऊर्जा निज
जब तक मन में स्थिरता नहीं होगी ध्यान नहीं में उद्धृत होती है। ढक्कन जब भाप से बाहर फिक होगा। मन एक दर्पण है, जैसा चेहरा सामने आता है जाता है, तो कर्मों की राख अपने आप बाहर फिकना प्रतिबिम्ब वैसा ही होता है। मन के सामने जो वस्तु आरंभ हो जाती है। ऐसी स्थिति में बगैर ध्यान के कर्मों आती है, मन उसी ओर उन्मुख हो जाता है। इसलिए की निर्जरा संभव नहीं है। कर्मों की निर्जरा ही मोक्ष का मन को योग की ओर मोडना होगा। भोग-विलास की साक्षात् हेतु है, उसका एकमात्र आलम्बन ध्यान है।
ओर जाते हुए मन पर लगाम लगानी होगी, तब ही ध्यान तो त्रैकालिक है। पहले यह देखना है कि हमारा ध्यान संभव होगा। चित्त की एकाग्रता ध्यान है, संवर- कौन-सा ध्यान चल रहा है। धर्म या शुक्ल ध्यान मोक्ष निर्जरा ध्यान का फल है और उस फल का फल मोक्ष के लिए है। आत और रौद्र ध्यान संसार का हेतु है। है। इसलिए जिनागम में बार-बार ध्यान करने के लिए क्रूरता का नाम रौद्र ध्यान है। हिसानन्दी रौद्र ध्यान में प्रेरित किया गया है।
कृत, कारित, अनुमोदन, मन, वचन, काय, समरंभ, ____ जब तक इन्द्रियों की खिड़की खुली हुई है तब
समारंभ और आरंभ सम्मिलित है। इसी प्रकार अन्य तक निज का चित्र झलकने वाला नहीं है। ये आत्मा
की वस्तु को बिना पूछे उठाना या उपभोग करना का चित्र तभी झलकेगा जब इन्द्रिय-मन की खिड़कियाँ
चौर्यानन्दी रौद्र ध्यान है। आवश्यकता से अधिक वस्तु बंद कर देंगे तभी निश्चय ध्येय की प्राप्ति होगी। अतः
का संग्रह करना परिग्रहानन्दी रौद्र ध्यान है। इष्ट का राग, द्वेष, मोह को छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए।
वियोग होने पर जो आर्त परिणाम होते हैं, वह इष्ट जब तक मोह दूर नहीं होगा, तब तक राग-द्वेष भी नहीं
वियोग आर्त ध्यान है। जो हमें अच्छा लगता है, छूटेगा एवं निज आत्मा का ध्यान नहीं होगा। ध्यान के
उसका संयोग हो जाय तो वह अनिष्ट संयोग आर्त ध्यान पहले ध्याता को, वस्तु और व्यक्ति से दूर हटना होगा।
है। अत: समता भाव से राग-द्वेष-मोह को छोड़कर वस्तु और व्यक्ति जब तक दृष्टि में झलकते रहेंगे तब
निज आत्मा का ध्यान करने पर ही जीवन-मरण के चक्र तक ध्यान की सृष्टि का उद्भव नहीं होगा। अंतरंग
" से मुक्ति प्राप्त हो सकेगी, अन्यथा चौरासी लाख योनियों शक्ति को जाज्वल्यमान करने वाला यदि कोई द्रव्य है. म भटकते रहेगे और कर्म शत्रु हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे। वस्तु है तो वह ध्यान ही है।
० १३३५, किसान मार्ग, बरकत नगर, जयपुर (राज.)
याही नरपिंड में विराजै त्रिभुवन-निधि,
याही में त्रिविध परिणाम रूप सृष्टि है। याही में करम की उपाधि दुख दावानल,
___ याही में समाधि सुख वारिद की वृष्टि है ।। यामें करतार करतूति याही में विभूति,
- यामें भोग याही में वियोग यामें घृष्टि है। याही में विलास सब गर्भित गुप्तरूप,
ताही को प्रगट जाके अन्तर सुदृष्टि है।।३३।। ना.स.
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/58
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शन में लोक की संरचना
जैन दर्शन में कार्तिकेय स्वामी महानाचार्य हुए हैं, उन्होंने कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में लोक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए • लिखा कि लोक शब्द लुक् धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना । जितने क्षेत्र में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । सर्व आकाश अनन्त प्रदेशी है, उसके बहुमध्य में लोक है, यह असंख्यात प्रदेशी है। लोक के मध्य में मेरूपर्वत है । सुमेरू पर्वत के नीचे गौस्तनाकार आठ प्रदेश स्थित हैं। जिस भाग में वे प्रदेश स्थित हैं, वही लोक का मध्य है और जो लोक का मध्य है, वही आकाश का मध्य है, क्योंकि समस्त आकाश के मध्य में लोक स्थित है।
लोक पुरुषाकार है । कोई पुरुष दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथों को कटिप्रदेश के दोनों ओर रखकर यदि खड़ा हो तो उसका जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार लोक का जानना चाहिए। तीनों लोकों में मेरू पर्वत के तल से नीचे सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। मध्यलोक मेरू प्रमाण है। जो तीनों लोकों का माप करता है, उसे मेरू कहते हैं । मध्यलोक की ऊँचाई १ लाख ४० योजन है । मध्यलोक की यह ऊँचाई ऊर्ध्वलोक में सम्मिलित है। अतः ऊर्ध्वलोक की यथार्थ ऊँचाई १ लाख ४० योजन कम सात राजू है। यह मध्यलोक रत्नप्रभा नामक पृथ्वी पर स्थित है। इस पृथ्वी के नीचे शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम एवं महातम प्रभा नामक पृथिवियाँ हैं। सप्तम पृथ्वी के नीचे एक राजू निगोद स्थान है, जिसे कलकल भूमि कहते हैं। ये सभी पृथिवियाँ घनोदधि, घनवात और तनुवात नाम के वातवलयों से वेष्ठित हैं। मेरु के नीचे यह सब सात राजू
लोकेश जैन
क्षेत्र अधोलोक कहलाता है तथा मेरु से ऊपर सौधर्म स्वर्ग के ऋजुविमान के तल से लेकर लोक के शिखर पर्यन्त सात राजू क्षेत्र को ऊर्ध्व लोक कहते हैं। मेरू पर्वत की चूलिका एवं ऋजुविमान में एक बाल मात्र का अन्तर है। सोलह स्वर्ग, नौ ग्रेवेयक, पाँच अनुत्तर तथा सिद्ध शिला ये सब ऊर्ध्व लोक में सम्मिलित हैं। यह लोक नीचे से चौड़ा (वेत्रासन मोटे के आकार का), बीच में झालर जैसा एवं ऊपर मृदंग के समान है । अर्थात् दोनों तरफ सँकरा, बीच में चौड़ा है।
यह लोक अकृत्रिम, अनादि अनन्त एवं स्वभाव से निष्पन्न है। जीव-अजीव द्रव्यों से भरा है, समस्त आकाश का अंग है और नित्य है । अन्य धर्म इसे कछुए की पीठ पर या शेषनाग के फन पर ठहरा हुआ मानते हैं। यह अविनाशी स्वयंसिद्ध एवं अनादि-निधन है । इसका कोई ईश्वर, स्वामी या कर्ता नहीं है।
इस लोक में पापकर्म के फल से जीव अधोलोक में, पुण्यकर्म के फल से ऊर्ध्वलोक में, पुण्य-पाप की समानता होने पर मध्यलोक में एवं दोनों का अभाव होने पर सिद्धलोक का वासी बनता है ।
अधोलोक में रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं। १. खर भाग, २. पंक भाग, ३. अब्बहुल भाग । इनमें खर भाग में असुर कुमार जाति के देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यन्तरवासी देव रहते हैं। पंक भाग में असुर और राक्षसों का निवास है । अब्बहुल भाग में प्रथम नरक का प्रारंभ है। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि सात नरक नीचे-नीचे एक-एक रज्जु प्रमाण आकाश में हैं। इनमें ८४ लाख बिल हैं। इनमें प्रथम नरक में नारकियों की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/59
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंगुल प्रमाण है और आगे बढ़ती हुई सप्तम पृथ्वी में में गंगा-सिन्धु, हैमवत में रोहित-रोहितास्या, हरि में ५०० धनुष ऊँचाई है। प्रथम नरक में जघन्य आयु दस हरित-हरिकान्ता, विदेह में सीता-सीतोदा, रम्यक में हजार एवं उत्कृष्ट एक सागर तथा आगे बढ़ते हुए सप्तम नारी-नरकान्ता, हैरण्यवत में सुवर्णकूला-रूप्यकूला नरक में नारकियों की आयु ३३ सागर प्रमाण है। इन और ऐरावत में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। इनमें नरकों में असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमि में, सरठ दूसरे भरत क्षेत्र का विस्तार ६२६ ६/१९ योजन है तथा नरक में, पक्षी तीसरे नरक में, सर्प चौथे नरक तक, विदेह क्षेत्र पर्यन्त पर्वत और क्षेत्र दूने-दूने विस्तार वाले सिंह पाँचवें नरक तक, स्त्री छठे नरक तक एवं सातवें हैं। विदेह क्षेत्र के उत्तर-दक्षिण में पर्वत एवं क्षेत्र समान नरक तक कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्य एवं मगरमच्छ ही विस्तार वाले हैं। यहाँ बीस कोड़ा-कोड़ी (करोड़ गुणा जा सकते हैं। सातों नरक में आये जीव, बलदेव, करोड़) सागर का एक कल्पकाल होता है। उत्सर्पिणी नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती संज्ञक श्लाका काल में जीवों की आयु, ऊँचाई, बुद्धि आदि की वृद्धि पुरुष नहीं एवं चौथे नरक से आये जीव तीर्थंकर नहीं, एवं अवसर्पिणी में इनकी न्यूनता होती जाती है। पाँचवें नरक से आये जीव चरम शरीरी, छठवे नरक से अवसर्पिणी के छह भेद हैं- सुषमा-सुषमा, सुषमा, आये जीव भावलिंगी मुनि एवं सातवें नरक से आये सषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा, दुषमा-दषमा। जीव श्रावक नहीं होते हैं। इन नरकों में पाँचवी पृथ्वी इसी प्रकार उत्सर्पिणी के छह भेद दुषमा-दुषमा आदि के निचले भाग से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त शीतजन्य भयानक हैं। वर्तमान में दषमा हण्डावसर्पिणी काल चल रहा है। दुःख और पाँचवीं पृथ्वी के ऊपर भाग तक उष्णता का यह असंख्यात कल्पकाल बीतने के बाद आता है।
इसमें अनहोनी घटनाएँ यथा तीर्थंकर तीन पद धारी, अधोलोक के ऊपर आत्मा से परमात्मा बनने तीर्थंकर के पुत्रों में लड़ाई, तीर्थंकर के प्रक्रिया आदि का मार्ग दिखाने वाली मानव पर्याय की सार्थकता को होती है। मध्यलोक में पाँच भरत, पाँच ऐरावत एवं कराने वाला असंख्यात द्वीप व समुद्रों से घिरा हुआ पाँच विदेह कुल १५ कर्मभूमियाँ हैं। भरत-ऐरावत क्षेत्र मध्यलोक है। मध्यलोक में असंख्यात द्वीपों व समुद्रों में प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में भोगभूमि एवं चतुर्थ के बीच जम्बू वृक्ष से चिन्हित थाली के समान गोल आदि काल में कर्मभूमि है। चतुर्थ काल में यहाँ २४
और एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। तीर्थंकर और इनके २४ माता, २४ पिता, २४ कामदेव, इसमें भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत एवं १४ कुलकर, १२ चक्रवर्ती, ११ रुद्र, ९ नारायण, ९ ऐरावत सात क्षेत्र हैं। विदेह क्षेत्र में उत्तर कुरु (जामुन) बलभद्र एवं ९ नारद - ऐसे कुल १६९ महापुरुष होते का वृक्ष है, इसलिए इसका नाम जम्बूद्वीप पड़ा। हैं। यहाँ मात्र चतुर्थ काल में मुक्तिद्वार खुला है।
उन क्षेत्रों का विभाग करने वाले पूर्व से पश्चिम विदेह क्षेत्र में सदा चतुर्थ काल है। यहाँ सदैव लम्बे हिमवत, महाहिमवत, निषध, नील, रुक्मिन, जीव मुक्तिगमन करते रहते हैं। बीस तीर्थंकर शाश्वत
और शिखरिन नाम के ये छह कुलाचल (पर्वत) हैं। पाये जाते हैं। १५ कर्मभूमियों में १७० अयोध्या और उन पर क्रम से पद्म, महापुण्डरीक नाम के तालाब हैं। १७० सम्मेदशिखर हैं। अयोध्या में तीर्थंकरों का जन्म उनमें प्रथम तालाब पर एक योजन विस्तार वाला कमल एवं सम्मेदशिखर में निर्वाण होता है। अभी हण्डा है। तालाब के कमलों पर श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि अवसर्पिणी काल के दोष से तीर्थंकरों का जन्म व एवं लक्ष्मी नाम की देवियाँ निवास करती हैं। उनसे निर्वाण अलग-अलग भूमियों में हुआ है। शेष क्षेत्र नदियाँ निकली हैं। इनमें पहले पद्य एवं छठे पुण्डरीक भोगभूमि कहलाते हैं। से तीन-तीन व शेष से दो-दो नदियाँ निकली हैं । भरत जम्बद्वीप के आगे दूने-दूने विस्तार वाले
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/60
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
असंख्यात समुद्र एवं द्वीप हैं। उनमें ढाई द्वीप - जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र और पुष्करार्ध इतने क्षेत्र को अढाई द्वीप कहते हैं। जिसका विस्तार ४५ लाख योजन है एवं इसी में मनुष्य पाये जाते हैं। इसके आगे नहीं। जहाँ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या आदि छह कर्मों की प्रवृत्ति होती हैं, वे कर्मभूमि कहलाती हैं। ढाई द्वीप में एक मेरू सम्बन्धी ६ भोगभूमि तो ५ मेरू सम्बन्धी ३० भोगभूमियाँ है । यहाँ जीव कल्पवृक्षों के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
आठवाँ द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। जिसमें ५२ अकृत्रिम चैत्यालय हैं। उसके आगे कुण्डलवर द्वीप में ४, रुचकवर द्वीप में ४ - इसप्रकार मध्यलोक में ४५८ अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
पृथ्वी से ७९० योजन से लेकर ११० योजन अर्थात् ९०० योजन पर्यन्त ज्यार्तिलोक है। यहाँ तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध-वृहस्पति-मंगल और शनि के विमान क्रमशः ७९०, १०, ८०, ४, ४, ३, ३, ३, और ३ योजन ऊपर हैं। ढाई द्वीप के ज्योतिषी देव निरंतर मेरू की प्रदक्षिणापूर्वक परिभ्रमण करते हैं। उसी
ढाई द्वीप में घड़ी, घण्टा, प्रहर, दिवस आदि व्यवहार काल होता है। जम्बूद्वीप में २ चन्द्रमा, २ सूर्य, लवणोदधि में ४ चन्द्रमा, ४ सूर्य, धातकी खण्ड में १२ चन्द्रमा, १२ सूर्य, कालोदधि में ४२ चन्द्रमा, ४२ सूर्य और पुष्करार्ध में ७२ चन्द्रमा, ७२ सूर्य हैं। उनमें भरत क्षेत्र से बाहरी भाग में उस चार क्षेत्र में सूर्य के १८४ मार्ग होते हैं। चन्द्रमा के मात्र १५ । जम्बूद्वीप के भीतर कर्क संक्रान्ति के दिन जबकि दक्षिण अयन का आरम्भ होता है, तब निषध पर्वत के ऊपर प्रथम मार्ग में सूर्य प्रथम उदय होता है, तब सूर्य के विमान में स्थित निर्दोष वीतराग जिनेन्द्र की अकृत्रिम प्रतिमा का अयोध्या नगरी में स्थित भरत क्षेत्र का चक्रवर्ती निर्मल सम्यक्त्व अनुराग से अवलोकन कर पुष्पांजलि व अर्ध्य समर्पण करता है
के
1
मध्यलोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है। इसमें सौधर्म ईशान, सनत्कुमार माहेन्द्र, ब्रह्म - ब्रह्मोत्तर, लांतव- कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार- सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत नामक १६ स्वर्ग हैं। वहाँ से नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं। इनमें सौधर्म युगल में ३१, सनत्कुमार युगल में ७, ब्रह्म युगल में ४, लान्तव युगल में २, शुक्र युगल में १, शतार युगल में १, आनत युगल में ३, आरण युगल में ३, प्रत्येक तीनों ग्रैवेयक में ३-३, नव अनुदिशों में एक, पाँच अनुत्तरों में एक ऐसे कुल ६३ पटल
हैं।
इनमें स्वर्ग सम्बन्धी ८४ लाख ९७ हजार २३ विमान हैं। उन विमानों में उतनी ही संख्या में ८४,९७,०२३ प्रमाण सुवर्णमय अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं । १६ स्वर्गों के ऊपर एक रज्जु में नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर विमान हैं। तथा इसी के आगे १२ योजन अन्तर से ४५००००० योजन प्रमाण विस्तार वाली सिद्धशिला है । सिद्धशिला के ऊपर घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक तीन वलय हैं। इनमें तनुवात में लोक के अन्त भाग में केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों सहित ऐसे अनन्त सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं। स्वात्मोलब्धि को प्राप्त, आठ कर्मों से रहित, शान्तरूप निरंजन, नित्य, अष्टगुणों सहित, कृतकृत्य लोकाग्रवासी अनन्त सिद्ध भगवान शुद्ध जीव द्रव्य हैं।
इस जैन दर्शन के अनुसार यह लोक अनादिनिधन, शाश्वत, अकृत्रिम एवं षट्द्रव्यमयी है।
टोंक
३२४ दादू मार्ग, बरकत नगर, फाटक, जयपुर (राज.) ३०२०१५ फोन नं. ०१४१ - २५९२०६४
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/61
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोक्षमार्ग की द्विविधिता
0 पण्डित मूलचंद लुहाड़िया
जैन साहित्य के प्रथम संस्कृत सूत्रग्रंथ मोक्षशास्त्र ने इस प्रकार कहा है - के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र “सम्यग्दर्शनज्ञान सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण शिवमग सो दुविध विचारो। चारित्राणि मोक्षमार्गः” के द्वारा मोक्षमार्ग का वर्णन जो सत्यारथ रूप सो निश्चय कारण सो व्यवहारो॥ किया गया है। यह जीव बँधा हुआ है, परतंत्र है, इसी
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अर्थात् रत्नत्रय की कारण दुःखी है। इस बंधन से मुक्त होने पर सुखी हो
एकतारूप मोक्षमार्ग वस्तुतः एक प्रकार का ही है। दो सकता है, इसलिए मोक्ष (मुक्तअवस्था) प्राप्त करने का
प्रकार के मोक्षमार्ग का प्ररूपण दो अलग-अलग मार्ग पुरुषार्थ ही इस जीव का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।
होने की दृष्टि से नहीं किया गया है, किंतु रत्नत्रय की जीव के भौतिक बंधन यह देह और पुद्गलिक कर्म हैं,
आंशिक एवं पूर्ण अवस्था को दृष्टि में रखकर दो भेदों जो जीव को बलात् देह के बंधन में बाँधे रखकर कर्मों
का प्ररूपण किया गया है। यद्यपि मोक्षमार्ग तो रत्नत्रय के फलों को भोगने के लिए विवश करते हैं।
की एकता के रूप में एक ही है, तथापि सम्यग्दर्शनइन भौतिक बंधनों के मूल कारण अंतरंग बंधन ज्ञान-चारित्र की उत्पत्ति से लेकर पूर्णता को प्राप्त होने वैचारिक बंधन है। उन वैचारिक बंधनों की ओर इस तक के काल में रहने वाले अपूर्ण रत्नत्रय को व्यवहारजीव का प्रायः ध्यान नहीं जाता है। वस्तुतः इस जीव रत्नत्रय या व्यवहार मोक्षमार्ग कहा गया है और रत्नत्रय को भौतिक बंधन भी वैचारिक बंधन के अस्तित्व में की पूर्णता को प्राप्त होने पर तुरंत मोक्ष को प्राप्त करा ही दुःखी कर पाते हैं। वैचारिक असमीचीनता ही देनेवाले पूर्ण रत्नत्रय को निश्चय मोक्षमार्ग बताया गया वैचारिक बंधन है। जीव की अंतरंग अथवा वैचारिक है। व्यवहार और निश्चय एक ही रत्नत्रय की पूर्वोत्तर परिणति श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के रूप में तीन प्रकार अवस्थाएँ हैं। रत्नत्रय के सत्यार्थ रूप को अर्थात उसके की होती है, श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की मिथ्या परिणति पूर्ण रूप को निश्चय मोक्षमार्ग और उस पूर्ण रूप के बंधन है। दुःख का कारण है और श्रद्धा चारित्र की कारणभत अपूर्ण रत्नत्रय को व्यवहार मोक्षमार्ग बताया समीचीन परिणति बंधनमुक्ति (मोक्ष) का कारण है। गया है। इस प्रकार रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग एक होते हुए
आचार्य उमास्वामी महाराज ने मोक्षमार्ग शब्द भी पूर्वोत्तर अवस्थाओं के भेद को दृष्टि में रखकर दो का एक वचनात्मक प्रयोग कर एक ही मोक्षमार्ग है, प्रकार का निरूपण किया गया है। व्यवहार मोक्षमार्ग ऐसा कहा है, किन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने मोक्षमार्ग एवं निश्चय मोक्षमार्ग में साधनसाध्य अथवा कारणको दो प्रकार का बताया है -
कार्य संबंध है। निश्चय रत्नत्रय प्राप्त होते ही तुरंत मोक्ष निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो: द्विधा स्थिता। प्राप्त हो जाता है। यही मोक्षमार्ग का अथवा रत्नत्रय तत्रादौ साध्यरूपं स्याद्वितीयस्तस्य साधनम्॥ का सत्यार्थ या पूर्ण रूप है। इस सत्यार्थ रूप निश्चय इसी बात को छहढालाकार पं. दौलातरामजी या पूर्ण रत्नत्रय की प्राप्ति का कारणभूत वह उत्पत्ति से
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/62
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
लेकर पूर्णता को प्राप्त होने के काल तक पाया जाने २. व्यवहारसम्यग्दर्शन वास्तव में सम्यग्दर्शन वाला व्यवहार रत्नत्रय है। यद्यपि व्यवहार रत्नत्रय से ही नहीं है। तुरंत मोक्ष प्राप्त नहीं होता है तथापि व्यवहार रत्नत्रय ३. शुभराग रूप देशव्रत अथवा महाव्रत धर्म से निश्चय रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय से तुरंत मोक्ष नहीं है। इनको धर्म मानना मिथ्यात्व है। प्राप्त हो जाता है। इसलिए व्यवहार रत्नत्रय भी मोक्ष आगम में व्यवहार-निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञानके साक्षात् कारण का कारण होने से मोक्ष का परम्परा चारित्र का विश्लेषण किया गया है। निश्चय रत्नत्रय कारण कहा जाना चाहिए।
का छहढालाकार ने निम्न प्रकार वर्णन किया। व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को सराग परद्रव्यन” भिन्न आप में रुचि सम्यक्त्व भला है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एवं निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान- आपरूप को जानपनों सो सम्यग्ज्ञान कला है। चारित्र को वीतराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी कहते आपरूप में लीन रहे थिर सम्यकचारित्र सोई। हैं । रत्नत्रय की अपूर्ण दशा में आत्मा में संज्वलनजनित, अब व्यवहार मोक्ष मग सुनिए हेतु नियत को होई।। प्रत्याख्यानावरणजनित अथवा अप्रत्याख्यानावरण परद्रव्यों से भिन्न अपने आत्मतत्त्व के प्रति रुचि जनित रागभाव रहता है, अत: उस समय रागभाव होना निश्चय सम्यग्दर्शन है। अपने आत्मा को जानना सहित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रहते हैं। रत्नत्रय की निश्चय सम्यक् चारित्र है, उक्त निश्चय रत्नत्रय की पर्णता होने पर पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त हो जाती है अतः । प्राप्ति स्वयं की आत्मा में पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त नहीं उस समय का सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र वीतराग नाम होने तक नहीं हो सकती। कुन्दकुन्द के आध्यात्मिक पा जाता है। रत्नत्रय के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार आचार्य श्री जयसेन स्वामी तीन भेद, व्यवहार या सराग दशा में ही अनुभव में आते
ने कहा है कि वीतराग अथवा निश्चय सम्यग्दर्शन हैं, किंतु सम्पूर्ण कषायों के अभाव से उत्पन्न वीतराग
वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। अर्थात् वीतराग
चारित्र के धारक मुनि महाराज को ही वीतराग (निश्चय) दशा प्राप्त हो जाने पर भेद का विकल्प ही अनुभव में
सम्यग्दर्शन होता है। आगे छहढालाकार ने व्यवहार नहीं रहता। अत: वीतराग या निश्चय रत्नत्रय को अभेद
सम्यक्त्व का, जो निश्चय सम्यक्त्व का कारण है, रत्नत्रय एवं सराग या व्यवहार रत्नत्रय को भेद रत्नत्रय
स्वरूप बताते हुए बताया है कि सात तत्त्वों के समीचीन भी कहते हैं।
स्वरूप की श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है। व्यवहार इस प्रकार जिनागम में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्यग्दर्शन के साथ अनंतानुबंधी कषाय के अनुदय के रूप एक ही मोक्षमार्ग का अनेकांत का सहारा लेकर कारण होनेवाले स्थूल सदाचरण के रूप में सम्यक्त्वाव्यवहार-निश्चय, सराग-वीतराग, भेद-अभेद, कारण- चरण भी प्रकट होता है। अप्रत्याख्यानावरण एवं कार्य के रूप में दो रूप वर्णन किया गया है। प्रत्याख्यानावरण कषायों के क्षयोपशम से क्रमश: पाँच
पापों के सर्वथा त्यागरूप महाव्रत, गुप्ति, समिति आदि कुछ स्वाध्याय शील सज्जन जिनागम के
प्रकट होते हैं, जिन्हें व्यवहार सम्यक्त्वचारित्र कहा उपर्युक्त अनेकांतात्मक उल्लेखों की अनदेखी करते
जाता है। व्यवहार रत्नत्रय की चरमदशा में वीतराग हुए अपनी एकांत धारणाओं को पुष्ट करते हुए निम्न अवस्था में, निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है जो शीघ्र धारणाएँ रखते हैं -
मोक्ष को प्राप्त करा देता है। १. निश्चय सम्यग्दर्शन पहले होता है, व्यवहार सम्यग्दर्शन बाद में होता है।
- जिनभाषित से साभार
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/63
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शन का पुनरावलोकन
डॉ. नारायणलाल कछारा
जीवन और जगत के प्रति जिज्ञासा मानव मन खोज ही जीवन का लक्ष्य माना गया है । जैन दर्शन में प्रारंभ से रही है । इस जिज्ञासा ने मानव चिंतन को में आत्मा को स्वतंत्र तत्व माना गया है और अन्य सत्य की खोज करने हेतु प्रेरणा प्रदान की । सत्यपरक दर्शनों में आत्मा को परम शक्ति ईश्वर या ब्रह्म का अंश इस चिंतन को दर्शन कहा गया है । जीवन और जगत माना गया है । इस प्रकार की अवधारणा भेद इस लक्ष्य के गंभीर रहस्य को समझना दर्शन की अपनी विशेषता को प्रभावित नहीं करता कि जीवन का लक्ष्य आत्महै। मानव-बुद्धि का जितना भी चिंतन है वह सभी दर्शन परिष्कार और आत्म कल्याण ही है। परन्तु जैन दर्शन के अन्तर्गत आता है । फिर भी व्यवहारिक दृष्टि से इस अन्य दर्शनों से इस दृष्टि से भिन्न है कि जैन दर्शन में चिंतन के भेद किये गये हैं। जीवन प्रधान चिंतन को आत्म-परिष्कार का समस्त पुरुषार्थ जीव को स्वयं ही दर्शन कहा गया है और भौतिक जगत प्रधान चिंतन को करना होता है कोई अन्य शक्ति उसकी सहायता नहीं विज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान का व्यावहारिक वर्गीकरण कर सकती, जबकि अन्य दर्शनों में ईश्वर या देव की है, वस्तुतः विज्ञान को दर्शन से पृथक नहीं किया जा कृपा भी जीव को सहायता कर सकती है । जीवात्मा सकता क्योंकि जीवन का संबंध जगत से भी है। की स्वतंत्र सत्ता की मान्यता ने जैन दर्शन को वैज्ञानिक अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से विज्ञान ने विश्व को स्वरूप प्रदान किया और जीव के समस्त व्यवहार को तीन भागों में विभक्त किया है । भौतिक (Physi- कार्य कारणवाद के आधार पर व्याख्यायित किया गया cal), प्राण संबंधी (Biological) और मानसिक है। यह विशिष्टता जैन दर्शन को एक अलग श्रेणी में (Mental)। इन तीनों शाखाओं का ज्ञान ही आधुनिक खडा करती है । विगत तीन-चार सदी में विज्ञान ने विज्ञान का क्षेत्र है।
अभूतपूर्व प्रगति की है और विश्व के बारे में नवीन ज्ञान विश्व में दर्शन का जो विकास हुआ है उनमें प्रस्तुत किया है । यह नवीन ज्ञान, दर्शन के सम्मुख कुछ जीवन प्रधान हैं और कुछ में दोनों जीवन और चुनौती और अवसर दोनों ही प्रस्तुत करता है । चुनौती जगत संबंधी चिंतन का समावेश है । प्राचीन दर्शनों में इसलिए कि दर्शन को इस वैज्ञानिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य भारतीय और यूनानी दर्शन आते हैं, यूरोपीय और में भी अपने को प्रमाणित करना होगा और अवसर पाश्चात्य दर्शन का विकास लगभग आधुनिक विज्ञान इसलिए कि वैज्ञानिक ज्ञान की सहायता से पूर्व के विकास के साथ-साथ हुआ है और अतः उसमें मान्यताओं की नवीन व्याख्या की जा सकती है । जैन विज्ञान का प्रभाव स्पष्ट देखा जाता है। भारतीय और दर्शन के क्षेत्र में हाल ही में कछ ऐसे अध्ययन किए यूनानी दर्शन में भी वैज्ञानिक चिंतन का प्रवेश है परन्तु गये हैं जो जैन दर्शन की वैज्ञानिक श्रेष्ठता सिद्ध करने इसका प्रभाव सर्वत्र एक सा नहीं है। भारतीय दर्शन में सहायता करते हैं। प्रस्तत लेख में पहले विश्व के की एक विशिष्टता यह रही है कि सभी दर्शनों ने प्रमुख दर्शनों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है और फिर (चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त) परोक्ष या अपरोक्ष रूप जैन दर्शन की विशेषताओं का वैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत से आत्म तत्त्व को मान्यता प्रदान की है। आत्मा की किया गया है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/64
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय दर्शन -
मानता है। उसमें कार्य-कारणवाद का विश्लेषण बड़े भारतीय दर्शन की विचारधारा मल रूप में विस्तार के साथ किया गया है । मूल में सांख्यदर्शन एक होने पर भी विकास की दृष्टि से उसको दो भागों परिणामवादी है । योगदर्शन मनोवैज्ञानिक पद्धति से में विभक्त किया गया है - वैदिक विचारधारा और चित्त की वृतियों का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत करता है। अवैदिक (श्रमण) विचारधारा । दसरे शब्दों में कहें तो पतंजलि के पूर्व भी भारत में योग-विद्या थी। किन्तु पोथीवादी विचारधारा और अनभववादी विचारधारा। पतंजलि के योग-सूत्र में तथा व्यास-भाष्य में जो सैनिक प दों को अलग और पता विश्लेषण उपलब्ध होता है वैसा विश्लेषण पूर्व के ग्रंथों मानती है. साथ ही वेद को अनादि भी स्वीकार करती में नहीं मिलता । पंतजलि ने यम, नियम, आसन, है (जैन और बौद्धदर्शन ने वेद को पौरूषेय माना है) प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग - यह पोथीवादी विचारधारा है । दसरी अनभववादी के ये आठ अंग बताये हैं । इन्हीं का विस्तार के साथ विचारधारा है । जैन दर्शन के जिन और बौद्धदर्शन के योग दर्शन में वर्णन है। बुद्ध ने जो स्वयं अनुभव किया, उस अनुभूति की गौतम ऋषि ने प्रमाण और प्रमेय का न्यायअभिव्यक्ति ही जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन है। सूत्र में मुख्य रूप से वर्णन किया है । प्रमाण-शास्त्र, चार्वाकदर्शन भी प्रत्यक्ष अनुभव को महत्व देता है। ईश्वरवाद, और सृष्टि-कतृत्ववाद, ये न्यायदर्शन की पाश्चात्य दार्शनिकों ने भारतीयदर्शन का विभाजन दूसरे विशेषता है । कणाद ऋषि ने वैशेषिकदर्शन में सप्त पदार्थो प्रकार से भी किया है । आस्तिकदर्शन और नास्तिक का विस्तार के साथ विश्लेषण कर पदार्थ विद्या को दर्शन । आस्तिकदर्शन में वेद से संबंधित उपनिषद् और भारतीय दर्शन में एक गौरवमय स्थान प्रदान किया है गीता के साथ ही सांख्य और योग, वैशेषिक और प्रमाण के संबंध में जितना विश्लेषण वैशेषिक दर्शनकार न्यायदर्शन एवं पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा दर्शनों ने किया है, उतना प्रमेय के संबंध में नहीं । वैशैषिकदर्शन . का समावेश किया गया है। नास्तिक दर्शनों में चार्वाक, में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और जैन और बौद्धदर्शनों का समावेश किया है। अभाव इन सात पदार्थो का विश्लेषण है। न्याय और
भारतीय दर्शन का प्रारम्भ वैदिक युग से माना वैशेषिक दोनों दर्शनों में अपवर्ग और मोक्ष को माना गया जाता है । उस युग का मानव यह जानना चाहता था है। इन पदार्थ और प्रमेयों के ज्ञान से अज्ञान नष्ट हो जाता कि सूर्य, चन्द्र, आकाश, जल और पृथ्वी आदि क्या है और आत्मा मुक्त हो जाता है । है ? वेदों के पश्चात् उपनिषद् युग आता है । इस युग मीमांसादर्शन और वेदान्तदर्शन ये दोनों दर्शन में मानव बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाता है । वैदिक वेदों से संबंधित हैं । वेदों के कर्म-काण्ड का निरूपण काल में विश्व के मूल कारण की अन्वेषणा भौतिक मीमांसादर्शन में और वेदों के ज्ञान-काण्ड का निरूपण वस्तुओं से प्रारम्भ हुई थी । वह उपनिषद् काल में वेदान्त-दर्शन में मिलता है। जैमिनि ने मीमांसासूत्र की आत्मा और ब्रह्मा तक पहुँच गई । उपनिषदर्शन के रचना की और वादरायण ने वेदान्तसत्र की। मीमांसादर्शन अन्त में महाकाव्य काल आता है । उस युग का सबसे का मूल आधार वेद विहित कर्म, यज्ञ एवं याग है । श्रेष्ठ ग्रंथ गीता है । गीता में ज्ञान-योग, कर्म-योग और वेदान्तदर्शन का मूल आधार ब्रह्म और माया है । बह्मा भक्ति-योग का सुन्दर समन्वय है । भारतीय दर्शनों में के साथ जहाँ तक माया का संबंध है, वहाँ तक संसार चार्वाक दर्शन एकान्त रूप से भौतिकवादी दर्शन है। है। ब्रह्मा के अतिरिक्त इस संसार में जो कुछ भी है,
__सांख्य और योग ये दोनों दर्शन एक-दूसरे के वह मिथ्या है । वेदान्तदर्शन की यों तो अनेक शाखाएं पूरक हैं । सांख्य दर्शन का सृष्टि-विज्ञान बहुत प्रसिद्ध और उपशाखाएं हैं किन्तु आचार्य शंकर के पश्चात् वह है। वह प्रत्यक्ष, अनुमान और शक्य प्रमाण को प्रमाण अद्वेत वेदान्त के नाम से अधिक विश्रुत हुआ ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/65
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय ४०० तक मानते है । यूनानी दार्शनिकों की जिज्ञासा का दर्शनों ने आत्मा को माना है और आत्म-तत्व की मूल लक्ष्य था – उस सत्य-तथ्य की अन्वेषणा करना अपनी-अपनी दृष्टि से सिद्धी भी की है । आत्मा की जिससे विश्व की सभी वस्तुएं निर्मित हुई हैं। यूनानीदर्शन सत्ता के संबंध में मतभेद नहीं है, हाँ आत्मा के स्वरूप में प्रमुख रूप से दो परम्पराएँ हैं -- सुकरात से पूर्व और के संबंध में अवश्य ही विचार-भेद रहा है । आत्म- · सुकरात से ऊतर । सुकरात से पूर्व यूनान में चार महान् तत्व के साथ कर्मवाद और परलोक की मान्यता जुड़ी दार्शनिक थे-भौतिकवादी थेल, बुद्धिवादी पाइथोगोरस, हुई है । चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों ने परिवर्तनवादी हेराक्लित और सोफीवाद | पाइथेगोरस कर्मवाद और परलोक को माना है । बौद्धदर्शन ने दार्शनिक के साथ बहुत बड़ा गणितज्ञ भी था। उसे आत्मा आत्मा को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना है । रूप, वेदना, की अमरता पर, कर्मो के फल पर और पुनर्जन्म के सिद्धान्त संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कंधों के समुदाय पर विश्वास था। पाइथोगोरस भारत में भी आया था और का नाम आत्मा है । प्रत्येक आत्मा नाम रूपात्मक जैन धर्म के सिद्धान्तों से अत्यधिक प्रभावित हुआ था है । यहाँ रूप से तात्पर्य शरीर के भौतिक भाग से है । परिवर्तनवादी हेराक्लित महावीर और बुद्ध के समय
और नाम से तात्पर्य मानसिक प्रवतियों से है। वेदना, हुए थे। उनका मानना था कि जीवन परिवर्तनशील है संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये नाम के भेद हैं । इन पाँच और जगत की प्रत्येक वस्तु प्रतिपल -प्रतिक्षण परिवर्तित स्कंधों की परंपरा निरन्तर चलती रहती है, अतः आत्मा होती रहती है । हेराक्लित का परिवर्तनवाद बुद्ध के के अभाव में भी जन्म, मरण और परलोक की व्यवस्था क्षणिकवाद और जैन दर्शन की पर्याय दृष्टि से मिलताबन जाती है।
जुलता है। सोफी सन्त का सिद्धान्त था कि सत्य के दो भारत में वेदान्त दर्शन का चरम विकास मध्य
भेद हैं - रूढ़ि और वास्तविक । रूढ़ि सत्य की अपेक्षा युग में हुआ । उसके पश्चात् भक्त संप्रदायों ने जन्म
वास्तविक सत्य श्रेष्ठ हैं । उसे प्राप्त करना ही एक मात्र
मानव-जीवन का लक्ष्य है । ये विचार वेदान्त के सत्ता लिया जिससे भारतीय दर्शन कर्मयोगी और ज्ञानयोगी न रहकर भक्तिवादी दर्शन हो गया । मुस्लिम शासकों
के व्यवहारिक सत्ता और पारमार्थिकसकता, बुद्ध के के निरन्तर प्रहारो से हमारे दर्शन में नया मोड़ आया ।
संवृतिसत्य और परमार्थ सत्य और जैनदर्शन के
व्यवहारनय और निश्चयनय से मिलते जुलते हैं। सुकरात संत कबीर ने चौदहवीं शताब्दी में सगुण पूजा का
ने यूनान में सर्वप्रथम यह उद्घोषणा की कि विज्ञान ही विरोध कर निर्गुण उपासना को महत्व दिया । इसका
धर्म है अर्थात् जो कुछ भी विचार है वही आचार है। प्रभाव जैन परंपरा पर भी पड़ा और वीर लोंकाशाह ने
प्लेटो सुकरात का शिष्य था । उसका अभिमत था कि मूर्ति-पूजा के विरोध में स्वर बुलंद किया । उसी के
जब तक राज्य के शासनसूत्र दार्शनिकों के हाथों में नहीं परिणामस्परूप स्थानकवासी संप्रदाय का जन्म हुआ।
आयेंगे तब तक समाज और राष्ट्र से अन्याय और अनीति सौराष्ट्र के स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी मूर्ति-पूजा का
दूर नहीं हो सकेगी। इसी विचार के आधार पर प्लेटो विरोध किया जिसके फलस्वरूप आर्य समाज संस्था
ने युटोपिया की कल्पना की । जिसका तात्पर्य था, का प्रादुर्भाव हुआ । स्वामी विवेकानंद ने व्यवहारिक
दार्शनिकों का राज्य । प्लेटो का शिष्य अरस्तु दर्शन को प्रस्तुत किया । पं. श्रीराम शर्मा ने वैज्ञानिक
था । वह सुकरात की तरह यथार्थवादी नहीं था और न अध्यात्मवाद का प्रतिपादन किया ।
प्लेटो के समान बुद्धिवादी ही, किन्तु वह वस्तुवादी था। विश्व के अन्य दर्शन -
वह दार्शनिक कम किन्तु वैज्ञानिक अधिक था । अरस्तु यूनानीदर्शन भी विश्व का एक प्राचीन दर्शन के पश्चात् यूनानी दर्शन की गति शिथिल हो गई। है। इतिहासकार यूनानीदर्शन का प्रारंभ ई.पू. ७०० से हजरत मुहम्मद के जन्म से पहले अरब में
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/66
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीन देवियां उपास्य थी। हजरत मुहम्मद ने कुरान का विभक्त कर सकते हैं - (१) विज्ञानवाद, (२) निर्माण किया और इस्लाम धर्म का प्रतिपादन सन्देहवाद, (३) भौतिकवाद, (४) मार्क्सवाद । किया । जब इस्लामिक दुनिया अरब से बाहर निकलने जैन दर्शन - लगी, तब उन लोगों को यह अनुभव होने लगा कि
__जैन दर्शन का प्रमुख उद्देश्य है - आत्मा उनके विचारों में और अन्य लोगों के विचारों में विषमता
दुःख से मुक्त होकर अनन्त सुख की ओर बढ़े । जीव है। परिणामस्वरूप अरबी धर्म में अन्य नवीन सम्प्रदायों
और पुद्गल इन दोनों का संबंध अनन्त काल से चला का जन्म हुआ-मोतजला सम्प्रदाय, करामी सम्प्रदाय
आ रहा है। पुद्गलों के बाय संयोग से ही जीव विविध और अशअरी सम्प्रदाय । मोतजला सम्प्रदाय से पहले जितने भी अरबी विचार हैं, उनमें तर्क को कहीं भी
प्रकार के कष्टों का अनुभव करता है । जीव और पुद्गल
का जब तक संबंध विच्छेद नहीं होगा, तब तक अवकाश नहीं है । केवल श्रद्धा की ही प्रमुखता है ।
आध्यात्मिक सुख सम्भव नहीं है । जीव और पुद्गल इसलिए इन्हें दर्शन की अपेक्षा धर्म कहना अधिक
दोनों पृथक कैसे हो सकते हैं ? इसके लिए सम्यक्दर्शन, तर्कसंगत है । विश्वासवादी अरबी धर्म में मोतजला
सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मार्ग प्रस्तुत किया सम्प्रदाय ने तर्क प्रविष्ट किया ।
है। अहिंसा और अनेकांत जैनदर्शन के मुख्य सिद्धान्त सूफी (यूनान का सोफी) सम्प्रदाय का प्रारंभ हैं। विचार में अनेकांत और व्यवहार में अहिंसा आने ७५० ईस्वी के आस-पास माना जाता है । इस्लामिक से जीवन सुखी और शांत होता है। आत्मवाद, कर्मवाद, सूफीवाद नवीन अफलातूनी रहस्यवादीदर्शन तथा नयवाद, निक्षेपवाद, प्रमाणवाद, सप्तभंगी, अनेकांतवाद भारतीय योग-दर्शन का सम्मिश्रण है । सूफी दर्शन के आदि जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्त हैं। अनुसार इन्सान खुदा का ही एक अंश है । खुदा में ही
जैन दर्शन में जीव और पुद्गल दोनों पर गहन लीन होना इन्सान के जीवन का लक्ष्य है। ये विचार
चिंतन हुआ है। जीवन और जगत के रहस्यों को गहराई आचार्य शंकर के अद्वैतवाद से मिलते-जुलते हैं ।
से समझा गया है और दोनों के परस्पर संबंधों को वस्तुतः सूफी सम्प्रदाय धार्मिक की अपेक्षा दार्शनिक
उजागर किया गया है। जितना सूक्ष्म अध्ययन जीवन अधिक है।
तत्वों का हुआ है उतना ही सूक्ष्म अध्ययन भौतिक भारतीय और यूनानी दर्शन के समान यूरोपीय तत्वों का भी हआ है। लोक की संरचना के बारे में दर्शन में तत्व की मीमांसा उतनी नहीं है जितनी प्रमाण- जो चिंतन जैन दर्शन में हुआ है वह मौलिक है। अपने मीमांसा है । एतदर्थ उसे दर्शन की अपेक्षा विज्ञान और विशिष्ट स्वभाव के होते हए भी अनेकांत सिद्धान्त के तर्कशास्त्र कहना अधिक उपयुक्त है । कुछ चिन्तकों द्वारा जैन दर्शन अन्य दर्शनों के प्रति समन्वयवादी ने तत्व पर भी लिखा है पर तर्क और विज्ञान की अपेक्षा दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। अपनी इन विशिष्टताओं के अल्पमात्रा में लिखा गया है । अरबी दर्शन के समान कारण जैन दर्शन विश्व के अन्य सभी दर्शनो से श्रेष्ठ इसाई दर्शन भी पहले एक सम्प्रदाय विशेष था, दर्शन सिद्ध होता है। जैन दर्शन की विशेषताओं का संक्षिप्त नहीं। यहूदी और ईसाई परस्पर अपनी श्रेष्ठता व ज्येष्ठता परिचय नीचे दिया जा रहा है। प्रमाणित करने के लिए संघर्ष करते रहे । चर्च धर्मस्थान
१. अध्यात्मवाद - की जगह संघर्ष के केन्द्र हो गये थे। इस दयनीय अवस्था को देखकर कुछ विचारकों ने धर्म की छाया . जन
जैन दर्शन में आत्मा की स्पष्ट अवधारणा में पलते हए अंधविश्वासों का घोर विरोध किया। श्रद्धा है। आत्मा को एक अजर, अमर, अनंत शक्ति संपन्न, के स्थान पर तर्क को महत्व दिया। यहीं से यरोपीय अनंत ज्ञान-दर्शन युक्त चेतन सत्ता माना गया है । दर्शन प्रारम्भ होता है । यूरोपीय दर्शन को चार युगों में पुद्गल के संयोग से जीवात्मा लोक में विभिन्न पर्याय
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/67
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
में परिभ्रमण करती है । सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और यह वैज्ञानिक स्वरूप जैन दर्शन को अन्य दर्शनों की सम्यक् चारित्र के बल से पुद्गलों को पृथक कर जीवात्मा तुलना में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है । मुक्त होकर परमात्म अवस्था प्राप्त कर सकती है । मुक्त जैन दर्शन आत्म परिष्कार का एक वैज्ञानिक अवस्था में भी आत्मा अपना अस्तित्व बनाये रखती आधार प्रस्तुत करता है। जिस प्रकार योग और कषाय है और अनंत सुख, अनंतज्ञान और अनंत वीर्य का बोध के प्रभाव से जीवात्मा के कर्म बंध होता है उसी प्रकार करती है। अशद्ध अवस्था में जीवात्मा पुद्गल के प्रभाव शभ योग और कषाय रहित व्यवहार से बंध-कर्मो को से पर्याय परिवर्तन करती रहती है और इस प्रकार जन्म
जीवात्मा से पृथक किया जा सकता है। ऐसा व्यवहार मरण के चक्र से युक्त होती है । अपने कमो के अनुसार ही आत्म-साधना कहा जाता है। महापुरूषों ने आत्मजीवात्मा मध्य लोक, उर्ध्वलोक या अधोलोक में जन्म
साधना की विधियाँ खोज निकाली है जिनको अपनाने लेती है और अपने पुरुषार्थ से उपयोग के द्वारा भावी
से कोई भी जीवात्मा संचित कर्मो का क्षय कर सकता जीवन का निर्माण करती है । जैन दर्शन को नास्तिक है और कर्म बंध से मक्त हो सकता है। कर्म क्षय की दर्शन कहना सत्य से परे है । जैन दर्शन ने सृष्टिकर्ता
प्रक्रिया उतनी ही वैज्ञानिक है जितनी कर्म बंध की । के रूप में किसी ईश्वरीय शक्ति को मान्यता तो नहीं
घाति कर्मो के क्षय से जीवात्मा केवल ज्ञानी हो जाता दी परन्तु यह स्पष्ट अवधारणा प्रस्तुत की कि कोई भी
है और अघाति कर्मो के भी क्षय होने पर जीवात्मा मुक्त जीवात्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा अवस्था प्राप्त कर होकर सिद्ध परमात्मा बन जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान सकती है । आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त और
भी अब आत्म चेतना की पुष्टि करता है और विज्ञान परमात्मा की मान्यता के होते हुए जैन दर्शन को आस्तिक
भी इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है । दर्शन ही कहा जा सकता है, नास्तिक नहीं।
२. लोक की सृष्टि में आधारभूत अमूर्तिक द्रव्य - कर्म सिद्धान्त की मान्यता जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय दर्शन में भी है परन्तु कर्म
जैन दर्शन में लोक को षद्रव्यों से बना माना सिद्धान्त का जो वैज्ञानिक स्परूप जैन दर्शन में प्राप्त गया है - धर्मास्तिकाय (धर्म) अधर्मास्तिकाय (अधर्म) होता है वह अन्य दर्शनों में नहीं होता । जैन दर्शन के जीव, पुद्गल (अजीव) आकाश और काल । धर्म, अनुसार योग और कषाय के प्रभाव से जीवात्मा लोक अधर्म, आकाश और काल अमूर्तिक द्रव्य हैं परन्तु में व्याप्त पुद्गल कर्म वर्गणाओं को आकर्षित करता है लोक रचना में आवश्यक हैं । धर्म गति सहायक द्रव्य
और योग और कषाय की प्रवृत्ति के अनुसार ये कर्म है और अधर्म स्थिति सहायक द्रव्य है । ये द्रव्य जैन वर्गणाएं कर्म बंध के रूप में जीवात्मा से श्लिष्ट हो जाती दर्शन की मौलिक देन हैं जो विश्व के किसी अन्य दर्शन हैं। ये बंध कर्म ही जीवात्मा के व्यवहार को नियंत्रित में नहीं है। धर्म और अधर्म की परिकल्पना जैन दार्शनिकों करते हैं और जीवात्मा उनके प्रभाव से विभिन्न योनियों के सूक्ष्म चिंतन का परिचायक है। धर्म द्रव्य का इथर में भ्रमण करता है। बंध कर्म जीवात्मा के कार्मण शरीर के रूप में विज्ञान द्वारा मान्यता दी गई थी परन्तु इस की रचना करते हैं जो सक्ष्म रूप में सदा जीवात्मा के विषय पर वैज्ञानिक और दार्शनिक अभी एकमत नहीं साथ बना रहता है । सम्यक पुरुषार्थ से कर्मों का क्षय है। आकाश और काल की मान्यता भी जैन दर्शन की होने पर ही कार्मण शरीर जीवात्मा से पृथक होता है विशिष्ट अवधारणा है।
और तब जीवात्मा मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है आकाश एक अनंत, शाश्वत, अमूर्तिक द्रव्य । नवीन वैज्ञानिक शोध से भी कार्मण शरीर की अवस्थिति है जो लोक के अन्य सभी द्रव्यों का अवगाहना प्रदान सिद्ध होती है और इस प्रकार कर्म सिद्धांत वैज्ञानिक करता है । आकाश के जिस भाग में अन्य पांच द्रव्य धरातल पर प्रमाणित हो जाता है । कर्म सिद्धान्त का रहते हैं उसे लोक कहा गया है । यह लोक विशाल होते
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/68
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
हुए भी अनंत आकाश में एक छोटे बिन्दु के समान है अर्थात् लोक से परे अनंत आकाश का विस्तार माना गया है। जैन दर्शन में लोक का एक निश्चित आकार और घनफल माना गया है। यह अवधारणा भी जैन दर्शन की मौलिक देन है । कालद्रव्य के दो भेद हैं - निश्चयकाल और व्यवहार काल या समय । निश्चय काल अन्य द्रव्यों को परिणमन में उदासीन सहायक है और व्यवहार काल या समय परिणमन की सूचना देता है । व्यवहार काल की स्थिति लोक के एक सीमित क्षेत्र में ही मानी गई है परन्तु निश्चयकाल लोक में सर्वत्र विद्यमान है । काल की यह अवधारणा भी जैन दर्शन की विशेषता है ।
३. जीव विज्ञान
-
जैन दर्शन अनुसार जीवों की श्रेणी हैं स्थावर और त्रस । स्थावर जीवों में हलन चलन की क्षमता नहीं होती और त्रस जीव हलन चलन की क्षमता से युक्त होते हैं । त्रस जीव इस क्षमता से अपनी सुरक्षा करने में सक्षम होते हैं और आहार आदि आवश्यकताओं के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान गति कर सकते हैं । स्थावर जीव पांच प्रकार के हैं। जलकाय, वायुकाय, पृथ्वीकाय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय । प्रथम चार प्रकार के जीव इतने सूक्ष्म है कि वे केवल केवलज्ञानगम्य हैं और अप्रतिघाती हैं । वनस्पतिकाय जीव तृण, हरित, लता, पोधे, वृक्ष आदि रूपों में पाए जाते हैं। वनस्पति को जैन दर्शन
--
प्रारम्भ से ही जीव माना गया जो बाद में विज्ञान द्वारा भी प्रमाणित किया गया। स्थावर जीवों में केवल एक ही इन्द्रिय संज्ञा स्पर्श रूप में पाई जाती है। विज्ञान
भी वायरस के रूप में सूक्ष्म जीवों की खोज की है और कुछ वायरस प्रजाति के जीवों को पादप की श्रेणी में रखा है। यह जैन दर्शन की अवधारणा जहाँ सूक्ष्म निगोदिया जीवों को वनस्पति की श्रेणी में रखा गया है कि वैज्ञानिक पुष्टि करता है ।
त्रस जीव द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुद्रिय और पंचेन्द्रिय होते हैं । यह जीव विकास का एक क्रम है
जिसमें क्रमशः रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय का विकास होता है। पंचेन्द्रिय जीवों का और आगे विकास होने पर मन के रूप में संकल्प-विकल्प की क्षमता प्राप्त हो जाती है। विज्ञान ने भी जीव विकास के क्षेत्र में बहुत अनुसंधान किया है। डारविन ने जीवविकास के लिए स्वाभाविक वरण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार एक कोशीय जीव अमीबा से प्रारम्भ होकर हाइड्रा, मछली, मेंढक, सर्पणशील पक्षी, स्तनधारी जीव आदि के विकास पथ से बात बंदर तक पहुँची और फिर वही बंदर प्रागेतिहासिक मानव रूप में परिवर्तित हुआ । इस विकास क्रम में कई विसंगतियां और विरोधाभास हैं और यह जैन दर्शन से पूर्णतया मेल नहीं रखता । संभव है कि चतुद्रिय जीवों के विकास तक (या असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक ) डारविन का सिद्धान्त ठीक हो परन्तु आगे का विकास क्रम स्वाभाविक वरण के सिद्धांन्त के अनुसार नहीं हो सकता । चतुद्रिय जीव स्तर तक जीवों के भोग योनि होती है परन्तु पंचेन्द्रिय जीवों में मन का विकास होने पर जीव विवेकपूर्ण कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं और फिर स्वाभाविक वरण का सिद्धान्त सफल नहीं हो
सकता ।
विज्ञान की परिकल्पना शारीरिक विकास तक सीमित है । जैन दर्शन शारीरिक विकास के आगे मानसिक विकास और भावनात्मक विकास की कल्पना प्रस्तुत करता है। जीव अपने पुरुषार्थ से मानसिक और भावनात्मक विकास करते हुए परमविकास की अवस्था पर पहुँच कर अपने निज आत्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है ।
४. विज्ञानवाद
जैन दर्शन पदार्थ का सूक्ष्मतम् अंश परमाणु पुद्गल के रूप में 'प्रस्तुत करता है। यह परमाणु पुद्गल विज्ञान में ज्ञात परमाणु से बहुत भिन्न है । जैन दर्शन के अनुसार अनंत परमाणु पुद्गल का समूह मिलकर एक स्कंध का निर्माण करते हैं। ऐसा ही स्कंध वास्तव में विज्ञान का परमाणु हैं। यह विज्ञान के उस सिद्धान्त के महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/69
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुरूप है जिसके अनुसार एक अणु के नाभिक के ५. अनेकांतवाद - विखण्डन से प्रचण्ड ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। जैन दर्शन
जैन दर्शन मानता है कि प्रत्येक वस्तु अनंत में इसी सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है
गुणात्मक है और सभी गुणों का वर्णन एक साथ करना कि अनंत परमाणुओं की प्रचण्ड ऊर्जा से एक सूक्ष्म
संभव नहीं है । वस्तु के गुणों का वर्णन यदि अलगस्कंध (परमाणु) की रचना होती है।
अलग किया जाय तो ऐसे वर्णनों में कोई विरोध नहीं जैन दर्शन के अनुसार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य
है बल्कि वे एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सत्य द्रव्य का गुण है । यह एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धान्त है के अंश हैं । यह सिद्धान्त विश्व के प्रचलित और देखने और अजीव तथा अन्य द्रव्यों में परिवर्तन की सम्पूर्ण
का सम्पूर्ण में विरोधी लगने वाले विचारों का समन्वय करने का
का व्याख्या करता है । इसके अनुसार सभी द्रव्यों में समय के साथ पर्याय परिवर्तन होता रहता है। अन्य दर्शनों
एक महत्वपूर्ण सूत्र है । हम सब मानव अपूर्ण है और में इसी सिद्धान्त को क्षणिकवाद और भौतिकवाद कहा
पूर्ण सत्य को देखने में अक्षम हैं। किसी वस्तु या तथ्य गया है। पर्याय परिवर्तन होते हुए भी द्रव्य के मौलिक
MAN' के बारे में हमारे दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनमें स्परूप और गुणों में परिवर्तन नहीं होता । यह सिद्धान्त
सत्य का अंश हैं और हमें इन सभी दृष्टिकोणों का विरोध लोक के समस्त पदार्थो में कार्य करता हुआ देखा जा
न करके सम्मान करना चाहिए । इस प्रकार अनेकांत सकता है। जैन दर्शन में पदार्थ और ऊर्जा को एक ही का सिद्धान्त सम्प्रदाय, समाज, राष्ट्र और विश्व में शांति प्रकार के द्रव्य के रूप में लिया गया है और इस और सौहार्द्र स्थापित करने में सहायक है। हमें यह वास्तविकता को विज्ञान पिछली शताब्दी में ही जान स्वीकार करना चाहिए कि हमारे विचार सापेक्ष हैं, हम सका।
निरपेक्ष सत्य को जानने में असमर्थ हैं। विज्ञान के अनुसार ब्रह्माण्ड में असंख्य आइन्स्टीन ने उपरोक्त विचार को ही भौतिक निहारिकाएं है जो परिभ्रमण करती रहती है । प्रत्येक जगत में सापेक्षता के सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। निहारिका में करोड़ो तारे हैं तथा उनके ग्रह, उपग्रह यह उनकी महान उपलब्धि थी जिसने वैज्ञानिक दृष्टिकोण हैं । जैन दर्शन के अनुसार यह केवल मध्यलोक का चित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया परन्तु यह सिद्धान्त जैन है । इसके अतिरिक्त लोक में उर्ध्वलोक और अधोलोक दर्शन के लिए नया नहीं है जैन दर्शन में यह सिद्धान्त है । सम्पूर्ण लोक का एक निश्चित आकार आर घनफल भौतिक जगत तक ही सीमित नहीं है बल्कि मानव के है । लोक का आकार ऐसा है जिसमें आइन्स्टीन के
समस्त व्यवहार क्षेत्र में इसका उपयोग हुआ है। सामान्य सापेक्षता सिद्धान्त का प्रभाव भी अन्तनिर्हित प्रतीत होता है । जैन दर्शन के अनुसार यह लोक
उपरोक्त पंक्तियों में जैन दर्शन की विशेषताओं अकृत्रिम और अनादि निधन है यह किसी ईश्वरीय का संक्षिप्त उल्लेख किया गया है । यह आवश्यक है कि शक्ति द्वारा रचित नहीं है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्धान्त हम जैन दर्शन का पुनरावलोकन करते रहे । जैसे-जैसे के अनुसार लोक में स्थानीय परिवर्तन होते रहते हैं और विज्ञान प्रगति करेगा, जैन दर्शन का वैज्ञानिक स्वरूप यह सम्भव है कि कुछ आकाशीय पिण्ड नष्ट होकर दूसरे निखरता रहेगा। जीवन और जगत दोनों ही क्षेत्र में जैन पिण्ड की उत्पत्ति करे । ऐसी ही एक घटना को यदि दर्शन की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। वैज्ञानिक महा विस्फोट (बिग बैंग) कहें तो जैन दर्शन का कोई विरोध नही । स्थानीय होते हुए भी पूर्ण लोक
__ सचिव, धर्म दर्शन सेवा संस्थान में स्थायित्व है और उसका आकार और घनफल
५५, रवीन्द्र नगर, उदयपुर -३१३००३ अपरिवर्तित रहता है।
(राजस्थान)
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/70
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनदर्शन कर्मबन्ध प्रक्रिया ।
डॉ. शीतल चन्द्र जैन
जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व छह द्रव्यों का और अनुभाग बन्ध होता है। यह जीव योग से प्रकृति समुदायरूप है, इसमें जीव द्रव्य अमूर्तिक होते हुए भी और प्रदेश बन्ध को तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग पुद्गल के सम्पर्क से कथंचित् मूर्तिक भी माना जाता बन्ध को करता है, किन्तु जो जीव योग और कषाय है और पुद्गल द्रव्य तो मूर्तिक ही है। विकृति भी इन रूप से परिणमित नहीं है और जिनके योग और कषाय दोनों के परस्पर संयोग के निमित्त से होती है। जिनागम का उच्छेद हो गया है, उनके कर्म बन्ध की स्थिति का में यह स्पष्ट वर्णित है कि जीव को अपने परिणामों के अन्य कारण नहीं पाया जाता अर्थात् जहाँ योग और निमित्त से कर्म बन्ध होता है और कालान्तर में उन्हीं कषाय नहीं है, वहाँ कर्म बन्ध भी नहीं है। चारों बन्ध कर्मों के उदय के अनुसार संसारी जीव का परिणमन में मिथ्यात्व की कारणता का विधान नहीं है। तब होता है। शुभ-अशुभ कर्म के आगमन को आस्रव मिथ्यात्व को बन्ध के कारणों में क्यों गिनाया गया है। कहते हैं और आने वाले कर्म का आत्मा के साथ स्पष्ट है कि मिथ्यात्व मोह कर्म में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता परस्पर मिल जाना बन्ध है। जैन दर्शन में कर्म बन्ध की है, तथापि वह अकेला न रहकर अनन्तानुबन्धी कषाय प्रक्रिया का सूक्ष्म वैज्ञानिक विश्लेषण किया है। इस के साथ है, इसलिए योग के बिना कर्म जीव की ओर संबंध में जैनाचार्यों ने जितनी गवेषणा की है उतनी कहीं आकर्षित नहीं होता और कषाय के बिना वह आत्मा
और नहीं है। कर्म कराने के लिए और उसका फल के साथ ठहर नहीं सकता। इसप्रकार देखा जाये तो योग निर्धारित करने, देने के लिए जिनके पास ईश्वर का और कषाय - ये दोनों ही जीव को कर्म के साथ सहारा था, उन्हें ऐसी गवेषणाओं की शायद आवश्यकता अनुबन्धित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भी नहीं थी। जैन दर्शन के अनुसार कर्म के द्रव्य को
जीव के मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों को चार विशेषताओं के साथ कहा है। कर्म का द्रव्य ही योग कहते हैं और उसकी चेतना में उठने वाली विकार प्रदेश है, उसकी जाति स्वभाव ही प्रकृति है । वह कितने की तरंगों का नाम ही कषाय है। इनमें से संसार का समय के लिए बंधता है, यह उसकी स्थिति है। और कोई भी प्राणी एक क्षण के लिए भी योग को रोक नहीं उसमें जीव को फल देने की जो शक्तियाँ हैं, उन्हें सकता। शरीर है तो उसमें हलन-चलन होगा ही, वाणी अनुभाग कहा जाता है। प्रत्येक कर्म में आगमन से है तो प्रगट/अप्रकट उसका कार्य होता ही रहेगा और लेकर फल देकर झड़ जाने तक ये चारों गुण अनिवार्य मन के बारे में तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं रूप से रहते हैं।
है। होश में और बेहोश में, उठते-बैठते, सोते-जागते प्रस्तुत आलेख में कर्मबन्ध की प्रक्रिया - यह सब समय स्थूल या सूक्ष्म रूप से हमारी इन तीन प्रमुख रूप से विचारणीय है। वस्तुत: करुणानुयोग के शक्तियों का सक्रियपना तो होता ही रहता है। फल
अनुसार यदि देखा जाये तो जीव में कर्मबन्ध करने के स्वरूप आस्रव उसका आना भी लगातार हर समय लिए योग और कषाय -- ये दो शक्तियाँ प्रमुख होती होता रहता है। हैं। योग से प्रकृति, प्रदेश बन्ध तथा कषाय से स्थिति कषाय मेरे मानसिक विकारों का नाम है, वे भी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/71
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरन्तर मेरे भीतर विद्यमान रहते हैं। कभी तीव्र, कभी टोडरमलजी ने भी मोक्षमार्गप्रकाशक में मिथ्यात्व और मन्द, कभी ज्ञात रूप में, कभी अज्ञात रूप में, कभी कषाय का सामान्यपने एक नाम कषाय कहा है, उन्होंने शुभ जाति के, कभी अशुभ जाति के, राग-द्वेष, बैर- स्पष्ट कहा है जिनको बन्ध न करना हो वो कषाय मत प्रीति आदि दूषित मनोवृत्तियों के सम्मिलन से मेरी करो। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि मिथ्यात्व चेतना में जो प्रदूषण उत्पन्न होता है, उसी का नाम की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है, जबकि कषाय है। इस प्रकार योग और कषाय दोनों मेरे साथ कषाय की नहीं, तब मिथ्यात्व में इतनी स्थिति कौन अनवरत रूप से लगे हुए हैं और इसी का फल है कि डाल सकता है। इस संबंध में आचार्य वीरसेन स्वामी प्राणी निरन्तर कर्म का बन्ध करता रहता है। ने उत्तर दिया है कि मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति भी तीव्र
यहाँ प्रश्न उपस्थित है कि तत्त्वार्थ सूत्रकार ने कषाय परिणामों से होती है। कर्म बन्ध की प्रक्रिया में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, इसी प्रकार धवल पुस्तक १२/२८८/१४ में कषाय, योग-ये पाँच बन्ध के कारण बतलाये हैं । उक्त भी बन्ध के चार भेदों में योग और कषाय इन दो प्रत्ययों बन्ध के हेतुओं में गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा संख्या से चारों प्रकार का बन्ध माना है अर्थात् स्थिति और २५७, २९६ में 'जोगा पयडिपएसा' इत्यादि के अनुसार अनुभाग का कारण कषाय स्वीकारा है और प्रकृति यह जीव योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध को तथा कषाय और प्रदेश बन्ध में योग को स्वीकारा है।। से स्थिति और अनुभाग बन्ध को करता है, किन्तु जो
सम्यक्त्व की प्राप्ति में मिथ्यात्व को तोड़ना जीव योग और कषाय रूप से परिणमित नहीं है और
आवश्यक है, परन्तु उसका टूटना अनन्तानुबन्धी के जिनके योग और कषाय का उच्छेद हो गया है, उनके
मन्दोदय (विशुद्धि) के बिना नहीं होता। प्रथमोशम कर्म बन्ध की स्थिति का अन्य कारण नहीं पाया जाता
सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जो पाँच लब्धियाँ कही गई हैं है। इसका अर्थ है कि जहाँ योग और कषाय नहीं हैं वहाँ
उनके वर्णन से स्पष्ट है कि अनन्तानुबन्धी के मन्दोदय कर्म बन्ध भी नहीं है अर्थात् चारों बन्ध में मिथ्यात्व की
(विशुद्धि) से ही मिथ्यात्व की स्थिति तथा ज्ञानावरणादि कारणता का विधान नहीं है।
अन्य कर्मों की स्थिति भी केवल अन्त:कोड़ाकोड़ी रह इसी बात को सिद्ध करने के लिए तत्त्वार्थ- जाती है, तभी वह प्रायोग्य लब्धि कहलाती है और इस राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक में भी कषाय को ही विशुद्धि को ही विशुद्धि लब्धि कहते हैं। इसलिए यह बन्ध का हेतु माना है। अब प्रश्न है कि जब चारों प्रकार कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व को तोड़ना है तो उसके के बन्ध में मिथ्यात्व कारण नहीं है तो वह क्या करता पहले अनन्तानुबन्धी कषाय को मन्द करना होगा। है। इसका उत्तर है कि मिथ्यात्व प्रकृति मोह कर्म में कषाय की तीव्रता में किन्हीं भी प्रकृतियों की न स्थिति अपना सर्वश्रेष्ठ महत्व रखती है। अनादि से अब तक घटेगी और अनुभाग घटेगा। अत: यह स्पष्ट है कि कर्म के अनन्त संसार में जीव का भ्रमण इसी मिथ्यात्व बन्ध की प्रमुख भूमिका कषाय और योग निवर्हन करते प्रकृति के कारण है तथापि वह अकेली नहीं रहती, हैं और कषायोत्पत्ति का मुख्य कारण विपरीत श्रद्धानरूप अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का भी उसके साथ पूर्ण मिथ्यात्व है। अत: जब तक प्राणी कषाय (मिथ्यात्व) सहयोग है, परन्तु कषाय (मिथ्यात्व) का काम स्थिति- करेगा तब तक कल्याण संभव नहीं है। अनुभाग रूप है, दोनों का कार्य विभाजन है, तभी वे दो हैं। यदि दोनों का कार्य एक ही प्रकृति कर सकती तो दोनों एक ही हो जाती दो नहीं रहती। मिथ्यात्व का
- प्राचार्य, श्री दिगम्बर जैन आचार्य कार्य अतत्त्व-श्रद्धानरूप परिणाम बनाना है। पण्डित
संस्कृत महाविद्यालय, सांगानेर, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/72
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
तृतीय खण्ड: भक्ति और साहित्य-साधना
1-5
6-8
9-10
11-14
15-19
20-23
1. भक्ति में मुक्ति का अंकुर
आचार्य श्री विद्यानंदजी मुनिराज 2. साधु समाधि और सुधा साधन एवं आचार्य स्तुति
आचार्य श्री विद्यासागरजी भक्ति का फल
पण्डित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ जिनेन्द्र दर्शन (भक्ति)
डॉ. भँवरदेवी पाटनी बीसवीं सदी के शलाका महापुरुष आ. श्री शान्तिसागरजी महाराज और दिगम्बरत्व
प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन आचार्य श्री शान्तिसागरजी का चरम मांगलिक प्रवचन
डॉ. सुदीप जैन क्षुल्लक श्री जिनेन्द्र वर्णी
एक सिमटा-सा विराट व्यक्तित्व प्रो. (डॉ.) सुदर्शन लाल जैन 3. अपनेभीतर झाँको
धर्मचन्द जैन, सूरत 2. राजस्थानी जैन सन्तों की साहित्य-साधना
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 10. मानवीय मूल्यों के सजग पहरी : जैनपुराण
पण्डित रतनचन्द भारिल्ल 11. जैन एवं जैनेतर साहित्य में सीता निर्वासन
डॉ. बीना अग्रवाल 12. आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का सारस्वत योगदान
डॉ. शिवसागर त्रिपाठी 3. समाधिमरण/संथारा अहिंसा है न कि... आ. श्री कनकनन्दीजी 4. स्वधर्म रक्षा का प्रयत्न : सल्लेखना प्रो. रतनचन्द जैन 5. समाधिमरण : तुलना एवं समीक्षा प्रो. डॉ. सागरमल जैन
24-26 26
27-35
36-39
40-48
49-51 52-57 58-65 66-72
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
भक्ति में मुक्ति का अंकुर है
9689658098888888888888992085288003883
896
29933988
o आचार्य श्री विद्यानंदजी मुनिराज
"ॐ नमः”
वैसे ही अरिहंत, सिद्ध, चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, महानुभावो, इस जयपुर महानगरी में इस भट्टारक सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवली पण्णत्तो धम्मो मंगलं की नसियाँ में सिद्धचक्र पाठ का शुभारंभ हो रहा है। - ये चारों मंगल हैं। इनके माध्यम से आप अपने शत्रु "चक्र" शब्द का अपने आप में बहत बडा महत्व है। पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । एक 'सुदर्शन-चक्र' भी “संसार चक्र" भी कहते हैं, जिसके पंच परावर्तन का होता है, जो भगवान के आगे-आगे धर्मचक्र की भाँति वर्णन है - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव । चौरासी चलते रहता है। जिसे देखते ही मनुष्य श्रद्धा से झक लाख योनि में ऐसी कोई योनि नहीं बची है, जिसमें इस जाता है। उसके दर्शन करते ही मनुष्य के अंदर आनन्द जीव ने भ्रमण नहीं किया। नाना तरह के द्रव्यों को उसने की अनुभूति होती है। इस चक्र से हजारों रश्मियाँ उपयोग कर लिया। सारे पंच परावर्तन में एक प्रदेश नहीं निकलती रहती हैं, जिसके दर्शन से अति आनंद की बचा, जहाँ इसने जन्म नहीं लिया। ऐसा कोई षष्टम अनुभूति होती है। काल हो, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा सभी कालों एक बड़ी विचित्र गाथा सिद्ध भगवान की पूजा में उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी काल में इसने जन्म-मरण में प्राकृत में है। इसे सबको मन लगाकर सुनना चाहिए प्राप्त किया है। और संसार में ऐसे कोई शुभ-अशुभ और मनन करना चाहिए। इसका जो सारांश है वह भाव नहीं बचे, जिसे इसने भाया नहीं। इस “पंच बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें बहुत ही गजब की बात परावर्तन” में मिथ्यादृष्टि जीव नाना तरह के सांसारिक लिखी है उन्होंने । भक्तिभाव को इतना ऊँचा उठाकर बातों का वर्णन करते आ रहे हैं। इसने पाया नहीं केवल कोई आचार्य ही बता सकते हैं - ये तो नेमिचन्द्र एक सिद्ध गति को, जिसको पंचम गति कहते हैं। आचार्य ही हैं। धर्मानुरागी डॉ. सोगानीजी ने इसका चौरासी लाख योनि में चतुर्गति में भ्रमण करने को ही बहुत ही सुंदर अनुवाद कर दिया है। लोग कहते हैं कि 'संसार चक्र' कहते हैं।
ज्ञान से मोक्ष होगा। कोई कहते हैं कि दर्शन से मोक्ष इसके बाद कर्मचक्र है - ज्ञानावरणीय, होगा। कोई कहते हैं कि उग्र तप, चारित्र से मोक्ष होगा। दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, अंतराय, आयु, नाम, कोई कहते है कि संयम से मोक्ष होगा। इस तरह से सब गोत्र । सिद्ध भगवान इन आठों कर्मों से मुक्त हैं । इसीतरह अपने-अपने अनुभव से अपनी तरह से दुनिया को से 'चक्ररत्न' भरत चक्रवर्ती को प्राप्त हुआ। यह चक्ररत्न बताते हैं। पर इस गाथा में आचार्य कहते हैं कि - सारे शत्रु का संहार करने वाला होता है। णयेवणाणेण दंसणेण तवेण उग्गेणसंयमेण ।
___ 'धर्मचक्र' भी एक चक्र है। 'जैनेन्द्र धर्मचक्रं सिद्धेति आलेशुभशुद्ध बुद्धी समग्गियामोशैलेविशुद्धि ।। प्रभवतु' आप सब शांतिपाठ में पढ़ते ही हैं। जैसे कोई भक्ति से मोक्ष मिल जायेगा। ये जो अमुकसम्राट चतुरंगी सेना के माध्यम से पृथ्वी को जीतता है, तमुक से मोक्ष मिलेगा, ऐसी कल्पना करते हैं उसका
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/1
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य ने खण्डन कर दिया। भक्ति में ही सारे आ जाते नहीं है। ज्ञान-दर्शन से कम नहीं है। सम्यग्दर्शन की हैं - ज्ञान, दर्शन, तप, संयम। एक सिद्ध भगवान की प्राप्ति जिनेन्द्र बिम्ब के दर्शन से होती है। धवला में यहाँ भक्ति में, सिद्धचक्र की भक्ति में सब आ जाते हैं। तक लिखा कि जो कर्म और किसी से नहीं कटते हैं
जितने भी शास्त्रों में अंतरंग तप. बहिरंग तप, वे एक जिनबिम्ब के दर्शनमात्र से, भक्ति से कट जाते प्रतिक्रमण, प्रायश्चित बताये गये हैं. इनके बजाय यदि हैं, ढीले हो जाते हैं । यहाँ तक कह दिया कि निकाचित कोई मात्र भक्ति करता है अर्थात जिसके कंठ में, जिसके कर्म भी ढीले हो जाते हैं और क्या बात बताये? हाथ में भक्ति है, उसके हाथ में मुक्ति है, मुक्ति का अंकर जयधवला के छठे पृष्ठ में वीरसेन आचार्य ने लिखा है है। इतनी महान शक्ति है भक्ति में। हम रोज ही 'णमो कि शुभ और शुद्ध साथ-साथ चलते हैं। शुद्धभाव है सिद्धाणं' बोलते हैं। बहुतों की कल्पना है कि परमात्मा तो शुभभाव भी उसके पीछे है। कैसे? जैसे लकड़ी किसी का भला करता है, किसी का बुरा करता है। जलाते हैं तो आग के साथ थोड़ा सा धुंआ भी निकलता नाना तरह के संसार में कर्तत्वभाव को लेकर बैठे हैं. है। ऐसे ही शुभ और शुद्ध ये दोनों भाव साथ-साथ परन्त सिद्धों के गुण-भावना को हम भाते हैं, भक्ति चलते हैं और दोनों कर्म नाश के निमित्त बनते हैं। बीज करते हैं. उनका नाम लेते ही हमारे सारे कर्म अपने आप बो रहे हैं फसल के लिए, पर उसके साथ घास भी उग पिघल जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। जैसे - मोर पक्षी के आती है। वे पुण्य प्रकृतियाँ भी अपने आप उसके साथ बोलते ही सर्प अपने बिल में घुस जाता है। गरुड पक्षी लगी हुई हैं । इसलिए आपका ध्येय यही हो कि हे सिद्ध को देखकर सांप की जान उड जाती है। वैसे ही भगवान भगवन् ! हम आपके जैसा ही बनना चाहते हैं, आपके के दर्शन और पूजा-भक्ति से असंख्यात कर्मों की गुणों को ग्रहण करना चाहते हैं। निर्जरा एक-एक क्षण में हो जाती है। ये भी ध्यान है। जब हम साधु लोग आहार के लिए निकलते ‘परमात्म-प्रकाश' में तथा वसुनंदी आचार्य ने 'वसुनंदी हैं, तो पहले 'सिद्ध भक्ति' बोलते हैं – 'हे भगवन् ! श्रावकाचार' में इसे भी एक प्रकार का ध्यान बताया हम आप जैसा निराहारी बनना चाह रहे हैं, पर मजबूर है। जो मंत्रपूर्वक पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं, उसको होकर आहार के लिए जा रहे हैं।' जैन धर्म निवृत्ति भी उन्होंने ध्यान कहा है। ध्यान सिर्फ आँख मूंदकर प्रधान धर्म है। प्रवृत्ति के लिए इसके यहाँ कोई स्थान बैठने को नहीं कहते। एकाग्रता से एक क्षण के लिए नहीं है। घर को भूल गये, परिवार को भूल गये, पैसे को, चेक आदिनाथ भगवान द्वारा उनके पिछले जन्म में को, टेलीफोन को यानी सारे संसार की बातों को भूल एक चारणऋद्धिधारी मुनिराज को आहार देते समय गये, थोड़ी देर के लिए खाना-पीना सब कुछ भूलकर वहाँ पर बंदर, नेवला, जंगली सुअर ये जो जंगली प्राणी एक लक्ष्य, पवित्र उद्देश्य आपका सिद्ध भगवान की थे, उन प्राणियों के मन में ये भाव पैदा हआ कि यदि पूजा के लिए रखो - यह भी एक प्रकार का ध्यान है। हम भी मनुष्य होते तो हम भी मुनिराज को आहार देते।
थोड़ी देर आप शांतचित्त से बैठकर भक्तिभाव इसी भावना को भाते वे मर गये। मात्र इस प्रकार का से, मन-वचन-काय से पूजा-पाठ, भक्ति करते हैं, तो भाव पैदा होने से वे अगले जन्म में भरत और बाहुबली मन प्रसन्न और एकाग्र हो जाता है। 'ध्यानाग्निः सर्व आदि होकर जन्मे। केवल मन-वचन-काय से कर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणात्' कहने का तात्पर्य है अनुमोदना की, करे-धरे कुछ नहीं। सोचो, महापुराण कि जो सिद्ध भगवान आठ कर्मों से मुक्त होते हैं, उन में वर्णन किया है कि चारणऋद्धिधारी मुनि को आहार भगवान का ध्यान करना भी किसी तपश्चर्या से कम देते समय जो-जो जीव अनुमोदना करने वाले थे, वे
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/2
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
सब उसके अगले भव में मोक्ष गये। उस जन्म असर नहीं पड़ता। क्योंकि वे एक जाति के हैं। एक में स्वर्ग गये और फिर वहाँ से मनुष्य जन्म लेकर भगवान क्षेत्रावगाही हैं, तथापि उनकी स्वतंत्र सत्ता कभी खत्म आदिनाथ के साथ बारी-बारी से मोक्ष गये। एक मेढक नहीं होती। ऐसे ही सिद्ध भगवान अनादि काल से मोक्ष केवल एक फूल की पंखुड़ी चढ़ाने के लिए ले जा रहा जा रहे हैं। वे सब एक ही क्षेत्रावगाही होते हुए भी उनके था, रास्ते में मरकर वह स्वर्ग चला गया। आप लोग ज्ञानादि गुण, चैतन्य गुण एक सत्तात्मक होते हुए भी तो अष्ट द्रव्य से पूजा करते हैं, जो आठों कर्मों को नाश वे अपनी सत्ता से कभी अलग नहीं होने देते। करने वाले हैं।
___जैसे छह द्रव्य हैं। ये छह द्रव्य अपने स्वभाव महानुभावो, जैन पारिभाषिक शब्द जो होते हैं, को कभी नहीं छोड़ते। जीव में चैतन्य गुण है। 'चेतना वे सब स्वतंत्र होते हैं। जैसे हम ‘आदिनाथ' कहते हैं। लक्षणो जीव:' पुद्गल रूप, रस, गंध, वर्ण युक्त है। इसमें 'नाथ' शब्द 'न' और 'अर्थ' शब्दों से बना ये मिट्टी युक्त होते हुए भी ये न तो कभी आत्मा का है। जिसका आदि और अंत नहीं है, उसका मध्य भी रूप बनते हैं और न ही आत्मा अपना चैतन्य गुण इनमें नहीं है यानी अनादि है। जैन धर्म के अंदर छह द्रव्य आने देता है। इसलिए तत्त्वार्थ सूत्र में एक सूत्र आया माने गये हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश - 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' जो द्रव्य के आश्रितभूत
और काल । आदिनाथ भगवान का जब जन्म हुआ, गुण हैं, वही गुण है, वही शाश्वत है। यदि गुण के अंदर तो देवों ने 'जय जीवेत' शब्दघोष किया। यानी गुण आ जाये तो अनवस्था दोष आ जायेगा। अनवस्था 'जीवमात्र की विजय हो.., जीवमात्र की विजय हो।' दोष किसे कहते हैं? जैसे किसी ने दीपक जलाकर वे इसलिए कहा कि इस युग के वे प्रथम तीर्थंकर थे लाया । तो पूछते हैं कि दीपक कहाँ से जलाकर लाये? और उन्होंने ही इहलोक और परलोक की बातें बताई। तो बोलते हैं कि हमने पड़ोसी के दिये से इस दिये को
हमारे आठ कर्म हैं। उनके १४८ भेद हैं तथा जलाकर लाया। और जब पड़ोसी से पूछे कि तुमने कहाँ इनके भी अनेक भेद हैं। इन सारे भेद-प्रभेदों का, से जलाया? तो वह बोलता है कि हमने भी अपने दूसरे आत्मा का विविधि रूप से सिद्धचक्र के पाठ में वर्णन पड़ोसवाले घर के दिये से जलाया है। इस तरह से है। जैसे चेतन शब्द है। चेतन एक संवेदनशीलता है। उसका कोई अंत ही नहीं मिलेगा। इसलिए यहाँ पर चेतन किस कहें? जैसे आपके शरीर के किसी हिस्से कहते हैं कि जीव और पुद्गल अपने-अपने स्वभाव पर किसी ने स्पर्श किया, तो आपका हाथ झट से उस को कभी छोड़ते नहीं हैं। जगह पर चला जाता है कि किसने स्पर्श किया। अथवा धर्म द्रव्य - 'इस आकाश में धर्म द्रव्य ठसाठस शरीर भर में कहीं भी खाज-खुजली हो रही हो, तो भी भरा हुआ है। जो हम धर्म ध्यान करते हैं, ये धर्मद्रव्य हाथ तुरंत अंधेरे में भी उस जगह पर चला जाता है। नहीं है, ये एक वस्तु है। ये किसी शास्त्रों में नहीं लिखा तो हम लोग हर आत्मा को स्वतंत्र मानते हैं। और मुक्त गया है सिर्फ जैन शास्त्रों में लिखा गया है। और इसके होने के बाद भी उनकी स्वतंत्र सत्ता नष्ट नहीं होती। लिए साइंसवालों ने किसी वैज्ञानिक शब्द का प्रयोग जैसे एक कमरे में अनेक दीपक जला दिये। यदि उनमें किया है। जैसे पानी में मछली इधर-उधर तैरती रहती से एक दीपक को हटा दिया, तो बाकी के दीपकों की है। और जहाँ पानी नहीं है, वहाँ मछली नहीं जा रोशनी नष्ट नहीं होती। और असंख्य दीपक जला दिये सकती। पानी मछली को इधर-उधर घूमने का कारण गये हों, तो भी उन दीपकों की रोशनी एक-दूसरे का है। हाथ-पैर हिलाना, डुलाना, जाना-आना एक धर्म विरोध नहीं करती। उनका एक-दूसरे के प्रति कोई बुरा द्रव्य इस पृथ्वी मंडल पर है। वो हमारे सारे द्रव्यों को
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/3
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुद्गल, जीव को सहजता से गमनागमन के लिए परिणमन हो रहा है, उसको उसीरूप में परिणमन कराने सहकार्यकारिणी है। इससे आज हमारे साइंसवालों ने में ये काल द्रव्य सहयोगी होते हैं। इन सारी बातों का इसका संशोधन कर दिया कि आज वायरलेस अपने जैन शास्त्रों में सूक्ष्म वर्णन है और कहीं नहीं है। (मोबाईल) से, यानी बिना तार के आप कहीं से कभी आकाश द्रव्य :- भले ही आकाश सबको भी किसी से भी बात कर रहे हैं। कोई भी पेपर फैक्स जगह देता है. अन्य पांचों द्रव्य भी आकाश को के द्वारा एक मिनट के अंदर देश-विदेश के किसी भी सहयोग देते हैं। पंचास्तिकाय में लिखा है कि जैसे कोने में भेज दिया जाता है। हू ब हू वही पेपर वहाँ के दूध में पानी मिलकर एकरूप हो जाता है, ऐसे ही फैक्स मशीन में प्रिन्ट हो जाता है। किसी छोटी सी जगह सारे द्रव्य एक दूसरे में मिले हये हैं। फिर भी जैसे में दो छोटे कमरे आमने-सामने हो और एक का दरवाजा पानी का स्वभाव पानी है, और दूध का स्वभाव दूध खोलें तो दूसरा भी खुल जाता है और एक को बंद करें है, ऐसे ही सारे छहों द्रव्य अपने स्वभाव को कभी तो दूसरा भी बंद हो जाता है। तो एक ऐसा अमूर्तिक नहीं छोड़ते हैं। उपादान उनकी जो सत्ता है वह स्वतंत्र द्रव्य है, जो सारे पृथ्वी मंडल के जीव और पुद्गल है। सिद्ध भगवान की पूजा में एक-एक चीजों के पदार्थों को गमनागमन के लिए सहायता करता है। कोई अर्थ इतने गढ़, गंभीर हैं! नाना तरह से इसमें लिखे भी चीज स्थिर है, इसका मूल कारण क्या है? यह गये हैं। इसमें लिखा है कि 'अनंत व्याप्य-व्यापक अधर्म नाम का एक द्रव्य है। जैसे पेड़ के नीचे छाया भाव' जब तक इन शब्दों को दसों साल तक पढेंगे है तो कोई भी मुसाफिर आकर बैठ जाता है। पेड़ ने नहीं तो ये शब्द समझ में नहीं आयेंगे। सिर्फ चावल उसे अपने नीचे आने के लिए पकड़कर खींचा नहीं। चढा दिया, पूजा किया, मंत्र बोल दिया, गाजा बाजा एकदेश दृष्टांत है।
कर दिया, इतना करने से ही नहीं चलेगा। हर पदार्थ काल द्रव्य – इसी प्रकार से काल द्रव्य है। अपने में व्याप्य-व्यापक है। आपके शरीर में आपकी आप सब तो व्यावहारिक काल द्रव्य को जानते हैं। आत्मा अपने आप में व्याप्य-प्यापक है और इसी घड़ी, घंटा, दिन, महीना, वर्ष आदि ये व्यावहारिक तरह से शरीर अपने आप में व्याप्य-व्यापक है। काल हैं। निश्चय काल अत्यंत सूक्ष्म है। एक परमाणु जैसे पानी अपने में व्याप्य-व्यापक है और दूध जिसका और भी टुकड़ा नहीं किया जा सकता है, उतनी अपने में व्याप्य-व्यापक है। और यदि उसमें केसर डाल जगह में लुढकने को एक समय कहते हैं। इतने एक देते हैं तो उसका रंग पीला हो जाता है तो वह केसर समय में ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।' तीन समय नहीं
अपने में व्याप्य-व्यापक भाव है। इस संसार में एक लगते ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' होने के लिए। तो द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप कभी बनते नहीं है। ये क्यों कहा? काल द्रव्य पुराने से नया और नये से पुराना होने के लिए
जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। तो व्यवहार से मदद करता है। उदासीनता से, जबरदस्ती से नहीं। जैसे
भले ही कहें कि कुम्हार ने घड़ा बनाया, मगर वास्तव आपने दूध पी लिया तो उसे खून बनने में काल द्रव्य
में उस मिट्टी में घड़ा बनने की उपादान शक्ति पहले से मदद करता है। हर परमाणु स्वतंत्र है। जैसे आम का
ही मौजूद थी। कुम्हार तो निमित्तमात्र बना। कुम्हार ने फल पेड़ में लगा है, उसमें से कोई हरा है, कोई पीला
मिट्टी थोड़ी ही बनाई। वह तो उस मिट्टी में पानी आदि है, किसी में काला दाग लग गया है और कोई सड़
डालकर उसे सिर्फ गूथने और आकार देने के लिए रहा है। तो काल द्रव्य एक रत्नराशि जैसा एक-एक
निमित्त बना। व्यवहार से कुम्हार ने घड़ा बनाया पर प्रदेशों में ठसाठस भरा हुआ है। जहाँ जिस पदार्थ का
निश्चय से कुम्हार ने मिट्टी नहीं बनाई। इसलिए उसे
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/4
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वथा उस घड़े का कर्ता नहीं कह सकते। यदि वह उसका कर्त्ता होता तो पानी भरते समय भी उसकी जरूरत पड़ती, कि भाई उस कुम्हार को बुलाओ बिना उसके पानी नहीं भर सकते। मगर आप जानते हैं कि ऐसा नहीं होता है । इसलिए ये जो कहा जाता है कि किसी ने इस सृष्टि को बनाया है वही इस सृष्टि को चलाता है, उसके बिना एक पत्ता नहीं हिल सकता है। ये सिद्धांत इस कथन को बेबुनियाद कर देते हैं। फिर इस संसार में एक जीव सुखी है और दूसरा दुखी क्यों है ? उसने एक को सुखी और दूसरा दुखी क्यों बनाया? एक को काला और दूसरे को गोरा क्यों बनाया? एक That रोगी और दूसरे को निरोगी क्यों बनाया? इस तरह से ‘इन सबको ईश्वर ने बनाया है' ये जो कल्पना है, ये कल्पना गलत है।
हमारे यहाँ प्रत्येक की स्वतंत्र सत्ता है । ये जो छह द्रव्य हैं ये किसी के आधार पर नहीं हैं। अपने आधार पर ये छहों द्रव्य हैं। व्यवहार से कहते हैं कि ये एक दूसरे के आधार पर हैं। पर निश्चय से ये अपने आधार पर हैं। जैसे आपको भूख लगती है तो आपको ही भोजन करना होगा तभी आपकी भूख मिट सकती है। ये नहीं कि भूख आपको लगी है और भोजन कोई दूसरा कर ले तो आपका पेट भर जायेगा । इसी प्रकार से इस पृथ्वी मंडल के छहों द्रव्य अपने आधाराधार हैं। आकाश अपने में आधाराधार है, जीव अपने में आधाराधार है। स्वतंत्र सत्ता त्रिकाल हमारे जीव के अन्दर है - ये मानना पड़ेगा। जब तक ये नहीं मानेंगे तब तक अध्यात्म में प्रवेश नहीं होता ।
I
वेद्य-वेदक भाव- आत्मा अपने सुख-दुख का कर्ता-धर्ता, अनुभवकर्ता है। पर ये याद रखना कि वह अपने शुद्ध भाव का ही कर्ता-धर्ता है-ये व्यवहार से कहते हैं आप से कोई पूछता है कि क्या आप दुखी हैं ? तो आप कहते हैं कि नहीं, मैं दुखी नहीं हूँ। व्यवहार से आप दुखी हो भी सकते हैं परंतु निश्चय से आप कभी दुखी हो ही नहीं सकते ।
क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही है कि वह कभी दुखी हो ही नहीं सकता। पानी अग्नि के संपर्क में आने से गर्म हो जाता है और जब अग्नि के संपर्क से बाहर आ जाता है तो फिर से अपने मूल स्वभाव में आ जाता है। यानी शीतल हो जाता है। आप किसी बात को लेकर अचानक क्रोधित हो जाते हैं, मगर थोड़ी देर के बाद फिर अपने शांत स्वभाव में आ जाते हैं। तो आतमा अपने स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता है। अनंतानंत पर्याय को यह आत्मा पी चुका है, भोग चुका है, अब कोई पर्याय बाकी नहीं है। सिर्फ एक सिद्ध पर्याय भोगना बाकी है बस !
महानुभावो ! सिद्धों के आत्मा में अनंत पदार्थ, सम्पूर्ण द्रव्य, गुण, पर्याय झलकते हैं। आप सब बड़े भाग्यशाली हैं, एक आदमी कुँआ खुदवाता है तो हजारों आदमी पानी पीते हैं। एक आदमी अस्पताल बनाता है तो हजारों लोगों का उपचार होता है, हजारों लोग स्वास्थ्य लाभ लेते हैं। एक आदमी मंदिर बनवाता है तो हजारों लोग दर्शन करते हैं ।
सिद्ध भगवान् की जो प्राकृत पूजा है, उसे जब संगीत में सुनोगे तो गद्गदित हो जाओगे । और प्रतिनित्य उस पूजा को आप करोगे ऐसा मुझे विश्वास है। आप सबका कर्म क्षय हो, दुःख क्षय हो, इन शब्दों के साथ मैं आप सबको बहुत - बहुत आशीर्वाद और धन्यवाद देता हूँ ।
•
तीन प्रकार के प्रश्नकर्ता होते हैं, कल्याण पहली प्रवृत्ति वालों का ही हाता है :१. जिज्ञासु प्रवृत्ति के प्रश्नकर्ता ।
२. सभी पूछ रहे हैं इसलिए हम भी पूछ लेते हैं, इस प्रवृत्ति के प्रश्नकर्ता ।
३. स्वयं की विद्वता को सिद्ध करने एवं दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति वाले प्रश्नकर्ता ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/5
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
3933
साधु समाधि सुधा साधन एवं आचार्य-स्तुति
8280056402255000000000.sasarad
o आचार्य श्री विद्यासागर जी
यहाँ समाधि का अर्थ मरण से है । साधु का अर्थ ध्यान ही नहीं। अपनी त्रैकालिक सत्ता को पहिचान है श्रेष्ठ/अच्छा अर्थात् श्रेष्ठ/आदर्श मृत्यु को साधु- पाना सरल नहीं है। समाधि वही है, जिसमें मौत को समाधि कहते हैं। ‘साधु' का दूसरा अर्थ 'सज्जन' है। मौत के रूप में नहीं देखा जाता है, जन्म को भी अपनी अतः सज्जन के मरण को ही साधु-समाधि कहेंगे। ऐसे आत्मा का जन्म नहीं माना जाता। जहाँ न सुख का आदर्श मरण को यदि हम एक बार भी प्राप्त कर लें, विकल्प है और न दु:ख का। तो हमारा उद्धार हो सकता है।
आज ही एक सज्जन ने मुझ से कहा - 'महाराज! जन्म और मरण किसका? हम बच्चे के जन्म कृष्ण जयन्ती है आज।' मैं थोड़ी देर सोचता रहा । मैंने के साथ मिष्टान्न वितरण करते हैं। बच्चे के जन्म के समय पूछा - 'क्या कृष्ण जयन्ती मनाने वाले कृष्ण की बात सभी हँसते हैं, किन्तु बच्चा रोता है। इसलिए रोता है मानते हैं। कृष्ण गीता में स्वयं कह रहे हैं कि मेरी जन्म कि उसके जीवन के इतने क्षण समाप्त हो गये। जीवन जयन्ती न मनाओ। मेरा जन्म नहीं, मेरा मरण नहीं। के साथ ही मरण का भय शुरु हो जाता है। वस्तुतः मैं तो केवल सकल ज्ञेय ज्ञायक हूँ। त्रैकालिक हूँ। मेरी जीवन और मरण कोई चीज नहीं है। यह तो पुद्गल सत्ता तो अक्षुण्ण है।' अर्जुन युद्ध भूमि में खड़े थे। का स्वभाव है, वह तो बिखरेगा ही।
उनका हाथ अपने गुरुओं से युद्ध के लिए नहीं उठ रहा आपके घरों में पंखा चलता है। पंखे में तीन था। मन में विकल्प था कि कैसे मारूँ अपने ही गुरुओं पंखड़ियाँ होती हैं। ये सब पंखे के तीन पहल हैं और को।' वे सोचते थे चाहे मैं भले ही मर जाऊँ, किन्तु जब पंखा चलता है तो एक मालूम पड़ते हैं । ये पंखुड़ियाँ मेरे हाथ से गुरुओं की सुरक्षा होनी चाहिए। मोहग्रस्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की प्रतीक हैं। हम उसकी शाश्वतता ऐसे अर्जुन को समझाते हुए श्रीकृष्ण ने कहा - को नहीं देखते, केवल जन्म-मरण के पहलुओं से जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्धवो जन्म मृतस्य च। चिपके रहते हैं, जो भटकने/घुमाने वाला है।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। समाधि ध्रुव है, वहाँ न आधि है, न व्याधि है जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है और न ही कोई उपाधि है। मानसिक विकार का नाम और जिसकी मृत्यु है, उसका जन्म भी अवश्य होगा। आधि है, शारीरिक विकार व्याधि है। बुद्धि के विकार यह अपरिहार्य चक्र है। इसलिए हे अर्जुन ! सोच नहीं को उपाधि कहते हैं। समाधि मन, शरीर और बुद्धि से करना चाहिए। परे है। समाधि में न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है और अर्जन ! उठाओ अपना धनष और क्षत्रिय धर्म न विषाद । जन्म और मृत्यु शरीर के हैं। हम विकल्पों का पालन करो। सोचो, कोई किसी को वास्तव में मार में फँसकर जन्म-मृत्यु का दुःख उठाते हैं। अपने अन्दर नहीं सकता। कोई किसी को जन्म नहीं दे सकता। प्रवाहित होने वाली अक्षुण्ण चैतन्य धारा का हमें कोई इसलिए अपने धर्म का पालन श्रेयस्कर है। जन्म-मरण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/6
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
तो होते ही रहते हैं। आवीचिमरण तो प्रतिसमय हो ही तारण है, किन्तु रास्ता और पुल दोनों स्वयं खड़े रह रहा है। कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से और हम हैं केवल जाते हैं। गुरु स्वयं भी तैरते हैं और दूसरों को भी जन्म-मरण के चक्कर में, क्योंकि चक्कर में भी हमें शक्कर तैराते हैं। इसलिए उनका महत्व शब्दातीत है। आचार्य -सा अच्छा लग रहा है।
उस नौका के समान हैं, जो स्वयं नदी के उस पार जाती तन उपजत अपनी उपज जान,
है और अपने साथ अन्यों को भी पार लगाती है। तन नशत आपको नाश मान।
भगवान महावीर की वाणी गणधर आचार्य की रागादि प्रकट जे दुःख दैन,
अनुपस्थिति होने से छियासठ दिन तक नहीं खिरी। तिन ही को सेवत गिनत चैन॥ आचार्य ही उस वाणी को विस्तार से समझाते हैं। वे
अपने शिष्यों को आलम्बन देते हैं, बुद्धि का बल प्रदान हम शरीर की उत्पत्ति के साथ अपनी उत्पत्ति
करते हैं, साहस देते हैं । जो उनके पास दीक्षा लेने जाये, और शरीर-व्यय के साथ अपना मरण मान रहे हैं।
उसे दीक्षा देते हैं और अपने से भी बड़ा बनाने का प्रयास अपनी वास्तविक सत्ता का हमको भान ही नहीं। सत्
करते हैं। वे शिष्य से यह नहीं कहते – “तू मुझ की ओर हम देख ही नहीं रहे हैं। हम जीवन और मरण .
जैसा बन जा", वे तो कहते हैं - "तू भगवान बन के विकल्पों में फँसे हैं, किन्तु जन्म-मरण के बीच जो
जाय।" ध्रुव सत्य है उसका चिन्तन कोई नहीं करता। साधुसमाधि तो तभी होगी, जब हमें अपनी शाश्वत सत्ता
मोक्षमार्ग में आचार्य से ऊँचा साधु का पद है। का अवलोकन होगा। अतः जन्म-जयन्ती न मनाकर
आचार्य अपने पद पर रहकर मात्र उपदेश और आदेश हमें अपनी शाश्वत सत्ता का ही ध्यान करना चाहिए,
देते हैं, किन्तु साधना पूरी करने के लिए साधु पद को उसी की सँभाल करनी चाहिए।
अंगीकार करते हैं। मोक्षमार्ग का भार साधु ही वहन
करता है। इसीलिए चार मंगल पदों में, चार उत्तम पदों आचार्य-स्तुति
में और चार शरण पदों में आचार्य पद को पृथक् ग्रहण ___ अरहंत परमेष्ठी के बाद आचार्य परमेष्ठी की न करके साधु पद के अंतर्गत ही रखा गया है। आचार्य भक्ति का विवेचन है। सिद्ध परमेष्ठी को यहाँ ग्रहण नहीं तो साधु की ही एक उपाधि है, जिसका विमोचन मोक्ष किया गया, क्योंकि उपयोगिता के आधार पर ही महत्व प्राप्ति के पूर्व होना अनिवार्य है। जहाँ राग का थोड़ा दिया जाता है। जैनेतर साहित्य में भी भगवान से बढ़कर भी अंश शेष है, वहाँ अनन्त पद की प्राप्ति नहीं हो गुरु की ही महिमा का यशोगान किया है। सकती। इसीलिए साधना में लीन साधु की वंदना
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पाय। और तीन प्रदक्षिणा आचार्य द्वारा की जाती है। बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय॥ मैंने अभी दो दिन पूर्व थोड़ा विचार किया इस
'बताय' शब्द के स्थान पर यदि ‘बनाय' शब्द बात पर कि भगवान महावीर अपने साधना काल में रख दिया जाय, तो अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि गुरु दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष तक निरन्तर मौन रहे। शिष्य को भगवान बना देते हैं। इसीलिए उन्हें तारण- कितना दृढ़ संकल्प था उनका। बोलने में सक्षम होते तरण कहा गया है। गुरु स्वयं तो सत्पथ पर चलते हैं, हुए भी वचन गुप्ति का पालन किया। वचन व्यापार दूसरों को भी चलाते हैं। चलने वाले की अपेक्षा चलाने रोकना बहुत बड़ी साधना है। लोगों को यदि कोई बात वाले का काम अधिक कठिन है। रास्ता दूसरों को करने वाला न मिले, तो वे दीवाल से ही बातें करने तारता है, इसलिए वह तारण कहलाता है। पुल भी लगते हैं। एक साधु थे। नगर से बाहर निकले इसीलिए
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/7
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि कोई उनसे बातें न करे, किन्तु फिर भी एक व्यक्ति भी एक तप है, जिसे साधु तपता है, इसलिए कि उनके साथ हो गया। और बोला – “महाराज ! मुझे एकान्त में ही अन्दर की आवाज सुनाई पड़ती है। अपने जैसा बना लें। मैं आपकी सेवा करता रहूँगा। बोलने में साधना में व्यवधान आता है। आपको कोई न कोई सेवक तो चाहिए अवश्य सेवा आचार्य कभी भी स्वयं को आचार्य नहीं कहते। करने के लिए।” साधु बड़े पशोपेश में पड़ गये। वे तो दूसरों को बड़ा बनाने में लगे रहते हैं, अपने को
आखिर बोले- “सबसे बड़ी मेरी सेवा आप ये ही करो बड़ा कहते नहीं। कोई और उन्हें कहे, तो वे उसका कि बोलो नहीं। बोलना बन्द कर दो।" विरोध भी नहीं करते और विरोध करना भी नहीं चाहिए।
बोलने वालों की कमी नहीं है, प्रायः सर्वत्र गाँधीजी के सामने एक बार यह प्रश्न आया। एक व्यक्ति मिल जाते हैं। मुझे स्वयं भी एक घटना का सामना उनके पास आया और बोला - “महाराज ! आप बड़े करना पड़ा मदनगंज, किशनगढ़ में। ब्रह्मचर्य अवस्था चतुर हैं, अपने आप को महात्मा कहने लग गये।" में एक स्थान पर बैठकर मैं सूत्रजी पढ़ रहा था। एक गाँधीजी बोले – “भैया, मैं अपने को महात्मा कब बूढ़ी माँ आई और मुझसे कुछ पूछने वहीं बैठ गयीं। कहता हूँ। लोग भले ही कहें, मुझे क्या ? मैं किसी मैं मौन ही रहा, परन्तु धीरे-धीरे वहाँ और भी कई का विरोध क्यों करूँ।” मातायें आकर बैठने लगीं और दूसरे दिन से मुझे वह
- समग्र (चतुर्थ खण्ड) से साभार स्थान छोड़ना पड़ा। विविक्त शय्यासन अर्थात् एकांतवास
उवगृहणमादिया पुव्वुत्ता तह भत्तियादिया य गुणा।
संकादिवजणं पि य णेओ सम्मत्तविणओ सो ॥११६॥ अर्थ : पर का दोष ढकना और अपनी प्रशंसा नहीं करना यह उपगूहन गुण है, अपने आत्मा को या पर को धर्म में निश्चल करना यह स्थितिकरण गुण है, धर्मात्मा में या रत्नत्रय धर्म में प्रीति करना यह वात्सल्य गुण है, पूर्व में कहे जो अरहतादि में भक्ति, पूजा तथा अरहतादिकों के उज्ज्वल गुणों के यश का प्रकाशन करना यह वर्णजनन गुण है। अवर्णवाद- जो दुष्टों द्वारा लगाया गया दोष उनका विनाश करना और विराधना का त्याग इत्यादि पूर्वकथित भक्ति आदि गुण के द्वारा प्रभावना करना तथा आप्त,आगम, पदार्थों में शंका का वर्जन करना तथा इहलोकपरलोक संबंधी विषयों की कांक्षा-वांछा उसका परित्याग करना तथा रोगी, दुःखी, दरिद्री, वृद्ध, मलिन चेतन-अचेतन पदार्थों में ग्लानि का त्याग करना तथा मिथ्याधर्म की प्रशंसा नहीं करना। इसप्रकार अष्ट अंगों को दृढ़ता पूर्वक अंगीकार करना, यह दर्शन का विनय है।
- भगवती आराधना
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/8
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
भक्ति का फल
0 पण्डित चैनसुखदास न्यायतीर्थ जैनाचार्यों ने भक्ति को एक निष्काम कर्म माना 'कल्याण मंदिर स्तोत्र' के कर्ता महाविद्वान है। यदि उसे लक्ष्य कर मनुष्य में फलासक्ति उत्पन्न हो कुमुदचन्द्र भी इस संबंध में यही बात कहते हैं - जाय तो भक्ति बिल्कुल व्यर्थ है। जैन शास्त्रों में निदान यद्यस्ति नाथ भवदंघ्रिसरोतहाणाम्, (फलाकांक्षा) को धार्मिक जीवन में एक प्रकार का
भक्तेः फलं किमपि संतत संचितायाः। शल्य (कांटा) बतलाया गया है। भक्त के सामने सदा
तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्यभूया:, मुक्ति का आदर्श उपस्थित रहता है। वह उससे भटकता
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेपि ।। नहीं है। यदि भटकता है तो उसे सच्चा भक्त नहीं कह
हे शरण्य ! आपके चरण कमलों की सतत् सकते। भक्ति का सच्चा फल वह यही चाहता है कि
संचिता भक्ति का यदि कोई फल हो तो वह यही होना जब तक मुक्ति की प्राप्ति न हो, तब तक प्रत्येक मानव जन्म में उसे भगवद्भक्ति मिलती रहे। इसी आशय को
चाहिए कि इस जन्म और अगले जन्म में आप ही मेरे
स्वामी हों, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा कोई भी शरण स्पष्ट करते हुए 'द्विसंधान काव्य' के कर्ता महाकवि
नहीं हो सकता। धनञ्जय कहते हैं - इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्,
किन्तु जैसा कि पहले कहा है, मनुष्य का चरम
लक्ष्य मुक्ति है। इसलिए कोई भी भक्त जब तक मुक्ति वरं न याचं त्वमुपेक्षकोऽसि,
नहीं मिले तब तक ही इस फलाकांक्षा का औचित्य छाया तरु संश्रयत् स्वत् स्यात्,
समझता है। इसलिए भगवान की पूजा के अंत में जैन कश्छायया याचितयाऽऽमलोभः।
मंदिरों में जो शांतिपाठ बोला जाता है, उसमें इस अभिप्राय अधास्ति दित्या यदिवोपरोधः, त्वय्येव सक्तां दिश भक्ति-बुद्धिं,
को अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है - करिष्यते देव तथा कृपां मे,
तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वयेलीनम्, को वात्मपोष्ये सुमुखो न सूरी: ।।
तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावत् यावनिर्वाणसंप्राप्तिः । हे देव. ! इस प्रकार आपकी स्तुति कर मैं आप
___हे भगवन् ! जब तक निर्वाण की प्राप्ति न हो से उसका कोई वर नहीं माँगता, क्योंकि किसी से भी कुछ तब तक तुम्हारे चरण मेरे हृदय में लीन रहें और मेरा माँगना तो एक प्रकार की दीनता है। सच तो यह है आप हृदय तुम्हारे चरणों में लीन रहे। इन उद्धरणों से यह उपेक्षक (उदासीन) हैं। आप में न द्वेष है और न राग। अच्छी तरह समझा जा सकता है कि जैन भक्ति का राग बिना कोई किसी की आकांक्षा परी करने के लिए उद्देश्य परमात्मतत्त्व की ओर बढ़ना है। किसी भी प्रकार कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? तीसरी बात यह है कि छाया का लौकिक स्वार्थ उसका लक्ष्य नहीं है। जिसके जीवन वाले वक्ष के नीचे बैठकर फिर उस वक्ष से छाया की में भक्ति की महत्ता अकित हो जाती है, उसकी दुनिया याचना करना तो बिल्कल व्यर्थ है. क्योंकि वक्ष के नीचे के क्षणभंगुर पदार्थों में आस्था नहीं होती और न उसके बैठने वाले को तो स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। मन में किसी प्रकार के वैयक्तिक स्वार्थ की ही आकांक्षा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/9
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
होती है। वास्तविक भक्त वह है जिसकी दुनिया के हैं, जो यतियों में श्रेष्ठ हैं, जो तपोधन हैं, उन सबको क्षणभंगुर सुखों में आस्था नहीं होती। जिसको इस तथा देश, राष्ट्र, नगर और राजा को भगवान जिनेन्द्र प्रकार की आस्था, आसक्ति अथवा आकांक्षा होती है, शान्ति प्रदान करें। वह कभी परमात्मतत्त्व की ओर नहीं बढ़ सकता । भक्त ये सब उल्लेख स्पष्ट यह बतलाते हैं कि जैनों हृदय अहिंसक होता है, इसलिए उसका कोई शत्रु भी के वाङ्गमय का लक्ष्य आत्मशोधन के साथ-साथ नहीं होता है। वह अपनी भक्ति के बीच में इस प्रकार लोकोपकार की भावना भी है। उसका दष्टिकोण की आकांक्षायें भी नहीं लाता जो द्वेषमूलक एव हृदय संकुचित नहीं अपितु उदार, विशाल एवं व्यापक है। को विकृत करने वाली हो। जैन दृष्टि से वे स्तोत्र इसमें वसुधैवकुटुम्बकम् की उदात्त तथा प्रांजल अत्यन्त नीच स्तर के ही समझे जाने चाहिए जो मनुष्य भावना ओतप्रोत है। इससे मानव को जो प्रेरणा को हिंसा एवं विकार की ओर प्रेरित करने वाले हों। मिलती है, उससे उसकी पशुता निकल कर मानवता
हाँ, जैन भक्ति एवं पूजा के प्रकरणों में भक्ति निखर जाती है। के फलस्वरूप ऐसी माँगें जरूर उपलब्ध होती हैं, जो मूर्तिपूजा और भक्ति - वैयक्तिक नहीं अपितु सार्वजनिक हैं, फिर चाहे वे
श्वेताम्बर जैनों के स्थानकवासी और तेरापंथी लौकिक ही क्यों न हों। भगवान की उपासना के बाद
एवं दिगम्बर जैनों का तारणपंथी सम्प्रदाय – यद्यपि जैन उपासना गृहों में शांतिपाठ बोला जाता है, उसमें
मूर्तिपूजा को महत्व नहीं देते, फिर भी वे भक्ति का भक्त कहता है -
समर्थन करते हैं । यद्यपि मूर्तिपूजा और भक्ति का निमित्तक्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु
नैमित्तिक संबंध है, तथापि ये दोनों चीजें एक नहीं हैं। ___बलवान् धार्मिको भूमिपालः,
किन्हीं दो पदार्थों में निमित्त-नैमित्तिक संबंध बनाना काले काले च सम्यग् वर्षतु
व्यक्तिगत प्रश्न है। भक्ति के लिए भी कोई मूर्तिपूजा ___ मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।
को अवलम्बन मानता है और कोई नहीं मानता है। जो दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि
संप्रदाय मूर्ति या प्रतिमा को अवलम्बन नहीं मानते, जगतां मास्मभूजीवलोके,
वे भी भगवान की भक्ति करते हैं। भक्ति तो मनुष्य की जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु
मानसिक वृत्ति है। वह मूर्ति रूप आलंबन के बिना सततं सर्वसौख्य प्रदायि ।।
निरालंबन भी हो सकती है। हे भगवन् ! सारी प्रजा का कल्याण हो। शासक
वास्तव में परमात्मा या भगवान ही आलंबन बलवान और धर्मात्मा हो । समय-समय पर हैं। उपास्य में तो कोई भेद है नहीं, भले ही उनकी मूर्ति (आवश्यकतानुसार) पानी बरसे। रोग नष्ट हो जावें। बनाई जाये या न बनाई जाये। बिना मर्ति के भी परमात्मा कहीं न चोरी हो और न महामारी फैले और सारे सुखों या महात्माओं के गुणों में अनुराग उत्पन्न कर उसमें को देने वाला भगवान जिनेन्द्र का धर्मचक्र शक्तिशाली पूजनीयता की आस्था स्थापित की जा सकती है। भक्ति हो। इस प्रकार का एक उल्लेख और भी सुनिये -
का रहस्य भी यही है। जैन धर्म में जो भक्ति का संपूजकानां प्रतिपालकानाम्,
महत्वपूर्ण स्थान है, उसे जैनों के सभी सम्प्रदाय एक यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम्, मत से स्वीकार करते हैं। देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः, करोतु शांति भगवान् जिनेन्द्रः।
- अध्यात्म शास्त्र से साभार जो भगवान के भक्त हैं, जो दीनहीनों के सहायक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/10
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
यह बात, अच्छी तरह निर्णीत है कि जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का प्रभाव होता है, मनुष्यों की आत्माओं में भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है, जिस समय किसी दुष्ट पुरुष का समागम हो जाता है तो उसके निमित्त से परिणाम भी खराब हो जाते हैं। जिस समय किसी धार्मिक और सज्जन का समागम हो जाता है, साधक, या सत्संग मिल जाता है, उस समय उसके निमित्त से परिणाम भी निर्मल हो जाते हैं, यह प्रभाव द्रव्य का ही समझना चाहिये। इसी प्रकार काल का प्रभाव - आत्मा पर पड़ता है, रात्रि में मनुष्य के परिणाम दूसरे ही हीते हैं, प्रातःकाल होते ही बदल कर उत्तम हो जाते हैं, जो वासनाएँ रात्रि में अपना प्रभाव डालती हैं वह अनायास ही प्रातःकाल होते ही बदल जाती हैं, यह काल का प्रभाव ही समझना चाहिये ।
जिनेन्द्र दर्शन (भक्ति)
इसी प्रकार क्षेत्र का प्रभाव होता है, जो परिणाम घर में, बाजार में, ऑफिस में, दुकान में होते हैं, वे परिणाम किसी साधु निकेतन में या मन्दिर में जाते ही बदल जाते हैं, जो बातें घर में हमारे हृदय में विषयकषाय अथवा विकार, आकुलता उत्पन्न करती हैं, वे भगवान के मन्दिर और साधु निकेतन में नहीं होती इसीप्रकार हमारे जो भाव धर्म साधन में नहीं लगते हैं, वे मन्दिर तथा साधु सत्संग में लगने लगते हैं।
।
मन्दिर हमारे भावों को धर्म की ओर जाने का संकेत करता है । मन्दिर में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों निमित्तों की योग्यता है । वहाँ जाने पर वीतराग देव की सौम्य छवि के दर्शन होते हैं, दर्शन से हमारे आतंरिक भावों का विकास होता है, विकार कम होते हैं, आत्म
डॉ. भँवरदेवी पाटनी
प्रभा प्रकट होती है, यदि मन को सब तरफ से हटाकर दर्शन में लीन किया जावे तो ।
आज वर्तमान में इस पंचम काल में जितना धर्म साधन और परिणामों की निर्मलता जिनेन्द्र दर्शन, स्तवन, पूजन, भजन से होती है, वैसी और कहीं भी नहीं होती; न किसी से मिल सकती है। इसका कारण यह है कि आजकल का संहनन और मनोवृत्तियाँ की चंचलता कुछ ऐसी है कि अधिक समय तक न तो ध्यान ( एकाग्रता ) ही कर सकते हैं और न गृहस्थी में सदा शुभ परिणाम ही रख सकते हैं, आत्म चिंतवन तो बहुत दूर की बात है, निश्चयनय - निश्चयनय कहते हैं, पढ़ते हैं, निश्चयनय की बात सुनते भी हैं, परन्तु निश्चयनय आत्मरमणता को कहते हैं, जो इस समय हो ही नहीं सकता है। इस समय सम्यक् अवलंबन की हमको आवश्यकता है, वह अवलंबन जिनेन्द्र की वीतराग मुद्रा है, उस वीतराग प्रतिमा के सन्मुख बहुत देर तक हमारे भाव स्थिर रह सकते हैं अथवा यों कह सकते हैं कि जितनी देर प्रतिमा के सामने हम अपना उपयोग लगाते हैं, हमारे परिणाम निर्मल हो जाते हैं ।
ध्यान का महात्म्य यद्यपि बहुत बड़ा है, परन्तु मनोवृत्तियों की चंचलता के संस्कार तुरन्त वहाँ से उपयोग हटा देते हैं, इसलिए मन को एकाग्र करने के लिये जिनेन्द्र स्तवन जिनेन्द्र के गुणों का चिंतन करना चाहिये, जितने जितने हम भक्ति रस में डूबते जायेंगे । परिणामों की भटकन दूर होती चली जायेगी और साथ में अतिशय पुण्य का बंध होगा। जितना जितना भक्तिरस में डूबने का वीतराग के गुणों के सुमरण करने का अभ्यास बढायेंगे तो भावों में एकाग्रता आने लगेगी।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/11
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रावक के लिये जिनपूजन, जिनदर्शन, स्तवन, कुरान के हों, पुराण के हों, चाहे बाइबिल के हों, सिर्फ चिन्तवन, तत्त्वचर्चा से बढ़कर विशेष पुण्योपार्जन का इशारे हैं। जैसे राह में मील के पत्थर सिर्फ रास्ता
और कोई उपाय नहीं है। यही क्रम से संसार-मुक्ति पाने बतलाने के लिये हैं, परन्तु मंजिल पर पहुँचने के लिये का उपाय है।
तो रास्ते के पत्थरों को छोड़ते हुये स्वयं को चलना वर्तमान समय में कुछ लोग ऐसा कहने लग गये पड़ेगा, तभी मंजिल मिल सकती है। हैं कि शुद्धभाव होने चाहिये, मन्दिर में जाना या दर्शन भक्ति रस में डूबकर परम श्रद्धान से ही भक्ति करना आवश्यक नहीं है, घर में फोटू रखकर या परोक्ष का राज समझ में आता है। श्रद्धान, प्रतीति, विश्वास नमस्कार करने से ही पुण्यबंध हो सकता है। ऐसा वो सब एकार्थ हैं। जब दृढ़ श्रद्धान होता है, तब ही सच्ची ही लोग कह सकते हैं जिनका जिनवाणी (शास्त्रों) पर भक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धार्मिक हो जाता है, दृष्टि श्रद्धान नहीं है और न जैन सिद्धान्त के अनुसार श्रावक बदल जाती है। धार्मिक व्यक्ति काँटों में भी फूल खोज क्रियाओं को ही करते हैं। जो थोड़ा कुछ करते भी हैं, लेता है, वह कभी दूसरे के दोष नहीं देखता है। भक्ति उन्हें रूढिवादी कहकर अपनी मनमानी करते हैं, जो से ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। भक्त का हृदय जिनदर्शन को प्रतिदिन करना आवश्यक नहीं समझते। सब प्रकार की चाह (इच्छा) रहित हो जाता है। किसी उन्हें अपने आप को जैन मानना भूल है। बिना बाह्य प्रकार की माँग नहीं रहती। भगवान के स्तवन-कीर्तन आलंबन के अंतरंग सुधार होना बहुत कठिन है। जो से अंतर के द्वार खुल जाते हैं, इसी का नाम जैनागम कहते हैं हमारे तो भाव शुद्ध हैं, देवदर्शन से क्या होगा में सम्यग्दर्शन है। अभ्यास (पुरुषार्थ) बढ़ जाता है। ? वे अपने आपको धोखा देते हैं, स्वयं के साथ छल जब अहिंसा, सत्य, विनय आदि गुण प्रकट हो जाते करते हैं।
हैं और तुम्ही हो मंजिल, तुम्हीं हो मार्ग, तुम्हीं हो जिन मुनियों ने आत्मा को ही ध्येय बना लिया
खोजनवाले, तुम्ही हो खोजे जाने वाले तथा ज्ञाता, था, उन्होंने भी अनेक शास्त्रों से श्लोकों से जिनभक्ति ।
ज्ञेय, ज्ञान सब भेद मिटकर मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता की गंगा बहा दी है। मनि मानतंग ने भक्तामर की रचना है। सिर्फ (कवल) ज्ञान ही रह जाता है। की, जिसे पढ़कर-बोलकर मन भक्ति से भर जाता है।
श्री जिनदेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, जिनभक्ति, जिनदर्शन की महिमा से तो सारे आगम सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है - श्रद्धा भक्ति (दर्शन) (पुराण) भरे हुये हैं।
से उत्पन्न सम्यग्ज्ञान, दर्शन और ज्ञान के द्वारा वैराग्य भगवान की भक्ति कोई शास्त्र नहीं है, कोई
अथवा अपने ही ज्ञान में लीनता अथवा स्वभाव में विचार नहीं है, कोई विवाद नहीं है, कोई संवाद नहीं
लीनता (रमणता) स्व में तल्लीन होना चारित्र यही है। भक्ति का अर्थ है - तन्मय हो जाना, लीन हो जाना।
मोक्षमार्ग है, यही प्रत्यक्ष सिद्ध है। मोक्ष का अर्थ है जैसे-जैसे भगवान के स्वरूप में लीनता आयेगी, वैसे
मुक्ति अर्थात् संस्कार के दु:खों से छुटकारा परमवैसे आंतरिक शक्ति का प्रादुर्भाव होता जायेगा। परम
आनन्द जन्म-मरण रहित होना है। उल्लास, आंतरिक प्रसन्नता पैदा होना ही भक्ति का सार
जो परम सुख प्राप्त करना चाहता है, उसे सर्व है। जब अपने में ऐसी दशा अनुभव करो, तो ही समझो प्रथम भगवान की पूजा, गुरू सेवा, स्वाध्याय (जिनेन्द्र कि भक्ति का रस उत्पन्न हो रहा है। भगवान के प्रति के बतलाये हुये, कहे हुये वचन शास्त्रों का अध्ययन) श्रद्धा-भक्ति का स्वरूप अनिर्वचनीय है, जोशब्दों द्वारा तप, और दान यह प्रतिदिन करना चाहिये। नहीं कहा जा सकता है। शब्द सीमित हैं, वेद के हों, जैसा श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है -
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/12
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
दाणं पूजा मुक्खं सावय धम्मणा सावया तेय विणा। एकीभाव के पहले पद में आचार्य वादिराज झाणं झमणं मुक्खं जइ धम्मे तं विणा तहा सोपि ।।११॥ कहते हैं हे जिनसूर्य ! आपकी भक्ति मेरे जन्म-जन्म के जिणपूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्ति रूपेण। एकत्र किये हुये दुख देने वाले कर्मों का नाश करने के समाइट्ठी सावय धम्मो सो होइ मोक्ख, मग्गरओ॥१२॥ लिये समर्थ है तो ऐसा कौन-सा ताप है जो आपकी
रयणसार भक्ति के द्वारा नहीं जीता जा सकता है अर्थात् जिनेन्द्र अर्थ- दान, पूजा, श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। भक्ति के द्वारा अनेकों भव के संचित कर्मों का नाश हो
उपर्युक्त आर्ष वाक्यों से सिद्ध हो जाता है कि जाता है। जिनभक्ति उस धर्म का अंग है, जो धर्म प्राणी को संसार
श्री वीरसेन स्वामी धवल व महाधवल जैसे दुख से निकाल कर मोक्ष सुख में ले जाता है, इसलिये महान ग्रन्थों में लिखते हैं - जो जिनभक्ति को आस्रव, बंध का कारण समझते हैं, जिनबिंब दंसणेण णिधत्ताणेकाचिदस्य विवे मिथ्या मार्ग के पोषक हैं। .
मिच्छत्तादि कम्म कलापस्य खय दंसणादो।। जिणचरण बुरूहं णमंति जे परम भक्ति रायणा।
धवल पु.६ पृष्ठ ४२७ जे जम्म वेल्लि मूलं खणे ति वरभाव सत्येण ।। अर्थ – जिनबिम्ब दर्शन से निधत्त और
भावपाहुड, १५३॥ निकाचित रूप मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा __ अर्थ- जो पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनेन्द्र जाता है। जिससे जिनबिम्ब दर्शन प्रथम सम्यक्त्व उत्पत्ति के चरण कमल को नमे हैं, वे श्रेष्ठ भाव रूप शास्त्र का कारण होता है। से जन्म अर्थात् संसार रूपी बेल के मिथ्यात्वादि कर्म
अरहंत णमोकारो संपहिय बंधादो रूपी मूल (जड़) को क्षय करै हैं। जो यह कहते हैं कि
असंख्येजगुणा कम्म खयकारा । ओति तत्व वि मुणीणां पर का ध्यान व भक्ति करना मिथ्यात्व है। उसके लिये
पबुत्तिप्प संगादो ।। जयधवल पु.१ पृष्ठ ९ स्वामी पूज्यपाद कहते हैं -
अर्थ – अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परोभवति तादृशा। जो
शा। अपेक्षा अनन्त गुणी कर्म निर्जरा का कारण है, इसलिये वर्तिदीपं यथोपास्यं भिन्ना भवति तादृशी ।।१२।।।
अरहंत नमस्कार में मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है।
समाधिशतक अर्थ – यह जीव अपने से भिन्न अरहंत, सिद्ध ,
सर्वार्थसिद्धि में श्री पूज्यपाद आचार्य कहते हैं के स्वरूप (परमात्मा) की उपासना करके उन्हीं जैसा
कि चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदि क्रिया सम्यक्त्व परमात्मा हो जाता है। जैसे बत्ती दीपक से भिन्न होकर
को बढ़ाने वाली सम्यक्त्व क्रिया है। भी दीपक की उपासना करके दीपक स्वरूप हो जाती है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी मोक्षमार्ग
भक्तामर स्तोत्र के दसवें श्लोक में श्री प्रकाशक में लिखते हैं - 'बहरि त्रिलोक विर्षे जे मानतुंगाचार्य कहते हैं कि हे जगभूषण जगदीश्वर! अकृत्रिम बिम्ब विराजे हैं। मध्यलोक विषं विधिपूर्वक संसार में जो भक्त परुष आपके गणों का कीर्तन करके कृत्रिम जिनबिंब विराजे हैं, तिनके दर्शनादिक से स्वपर आपका स्तवन करते हैं. वे आपके समान भगवान बन भेद-विज्ञान होय, कषाय मंद होय शान्तभाव होय हैं जाते हैं तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वह वा एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हित की सिद्धि जैसे स्वामी किस काम का जो अपने दास को अपने समान केवली के दर्शनादिक तें होय वैसे होय है। अरहंतादि न बना सके।
के स्तवन रूप जो भाव होय हैं सो कषायों की मंदता
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/13
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिये होय हैं तातें विशुद्ध परिणाम हैं, बहुरि समस्त हे देव ! मुक्ति का कारणभूत जो तत्त्वज्ञान है, कषायों के मिटाने का साधन हैं। तातें शुद्ध परिणाम का वह निश्चयतः समस्त आगम के जानने पर प्राप्त होता कारण हैं, ऐसे अरहंतादिक परम मंगल हैं, परम इष्ट है सो मंदबुद्धि होने से वह हमें दुर्लभ है । इसप्रकार मोक्ष मानने योग्य हैं।'
का कारणभूत जो चारित्र है, वह भी शरीर की दुर्बलता सर्वज्ञोपदेश के अनुसार कहे गये इन आर्ष वचनों
के कारण पूर्ण पालन नहीं हो सकता, इसलिये आपकी से यह सिद्ध हो जाता है कि जिनेन्द्र भक्ति से संवर,
भक्ति ही मुझे मुक्ति का कारण होवे । पूर्वोपार्जित पुण्य निर्जरा कर्मों का क्षय तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
से जो मेरी आपमें दृढ़ भक्ति व आस्था है, वही मुझे
इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए जहाज के इस पंचम काल में संहनन व बुद्धि की हीनता समान होवे। श्री जिनेन्द्र दर्शन व पूजन से सम्यक्त्व व के कारण विशेष चारित्र तथा विशेष श्रद्धा व ज्ञान नहीं मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु केवल आपके नाम मात्र हो सकता, इसलिये जिनेन्द्र भक्ति ही क्रम से मुक्ति का से मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। आगम प्रमाणों कारण है, क्योंकि इस समय (पंचमकाल) में भरतक्षेत्र से यह सिद्ध होता है कि जिनभक्ति, पूजा, स्तवन, में उत्पन्न हुए मनुष्यों के साक्षात् मुक्ति का अभाव है। स्तुति, दर्शन मात्र आस्रव-बंध का कारण नहीं है, कहा भी है -
किन्तु संवर, निर्जरा व मोक्ष का भी कारण है। इसलिए सर्वांगभावगमतः खलु तत्त्वबोधो
जिनपूजा, भक्ति, दर्शन प्रत्येक श्रावक का एक आवश्यक मोक्षाय मृतमापि संप्रति दुर्घटेनः ।
कार्य है। वीतराग देव की मूर्ति के दर्शन से उनके अनन्त जाइया तथा कुतुबु तरुत्वयि भक्तिरेव,
गुणों का स्मरण हो उठता है, उनके माध्यम से अपनी देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम् ।।८७१।। पं.व.प. आत्मविभूतियों का अनुभव होता है।
-ऊँचा कुआ, हल्दियों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर • फोन नं. २५६३२८९
यस्मै प्राज्ञाः कथ्यन्ते मनुष्याः, प्रज्ञामूलं द्वीन्द्रियाणां प्रसादः। मुह्यन्ति शोचन्ति तथेन्द्रियाणि, प्रज्ञालाभो नास्ति मूढ़ेन्द्रियस्य ।।
- जिस बुद्धि की बुद्धिमान लोग कामना किया करते हैं, उस बुद्धि का मूल कारण इन्द्रियों की पवित्रता है। जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ मोह और शोक में डूबी रहती हैं, उस मोहाच्छन्न इन्द्रियों वाले व्यक्ति को सद्बुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती अर्थात् वह विचार शील नहीं बन सकता।
.. - शान्ति पर्वः महाभारत
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/14
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीसवीं सदी के शलाका महापुरुष आ. श्री शान्तिसागरजी महाराज और दिगम्बरत्व
बीसवीं सदी में यदि किसी दिगम्बर जैनाचार्य का प्रभावक चरित्र व्यापक रूप में छाया रहा, तो वह प्रातः स्मरणीय युग-प्रधान आचार्य शान्तिसागरजी (सन् १८७२ - १९५५) महाराज का। उनका महनीय व्यक्तित्व, तप:तेज, असाधारण प्रतिभा, दूरदृष्टि एवं सहज करुणा-भाव इतना चमत्कारपूर्ण था कि जैन ही नहीं, जैनतर भी, रंक से लेकर समृद्ध-वर्ग भी, प्रशासकों से लेकर सामान्य वर्ग के लोग भी उनके प्रति निरन्तर भक्ति-भाव से ओत-प्रोत रहा करते थे। विरोधी - गण भी उनमें विवेक जागृत होने पर प्रायश्चित्त करते हुए देखे जाते थे । भारतीय संसद के प्रथम अध्यक्ष डॉ. जी. वी. मावलंकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर - संचालक गुरु गोलवलकर, विश्वविख्यात लेखक, नोबेल पुरस्कार-विजेता एवं पत्रकार डॉ. लुई फिशर आदि उनके प्रशंसकों में से थे। देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी तो प्रारम्भ से ही उनके प्रति नतमस्तक रहा करते थे ।
८८
आचार्य श्री शान्तिसागरजी उन ऐतिहासिक महापुरुषों में थे, जिन्होंने अनेक सदियों की दिगम्बर मुनि-विहीन रिक्तता की पूर्ति की है। सम्राट शाहजहाँ के परममित्र महाकवि बनारसीदास (१७वीं सदी) के “ अर्धकथानक " का जिन्होंने अध्ययन किया है, वे जानते ही हैं कि उन्हें दिगम्बर जैन मुनियों की कठोर चर्या की जानकारी तो जैन-ग्रन्थों से ज्ञात थी, किन्तु उनके साक्षात् दर्शनों के लिये वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। जब उन्हें उनके दर्शन प्राप्त नहीं हो सके, तो उन्होंने अपने तीन मित्रों- चन्द्रभान, उदयकरण तथा
प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन
थानसिंह के साथ एक बन्द कमरे में नग्नता धारण कर ली और एक दर्पण के सम्मुख खड़े होकर निर्विकारमन से अपने नग्न - स्वरूप को देखकर कल्पना की थी कि दिगम्बर जैन साधु भी इसी प्रकार के होते होंगे।
यही स्थिति सम्भवत: जैन भक्ति-पदों के सर्जक महाकवि भूधरदास के समय भी रही होगी। उन्हें भी सम्भवतः उनके दर्शन नहीं हो सके थे, इसीलिये उन्होंने भी उनकी भाव-कल्पना कर उनके विषय में - ते गुरु मेरे उर वसो.. . जैसे भक्ति-भरित अनेक पद्य लिखकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति की थी।
CC
राष्ट्रसन्त आचार्य श्री विद्यानन्दजी को, जिनके लिये कि आचार्य शान्तिसागर जी ने प्रारम्भ में ही कहा था कि – “तुम साधु बनोगे तथा साधु ही रहोगे..... अपने जीवन के प्रथम चरण में लगभग १३वर्ष तक उन्हें सान्निध्य में रहने का सुअवसर मिला था। उनके विषय में वे (आचार्य विद्यान्दजी) कहा करते हैं कि- “महामना आचार्य शान्तिसागरजी के सानिध्य में रहने से अनिर्वचनीय आनन्द एवं शान्ति मिलती थी । उनके सम्मुख बैठने से ऐसा अनुभव होता था मानों उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों ने जीवन्त रूप धारण कर लिया है और जैसे हम उन्हीं धर्मों के मध्य घिरे हुए बैठे हों। "...“आ. विद्यानन्द जी ने कई बार उनकी योग-ध्यान की मुद्रा को देखकर कहा था । कि- “महामना यो न चलात् योगत: ” अर्थात् वे (शान्तिसागर जी) ऐसे महामना थे, जो योग-१ - ध्यान से कभी भी विचलित नहीं होते थे । कुछ लोग कहते हैं कि आचार्य शान्तिसागर जी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/15
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
कठोर तपस्वी एवं सुदृढ महाव्रती तो थे किन्तु कवि नहीं। मैं विनम्रतापूर्वक उनके इस कथन के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करना चाहता हूँ मेरी दृष्टि से वे कवि भले ही न रहे हों, किन्तु महाकवि अवश्य थे। क्योंकि सच्चा महाकवि स्वस्थ एवं संरचनात्माक कल्पनाओं का धनी होता है। गद्य, पद्य एवं चम्पू की शैलियों से भी ऊपर उठकर वह राष्ट्रहित एवं समाजहित में अपने आचार, विचार तथा अर्थ-गर्भित सांकेतिक शब्दों की अभिव्यक्ति से ऐसे युग-सन्देश देता है, जो विराट रूप धारण कर इतिहास का रूप ले लेते हैं और जो अनेक खण्डों-प्रखण्डों का रूप धारण कर स्वर्णिम भविष्य के लिये स्थायी भूमिका तैयार करते हैं जिसमें गद्य, पद्य अथवा चम्पू तथा उनके रस, छन्द एवं अलंकार आदि सभी का समाहार स्वतः ही हो जाता है ।
उक्त खण्डों-प्रखण्डों का यदि विषयवार वर्गीकरण करना चाहें तो उन्हें शौरसेनी जैनागम एवं आगमेतर साहित्य का उद्धार, सम्पादन एवं प्रकाशन, दुर्लभ अप्रकाशित पाण्डुलिपियों की खोज, सुरक्षा एवं उनका सम्पादन - प्रकाशन, पण्डित - -परम्परा के निर्माण के लिये जैन पाठशालाओं के खोलने की प्रेरणा, जैनसिद्धान्तों एवं सामाजिक कार्य-कलापों के प्रचार-प्रसार तथा सामाजिक समन्वय के लिये जैन पत्रकारिता के लिये प्रोत्साहन, जैन इतिहास के लेखन पर विशेष बल, विरोधियों एवं निन्दकों पर सहिष्णुता एवं समभाव के बल पर विजय, ग्रामों-ग्रामों, नगरों-नगरों में विहार कर अपने चमत्कारी व्यक्तित्व एवं अमृतमय वाणी से दक्षिण का उत्तर-भारत के साथ ऐक्य आदि के रूप सूत्र - शैली में व्यक्त कर सकते हैं।
दीक्षा के पूर्व काल में सातगौड़ाजी (आचार्य शान्तिसागर जी) इतने बलिष्ठ पहलवान थे कि उनके विरोधी- -जन भी उनसे लोहा लेने में बगलें झाँकने लगते थे, किन्तु सातगौड़ा जी ने अपनी बलिष्ठता का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया बल्कि थके माँदै कमजोरों की मदद कर उसका सदुपयोग करने में उन्हें विशेष आनन्दानुभूति ही होती थी ।
पूर्व के समय (जब वे ३२ वर्ष के थे) की
ही घटना है, वे अपने मित्रों के साथ सम्मेदशिखर जी की यात्रा के लिये गये। उस समय पर्वत का विकास आज जैसा नहीं हो पाया था, इस कारण वह स्वाभाविक रूप से काफी ककरीला पथरीला तथा नुकीला था । उसकी चढ़ाई उस समय काफी कठिन मानी जाती थी। अतः पर्वत-वन्दना के समय जब उनका कोई साथी थक जाता था, तो वे उसे अपने कन्धे पर बैठाकर यात्रा करा देते थे । एक साथी को तो उन्होंने अपने कन्धे पर बैठाकर २४ टोंकों की वन्दना भी कराई थी।
वैराग्य की भावना तो उनके मन में प्रारम्भ से ही थी। आचार्य विद्यानन्द जी के शब्दों में – “वे
चतुर्थकालीन संस्कार लेकर जन्मे थे.....”। वे अपने माता-पिता के इतने आज्ञाकारी थे कि बलवती इच्छा होने पर भी उनकी इच्छा के विपरीत उन्होंने दीक्षा धारण नहीं की और उनकी इच्छानुसार ही वे अपने गृहकार्योंखेतीबाड़ी तथा व्यापारादि में लगे रहे।
सन् १९०९ में जब उनके पिताजी श्री भीमगौडा पाटिल (न्यायाधीश) का स्वर्गवास हो गया, तब उन्होंने ४वर्षों के लिए एक दिन के अन्तराल से निर्दोष आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की; क्योंकि उनके मन में यह भावना घर किये हुई थी
“युवैव धर्मशीलः स्यात् अनित्यं खलु जीवितम् । कोहि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति । ”
अर्थात् युवावस्था से ही धर्मपालन करना चाहिये क्योंकि यह जीवन विनश्वर है। यह कौन जानता है कि आज ही उसकी मरण-बेला आ जायेगी?
सुअवसर मिलते ही, उन्होंने ४१ वर्ष की आयु अर्थात् सन् १९९३ में कर्नाटक के मुनि देवेन्द्रकीर्ति जी से विधिवत् क्षुल्लक दीक्षा लेकर कागनौली में प्रथम चातुर्मास किया ।
पुन: सन् १९१७ में ऐलकपद की दीक्षा तथा सन् १९१९ में मुनिपद, तत्पश्चात् अनेक भव्यात्माओं दीक्षित कर विशाल मुनिसंघ का यशस्वी आचार्य
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/16
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद धारण किया। आचार्यकल्प (१) वीरसागर जी हेतु विश्व को धन-समृद्धि का वरदान दिया है और (२) सुधर्मसागर जी, (३) नेमसागर जी, (४) चन्द्रसागर मानव को उसका संरक्षक (ट्रस्टी) बनाया है। अत: जी, (५) कुन्थुसागर जी (६) पायसागरजी, (७) मानव को चाहिये कि वह आवश्यकता के अनुसार नमिसागर जी (८) चन्द्रकीर्ति जी (९) धर्मसागर जी- सीमित धन-सम्पत्ति रखकर बाकी का धन परोपकार । मेवाड (१०) वर्धमान सागर जी (दक्षिण) (११) ऐलक में लगाकर अपने परिग्रह-परिमाण-व्रत को सार्थक पन्नालालजी (झालरापाटन), (१२) पिहिताश्रवणी, करे।"
आदि-आदि के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे क्षुल्लक, चतुर्विध संघको सम्बोधित करते हुए वे आचार्य व्रती, श्रावक-श्राविकाएँ उनसे दीक्षित होकर उनके संघ सोमदेवसरि द्वारा लिखित यशस्तिलक चम्पू की इस में प्रतिष्ठित थे, जिन्होंने देश के कोने-कोने में भ्रमण पंक्ति – “नग्नत्वं सहजं लोके विकारो वस्त्रवेष्टितम्" कर जैनत्व की पताका दीर्घकाल तक फहराई। की व्याख्या करते हुए कहा करत थे कि - "नग्नत्वं - आचार्य श्री जैनधर्म और समाज के कैसे संरक्षक ही विश्व में सहज रूप है। शरीर पर वस्त्र धारण करना थे, उसकी जानकारी इस घटना से मिलती है। सन् उपने विकारों को ही ढंकना है। दिगम्बर जैन मुनि की १९४८ में वे जब फलटन में चातुर्मास कर रहे थे, तभी चर्या, दया-करुणा की आवृत्ति तथा उनका समस्त उन्हें विदित हआ कि तत्कालीन बम्बई सरकार ने एक जीवन स्वहित के साथ-साथ विश्व के हितार्थ भी ऐसा विशेष कानून बनाया है, जो जैनधर्म एवं समाज समर्पित रहता है और यह सब निर्विकार-नग्नत्व के का घोर विरोधी है। उसके विरोध में आचार्य श्री ने अभी कारण ही सम्भव है। वस्तुतः यही है मानव-जीवन की तक का रिकार्ड-तोड़ अनशन कर, सारे देश में हड़कम्प सर्वोत्तम उपलब्धि।" मचा दिया था और आखिर में बम्बई-सरकार को आचार्य शान्तिसागर जी की कठोर दिगम्बरअपनी गलती महसूस करा दी थी।
चर्या से महात्मा गांधी इतने प्रभावित थे कि एक बार आचार्य श्री अपनी दीक्षा के ४२ वर्षों के उन्होंने स्पष्ट कहा था कि- “मनुष्य मात्र की आदर्श जीवनकाल में लगभग २० हजार मील से भी अधिक स्थिति दिगम्बरत्व. (नग्नत्व) की ही है। मुझे स्वयं ही की पदयात्रा की थी और सभी को उपदेशामृत का पान नग्नावस्था प्रिय है।" कराते हुए कुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्र पर ३६ दिन का वस्तुतः नग्नावस्था ही प्राकृतिक जीवन है। सल्लेखना-व्रत ग्रहण कर भाद्रपद कृष्णा द्वितीया के जैनाचार्यों ने इसीलिए उसे 'यथाजात' (जधजात) दिन प्रातःकाल ६.५० बजे णमोकार-मंत्र का स्मरण कहा है। विश्व के प्रायः सभी प्रमख धर्मों में अपनीकरते हुए शान्तचित्त रहकर समाधि ग्रहण की।
अपनी मान्यतानुसार उसकी प्रशंसा की गई है। तुर्किस्तान आचार्य श्री शान्तिसागरजी के उपदेशों की में अब्दान नामक एक दरवेश था, जो मदारजात शैली अत्यन्त सरल, सरस तथा लोकभुक्त दृष्टान्तों से (यथाजात-जधजात) अर्थात् नग्न रहकर ही अपनी जडित रहने के कारण श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध किये रहती साधना में लीन रहा करता था। थी। जैन श्रोता तो उनके भक्त रहते ही थे, जैनेतर जनता इस्लाम के इतिहास में अनेक दरवेशों (नग्नतथा राजा-महाराजा, प्रशासक अथवा नवाब भी उनके फकीरों) की चर्चाएँ मिलती हैं, जिनमें सरमद नामक प्रति नतमस्तक रहा करते थे।
एक दरवेश का उदाहरण अत्यन्त प्रसिद्ध है । वह सम्राट आचार्य श्री ने एक बार परिग्रह-परिमाण-व्रत औरंगजेब का समकालीन था। वह दिल्ली की सड़कों पर अपने प्रवचन-प्रसंग में कहा था “प्रकृति ने परोपकार पर घूम-घूम कर अध्यात्मवाद का प्रचार करता रहता
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/17
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
था। सुप्रसिद्ध योरुपीय घुमक्कड - इतिहासकार डॉ. बर्नियर उस समय भारत आया हुआ था और उसका उससे वार्तालाप भी हुआ था। सरमद की लोकप्रियता देखकर एक ईर्ष्यालु दरबारी ने औरंगजेब से उस दरवेश को फांसी की सजा सुनाने की प्रार्थना की, किन्तु उसने सरमद को फांसी की सजा न सुनाकर उसे कपड़े पहिनने की सलाह दी। उस सलाह को सुनकर सरमद ने जो सुन्दर तथा निर्भीक उत्तर दिया, वह उसी के शब्दों में देखिए -
-
" आंकस कि तुरा कुलाह सुलतानी दाद, मारा हम ओ असवाव परेशानी दाद, पोशानीद लवास हरकरा एंवे दीद, बे ऐवारा लवास अर्यानी दाद । "
अर्थात् जिसने तुझको सुलतानी ताज दिया, उसी ने हम को परेशानी का सामान भी दे दिया। जिस किसी में कोई ऐब (दोष) पाया, उसको तो उसने लिबास (पोशाक) पहिना दिया और जिसमें कोई ऐब न पाया, उसको खुश होकर उसने नंगेपन (दिगम्बरत्व) का लिबास दे दिया।
ग्रन्थ
यही नहीं, क्रिश्चियेनिटी (ईसाई धर्म) में तो प्रारम्भ से ही दिगम्बरत्व की बड़ी प्रतिष्ठा रही है । सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. बी. एन. पाण्डेय ने अपने "भारत और मानव-संस्कृति" इसरायल एवं यूनान में सहस्रों की संख्या में दिगम्बर जैन मुनियों की उपस्थिति की विस्तार पूर्वक चर्चा की है। बाइबिल में एक प्रसंग में कहा है - ......And he stripped his clothes also and prophesied before samuel in like manner and lay down naked all that day and all that night. Wherefore they said, is Samual also among the prophes? samuel, XIX-XXIV
अर्थात् उसने उनका आदेश सुनते ही अपने
वस्त्र उतार फेंके और सेम्युअल के सम्मुख ऐसी घोषणा कर दी और उस दिन पूरे दिन- न-रात वह नग्न ही बना रहा । इस पर उन्होंने कहा 'क्या सेम्युअल भी पैगम्बरों में
से है ?”
-
-
उसी समय प्रभु ने अमोज के पुत्र ईसाइया से कहा कि – “जा और अपने वस्त्र उतार दे और अपने पैरों से जूते निकाल डाल और उसने भी तत्काल वही किया भी। उसी समय से वह दिगम्बर (नग्न) होकर नंगे पैरों से ही जगह-जगह विचरने लगा । "
At the same time spake the Lord by Isaih the son of Amoz, Saying - ‘Go and Loose the sack....clothe from off thy lions and put off thy shoes from thy foot. And did so walking naked and bare foot.
Isaih,XX-2
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/18
-
दुर्भाग्य से बीसवीं सदी की विदेशी कृत्रिम संस्कृति इतनी प्रभावक सिद्ध हो रही है कि उसने भारत की अधिकांश जनता को अपनी चपेट में ले लिया है। किन्तु कृत्रिमता कभी भी स्थायी नहीं होती। धीरे-धीरे लोगों में विवेक का भी उदय हो रहा है और सम्भवतः उससे विरक्ति भी होने लगी है, भले ही उसकी गति अत्यन्त धीमी हो किन्तु एक दिन ऐसा भी अवश्य आयेगा कि लोग अपनी सहज स्वाभाविक स्थिति में लौटेंगे।
हेम्पशायर के बेडल्स स्कूल के सचिव श्री बरफोर्ड के अनुसार योरुप में अनेक इंजीनियर्स, प्रोफेसर्स, डॉक्टर्स, एडवोकेट्स आदि उच्चशिक्षा प्राप्त व्यक्ति दिगम्बरवेश में रहना अपने लिये अधिक हितकारी मानने लगे हैं। एक प्रसंग में उनका कथन है कि - "Next year, as I say we shall be even more advanced and in time people will get quite used to the idea of mearing no clohes at all in the open and will realise its enormous aslue to health" - Amrita Bazar Patrika - 8 / 8/1931 अर्थात् एक वर्ष के भीतर ही ऐसा प्रतीत हो रहा है कि नग्न रहने की प्रथा विशेष रूप से विकसित हो जायेगी और कालक्रमानुसार मनुष्यों को खुले रूप से कपड़े पहनने की जरूरत ही नहीं रहेगी। नग्न रहने से उन्हें स्वास्थ्य के लिये जो अचिन्तनीय लाभ मिलेगा, वह उन्हें तभी स्पष्ट ज्ञात हो सकेगा ।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
लायसन (स्विट्जरलैण्ड) के सुप्रसिद्ध डॉक्टर इस प्रकार देश-विदेश के अनेक जैनेतर विद्वानों रोलियर ने दिगम्बरत्व का गहन अध्ययन कर नग्न एवं चिकित्सकों ने दिगम्बरत्व की मुक्तकंठ से प्रशंसा चिकित्सा-पद्धति का ही प्रचलन कर दिया है और की है। दुर्भाग्य से हम लोग अपने ही दिगम्बरत्व की अपनी इस चिकित्सा-पद्धति से अनेक प्रकार के रोगों गरिमा एवं महिमा भूलते जा रहे थे, किन्तु धन्य हैं वे का इलाज कर संसार में हलचल ही मचा दी है। उनका प्रात:स्मरणीय चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी कथन है कि - "हमारी चिकित्सा प्रणाली के प्रमुख महाराज, जिन्होंने इस सदी में अवतरित होकर हमारे अंग हैं -- (१) स्वच्छ वायु-सेवन, (२) नग्न रहकर में उस सिद्धान्त के विस्मृत गौरव को पुन: जागृत कर धूप-सेवन, (३) नग्न रहकर भ्रमण एवं (४) नग्न रहकर दिया है और हम अपने माथे को उन्नत कर गर्व के साथ दौड़ना।”
रह रहे हैं। इनसाइक्लोपीडिया-ब्रिटैनिका में भी दिगम्बरत्व यह परम प्रसन्नता का विषय है कि आचार्यके पक्ष में सुन्दर विचार व्यक्त किये गये हैं। डॉक्टरों का प्रवर पूज्य विद्यानन्दजी की प्रेरणा से समग्र जैनसमाज यह दीर्घकालीन अनुभव है कि जब से मनुष्य स्वाभाविक १९/७/०३ से उत्कृष्ट चारित्र एवं संयम के पावन (यथाजात) जीवन छोड़कर वस्त्रों में लिपटते गये, तभी प्रतीक चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी की से वे जुखाम, खाँसी, ज्वर एवं क्षय जैसी बीमारियों १३१वीं जयन्ती पूरे एक वर्ष तक “संयम-वर्ष" के के शिकार होते गये और अल्पजीवी होने लगे। रूप में मनाया। समाज के सर्वांगीण विकास के
जर्मनी के गेलेण्डे (Gelende) में तो एक ऐसा ऐतिहासिक क्रम का यह एक विशेष अध्याय का रूप स्थान बनाया गया है, जहाँ सैकड़ों नर-नारियाँ निर्विकार धारण करेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। मन से नग्न रहते हुए उक्त पद्धति से स्वास्थ्य लाभ करने लगे हैं।
- बी-५/४०, सी. सेन्टर ३४, धवलगिरि, पो. नोयड़ा (उ.प्र.)
बहुगाणं संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं ।
मग्गो य दीविदो भगवदो य आणाणुपालिया होदि॥२४८॥ अर्थ - बाह्य तप के प्रभाव से बहुत जीवों को संसार से भय उत्पन्न होता है। जैसे एक को युद्ध के लिये सजा तैयार देखकर अन्य अनेक जन भी युद्ध के लिये उद्यमी हो जाते हैं। वैसे ही एक को कर्म नाश करने में उद्यमी देखकर अनेक जन कर्म नाश करने के लिये उद्यमी हो जाते हैं तथा संसार पतन से भयभीत हो जाते हैं और मिथ्यादृष्टि जीवों के भी सौम्यता उत्पन्न होती है/सन्मुख हो जाते हैं। मार्ग/मुक्ति का मार्ग प्रकाशित होता है वा मुनि मार्ग दीपता हुआ प्रगट, दिखता है एवं भगवान की आज्ञा का पालन भी हो जाता है। अत: भगवान की यह आज्ञा है कि तप बिना काम, निद्रा, इन्द्रिय, विषय, कषाय नहीं जीते जाते, तप से ही कामादि जीते जाते हैं, और परमनिर्जरा करते हैं। इसलिए जिसने तप किया उसने भगवान की आज्ञा अंगीकार की।
- भगवती आराधना
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/19
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य श्री शान्तिसागरजी का चरम मांगलिक प्रवचन
"
“करजोर भूधर बीनवै कब मिलिहिं वे मुनिराज यह आस मन की कब फलै, मम सरहिं सगरे काज । संसार विषम विदेश में जे बिना कारण वीर, ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर ॥”
कविवर भूधरजी की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त उद्गार न केवल दिगम्बर विरागी सन्तों के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा और भक्ति को ज्ञापित करते हैं, अपितु यह भी सूचित करते हैं कि उनके काल में ऐसे सन्तों के दर्शन प्रायः अप्राप्य थे।
यहाँ तक कि आचार्य श्री शान्तिसागरजी के पहले भी जिन चार आदिसागरजी नामवाले पूज्य मुनिराजों की चर्चा प्राप्त होती है, वे चारों ही परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागरजी मुनिराज के समान वीतराग धर्म के प्रभावक नहीं बन पाये थे । वैयक्तिक साधना में उनका वैशिष्ट्य निःसन्देह अनुपम था, किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर विरागी - दिगम्बर सन्त के रूप में वीतराग धर्म की प्रभावना का जैसा अतुलनीय कार्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी के द्वारा हुआ, वैसा अन्य किसी से सम्भव नहीं था। इसीलिए लुप्तप्रायः श्रमणचर्या के वे युगप्रवर्तक कहे गए। इसके साथ ही उग्र तपस्वियों के जिस अतिशय महिमावन्त तप का वर्णन हम आगमग्रन्थों में पढ़ते हैं, उनको अपने जीवन में जीवन्त करके अत्यन्त सहज चर्या के रूप में जिस प्रकार से उन्होंने चरितार्थ किया, उसके कारण चतुर्विध संघ द्वारा कृतज्ञतापूर्वक दिया गया चारित्र चक्रवर्ती पद भी पूर्णतया सटीक और सार्थक सिद्ध होता है।
डॉ. सुदीप जैन
द्वारा कहे गए ये वचन उनके समग्र व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करते हैं । "सौ बात की एक बात है कि सैकड़ों कर्मठ विद्वानों के सैकड़ों वर्षपर्यन्त रात-दिन अथक परिश्रम करने पर जो समाजोत्थान एवं समाज कल्याण का कार्य अति कठिनता से हो सकता था, वह त्यागमूर्ति आचार्य श्री शान्तिसागरजी के विहार से कुछ ही दिनों में सरलतया हो रहा है। "
मंगलाचरण का वैशिष्ठ्य आचार्य श्री के अन्तिम उपदेश के प्रारम्भ में पूज्य आचार्यश्री ने एक अद्भुत मंगलाचरण प्रस्तुत किया है, जिसमें तीन तो ऐसे महामन्त्र हैं, जिनका विवेचन विशेषज्ञ विद्वान् ही कर सकते हैं । वे हैं - ॐ सिद्धाय नमः, ॐ जिनाय नमः, ॐ अर्हं सिद्धाय नमः । इसके बाद उन्होंने मंगलाचरण के समस्त पक्षों और उद्देश्यों को समाविष्ट करते हुए छह मंगल स्मरण रूप वंदन किए हैं।
प्रथम वंदन कर्मभूमियों के अर्थात् ढाई द्वीप के पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों के भूत काल, भविष्य काल और वर्तमान काल की तीस चौबीसियों के सात सौ बीस तीर्थंकरों को वन्दन किया गया है, तथा द्वितीय वन्दन में विदेह क्षेत्र में विद्यमान बीस तीर्थंकर भगवन्तों को वन्दन किया गया है। इसप्रकार इन दो वन्दनों में इष्टदेवता स्मरण का अनुपालन हुआ है। इसके बाद वन्दन में वर्तमान काल के चौबीस तीर्थंकरों के प्रधान शिष्यों गणधरों को वन्दन कर विशिष्ठ गुरु परम्परा का मंगल स्मरण करते हुए कृतज्ञता ज्ञापन का अनुपालन किया है। इसके साथ ही शेष तीव्र वन्दनों में क्रमशः
उनके समय के प्रत्यक्षदर्शी धर्मप्राण श्रावक के ऋद्धिधारी मुनिराजों, अंतः कृत मुनिवरों एवं घोरोपसर्ग
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/20
-
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
विजयी मुनिराजों को उस शिष्टाचार परिपालन के रूप द्वारा यदि इस पतित पावन जैनधर्म को श्रद्धापूर्वक में वन्दित किया गया है, जिनके अनुगामी अथवा अपनाया जाएगा तो उन्हें अवश्य ही मोक्षप्राप्ति होगी। यथाशक्ति अनुसरणकर्ता वे नम्रतापूर्वक अपने आपको इसप्रकार उन्हें जिनधर्म की महिमा और उनके कल्याण मानते थे। इस स्मरण को उनकी उग्र तपस्या की भावी का दृढ़ आश्वासन देते हुए पूज्य आचार्यश्री ने यह सीढ़ी भी सम्भावित किया जा सकता है। बताया कि यदि आत्मकल्याण करना ही है तो वीतरागी
जिनवाणी की महिमा - मंगलाचरण के देव-गुरु-धर्म में दृढ़ श्रद्धान रखना होगा। उपरान्त आचार्यश्री ने द्वादशांग जिनवाणी का महिमागान जिनप्रणीत वस्तु-व्यवस्था के विवेचन का करते हुए उसे आत्महित का अन्यतम साधन बताया सार : भेदविज्ञान - इसप्रकार भव्य जीवों को उनके है। उन्होंने कहा कि जिनवाणी सरस्वती देवी अनन्त अवश्यम्भावी कल्याण के प्रति दृढ़ता से आश्वस्त समुद्रप्रमाण है, उनके अनुसार जो जिनधर्म को धारण करते हुए पूज्य आचार्यश्री ने जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा करेगा, उसका कल्याण निश्चित है। यदि जिनवाणी माँ वर्णित वस्तुव्यवस्था में जीवादि द्रव्यों का संक्षिप्त उल्लेख के एक अक्षर ॐ को भी अपने जीवन में उतार लिया किया और विशेष रूप से जीव और पुद्गल के भिन्नजाए तो भी जीव का कल्याण हो सकता है। भिन्न लक्षण बताए। इस उद्देश्य से जीवों को अनादिकाल
जिनधर्म की उदारता एवं प्रभाव-जिनवाणी से पुद्गलों के प्रति एकत्व और ममत्व की जो अनिवार की महिमा के बाद जिनधर्म की महिमा का गान पूज्य भ्रान्ति है, उसे वे दूर करना चाहते हैं और भेदविज्ञान आचार्य श्री ने अनेक दृष्टान्तों के साथ किया है। सर्वप्रथम का महामन्त्र देना चाहते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि पुद्गल वे कहते हैं कि शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखरजी पर से आत्मा के भेदविज्ञान के बिना यह जीव मोहनीय कर्म अपनी नटखट एवं चंचल क्रीड़ाओं के द्वारा काल का बन्ध करता हुआ संसार में भटक रहा है तथा इस व्यतीत करने वाले दो बन्दरों ने मात्र णमोकार मन्त्र के मनुष्य भव की सार्थकता आत्महित साधनरूप पुरुषार्थ श्रवण से अपनी गति सुधारी और तिर्यंचगति से देवगति करने में है और इस पुरुषार्थ की सिद्धि भेदविज्ञान के को प्राप्त हुए। इसके बाद सेठ सुदर्शन का दृष्टान्त देते द्वारा ही हो सकती है। हैं, जिसमें एक बैल को दिये गये उपदेश से उसकी यद्यपि अपने अज्ञानमय भावों से संसारी जीव देवगंति प्राप्ति का वर्णन है। इसी प्रकार सप्त व्यसनों के आठ कर्मों की १४८ प्रकृतियों का बन्ध करता है. फिर विकट जाल में फँसे हए अंजनचोर को भी णमोकार भी एकमात्र मोहनीय कर्म के दर्शन मोहनीय और चारित्र मन्त्र के प्रभाव से सुगतिगमन का वर्णन करते हैं। मोहनीय रूप अंशों के प्रभाव से जीव के जो परिणाम वीतराग धर्म के प्रभाव की पराकाष्ठा को बताते हुए वे होते हैं, वे ही नवीन कर्मबंध के कारण होते हैं। इसीलिए कहते हैं कि कुत्ते जैसा निकृष्ट तिर्यंच भी जीवन्धरकुमार आचार्यश्री ने भेदविज्ञान की प्ररेणा के बाद भव्य जीवों का उपदेश सुनकर देवगति को प्राप्त हुआ। इन सब को मोहनीय कर्म के प्रति विशेष रूप से सावधान किया जीवों की देवगति प्राप्ति कहने में आचार्यश्री का यह है। अभिप्राय कतई नहीं है कि जिनधर्म और जिनवाणी के मोहकर्म की घातकता - इस बात को वे न श्रवण से मात्र देवगति मिलती है, अपितु वे कहना केवल उपदेशरूप में कहते हैं, बल्कि विशेष प्रेरणा देने चाहते हैं कि ये जीव जिनधर्म के प्रभाव से देवगति प्राप्त के लिए वे यह कहते हैं कि “मोहनीय कर्म को छोडो, करते हुए परम्परा से मोक्ष को प्राप्त हुए। इस प्रकार जब यह मेरा आदेश भी है।" ऐसे तिर्यंच जीव भी जिनधर्म के प्रभाव से आत्मकल्याण
सम्यग्दर्शन की प्रेरणा - इसके बाद मोहकर्म कर सकते हैं तो वीतराग जैनकल में उत्पन्न श्रावकों के
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/21
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
के त्याग की प्रक्रिया का निरूपण करते हुए उन्होंने सर्वप्रथम दर्शन मोहनीय कर्म अथवा मिथ्यात्व को छोड़ने की प्रेरणा दी और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए प्रेरित किया । सम्यग्दर्शन को पाने के लिए उपयोगी साहित्य के रूप में उन्होंने दो टूक शब्दों में प्रमुखता से युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द के परमागम रूप ग्रन्थों को नामोल्लेखित किया। इनके साथ ही सम्यक्त्व में बाधक परिणामों की विशेषता को जानने के लिए उन्होंने करणानुयोग के प्रतिनिधि ग्रन्थ गोम्मटसार की भी सम्यग्दर्शन के लिए उपादेयता प्ररूपित की। निश्चयव्यवहार का अभूतपूर्व संतुलन उनके इस प्ररूपण में दृष्टिगोचर होता है।
मध्यम मंगल विधान - इतना प्ररूपण करने के बाद आचार्यश्री शान्तिसागरजी मुनिराज पुनः मध्य मंगल के रूप में ॐ सिद्धाय नमः का मंगलघोष करते हैं। यह प्रकरण के परिवर्तन का भी सूचक है और मंगल-विधान को भी इंगित करता है ।
आत्मचिन्तन ही सर्वोत्कृष्ट कार्य है - इस प्रकार मध्यमंगल करने के बाद आचार्यश्री शान्तिसागरजी मुनिराज भव्य जीवों को आत्महित साधन के लिए कुछ प्रायोगिक बिन्दुओं का प्ररूपण करते हैं । इनके अन्तर्गत उन्होंने सर्वाधिक वरीयता आत्म- - चिन्तन को प्रदान की है। परमानन्द स्तोत्र में भी कहा गया है कि उत्तमा स्वात्मचिन्ता स्यात् अर्थात् निज आत्मतत्त्व का चिन्तन जीवन का सर्वोत्कृष्ट कार्य है। व्यवहारधर्म के रूप में तीर्थयात्रा आदि धार्मिक कार्यों को वे उत्कृष्ट पुण्यबन्ध का साधन तो बताते हैं, किन्तु उसे कर्म निर्जरा का साधन नहीं मानते। वे कहते हैं कि “फिर आपको क्या करना चाहिए ? दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करना चाहिए। किससे उसका क्षय होता है ? एक आत्मचिन्तन से होता है। कर्म-निर्जरा किससे होती है ? आत्मचिन्तन से होती है। अनन्त कर्मों की निर्जरा के लिए आत्मचिन्तन साधन है। आत्मचिन्तन किए बिना कर्मों की निर्जरा होती नहीं, केवलज्ञान होता नहीं, केवलज्ञान के बिना मोक्षप्राप्ति नहीं है।"
आत्मचिन्तन के प्रायोगिक निर्देश - इसके बाद वे आत्मचिन्तन के लिए कुछ प्रायोगिक निर्देश करते हुए कहते हैं कि "चौबीसों घण्टों में छह घड़ी उत्कृष्ट कही गई है, चार घड़ी मध्य मानी गई है, दो घड़ी जघन्य कही गई है। जितना समय मिले, उतना समय आत्मचिन्तन करें। कम से कम १० ० - १५ मिनट तो करें । आत्मचिन्तन किए बिना सम्यक्त्व प्राप्ति नहीं होती है और सम्यक्त्व प्राप्ति के बिना कर्मों का बन्धन नहीं छूटता, जन्म-मरण नहीं छूटता।”
संयम की प्रेरणा - इस प्रकार मोक्ष महल की पहली सीढ़ी सम्यग्दर्शन का निर्देश एवं प्रेरणा दोनों प्रदान करते हुए आचार्यश्री शान्तिसागरजी मुनिराज बताते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव ही वास्तव में संयम को अंगीकार कर सकता है। वे कहते हैं कि "सम्यक्त्व होने पर संयम के पीछे लगना चाहिए। यह चारित्र मोहनीय कर्म का उदय है कि सम्यक्त्व होकर ६६ सागर तक रहता है, परन्तु मोक्ष नहीं होता। क्यों ? चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने से । इसलिए चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करने के लिए संयम को ही धारण करना चाहिए । संयम के बिना चारित्रमोहनीय कर्म का नाश नहीं होता। इसलिए कैसे भी हो, यथाशक्ति संयम अवश्य धारण करना चाहिए। इसके लिए डरो मत। "
संयम को कर्म - निर्जरा का प्रधान कारण बताते हुए वे इसे केवलज्ञान का साधक एवं सिद्धि प्रदायक बताते हैं । इतना कथन करने के बाद आचार्यश्री पुनः एक बार ॐ सिद्धाय नमः कहकर एक और मध्यमंगल करते हैं । यह मध्यमंगल स्पष्टरूप से प्रकरण परिवर्तन का परिचायक है, क्योंकि अब वे समाधि की अवस्था का प्रेरक निरूपण कर रहे हैं। वे कहते हैं कि गृहस्थों को सविकल्प समाधि होती है, जबकि मुनिराजों को पूर्ण निर्विकल्प समाधि होती है। मुनिपद के लिए निर्ग्रन्थता को अंगीकार करने की प्रेरणा वे आचार्य अमृतचन्द को लगभग चरितार्थ करते हुए देते हैं। आचार्य अमृतचन्द ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ में यह स्पष्ट रूप से कहा है कि भव्य जीवों को सर्वप्रथम महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/22
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुनिधर्म अंगीकार करने की ही प्रेरणा देनी चाहिए। जो के लिए वे पुन: जिनवाणी माँ की शरण लेने को कहते ऐसा नहीं करता है वह निग्रह का स्थान अर्थात् दण्ड हैं, क्योंकि जिनवाणी ही गृहस्थ के लिए अपेक्षाकृत का पात्र है। फिर यदि जीव अपनी कमजोरी से मुनिधर्म सदा उपलब्ध उपदेशक और मार्गदर्शक है। को अंगीकार करने में असमर्थता व्यक्त करे तो श्रावधर्म सारांश - अन्त में अपने मंगल प्रवचन का को अंगीकार करने की प्रेरणा देनी चाहिए। सारांश बताते हुए वे धर्मस्य मूलं दया कहकर अहिंसामयी
__मुनिपद का उपदेश - सम्भवतः इसी तथ्य आचरण की प्रेरणा देते हैं और अहिंसक जीवन अपनाकर को दृष्टिगत रखकर उन्होंने कहा कि “वस्त्र छोड़े बिना सम्यग्दर्शन अंगीकार करने और संयम का पालन करने मुनिपद नहीं होता है। भाईयो ! डरो मत, मुनिपद धारण से ही आत्महित होगा - ऐसा कहकर वे अपने मंगल करो।" किन्तु उनके इस कथन का यह अभिप्राय प्रवचन की पूर्णता घोषित करते हैं। कदापि नहीं था कि बिना विचार और अभ्यास के, मात्र आत्मकथ्य - हम विचार करें कि जिनवाणी भावुकता में मुनिपद को अंगीकार किया जाए। यह बात के द्वारा प्रतिपादित समस्त तत्त्वज्ञान को एक अन्यतम प्रेरणा के रूप में ही ठीक थी, क्योंकि जब उन्होंने आदर्श के रूप में कम से कम शब्दों में शास्त्रोक्त दीक्षागुरु से सीधे मुनिदीक्षा देने का निवेदन किया था, विधिपर्वक जिस प्रकार इस मंगल प्रवचन में समेटा गया तो उन्होंने उन्हें पहले क्षुल्लक दीक्षा देकर निर्ग्रन्थ है, वैसा संतुलन और सारगर्भित रूप बड़े-बड़े शास्त्रियों श्रमणाचार्य का अभ्यास कर पारंगत होने की बात कही और धुरन्धर विद्वानों, व्याख्यान वाचस्पतियों के थी और क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक वर्षों तक अभ्यास उदबोधनों में भी इतनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं होता करने के बाद उन्हें मुनिदीक्षा मिली थी। स्वयं जिस है। कितना ही अच्छा होता कि यदि परमपूज्य आचार्यश्री प्रक्रिया को अपनाया हो, उसका विरोध वे भला कैसे शान्तिसागरजी मुनिराज के समस्त प्रवचनों को इसी कर सकते थे। इसीलिए मुनिधर्म की प्रेरणा देने के प्रकार संजोकर प्रकाशित किया गया होता. तो आज साथ-साथ वे श्रावक के छह आवश्यक कर्मों देवपूजा, उनके मंगल प्रवचनों के रूप में एक अमल्य निधि गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान की समाज के पास होती। फिर भी, उनका यह एक प्रवचन प्रेरणा देते हैं और इन्हें असि, मसि, कृषि, काणिज्य, ही समाज के लिए और भव्य जीवों के लिए शिल्प और विद्या इन छह आरम्भ रूप कमों को क्षय आत्महितकारी मार्गदर्शन करने में पर्याप्त समर्थ है। करने के लिए आवश्यक बताते हैं। इसके साथ ही वे आवश्यकता है इसके एक-एक शब्द की गहराई को पुनः स्पष्ट करते हैं कि देवपूजा आदि क्रियाएँ ही व्यवहार बिना किसी पूर्वाग्रह के समझने और उसे निष्ठापूर्वक हैं, इनसे साक्षात् मोक्ष का साधन नहीं होता। वे कहते आत्मसात् करने की। हैं कि “छह आरम्भजनित कर्मों का क्षय करने के लिए
उनके इस मंगल प्रवचन को इस पुनीत प्रसंग छह क्रियाओं को करने की आवश्यकता है। यह व्यवहार
हार में देश की ही नहीं, विश्वभर की धर्मप्राण जनता हुआ। उससे यथार्थ में मोक्ष नहीं होता; ऐहिक सुख ।
: जिज्ञासापूर्वक जाने, इस दृष्टि से इसके व्यापक प्रचार मिलेगा, पंचेन्द्रिय सुख मिलेगा, परन्तु मोक्ष नहीं
की महती आवश्यकता है। मिलेगा। मोक्ष किससे मिलता है ? मोक्ष केवल
बी-३२, छत्तरपुर एक्सटेंशन, आत्मचिन्तन से मिलता है। बाकी किसी भी कर्म से,
नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली क्रिया से, कार्य से और किसी कारण से मोक्ष नहीं मिलता।” जिनवाणी शरणं- इन सब कार्यों के साधन
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/23
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षु.जिनेन्द्र वर्णी एक सिमटा-सा विराट व्यक्तित्व
- प्रो.(डॉ.) सुदर्शन लाल जैन, वाराणसी
अत्यन्त क्षीणकाय, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, मौन शब्द सुनकर आपके धार्मिक विचारों ने अंगड़ाई लेना साधक, दृढ़ संकल्पी, एकान्तप्रिय, अध्यात्मयोगी, आरम्भ कर दी। फलतः शास्त्र स्वाध्याय आपके जीवन अपरिग्रही क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी का जन्म अक्टूबर सन् का अभिन्न अंग बन गया। शास्त्र-स्वाध्याय का ही फल १४ मई २२ में पानीपत (हरियाणा) में हुआ था। है कि आपके द्वारा निम्न अमूल्य ग्रन्थों का प्रणयन हो
आपके पिता श्री जय भगवानजी एक ख्यातिप्राप्त वकील सका। तथा जैन सिद्धान्तों के मर्मज्ञ थे।
रचनाएँ - आपका शरीर बचपन से ही दुर्बल और अस्वस्थ १. शान्तिपथप्रदर्शक (१९६०) आध्यात्मिक रहा है। टायफाइट ज्वर ने कई बार बचपन में आक्रमण प्रवचनों का संग्रह । इसमें जैनधर्म और दर्शन का सांगोपांग किया। श्वास का रोग पिताजी से विरासत में मिला। विवेचन है। अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। सन् १९३८ में क्षयरोग के कारण आपका एक फेफड़ा
२. श्रद्धा-बिन्दु (१९६१) इसमें ऋषियों के हमेशा के लिए बन्द कर दिया गया। डॉक्टरों ने मांसाहार ।
द्वारा प्रदर्शित विधि-विधानों को अन्धरूढी मानने वालों और अण्डे का प्रयोग करने की सलाह दी, परन्तु जीवन ।
की दृष्टि का परिमार्जन है। के मूल्य पर इस सलाह को आपने स्वीकार नहीं किया। आपने कांड-लीवर आयल तथा लीवर-एक्सट्रेक्ट
३. नयदर्पण (१९६५) जैन न्याय विषयक इन्जेक्शन भी लेना स्वीकार नहीं किया। इस भय से कि प्रवचनों का संग्रह । इसमें सप्तभंगी आदि जटिल सिद्धान्तों कहीं कोई कदाचित् दवा में कुछ मिलाकर न खिला का सरल भाषा में सांगोपांग विवेचन है। देवे। आपने अस्पताल की औषधि का भी त्याग कर ४. कुन्दकुन्द दर्शन (१९६६) कुन्दकुन्दाचार्य दिया। आपकी दृढ़ संकल्प-शक्ति का प्रभाव है कि के तीन सूत्रों दसणमूलो धम्मो, वत्थु-सहावो धम्मो भयंकर से भयंकर झटकों के बावजूद भी आपका जर्जर तथा चरित्तं खलु धम्मो का सयुक्तिक एवं समन्वयात्मक शरीर नष्ट नहीं हुआ।
विवेचन है, जो वेदान्त दर्शन से समानता रखता है। धर्म के प्रति काव - बचपन में आपकी ५. कर्मसिद्धान्त कोश (१९६८) कर्म-सिद्धान्त रुचि धार्मिक कार्यों में नहीं थी, आप न तो मन्दिर जाते का सार इसमें वर्णित है। थे और न शास्त्रादि पढ़ते-सुनते थे। एक बार सन् ६. जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश (१९७०) अपूर्व कोश १९४९ में पूर्यषण पर्व के दिन मूसलाधार वर्षा हुई। घर ग्रन्थ है, जो चार भागों में ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। के सभी लोग मन्दिर गए थे। आप काफी देर तक रोते इसमें वर्णीजी के व्यापक वैदुष्य का पता चलता है। रहे, फिर पानी में भीगते हुए मन्दिर गए तथा वहाँ गीले
७. सत्यदर्शन (१९७२) दश दर्शनों का वस्त्रों में ही बैठकर शास्त्र सुनने लगे। अह ब्रह्मास्मि समन्वयात्मक परिचय ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/24
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
एम. ई. एस. कान्ट्रक्टर भी हो गए थे। साधनों की सुलभता और अच्छे व्यापार के बावजूद जब सांसारिक माया में मन न रमा तो अपने दोनों छोटे भाईयों को सब सम्पत्ति सम्हलवाकर सन् १९५७ में अणुव्रत धारण करके गृह त्याग दिया। आध्यात्मिक सन्त क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी का सानिध्य पाकर ईसरी में सन् १९६१ में क्षुल्लक दीक्षा ले ली। कालान्तर में अस्वस्थता के कारण क्षुल्लक अवस्था को सरस्वती की आराधना में अनुकूल न देखकर सत्यनिष्ठापूर्वक पुनः ब्रह्मचर्य अवस्था धारण कर ली। ऐसा होने पर भी निःस्पृहता में कोई कमी नहीं आने दी । २४ मई, सन् १९८३ को
रहस्य ।
अन्य ग्रन्थ -
१. जैन सिद्धान्त शिक्षण (१९७६) प्रश्नोत्तर सविधि समाधिमरण पूर्वक शरीर त्याग किया।
पद्धति से जैन सिद्धान्तों का विवेचन ।
८. वर्णी दर्शन (१९७४) पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी की जीवन झाँकी ।
९. समणसुत्तं (१९७४) श्रीमद्भगवद्गीता तथा बाइबिल की तरह समस्त जैनों का प्रामाणिक ग्रन्थ । इसकी रचना के प्रेरक हैं राष्ट्रसन्त विनोबा भावे ।
१०. पदार्थविज्ञान (१९७७) षड्द्रव्यों का वैज्ञानिक परिचय |
११. कर्मरहस्य (१९८१) कर्म सिद्धान्त का
२. Science towards monism (1970) पिताश्री जय भगवान के कतिपय लेखों का संकलन ।
३. जैन तीर्थक्षेत्र मानचित्र (१९७४) । समस्त जैन तीर्थक्षेत्रों का परिचय ।
इन ग्रन्थों में शान्तिपथप्रदर्शक, समणसुत्तं तथा जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश बहुत प्रचलित और उपयोगी ग्रन्थ हैं। कुछ कृतियाँ अभी अप्रकाशित हैं। आपके दृढ़ संकल्प के समक्ष आपका जर्जर शरीर अति कष्टसाध्य इस साधना में रूकावट नहीं बन सका ।
विराट् व्यक्तित्व
बाह्याचरण की आपने कभी उपेक्षा नहीं की । अन्तरंग साधना के साथ बाह्य साधना की ऐसी मैत्री अन्यत्र प्रायः : दुर्लभ है। पौष और माघ मास की कड़कड़ाती सर्दी में भी पतली सी धोती एवं सूती चादर से मौन -साधना करना आपकी आचारदृढ़ता तथा कष्ट-सहिष्णुता की साक्षी है। वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि आत्मसाधना में वज्र से भी अधिक कठोर थे तथा परोपकार में फूल से भी अधिक सुकुमार थे।
इलेक्ट्रिक तथा वायरलैस प्रौद्योगिकी में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी तथा कलकत्ता में सन् १९५१ में
साम्प्रदायिकता एवं रूढ़िवादिता से आप कोसों दूर रहते थे। वैज्ञानिक कसौटी से आत्मशोधन में लीन रहते थे। लोक- दिखावा से बहुत दूर रहते थे। एकान्तप्रेमी थे। सभी धर्मों के सन्तों के प्रति समताभाव रखते थे तथा उनसे विचार-विमर्श करने उनके पास जाने में हिचकिचाते नहीं थे ।
बनारस नगरी में - बनारस में आपने भदैनी के छेदीलालजी के जैन मन्दिर में रहकर बहुत लम्बी ज्ञान-साधना की है।
प्रवास - वाराणसी में लगभग १५ वर्षों तक रहे, जहाँ मुन्नी बाबू, उनकी माँ, उनका परिवार तथा श्री नानकचन्द्रजी सपरिवार आपकी सेवा में सदा रहते थे। बनारस से आपका बड़ा प्रेम था । बनारस नगरी पार्श्वनाथ की जन्मभूमि है। समीपस्थ सारनाथ ग्यारहवें सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ तथा तेईसवें तीर्थंकर तीर्थंकर श्रेयांसनाथ की तथा चन्द्रपुरी आठवें चन्द्रप्रभु की जन्मभूमि है। वर्णीजी ने सारनाथ को भी अपनी
साधना का क्षेत्र बनाया था । बनारस में ही पण्डितराज गोपीनाथ कविराजजी से भी आपने कई सिद्धान्तों पर करीब एक माह तक चर्चा की। कविराजजी आपसे बहुत प्रभावित हु और उन्होंने आपकी फोटो अपने कक्ष में अनेक उच्च कोटि के सन्तों के मध्य लगवाई।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/25
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जिनेन्द्र वर्णीजी ने अपनी साधना के लगभग दो दशक वाराणसी में बिताये। यहीं रहकर आपने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, समणसुत्तं को अन्तिम रूप दिया। कृतज्ञ समाज ने आपका एक विग्रह (स्मारक) सारनाथ में बनाया, जहाँ देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों को उनके सम्बन्ध में थोड़ी जानकारी मिलती है।
ऐसे महामानव, जिसने अपने कृश शरीर से इतना बड़ा कार्य किया, जो अपने आचरण में सदैव ईमानदार रहे और जिन्होंने अपनी सल्लेखना-अवधि में अक्षरश: वही कर दिखाया जैसा कि आपने शांतिपथ प्रदर्शक में वर्णन किया है। ऐसे सम्प्रदायवाद से दूर रहने वाले, एकाकी, कर्मठ संत, दिखावे से दूर रहने वाले और जैन एकता (समणसुत्तं) की नींव रखने वाले की स्मृति जिज्ञासुओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहती है। अभी हम सब उस महान् आत्मा के सम्बन्ध में शायद कम जानते हैं, जिसकी कथनी करनी में कोई फर्क नहीं रहा और उस एक व्यक्ति ने अपने छोटे से जीवन काल में वह कर दिखाया, जिसे सैकड़ों व्यक्ति मिलकर भी शायद अंजाम न दे सकें। - ऐसे एकाकी, सरल, शांति, क्षमाशील, कर्मठ व्यक्तित्व को हमारा शतश: नमन है। ।
अपने भीतर झाँको ।
। धर्मचन्द जैन, सूरत
अपने भीतर झाँको करलो दूर बुराई सारी,
जिससे फिर हँस उठे खुशी से भारतमाता प्यारी। यह शराब है जहर, इसे भूले से कभी न छूना, यह दहेज की प्रथा विवश कन्याओं की हत्यारी, पल में कर देती अबलाओं की माँगों को सूना। इससे नारी की मर्यादा मिली धूल में सारी। जब तक घर में वास करेगी यह मदिरा मतवाली, नारी पूजित जहाँ वहीं सारे देवों की बस्ती, आ पायेगी कभी न तेरे आँगन में खुशहाली। कहने वाले भारत में ही नारी कितनी सस्ती। क्यों करती अपनी माताओं, बहनों को दुखियारी। माँ का हो अपमान अगर तो इज्जत कहाँ तुम्हारी। अपने भीतर झाँको करलो दूर बुराई सारी॥ अपने भीतर झाँको करलो दूर बुराई सारी।। अपनी बुद्धि और श्रमबल से लाखों करो कमाई, रक्षक भक्षक बने और है यहाँ न्याय भी अंधा, लोभ पाप का बाप कभी तुम जुआ न खेलो भाई। नेताजी की शह पर होता दो नम्बर का धंधा। देख देश की दशा आँख में आँसू भर-भर आये, है चुनाव या छीना-झपटी, लोकतन्त्र यह कैसा, ले गाँधी का नाम, लाटरी खुद सरकार चलाये। पैसा है ईमान और भगवान हमारा पैसा । इसी जुए में बड़े बड़ों ने सारी दौलत हारी। अब करलो आमूलचूल परिवर्तन की तैयारी। अपने भीतर झाँको करलो दूर बुराई सारी। अपने भीतर झाँको करलो दूर बुराई सारी।।
0 अरिहंत टैक्सटाइल्स मार्केट, रिंग रोड, सूरत
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/26
•
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजस्थानी जैन सन्तों की साहित्य-साधना
O डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल भारतीय इतिहास में राजस्थान का महत्त्वपूर्ण उल्लेखनीय हैं। इधर जैन सन्तों का तो राजस्थान सैकड़ों स्थान है। एक ओर यहाँ की भूमि का कण-कण वीरता वर्षों तक केन्द्र रहा है। डूंगरपुर, सागवाड़ा, नागौर, एवं शौर्य के लिये प्रसिद्ध रहा है तो दूसरी ओर भारतीय आमेर, अजमेर, बीकानेर, जैसलमेर, चित्तौड़ आदि साहित्य एवं संस्कृति के गौरवस्थल भी यहाँ पर्याप्त इन सन्तों के मुख्य स्थान थे, जहाँ से वे राजस्थान में संख्या में मिलते हैं। यदि राजस्थान के वीर योद्धाओं ही नहीं, किन्तु भारत के अन्य प्रदेशों में भी विहार करके ने जन्मभूमि की रक्षार्थ हँसते-हँसते प्राणों को न्योछावर अपने ज्ञान एवं आत्मसाधना से जन-साधारण का किया तो यहाँ होनेवाले साधु-सन्तों, आचार्यों एवं जीवन ऊँचा उठाने का प्रयास करते। ये सन्त विविध विद्वानों ने साहित्य की महती सेवा की और अपनी भाषाओं के ज्ञाता होते थे तथा भाषा-विशेष से कभी रचनाओं एवं कृतियों द्वारा जनता में देशभक्ति, मोह नहीं रखते थे। जिस किसी भाषा में जनता द्वारा कर्तव्यनिष्ठा एवं नैतिकता का प्रचार किया। यहाँ के कृतियों की मांग की जाती उसी भाषा में वे अपनी रणथम्भौर, कुम्भलगढ़, चित्तौड़, भरतपुर, मंडोर जैसे लेखनी चलाते तथा उसे अपनी आत्मानुभूति से दुर्ग यदि वीरता, देशभक्ति एवं त्याग के प्रतीक हैं तो परिप्लावित कर देते। कभी वे रास एवं कथा-कहानी जैसलमेर, नागौर, बीकानेर, अजमेर, जयपुर, आमेर, के रूप में तथा कभी फागु, बेलि, शतक एवं बारहखड़ी डूंगरपुर, सागवाड़ा, टोडारायसिंह आदि कितने ही ग्राम के रूप में पाठकों को अध्यात्म-रस पान कराया करते। एवं नगर राजस्थानी ग्रन्थकारों, साहित्योपासकों एवं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी एवं सन्तों के पवित्र स्थल हैं। इन्होंने अनेक संकटों एवं गुजराती आदि सभी भाषाएँ इनकी अपनी भाषा रहीं। झंझावातों के मध्य भी साहित्य की अमूल्य धरोहर को प्रान्तवाद के झगड़े में कभी नहीं पड़े, क्योंकि इन सन्तों सुरक्षित रखा । वास्तव में राजस्थान की भूमि पावन एवं की साहित्य रचना का उद्देश्य सदैव ही आत्म-उन्नति महान है तथा उसका प्रत्येक कण वन्दनीय है। एवं जनकल्याण रहा। लेखक का अपना विश्वास है
राजस्थान की इस पावन भूमि पर अनेकों विद्वान कि वेद, स्मृति, उपनिषद्, पुराण, रामायण एवं सन्त हए, जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा भारतीय साहित्य महाभारत काल के ऋषियों एवं सन्तों के पश्चात् के भण्डार को इतना अधिक भरा कि वह कभी खाली भारतीय साहित्य की जितनी सेवा एवं उसकी सुरक्षा नहीं हो सकता । यहाँ सन्तों की परम्परा चलती ही रही. जैन सन्तों ने की है उतनी अधिक सेवा किसी सम्प्रदाय कभी उसमें व्यवधान नहीं आया। सगुण एवं निर्गुण अथवा धर्म के साधुवर्ग द्वारा नहीं हो सकी है। राजस्थान दोनों ही भक्ति की धाराओं के सन्त यहाँ होते रहे और के इन सन्तों ने स्वयं तो विविध भाषाओं में सैकड़ों उन्होंने अपने आध्यात्मिक प्रवचनों, गीत-काव्यों एवं हजारों कृतियों का सृजन किया ही, किन्तु अपने पूर्ववर्ती मुक्तक छन्दों द्वारा जन-साधारण को उठाये रखा। इस आचार्यों, साधुओं, कवियों एवं लेखकों की रचनाओं दृष्टि से मीरा, दादूदयाल, सुन्दरदास आदि के नाम को बड़े प्रेम, श्रद्धा एवं उत्साह से संग्रह भी किया।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/27
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक-एक ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतियाँ लिखवा कर विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में विराजमान कीं और जनता को उन्हें पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए प्रोत्साहित किया । राजस्थान के आज सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थभण्डार उनकी साहित्य सेवा के ज्वलन्त उदाहरण हैं । जैन सन्त साहित्य-संग्रह की दृष्टि से कभी जातिवाद एवं सम्प्रदाय के चक्कर में नहीं पड़े, किन्तु जहाँ से भी अच्छा एवं कल्याणकारी साहित्य उपलब्ध हुआ वहीं से उसका संग्रह करके शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत किया गया। साहित्य-संग्रह की दृष्टि से इन्होंने स्थान-स्थान पर ग्रन्थभण्डार स्थापित किये। इन्हीं सन्तों की साहित्यिक सेवा के परिणामस्वरूप राजस्थान के जैन ग्रन्थभण्डारों में डेढ़-दो लाख हस्तलिखित ग्रन्थ अब भी उपलब्ध होते हैं । ग्रन्थसंग्रह के अतिरिक्त इन्होंने जैनेतर विद्वानों द्वारा लिखित काव्यों एवं अन्य ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखीं और उनके पठन-पाठन में सहायता पहुँचाई ।
राजस्थान के जैन ग्रन्थ-भण्डारों में अकेले जैसलमेर के जैन ग्रन्थ-संग्रहालय ही ऐसे संग्रहालय हैं, • जिनकी तुलना भारत के किसी प्राचीन एवं बड़े से बड़े ग्रंथ-संग्रहालय से की जा सकती है। उनमें अधिकांश ताड़पत्र पर लिखी हुई प्रतियाँ हैं और वे सभी राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति हैं । ताड़पत्र पर लिखी हुई इतनी प्राचीन प्रतियाँ अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं है। श्री जिनचन्द्र सूरि ने संवत् १४९७ में बृहद् ज्ञानभण्डार की स्थापना करके साहित्य की सैकड़ों अमूल्य निधियों को नष्ट होने से बचाया। जैसलमेर के इन भण्डारों को देखकर कर्नल टाड, डॉ. बूहर, डॉ. जैकोबी जैसे पाश्चात्य विद्वान एवं भाण्डारकर, दलाल जैसे भारतीय विद्वान आश्चर्यचकित रह गये । द्रोणाचार्यकृत ओघनिर्युक्ति वृत्ति की इस भण्डार में सबसे प्राचीन प्रति है जिसकी संवत् १११७ में पाहिल ने प्रतिलिपि की थी। 'जैनागमों एवं ग्रन्थों की प्रतियों के अतिरिक्त दण्डि कवि के काव्यादर्श की संवत् ११६१ की, मम्मट के काव्यप्रकाश
की संवत् १२१५ की, रुद्रट कवि के काव्यालंकार पर नमि साधु की टीका सहित संवत् १२०६ एवं कुत्तक के वक्रोक्तिजीवित की १४वीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ संग्रहीत की हुई हैं। विमल सूरि कृत प्राकृत के महाकाव्य पउमचरिय की संवत् १२०४ की जो प्रति है, वह सम्भवतः अब तक उपलब्ध प्रतियों में प्राचीनतम प्रति है । इसीतरह उद्योतन सूरिकृत कुवलय माला की प्रति भी अत्यधिक प्राचीन है, जो १२६१ में लिखी हुई है। कालिदास, माघ, भारवि, हर्ष, हलायुध, भट्टी आदि महाकवियों द्वारा रचित काव्यों की प्राचीनतम प्रतियाँ एवं उनकी टीकाएँ यहाँ के भण्डारों के अतिरिक्त आमेर, अजमेर, नागौर, बीकानेर के भण्डारों में भी संग्रहीत हैं । न्यायशास्त्र के ग्रन्थों में सांख्यतत्त्वकौमुदी, पातंजलयोगदर्शन, न्यायबिन्दु, न्यायकंदली, खंडनखंड काव्य, गोतमीय न्यायसूत्रवृत्ति आदि की कितनी
प्राचीन एवं सुन्दर प्रतियाँ जैन सन्तों द्वारा प्रतिलिपि की हुई इन भण्डारों में संग्रहीत हैं। नाटक साहित्य में मुद्राराक्षस, वेणीसंहार, अनर्घराघव एवं प्रबोधचन्द्रोदय के नाम उल्लेखनीय हैं। जैन सन्तों ने केवल संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के संग्रह में ही रुचि नहीं ली, किन्तु हिन्दी एवं राजस्थानी रचनाओं के संग्रह में भी उतना ही प्रशंसनीय परिश्रम किया। कबीरदास एवं उनके पंथ के कवियों द्वारा लिखा हुआ अधिकांश साहित्य आज आमेर शास्त्र भण्डार में मिलेगा। इसी तरह पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो की महत्त्वपूर्ण प्रतियाँ बीकानेर एवं कोटा के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हैं । कृष्णरुक्मणिबेलि, रसिकप्रिया एवं बिहारी सतसई की तो गद्य-पद्य टीका सहित कितनी ही प्रतियाँ इन भण्डारों में खोज करने पर प्राप्त हुई हैं।
राजस्थान के जैन सन्त साहित्य के सच्चे साधक थे। आत्मचिन्तन एवं आध्यात्मिक चर्चा के अतिरिक्त इन्हें जो भी समय मिलता, वे उसका पूरा सदुपयोग साहित्य रचना में करते थे । वे स्वयं ग्रन्थ लिखते, दूसरों से लिखवाते एवं भक्तों को लिखवाने का उपदेश देते।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/28
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपनी रचनाओं के अन्त में इस तरह के कार्य की यहु चरितु पुन भंडारू, अत्यधिक प्रशंसा करते। इसके दो उदाहरण देखिये -
___ जो वरु पढइ सु नर मह सारु । १. जो पढइ पढावइ एक चित्तु,
तहि परदमणु तुही फल देई, सइ लिहइ लिहावइ जो णिरुत्तु ।
संपति पुत्रु अवरु जसु होई॥७००॥ आयण्णई मण्णई जो पसत्थु,
ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने में बड़ा परिश्रम करना परिभावइ अहिणिसु एउ सत्थु ।। पड़ता था। शुद्ध प्रतिलिपि करना, सुन्दर एवं सुवाच्य जिप्पइ ण कसायहि इंदिएहिं, अक्षर लिखना एवं दिन भर कमर झुकाये ग्रन्थलेखन तो लियइ ण सो पासंडि एहि । का कार्य प्रत्येक के लिये सम्भव नहीं था। उसे तो सन्त तहो दुक्किय कम्मु असेसु जाइ, एवं संयमी विद्वान ही सम्पन्न कर सकते थे। इसलिये सो लहए मोक्ख सुक्खभावइ ।। वे ग्रन्थ के अन्त में कभी-कभी उसकी सुरक्षा के
- श्रीचन्द्रकृत रत्नकरण्ड लिये निम्न शब्दों में पाठकों का ध्यान आकर्षित किया २. मनोहार प्रबन्ध ए गुंथ्यो करि विवेक। करते थे - प्रद्युमन गुण सूत्रिकरी, सब वन कुसुम अनेक ॥१०॥ भग्नपृष्ठि कटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधो मुखम्। भवीयण गुणि कंठि करो, एह अपूरव हार। कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् ॥ घरि मंगल लक्ष्मी घणी, पुण्य तणो नहिं पार ॥११॥ इन सन्तों के सुरक्षा के विशेष नियमों के कारण भणि भणाति साभलि, लिखि लिखावइ एह। राजस्थान में ग्रन्थों का एक विशाल संग्रह मिलता है। देवेन्द्रकीर्ति गच्छपती कहि, स्वर्ग मुक्ति लहि तेह। कितने ही ग्रन्थ-संग्रहालय तो अब भी ऐसे हैं, जिनकी
- भ. देवेन्द्रकीर्ति कृत प्रद्युम्नप्रबन्ध किसी भी विद्वान द्वारा छानबीन नहीं की गई है। लेखक इसी तरह कवि सधारु ने तो ग्रन्थ के पढ़ने, को राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों पर शोध-निबन्ध लिखने पढ़ाने, लिखने और लिखवाने का जो फल बतलाया के अवसर पर राजस्थान के १०० से भी अधिक भण्डारों है वह और भी आकर्षक है -
को देखने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। ऐहु चरितु जो वांचइ कोइ,
___यदि मुस्लिमयुग में धर्मान्ध शासकों द्वारा इन सो नर स्वर्ग देवता होइ। शास्त्रभण्डारों का विनाश नहीं किया जाता एवं हमारी हलुवइ धर्म खपइ सो देव,
ही लापरवाही से सैकड़ों-हजारों ग्रन्थ चूहों, दीमक एवं मुकति वरंगणि मागइ एम्ब ।।६९७।। शीलन से नष्ट नहीं होते तो पता नहीं आज कितनी जो फुणि सुणइ मनह धरि भाउ,
अधिक संख्या में इन भण्डारों में ग्रन्थ उपलब्ध होते। ___ असुभ कर्म ते दूरि हि जाइ। फिर भी जो कुछ अवशिष्ट हैं, उनका यदि विविध जोर वखाणइ माणुसु कवणु,
दृष्टियों से अध्ययन कर लिया जावे, उनकी सम्यक् रीति तहि कहु तूसइ देव परदवणु॥ से ग्रन्थसूचियाँ प्रकाशित कर दी जावें तथा प्रत्येक अरु लिखि जो लिखियावइ साथु,
अध्ययनशील व्यक्ति के लिए वे सुलभ हो सकें तो हमारे सो सुर होइ महागुण राथु। आचार्यों, साधुओं एवं कवियों द्वारा की हुई साहित्यजोर पढावइ गुण किउ विलउ,
साधना का वास्तविक उपयोग हो सकता है। जैसलमेर, सो नर पावइ कंचण भलउ॥६९८॥ नागौर, बीकानेर, चुरू, आमेर, जयपुर, अजमेर,
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/29
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
भरतपुर, कामा आदि स्थानों के संग्रहीत ग्रन्थभण्डारों अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, की आधुनिक पद्धति से व्यवस्था होनी चाहिए। उन्हें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र आदि आगम ग्रन्थों पर संस्कृत रिसर्च-केन्द्र बना दिया जाना चाहिए, जिससे प्राकृत, में विस्तृत टीकाएँ लिखीं और उनके स्वाध्याय में वृद्धि अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा पर रिसर्च की। न्यायशास्त्र के ये प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने करने वाले विद्यार्थियों द्वारा उनका सही रूप से उपयोग अनेकान्त-जयपताका, अनेकान्तवाद प्रवेश जैसे किया जा सके। क्योंकि उक्त सभी भाषाओं में लिखित दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। समराइच्चकहा प्राकृतअधिकांश साहित्य राजस्थान के इन भण्डारों में उपलब्ध भाषा की इनकी सुन्दर कथाकृति है, जो गद्य-पद्य दोनों होता है। यदि ताड़पत्र पर लिखी हुई प्राचीनतम प्रतियाँ में ही लिखी हुई है। इसमें ९ प्रकरण हैं, जिनमें परस्पर
जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डारों में संग्रहीत हैं तो कागज पर विरोधी दो पुरुषों के साथ-साथ चलने वाले ९ जन्मान्तरों लिखी हुई संवत् १३१९ की सबसे प्राचीन प्रति जयपुर का वर्णन किया गया है। इसका प्राकृतिक वर्णन एवं के शास्त्रभण्डार में संग्रहीत है। अभी कुछ वर्ष पूर्व भावचित्रण दोनों ही सुन्दर हैं। धूर्ताख्यान भी इनकी जयपुर के एक भण्डार में हिन्दी की एक अत्यधिक अच्छी रचना है। हरिभद्र सूरि के योगबिन्दु एवं प्राचीन कृति जिनदत्तचौपाई (रचनाकाल सं. १३५४) योगदृष्टिसमुच्चय भी दर्शनशास्त्र की अच्छी रचनाएँ उपलब्ध हुई है, जो हिन्दी भाषा की एक अनुपम कृति मानी जाती हैं। है। प्रसन्नता की बात है कि इधर १०-१५ वर्षों से भारत
महेश्वर सूरि भी राजस्थानी सन्त थे। इनकी के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैन साहित्य पर भी
प्राकृत भाषा की ज्ञानपञ्चमीकहा तथा अपभ्रंश की रिसर्च किया जाना प्रारम्भ हुआ है। विद्यार्थियों का
संयममंजरीकहा प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। जैन दृष्टिकोण से उधर और भी अधिक झुकाव हो सकता है यदि हम
लिखी गई दोनों ही कृतियों में कितनी ही सुन्दर कथाएँ इन भण्डारों को शोधकेन्द्र के रूप में परिवर्तित कर दें
हैं। ज्ञानपंचमीकहा में जयसेन, नंद, भद्रा, वीर, कमल और उनको अपने शोधप्रबन्ध लिखने में पूरी सुविधाएँ प्रदान करें। अब यहाँ राजस्थान के कुछ प्रमुख सन्तों
गुणानुराग, विमल, धरण, देवी और भविष्यदत्त की की भाषानुसार साहित्यिक सेवाओं पर प्रकाश डाला
कथाएँ हैं। कथाएँ सुन्दर, रोचक एवं धाराप्रवाह में
वर्णित हैं तथा एक बार प्रारम्भ करने के पश्चात् उसे जा रहा है -
छोड़ने को मन नहीं चाहता। प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य -
____ अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि हरिषेण भी चित्तौड़ के ___जम्बूद्वीप पण्णत्ति के रचयिता आचार्य पद्मनन्दि
निवासी थे। इनके पिता का नाम गोवर्द्धन था। धक्कड़ राजस्थानी सन्त थे। इसमें २३८९ प्राकृत गाथाएँ हैं,
उनकी जाति थी तथा श्री उजपुर से उनका निकास हुआ जिनमें जम्बूद्वीप का वर्णन किया गया है। प्रज्ञप्ति की रचना बारां (कोटा) नगर में हुई थी। उन दिनों मेवाड़
था। इन्होंने अपनी कृति धम्मपरिक्खा संवत् १०४४ में पर राजा शक्ति या सक्ति का शासन था और बारां मेवाड़
अचलपुर में समाप्त की थी। धम्मपरिक्खा अपभ्रंश की के अधीन था । ग्रन्थकार ने अपने आपको वीरनन्दि का ।
सुन्दर कृति है, जिसकी ११ संधियों में १०० कथाओं प्रशिष्य एवं बलनन्दि का शिष्य लिखा है। हरिभद्र सूरि का वर्णन किया गया है। यह कथा-कृति जैन समाज राजस्थान के दसरे सन्त थे जो प्राकत एवं संस्कत भाषा में बहुत प्रिय रही। राजस्थान में इसका विशेष प्रचार के जबर्दस्त विद्वान थे। इनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था। था। इसलिए यहाँ के कितने ही ग्रन्थभण्डारों में इस आगम ग्रन्थों पर उनका पूर्ण अधिकार था। इन्होंने कृति की पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/30
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
धम्मपरिक्खा के अतिरिक्त राजस्थान के ग्रन्थसंग्रहालयों में अपभ्रंश भाषा की १०० से भी अधिक रचनाएँ मिलती हैं । स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, सिंह, लक्ष्मण (लाख), रइधू आदि कवियों की रचनाएँ राजस्थान में विशेष रूप से प्रिय रही हैं । यहाँ के भट्टारकों एवं यतियों ने अपभ्रंश कृतियों की प्रतिलिपियाँ करवाकर भण्डारों में स्थापित करने में विशेष रुचि ली और यह परम्परा १५वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक अधिक रही। अपभ्रंश की इन कृतियों के लिये जयपुर, आमेर एवं नागौर के भण्डार विशेषत: उल्लेखनीय हैं । अपभ्रंश साहित्य का अधिकांश भाग इन्हीं भण्डारों में संग्रहीत है । "
संस्कृत साहित्य
राजस्थान के अधिकांश सन्त संस्कृत के भी विद्वान थे। संस्कृत साहित्य से उन्हें विशेष रुचि थी और इस भाषा में उन्होंने श्रावकों के लिए पुराण, काव्य, चरित्र, कथा, स्तोत्र एवं पूजा साहित्य का भी सृजन किया था । १७वीं शताब्दी तक संस्कृत रचनाओं को पढ़ने की जनसाधारण में विशेष रुचि रही, इसीलिए प्राकृत एवं अपभ्रंश ग्रन्थों पर भी संस्कृत में टीकाएँ एवं टिप्पण लिखे जाते रहे। किसी विषय पर यदि नवीन रचनाओं का लिखा जाना सम्भव नहीं हुआ तो प्राचीन साहित्य की प्रतिलिपियाँ करवा कर शास्त्र भण्डारों में रखी गयीं । राजस्थान के सिद्धर्षि सम्भवत: प्रथम जैन सन्त थे, जिन्होंने उपदेशमाला पर संस्कृत टीका लिखी और उपमितिभवप्रपंच कथा को संवत् ९०६ में समाप्त किया । चन्द्रकेवलिचरित इनकी एक और रचना है, जिसे इन्होंने संवत् ९७४ में पूर्ण किया था। १२वीं शताब्दी में होनेवाले आचार्य हेमचन्द्र से भी राजस्थानी जनता कम उपकृत नहीं है। इनके द्वारा लिखे हुये साहित्य का इस प्रदेश में विशेष प्रचार रहा। यही कारण है उनके द्वारा निबद्ध साहित्य दोनों ही सम्प्रदायों के शास्त्र भण्डारों में समान रूप से पाया जाता है। हेमचन्द्राचार्य संस्कृत के उद्भट विद्वान थे और उन्होंने जो कुछ इस भाषा में लिखा वह
प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । १५वीं शताब्दी में राजस्थान में भट्टारक सकलकीर्ति का उदय विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सकलकीर्ति संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । ये पहिले मुनि थे और बाद में इन्होंने अपने आपको भट्टारक घोषित किया था तथा संवत् १४४२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गादी की स्थापना की । इन्होंने २८ से भी अधिक संस्कृत रचनाएँ लिखी, जो राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। सकलकीर्ति के पश्चात् उनकी परम्परा में होनेवाले भट्टारक भुवनकीर्ति, ब्रह्म जिनदास, भट्टारक ज्ञानभूषण, विजयकीर्ति, शुभचन्द, सकलभूषण, सुमतिकीर्ति, वादिभूषण आदि अनेक शिष्य संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे। इन सन्तों ने संस्कृत भाषा के कितने ही ग्रन्थ लिखे, श्रावकों से आग्रह करके ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाईं और शास्त्र भण्डारों में विराजमान कीं। ब्रह्म जिनदास की १२ से अधिक रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें रामचरित (पद्मपुराण), हरिवंशपुराण एवं जम्बूस्वामीचरित के नाम उल्लेखनीय हैं।
भट्टारक ज्ञानभूषण की अकेली तत्त्वज्ञानतरंगिणी (सं. १५६०) उनकी संस्कृत की विद्वत्ता को बतलाने के लिये पर्याप्त है। शुभचन्द्र तो अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक थे। इनकी संस्कृत रचनाएँ प्रारम्भ से ही लोकप्रिय रही हैं। इनकी २४ संस्कृत रचनाएँ तो उपलब्ध हो चुकी हैं। ये षट्रभाषा कवि चक्रवर्ती कहलाते थे। तथा त्रिविधविद्याधर (शब्दागम, युक्त्यागम तथा परमागम के ज्ञाता ) थे। इनकी प्रसिद्ध कृतियों में चन्द्रप्रभचरित्र, करकुण्डचरित्र, कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, जीवन्धर चरित्र, पाण्डव पुराण, श्रेणिक चरित्र, चारित्रशुद्धि विधान आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आचार्य सोमकीर्ति १५वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान थे । ये काष्ठासंघ में होनेवाले ८७वें भट्टारक थे तथा भीमसेन के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में सप्तव्यसन था, प्रद्युम्नचरित्र एवं यशोधरचरित्र रचनाएँ कीं। तीनों ही लोकप्रिय रचनाएँ हैं और शास्त्र भण्डारों में मिलती हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान ब्र. रायमल्ल ने भक्तामर स्तोत्र की वृत्ति लिखकर अपनी महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/31
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
संस्कृत विद्वत्ता का परिचय दिया। ब्र. कामराज ने यहाँ १३ वीं शताब्दी से अपभ्रंश रचनाओं के साथसकलकीर्ति के आदिपुराण को देखकर सं. १५६० में साथ हिन्दी रचनायें भी लिखी जाने लगी। राजस्थान जय-पुराण की रचना की। सेनगण के प्रसिद्ध भट्टारक में जैन सन्तों ने हिन्दी को उस समय अपनाया था जब सोमसेन ने विराट नगर में शक संवत् १६५६ में पद्मपुराण इस भाषा में लिखना विद्वत्ता से परे माना जाता था तथा की रचना की। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ योगचिन्तामणि इसे संस्कृत के विद्वान देशी भाषा कहकर संबोधित के संग्रहकर्ता थे नागपुरीय तपोगच्छ सन्त हर्षकीर्ति किया करते थे। किन्तु जैन सन्तों ने उनकी कुछ भी सूरि । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम वैद्यकसार संग्रह भी है। परवाह नहीं की और जन साधारण की इच्छा एवं इस ग्रन्थ की प्रतियाँ राजस्थान के बहुत से भण्डारों में अनुरोध को ध्यान में रखकर हिन्दी साहित्य का सर्जन उपलब्ध होती हैं।
करते रहे। पहिले यह कार्य छोटी-छोटी रचनाओं से १५वीं शताब्दी में जिनदत्तसूरि ने जैसलमेर में प्रारंभ किया गया फिर रास, चरित, बेलि, फागु, पुराण बहद ज्ञानभण्डार की स्थापना की। ये संस्कत के अच्छे एवं काव्य लिखे जाने लगे। १४ वीं शताब्दी में लिखा विद्वान थे। इनके शिष्य कमलसंयमोपाध्याय ने संवत् हुआ “जिनदत्त चौपई” हिन्दी का सुन्दर काव्य है, जो १५४४ में उत्तराध्ययन पर संस्कृत टीका लिखी। इनके कुछ ही समय पहिले जयपुर के एक जैन भण्डार में अतिरिक्त जैसलमेर में और भी कितने ही सन्त हए, जो उपलब्ध हुआ है। पद स्तवन एवं स्तोत्र भी खूब लिखे संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। इधर आमेर, जयपुर, जाने लगे। फिर व्याकरण, छन्द, अलंकार, वैद्यक, श्रीमहावीरजी, अजमेर एवं नागौर भी भट्टारकों के केन्द्र गणित, ज्योतिष, नीति, ऐतिहासिक औपदेशिक, संवाद रहे। ये अधिकांश भट्टारक संस्कृत के विद्वान होते थे। आदि विषयों को भी नहीं छोड़ा गया और इनमें अच्छा इनके द्वारा लिखवाये बहत से ग्रन्थ राजस्थान के कितने साहित्य लिखा गया। हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा का ही भण्डारों में उपलब्ध होते हैं।
यह सारा साहित्य राजस्थान के शास्त्र भण्डारों में संग्रहीत हिन्दी व राजस्थानी साहित्य -
है। हिन्दी एवं राजस्थानी में लिखा हुआ इन सन्तों का
साहित्य अभी अज्ञात अवस्था में पड़ा हुआ है और उस राजस्थान में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में
पर बहुत कम प्रकाश डाला जा सका है। राजस्थान में काव्य रचना बहुत पहिले प्रारम्भ हो गई थी। जनसाधारण
सैकड़ों जैन सन्त हुए हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष की इस भाषा की ओर रुचि देखकर जैन सन्तों ने हिन्दी
रूप से साहित्य की महती सेवा की है, लेकिन हम एवं राजस्थानी भाषा को अपना लिया और इसमें छोटी
प्रमादवश उनकी अमूल्य सेवाओं को भुला बैठे हैं। रचनाएँ लिखी जाने लगी। यद्यपि १७-१८ वीं शताब्दी
अब साहित्य को शास्त्र भण्डारों में अथवा आलमारियों तक अपभ्रंश में कृतियाँ लिखी जाती रही एव सस्कृत में बंद करके रखने का समय नहीं है..किन्त उसे बिना ग्रन्थों के पठन-पाठन में जनता की उतनी ही रुचि बनी किसी डर अथवा हिचकिचाहट के विद्वानों एवं पाठकों रही जितनी पहिले थी, किन्तु १३-१४ वीं शताब्दी से ।
___ के सामने रखने का है। ही जन साधारण की रुचि हिन्दी रचनाओं की ओर बढ़ती गयी और उसमें नये-नये ग्रन्थ लिखे जाते रहे
भरतेश्वर बाहुबली रास संभवत: प्रथम और उन्हें शास्त्र भण्डारों में विराजमान किया जाता
राजस्थानी कृति है, जो जैन सन्त शालिभद्रसूरि द्वारा रहा। राजस्थान में हिन्दी का प्रथम सन्त कवि कौन था. १३वा शताब्दी में लिखी गयी। इसमें प्रथम तीर्थंकर यह तो अभी खोज का विषय है और इसमें विद्वानों के ऋषभदेव के पुत्र भरत एवं बाहुबली के जीवन का विभिन्न मत हो सकते हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि
. संक्षिप्त चित्रण है। भरत एवं बाहुबली के युद्ध का रोचक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/32
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णन है। इसके पश्चात् विजयसेनसूरि का रेवंतगिरिरास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ब्रह्म बूचराज १६वीं (सं. १२८८), सुमतिगणि का नेमिनाथ रास (सं. शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे। मयण-जुज्झ इनकी प्रथम १२७०), विनयप्रभ का गौतमरास (सं. १४१२) आदि रचना थी, जो इन्होंने संवत् १५८४ में समाप्त की थी। कितने ही रास लिखे गये।
इनके अन्य ग्रन्थ में संतोष तिलक जयमाल, चेतन१५वीं शताब्दी से तो हिन्दी एवं राजस्थानी पुद्गल धमाल आदि उल्लेखनीय रचनाएँ हैं । ये दोनों साहित्य में रचनाओं की एक बाढ-सी आ गयी। भट्रारक ही रूपक रचनाएँ है, जो नाटक साहित्य के अन्तर्गत सकलकीर्ति ने संस्कृत में रचनाएँ निबद्ध करने के साथ- आती हैं । सन्त विद्याभूषण रामसेन परम्परा के यति थे। साथ कुछ रचनाएँ राजस्थानी भाषा में भी लिखीं, इन्होंने सोजत नगर में भविष्यदत्त रास को संवत् १६०० जिससे उस समय की साहित्यिक रुचि का पता लगता में समाप्त किया था। धर्मसमुद्र गणि खरतरगच्छीय है। सकलकीर्ति की राजस्थानी रचनाओं में आराधना- विवेकसिंह के शिष्य थे, जिन्होंने “सुमित्रकुमार रास” प्रतिबोधसार, मुक्तावलिगीत, णमोकारगीत, सार
को जालौर में संवत १५६७ में तथा “प्रभाकर गुणाकर सिखामणि रास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सकलकीर्ति
चौपई” को संवत् १५७३ में मेवाड़ प्रदेश में समाप्त के एक शिष्य ब्रह्म जिनदास ने ६० से भी अधिक किया है। शकुंतला रास इनकी बहुत छोटी रचना है, रचनाएँ लिखकर हिन्दी साहित्य में एक नया उदाहरण जो संभवतः इस तरह की प्रथम रचना है। पार्श्वचन्द्रसूरि प्रस्तुत किया। इन रचनाओं में कितनी ही रचनाएँ तो अपने समय के प्रभावशाली सन्त कवि थे। इन्होंने ५० तुलसीदास की रामायण से भी अधिक बडी हैं। इनकी से अधिक रचनाएँ राजस्थानी भाषा को समर्पित करके राम-सीता के जीवन पर भी एक से अधिक रचनाएँ हैं। साहित्यसेवा का सुन्दर उदाहरण उपस्थित किया। इनका ब्रह्म जिनदास की अब तक ३३ रासा ग्रन्थ, २ पुराण, जन्म संवत् १५३८ में तथा स्वर्गवास संवत् १६१२ में ७ गीत एवं स्तवन, ६ पूजाएँ और ७ स्फुट रचनाएँ हुआ था। राजस्थान के अन्य सन्त कवियों में विनय उपलब्ध हो चुकी हैं। इन रचनाओं में रामसीतारास, समुद्र, कुशल लाभ, हरिकलश, कनकसोम, हेमरत्नसूरि श्रीपाल रास, यशोधर रास, भविष्यदत्त रास, परमहंस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कुशल लाभ खरतरगच्छ रास, हरिवंश पुराण, आदिनाथ पुराण आदि के नाम के सन्त थे। इनके द्वारा लिखी हुई “माधवानल चौपई" उल्लेखनीय हैं। भट्टारक सकलकीर्ति की शिष्य परम्परा (संवत् १६१६) एवं “ढोला-मारवणरी चौपई" में होने वाले सभी भट्टारकों ने हिन्दी भाषा में रचनाएँ राजस्थानी भाषा की अत्यधिक प्रसिद्ध रचनाएँ हैं, लिखने में पर्याप्त रुचि ली।
जो लोक-कथानकों पर आधारित हैं। इसी तरह ___ खरतर गच्छ के आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य
हरिकलश भी इसी खरतरगच्छ के साधु थे जो अपने महोपाध्याय जयसागर १५-१६ वीं शताब्दी के विद्वान
समय के प्रसिद्ध विद्वानों में से थे। इनका अधिकतर थे। इन्होंने राजस्थानी भाषा में ३२ से भी अधिक
विहार जोधपुर एवं बीकानेर प्रदेश में हुआ और अपने रचनाएँ लिखीं। जिनमें विनती, स्तवन एवं स्तोत्र आदि
जीवन में २७-२८ रचनाएँ लिखीं। सभी रचनाएँ हैं। ऋषिवर्धनसूरि की नल-दमयन्ती रास (सं. १५१२)
राजस्थानी भाषा की हैं। प्रमुख रचना है। मतिसागर १६वीं शताब्दी के विद्वान १७ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ब्रह्म रायमल्ल एक थे। राजस्थानी भाषा में इनकी कितनी ही रचनाएँ अच्छे संत हुये, जिनकी हनुमत चौपई, भविष्यदत्तकथा, उपलब्ध हैं, जिनमें धन्नारास (सं. १५१४) नेमिनाथ प्रद्युम्नरास, सुदर्शनरास आदि अत्यधिक प्रसिद्ध एवं वसंत, मयणरेहा रास, इलापुत्र चरित्र, नेमिनाथ गीत लोकप्रिय रचनाएँ हैं। इन्होंने स्थान-स्थान पर घूमकर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/33
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्य रचना की और जन साधारण का इस ओर ध्यान भट्टारक एवं सन्त राजस्थान प्रदेश को भी पवित्र करते आकृष्ट किया। इन्होंने गढ़ हरसौर, गढ़ रणथम्भौर एवं अपने चरण कमलों से। यहाँ साहित्य रचना करते एवं सांगानेर आदि स्थानों का अपनी रचनाओं में अच्छा अपने भक्तों को उनका रसास्वादन कराते। इन सन्तों वर्णन किया है। आनन्दघन आध्यात्मिक सन्त थे। में भ. रत्नकीर्ति, भ. अभयचन्द्र, भ. अभयनन्दी, भ. इनकी आनन्दघन बहोत्तरी एवं आनन्दघन चौबीसी शुभचन्द्र, ब्रह्म. जयसागर, मुनि कल्याणकीर्ति, श्रीपाल, उच्च स्तर की रचनाएँ हैं। विद्वानों के मतानुसार इनका गणेश आदि संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के जन्म संवत् १६६० एवं मृत्यु संवत् १७३० में हुई। ब्रह्म अच्छे विद्वान थे। इनकी कितनी ही रचनाएँ रिखवदेव, कपूरचंद ने संवत् १६९७ में पार्श्वनाथरासो को समाप्त डूंगरपुर, सागवाडा एवं उदयपुर के शास्त्र भण्डारों में किया था। इनके कितने ही पद मिलते हैं। इनका जन्म उपलब्ध हुई हैं। रत्नकीर्ति के नेमिनाथ फाग, नेमिनाथ आनन्दपुर में हुआ था। हर्षकीर्ति भी १७वीं शताब्दी बारहमासा एवं कितने ही पद उल्लेखनीय हैं। उनके के प्रसिद्ध राजस्थानी कवि थे। “चतुर्गति वेलि” इनकी पदों में मिठास एवं भक्ति का रसास्वादन करने को प्रसिद्ध रचना है, जिसे इन्होंने संवत् १६८३ में समाप्त मिलता है। नेमि-राजुल के विवाह से सम्बन्धित प्रसंग किया था। इनकी अन्य रचनाओं में षट्लेश्याकवित्त, पर ही इनकी रचनाओं का एवं पदों का मुख्य विषय पंचमगति बेलि, कर्महिंडोलना, सीमंधर की जकड़ी, है। एक पद देखिये - नेमिनाथ राजमती गीत, मोरडा आदि उल्लेखनीय हैं।
राग - देशाख इनके कितने ही पद भी मिलते हैं, जो भक्ति एवं वैराग्य
सखि को मिलावो नेमि नरिंदा ।। रस से ओत-प्रोत हैं।
ता बिन तन-मन-यौवन रजत है, “समयसुन्दर” राजस्थानी भाषा के अच्छे
चारु चन्दन अरु चंदा।। सखि. ।। विद्वान थे। “श्री हजारीप्रसादजी द्विवेदी” के शब्दों में।
कानन भुवन मेरे जीया लागत, कवि का ज्ञान-परिसर बहुत ही विस्तृत है। वह किसी
दुसह मदन को फंदा। भी वर्ण्य विषय को बिना आयास के सहज ही संभाल
तात मात अरु सजनी रजनी लेता है। इन्होंने संस्कृत में २५ तथा हिन्दी-राजस्थानी
वे अति दुख को कंदा। सखि. ।। में २३ ग्रन्थ लिखे। इन्होंने सात छत्तीसियों की भी रचना
तुम तो संकर सुख के दाता, की। कवि बहुमुखी प्रतिभा एवं असाधारण योग्यता
. करम काट किये मंदा। वाले विद्वान थे। इन्होंने सिन्ध, पंजाब, उत्तरप्रदेश,
रतनकीरति प्रभु परम दयालु, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात आदि प्रान्तों में विहार किया
सेवत अमर नरिंदा ।। सखि. ।। और उनमें विहार करते हुए विभिन्न ग्रन्थों की रचना भी
कुमुदचन्द्र की साहित्य-साधना अपने गुरु की। राजस्थान में इन्होंने सबसे अधिक भ्रमण किया
रत्नकीर्ति से भी आगे बढ़ चुकी थी। ये बारडोली के और अपने समय में एक साहित्यिक वातावरण-सा
__ जैन सन्त के नाम से प्रसिद्ध थे। इनकी अब तक कितनी बनाने में सफल हुए। ये संगीत के भी अच्छे जानकार
ही रचनाएँ प्राप्त हो चुकी हैं। इनकी बड़ी रचनाओं में थे और अपनी रचनाओं को कभी-कभी गाकर भी
आदिनाथ विवाहलो, नेमीश्वर हमची एवं भरतसुनाया करते थे।
बाहुबली छन्द हैं। शेष रचनायें पद, गीत एवं विनतियों राजस्थान का बागड प्रदेश गुजरात प्रान्त से के रूप में हैं। इनके पद सजीव हैं। उनमें कवि की लगा हुआ है। इसलिए गुजरात में होने वाले बहुत से अन्तरात्मा के दर्शन होने लगते हैं। शब्दों का चयन एवं
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/34
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ की सरलता उनमें स्पष्ट नजर आती है। एक पद में साहित्य एवं संस्कृति की जागृति के लिए विहार देखिये -
किया करते थे। दिल्ली के भट्टारकपट्ट से आमेर का मैं तो नरभव वादि गमायो, सीधा सम्बन्ध था और वहीं से नागौर एवं ग्वालियर न कियो जप तप व्रत विधि सुन्दर,
में भट्टारकों के स्वतन्त्र पट्ट स्थापित हुए थे। भ. काम भलो न कमायो ।। मैं तो.॥ सुरेन्द्रकीर्ति (सं. १७२२), भ. जगत्कीर्ति (सं. १७३३) विकट लोभ तें कपट कूट करी,
एवं भ. देवेन्द्रकीर्ति (सं. १७७०) का पट्टाभिषेक आमेर निपट विषै लपटायो। में ही हुआ था। ये सब जैन सन्त थे और साहित्य के विटल कुटिल शठ संगति बैठो,
सच्चे उपासक थे। आमेर, शास्त्र भण्डार, नागौर एवं साधु निकट विघटायो। मैं तो.।। अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार इन्हीं भट्टारकों की कृपण भयो कछु दान न दीनो,
साहित्य-सेवा का सच्चा स्वरूप है। दिन दिन दाम मिलायो। संवत् १८०० से आगे इन सन्तों में विद्वत्ता की जब जोवन जंजाल पड्यो तब
कमी आने लगी। वे नवीन रचना करने के स्थान पर परत्रिया तनु चित्त लायो ।। मैं तो.॥
प्राचीन रचनाओं की प्रतियों को पुनः लिखवाकर भण्डारों अंत समय कोउ संग न आवत .
में संग्रहीत करने में ही अधिक व्यस्त रहे । यह भी उनकी झूठहिं पाप लगायो।
साहित्योपासना की एक सही दिशा थी. जिसके कारण कुमुदचन्द्र कहे चूक परी मोही
बहुत से ग्रन्थों की प्रतियाँ हमें आज इन भण्डारों में प्रभु पद जस नहीं गायो। मैं तो.॥
सुरक्षित रूप में मिलती हैं। इन भट्टारकों के शिष्य-प्रशिष्य भी साहित्य के
इस प्रकार राजस्थान के इन जैन सन्तों ने भारतीय परम साधक थे और उनकी कितनी ही रचनाये उपलब्ध साहित्य की जो अपर्व एवं महती सेवा की. वह इतिहास होती है । वास्तव में वह युग संत-साहित्य का युग था। के स्वर्णिम पृष्ठों में लिखने योग्य है। उनकी इस सेवा
___ इधर आमेर, अजमेर एवं नागौर में भी भट्टारकों की जितनी अधिक प्रशंसा की जायेगी कम ही रहेगी। की गादियाँ थी और वहाँ से भट्टारक अपने-अपने क्षेत्रों
सर्वज्ञ प्ररूपित जो श्रुत, उसके अर्थ में निरंतर प्रवृत्तिरूप जो भावना उससे श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है। श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है और ज्ञान की उत्पत्ति से अवगाढ़ सम्यग्दर्शन होता है तथा सर्वघाति कर्मों की निर्जरा का कारण शुक्लध्यान नामक तप होता है, यथाख्यात नामक चारित्र और परिपूर्ण इन्द्रिय संयम होता है तथा पहले जो प्रतिज्ञा धारण की थी कि मैं अपने आत्मा को दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणामों को रचने में प्रवर्तन करता हूँ वह उपयोग की प्रतिज्ञा सुखरूप क्लेशरहित आराधना में अचलित परिपूर्ण करता हूँ। इसलिए श्रुत की भावना ही श्रेष्ठ है और जिनेन्द्र भगवान के वचन में लीन है मन जिनका तथा यत्न पूर्वक योग/तप उसकी भावना करने वाले पुरुष की रत्नत्रय में उद्यमरूप जो स्मृति/स्मरण उसे बिगाड़ने में परिषह भी समर्थ नहीं होते हैं। -भगवती आराधना, गाथा-१९९ व २०० का अर्थ
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/35
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानवीय मूल्यों के सजग प्रहरी : जैनपुराण
होते हैं।
- पण्डित रतनचन्द भारिल्ल जैन पुराणों के मूल प्रयोजन और पावन उद्देश्यों इस चर्चा से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि ये पर ज्यों-ज्यों गहराई से दृष्टिपात करता हूँ, गंभीरता से जीवात्मायें जन्म के पहले भी थे और मरण के बाद भी विचार करता हूँ तो मुझे इनकी विशाल दृष्टि, भव्य रहेंगे। जीवों का अस्तित्व अनादि-अनन्त है। वे कभी भूमिका, पावन उद्देश्य न केवल मानवीय मूल्यों के सजग नष्ट नहीं होते, मात्र उनकी पर्यायें पलटती हैं। प्रहरी की सीमा तक ही दिखाई देते हैं, बल्कि ये जैन इसी संदर्भ में जैन पुराणों में यह भी कहा गया है पुराण हमें मुक्तिमार्ग के मार्गदर्शक के रूप में भी दृष्टिगत कि परलोक के जीवन को सुखी बनाने के लिए मानव
को काम-क्रोध, मद-मोह, लोभ-क्षोभ आदि विकारी वस्तुतः जैन पुराण वर्तमान में मानव जीवन को भावों से बचकर इनका नाश करके दया, क्षमा, सफल, सुखद और यशस्वी बनाने में अत्यधिक उपयोगी निरभिमानता, सरलता, निर्लोभता, सत्य, शौच, संयम भूमिका निभाते हैं; क्योंकि ये मानव जगत को सदाचार आदि धर्मों का पालन करना चाहिए, अन्यथा भविष्य का संदेश तो देते ही हैं, नैतिकता का उपदेश भी देते हैं, में भव-भव में चार गति चौरासी लाख योनियों में सत्य अहिंसा मय आचरण करने का मार्गदर्शन भी करते भटकना होगा। हैं। इतना ही नहीं ये पारलौकिक जीवन को सुखमय मानवीय मूल्यों का तात्पर्य मानव के उन उच्च बनाने के लिए भी सार्थक हैं; क्योंकि ये पुण्य के फल एवं आदर्श गुणों से हैं, जिनका अनुकरण करने से मानवों में प्राप्त क्षणिक (नाशवान) सुखद संयोग एवं का गौरव बढ़ता है, घर में, समाज में, राष्ट्र में सम्मान दीर्घकालीन दुःखद पाप के उदय में प्राप्त फल बताकर बढ़ता है, प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। ऐसे मानवीय मूल्यों के एवं उन दुःखद संयोगों से वैराग्य उत्पन्न कराकर जीवों धारक व्यक्ति के हृदय में स्वाभिमान और आत्मको मुक्तिमार्ग में लगाते हैं।
विश्वास पैदा होता है, उसकी सुशुप्त शक्तियाँ जाग्रत हो जैन पुराणों के कथानकों में शलाका पुरुषों के जाती हैं। फिर वह बड़े-से-बड़े कार्य करने में सक्षम हो वर्तमान जीवन परिचय के साथ उनके अनेक पूर्वभवों जाता है। की चर्चा भी होती है। उनमें बताया गया है कि वे इस जैनपुराण ऐसे मानवीय मूल्यों के सजग प्रहरी वर्तमान मानव जन्म के पहले कहाँ-कहाँ किन-किन तो हैं ही, और भी बहुत कुछ हैं उन पुराणों में, उनके योनियों में जन्म-मरण करते हुए दुःख भुगतते रहे हैं। अध्ययन, मनन, चिन्तन से यह आत्मा-परमात्मा बनने अपने-अपने पाप-पुण्य के अनुसार चारों गतियों में का पथ भी प्राप्त कर लेता है। जो व्यक्ति एक बार भी कैसे-कैसे उतार-चढ़ाव में जीते रहे हैं।
जैन पुराणों को श्रद्धा से पढ़ता है, उसके जीवन में महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/36
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
कथानायकों के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर उन इन सबसे पाठकों को जहाँ उनके आदर्श जीवन जैसा बनने का भाव जाग्रत हुए बिना नहीं रहता। वह से सद्गुण प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है, वहीं यथाशक्ति वैसा ही बनने का प्रयास करने लगता है। पापाचरण से बचने की शिक्षा भी मिलती है। इस तरह
जैनपुराणों की मूलकथा वस्तु 169 पुण्य पुरुषों जैनपुराण जहाँ अपने आदर्श पात्रों के उत्कृष्ट चरित्रों एवं 63 शलाका पुरुषों के आदर्श जीवन दर्शन पर द्वारा पाठकों के हृदय पटल पर, उनके समग्र जीवन पर आधारित होती है। 63 शलाका पुरुषों में 24 तीर्थंकर, ऐसी छाप छोड़ते हैं, ऐसे चित्र अंकित करते हैं जो 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण, 9 बलभद्र मानवीय मूल्यों के विकास में, उनके नैतिक मूल्यों और होते हैं तथा 169 पुण्य पुरुषों में 24 तीर्थंकर, 24 तीर्थंकर अहिंसक आचरण में तो चार चाँद लगाते ही हैं, उन्हें के 24 पिता, 24 मातायें, 24 कामदेव, 9 नारायण, 9 रत्नत्रय की आराधना का उपदेश देकर उन्हें पारलौकिक प्रतिनारायण, 9 बलभद्र, 9 नारद, 11 रुद्र, 12 चक्रवर्ती कल्याण करने का मार्गदर्शन भी देते हैं, निगोद से निकाल एवं 14 कुलकर होते हैं।
कर मुक्ति तक पहुँचने का पथ प्रदर्शन भी करते हैं। आचार्यों ने पुराण पुरुषों का स्वरूप निर्धारित पाठकगण पद्मपुराण में राम जैसे कथा नायकों करते हुए कहा है कि - "जो पुरुष विकारों, कषायों के आदर्श जीवन से प्रभावित होकर मानवीय मूल्यों के और वासनाओं के दास न बनकर स्वावलम्बी होकर महत्व से अभिभूत होते हैं और अमानवीय कृत्य करने अपने रत्नत्रयधर्म को उज्ज्वल बनाते हुए आत्मविकास वाले मानकषायी रावण जैसे खलनायकों की नरक गति के क्षेत्र में वर्द्धमान होते हैं, उन जितेन्द्रिय मनस्वी मानवों होने जैसी दुर्दशा देखकर उन दुर्गुणों से दूर रहने का को पुराणपुरुष कहते हैं।
प्रयास करते हैं। जैनपुराणों के कथानायक ये उपर्युक्त पुण्य पुरुष प्रायः सभी जैन पुराणों के कथानकों में वर्तमान ही हैं, परन्तु इनके साथ ऐसी बहुत सी उपकथायें भी मानवजन्म से पूर्व जन्मों की कहानियाँ भी होती हैं। होती हैं जो बीच-बीच में इन्हीं पुराण पुरुषों के उनके माध्यम से अपने पूर्वकृत पुण्य-पाप के फल में परिवारजनों से सम्बन्धित होती हैं तथा इनके पूर्वभवों प्राप्त ऐसी सुगतियों-दुर्गतियों के उल्लेख भी होते हैं, से सम्बन्धित होती है, जिनमें इन्हीं पुराण पुरुषों के जिनमें लौकिक सुख-दुःख प्राप्त होते हैं। इससे भी पाठक पूर्वभवों में अज्ञान और कषाय चक्र से हुए पुण्य-पाप
सजग हो जाते हैं, और मानवीय मूल्यों को अपनाने के फल के अनुसार उनके चरित्रों का चित्रण होता है,
लगते हैं, ताकि भविष्य में उनकी दुर्गति न हो। जहाँ बताया जाता है कि यदि इन तीर्थंकर जैसे पुराण पुरुषों से भी पूर्वभवों में जाने-अनजाने भूलें हुईं हैं तो
जैनपुराणों में मानवीय मूल्यों में श्रावक के उन्हें भी सागरों पर्यंत चतुर्गति के भयंकर दुःखों को
आठ मूलगुणों के रूप स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, भोगना ही पड़ा है। उदाहरणार्थ - भगवान महावीर ने
कुशील और परिग्रह पापों का त्याग तथा मद्य-मांसमारीचि के भव में तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के विरुद्ध
र मधु का सेवन न करना बताया गया है। इनके साथ मिथ्या मत का प्रचार किया और स्वयं को तीर्थकर ही सात दुर्व्यसनों का त्याग करना बताया गया है। तुल्य बताकर अहंकार किया तो उसके फल में उन्हें भी वे सात व्यसन इसप्रकार हैं - सागरोंपर्यंत संसार में परिभ्रमण करना पड़ा।
जुआ खेलना, माँस खाना, शराब पीना, वेश्या महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/37
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेवन, शिकार करना, चोरी करना और परस्त्री सेवन। के समग्र जीवन की ऐसी-ऐसी घटनायें हैं जो मानवीय ये सातों दुर्व्यसन दुःखदायक हैं, पाप की जड़ हैं और मूल्यों का उद्घाटन करती हुई अत्यन्त सशक्त शैली में कुगति में ले जानेवाले हैं।
आत्मा से परमात्मा बनने की कथा कहती हैं। पाठक इनके अतिरिक्त अन्याय, अनीति और अभक्ष्य उन्हें पढ़कर यह प्रेरणा लेते हैं कि हम अपने मानवीय का सेवन न करना भी मानवीय मूल्यों में सम्मलित हैं। गुणों को इसतरह विकसित करें ताकि पुनर्जन्म में हमारी काम, क्रोध को जीतना इन्द्रियों के विषयों के आधीन अधोगति न हो और कालान्तर में हम यथाशीघ्र इस न होना भी मानवीय मूल्यों के अन्तर्गत आते हैं। मानव संसार सागर से पार होकर अनन्तकाल तक मुक्ति महल के सकारात्मक मूल्यों में दया, क्षमा, निरभिमानता, में जाकर रहें। सरलता, निर्लोभता, पवित्रता, सत्यता, संयमित जीवन . जैनपुराणों के कथनानुसार मानवीय मूल्यों की का होना मानव के प्राथमिक कर्तव्यों में आते हैं। मर्यादा केवल मानव के हितों तक ही सीमित नहीं होना
इन सबकी चर्चा प्रायः सभी पुराणों में किसी न चाहिए, बल्कि प्राणि मात्र की प्राण रक्षा एवं उनके किसी रूप में मिलती है। सर्वाधिक चर्चित और सुख-दुःख के प्रति करुणा से भरपूर भी होना चाहिए। लोकप्रिय जैन पुराणों में पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, मानवीय पीड़ा और अन्य प्राणियों की पीड़ा को समान आदिपुराण, उत्तरपुराण ऐसे पुराण हैं जो गाँव-गाँव में समझना चाहिए। इसी बात की पुष्टि में मांसाहारियों को प्रतिदिन की शास्त्र सभाओं में पढ़े-सुने जाते हैं। इन मार्गदर्शन देते हुए कहा गया है -- सभी पुराणों में मानवीय मूल्यों की महिमा कथानायकों मनुज प्रकृति से शाकाहारी, मांस उसे अनुकूल नहीं है। के आदर्श चरित्रों के माध्यम से गाई गई है। जैसे पद्मपुराण पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं। में आदर्श एवं आज्ञाकारी पुत्र के रूप में भगवान राम, वर्तमान मानवीय मूल्यों का दंभ भरने वाले अनेक भातृ प्रेम के लिए समर्पित त्याग की मूर्ति नारायण राजनेता, समाजसेवक और धर्मगुरु भी जीव-जन्तुओं लक्ष्मण और उनके अनुज भरत तथा राम की आदर्श के प्राण पीड़न के प्रति अत्यन्त निर्दय देखे जाते हैं। माता कौशल्या, पति की सहगामिनी सती सीता यद्यपि जैन पुराणों में भी आरंभी, उद्योगी और विरोधी मानवीय मूल्यों के ज्वलन्त उदाहरण हैं। हरिवंशपुराण हिंसा पर पूरी तरह प्रतिबन्ध नहीं है; परन्तु संकल्पी हिंसा में तीर्थंकर भगवान नेमीनाथ, नारायण श्रीकृष्ण तथा का तो सम्पूर्ण रूप से न करने की बात अत्यन्त दृढ़ता कौरवों-पाण्डवों के राग-विराग में झूलते विविध रूप से कही है तथा आरंभी, उद्योगी और विरोधी हिंसा से भी मानवीय मूल्यों का दिग्दर्शन कराते ही हैं। बचने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने का उपदेश जैन
महापुराण के प्रथम-द्वितीय भाग के रूप में पुराण देते हैं। आदि पुराण और उत्तर पुराण हैं, उनमें मुख्यतः 24 यहाँ ज्ञातव्य है कि सम्पूर्ण जिनागम चार तीर्थंकरों के जीवन चरित्रों का विस्तृत वर्णन हैं साथ ही अनुयोगों में विभक्त है। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, उनके पूर्व भवों का, 63 शलाका पुरुषों के आदर्श चरणानुयोग और प्रथमानुयोग। समस्त पुराण साहित्य चरित्रों का चित्रण है। आदिपुराण में आदि तीर्थंकर प्रथमानुयोग की श्रेणी में आता है। द्वादशांग में 'दृष्टिवाद आदिनाथ और चक्रवर्ती भरत तथा तपस्वी बाहूबली नाम के बारहवें अंग के तीसरे भेद का नाम प्रथमानुयोग
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/38
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने प्रथमानुयोग का स्वरूप निम्न प्रकार लिखा है -
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि समाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ अन्वयार्थ :(समीचीनः बोधः) सम्यग्ज्ञान (प्रथमानुयोग अर्थख्यानं) प्रथमानुयोग के कथन को (बोधति) जानता है । वह प्रथमानुयोग (चरितं पुराणमपि पुण्य) चरित्र और पुराण के रूप में पुण्य पुरुषों का कथन करता है। (बोधि- समाधि - निधानं ) वह प्रथमानुयोग रत्नत्रय की प्राप्ति का निधान है, उत्पत्ति स्थान है । (पुण्यं) पुण्य होने का कारण है । अतः उसे पुण्य स्वरूप कहा है।
चरित्र और पुराण का अन्तर स्पष्ट करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि “एक पुरुषाश्रिता कथा चरितं ' एक पुरुष संबंधी कथन को चरित कहते हैं तथा त्रिषष्ठि शलाका पुरुषाश्रिता कथा पुराणं अर्थात् त्रेषठ शलाका पुरुष सम्बन्धी कथा को पुराण कहते हैं । 'तदुभयमपि प्रथमानुयोग शब्दाभिधेयं' चरित एवं पुराण - इन दोनों को प्रथमानुयोग कहा है। "
पुराणों के कथानकों में कथावस्तु को सर्वांगीण एवं प्रयोजनों की पूर्ति हेतु कुछ कथन काल्पनिक भी होते हैं। जैसे कि - तीर्थंकरों के कल्याणकों में इन्द्रगण आये और उन्होंने स्तुति की। यह तो सत्य है तथा इन्द्र स्तुति अपनी भाषा में अन्य प्रकार की थी और ग्रन्थकार अपनी भाषा में अन्य प्रकार से ही स्तुति करना लिखा; परन्तु स्तुति का प्रयोजन अन्यथा नहीं हुआ।
पुराणों का प्रयोजन प्रगट करते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं कि “प्रथमानुयोग में तो संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति इत्यादि निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों, वे भी उससे धर्मसन्मुख होते हैं; क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपण को नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओं को जानते हैं, उनके पढ़ने में उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोग में सरल कथन होने से उसे वे भली-भाँति समझ जाते हैं। पुराणों में महन्तपुरुषों के पुण्य-पाप की कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओं के लालच से तो उन्हें पढ़ते सुनते हैं और फिर पाप को बुरा, धर्म को भला जानकर धर्म में रुचिवंत होते हैं। इसप्रकार आत्मबुद्धियों को समझाने के लिये यह अनुयोग प्रयोजनवान है।"
इस तरह हम देखते हैं कि जैन पुराण मानवीय मूल्यों के सगज प्रहरी तो हैं ही, प्राणीमात्र की जीवन की सुरक्षा करने में मददगार, उन्हें अभयदान देने-दिलाने
सक्रिय भूमिका निभाने वाले और आत्मार्थियों को, मुमुक्षुओं को मुक्ति का मार्ग दिखाने में भी अग्रगण्य हैं। - प्राचार्य श्री टोडरमल दि. जैन सिद्धान्त महाविद्यालय ए-4, बापूनगर, जयपुर-302015
सरलार्थ :- क्रोधादि कषाय रूपी रोगों के लिए सच्ची औषधि शास्त्र है; सातिशय पुण्य परिणाम एवं पुण्यकर्म के बंध के लिए सर्वोत्तम कारण शास्त्र है; जीवादि सात तत्त्वों, छह द्रव्यों, नौ पदार्थों के सम्यक् परिज्ञान के लिए शास्त्र ही चक्षु है और इसभव तथा परभव के सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए भी शास्त्र ही है।
-
- योगसार प्राभृत, ४२९ : आचार्य अमितगति
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /39
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन एवं जैनेतर साहित्य में सीता निर्वासन
- डॉ. (श्रीमती) बीना अग्रवाल
रामायण हमारे देश का राष्ट्रीय महाकाव्य है। का एक अंश है। भविष्य पुराण के अनुसार रामशर्मन् न केवल हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों की अलग-अलग अथवा रामानन्द इसके रचयिता हैं। उस काल में भाषाओं में रामकथा की रचना हुई अपितु सम्पूर्ण पूर्व वेदान्तादि दर्शनों का बोलबाला था, इसलिए इस ग्रन्थ एशिया में भी रामकथा का प्रचार-प्रसार पाया जाता में राम का दार्शनिक सत्ता ब्रह्म के रूप में चित्रण किया है। देश, काल और भाषा की सीमाओं का अतिक्रमण गया है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, कर्म, भक्ति का समन्वय कर रामचरित जन जन के मानस में प्रतिष्ठित होने के देखने को मिलता है। साथ ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय
कम्ब रामायण - दक्षिण भारत में महाकवि जीवन को नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों से अनुप्राणित कर
कम्बन द्वारा ११७८ ई. में तमिल भाषा में रचित रहा है। वाल्मीकि रामायण भारतीय संस्कृति में आदि
रामायणम् के अनुसार राम विष्णु के अवतार हैं, वे ही काव्य के रूप में स्वीकृत है, तथापि विद्वानों के अनुसार
प्रणव से वाच्य हैं, समस्त विश्व के आदि कारण हैं। इसकी रचना और संकलन काल में कम से कम दो तीन
सीता लक्ष्मी की अवतार हैं। भगवान से अभिन्न होने शताब्दियाँ लगी होंगी व कालान्तर में भी इसमें प्रक्षेप होते रहे। रामायण के सात काण्डों में से प्रथम बालकाण्ड
के कारण वे जगत् का सर्जन करने वाली एवं मोक्षदात्री
हैं। सीता त्याग का प्रसंग इस ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं। और अन्तिम उत्तरकाण्ड को कई भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने प्रक्षिप्त माना है। इस प्रकार प्रामाणिक
रामराज्य का भी विस्तृत वर्णन नहीं है। रामचरित राम के राज्याभिषेक तक ही माना जाता है।
रंगनाथ रामायण - गोनबुद्धा रेड्डी द्वारा १३०० लोकमानस तथा जनजीवन को आध्यात्मिक आदर्श ई. में तेलुगु में रचित है। पिता की इच्छापूर्ति के लिए एवं भक्ति के रंग में रंगनेवाले लोकनायक तुलसी ने रामकाव्य का निर्माण करके और पिता विठ्ठलनाथ के अपने रामचरितमानस में भी राम के राज्याभिषेक व नाम के पर्याय द्वारा श्री रंगनाथ रामायण नाम दिया। रामराज्य का ही वर्णन किया है। भारत के विभिन्न रमणीय भावुकता से ओतप्रोत होने के साथ ही यह प्रदेशों में विभिन्न कालों एवं भाषाओं में रची हुई अनेक सरस, सुगम व सुगेय भी है। सीता निर्वास इसमें भी रामकथाओं में भी सीता का निर्वासन चित्रित नहीं वर्णित नहीं है । रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना और किया गया है। प्रस्तुत लेख में जैन एवं जैनेतर साहित्य अयोध्या में राम के राजतिलक से काव्य की समाप्ति में सीता निर्वासन की उपलब्धि एवं स्वरूप का विवेचन होती है। किया गया है।
तोरवेरामायण - नरहरि द्वारा १५०० ई. में विभिन्न भाषाओं में रचित रामकथायें और उनमें प्रस्तुत वाल्मीकि रामायण का कन्नड रूपांतरण है। सीता निर्वासन की स्थिति -
वाल्मीकि रामायण में लवकुश राम को कथा सुनाते हैं, अध्यात्म रामायण (१५०० ई.) ब्रह्माण्ड पुराण जबकि इस काव्य में महर्षि वाल्मीकि कुश और लव
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/40
___
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
के दशरथ द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ किए जाने के से लेकर में लव-कुश द्वारा रामायण का गान, वाल्मीकि मुनि आगे तक की कथा सुनाते हैं। राम के राज्याभिषेक और द्वारा सीता के पातिव्रत्य का बखान और सीता के भरत को युवराज पद की प्राप्ति के साथ काव्य समाप्त पाताल प्रवेश एवं अन्य कारण से लक्ष्मण का भी होता है।
पाताल प्रवेश वर्णित है। सीता दृढ़, साहसी और अध्यात्म रामायण - एषत्तच्छनकत मलयालम स्पष्टवादिनी है। भाषा में १६वीं शती में रचित रामकथा है। सीता त्याग गिरधर रामायण - १८वीं शती में गुजराती इस ग्रन्थ में भी वर्णित नहीं है। शम्भूदेव पार्वती को कवि गिरधरदास ने रचना की। इसमें कृष्ण भक्ति व राम रामकथा सुनाते हैं। सीता मूल प्रकृति के रूप में पति भक्ति का समन्वय देखने को मिलता है। रामकथा का परमात्मा के सान्निध्य में जगत्सृष्टि करती है। समापन, श्रीकृष्णार्पणमस्तु के साथ किया गया है।
बंगला रामायण - १५वीं शती में कृत्तिवास सीता योगमाया व लक्ष्मीरूप एवं राम विष्णुरूप बताये द्वारा रचित है। इसमें सीता वनवास के तीन कारण १.
गये हैं। छाया सीता का हरण होता है। सीता निर्वासन लोकापवाद, २. रजक वृत्तान्त, ३. सीता द्वारा रावण
के कारण पूर्व में दिया गया शुक का शाप माना गया का चित्र बनाना बताये गये हैं। लव-कुश का राम से है। युद्ध होता है और अन्त में सीता पाताल में समा जाती ___ पंजाबी रामायण - १८६८ ई-१९४६ में पंजाबी है। राम सीता आदि का चित्रण सामान्य मानव चरित्र भाषा में श्री रामलभाया दिलशाद नेरचना की। रामकथा के रूप में मिलता है। सीता निर्वासन में तारा का शाप के कुछ मार्मिक और प्रभावशाली प्रसंगों का विस्तार उल्लेखनीय है।
व स्पष्टतापूर्ण वर्णन किया गया है। सीता निर्वासन, असमीया रामायण - १५वीं शती में श्री माधव लव-कुश का जन्म, अश्वमेध यज्ञ व सीता का पाताल कन्दली द्वारा रचित है। सीता निर्वासन के सन्दर्भ में प्रवेश इस ग्रन्थ में वर्णित है। राम, सीता आदि का तारा का शाप कारण है। लव-कुश के द्वारा रामायण लौकिक रूप में चित्रण है। रामकथा को पारलौकिकता गान और राम परिचय के पश्चात राम के समक्ष उपस्थित के रहस्यपूर्ण वातावरण से दूर लौकिकता के स्वच्छ सीता भयंकर क्रोध करती है और फिर पाताल में प्रविष्ट वायुमण्डल में प्रस्तुत किया गया है। हो जाती है।
भानुभक्तको रामायण - १९वीं शती में नेपाली उड़िया रामायण - १६वीं शती में बलरामदास भाषा में श्रीभानुभक्त द्वारा रचित है। द्वारा शिवपार्वती संवाद के रूप में रचित है। सीता की बौद्ध धर्म में रामकथा सम्बन्धी तीन जातक रक्षा हेतु लक्ष्मण तीन रेखाएँ खींचते हैं। तारा का शान, सुरक्षित हैं - दशरथ जातक, अनामकम् जातकम् एवं सीता का परित्याग व पाताल प्रवेश इसमें वर्णित है। दशरथकथानकम्। इसमें से दशरथ जातक अधिक राम के स्वर्ग प्रस्थान के समय सीता की स्वर्ण प्रतिमा प्रसिद्ध हुआ है। वामा होकर साथ जाती है और स्वर्ग में सीता को प्रणाम बौद्धों की भाँति जैनियों ने भी रामकथा को कर अदृश्य हो जाती है। नाथ परम्परा का प्रभाव और अपनाया है और यहाँ एक विस्तृत रामकथा साहित्य तन्त्र-मन्त्र का चित्रण मिलता है। सीता निर्वासन से उपलब्ध होता है। जैन रामकथाओं के प्रमुख पात्र राम दुःखी राम को लक्ष्मण योगदर्शन का उपदेश देते हैं। लक्ष्मण और रावण भी जैन धर्मावलम्बी माने गये हैं
भावार्थ रामायण - १६वीं शती में मराठी भाषा और इन्हें जैनियों के त्रिषष्टि महापुरुषों में भी गिना गया में एकनाथ ने रचना की। सीता निर्वासन, राम के यज्ञ है। साथ ही वानर एवं राक्षसों को विद्याधर वंश की
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/41
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिन्न शाखाओं के अन्तर्गत माना गया है। पद्मपुराण की कथा को ही अधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई
विमलसूरि का पउम चरियं (चौथी शती ई.) है। उत्तर पुराण की कथा अत्यधिक संक्षिप्त है। उसमें शुद्ध जैन महाराष्ट्री में रचित है। संस्कृत में रविषेणाचार्य राम का वनवास, पंचवटी, दण्डकवन, जटायु, ने ६६० ई. में पद्मचरित नाम से रचना की है। इसके शूर्पणखा, खरदूषण आदि के प्रसंगों का भी अभाव है। अतिरिक्त प्राकत में शीलाचार्य कत चउपन्नमहा- नारद से सीता के रूप की प्रशंसा सुनने के बाद चित्रकूट पुरिसचरियं के अंतर्गत रामलक्खणचरियम् (९वीं शती), नामक वन से रावण सीता का हरण कर लेता है और भद्रेश्वर कृत कहावली (११वीं शती) के अंतर्गत उसके उद्धार के लिए लंका में राम-रावण युद्ध होता रामायणम और भवनतुंगसरि कत सीयाचरियं तथा है। रावण को मारकर राम दिग्विजय कर के लौटते हैं रामलक्ख चरियं जैन रामकथा के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। और बनारस में राज्य करते हैं। सीतां निर्वासन की कथा संस्कृत में रविषेणकृत पद्मचरित (६७८ ई.), हेमचन्द्र इसमें नहीं है। लक्ष्मण के आसध्य रोग से ग्रसित होकर कृत त्रिशष्टिशलाकापुरुष चरित (१२वीं शती) के मर जाने पर राम उनके पुत्र पृथ्वीसुन्दर को राजपद और अन्तर्गत जैन रामायण, हेमचन्द्र कत योगशास्त्र की सीता के पुत्र अतिंजय को युवराज पद पर अभिषिक्त टीका के अन्तर्गत सीतारावण कथानकम्, ब्रह्म करके जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। जिनदासकृत रामायण अथवा रामदेव पुराण (१५वीं पउमचरियं में प्रारंभिक बीस सर्गों में रावण का शती) पद्मदेव विजयगणिकृत रामचरित (१६वीं शती) चरित्र विस्तार से वर्णित है। वह एक धर्मभीरु जैनी है, आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण, आचार्य सोमप्रभकृत जो जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार करवाता है तथा पशुबलि लघुत्रिषष्टि शलाकापुरुष, मेधविजयगणिवरकृत वाले यज्ञों पर रोक लगाता है। लघुत्रिषष्टि शलाकापुरुष (१७वीं शती) आदि ग्रन्थ
दशरथ और जनक की वंशावली के पश्चात् उल्लेखनीय हैं।
दशरथ का अपराजिता, सुमित्रा तथा कैकयी के साथ इसके अतिरिक्त विभिन्न कथा ग्रन्थों में भी विवाह हो जाता है। राजा दशरथ युद्ध में प्राणरक्षा करने रामकथाएँ पाई जाती हैं । हरिषेणकृत कथा कोष (१०वीं के एवज में कैकयी को वर देते हैं । राजा जनक के विदेहा शती) में रामायणकथानकम् (कथा नं. ८४) एवं सीता नामक महारानी से पुत्री सीता व पुत्र भामण्डल का जन्म कथानकम् (कथा नं. ८९), रामचन्द्र मुमुक्षकृत होता है। म्लेच्छों के विरुद्ध राजा जनक की सहायता पुण्याश्रवकथाकोष (१३३१ ई.) में लवकुशकथा, के कारण राम-सीता का विवाह निश्चित होता है। धनेश्वरकृत शत्रुजय माहात्म्य के नवें सर्ग में रामकथा सीता स्वयंवर के अवसर पर रामधनुष चढ़ाते हैं और उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त कन्नड भाषा में विवाह सम्पन्न होता है। दशरथ के वैराग्य होने पर नागचन्द्रकृत पम्परामायण (११वीं शती), कुमुदेन्दुकृत कैकेयी अपने वरदान के बल पर भरत के लिए राज्य रामायण (१६वीं शती), देवचन्द्रकृत रामकथावतार माँग लेती है और राम, लक्ष्मण और सीता दक्षिण में (१८वीं शती) और चन्द्रसागरवणीग्कृत जिन रामायण चले जाते हैं। (वनवास का कारण और अवधि स्पष्ट (१९वीं शती) जैन रामकथा के प्रमुख ग्रन्थ हैं। नहीं है) कैकेयी के पश्चाताप करने पर भरत राम से
जैन साहित्य में रामकथा के दो रूप मिलते हैं। राज्य स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं और उनके एक पउमचरियं और रविषेणकत पदमपुराण का तथा अस्वीकार करने पर स्वयं शासन करते हैं। साथ ही जैन दूसरा गुणभद्राचार्यकृत उत्तर पुराण का। दोनों कथाओं मुनि के समक्ष यह प्रतिज्ञा करते हैं कि राम के प्रत्यागम के स्वरूप में व्याप्त अन्तर है। जैन रामायण के रूप में पर वे दीक्षा ले लेंगे। वनगमन का वृतान्त लोकप्रसिद्ध
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/42
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाल्मीकीय रामायण से अत्यधिक भिन्न है । राम, लक्ष्मण अनेक राजाओं को परास्त करते हैं एवं उनकी कन्याओं को विवाह में स्वीकार करते हैं। सीता हरण का प्रसंग भी कुछ अन्तर के साथ वर्णित है । चन्द्रनखा और खरदूषण के पुत्र शम्बूक ने सूर्यहास खड्ग की प्राप्ति के लिए १२ वर्ष तक साधना की और जब वह उसे प्राप्त होता है, तभी संयोगवश वहाँ पहुँचे हुए लक्ष्मण उस खड्ग को उठाकर शम्बूक का सिर काट देते हैं। चन्द्रनखा विलाप करने के पश्चात् राम-लक्ष्मण की पत्नी बनने का प्रस्ताव भी रखती है। शम्बूक वध की सूचना खरदूषण एवं रावण को मिलती है, तो वे युद्ध के लिए आते हैं। रावण सीता पर आसक्त होकर उसका हरण कर लेता है। राम और सुग्रीव की मित्रता वृतान्त के अन्तर्गत राम साहसगति को मारकर सुग्रीव को उसका राज्य व पत्नी लौटाते हैं और सुग्रीव अपनी १३ कन्याओं को उन्हें समर्पित करते हैं। हनुमान लंका जाकर सीता का संदेश लाकर राम को देते हैं। युद्ध वर्णन के अन्तर्गत भी कई अंतर दिखाई देते हैं। सीता का भाई भामण्डल भी युद्ध में भाग लेता है। रावण बहुरूपा विद्या को सिद्ध करके सीता को धमकी देता है कि राम का वध करके वह सीता के साथ अवश्य रमण करेगा। किन्तु सीता का राम के प्रति अटल प्रेम देखकर वह स्वयं ही (राम को युद्ध में हराने के पश्चात् ) उसे सौंपने का निश्चय करते हैं। लंका में प्रवेश करके राम सर्वप्रथम सीता से मिलते जाते हैं।
सीता के साथ राम लंका में छह वर्ष तक निवास करते हैं। अयोध्या में नारद कौशल्या को दुःखी देखकर लंका में आकर राम, लक्ष्मण, सीता से उनके दुःख का वर्णन करते हैं। राम पुष्पक विमान पर आरुढ़ होकर अयोध्या लौटते हैं।
राम राज्याभिषेक के पश्चात् लक्ष्मण शत्रुघ्न आदि राजाओं को इच्छित देश प्रदान करते हैं। राम, सीता जिन मन्दिरों में पूजा-उपासना करते हैं। कुछ प्रजाजन राम से सीता विषयक अपवाद का निवेदन
करते हैं, यह समाचार लक्ष्मण को मिलने पर वे उन सभी दुष्टों को नष्ट करना चाहते हैं, किन्तु राम लोकापवाद के कारण सीता के त्याग का निश्चय कर लेते हैं । वे कृतान्तवक्त्र सेनापति को बुलाकर जिन मन्दिरों के दर्शन करने के बहाने से सीता को जंगल में छुड़वा देते हैं । सेनापति सीता से उनके निर्वासन के विषय में विनम्रतापूर्वक निवेदन करता है।' सीता राम को सन्देश
है कि जिस प्रकार आपने मुझे छोड़ दिया है, उसी प्रकार जिन भक्ति का त्याग कभी मत करना। सम्यग्दर्शन को न छोड़ें, मुझे छोड़ने से एक जन्म में दुःख होगा, जबकि सम्यग्ज्ञान के न रहने से जन्मान्तरों तक दुःख उठाना पड़ेगा। राज्य, स्त्री आदि प्राप्त होकर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन स्थिर सुख को देने वाला है। एक बार हाथ में आया हुआ यह रत्न यदि सागर में गिर जाये जो पुनः प्राप्त नहीं हो सकता ?
-
वन में राजा वज्रजंघ द्वारा पूछे जाने पर सीता अपने निर्वासन के विषय में कहती है कि मेरे पति ने यश की रक्षा के लिए मुझे वन में छोड़ दिया - चिन्तितं ममे ततो भर्त्रा प्रेक्षापूर्वविधायिना । लोकस्वभाव वक्रोऽयं नान्यथा याति वश्यताम् ॥६९॥ वरं प्रियजने त्यक्ते मृत्युरप्यनुसेवितः । यशसो नोपधातोऽयं कल्पान्तवस्थित ॥ ७० ॥
साहं जनपरीवादद्विदुषा तेन बिभ्यता । संयक्तता परमेऽरण्ये दोषेण परिवर्जिता ॥७१॥ विशुद्धकुलजातस्य क्षत्रियस्य सुचेतसः । विज्ञातसर्वशास्त्रस्य भवत्येवेदमीहिमत् ॥ ७२ ॥
- पद्मपुराण ९८ ६९-७२
राम के लिए सीता वियोग अत्यधिक कठिन था । यद्यपि आठ हजार रानियाँ उसकी निरन्तर सेवा कर रही थीं ।
सहस्रैरष्टभिः स्त्रीणां सेव्यमानोऽपि सन्ततम् | वैदेही मनसा रामो निमेषमपि नात्यजत् ॥ ९९. १०८ वज्रजंघ के राजमहल में दोनों कुमारों लवण,
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/43
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंकुश का विधिवत् पालन पोषण करते हुए राजधर्म, स्वीकार नहीं कर लेते, मैं उसके साथ निवास नहीं कर जिनधर्म आदि की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है। विवाह सकता हूँ। अतः समस्त देशवासी, राजाओं एवं के प्रसंग में पौण्डरीकपुर के राजा पृथु से युद्ध करके विद्याधरों की सभा का आयोजन किया जाए। राम की उनकी कन्या से विवाह करके वे पुनः माता के समीप आज्ञा से भामण्डल, विभीषण आदि राजाओं द्वारा आकर सुखपूर्वक रहते हैं।
सीता से आग्रह करने पर सीता का उत्तर है - श्रीराम के सेनापति कृतान्तवक्त्र से सीता त्याग सम्भाषिता सुगम्भीरा सीतासपिहितेक्षणा। के स्थल का पता कर उस स्थान पर आए हुए नारदजी
आत्माभिनिन्दनाप्राय जगाद परिमन्थरम् ।। ने उन दोनों कुमारों को देखा व उनके पूछने पर राम
असज्जनवचोदावदग्धान्यंगानि साम्प्रतम्। लक्ष्मण का पूरा वृतान्त सुनाया। राम ने प्रजानुरंजन के
क्षीरोदधिजलेनापि न मे गच्छन्ति निर्वृत्तिम्॥ कारण धर्मपत्नी सीता का परित्याग किया। सीता के चरित्र की अत्यधिक प्रशंसा करते हुए नारद ने
- पद्मपुराण १०४. २४-५ लोकापवाद के कारण राम द्वारा सीता त्याग के विषय
दुर्जनों की वाणी से जले हुए मेरे तन-मन को में बताया तो अंकुश ने कहा कि यह आचरण उनके क्षीरसागर के जल से भी शान्ति नहीं हो सकती है। कुल की शोभा के अनुरूप नहीं है। हम अयोध्या पर तदनन्तर राजाओं के अनुनय-विनय से द्रवित होकर चढ़ाई करके उन्हें जीतेंगे। यह सुनकर सीता के अत्यधिक सीता राम के पास आती है। पुनः राम द्वारा चारित्र्य उत्कण्ठित होने पर कमारों ने उससे व्याकलता का की शुद्धि का प्रश्न उठाने पर अग्निपरीक्षा का संकल्प कारण पूछा और सीता ने संपूर्ण वृतान्त कह सनाया. करती है । तब सिद्धार्थ शपथपूर्वक उनके उत्तमशील की किन्तु उन्हें युद्ध से विरत नहीं कर सकी। सेनाओं के घोषणा करते हैं और समस्त मानव और विद्याधर सीता परस्पर युद्ध के साथ ही राम का लवण के साथ और के सतीत्व को स्वीकार करते हैं। तथापि सीता राम के लक्ष्मण का लवणांकुश के साथ युद्ध हआ। दोनों द्वारा तैयार की गई चिता में प्रवेश करके अपनी शुद्धता कुमारों के जन्म का वृतान्त ज्ञान होने पर राम-लक्ष्मण प्रमाणित करती है। पृथ्वी को विदीर्ण करके जल की ने हर्षित होकर उन्हें स्वीकार किया और इसे देखकर वापी बनती है, जिसमें एक सहस्रदल कमल के मध्य सीता पुनः पौण्डरीकपुर लौट आयी।
स्थित सिंहासन पर उत्तम देवियों के द्वारा सीता को (पद्मपुराण ९९-१०३ पर्व)
की बिठाया जाता है एवं राम उन्हें स्वीकार करने को तत्पर
होते हैं, किन्तु सीता पृथ्वीमति आर्यिका से जिनदीक्षा हनुमानादि के द्वारा सीता को पुनः स्वीकार
ग्रहण कर लेती है। (वही १०४-१०५ पर्व) करने की प्रार्थना करने पर राम कहते हैं - अनघं वेदि सीतायाः शीलमुत्तचेतसः।
वाल्मीकि रामायण में यद्यपि उत्तरकाण्ड को
प्रक्षिप्त माना गया है और इस दृष्टि से सीता निर्वासन प्राप्ताया: परिवादं तु पश्यामि वदनं कथम्॥
पर भी एक प्रश्नचिह्न उपस्थित होता है। राम के धीरसमस्त भूतले लोकं प्रत्याययतु जानकी।
गंभीर एक पत्नी परायण चित्त के साथ भी इस की ततस्तया सतं वासो भवेदेव कृतोऽन्यथा ।
संगति स्थापित करना दुष्कर है । तथापि युद्ध की समाप्ति - पद्मपुराण १०४. ४-५ पर राम और सीता के मिलन से लेकर राम के राज्याभिषेक यद्यपि मैं सीता को निष्पाप मानता हूँ, किन्तु एवं पुनः लोकापवाद के कारण सीता त्याग की घटनाओं जब तक पृथ्वी पर सभी लोग इसके उत्तमशील को पर दृष्टि डालना उचित होगा।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/44
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
राम-रावण युद्ध की समाप्ति पर देवता स्वयं लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सुग्रीव, विभीषण या अन्य सीता के पातिव्रत्य की प्रशंसा करते हैं और प्रसन्नतापूर्वक राक्षस किसी के भी साथ इच्छानुसार निवास कर सकती स्वर्ग चले जाते हैं।
हो। रावण तुम्हारे दिव्य रूप को देखकर तुम से अधिक राम हनुमान को अपने कुशल समाचार के साथ दूर नहीं रह सका होगा। (वही १८-२४) सीता के पास भेजते हैं व उनसे सीता का संदेश लेकर तब पतिपरायणा सीता आत्म-विश्वासपूर्वक आने को कहते हैं। इस प्रसंग में भी सीता को धर्मपथ कहती है कि मेरे वश में जो हृदय है, वह सदैव तुम पर स्थित बताया गया है - एवमुक्ता हनुमता सीता में ही लगा रहा है। शरीर पर मेरा वश नहीं है और धर्मपथे स्थिता। युद्ध ११३. १६ ।
आपके साथ जो इतने वर्षों का संबंध रहा है, उसके हनुमान राम को यह संदेश लाकर देते हैं कि बाद भी यदि आप मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं तो जिनके लिए आपने समुद्र बन्धन और यह घनघोर युद्ध मैं निश्चय ही मृत हूँ। (वही ११६.९-१०) वे लक्ष्मण किया था वह मैथिली आपसे मिलना चाहती है। तब से चिता तैयार करने को कहती हैं और राम की प्रदक्षिणा राम विभीषण को आदेश देते हैं कि सीता को आभूषणादि करके चिता पर आरूढ़ होते हुए कहती हैं - से सुसज्जित करके शीघ्र उपस्थित करें। जब सीता राम कर्मणा मनसा वाचा तथा नातिचराम्यहम् । के पास आती हैं तो राम एक साथ क्रोध, प्रसन्नता और राघवं सर्व धर्मज्ञं तथा मां पातु पावकः॥२७।। दीनता की अनुभूति करते हैं।
- वही ११६. २७ प्रिय पत्नी को समीप पाकर हर्ष की अनुभूति उनके अग्नि प्रवेश के पश्चात् प्रात:कालीन सूर्य के साथ ही 'लोग क्या कहेंगे' से राम का हृदय टुकड़े- के समान अरूणपीत कान्ति वाली सीताजी को लेकर टुकड़े हो रहा है और वे सीता से अपने पौरुषेय दर्प से मूर्तिमान अग्निदेव ने श्रीराम को समर्पित करते हैं - परिपूर्ण वचन करते हैं --
अब्रवीत् तु तदा रामं साक्षी लोकस्य पावकः। यत् कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां प्रतिमार्जता। एषा ते राम वैदेही पापमस्यां न विद्यते ॥ (वही ५) तत् कृतं रावणं हत्वा मयेदं मानकांक्षिणा ॥१३।। राम को स्वयं सीता के सतीत्व पर दृढ़ विश्वास विदितश्चातु भद्रं ते योऽयं रणपरिश्रमः।
था और वे सीता को स्वयं से उसी तरह अभिन्न मानते सुतीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः॥१५।। थे, जैसे सूर्य से उसकी प्रभा। जिस प्रकार स्वाभिमानी रक्षता तु मया वृत्तमपवादं च सर्वतः।
पुरुष अपनी कीर्ति का त्याग कभी नहीं कर सकता है, प्रख्यातमात्मवंशस्य न्यंग च परिमार्जता ।।१६।।
उसी प्रकार राम सीता को कभी नहीं छोड़ सकते हैं - प्राप्तचारित्रसन्देहा मम प्रतिमुखे स्थिता।
नेयमर्हति वैकल्व्यं रावणान्त:पुरे सती। दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढ़ा ॥१७॥
अनन्या हि मया सीता भास्करस्य प्रभा यथा ।।१९।। - युद्धकाण्ड ११५. १३-१७
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा । __ तुम व्याकुल नेत्र के लिए रोशनी की भाँति मुझे
व्याक नलागतीकी भाँति हो न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ॥२०॥ अत्यधिक अप्रिय हो, इसलिए दसों दिशाओं में कहीं
- वही ११८. १९-२० भी चली जाओ, मुझे तुम से कोई प्रयोजन नहीं है। दूसरे राम के इस कथन की दृष्टि से भी सीता निर्वासन के घर में रहने वाली स्त्री को कोई भी कुलीन पुरुष विवेचनीय है, क्योंकि सम्पूर्ण रामायण में यह उद्घोष सौहार्द्र के लोभ से, मन से स्वीकार नहीं कर सकेगा। मिलता है - रामोद्विर्नाभिभाषते।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/45
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
राज्याभिषेक के पश्चात् राम शुभ अवसर पर प्रदान नहीं करते। लक्ष्मण बड़े दुःख के साथ सीता के पधारे हुए अतिथियों को भेंट आदि प्रदान कर ससम्मान आश्रम के समीप ले जाकर निवेदन करते हैं - विदा कर देते हैं एवं न्यायपूर्वक शासन करते हैं। इसी सा त्वं त्यक्ता नृपतिना निर्दोषा मम सन्निधौ।१३॥ क्रम में गुप्तचर भद्र से पुरवासियों के विचार जानना
पौरापवादभीतेन ग्राह्यं देवि न तेऽन्यथा। चाहते हैं। यह जानकर कि पुरवासियों में रावण के घर में रही हुई सीता को राम द्वारा स्वीकार कर लेने के विषय
आश्रमान्तेषु च मया त्यक्तव्या त्वं भविष्यसि ।१४।। में इस कारण से रोष है कि हमें हमारी स्त्रियों के विषय राज्ञः शासनमादाय तथैव किल दौहृदम्। में यही सहन करना पड़ेगा क्या ? -
- उत्तर ४७. १३-१५ लंकामपि पुरा नीतामशोकवनिकां गताम्।
सीता की शुद्धता हो जाने पर लोकापवाद के रक्षसां वशमापन्नां कथं रामो न कुत्स्यति ॥१८॥ कारण दी गई राजाज्ञा का पालन करना लक्ष्मण के लिए अस्माकमपि दारेषु सहनीयं भविष्यति ।
आवश्यक है। अपने त्याग के अवसर पर पति के लिए यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तते ॥१९॥
दिया गया वैदेही का संदेश मार्मिक होने के साथ ही उत्तर ४४.
उनकी पतिपरायणता के साथ ही आत्म सम्मान को भद्र के इस कथन के विषय में सहृद सभासदों सूचित करने वाला है। वे राम को राजा के रूप में द्वारा असहमति प्रकट किए जाने पर राम सभा को सम्बोधित करती है - वक्तव्यश्चैव नृपति धर्मण विसर्जित करके तीनों भाईयों को बलवाकर प्रजा में सुसमाहितः (१४)। साथ ही यह भी कि स्त्री के लिए फैले हए प्रवाद के विषय में बताते हैं। साथ ही यह भी पति ही बन्धु, गुरु और देवता होता है, इसलिए स्त्री कि लंका में हुई अग्नि परीक्षा में सभी देवताओं ने उन्हें को अपने प्राणों के द्वारा भी पति के प्रिय कार्य को करना निष्पाप माना था और स्वयं महेन्द्र ने उन्हें पनः सौंपा चाहिए। (चाहे वह स्वयं उसका त्याग ही क्यों न हो) था।"
पतिर्हि देवता नार्याः पतिर्बन्धु पतिर्गुरुः । राम की अन्तरात्मा भी जानकी को निष्पाप प्राणैरपि प्रियं तस्माद् भर्तुः कार्यं विशेषतः॥१७|| समझती है -
- उत्तर ४८ अन्तरात्मा च मे वेत्ति सीतां शुद्धां यशस्विनीम्।
वे यह कहती हैं कि आज वे गर्भवती हैं, इसका ततो गृहीत्वा वैदेहीमयोध्यामहमागतः।
लक्ष्मण विश्वास कर लें (कालान्तर में इस विषय में - उत्तर ४५. १०-११ उनके चरित्र पर फिर कोई लांछन न लगे)। तथापि पुरवासियों के अपवाद के कारण वे वाल्मीकि रामायण में राम के द्वारा सीता त्याग अपनी अपकीर्ति से भयभीत हैं और लोक निन्दा के के मूल काल में भृगु ऋषि द्वारा दिए गए पत्नी वियोग भय से वे अपने प्राणों को अथवा बन्धुओं को भी त्याग विषयक शाप को बताया गया है। (उत्तर ५१ सर्ग) सकते हैं। तो सीता का त्याग कौन सी बड़ी बात है। सीता वाल्मीकि के आश्रम में दो पुत्रों को जन्म देती (वही १२-१५) वे अपने भाईयों से किसी तरह का है। जिनकी शिक्षा-दीक्षा के साथ ही मुनि वाल्मीकि परामर्श किए बिना लक्ष्मण को आज्ञा देते हैं कि दसरे उन्हें रामकथा भी कण्ठस्थ कराते हैं। राम द्वारा अश्वमेध दिन सीता को राम राज्य की सीमा के पार वाल्मीकि यज्ञ के अवसर पर दोनों मुनिकुमार लव और कुश के आश्रम के निकट निर्जन वन में त्याग दें। वे इस विषय रामकथा का गायन करते हैं और उन्हें राम के पुत्र के में उन्हें कुछ कहने या विचार करने की अनुमति भी रूप में पहचाना जाता है। राम सीता को बुलवाकर पुनः
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/46
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनकी शुद्धता प्रमाणित करवाना चाहते हैं। वाल्मीकि तो राजा राम के द्वारा अपनी प्रजा के रूप में सीता की मुनि सीता की शुद्धि की विस्तार से घोषणा (९६ सर्ग) सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करना आदर्श रामराज्य करते हैं एवं जन समुदाय उस पर विश्वास करता है, में किस प्रकार उचित कहा जा सकता है ? इस संदर्भ किन्तु स्वाभिमानिनी सीता पृथ्वी से प्रार्थना करती है में दण्ड विधान का नियम याद आता है कि सामान्य कि यदि उन्होंने मन, कर्म, वचन से राम के अतिरिक्त जन को दण्ड का भय दिखाकर अनुशासित करना हो किसी भी पुरुष का ध्यान नहीं किया है तो पृथ्वी अपने तो किसी बलशाली की छोटी सी त्रुटि पर अतुलनीय हृदय में उन्हें स्थान दे। तब भूतल से एक सिंहासन दण्ड दे दें, तो देखने वाला स्वतः भयभीत होकर गलती प्रकट होता है और पृथ्वी की अधिष्ठात्री देवी उन्हें उस का साहस ही नहीं करेगा। जो भी हो रामकथा का पर बिठा कर पुनः भूतल में प्रविष्ट हो जाती है। आश्रय लेकर रचना करने वाले अन्य परकालीन कवियों
रामकथा जो युगों-युगों से जनमानस की प्रेरणा को भी यह बात गले नहीं उतरी तो कुछ ने इस प्रसंग का स्रोत है. में सीता निर्वासन का प्रसंग विशेष रूप को चित्रित ही नहीं किया और कुछ ने इस संदर्भ में से सामान्य स्त्रियों को विपरीत परिस्थितयों में चारित्रिक बालि की पत्नी तारा के शाप की अवधारणा की और दृढ़ता की शिक्षा देने के लिए निरूपित प्रतीत होता है। कुछ ने सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाने का काल्पनिक जैसे कि पुरवासियों की आशंका से भी स्पष्ट है कि हमें प्रसंग जोड़ा। रामचरित में परिमार्जन हुआ या नहीं, अपनी स्त्रियों को भी ऐसी स्थिति में स्वीकारना होगा। किन्तु सीता निर्वासन के माध्यम से तत्कालीन से लेकर धर्मसूत्रकारों की दृष्टि से देखें तो व्यभिचारिणी नारी भी आधुनिक युग तक नारी की स्थिति, उसका जीवन, गर्भावस्था में पति, पुत्रादि के द्वारा सुरक्षा पाने की उसका चरित्र आदि सम्पूर्ण समाज के विवेचन का अधिकारिणी होती है। ऐसी स्थिति में पति राम नहीं विषय बनते रहे हैं।
- अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर
स्वाम्यादेशस्य कृत्यत्वाद्वक्तव्यत्वान्नियोगतः । कथञ्चिद्रोदनं कृत्वा यथावत्स न्यवेदयत्।।१०७ विषाग्निशस्त्र सदृशं शुभे दुर्जनभाषितम्। श्रुत्वा देवेन दुष्कीर्तिः परमं भयमीयुषा ।।१०८ सन्त्यज्य दुस्त्यजं स्नेह दोहदानां नियोगतः। त्यक्तासि देवि रामेण श्रमणेन रतिर्यथा॥१०९ स्वामिन्यस्ति प्रकारोऽसौ नैव येन स विष्णुना। अनुनीतस्तवार्थेन न तथाप्यत्यजद् ग्रहम् ॥११० तस्मिन् स्वामिनि नीरागशरणं तेऽस्ति न क्वचित्। धर्मसम्बन्धमुक्ताया जीवे सौख्यस्थितेरिव ।।१११ - पद्मपुराण ९७ संसाराद् दुःखनिर्घोरान्मुच्यन्ते येन देहिनः । भव्यास्तदर्शनं सम्यगाराधयितुमर्हसि ॥१२० साम्राज्यादपि पद्माभ तदैव बहुमन्यते। नश्यत्येव पुनः राज्यं दर्शनं स्थिरसौख्यदम् ॥१२१ तदभव्यजुगुप्सतो भीतेन पुरुषोत्तम । न कथञ्चित्त्वया त्याज्यं नितान्तं तद्धि दुर्लभम् ।।१२२ रत्नं प्राणितलं प्राप्तं परिभ्रष्टं महादधौ। उपायेन पुनः केन संगति प्रतिपद्यते ।।१२३ क्षिप्तामृतफलं कूपे महापत्ति भयंकरे। परं प्रपद्यते दुःख पश्चातापहतः शिशु॥१२४ यस्य यत्सदृशं तस्य प्रवदत्वनिवारतः । को ह्यस्य जगतः कर्तुं शक्नोति मुखबन्धनम् ।।१२५ श्रृण्वताऽपि त्वया तत्तत्स्वार्थनाशनकारणम् । पडेनेव न कर्तव्यं हृदये गुणभूषण ॥१२६ अनुरागं च वीर्यं च मारूतेर्लक्ष्मणस्य च। पतिव्रतात्वं सीताया हनूमति पराक्रमम् ॥३ कथयन्तो महाभागा जग्मुहृष्टा यथागतम्।४ - युद्ध ११२ यन्निमित्तोऽयमारम्भ कर्मणां यः फलोदयः । तं देवीं शोकसन्तप्तां द्रष्टुमर्हसि मैथिलीम् ॥२
३.
४.
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/47
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
;
सा हि शोकसमाविष्टा वाष्पपर्याकुलेक्षणा। मैथिली विजयं श्रुत्वा द्रष्टुं त्वामाभिकांक्षति ॥३ - युद्धकाण्ड ११४ दिव्यांगरांगा वैदेहीं दिव्याभरणभूषिताम् । इह सीतां शिरःस्नातामुपस्थापय मा चिरम् ।।७ - युद्धकाण्ड ११४ तामागतामुपश्रुत्य रक्षोगृहचिरोषिताम्। रोषं हर्ष च दैन्यं च राघवः प्राप शत्रुहा ।।१७ - युद्धकाण्ड ११४ प्रत्ययार्थं ततः सीता विवेश ज्वलनं तदा। प्रत्यक्षं तव सौमित्रे देवानां हव्यवाहनः ।।७ अपापां मैथिलीमाह वायुश्चाकाशगोचरः। चन्द्रादित्यौ च शंसेते सुराणां सन्निधौ पुरा ।।८ ऋषिणां चैव सर्वेषामपापां जनकात्मजाम् । एवं शुद्धसमाचारा देवगन्धर्व सन्निधौ॥९ लंकाद्वीपे महेन्द्रेण मम हस्ते निवेशता ॥१० - उत्तर ४५ यथाहं राघवादन्यं मनसापि न चिन्तये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥१४ मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समार्चये। तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥१५ यथैतत् सत्यमुक्तं में वेदिम् रामात् परं न च । तथा मे माधवी देवी विवरं दातुमर्हति ॥१५ - उत्तरकाण्ड ९७ हृताधिकारां मलिनां पिण्डमात्रोपजीविनाम् । परिभूतामधःशय्यां वासयेद्व्यभिचारिणीम् ॥७० सोमः शैचं ददावासां गन्धर्वश्च शुभां गिरम्। पावकः सर्वमेध्यत्वं मेध्या वै योषितो हतः ॥७१ व्यभिचारादृतौ शुद्धिगर्भे त्यागो विधीयते । गर्भभर्तृधादौ च तथा महति पातके ॥७२ – याज्ञवल्क्यस्मृति १
२०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समय राम, लक्ष्मण, रावण, हनुमान आदि हुए हैं। राम को अपने जीवन के अन्तिम समय में संसार से वैराग्य हुआ। तो शान्ति प्राप्त करने के लिए जो अपनी इच्छा व्यक्त की, उसका उल्लेख योगवाशिष्ठ ग्रन्थ में मिलता है -
नाहं शमो न वाञ्छा न च मे विषयेषु मनः ।
शान्तिमासितुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा॥ __ मैं न तो राम हूँ (रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः – योगी जिसमें रमण करे – ऐसा महायोगी या ईश्वर), न मुझे कोई अच्छा है, न मेरा मन विषयों में लगता है। मैं तो जिनेन्द्र भगवान के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति प्राप्त करना चाहता हूँ।
- योग वाशिष्ठ के उक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि राम-लक्ष्मण के समय में जैन तीर्थंकर आत्म-धर्म का प्रचार कर रहे थे। तभी उनके समान शान्त बनने की इच्छा राम के हृदय में उत्पन्न हुई।
- मुनि श्री विद्यानन्दजी, विश्वधर्म की रूपरेखा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/48
.
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य ज्ञानसागर का सारस्वत योगदान
डॉ. शिवसागर त्रिपाठी
भारत राष्ट्र में वैदिक और श्रमण संस्कृति सतत फिर निर्धारित मानदण्डों के परिप्रेक्ष्य में अन्य पश्चिम प्रवहमान है। भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान में ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं में इलियड, ओडिसी, महावीर तक २४ तीर्थंकरों की प्रेरणा से ओत-प्रोत टूनीड आदि महाकाव्य लिखे गए, पर आज वहाँ यह श्रमण संस्कृति के इतिहास में सुदीर्घ मुनि परम्परा रही परम्परा लुप्तप्राय है। भारत में आज भी प्रत्येक भाषा है, जिसने अपनी आचारचर्या और तपश्चर्या से भक्तजन में महाकाव्य लिखे जा रहे हैं। संस्कृत में तो सर्वाधिक का पथप्रदर्शन किया है। इनमें कतिपय सारस्वत-साधना महाकाव्य लिखे गए हैं। विवेच्य महाकवि ने उक्त ५ को भी प्रश्रय दिया। इनमें आचार्य ज्ञानसागर (मूलतः महाकाव्य लिखकर जैन साहित्य में चौदहवीं शताब्दी पं. भूरामल शास्त्री , पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ के के बाद भी विच्छिन्न शृंखला को जोड़ा है। सहपाठी थे) अन्यतम हैं जिनका साहित्य, धर्म, दर्शन ३. कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि आदि क्षेत्रों में अक्षुण्ण अवदान चिरस्मणीय रहेगा। कवि परम्परा में उपेक्षित अवश्य रहे हैं, पर निश्चय ही यहाँ कतिपय बिन्दु प्रस्तुत हैं -
आपने नैषध के बाद अवरुद्ध काव्यधारा को प्रवाहित १. आप द्वारा लिखित ३० पुस्तकों का एक करके संस्कृत साहित्य भण्डार की अभिवृद्धि की है। विशाल रचना-सन्दोह है, जिसमें ५ महाकाव्य
४. अकेला ‘जयोदय महाकाव्य' ही आचार्यवर (जयोदय, वीरोदय, सुदर्शनोदय , भद्रोदय,
की प्रतिभा का उत्कृष्ट निदर्शन है। इसमें उपमाद्यलंकार, समुद्रदत्तचरित, वीरशर्माभ्युदय, अप्रकाशित -
छटा, अन्त्यानुप्रास पर साधिकारता-वैशिष्ट्य, अनुपलब्ध) और एक चम्पूकाव्य (दयोदय) सहित
अर्थगौरव, पदलालित्य, प्रखर पाण्डित्य और स्वारस्य ११ संस्कृत रचनाएँ (मुनिमनोरंजनाशीति,
एकत्र द्रष्टव्य है। अत: इसे बृहत्त्रयी (किरातार्जुनीय, हितसम्पादक, भक्तिसंग्रह, प्रवचनसार, सम्यक्त्वसार
शिशुपालवध, नैषधीय चरित) के साथ मिलकर शतक) १० हिन्दी रचानाएँ ऋषभचरित्र, गुणसुन्दर वृतान्त, भाग्य- परीक्षा, पवित्र मानव जीवन, सरल
बृहच्चतुष्टयी के अन्तर्गत रखने का साहस किया गया है। जैन विवाह विधि, कर्तव्य पथ प्रदर्शन, इतिहास के
५. आचार्य श्री जैन अनुशासन के अप्रतिम पन्नें, सचित्त विवेचन, सचित्त विचार, स्वामी कुन्दकुन्द विद्वान हैं, अत: उनकी रचनाओं की कथावस्तु के स्रोत
और सनातन जैन धर्म, ऋषि कैसा होता है। टीकादि वैदिक साहित्य या सनातन पुरणादि नहीं, अपितु आगम ग्रन्थ (प्रवचनसार, समयसार, तत्वार्थ-दीपिका, ग्रन्थ, जैन ढांचे में ढले जैन पुराणादि और कथाकोश नियमसार, अष्टपाहुड, मानवधर्म-शान्तिनाथ पूजन आदि हैं। विधान, विवेकोदय देवागम स्तोत्र) हैं।
६. इसी प्रकार रचनाओं में पात्रानुशीलन एवं २. संस्कृत में महाकाव्य लेखन की एक परम्परा चारित्र्यचर्या अपने ढंग की है। इनके चरित नायक रही है। पहले रामायण और महाभारत वीरकाव्य और देवी-देवता या ऋषि नहीं, संयमी महापुरुष या दैगम्बरी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/49
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीक्षा के पात्र रहे हैं। वे राजा, व्यापारी, शूद्र आदि भी उदाहरणों और बोध कथाओं के द्वारा सरल और सुबोध हो सकते हैं। देवी-देवता, व्यन्तर आदि उनके सहायक बनाने का प्रयास भी किया है, फिर भी अनेकत्र शुष्क, रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। कोई वर्ग उपेक्षित नहीं है। नीरस और उबाऊ लगते हैं। अतः आपने काव्यों की दुष्टनिग्रह और शिष्यनुग्रह की बात कही अवश्य है, पर रचना कर उक्त विषय को आख्यानों और पात्रों के माध्यम मूल उद्देश्य रत्नत्रय और महाव्रतादि के आलम्बन से से सरस और हृदय बनाने का प्रयास किया है, जिसे मोक्ष प्राप्ति ही है।
शर्करामिश्रित कटौषधि के रूप में माना जा सकता है। ७. पूर्ववर्ती रचनाओं में सामग्री प्रायः राजदरबारों ११. संस्कृत काव्यों में कृत्रिमता का सूत्रपात या भू लोकेत्तर लोकों की होती थी। आचार्य श्री ने महाकवि भारवि ने किया था, जिसका विस्तार माघ, यथास्थान यथावसर उक्त सन्दर्भो को लेते हुए भी श्रीहर्ष आदि में उत्तरोत्तर हुआ। श्लिष्ट और द्वायाश्रय, जनसाधारण के जीवन के संबद्ध चित्रण किया । फलतः त्रयाश्रय काव्य लिखे गए। अगर काव्य के रूप में राजवर्ग और जनवर्ग दोनों पक्षों की सफल अभिव्यक्ति चित्रकाव्य लिखे गए। आचार्य श्री की रचनाओं में प्रस्तुत की है।
शब्दार्थालंकारों का प्राचुर्य है, भूयोविद्यता है, पाण्डित्य ८. आचार्य प्रवर ने समाज के अर्भाङ्ग महिला प्रदर्शन भी है तथा चक्रबन्ध, पानबन्ध, कलशबन्ध, वर्ग को उपेक्षित नहीं किया है। वे उन्हें समान अधिकार खड्गबन्ध आदि के रूप में चित्रकाव्य भी है। इस प्रकार देने के पक्षधर थे। घर की व्यवस्था उनका क्षेत्र अवश्य महाकवि ने प्रचलित अधिकांश शैलियों का अवलम्बन है, पर समाज और राष्ट्र के प्रति भी उनका दायित्व होता करते हुए भी सरलता, सहजता और जन-सामान्य की है। साथ ही वे यथावसर उनके दर्गणों और निर्बलताओं रुचि का ध्यान रखा है । उनका यह योगदान प्रेरणा-स्रोत का संकेत करने से नहीं चूके हैं।
रहा है। फलतः उनसे प्रेरित और प्रभावित साहित्य९. अपनी रचनाओं के वर्ण्य विषय में पौराणिक,
सर्जना होती रही। ऐतिहासिक, दार्शनिक, भौगोलिक, राजनीतिक,
१२. आचार्य श्री की रचनाओं में छन्दो- वैविध्य सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को अपनाते हए भी ही परम्परागत छन्दों के अतिरिक्त रागरागिनी आश्रित वर्तमान का चित्रण किया है। कवि अपने समय का गीत भी हैं। आपने जयोदय में ४५, वीरोदय में १८. प्रतिनिधि जो होता है। कविवर की रचनाओं में सुदर्शनोदय में १९, भद्रोदय में १२, दयोदय में ११ और समसामयिक युग का सच्चा चित्रण मिलता है। फलतः मुनि मनोरञ्जनाशीति में ३ प्रकार के छन्दों के प्रयोग प्रासंगिकता का भाव बराबर बना रहता है. अतः प्रसंग से सरलता लाने के प्रयास किया है। इसप्रकार उबाऊ नहीं लगता।
छन्दोऽनुरोध की प्रेरणा दी है। १०. आपने परम्परया काव्यशास्त्र सम्मत
१३. परम्परया रस को ब्रह्मानन्द सहोदर बताकर सालंकरण, सुवर्णा, सरसा और सबोधा कतियाँ लिखी रसोन्मेष पर बल दिया गया है। और श्रृंगार को रसराज हैं, जिनका उद्देश्य काव्य लेखादि के व्याज से जैन कहा गया है। बाद में यह संज्ञा वीर, करुण और अद्भुत सिद्धान्त निरूपण रहा है। महाकवि अश्वघोष का भी को भी दी गई। पर आचार्य श्री की रचनाओं में जैन यही उद्देश्य था, वहीं से प्रेरणा ली हुई प्रतीत होती है। परम्परा में शान्त रस की निष्पत्ति से ब्रह्मानन्द प्राप्त किया दार्शनिक रचनाओं में पूर्वाचार्यानुमोदित, सिद्धान्त पक्षीय गया है और उसी में मोक्ष पुरुषार्थ की सत्ता का आभास
और आगम सम्मत पक्ष, खण्डन-मण्डन, शंका- किया गया है। आपके पट्टशिष्य आचार्य विद्यासागर एमाधान आदि प्रस्तुत किये हैं और उन्हें रूपकों, ने तो शृंगार का व्युत्पत्ति परक अर्थ अपने ढंग से करके
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/50
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
शान्त को ही शृंगार अर्थात् सर्वोच्च कहा है - अध्यात्म १८. आचार्य श्री ने भारतीय संस्कृति का शृंग. राति इति शृंगारः एव शान्तः। .
अवलम्बन करते हुए भी श्रमण संस्कृति को प्राबल्य (सुनीतिशतकम् २२) दिया है। यथाहि वर्णाश्रमधर्म की पृष्ठभूमि लेकर भी १४. उल्लेख्य है कि भरत मुनि एवं परवर्ती
चतुर्विध संघ की भूमिका को प्रशस्य बताया है। आचार्यों ने भी शान्त रस को स्थान नहीं दिया - ‘अष्टौ
१९. भरत मुनि भले ही त्रिवर्ग सिद्धि को प्रयोजन नास्ये रसा: स्मताः परवर्ती काल में रस विस्तार मात्र मानते हैं, पर विवेच्य मनीषी ने चतुर्वर्ग सिद्धि पर बल दृश्य में नहीं शृव्य में भी हो गया, तो निवृत्ति परक शान्त
दिया है। परम्परया धर्म से अर्थ और काम की प्राप्ति को भी काव्य शास्त्रियों ने मान्यता दी। अतः शान्त रस
की बात कही गई है - धर्मादर्थश्च कामश्च । पर यहाँ परक रचनाएँ लिखी गई, विशेषतः जैन परम्परा में।
जैन परम्परा के अनुसार अर्थ, काम और रागादि संबंध आचार्यश्री की सभी रचनाओं में अंगीरस शान्त है।
त्यागकर धर्म की सिद्धि और फिर मोक्ष की प्राप्ति का अतः शान्त रस की प्रस्थापना और प्रचारणा में इनका
मार्ग अपनाने का निर्देश दिया गया है। योगदान स्तुत्य है।
२०. आलोच्य महापुरुष ने सदा सिद्धान्त और १५. दर्शन के क्षेत्र में आचार्य प्रवर ने
व्यवहार में सामरस्य रखने का प्रयास किया। राष्ट्र को
सुखी, सुदृढ, स्वावलम्बी और धर्मप्रिय देखने के लिए अनेकान्तवाद को सरल शैली में, सोदाहरण अभिव्यक्त
कर्तव्य-बोध, संस्कृति-बोध, राष्ट्र-बोध, हृदय-शुद्धि किया है। अथ च धर्म, कर्म, योग, समिति, आत्मा, और मानवता-बोध पर बल दिया। प्राणीमात्र के प्रति गुप्ति, उपयोग, गुणस्थान, नय निरुपण, सप्तभग, दिग्व्रत, मैत्री एवं करुणा भाव रखना. पाप और कषायों से दर शिक्षाव्रत, महाव्रत, स्वाध्याय, ध्यान, द्रव्य आदि ।
रहकर, पुण्य कार्यों में प्रवृत्त रहना उनका सन्देश था। यथास्थान सहज और सरल रूप में विवेचित किये हैं। परम्परया चार प्रमाण माने जाते हैं, पर आचार्य श्री ने
___किम्बहुना, महाकवि आचार्य ज्ञानसागर ने
अपना समग्र जीवन स्वहित, लोकहित और जैनधर्मप्रत्यक्ष और अनुमान के अतिरिक्त स्मृति को भी प्रमाण
दर्शन-साहित्य संस्कृति के रक्षार्थ समर्पित करके एक मानकर कुल तीन प्रमाण माने हैं।
आदर्श उपस्थित किया। चिन्तनधर्मिता और १६. शाप-वरदान परक घटनाओं को विशेष रचनाधर्मिता के सशक्त हस्ताक्षर का यह सारा योगदान प्रश्रय न देकर धर्माचरण और आत्मशुद्धि पर ही विशेष आगामी पीढी के लिए पाथेय बन रहा है। संक्षेप में बल दिया है।
आचार्य श्री के समस्त कार्य अनुकरणीय और वे स्वयं १७. श्रावकाचार और श्रमणाचार दोनों को स्मरणीय एवं प्रणम्य हैं - आपने लेखनीबद्ध किया है। गृहस्थोचित छह कार्य तपः स्वाध्यायनिरतः संयमसाधनायुतः । आवश्यक बताए हैं - देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, ज्ञानाचार्यः प्रणम्योऽस्ति धर्मदर्शनमोदकः।। संयम, तप और दान । इसप्रकार सर्वत्र सामनस्य की आकांक्षा में प्रेरणा दी है।
- डॉ. शिवसागर त्रिपाठी, पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष, राज. विश्वविद्यालय,
ए-६५, जनता कालोनी, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/51
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
33558
2088888603012
8580003550063
समाधि-मरण (संथारा) परम-अहिंसा है न कि आत्महत्या-सतीप्रथा सम निकृष्ट हिंसा
वैज्ञानिक धर्माचार्य कनकनन्दीजी गुरुदेव
जो कुछ बाहर से दिखाई देता है यथार्थ उससे प्राथमिक/कम बुद्धिवाले शिष्यों को समझाने के लिए भिन्न भी होता है। जैसा कि आकाश का नीला दिखाई उदाहरण के रूप में बताया गया है। प्रमाद से युक्त देना, सूर्य, चन्द्र नक्षत्र आदि का आकार छोटा दिखाई कषाय से संयुक्त जीव के परिणाम ही हिंसा के लिए देना आदि यथार्थ नहीं है। कृषि के समय कृषक द्वारा कारण होते हैं। असत्य आदि पाप हिंसा के ही जीवों का मरण तथा मछुआरा द्वारा जीवों का मारा अवस्थान्तर हैं। तथापि शिष्यों को समझाने के लिए जाना, राष्ट्र की रक्षा के लिए सैनिक द्वारा आक्रान्ताओं असत्य आदि पापों का भी कथन किया जाता है। पन्द्रह का मारा जाना तथा आतंकवादी, डाकू, लुटेरे द्वारा प्रकार के प्रमादों से आत्मा के परिणाम कलुषित होते निर्दोष व्यक्तिओं का मारा जाना, न्यायाधीश द्वारा दोषी हैं, मलिन होते हैं, इसलिए यह प्रमाद ही हिंसा है। को न्यायोचित दण्ड देना, माता-पिता-गुरुजन द्वारा यत्खलुकषाय-योगात् प्राणानां द्रव्य भावरूपाणां । दोष सुधार के लिए सन्तान एवं शिष्यों को प्रायश्चित व्यपरोणस्य करणं सुनिश्चितं भवति सा हिंसा ॥४३|| देना, प्रताडित करना तथा सज्जनों के साथ र्दुव्यवहार निश्चय से कषाय के योग से द्रव्य-भावरूप करना समान नहीं है। वेश्यागमन, परस्त्री आलिंगन प्राणों का हनन होना हिंसा है। निश्चय से कषाय के तथा माता-पिता का वात्यल्यमय दुलार, सहलाना एक योग से अर्थात क्रोध, मान आदि चार कषाय, हास्यादि समान नहीं है। उपर्युक्त उदाहरणों में बाह्य क्रिया में कुछ नोकषाय के योग से इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, शरीर समानता होने पर भी भाव, उद्देश्य, परिणाम में महान आदि द्रव्य प्राणों तथा ज्ञान आदि भाव प्राणों का हनन अन्तर है या पूर्ण विपरीत है। इसी प्रकार आत्म हत्या, करना या उन्हें पीडा देना हिंसा है। इन द्रव्य एवं भाव सतीप्रथा, पशु-पक्षी-मनुष्य की हत्या या धर्म के नाम प्राणों का प्रमत्त योग से व्यपरोपण करना, विनाश पर बलि चढ़ाना तथा समाधि-मरण (सल्लेखना, संथारा) करना, वियोजन करना निश्चय से हिंसा है। में भी जान लेना चाहिए। अन्तर को जानने के लिए पाँच इन्द्रिय प्राण, मन, वचन, काय रूपी तीन हिंसा एवं अहिंसा का व्यापक, सूक्ष्म यथार्थपरक स्वरूप
बल प्राण, श्वासोच्छ्वास एवं आयु मिलाकर के दस जानना प्राथमिक विधेय है। यथा -
प्राण होते हैं। यथा योग्य दसों प्राण का वियोग करना हिंसा का विश्वस्वरूप -
या उन्हें क्षति पहुँचाना हिंसा है। यहाँ पर परिणाम को आत्म-परिणाम हिंसन हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्। प्राधान्यता दी गई है। अनृत-वचनादि-केवलमुदाहृतं शिष्य-बोधाय ।।४२॥ अहिंसा और हिंसा का भावात्मक लक्षण
जिससे आत्मपरिणामों का हिंसन/हनन होता अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। है वह सब हिंसा है। असत्य आदि पापों का कथन तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥४४।।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/52
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
राग-द्वेष आदि दूषित परिणाम का आत्मा में बहिरात्मा होकर अन्तरात्मा का हनन करता है। उत्पन्न नहीं होना निश्चय से अहिंसा है। इन्हीं ही राग- आत्मवध होने के पश्चात् अन्य जीवों का बंध हो भी द्वेष आदि दूषित परिणामों का उत्पन्न होना जिनागम में सकता है नहीं भी हो सकता है। संक्षेप से हिंसा कहा है। जिनागम का संक्षेप या सार अहिंसा के लिए सल्लेखना - यह है कि अप्रयत्न रूप (अयत्नाचार) से आचरण
इयमेकैव समर्था धर्मत्वं मया समं नेतुम् । करना हिंसा है एवं प्रयत्न पूर्वक (विवेक एवं पवित्र
सततमिति भावनीया, पश्चिम सल्लेखना भक्त्या ।। भाव) आचरण करना अहिंसा है।
मुझे अपने धर्म तत्त्व को अपने साथ एकीकरण प्राणघात से ही यत्नाचारी हिंसक नहीं -
करके पर-भव में ले जाने के लिए यह सल्लेखना ही युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमंतेरणापि।
निरन्तर समर्थ है। इस प्रकार विचार करके भक्ति से न हि भवति जातु हिंसा, प्राणव्यपरोपणादेव ।।४५।।
निष्कपट रूप से जीवन के अन्तिम समय में सल्लेखना जो प्रयत्न आचरण से युक्त है तथा रागादि की भावना भानी चाहिए। मरण के समय में शरीर एवं आवेश से रहित है, उससे हिंसा नहीं होती है। युक्त कषाय को क्षीण करना सल्लेखना है।।१७५ ।। आचरण से सहित मुनीश्वरों के रागादि भावों के आवेश
सल्लेखना का पालन - के बिना कदाचित् प्राण व्यपरोपण होने पर भी
मरणांतेऽवश्वयमहं विधिना सल्लेखना करिष्यामि । नहीं होती है।
इति भावनया परिणतो, नागतमपि पालयेदमिदं शीलम् ।। अयत्नाचारी प्राणघात के बिना भी हिंसक -
स्वकीय परिणाम से पूर्व जन्म में उपार्जित आयु, व्यस्थानावस्थायां, रागादीनां वश प्रवृत्तानाम्। इन्द्रिय. बल का विनाश कुछ कारण से होता है, उसको म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ मरण कहते हैं। मरण को ही यहाँ पर अंत कहा गया
राग आदि परिणाम से वशीभूत जीव प्रमाद है। उस मरण के समय में शरीर, कषाय को क्षीण करना अवस्था में रहते हुए अवश्य हिंसक होता है, दूसरे जीव सल्लेखना कहते हैं। शरीर को क्षीण करना बाह्य मरें या नहीं मरें। आचार्य श्री ने इस प्रकरण में कहा कि सल्लेखना है। कषाय को क्षीण करना अभ्यन्तर राग आदि परिणाम से वशीभूत जीवों के तथा प्रमाद सल्लेखना है। मरण के अंत में अर्थात् तद्भव मरण। से सहित जीवों के आगे-आगे हिंसा दौड़ती रहती है। मैं शास्त्रोक्त विधि-विधान से निष्कपट रूप से सल्लेखना इसका रहस्य यह है कि वह अवश्यमेव हिंसक होता निश्चय से करूँगा। इसी प्रकार पूर्वोक्त प्रकार से भावना है अर्थात् त्रस-स्थावर जीवों के प्राणों का हनन करने से सहित पुरुष को भी आगामी काल संबंधी भी इस वाले या नहीं करने वाले भी प्रमादी जीव अवश्य ही शील का पालन होता है। जो ऐसी भावना भाता है, हिंसक होते हैं।
उसकी सल्लेखना होती है।।१७८।। आत्मघाती दूसरों के प्राणघात के बिना भी हिंसक- सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं ? - यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्माप्रथममात्मनाऽऽत्मानम्। मरणेऽवश्यं भाविनि. कषाय सल्लेखना तनकरण मात्रे। पश्चाज्जायत् न वा हिसा प्राण्यतराणा तु ।।४७|रागादिमंतरेण, व्याप्रियमाणस्य नाऽऽत्मघाताडास्त ।।
कषाय से युक्त जीव सर्वप्रथम स्व आत्म स्वरूप प्रश्न - स्वयमेव सल्लेखना करके प्राण त्याग की हिंसा करता है। पश्चात् अन्य जीवों की हिंसा हो करने से स्वकीय आत्मबन्ध होगा जो हिंसा है ?||१७७॥ या नहीं हो सकषाय जीव कषाय से वशीभूत होकर उत्तर - उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर आचार्य देते हैं
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/53
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि अवश्यंभावी मरण में राग-द्वेष, मद-मोहादि के दया के लिए कारण है। वसुनन्दी आचार्य ने कहा बिना की गई सल्लेखना से पुरुष का आत्मघात नहीं भी है - है क्योंकि सल्लेखना में कषाय को क्षीण किया जाता “आगम में रागादि की अनत्पत्ति को अहिंसा है और जहाँ कषाय आवेश नहीं है वहाँ आत्महत्या नहीं कहा है और उसकी उत्पत्ति को ही जिनेन्द्र भगवान ने होती है। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि प्रमत्त योग से प्राण हिंसा कहा है।" सल्लेखना में प्रवर्तमान पुरुष अवश्य का व्यपरोपण करना हिंसा है। जो पुरुष शुद्ध अन्तःकरण ही मरण आगत होने पर निज आत्म गण की विराधना से सल्लेखना करता है उसके प्रमाद का योग नहीं होता नहीं करता हआ धीरे-धीरे देह को त्याग करता है। है। सल्लेखना युक्त पुरुष राग-द्वेष, मोह-क्रोधादि में जिसप्रकार आत्मगुणों का विनाश नहीं हो तथा कषाय प्रवर्तन नहीं करता है। इसलिए उसका आत्म-वध नहीं का विनाश हो उसीप्रकार प्रयत्न करता है। किस प्रकार है। रागादि सहित अशुभ भाव में प्रवर्तन करने वालों जो स्वकीय आत्मघात करता है, उसकी सल्लेखना हो का ही आत्मघात होता है अन्य के नहीं। इसलिए सकती है ? जो सल्लेखना करता है उसका आत्मघातीसल्लेखना की भावना करनी चाहिए।
रूपी पातक नहीं होता है। आत्मघाती कौन ? -
व्रतधारी को स्वयं मोक्ष मिलता - या हि कषायऽऽविष्टः, कुम्भकजलधूमकेतुविष शस्त्रैः। इति यो व्रत-रक्षार्थं सतत पालयति सकल-शीलानि। .. व्यपरोपयति प्राणान्, न तस्य स्यार्ल्सयमात्मवधः॥ वरयति पतिं वरेण स्वयमेव तमुत्सका शिवपदश्री॥ रागादि सद्भाव से अशुभ भाव से प्राण विमोचन
इस प्रकार जो पुरुष सतत् अहिंसादि व्रत की करने पर सल्लेखना नहीं होती है, इसप्रकार दिग्दर्शन रक्षा के लिए सप्तशील को पालन करता है तथा करते हैं ।।१७८।।
सल्लेखना को करता है, वह शिव पदवीश्री को वरण निश्चय से कषाय से आविष्ट पुरुष कुम्भक, करता है। जिसप्रकार पति इच्छुक कन्या स्वेच्छा से श्वास निरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्र आदि के द्वारा पति को वरण करती है, उसीप्रकार शिव श्री/मोक्ष प्राणों को, इन्द्रियों को नाश करता है, उस पुरुष के लिए लक्ष्मी उत्कंठित होकर स्वयमेव व्रत पालक पुरुषों का
आत्मवध होता है। राग-द्वेष, मोहादि से युक्त श्वास आदर से वरण करती है ।।१८०।। निरोध से, विष-भक्षण से, कूप-पतन से, अग्नि प्रवेश उपर्युक्त वर्णन से सिद्ध होता है कि समाधिसे, पर्वत से गिरकर, शस्त्रादि के प्रयोग से आत्मा का
मरण परम अहिंसा है; क्योंकि अवश्यंभावी मरण हनन करता है, वह पुरुष आत्मघात पातक को प्राप्त
(जिससे मरण को किसी भी प्रकार से रोका नहीं जा होता है। उसकी सल्लेखना नहीं होती है। सकता है, टाला नहीं जा सकता है) काल में स्वसल्लेखना अहिंसा भाव -
पर को किसी भी प्रकार से कष्ट दिये बिना समता नीयन्तेऽत्र कषायाः हिंसाया हेतवो यतस्तनताम। पूर्वक मरण को वीरता से वरण किया जाता है। प्राण सल्लेखनामपि ततः प्रादुरहिंसा प्रसिद्धयर्थम् ॥१७९॥ घातक रोग आदि के अचानक आक्रमण के कारण जिसके कारण से इस सल्लेखना में मुनिश्वरों
तो तत्काल (कुछ समयावधि में) समाधि ग्रहण का
__विधान है, क्योंकि सम्यक् रूप से कषाय (क्रोध, के द्वारा हिंसा के कारणभूत क्रोधादि कषायों को मंद किया जाता है, इसलिए सल्लेखना को मनियों ने मान, माया, लोभ आदि) तथा शरीर को कश अहिंसा की प्रसिद्धि के लिए कहा है। सल्लेखना भी
" (क्षीण) किया जाता है। मुख्यतः कषाय क्षीण होने
था महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/54
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
के साथ-साथ स्वयमेव शरीर भी क्षीण होता है। आत्महत्या के लिए करता है ? स्व-पर संपूर्ण जीवों अतिवृद्ध, अतिरोग की अवस्था में शरीर क्षीण/दुर्बल से तीन काल संबंधी क्षमा प्रदान एवं क्षमा याचना पूर्वक होने के कारण चलना-फिरना, उठना-बैठना आदि मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमत से संपूर्ण हिंसा करने में पीड़ा होती है, रोग बढ़ जाता है। इसलिए से निवृत्ति होने के लिए समाधि को स्वीकार किया एक योग्य स्थान में एक संथारा (शयन के योग्य चटाई जाता है तो समाधि आत्महत्या या सती प्रथा के समान आदि) में समाधि साधक आध्यात्मिक साधना करते अपराध या सामाजिक बुराई अथवा कानूनी अपराध/ हैं। अतिवृद्ध, अतिरोगी अवस्था में गरिष्ठ-अति असंवैधानिक कैसे हो सकता है ? भारतीय संविधान भोजन करने से अपच आदि के कारण रोग में वृद्धि के अनुसार प्रत्येक नागरिक को धर्म और उपासना की की संभावना रहती है। इसलिए सुपाच्य-अल्पाहार स्वतंत्रता का अधिकार है। यथा - का विधान है। इस बाह्य (गौण) कारण के साथ- We, THE PEOPLE OF INDIA, havसाथ अंतरंग कारण इन सबका यह है कि स्व-पर ing solemnly resolved to constitute India को, सूक्ष्म से स्थूल जीवों को बाधा नहीं पहुँचे, भाव
into a (SOVEREIGN SOCIALIST SECU
LAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to में निर्मलता आवे, मरण में पीड़ा न हो।
secure to all its citizens; आवश्यकतानुसार नियम की मर्यादा में मरण के अन्तिम दिन तक औषधि-पानी आदि के भी प्रयोग
हम भारत के लोग, भारत को एक (संपूर्ण का विधान है।
प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक
गणराज्य) बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, अनेकान्त, उदारता, को - कर्म-सिद्धान्त के साथ-साथ १. आहार दान, २.
JUSTIC, Social, economic and po
___litical, LIBERTY of thought, expression, दान, ४
या belief, faith and worship, EQUALITY of दत्ती (करुणा से रोगी, गरीब आदि की सहायता) का status and of oppartunity, and to promote
among them all FRATERNITY assuring the जब विधान है तथा आत्मा में मलिन भाव को ही महान
dignity of the individual and the sunity and आत्म हत्या माना गया, तब कैसे कोई प्रवृद्ध/जागरुक
integrity of the nation]; वरिष्ठ नागरिक से लेकर साधु-संत तक आत्महत्या कर
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, सकते हैं ? भावात्मक आत्महत्या को जब जैन धर्म में महान हिंसा/पाप मान कर उससे दूर रहने का विधान
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की है, तब स्व-आत्महत्या के साथ-साथ स्व-शरीर हत्या
स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने
के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और (राष्ट्र एक सच्चा जैन कैसे कर सकता है ? जब संविधान
की एकता और अखण्डता) सुनिश्चित करने वाली के अनुसार १८ (२१) वर्ष का व्यक्ति स्व-विवेक से अपना धर्म, कर्तव्य का चयन कर सकता है. तब क्या बन्धुता बढ़ान के लिए एक वरिष्ठ व्यक्ति (वृद्ध-विवेकी-धर्मात्मा-अहिंसक)
IN OUR CONSTITUENT ASSEM
BLY this twentysixth day of November 1949 पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक आदि समस्याओं के do HEREBY ADOPT ENACT AND GIVE बिना स्व-विवेक के रहते हुए स्वेच्छा से आध्यात्मिक TO OUR SALVES THIS CONSTITUTION. उन्नति के लिए मरण को वरण करता है तो क्या वह
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/55
आषा
ie
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
में आज तारीख २६ नवम्बर, १९४९ ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी संवत् २००६ विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं ।
समाधि मरण एवं आत्महत्या में और भी अनेक अन्तर निम्न प्रकार से हैं
-
समाधि एक धार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जबकि आत्महत्या एक भौतिक / शारीरिक क्रिया है। समाधि संपूर्ण रूप से स्वैच्छिक है तो आत्महत्या के पीछे कोई न कोई विवशता या बाध्यता होती है । समाधि का प्रमुख लक्ष्य आत्म-कल्याण, मोक्ष प्राप्ति होता है तो आत्महत्या का मुख्य कारण तात्कालीन कष्टों से पीछा छुड़ाना या दुःखों से पलायनवादी होना है । समाधि में अवश्यंभावी मरण के समय में भोजनपानी का त्याग शक्ति के अनुसार स्वैच्छिक होता है तो आत्महत्या किसी भी विष, अस्त्र, शस्त्र, अग्नि, पानी, श्वासरोध, फांसी, यान- वाहन, उच्च स्थान से गिरना आदि से की जा सकती है। समाधि में मृत्यु एकदम नहीं होती है। इसकी प्रक्रिया १२ वर्ष तक शनै: शनै: होती है। यम समाधि को त्यागकर सामान्य जीवन भी जिया जाता है, जब मरण के कारण रूप रोग, विपत्ति, हिंसपशु आक्रमण, विषाक्त जीवों के द्वारा दंश, दूसरों के द्वारा विष पान आदि कारक दूर हो जाते हैं, परन्तु आत्महत्या / सतीदाह एकदम होता है। समाधि का भाव स्वयं के निर्मल परिणाम से उत्पन्न होता है, जबकि आत्महत्या का भाव एक आवेग, आवेश, विवशता, उत्तेजना, संक्लेश, पीड़ा आदि का परिणाम होता है। समाधि जीवन के अन्त में की जाती है जब सभी भोगों, वासना, इच्छा पूर्ति के कार्य करने के पश्चात् इनसे मुक्ति पाने का भाव उत्पन्न होता है ।
मेडिकल साइन्स के अनुसार भी जिनके प्राकृतिक रूप से मृत्यु का प्रॉसेज प्रारम्भ हो चुका है, जहाँ पर मृत्यु होना अवश्यंभावी है। यदि कोई व्यक्ति टर्मिनली इल है अर्थात् उसके जीवन का अन्त
अवश्यंभावी है। यदि ऐसे व्यक्ति की ब्रेन डेड हो चुकी हो तो उसके लाइफ सपोर्ट को हटाया जा सकता है। हॉलैण्ड विश्व का पहला देश है, जहाँ व्यक्ति को यह कानूनी अधिकार प्राप्त है कि वह इच्छा मृत्यु प्राप्त कर सकता है। आस्ट्रेलिया आदि कुछ देश में भी ऐसा कानून है। वैदिक धर्मानुसार श्रीराम ने भी जल समाधि ली थी। इसी प्रकार विवेकानन्द ने भी । राष्ट्रसंत विनोबा भावे ने तो जैन धर्म की विधि के अनुसार समाधि-मरण को वरण किया था । वैदिक धर्म ग्रन्थ मनुस्मृति में भी विस्तार से संन्यास एवं संन्यास मरण का जो वर्णन है उस की अधिकांश प्रक्रिया जैन समाधि-मरण प्रक्रिया से समानता रखती है । विस्तृत ज्ञान के लिए समाधि संबंधी मेरे अन्य लेख एवं साहित्य का अध्ययन करें। *
विश्वकल्याण के लिए वैदिक ऋषि दधिची ने स्वेच्छा से अन्न-जल त्याग करके शरीर त्याग किया था। जिनकी अस्थि से इन्द्र ने वज्र तैयार करके वृत्रासुर को मारा था । महात्मा बुद्ध ने भी अन्तिम में समाधिमरण पूर्वक परिनिर्वाण प्राप्त किया था। वैदिक, बौद्ध आदि धार्मिक परंपरा में यह प्राचीन आध्यात्मिक समाधि-मरण प्रक्रिया सर्व साधारण में बहु प्रचलित नहीं होने के कारण तथा विदेश में प्राय: यह प्रथा नहीं होने के कारण वर्तमान में भारत में भी इससे सर्व साधारण जन अनभिज्ञ हैं । परन्तु जैन धर्म में अति प्राचीन काल से लाखों-करोड़ों वर्षों से यह प्रथा है और अभी भी प्रचलित है । इस दृष्टि से यह प्रक्रिया जैन स्वीय विधि (पर्सनल लॉ) है और उनके अपने कस्टम ( रुढ़ि, परंपरा) है।
आत्महत्या एक इम्पलिसव प्रक्रिया है, जबकि समाधि मृत्यु- महोत्सव, वीर मरण है, जिससे समाज में ज्ञान, वैराग्य, त्याग, आध्यात्मिता, निस्पृहता, अनासक्त, आध्यात्मिक - शहीद का पाठ पढ़ाने वाले होने से लोक-हितकारी है । अतः समाधि-मरण सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल है न कि विरुद्ध है। क्योंकि इससे समाज को शिक्षा मिलती है, प्रेरणा महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/56
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिलती है न कि समाज में आतंक, अव्यवस्था, अंधविश्वास फैलता है।
जैनधर्म में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलता है कि किसी स्वस्थ, कम आयु वाले व्यक्ति ने विवशता या आवेश में आकर उपर्युक्त समाधि मरण के कारण बिना मरण किया हो। इतना ही नहीं, इसके दुष्प्रभाव से अन्य कोई धर्मावलम्बी ने भी कम आयु में स्वस्थ्य रहते हुए समाधि मरण किया हो - ऐसा भी नहीं है। जिस प्रकार कि सिनेमा, टी. वी. कार्यक्रम के अन्धानुकरण से अनेक बच्चों से लेकर बड़े तक भी हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, आत्महत्या, फैशन, व्यसन करते हैं। ऐसा कुछ भी दुष्प्रभाव समाधि मरण से न हुआ है, न हो रहा है, न होने की संभावना है । क्योंकि आध्यात्मिक प्रक्रिया सामान्य जन के लिए दुरुह, कष्ट साध्य, अनजान, अरुचिकर, अप्रिय, अनावश्यक / व्यर्थ कार्य है। उन्हें तो सत्ता, सम्पत्ति, भोग, राग-द्वेष, मोह, ईर्ष्या, लोभ, प्रसिद्धि, लड़ाई, झगड़ा, परनिन्दा, परअपकार, फैशन, व्यसन, दिखावा, शोषण, भ्रष्टाचार, खाओ पिओ मजा चाहिए।
-
अधिकांश व्यक्ति भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस, राणा प्रताप आदि के समान स्वार्थ त्यागी, बलिदानी नहीं बनना चाहते हैं, परन्तु टाटा, बिरला, नट-नटी, नेता-खलनेता आदि बनना चाहते हैं। क्या जो देशभक्ति, क्रान्तिकारी, त्यागवीरों ने देश हित के लिए कष्ट सहा, फाँसी पर चढ़े, स्वयं के ऊपर गोली चलाकर वीरगति को प्राप्त हुए, उन्हें कायरों के समान जघन्य अपराध स्वरूप आत्महत्या करने वाला कहा जायेगा ?
धर्म के नाम पर देवी-देवता, ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए या किसी प्रकार मान्यता अथवा संकट
है ।
* आचार्य श्री कनकनन्दीजी गुरुदेव द्वारा लिखित पुस्तक "अमृत तत्त्व की उपलब्धि हेतु समाधि मरण" वैज्ञानिक विवेचनायुक्त विशेषतः पठनीय है। इससे अध्यात्म की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती - प्रकाशक : धर्म दर्शन विज्ञान शोध संस्थान, बडौत (उ. प्र. )
1
सम्पादक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/57
दूर करने के लिए जो पशु-पक्षी, नर, स्वपरिजन से लेकर स्व बलि चढ़ाते हैं, वह भी सब हिंसा है, जघन्य अपराध है, मानव जाति के लिए कलंक है, पर्यावरण को पारस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुँचाने वाला है। इसी प्रकार मांस, चमड़ा, हड्डी, शारीरिक किसी भी अवयव के लिए, औषधि, प्रसाधन-सामग्री के लिए या धन कमाने के लिए जो पशु-पक्षी आदि की हत्या सामान्य व्यक्ति से लेकर सरकार कानून बनाकर करती है, करवाती है, लाइसेन्स देती है, मांस निर्यात करती है, वह सब हत्या है। प्राकृतिक न्याय के अनुसार घोर अवैधानिक अपराध है तथा पर्यावरण प्रदूषक एवं पारस्थितिकी तंत्र के हानिकारक होने से वैश्विक अपराध है। इसी प्रकार गर्भपात, दहेज हत्या, फिरोति के लिए अपहरण, शोषण, भ्रष्टाचार, अन्याय-अत्याचार, अव्यवस्था, चोरी, फैशनमिलावट, कर्तव्य चोरी, अनुशासन हीनता, व्यसन, अस्वच्छता, उत्श्रृंखलता, शीघ्र समय पर न्याय नहीं मिलना, धर्मान्धता, कट्टरता, आतंकवाद, राजनैतिक भ्रष्टाचार आदि अपराध है, समाज व राष्ट्र के लिए अहितकर है। अत: इन सब को जन-जागृति, लोकहित याचिका के द्वारा, शिक्षा, संस्कार, सदाचार, सरकार और कानून द्वारा रोकना चाहिए, परिशोधन करना चाहिए। इन सब के लिए समय, साधन, ज्ञान, विवेक, साहस, पुरुषार्थ नहीं लगाते हैं, परन्तु अनावश्यक कार्य में इन सब का दुरुपयोग करते हैं। आओ ! हम सब मिलकर पंथ-मत, जाति - राजनीति के भेद-भाव को त्यागकर आत्म विकास से लेकर विश्व विकास के लिए समग्रता से स्वेच्छा से सतत प्रयास करें।
-
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वधर्मरक्षा का प्रयत्न : सल्लेखना
प्रो. रतनचन्द्र जैन
हाल ही में राजस्थान में एक जैन साध्वी द्वारा सुनिश्चित हो जाय, तो नैतिकता और धर्म की रक्षा के मृत्यु के निकट आ जाने पर सल्लेखना विधि या संथारा लिए अर्थात् अपने को अनैतिकमार्ग और पाप मार्ग में विधि (पवित्र आचार-विचारपूर्वक मरने की विधि) प्रवृत्त होने से बचाने के लिए धर्मपूर्वक प्राणों का अपनाये जाने पर एक सज्जन ने सतीप्रथा से तुलना कर परित्याग करना सल्लेखना, समाधिमरण या संथारा उसे आत्महत्या का नाम दिया है और उस पर रोक कहलाता है। लगाने के लिए राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका सल्लेखना की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रस्तुत की है। यह जैनधर्म के सिद्धान्तों और सल्लेखना सल्लेखना में आत्महत्या नहीं की जाती, अपितु जब के अर्थ से अनभिज्ञ होने का कुपरिणाम है तथा एक किसी आततायी मनुष्य या सिंहादि हिंस्र पशु के द्वारा अहिंसा-अपरिग्रह-अनेकान्त प्रधान, लोक - मुनि या श्रावक का हत्या की जा रही हो अथवा कल्याणकारी, प्राचीनधर्म को छिन्न-भिन्न करने की भूकम्प, बाढ़, अग्नि, बुढ़ापे या भयंकर रोग से हत्या धर्मस्वातन्त्रय-विरोधी, अलोकतान्त्रिक साजिश है। हो रही हो और उससे बचने का नैतिक और धर्म-संगत यदि उक्त सज्जन ने जैनधर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया उपाय न हो, तब मृत्यु से बचाने में असमर्थ आहारहोता, तो वे सल्लेखना को आत्महत्या कहने की जल-औषधि आदि के परित्याग का व्रत लेकर अर्थात् गलती न करते, क्योंकि तब वे समझ जाते कि वह समस्त सांसारिक पदार्थों से राग छोड़कर धर्मपूर्वक आत्महत्या नहीं है, अपितु निकट आयी हुयी और न समभाव और क्षमाभाव से मृत्यु को स्वीकार कर लेने टाली जाने योग्य मृत्यु से घबरा कर प्राणरक्षा के लिए का नाम सल्लेखना है। और जब ऐसा होता है, तब धर्म से च्युत करने वाली पापक्रियाओं में न फंसने की न तो जीवन से मोह रहता है, न मृत्यु की चाह होती साधना है। ईसा की तीसरी सदी में हए जैनाचार्य है। जीवन मोह और मृत्यु की चाह होने को सल्लेखना समन्तभद्र ने सल्लेखना अर्थात समाधिमरण में दोष माना गया है। (शान्तिपूर्वक मरण) का लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार' इस नियम का उल्लेख ईसा की द्वितीय शताब्दी की निम्नलिखित कारिका में बतलायी है - में हुए आचार्य उमास्वामी ने जैन धर्म के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे।
'तत्त्वार्थसूत्र' के ७/३७ सूत्र में किया है - धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥५/१॥ “जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि ॥" अनुवाद - जब किसी भयंकर उपसर्ग (प्राकृतिक
अनुवाद - जीवित रहने की इच्छा, मरने की या मनुष्य-देव-तिर्यंच-जनित विपदा.), घोर अकाल इच्छा, मित्रों से अनुराग, पूर्वानुभूत सुखों का बार-बार अत्यन्त वृद्धावस्था और किसी असाध्य रोग के कारण स्मरण और सल्लेखना से स्वर्गादिफलों की चाह, ये प्राणों पर संकट आ जाय और उसे नैतिकमार्ग और पाँच सल्लेखना के अतिचार (उनमें दोष उत्पन्न करनेवाले धर्ममार्ग (अहिंसकमार्ग) से टाला न जा सके. मत्य कारण है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/58
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस आप्रवचन से सिद्ध है कि सल्लेखना में मुनि विविधपण्यदानादानसञ्चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः। था श्रावक मरने की चाह नहीं करता, बल्कि बाह्य कारणों तद्विनाशकारणे चकुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । से मृत्यु के अनिवार्य हो जाने पर उससे भय त्याग देता दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते। है और अपने अहिंसादि व्रतों की रक्षा करते हुए मृत्यु एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसञ्चये प्रवर्तमानः तदाका वरण करता है। इस प्रकार सल्लेखाना आत्महत्या श्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते नहीं है, अपितु बाह्य कारणों से मृत्यु के अनिवार्य हो स्वगुणाविरोधेन परिहरति । जाने पर अपने धर्म की रक्षा का प्रयत्न है।
दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं?
तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत्? आत्महत्या करने वाला क्रोध, शोक, विषाद,
____(सवार्थसिद्धि ७/२२)। भय, निराशा आदि के आवेग में मृत्यु के कारण स्वयं अनुवाद - शंका: चूंकि सल्लेखना में अपने जुटाता है, सल्लेखनामरण में मृत्यु के कारण बाहर से अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, आते है। आत्महत्या में मनुष्य स्वयं ही फाँसी लगाता इसलिए यह आत्मघात है। समाधान: ऐसा नहीं हैं, है, कुएं में कूदता है, आग में जलता है, जहर खाता है क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद (राग-द्वेष-मोह) का अभाव या अपने को गोली मार लेता है। लेकिन सल्लेखना- है। 'प्रमत्तयोग से (राग-द्वेष-मोह के कारण= क्रोधादि मरण दूसरों के द्वारा प्राणघातक उपसर्ग किये जाने पर, के आवेग में) प्राणों का घात करना हिंसा है' यह पहले प्राणघातक प्राकृतिक विपदा आने पर अथवा प्राणघातक (तत्त्वार्थसत्र/अध्याय ७ सूत्र १३ में) कहा जा चुका असाध्यरोग या अतिवृद्धावस्था हो जाने पर होता है। है। किन्तु सल्लेखनाव्रतधारी के प्रमाद नहीं होता, आरे इसमें भी विशेषता यह है कि सल्लेखनाव्रतधारी क्योंकि उसमें रागादि का अभाव होता है। जो मनुष्य मरते समय न तो क्रोध के आवेग में रहता है, न शोक
रागद्वेषमोह से आविष्ट होकर विष, शस्त्र आदि उपकरणों के, न भय के, न विषाद के और न निराशा के। वह परम ।
से अपना वध करता है, वह आत्मघाती होता है। शान्तभाव में स्थित रहता है।
सल्लेखना को प्राप्त मनुष्य में रागद्वेष मोह नहीं होते, सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं है ? इसका अतः वह आत्मघाती नहीं होता। कहा भी गया है - खुलासा पाँचवीं शताब्दी ई. के जैनाचार्य पूज्यपाद स्वामी _ "जिनेन्द्रदेव ने यह उपदेश दिया है कि ने निम्नलिखित शब्दों में किया है -
रागादिभावों की उत्पत्ति न होना अहिंसा है और उनका "स्यान्मतमात्मवधः प्राप्नोति, स्वाभिसन्धि- उत्पन्न होना हिंसा।" . पूर्वकायुरादिनिवृत्ते:? नैष दोषः,अप्रमत्तत्वात् । इसके अतिरिक्त मरना कोई मरना नहीं चाहता। 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम् । न चास्य जैसे कोई व्यापारी अपने घर में अनके प्रकार की विक्रेय प्रमादयोगोऽस्ति। कुतः? रागाद्यभावात्। रागद्वेषमोहा- वस्तुओं का संग्रह और देनलेन करता है, उसे अपने विष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मान ध्नतः घर का विनाश इष्ट नहीं होता। फिर भी यदि कहीं से स्वघातो भवति। न सल्लेखना प्रतिपन्नस्य रागादयः उसके विनाश का कारण उपस्थित हो जाय, तो वह सन्ति ततो नात्मवधदोषः। उक्तं च -"
यथाशक्ति उसे टालने का प्रयत्न करता है। किन्तु यदि रागदीणमणुप्पा अहिंसगत्तं ति देसि समये। टालना संभव न हो, तो घर में रखी विक्रय सामग्री को तेसिं च उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिद्दिट्टा ॥ नष्ट होने से बचाने की कोशिश करता है, इसी प्रकार किं च मरणास्यानिष्ट त्वाद्यथा वणिजो गृहस्थ भी अपने शरीररूपी घर में व्रत-शीलरूप सामग्री
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/59
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
का संचय करता है, अत: वह उस सामग्री के आश्रयभूत आत्मरक्षा कर सकते थे। किन्तु इनके द्वारा मौत को शरीर का विनाश नहीं होने देना चाहता। फिर भी यदि गले लगाये जाने के कदम को संसार के किसी भी व्यक्ति उसके विनाश का कारण उपस्थित हो जाता है। तो वह ने आत्महत्या नहीं कहा, सभी ने बलिदान कहा है। अपने व्रतशीलादि गुणों को आघात न पहुंचाते हुए इसी प्रकार देशद्रोह के लिए तैयार न होने वाले किसी विनाश के कारण का परिहार करता है। किन्तु सैनिक या नागरिक को देश के शत्रु मार डालते हैं, शरीरविनाश के कारण का परिहार संभव न होने पर ऐसा अपने शीलभंग का विरोध करने वाली किसी स्त्री का प्रयत्न करता है, जिससे अपने गुणों का विनाश न हो। दुष्ट लोग गला घोंट देते हैं, किसी मनुष्य या पशु की ऐसा करना आत्मवध कैसे हो सकता है?" हत्या कर दी जाती है, अपना धर्म छोड़ने या बदलने
(स.सि. ७/२२) के लिए तैयार न होनेवाले को मौत के घाट उतार दिया
जाता है, तो स्वधर्म की रक्षा के लिए इन लोगों का इस आर्षवचन से स्पष्ट है कि सल्लेखना में न
मृत्यु को वरण कर लेना क्या आत्महत्या कहा जा तो मरने की इच्छा की जाती है, न मरने का प्रयत्न,
सकता है ? इसी प्रकार किसी अहिंसा-व्रतधारी मनुष्य अपितु जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, रोग, बुढ़ापा आदि बाह्य
को ऐसा रोग हो जाये, जो किसी प्राणी के अंगों से बनी कारण मुनि या श्रावक को मृत्यु के मुख में घसीट कर
दवा से ही दूर हो सकता हो, किन्तु वह अपने धर्म की ले जाने लगते हैं, तब शरीर को न बचा पाने की स्थिति
रक्षा के लिए उस मांसमय औषधि का सेवन न करे और में वह अपने व्रत-शील-संयम आदि धर्म की रक्षा का
रोग से उसकी मृत्यु हो जाय, तो क्या उसे आत्महत्या प्रयत्न करता है । इस प्रकार सल्लेखना में मनुष्य के पास
कहा जायेगा ? अथवा किसी शाकाहार-व्रतधारी मनुष्य करने के कारणों को स्वयं जुटाने का अवसर ही नहीं
को कोई डाकू या आतंकवादी पकड़ कर ले जाय और रहता , क्योंकि वे बाहर से ही अपने आप जुट जाते
उसे मांस-मद्य और नशीली दवाओं के सेवन पर मजबूर हैं। अपने-आप उपस्थित मृत्यु के कारणों को जब
करे, अन्यथा मार डालने की धमकी दे, तो उसका टालना असंभव हो जाता है, तभी तो सल्लेखनाव्रत
मांसादि का सेवन न कर डाकू या आतंकवादी के हाथों ग्रहण किया जाता है, अतः इसे आत्महत्या कहने कि
मर जाना क्या आत्मघात की परिभाषा में आयेगा ? लिए तो कोई कारण ही नहीं है।
अथवा कभी भयंकर अकाल पड़ने से भक्ष्य पदार्थों का धर्म और न्याय की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण
अभाव हो जाये तथा मनुष्य ऐसे पदार्थों का भक्षण न बलिदान है, आत्महत्या नहीं
करे, जिससे उसका धर्म नष्ट होता हो या शरीर के अपंग ___यदि कहा जाय कि मृत्यु का कारण उपस्थित होने का डर हो, तब यदि वह भूख से मर जाता है, होने पर जान की रक्षा जैसे भी बने वैसे की जाय, तो क्या उसे आत्महत्या कहेंगे? दुनिया में ऐसी कोई अन्यथा जो मृत्यु होगी, वह आत्महत्या कहलायेगी, भी डिक्शनरी नहीं है, जिसमें इन्हें आत्महत्या कहा तो देश की आजादी के लिए अंग्रेजों की तोपों और गया हो, सर्वत्र इन्हें बलिदान शब्द से ही परिभाषित बन्दूकों के सामने खड़े होकर अपनी जान दे देने वाले किया गया है। शहीदों की मौत आत्महत्या कहलायेगी, बलिदान नहीं।
संसार के किसी भी धर्म या कानून में मौत से
पीसी सरदार भगतसिंह का फाँसी पर चढ़ जाना और चन्द्रशेखर डरकर प्राण बचाने के लिए देश की आजादी की लड़ाई आजाद का अंग्रेजों की पकड़ से बचने के लिए अपने से विमख हो जाने को. देशद्रोही के लिए तैयार हो जाने को गोली मार लेना भी आत्मघात की परिभाषा में को. किसी स्त्री का अपना शीलभंग स्वीकार कर लेने आयेगा, क्योंकि ये अंग्रेजों के सामने घुटने टेककर को अथवा अहिंसा-व्रतधारी या शाकाहार-धर्मावलम्बी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/60
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
के मांसाहारी हो जाने को जायज नहीं ठहराया जा लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, भले ही इससे उसके सकता, अपितु देशरक्षा और धर्मरक्षा के लिए देश के प्राण चले जायें। यदि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में किसी शत्रुओं, बलात्कारियों, डाकुओं, आतंकवादी, अकाल नागरिक स्वधर्म-विरुद्ध आहार-औषधि ग्रहण करने के या रोग के हाथों मारे जाने को ही उचित ठहराया जा लिए अथवा स्वधर्म-विरुद्ध जीवनपद्धति अपनाने के सकता है। इसलिए धर्म और कानून की नजरों में भी लिए बाध्य किया जाता है, तो न तो वह लोकतंत्र ऐसी मृत्यु बलिदान की ही परिभाषा में आ सकती है, कहला सकता है, न धर्मनिरपेक्ष । अतः बाह्य कारणों आत्महत्या की परिभाषा में नहीं। सुप्रसिद्ध भारतीय से प्राणसंकट उपस्थित हो जाने पर स्वधर्म-विरुद्ध मनीषि भर्तृहरि ने कहा है -
आहार-औषधि एवं स्वधर्म-विरुद्ध जीवनपद्धति को निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तवन्तु,
स्वीकार न करते हुए अहिंसाधर्म एवं न्यायमार्ग की रक्षा लक्ष्मीः समाविशतु गच्छति वा यथेष्टम्। के लिए, उपस्थित हुए प्राण संकट को स्वीकार कर लेने अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
का अधिकार अर्थात् सल्लेखना का अधिकार मनुष्य न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।। को अपने धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक राज्य के संविधान ___ अर्थात् अपने को नीतिनिपुण समझने वाले
से प्राप्त है। हमारे न्यायसंगत आचरण की निन्दा करें अथवा प्रशंसा, प्रसन्नता होने पर ही सल्लेखना संभव - उससे हमें आर्थिक लाभ हो या हानि अथवा हम तुरन्त जैसा कि पूर्व में कहा गया है, मृत्यु का कारण मरण को प्राप्त हो जायें या सैकड़ों वर्षों तक जियें, उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध न्यायशील पुरुष न्यायमार्ग का परित्याग नहीं करते। होकर धर्मविरुद्ध एवं अनैतिक उपायों से प्राणरक्षा का
इस सूक्ति में भर्तृहरि ने धर्म और न्याय की रक्षा प्रयत्न न करना सल्लेखना है। यह कार्य ज्ञानी और धर्म के लिए अपने प्राणों का परित्याग कर देने को उत्कष्ट में आस्थावान् मनुष्य ही कर सकता है, क्योंकि उसे ही और अनुकरणीय आचरण कहा है, आत्महत्या नहीं। सल्लेखना-ग्रहण में प्रसन्नता हो सकती है। प्रसन्नता के जैसे गरीबों के कारण भुखमरी से अर्थात् भोजन
अभाव में सल्लेखना बलपूर्वक ग्रहण नहीं करायी जा न मिलने से होने वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं कहला
सकती। प्रसन्नता होने पर मनुष्य स्वयं ही ग्रहण करता सकती, वैसे ही आततायियों द्वारा किए जानेवाले उपसर्ग
है। इसका स्पष्टीकरण पूज्यपाद स्वामी ने निम्नलिखित से अथवा अकाल पड़ने से अथवा अन्य किसी परिस्थिति
शब्दों में किया है - 'यस्मादसत्यां प्रीतौ बलान्न से मुनि को शुद्ध भोजन न मिले, तो भोजन के अभाव
सल्लेखना कार्यते । सत्यां हि प्रीतौ स्वयमेव करोति।' में होनेवाली उनकी मृत्यु को आत्महत्या नहीं कहा जा
(सर्वार्थसिद्धि ७/२२)। सकता।
हिन्दूधर्म में संन्यासमरण : सल्लेखनामरण जैसे राजनीतिक स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध
. जैन धर्म में विहित सल्लेखनामरण के समान या मौलिक अधिकार है, वैसे ही स्वधर्मरक्षा की स्वतंत्रता हिन्दूधर्म में भी सन्यासमरण का विधान किया गया है। भी मनुष्य का मौलिक अधिकार है। अत: सल्लेखना संन्यासमरण के प्रकरण में 'संन्यास' का अर्थ अनशन धर्म रक्षा का प्रयास होने के कारण जैनधर्मावलम्बियों अर्थात् आहार-त्याग है। यथा - 'संन्यासवत्यनशने का मौलिक अधिकार है। जैसे किसी मांसाहारी को पुमान् प्रायः' इत्यमरः (भट्टिकाव्य टीका ७/७३ पं. कानून के द्वारा शाकाहार के लिए मजबर नहीं किया शेषराज शर्मा शास्त्री/चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस जा सकता, वैसे ही किसी शाकाहारी को मांसाहार के वाराणसी/१९९८ ई.)। और 'प्राय' का अर्थ है
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/61
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनशन, मरण, तुल्य और बाहुल्य - ' प्रायश्चानशने मृत्यौ तुल्यबाहुल्ययोरपि' । इति विश्वः । 'संन्यास' (आहारत्याग) को 'प्रायोपवेशिका' भी कहा गया है।
यथा -
उवाच मारुतिर्वृद्धे संन्यासिन्यत्र वानरान् । अहं पर्यायसम्प्राप्तां कुर्वे प्रायोपवेशिकाम् ॥७ / ७६॥ भट्टिकाव्य । अनुवाद – हनुमानजी ने वानरों से कहा- 'वृद्ध जाम्बवान् के संन्यासी हो जाने पर ( अनशन आरंभ कर देने पर ) मैं भी इस पर्वत पर क्रमप्राप्त प्रायोपवेशिका ( अनशन) आरंभ करता हूँ ।
'संन्यासिनि - अनशनवति, 'प्रायोवशिकाम्अनशनम्' (पं. शेषराज शर्मा शास्त्रीकृत टीका / भट्टि काव्य ७ / ७६)
यह अनशन (आहार त्याग) मरण के लिए किया जाता है और जिसका इस तरह मरण होता है, उसका दाहसंस्कार नहीं किया जाता ' अत्र प्रायोपवेशतो मरणे दाहसंस्काराऽभावादिति भावः' (पं. शेषराज शर्मा शास्त्रीकृत टीका/भट्टिकाव्य ७/७८) ।
अनशन द्वारा मरण को 'प्रायोपासना' शब्द से भी अभिहित किया गया है 'प्रायोपासनयामरणानशनाऽनुष्ठानेन ।' ( वही / भट्टिकाव्य ७/७३)
हिन्दू पुराणों में आहारत्याग द्वारा किये जाने वाले मरण के लिए 'संन्यासमरण' के अतिरिक्त 'प्राय', प्रायोपवेश, प्रायोपवेशन, प्रायोपवेशिका, प्रायोपवेशनिका, प्रायोपगमन, एवं प्रायोपेत शब्द भी प्रयुक्त हैं। (देखिए, वामन शिवराम आप्टे, संस्कृतहिन्दी कोश,‘प्राय’)। सर एम. मोनिअर विलिअम्स ने संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी में इन शब्दों के अर्थ का प्रतिपादन इस प्रकार किया है
संन्यास - abstinence from food, giving up the body.
संन्यासिन् abstaining from food
[Bhatt]
-
-
प्राय (पुं.) - departure from life, seeking death by fasting [as a religious or penitentiary act, or to enforce compliance with a demand.]
आमरण अनशन, किसी इष्टसिद्धि के लिए खाना-पीना छोड़कर धरना देना (आप्टेकोश ) ।
प्रायोपगमन
going to meet death, seeking death [by abstaing from food.]
प्रायोपवेशन - abstaining from food and awaiting in a sitting posture the approach of death.
सल्लेखना के लिए 'संन्यासमरण' और 'प्रायोपगमन' शब्दों का प्रयोग जैनशास्त्रों में भी किया गया है । यथा 'अथ संन्यासक्रिया - प्रयोगविधिं श्लोकद्वयेनाह' – आगे संन्यासपूर्वक मरण की विधि दो श्लोकों में कहते हैं । (अनगारधर्मामृत ९/६१६२ / उत्थानिका / पृ. ६७३ / हिन्दी अनुवाद : सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ) । पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ॥ २८ ॥ भगवती आराधना
अनुवाद प्रायोपगमन - मरण, भक्तप्रतिज्ञामरण और इंगिनी - मरण ये तीन पण्डित-मरण हैं। ये शास्त्रोक्त आचरण करने वाले साधु के होते हैं।
-
'प्राय अर्थात् संन्यास की तरह उपवास के द्वारा जो समाधिमरण होता है, उसे प्रायोपगमन समाधिमरण कहते हैं।' (षट्खण्डागम धवलटीका/विशेषार्थ/पुस्तक १/१, १, १/पृ. २४/१९९२ई./सोलापुर)। उपनिषदों में कहा गया है कि परिव्राजक एवं परमहंस परिव्राजक साधु 'संन्यास' ( अनशन) से ही देहत्याग करते हैं -
१. 'तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मण: परिव्रज्य.. संन्यासेनैव देहत्यागं करोति ।' (नारदपरिव्राजकोपनिषद् / तृतीयोपदेश / ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषदः / पृ. २६८ ) ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/62
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. . परमहंसाचरणेन संन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषद् ।'
(भिक्षुकोपनिषद् / ईशाद्यष्टोत्तर/पृ. ३६८)
३. ... कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा परमहंसो वा ... संन्यासेनैव देहत्यागं करोति स परमहंसपरिव्राजको भवति । ' (परमहंसपरिव्राजकोपनिषद् / ईशाद्यष्टोत्तर/पृ. ४१९) ।
संन्यासमरण को 'योगमरण' शब्द से भी अभिहित किया गया है और बतलाया गया है किं रघुकुल के राजा जीवन के अन्त में योग से शरीर का परित्याग करते थे
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥ १/८ ॥
चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:' (पातञ्जलयोगदर्शन/समाधिपाद / सूत्र २) | इसके लिए प्रत्याहार आवश्यक होता है, जिसमें इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से निवृत्त होकर चित्ताकार सदृश हो जाती हैं - 'स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ' ( वही / साधनपाद/सूत्र ५४)। इससे योग में आहारादि का त्याग अपने-आप हो जाता है।
हिन्दू पुराणों में दो प्रकार के नर-नारियों को स्वर्ग या मोक्षफल पाने की इच्छा से अग्निप्रवेश, जलप्रवेश अथवा अनशन द्वारा देहत्याग का अधिकारी बतलाया गया है.
-
समासक्तो भवेद्यस्तु पातकैर्महादिभिः ।
दुश्चिकित्स्यैर्महारोगैः पीडितो वा भवेत्तु यः ॥ स्वयं देहविनाशस्य काले प्राप्ते महामतिः । आब्रह्माणं वा स्वर्गादिफलजिगीषया ।
प्रविशेज्ज्वलनं दीप्तं कुर्यादनशनं तथा ॥ ऐतेषामधिकारोऽस्ति नान्येषां सर्वजन्तुषु ।
नराणामथ नारीणां सर्ववर्णेषु सर्वदा ॥ (रघुवंश महाकाव्य ८ / ९४/मल्लिनाथ सूरिकृत संजीविनी टीका में उद्धृत )
अनुवाद जो महापापों से लिप्त हो अथवा असाध्य महारोगों से पीड़ित हो, ऐसा महामति देह विनाशकाल के स्वयं प्राप्त हो जाने पर स्वर्ग या मोक्षफल पाने की इच्छा से जलती हुई अग्नि में प्रवेश करे अथवा अनशन करे । समस्त प्राणियों में ऐसे ही नर-नारियों को, चाहे वे किसी भी वर्ण के हों, इन उपायों से मरण का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं ।
इस विधान का अनुसरण करते हुए श्रीराम के पितामह महाराज अज ने देहविनाश का काल आ जाने पर अपने रोगोपसृष्ट शरीर का गंगा और सरयू के संगम में परित्याग कर दिया और तत्काल स्वर्ग में जाकर देव हो गये । इसका वर्णन महाकवि कालिदास ने 'रघुवंशम्' महाकाव्य के निम्नलिखित पद्यों में किया है - सम्यग्विनीतमथ वर्महरं कुमारमादिश्य
रक्षणविधौ विधिवत्प्रजानाम् । रोगोपसृष्टतनुदुर्वसतिं मुमुक्षुः
प्रायोपवेशनमतिर्बभूव ॥८/१४ ॥ तीर्थे तोयव्यतिकरभवे जह्रुकन्यासरय्वो
देहत्यागादमरगणनालेख्यमासाद्यसद्यः । पूर्वाकराधिकतररुचा सङ्गतः कान्तयासौ लीलागारेष्वरमत पुनर्नन्दनाभ्यन्तरेषु ।।८/९५ ।। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि सल्लेखनामरण या संन्यासमरण का विधान जैनधर्म के समान हिन्दूधर्म में भी है। यद्यपि जैनधर्म में मरण का कारण उपस्थित होने पर जलप्रवेशादि द्वारा देहत्याग का विधान नहीं है, मात्र आहार - औषधि के त्याग द्वारा धर्मरक्षा करते हुए देहत्याग की आज्ञा है, तथापि हिन्दूधर्म में अनशनपूर्वक भी देह विसर्जन का विधान है । अतः सल्लेखनामरण या संन्यासमरण भारत के बहुसंख्यक नागरिकों द्वारा स्वीकृत धार्मिक परंपरा है। वर्तमान युग के महान स्वतंत्रतासंग्राम एवं धार्मिक नेता आचार्य बिनोवा भावे ने मृत्युकाल में आहार - औषधि का परित्याग कर संन्यासमरण - विधि द्वारा देह विसर्जन किया था ।
महात्मा गाँधी देश की स्वतंत्रता, हिन्दू-मुस्लिम
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/63
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकता, दलितों के साथ समान व्यवहार आदि के उद्देश्य से कई बार आमरण अनशन पर बैठे। कुछ दिन पूर्व सुश्री मेधा पाटकर ने भी गुजरात के सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई कम कराने एवं विस्थापितों को उचित मुआवजा दिलाने के लिए आमरण अनशन प्रारम्भ किया था । यद्यपि राजनीतिक कारणों से इन राजनेताओं
प्राण बचाने के लिए सरकार शीघ्र समझौता कर लेती है, यदि समझौता न करे, तो मृत्यु अवश्यंभावी है। इस तरह सल्लेखना का एक नया संस्करण राजनीति एवं लोकनीति में भी प्रविष्ट हो गया है।
Dr. T. G. Kalghatgi लिखते हैं- "In the present political life of our country, fasting unto death for specific ends has been very comman" [ jain view of life / Jain Samskrti Samraksaka Sangha Sholapur, 1984 A.D./ P.185.]
सती प्रथा से तुलनीय नहीं -
संन्यासमरण या संल्लेखनामरण की सतीमरण से तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि सती होने वाली स्त्री
१. अपनी मृत्यु का अपरिहार्य कारण उपस्थित न होने पर भी अपना प्राणान्त कर लेती है।
२. उसके सामने धर्ममय जीवनपद्धति के विनष्ट होने का संकट नहीं होता ।
३. उसका मन राग-द्वेष से मुक्त न होकर मृत पति के प्रति तीव्र राग से और विधवा जीवन के कष्टों के प्रति भीरुताजन्य द्वेष से ग्रस्त होता है ।
४. सतीमरण से न मरने वाली स्त्री को कोई धार्मिक लाभ होता है, न उसके मृत पति को । संस्कृत के सुप्रसिद्ध गद्यकवि बाणभट्ट स्वरचित 'कादम्बरी' नामक उपन्यास में सतीमरण को अत्यन्त अज्ञानतापूर्ण एवं अहितकर कृत्य बतलाते हुए लिखते हैं.
'यदेतदनुमरणं नाम तदतिनिष्फलम्, अविद्वज्जनाचरित एष मार्ग: । ... अत्र हि विचार्यमाणे स्वार्थं एव प्राणपरित्यागोऽयम् असह्यशोकवेदना
प्रतीकारत्वादात्मनः । उपरतस्य तु न कमपि गुणमावहति ।
असावप्यात्मघाती केवलमेनसा संयुज्यते । ' ( कादम्बरी / महाश्वेतावृतान्त / पृ. १११-११२/ चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी) ।
अनुवाद - यह जो अनुमरण (सतीमरण) है, वह अत्यन्त निष्फल है। यह अज्ञानियों के द्वारा अपनाया जानेवाला मार्ग है। विचार करके देखा जाये, तो यह प्राणपरित्याग स्वार्थ ही है । क्योंकि यह असह्यवेदना से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है। जिसके लिए प्राण त्यागे जाते हैं, उसका इससे कोई लाभ नहीं होता ।
और आत्मघात करनेवाला भी केवल पाप से लिप्त होता है।
किन्तु संन्यासमरण सा सल्लेखना न तो मृत्यु के अपरिहार्य कारण के अभाव में किया जाता है, न धर्ममय जीवन पद्धति का विनाश करनेवाले कारण के अभाव में, न ही जीवन के असह्य कष्टों से भीरुता के कारण। तथा सल्लेखनामरण से पापमय, अनैतिक जीवनपद्धति को ठुकराने और पापकर्मों के बन्धन से बचने का लाभ होता है। इस प्रकार सल्लेखनामरण और सतीमरण में परस्पर अत्यन्त वैषम्य है। अतः सल्लेखनामरण को सतीमरण के समान आत्मघात नहीं कहा जा सकता ।
वास्तविक हत्याओं और आत्महत्याओं पर ध्यान दिया जाय
जैन धर्म का सल्लेखनाव्रत, जो आत्महत्या नहीं है, उसे आत्महत्या नाम देकर न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कराने का प्रयत्न करनेवाले महाशय से मेरा अनुरोध है कि वे एक अनावश्यक, धर्म विरोधी, लोकहित विरोधी, धर्म निरपेक्षता विरोधी एवं लोकतंत्र विरोधी कृत्य में अपनी शक्ति का अपव्यय करने के बजाय प्रतिदिन हजारों की संख्या में हो रही कानूनसम्मत वास्तविक हत्याओं और आत्महत्याओं को अवैध घोषित कराने का अत्यावश्यक पुण्य कार्य सम्पन्न करें।
सन् १९७१ तक भारत में गर्भपात करना व
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/64
...
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
कराना कानूनन अपराध माना जाता था, किन्तु वर्ष मद्यपान को प्रतिबन्धित कराने के लिए गाँधीजी ने १९७१ में भारत सरकार ने The medical Termi- आंदोलन किया था और उनकी इच्छा का आदर करते nation of Pregnancy Act, 1971 बनाकर परिवार- हुए सरकार ने उस पर प्रतिबन्ध लगाया भी था, उसे नियोजन के लिए अपनाये गये गर्भनिरोधक साधनों के ही उसने राजस्व के लोभ में आकर बाद में हटा दिया विफल रहने पर गर्भपात कराने को कानूनी मान्यता और संपूर्ण देशवासियों को मद्यपान की खुली छूट देकर प्रदान कर दी, जिससे प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में धीमी आत्महत्या की अनुमति दे दी। आये दिन सुनने भ्रूणहत्याएँ की जाने लगीं। संपूर्ण भारत में लगभग ५१ में आता है कि जहरीली शराब पीकर सैकड़ों लोग मर लाख ४७ हजार गर्भपात प्रतिवर्ष हो रहे हैं और इस गये। संख्या में प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है। (देखिए, श्री गोपीनाथ धूमपान भी प्राणघातक है। यह कैंसर का प्रमुख अग्रवाल द्वारा लिखित लघुपुस्तिका गर्भपात : उचित
कारण है। सिगरेट के पैकिटों पर ऐसा सरकार लिखवाती या अनुचित : फैसला आपका/पृ. १७-१८/प्रकाशक भी है। इस पर भी प्रतिबन्ध न लगाकर सरकार ने - प्राच्य श्रमण भारती, १२/ए, प्रेमपुरी, निकट जैन देशवासियों को आत्महत्या की कानुनी मान्यता दे दी। मंदिर, मुजफ्फरनगर २५१००१/ई. सन् १९९८)। यह सरकार द्वारा करायी जानेवाली और मद्यपान तथा
सल्लेखना से तो वर्षभर में दो-चार ही मृत्युएँ धूमपान करने वालों के द्वारा की जानेवाली आत्महत्या होती हैं, किन्तु गर्भपात से प्रतिवर्ष ६०-७० लाख है। इसी तरह शासन व्यवस्था में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार भ्रूणहत्याएँ हो रही हैं। सल्लेखनाधारी को तो मृत्यु से एवं गलत नीतियों के कारण आज तक लोग गरीबी से बचाया ही नहीं जा सकता, क्योंकि सल्लेखना तब छुटकारा नहीं पा सके हैं और हर वर्ष सैकड़ों लोग ग्रहण की जाती है, जब उपसर्ग, रोग आदि के रूप में भुखमरी, कुपोषण, ठंड और लू से पीड़ित होकर मर उपस्थित हुआ मृत्यु का कारण अपरिहार्य हो जाता है। जाते हैं । यह तो सीधी हत्या है, आत्महत्या नहीं। और अत: जिसे मरने से बचाया ही नहीं जा सकता, उसे अब तो विदेशी आतंकवादियों के द्वारा देश में घुसकर बचाने की निरर्थक कोशिश करने की बजाय, जिन जगह-जगह बम विस्फोट कर एक साथ हजारों नागरिकों मानव-शिशुओं का जीवन अभी विकसित ही हो रहा को मौत के घाट उतारा जा रहा है। यह हत्या है या है, जिनकी स्वाभाविक मृत्यु अभी वर्षों दूर है, उनकी आत्महत्या ? यदि यह हत्या है, तो इसका जिम्मेदार कानून की सहमति से गर्भ में ही करायी जा रही हत्या कौन है ? विदेशी आतंकवादी या टाडा जैसे कानून को को रोकना सर्वप्रथम आवश्यक है। सल्लेखना को रद्द कर देनेवालों की सरकार ? देश के नागरिकों की अवैध घोषित कराने के लिए प्रयत्नशील बन्धु पहले जान-माल की रक्षा का जिम्मेदार कौन है ? विशाल स्तर पर होनेवाली इस जघन्य मानवहत्या को जो सल्लेखना आत्महत्या नहीं है, उसे आत्मअवैध कराने के लिए कदम उठायें। क्या यह मानववध हत्या का नाम देकर झठी आत्महत्या को रोकने की उनके मानवतावादी हृदय को तनिक भी उद्वेलित नहीं कवायद झठा मानवतावाद है। जिन मित्र ने सल्लेखना करता ? मृत्यु के कगार पर पहुँचे हुओं की मौत को को आत्महत्या कहकर उसे अवैध घोषित कराने के रोकने का असंभव कार्य करने के इच्छुक मित्र जीवन लिए राजस्थान उच्च न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की की ओर कदम बढ़ाते गर्भस्थ मानवों के नृशंस वध को है, उनसे प्रार्थना है कि वे यदि सच्चे मानवतावादी हैं, रोकने का साहस दिखाएँ।
तो सर्वप्रथम उपर्युक्त वास्तविक हत्याओं और इसी प्रकार शरीर के नाजुक अंगों को सड़ा- आत्महत्याओं को अवैध कराने का प्रयत्न करें। । गलाकर मनुष्य को मौत का ग्रास बना देनेवाले जिस - ए/२, मानसरोवर, शाहपुरा, भोपाल
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/65
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०3333336653 284280062888888888888
3693583805388
समाधिमरण : तुलना एवं समीक्षा
0 प्रो. डॉ. सागरमल जैन
जैन परम्परा के सामान्य आचार नियमों में अवसरों पर जो संथारा, ग्रहण किया जाता है, वह सल्लेखना या संथारा (मृत्युवरण) एक महत्वपूर्ण तथ्य सागारी संथारा कहलाता है। यदि व्यक्ति उस विपत्ति है। जैन गृहस्थ-उपासकों एवं श्रमण-साधकों, दोनों के या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर हो जाता है तो वह पुनः लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का विधान जैन आगमों देह-रक्षण के सामान्य क्रम को चालू रख सकता है। में उपलब्ध है। जैन आगम साहित्य ऐसे साधकों की संक्षेप में अकस्मात् मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाने जीवन गाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने समाधिमरण पर, जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी का व्रत ग्रहण किया था।
संथारा मृत्यु-पर्यन्त के लिए नहीं, वरन् परिस्थितिसाधकों के प्रति महावीर का संदेश यही था विशेष के लिए होता है। अत: उस परिस्थिति-विशेष कि मत्य के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादा भी समाप्त होकर उसे आलिंगन दे दो। इसी अनासक्त मत्यु की हो जाती है। कला को महावीर ने सल्लेखनाव्रत कहा है। आचार्य
सामान्य संथारा -जब स्वाभावि समन्तभद्र सल्लेखना की परिभाषा कहते हुए लिखते अथवा असाध्य रोग के कारण पुन: स्वस्थ होकर जीवित हैं कि आपत्तियों, अकालों, अति-वृद्धावस्था एवं रहने की समस्त आशाएँ धूमिल हो गयी हों, तब असाध्य रोगों में शरीर त्याग करने को सल्लेखना कहते यावज्जीवन जो देहासक्ति एवं शरीर-पोषण के प्रयत्नों हैं', अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु अनिवार्य सी हो का त्याग किया जाता है और जो देहपात पर ही पूर्ण गई हो उन परिस्थितियों में मृत्यु के भय से निर्भय होता है वह सामान्य संथारा है। सामान्य संथारा ग्रहण होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करने के लिए जैन आगमों में निम्न स्थितियाँ आवश्यक करना ही सल्लेखनाव्रत है।
मानी गयी हैं - समाधिमरण के भेद आगम - जैन आगम जब शरीर की सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्यों ग्रंथों में मृत्युवरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार के संपादन करने में अयोग्य हो गयी हों, तब शरीर का पर समाधिमरण के दो प्रकार माने गये हैं -१. सागारी माँस एवं शोणित सूख जाने पर शरीर अस्थिपंजर मात्र संथारा और २. सामान्य संथारा।
रह गया हो.पचन-पाचन.आहार-निहार आदि शरीरिक सागारी संथारा - जब अकस्मात कोई ऐसी क्रियाएँ शिथिल हो गयी हों और इनके कारण साधना विपत्ति उपस्थित हो, जिसमें से जीवित बच निकलना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना संभव संभव प्रतीत न हो, जैसे आग में गिर जाना, जल में नहीं हो, इस प्रकार मृत्यु का जीवन की देहली पर डूबने जैसी स्थिति हो जाना अथवा हिंसक पश या उपस्थित हो जाने पर सामान्य संथारा ग्रहण किया जा किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फंस जाना. जहाँ सकता है। सदाचार से पतित होने की संभावना हो, ऐसे संकटपूर्ण बौद्ध परम्परा में मृत्युवरण – यद्यपि बुद्ध ने
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/66
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन परंपरा के समान ही धार्मिक आत्म-हत्याओं को (२५/६२-६४), वनपर्व (८५/८३) एवं मत्स्यपुराण अनुचित माना है, तथापि बौद्ध साहित्य में कुछ ऐसे (१८६/३४/३५) में अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, संदर्भ अवश्य हैं, जो स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन गिरिपतन, विषप्रयोग या उपवास आदि के द्वारा देहत्याग करते हैं। संयुक्त निकाय में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु करने पर ब्रह्मलोक या मुक्ति प्राप्त होती है, ऐसा माना वक्कलि कुलपुत्र, भिखु छन्न', द्वारा की गई आत्म- गया है। हत्याओं का समर्थन स्वयं बुद्ध ने किया था और उन्हे अपरार्क ने प्राचीन आचार्यों के मत को उद्धृत निर्दोष कह कर दोनों ही भिक्षुओं को परिनिर्वाण प्राप्त करते हए लिखा है कि यदि कोई गहस्थ असाध्य रोग करनेवाला बताया था । जापानी बौद्धों में तो आज भी
से पीड़ित हो, जिसने अपने कर्तव्य पूरे कर लिए हों, हरीकरी की प्रथा मृत्युवरण की सूचक है।
वह महाप्रस्थान हेतु अग्नि या जल में प्रवेश कर अथवा फिर भी जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा में पर्वत-शिखर से गिरकर अपने प्राणों की आहुति दे मृत्युवरण के प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर भी है। प्रथम सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। तो यह कि जैन परंपरा के विपरीत बौद्ध परंपरा में उसकी मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित शस्त्रवध से तत्काल ही मृत्युवरण कर लिया जाता है। कर्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीवन जीने की जैन आचार्यों ने शस्त्रवध के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण इच्छा रखना व्यर्थ है। श्रीमद्भागवत के ११वें स्कन्ध का विरोध इसलिए किया था कि उन्हें उसमें मरणाकांछा के १८वें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का नहीं है, तो फिर मरण के लिए उतनी आतुरता क्यों ? समर्थन न केवल शास्त्रीय आधारों पर हुआ है, वरन् इस प्रकार जहाँ बौद्ध परंपरा शस्त्रवध के द्वारा की गई व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक उदाहरण भी परंपरा आत्महत्या का समर्थन करती हैं, वहीं जैन परंपरा उसे में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालयअस्वीकार करती है। इस संदर्भ में बौद्ध परंपरा वैदिक यात्रा में किया गया देहपात मृत्युवरण का एक प्रमुख परंपरा के अधिक निकट है।
उदाहरण है। डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि वैदिक परंपरा में मृत्युवरण -
रामाणय एवं अन्य वैदिक धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों सामान्यतया हिन्दु धर्मशास्त्रों में आत्महत्या को
के आधार पर शरभंग, महाराजा रघु, कलचुरी के राजा
गांगेय, चंदेल कुल के राजा गंगदेव, चालुक्यराज महापाप माना गया है। पाराशरस्मृति (४/१/२) में
सोमेश्वर आदि के स्वेच्छा मृत्युवरण का उल्लेख किया कहा गया है कि जो क्लेश, भय, घमण्ड और क्रोध के वशीभूत होकर आत्महत्या करता है, वह ६००००
है। मैगस्थनीज ने भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में वर्ष तक नरकवास करता है, लेकिन इनके अतिरिक्त
प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया है। प्रयोग में हिन्दु धर्मशास्त्रों में ऐसे भी अनेक संदर्भ हैं, जो
अक्षयवट से कूद कर गंगा में प्राणान्त करने की प्रथा स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण का समर्थन करते हैं। प्रायश्चित्त
तथा काशी में करवत लेने की प्रथा वैदिक परंपरा में के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन मनुस्मृति (११/
मध्ययुग तक भी काफी प्रचलित थी। यद्यपि ये प्रथाएँ
आज नामशेष हो गयी हैं, फिर भी वैदिक संन्यासियों ९०-९१), याज्ञवल्क्यस्मृति (३/२५३), गौतमस्मृति
द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी जनमानस (२३/१), वशिष्ठधर्मसूत्र (२२/२२, १३/१४) और
की श्रद्धा का केन्द्र है। आपस्तम्बसूत्र (१/९/२५/१-३,६) में भी किया गया है। मात्र इतना ही नहीं, हिन्दु धर्मशास्त्रों में भी ऐसे
इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन और अनेक स्थल हैं, जहाँ महाभारत के अनुशासन पर्व बौद्ध परंपराओं में वरन् वैदिक परंपरा में भी मृत्युवरण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/67
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
को समर्थन दिया गया है। लेकिन जैन और वैदिक परंपराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक परंपरा में जल एवं अग्नि में प्रवेश, गिरि- शिखर से गिरना, विष या शस्त्र प्रयोग आदि विविध साधनों से मृत्युवरण का विधान मिलता है, वहाँ जैन परंपरा में सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही देहत्याग का समर्थन मिलता है। जैन परंपरा शस्त्र आदि से होने वाली तात्कालिक मृत्यु की अपेक्षा उपवास द्वारा होने वाली क्रमिक मृत्यु को ही अधिक प्रशस्त करती है । यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ प्रसंगों में तात्कालिक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है, तथापि सामान्यतया जैन आचार्यों ने तात्कालिक मृत्युवरण की, जिसे प्रकारान्तर से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, आलोचना की है। आचार्य समन्तभद्र ने गिरि-पतन या अग्निप्रवेश के द्वारा किए जानेवाले मृत्युवरण को लोकमूढ़ता कहा है।' जैन आचार्यों की दृष्टि में समाधि-मरण का अर्थ मृत्यु की कामना नहीं, वरन् देहासक्ति का परित्याग है । उनके अनुसार तो जिसप्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित मानी गई है, उसी प्रकार मृत्यु की आकांक्षा को भी दूषित माना गया है।
समाधिमरण और आत्महत्या - जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में जीविताशा और मरणाशा दोनों को अनुचित माना गया है, तो यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि क्या समाधिमरण मरणाकांक्षा नहीं हैं? वस्तुत: यह न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्या ही । व्यक्ति आत्महत्या या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है या फिर सम्मान या हितों को गहरी चोट पहुँचने पर अथवा जीवन से निराश हो जाने पर करता है, लेकिन समाधिमरण में मरणकांक्षा का अभाव ही अपेक्षित है, क्योंकि समाधिमरण के प्रतिज्ञा-सूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करूँगा (काल अकंखमाणं विहरामि ) । यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती, तो उसके प्रतिज्ञा - सूत्र
में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। जैन विचारकों ने तो मरणाकांक्षा को समाधिमरण का दोष ही माना है। अतः समाधिमरण को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। जैन विचारकों ने इसीलिए सामान्य स्थिति में शस्त्रवध, अग्निप्रवेश या गिरिपतन आदि साधनों के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है, क्योंकि उनके पीछे मरणाकांक्षा की संभावना रही हुई है ।
समाधिमरण में आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देह - पोषण का विसर्जन किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है, लेकिन उसकी आकांक्षा नहीं, जैसे व्रण की चीरफाड़ के परिणामस्वरूप वेदना अवश्य होती है, लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है। जैन आचार्य ने कहा है कि समाधिमरण की क्रिया मरण के निमित्त नहीं होकर उसके प्रतिकार के लिए है, जैसे व्रण का चीरना वेदना के निमित्त नहीं होकर वेदना के प्रतिकार के लिए होता है। यदि ऑपरेशन की क्रिया में हो जाने वाली मृत्यु हत्या नहीं है, तो फिर समाधिमरण में हो जाने वाली मृत्यु आत्महत्या कैसे हो सकती है ? एक दैहिक जीवन की रक्षा के लिए है, तो दूसरी आध्यात्मिक जीवन की रक्षा के लिए है। समाधिमरण और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या में व्यक्ति जीवन के संघर्षों से ऊबकर जीवन भागना चाहता है, उसके मूल में कायरता है, जबकि समाधिमरण में देह और संयम की रक्षा के अनिवार्य विकल्पों में से संयम की रक्षा के विकल्प को चुनकर मृत्यु का साहस पूर्वक सामना किया जाता है।
समाधिमरण में जीवन से भागने का प्रयास नहीं, वरन् जीवन बेला की अंतिम सन्ध्या में द्वार पर खड़ी हुई मृत्यु का स्वागत है । आत्महत्या में जीवन से भय होता है, जबकि समाधिमरण में मृत्यु से निर्भयता होती है। आत्महत्या असमय मृत्यु का आमंत्रण है, जबकि संथारा या समाधिमरण मात्र मृत्यु के उपस्थित महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/68
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
होने पर उसका सहर्ष आलिंगन है। आत्महत्या के मूल तो होता है या कामना, जबकि समाधिमरण में भय और कामना दोनों की अनुपस्थिति आवश्यक होती है।
समाधिमरण आत्म-बलिदान से भी भिन्न है । पशुबलि के समान आत्मबलि की प्रथा भी शैव और शक्ति संप्रदायों में प्रचलित रही है। लेकिन समाधिमरण को आत्म बलिदान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्म बलिदान भी भावना का अतिरेक है। भावातिरेक आत्मबलिदान की अनिवार्यता है, जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं, वरन् विवेक का प्रकटन आवश्यक है।
समाधिमरण के प्रत्यय के आधार पर आलोचकों ने यह कहने का प्रयास भी किया है कि जैनदर्शन जीवन से इकरार नहीं करता, वरन् जीवन से इन्कार करता है, लेकिन गंभीरतापूर्वक विचार करने पर यह धारणा भ्रान्त ही सिद्ध होती है । उपाध्याय अमर मुनिजी लिखते हैं वह (जैनदर्शन) जीवन से इंकार नहीं करता है, अपितु जीवन के मिथ्या मोह से इन्कार करता है। जीवन जीने में यदि कोई महत्वपूर्ण लाभ है और वह स्व - पर की हित साधना में उपयोगी है, तो जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। आचार्य भद्रबाहु भी ओघनियुक्ति में कहते हैं - साधक का देह ही नहीं रहा तो संयम कैसे रहेगा, अतः संयम की साधना के लिए देह का परिपालन इष्ट है।° लेकिन देह के परिगलन की क्रिया संयम के निमित्त । अतः देह का ऐसा परिपालन जिसमें संयम ही समाप्त हो, किस काम का ? साधक का जीवन न तो जीने के लिए है, न मरण के लिए है। वह तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि के लिए यदि जीवन से ज्ञानादि आध्यात्मिक गुण की सिद्धि एवं शुद्धता की वृद्धि हो, तो जीवन की रक्षा करते हुए वैसा करना चाहिए, किन्तु यदि जीवन से भी ज्ञानादि की अभीष्ट सिद्धि नहीं होती हो, तो मरण भी साधक के लिए शिरसा श्लाघनीय है ।
-
समाधिमरण का मूल्यांकन - स्वेच्छामरण के संबंध में पहला प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य को प्राणांत करने का नैतिक अधिकार है ? पण्डित सुखलालजी ने जैन- दृष्टि से इन प्रश्न का जो उत्तर दिया है, उसका संक्षिप्त रूप यह है कि जैनधर्म सामान्य स्थितियों में, चाहे वह लौकिक हो या धार्मिक, प्राणांत करने का अधिकार नहीं देता है, लेकिन जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण, इनमें से किसी एक की पसंदगी करने का विषम समय आ गया हो, तो देह का त्याग करके भी अपनी विशुद्ध आध्यात्मिक स्थिति को बचाया जा सकता है। जैसे सती स्त्री दूसरा मार्ग न देखकर देहनाश के द्वारा भी अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है । १९ जब तक देह और संयम दोनों की समानभाव से रक्षा हो सके, तब तक दोनों की रक्षा कर्तव्य है, पर जब एक ही पसंदगी करने का सवाल आये, तो सामान्य व्यक्ति देह की रक्षा पसंद करेंगे और आध्यात्मिक संयम की उपेक्षा करेंगे, जबकि समाधिमरण का अधिकारी इससे उल्टा करेगा। जीवन तो दोनों ही हैं - दैहिक और आध्यात्मिक । आध्यात्मिक जीवन जीने वालों के लिए प्राणान्त या अनशन की इजाजत है, पामरों, भयभीतों और लालचियों के लिए नहीं । भयंकर दुष्काल आदि में देहरक्षा के निमित्त संयम से पतित होने का अवसर आ जाये या अनिवार्य रूप से मरण लानेवाली बीमारियों के कारण खुद को और दूसरों को निरर्थक परेशानी होती हो, तब मात्र समभाव की दृष्टि से संथारे या स्वेच्छामरण का विधान है।
इस प्रकार जैनदर्शन मात्र सद्गुणों की रक्षा के निमित्त प्राणान्त करने की अनुमति देता है, अन्य स्थितियों में नहीं । यदि सद्गुणों की रक्षा के निमित्त देह का विसर्जन किया जाता है, तो वह अनैतिक नहीं हो सकता। नैतिकता की रक्षा के लिए किया गया देहविसर्जन अनैतिक कैसे होगा ?
जैन दर्शन के इस दृष्टिकोण का समर्थन गीता में भी उपलब्ध है। गीता कहती है कि यदि जीवित
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/69
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
रहकर (आध्यात्मिक सद्गुणों के विनाश के कारण) तक यह शरीर मुक्ति का साधन हो सकता है, तब तक अपकीर्ति की संभावना हो तो उस जीवन से मरण ही अपरिहार्य हिंसा को सहन करके भी इसे जिलाना श्रेष्ठ है।९२
चाहिए। जब हम यह देंखे कि आत्मा के अपने विकास आदरणीय काका कालेकर लिखते हैं कि मत्य के प्रयत्न में शरीर बाधारूप ही होता है, तब हमें उसे शिकारी के समान हमारे पीछे पडे और हम बचने के छोड़ना चाहिए। जो किसी हालत में जीना चाहते हैं. लिए भागते जायें यह दृश्य मनुष्य को शोभा नहीं देता। उसकी निष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो जीवन से उब जीवन का प्रयोजन समाप्त हआ. ऐसा देखते ही मत्य कर अथवा केवल मरने के लिए मरना चाहता है. तो को आदरणीय अतिथि समझकर उसे आमंत्रण देना, उसमें भी विकृत शरीर-निष्ठा है। जो मरण से डरता उसका स्वागत करना और इस तरह से स्वेच्छास्वीकत है और जो मरण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य मरण के द्वारा जीवन को कतार्थ करना, यह एक सन्दर नहीं जानते। व्यापक जीवन में, जीना और मरना दोनों आदर्श है। आत्महत्या को नैतिक दधि से उचित मानते का अन्तर्भाव होता है, उन्मेष और निमेष दोनों क्रियाएँ हए वे कहते हैं कि इसे हम आत्महत्या नहीं कहें, निराश मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी करती है। १६ होकर, कायर होकर या डर के मारे शरीर छोड़ देना यह भारतीय नैतिक चिन्तन में केवल जीवन जीने एक किस्म की हार ही है। उसे हम जीवन द्रोह भी कह की कला पर ही नहीं, वरन् उसमें जीवन की कला सकते हैं। सब धर्मों ने आत्महत्या की निन्दा की है, के साथ मरण की कला पर भी विचार किया गया लेकिन जब मनुष्य सोचता है कि उसके जीवन का है। नैतिक चिन्तन की दृष्टि से किस प्रकार मरना प्रयोजन पूर्ण हुआ, ज्यादा जीने की आवश्यकता नहीं चाहिए यही महत्वपूर्ण नहीं है, वरन् किस प्रकार मरना रही, तब वह आत्म-साधना के अंतिम रूप के तौर पर चाहिए यह भी मूल्यवान है। मृत्यु की कला जीवन अगर शरीर छोड़ दे, तो वह उसका ही है। मैं स्वयं की कला से भी महत्वपूर्ण है, आदर्श मृत्यु ही नैतिक व्यक्तिश: इस अधिकार का समर्थन करता हूँ।१३ जीवन की कसौटी है। जीवन का जीना तो विद्यार्थी
समकालीन विचारकों में आदरणीय धर्मानन्द के सूत्रकालीन अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु कौसाम्बी और महात्मा गाँधी ने भी मनुष्य को प्राणान्त परीक्षा का अवसर है। करने के अधिकार का समर्थन नैतिक दृष्टि से किया था। हम जीवन की कमाई का अंतिम सौदा मृत्यु महात्माजी का कथन है कि 'जब मनुष्य पापाचार का के समय करते हैं। यहाँ चूके तो फिर पछताना होता वेग बलवत्तर हआ देखता है और आत्महत्या के बिना है और इसी अपेक्षा से कहा जा सकता है कि जीवन अपने को पाप से नहीं बचा सकता, तब होने वाले पाप की कला की अपेक्षा मृत्यु की कला अधिक मूल्यवान से बचने के लिए उसे आत्महत्या करने का अधिकार है। भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार मृत्यु का अवसर है।'१४ कौसम्बीजी ने भी अपनी पुस्तक ‘पार्श्वनाथ का ऐसा अवसर है, जब हममें से अधिकांश अपने भावी चातुर्याम धर्म' में स्वेच्छामरण का समर्थन किया था जीवन का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु
और उसकी भूमिका में पं. सुखलालजी ने ‘उन्होंने के समय जैसी भावना होती है, वैसी ही योनि जीव प्राप्त अपनी स्वेच्छामरण की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया करता है (१८/५-६)। जैन परंपरा में खन्धक मुनि की था' यह उद्धृत किया है।५
कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना करने काका कालेकर स्वेच्छामरण को महत्वपूर्ण वाला महान साधक, जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन मानते हए जैन परंपरा के समान ही कहते हैं कि जब से अपने सहचारी पाँच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/70
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा की कोटि में रख कर उसे अनैतिक भी बताया है।१७ निर्वाण का अमृतपान कराया, वही साधक स्वयं की इस संबंध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार स्वेच्छामरण का व्रत लेनेवाले सामान्य जैन मुनि अपने साधना पथ से विचलित हो गया। वैदिक परंपरा जीवनमुक्त एवं अलौकिक शक्ति से युक्त नहीं होते और में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण व्रत (संथारा) महान साधक को भी मरणबेला में हरिण पर आसक्ति नैतिक नहीं हो सकता। अपने तर्क के दूसरे भाग में वे रखने के कारण पशु योनि को प्राप्त होना पड़ा। उपर्युक्त कहते हैं कि जैन परंपरा में स्वेच्छा मृत्युवरण (संथारा) कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते करने में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता हैं। मृत्यु इस जीवन की साधना का परीक्षा काल है, इसलिए वह अनैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस है। वह इस जीवन में लक्ष्योपलब्धि का अन्तिम दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवनमुक्त एवं अलौकिक अवसर और भावी जीवन की कामना का आरंभ शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही स्वेच्छामरण का अधिकारी है. बिन्दु है। इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का हम सहमत नहीं है। मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी वस्तुतः स्वेच्छामरण की आवश्यकता उस अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। व्यक्ति के लिए नहीं है, जो जीवनमुक्त है और जिसकी वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुंदर बनाना देहासक्ति समाप्त हो गई है, वरन् उस व्यक्ति के लिए हमारा एक आवश्यक कर्तव्य है।
है, जिसमें देहासक्ति रही हुई है, क्योंकि समाधिमरण इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रतियुग के प्रबुद्ध तो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते। समाधिमरण एक साधन है, इसलिए वह जीवनमुक्त के अत: जैनदर्शन पर लगाया जानेवाला यह आक्षेप कि लिए (सिद्ध के लिए) आवश्यक नहीं है। जीवनमुक्त वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित को तो समाधिमरण सहज ही प्राप्त होता है। उसके लिए नहीं माना जा सकता। वस्तुतः समाधिमरण पर जो इसकी साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। जहाँ आक्षेप लगाये जाते हैं, उनका संबंध समाधिमरण से तक उनके इस आक्षेप का प्रश्न है कि समाधिमरण में न होकर आत्महत्या से है। कुछ विचारकों ने समाधिमरण यथार्थ की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित और आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा होता है, उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है, और इसी तरह पर समाधिमरण को अनैतिक कहने का लेकिन इसका संबंध संथारे या समाधिमरण के सिद्धांत प्रयास किया, लेकिन जैसा कि हम पूर्व में सिद्ध कर से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में प्रचलित विकृत रूप चुके हैं, समाधिमरण या मृत्युवरण आत्महत्या नहीं है से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक मूल्य और इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कहा जा सकता। में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन जैन आचार्यों ने स्वयं भी आत्महत्या को अनैतिक में अनेक व्यक्ति असत्य बोलते हैं, तो क्या उससे सत्य माना है, लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या समाधिमरण के मूल्य पर कोई आँच आती है ? वस्तुतः स्वेच्छामरण से भिन्न है।
के सैद्धान्तिक मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा ___ डॉ. ईश्वरचन्द्र ने जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छा सकता है। मरण को तो आत्महत्या नहीं माना है, लेकिन उन्होंने मृत्युवरण तो मृत्यु की वह कला है, जिसमें जैन परंपरा में किए जाने वाले संथारे को आत्महत्या न केवल जीवन ही सार्थक होता है, वरन् मरण भी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/71
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
सार्थक हो जाता है। आदरणीय काका कालेकर ने खलील जिब्रान का यह वचन उद्धृत किया है कि 'एक आदमी ने आत्मरक्षा के हेतु खुदकुशी कीआत्महत्या की, यह वचन सुनने में विचित्र सा लगता है । " आत्महत्या से आत्मरक्षा का क्या संबंध हो सकता है ? वस्तुत: यहाँ आत्मरक्षा का अर्थ आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण है और आत्महत्या का मतलब शरीर का विसर्जन । जब नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के संरक्षण के लिए शारीरिक मूल्यों का विसर्जन आवश्यक हो, तो उस स्थिति में देह-विसर्जन या स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण ही उचित है। आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा प्राणरक्षा से श्रेष्ठ है। गीता में स्वयं अकीर्तिकर जीवन की अपेक्षा मरण को श्रेष्ठ मान कर ऐसा ही संकेत दिया है । १९
काका कालेकर के शब्दों में, जब मनुष्य देखता है कि विशिष्ट परिस्थिति में यदि जीना है, तो हीन स्थिति और हीन विचार या हीन सिद्धान्त मान्य रखना जरूरी ही है, तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं, मर कर ही आत्मरक्षा होती है।
वस्तुत: समाधिमरण का यह व्रत हमारे आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए ही लिया जाता है और इसलिए यह पूर्णतः नैतिक है । सन्दर्भ :
१. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्मा विमोचनमाहुः संल्लेखनामार्याः । ।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२. देखिए - अतंकृतदशांगसूत्र के अर्जुनमाली के अध्याय में सुदर्शन सेठ के द्वारा किया गया सागारी संथारा ।
३. देखिए - अंतकृतदशांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, प्रका. श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९८१, वर्ग ८ अध्याय १ ।
४. संयुक्तनिकाय/ अनु. जगदीश कश्यप एवं धर्मरक्षित / महाबोधि सभा सरनाथ, बनारस / १९४५ई. /२१/२/ ४/५/
५. वही ३४/२/४/४
६.
७.
८.
९.
रत्नकरण्ड श्रावकाचारा २२
१०. संजमहेउं देहो धारिज्जइ सो कओ उ तदभावे । संजम - फाइनिमित्तं देह परिपालणा इट्ठा ॥४७॥ ओधनिर्युक्ति/४
धर्मशास्त्र का इतिहास पृ. ४८८ अपरार्क पृ. ५३६ धर्मशास्त्र का इतिहास पृ. ४८७
धर्मशास्त्र का इतिहास पृ. ४८८
११. दर्शन और चिन्तन / पं. सुखलाल संधवी / गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद / १९५७ / खण्ड २/पृ.
५३३-३४
१२. संभावितस्य चाकीर्तिमरणादतिरिच्यते । २/३४ १३. परमसखा मृत्यु / काका कालेकर/प्रका. सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली / १९७९ / पृ. ३१
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१९.
२०.
वही पृ. २६
पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म / भूमिका |
परमसखा मृत्यु/काका कालेकर/पृ. १९
पाश्चात्य आचार विज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन/पृ. २७३
परमसखा मृत्यु / काका कालेकर/पृ. ४३
गीता २ / ३४
परमसखा मृत्यु / काका कालेकर/पृ. ४३
निदेशक - प्राच्य विद्यापीठ ओसवाल सहरी, शाजापुर
(म. प्र. ) ४६५००१
पुरुषार्थ की गति ! भगवान की वाणी में पुरुषार्थ की बात आयी है; अतः जो पुरुषार्थ हीनता की बात करे, वह भगवान का सच्चा भक्त नहीं है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/72
३५,
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
चतुर्थ खण्ड: संस्कृति और इतिहास
डॉ. शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी
1-2
3-6
आचार्य श्री कनकनन्दीजी गुरुदेव ऐलक श्री धैर्यसागरजी स्व. श्री रामधारी सिंह दिनकर
7-10
11-13
14-17
17
18-22
श्रीमती चन्द्रकला जैन पं.अनूपचन्द न्यायतीर्थ डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल महेन्द्रकुमार जैन पाटनी सुरेशचन्द जैन बारौलिया पण्डित भंवरलाल न्यायतीर्थ
22
23-24 25-27 28-34
GOODGCCO PROCCOMPOGCCODDGC'CODOGCOOPOGCCT
पण्डित ताराचन्द्र पाटनी
1. जिन-छत्र 2. प्राचीन भारत के वैश्विक
गणतंत्र:/प्राणीतंत्र 3. जैन समाज-जागो! 4. जैन संस्कृति वेदपूर्व है। 5. बाहुबली प्रतिमा की ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि 6. वीर-प्रार्थना 7. वैशाली में अनुभूत करें महावीर दर्शन 8. महावीरमय-अहिंसामय होजाना 9. ऐतिहासिक अतिशय क्षेत्र घोघा 10. जैन संस्कृति संरक्षण एवं संवर्द्धन 11. जयपुर के जैन दीवान 12. जैनधर्म का प्राचीनतम
अभिलेखीय प्रमाण 13. अहिंसक शाकाहार :
स्वास्थ्य का आधार 14. मौन चिन्तन : चित्त की एकाग्रता 15. मुनि परम्परा के निर्वाहक :
आचार्य श्री भरतसागरजी 16. सीख-संकलन 17. बदलती जीवन शैली
अहिंसा एक मात्र विकल्प 18. दिगम्बरत्व का महत्व 19. महावीर गीत 20. आचार्य कुन्दकुन्द और
उनके उपदेश 21. न्यायाचार्य पं. माणिकचन्दजी कौन्देय 22. ज्ञान बिना तप कैसा? 23. श्री दि.जैन भव्योदय अतिशय क्षेत्र रैवासा 24. मानवाधिकार एवं जैन दर्शन
35-36
डॉ. किरण गुप्ता डॉ. त्रिलोकचन्द कोठारी
37-39 40-41
चन्दनमल अजमेरा पण्डित अनूपचन्द न्यायतीर्थ
42 43
हेमन्त कुमार जैन डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन मुनि श्री विनम्र सागर जी महाराज
44-45 46-48
48
श्रीमती अर्चना जैन एस.सी. जैन/डॉ.जे.डी. जैन प्रमोदकुमार रांवका जे.के. जैन न्यायमूर्ति एन. के. जैन
49-50 51-52 52 53-54 55-56
Gujaratiblendorgi
ODIJDGCORPOGAPOOOOOG
Patnagarpallingjamanelaye
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर मूर्तियों को छत्र के नीचे पद्मासन में ध्यानलीन दर्शाने की परम्परा प्रथम शती ईसा पूर्व से दृष्टिगोचर होती है।' सर्वतोभद्र जिन प्रतिमाओं के ऊपर छेद व नीचे खूँट निकली पाते हैं। ऊपर के छेद पर छत्र लगाया जाता था।
छत्र चौकोर और वृत्ताकार दोनों ही प्रकार के उपलब्ध होते हैं।
जिन - छत्र
डॉ. शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी
एक वर्गाकार छत्र मथुरा संग्रहालय के संग्रह में चौवियापाड़ा
मथुरा से अधिग्रहीत हुआ है। जिसे मैंने १९७४ में मूल स्थान पर देखा था। इस पर चारों ओर अष्ट मांगलिकों
का अंकन है, बीच में छेद है। इसी छेद में दण्ड लगाकर मूर्ति के ऊपर सुशोभित किया जाता था ।
पूर्व कुषाण काल से जैन कला में स्तूप बनाए जाने की भी परम्परा रही है। आयागपट्टों, स्तम्भों के मध्य, शिर पर स्तूप किन्नरों द्वारा पूजित तथा मथुरा
संग्रहालय के लवण शोभिका लेख के स्तूप के ऊपर हर्मिका के ऊपर छत्र का अंकन और इसके दोनों ओर मोटी मालाएँ हवा में लहराती हुई दर्शायी गई हैं। तीर्थंकरों के मध्य स्तूप (जे-६२३ रा. सं. ल.)
लखनऊ संग्रहालय के जैन कला संकलन में दो लघुकाय और एक छत्र बृहत्काय है। छोटे छत्र तो
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/1
जिनप्रतिमाओं को जहाँ पहले एक छत्र के नीचे विराजित पाते हैं, वही मध्यकाल में त्रिछत्र की प्रथा प्रचलित दृष्टिगोचर होती है।
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीर्थंकर प्रतिमाओं को महिमामण्डित करने के लिए उन पर सुशोभित होते होंगे, लेकिन बड़ा छत्र' लाल चित्तीदार
बलुए प्रस्तर में तराशा गया है। यह छत्र अतीव रोचक है। छत्र के मध्य छेद है। प्रथम भाग सादा एक पट्टी के बाद सोलह पद्म पत्र तथा बीच लघुपत्र, इन सभी भीतर की ओर बनाया गया है। तत्पश्चात् सादी पट्टी, उसके बाद बाईस पद्मपत्र, इनके बीच तीन लघुपत्र बाहर की तरफ दर्शाये गये हैं । तदुपरान्त कल्पलता का अंकन है। इसके बाद हारयष्टि जो गुप्तकालीन कंकाली टीले की तीर्थंकर मूर्तियों के प्रभामण्डल पर मिलती है, वैसी ही बनी है। इस हारयष्टि के मध्य छह भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्प सुशोभित हैं। इससे आगे का सादा है । तदुपरान्त रत्नाकार (डायमण्ड शेपड) मोटी माला
से अंतिम पूरे भाग को संवारा गया है और बीच में आठ विभिन्न प्रकार के पुष्पों को गूंथा हुआ पाते हैं। छत्र इसप्रकार कुल आठ अलंकरण पंक्तियों से समलंकृत है। यह भव्य छत्र किसी बड़ी तीर्थंकर प्रतिमा पर सुशोभित किया गया हो, लेकिन अधिक सम्भावना है कि जैन स्तूप की हर्मिका के ऊपर इतना दिव्य छत्र शोभायमान रहा हो। ७
स्मिथ महोदय ने इसे छापा, इसके बाद हिन्दी में यह प्राप्त होने के ११८वें वर्ष में प्रस्तुत स्मारिका में प्रथम बार प्रकाश में आ रहा है। यह अंलकृत छत्र तीसरी शती ईस्वी की रचना अलंकरण-सजावट की शैली के आधार पर प्रतीत होती है, जो अनभिलिखित है | ॥इति ॥
सर्पया, २२३/१०, रस्तोगी टोला, राजा बाजार, लखनऊ (उ.प्र.) २२६००३
संदर्भ -
१. रा. संग्र. मथुरा ४८.३४२६ अर्द्ध आयागपट्टचौबियापाड़ा देखे चित्र - १ मथुरा, जिते. कैटालग आफ जैनएन्टीक्टीज प्लेट २१ / २००३ मथुरा
२. रा. संग्र. मथुरा संख्यक ओ. एम. इस हेतु लेखक पूर्व निदे. जितेन्द्र कुमार का आभारी है।
३. रा. संग्र. मथुरा क्यू-२, देखें चित्र. २
४. रा. सं. ल. सं. जे. ६६४ पीत रंग प्रस्तर का छत्र खण्ड अ. ८० से. मी.
५. तदैव जे-६६५ तदैव आ. ४३५ से. मी.
६. तदैव जे - ६६६ लाल चित्तीदार प्रस्तर आ १ मी ४७५ से. मी. देखे चि. ३
७. वी. सी. स्मिथ, जैन स्तूप एंड अदर एंटीकटीज प्लेट २३ पृ. २८ इला. १९०३ दो छोटे कंकाली टीला तथा बड़ा छत्र जेल माउड़ से फरवरी १८८९ में प्राप्त हुए हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/2
.
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
प्राचीन भारत के वैश्विक गणतंत्र/प्राणीतंत्र
o आचार्य श्री कनकनन्दीजी गुरुदेव
गणतंत्र दिवस पर्व मनाने की सार्थकता इसमें अर्थशास्त्र का वर्णन चाणक्य ने विस्तार से किया जिसे है कि हम गणतंत्र का स्वरूप एवं उद्देश्य को जाने-माने, 'चाणक्य के कौटल्य अर्थशास्त्रम्' कहते हैं। सोमदेव प्रचार-प्रसार करें एवं विश्व में गणतंत्र की स्थापना में सूरी ने 'नीति वाक्यामृतम्' में अर्थशास्त्र के साथ-साथ अपनी महती भूमिका अदा करें। गणतंत्र (गण = राजनीति शास्त्र का भी वर्णन किया है। इसीप्रकार व्यक्ति/लोक, तंत्र = शासन/जीवन पद्धति) के अनुसार चाणक्य ने तथा महाभारत में वेद व्यास ने अर्थशास्त्र एवं प्रत्येक व्यक्ति के जो सुव्यस्थित, सुखमय, स्वावलम्बी, राजनीति का विस्तृत वर्णन किया है, परन्तु वर्तमान में स्वतंत्र, परपीड़न से रहित, सार्वभौम आत्मानुशासित मार्शल एवं रॉबिन्स को अर्थशास्त्र का जनक मानते हैं जीवन जीने की कला है, वही गणतंत्र है, लोकतंत्र तथा राजनीति, कानून के प्रणेता सुकरात आदि को मानते है अर्थात् गणतंत्र-जनता के द्वारा, जनता के लिए जनता हैं। तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रहवाद ही यथार्थ का शासन है। परन्तु प्राचीन भारत के महापुरुषों ने इससे से अहिंसक समाजवाद है। जब अहिंसात्मक समाजवाद भी आगे विश्व के प्राणीमात्र/जीवमात्र के सुख-शान्ति को पूँजीवाद, शोषक वर्ग ने स्वीकार नहीं किया, तब के जो सूत्र दिये हैं, वह प्राणीतंत्र है, जीवतंत्र है। कार्लमार्क्स आदि ने हिंसात्मक पद्धति से इसका प्रचारअविश्वसनीय सुखद आश्चर्य यह है कि वर्तमान के प्रसार किया। वर्तमान का वैश्वीकरण यह कोई नवीन पर्यावरण सुरक्षा, परिस्थिति की, इकोसिस्टम, विश्व- विषय नहीं है। वसुधैव स्वकुटुम्बकम्, परस्परोपग्रहो बंधुत्व, विश्व-प्रेम, विश्व-शांति के नियम भी प्राचीन जीवनाम्, जिओ और जीने दो आदि प्राचीन भारतीय भारत को प्राणीतंत्र की ओर धीरे-धीरे विकास कर रहा सिद्धान्त आधुनिक वैश्वीकरण/विश्वबंधुत्व, संयुक्त है। ऐसा अध्यात्म एवं विज्ञान का समन्वय विश्व के राष्ट्रसंघ आदि के नियमों से भी अधिक व्यापक, उदार लिए सुखावह है।
एवं समतापूर्ण है। परन्तु दु:ख का विषय यह है कि ऐसे लोकतंत्र का उद्भव, प्रचार-प्रसार पाश्चात्य महानतम सिद्धान्तों का आविष्कारक भारत आज किसी जगत् में हआ और उसके प्रचारक रूसों, एंजिलो, भी दृष्टि से स्वयं को श्रेष्ठ स्थापित नहीं कर पा रहा है, कार्लमार्क्स, अब्राहिम लिंकन, लेनिन आदि को मानते प्रस्तुतीकरण नहीं कर पा रहा है। विशेष जिज्ञासु मेरे हैं, परन्तु प्रायः ५१२८ वर्ष पहले राजा उग्रसेन ने (आ. कनकनन्दी) द्वारा रचित 'प्रथम शोध-बोधअग्रेयगण की स्थापना की थी और लोकतंत्र के अनुसार आविष्कार एवं प्रवक्ता' आदि का अध्ययन करें। वहाँ शासन व्यवस्था चलती थी। इसीप्रकार भगवान विश्व भरण-पोषण करे जोई, ताकर भारत महावीर का जन्म लोकतंत्र में हुआ था। लिच्छिवि आदि असो होई' अर्थात् जिस राष्ट्र ने विश्व को ज्ञान-विज्ञान, गण थे, चेटक उसके राष्ट्राध्यक्ष थे। महाभारत में तो दर्शन-अध्यात्म, गणित, अहिंसा, विश्वशान्ति, विस्तार से लोकतंत्र का स्वरूप, उसकी विकृति और विश्वमैत्री, पर्यावरण सुरक्षा, परस्परोपग्रहो जीवानाम्, विकृतियों को दूर करने के उपाय वर्णित हैं। इसीप्रकार वसुधैव कुटुम्बम्, सर्वजीव सुखाय, सर्वजीव हिताय,
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/3
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजनीति, कानून, समाज, व्यवस्था, अभ्युदय-निश्रेयस् ते समभाव परट्ठिया लहु णिव्वाणं लहई। सुख आदि सर्वोदयी सिद्धान्त-सूत्र देकर विश्व का जो जीव को जिनवर एवं जिनवर को जीव भरण-पोषण किया, उसे भारत कहते हैं। इसलिए तो मानता है, वह परम साम्यभाव में स्थित होकर अति भारत विश्वगुरु, सोने की चिड़िया, घी-दूध की नदी शीघ्र निर्वाण पद को प्राप्त करता है। यह है सर्वोत्कृष्ट, बहने वाला देश कहा गया है।
साम्यवाद, गणतन्त्रवाद, समाजवाद, लोकतन्त्रवाद, भारत के तीर्थंकर, बुद्ध, ऋषि, मुनि आदि पर्यावरण सुरक्षा। हिन्दू धर्मानुसार - महान् आध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने आध्यात्मिक
प्राणा यथात्मनोऽभीष्टः भूतानामपि ते तथा। अनन्तज्ञान से अखिल विश्व के समस्त तत्त्वों के समस्त आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमट्टमिर्महात्मभिः ।। रहस्यों को समग्रता से पारदर्शिता से परिज्ञान करके
(महाभारत अनुशासन पर्व २७५/१९) । विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया वह सत्य/तथ्य वैश्विक
जैसे मानव को अपने प्राण प्यारे हैं उसी प्रकार एवं त्रैकालिक होने से सदा-सर्वदा-सर्वत्र, नित्य-नूतन,
सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिए नित्य-पुरातन, समसामयिक, प्रासंगिक जीवन्त हैं। वे
जो लोग बुद्धिमान और पुण्यशाली हैं, उन्हें चाहिए कि प्रकृतिज्ञ होने के कारण प्रकृति की सुरक्षा संबंधी उनका
वे सभी प्राणियों को अपने समान समझें। ज्ञान भी उपरोक्त प्रकार का है।
महात्मा बुद्ध ने कहा है - भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, आध्यात्मिक के साथ-साथ वैश्विक/प्राकृतिक होने के कारण
यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। भारतीय परम्परा में अखिल जीव जगत् एवं सम्पूर्ण
अत्तानं उपमं मत्वा, न हनेय्य न घातये ।। (सुत्त प्रकृति की सुरक्षा-समृद्धि सबसे महत्वपूर्ण अंग है। नियात ३-३-२७) इसलिए तो भारत में विश्व को स्वकुटुम्ब रूप में जैसे मैं हूँ वैसे ये हैं, तथा जैसे ये हैं वैसा मैं स्वीकार किया गया है।
हूँ- इस प्रकार आत्म-सदृश्य मानकर न किसी का घात अयं निज परोवेत्ति भावना लघुचेतसाम। करे न कराये। उदार पुरुषाणां तु वसुधैव स्व-कुटुम्बकम्॥ सव्वे तसन्ति दण्डस्य, सव्वेसिं जीवितं पियं। क्षुद्र, संकुचित भावना युक्त व्यक्ति में अपने
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये॥ पराये का निकृष्ट भेदभाव रहता है, परन्तु उदारमना (धम्मपद १०/१) सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानता है, जिससे सब लोग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते व्यक्ति विश्व के प्रत्येक जीव को अपने परिवार का एक हैं। दूसरों को अपनी तरह जानकर न तो किसी को मारें सदस्य मानकर सबके साथ प्रेम, मैत्री, उदारता, समता और न ही किसी को मारने की प्रेरणा करें। का व्यवहार करता है। इसको ही विश्व बन्धुत्व/ यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जायते। सर्वात्मानुभूत कहते हैं। यह है धर्म का सार, अहिंसा मित्तं सो सव्वभूतेसु वेरं तस्स न केनचित्। का आधार, विश्वशान्ति का अमोघ उपाय, पर्यावरण (इति बत्रक, प. २०) सुरक्षा के परम्परागत सार्वभौम, शाश्वत, सर्वोत्कृष्ट
जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों उपाय।
से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, न दूसरों जैन आचार्य कहते हैं -
को जितवाता है, वह सर्व प्राणियों का मित्र होता है, जीव जिणवर से मुणहि जिणवर जीव मुणहि। उसका किसी के साथ वैर नहीं होता।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/4
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।' कायेन मनसा वासा सर्वे एवापि च देहिषु । (मनुस्मृति) जो कार्य तुम्हें पसंद नहीं है, उसे दूसरों के अदु:ख जननी वृत्ति मैत्री, मैत्री विदां मता ॥ लिए कभी मत करो।
काय, मन, वचन से सम्पूर्ण जीवों के प्रति ऐसा सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं,
व्यवहार करना, जिससे दूसरों को कष्ट न पहुँचे, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। इसीप्रकार के व्यवहार को मैत्री व्यवहार कहते हैं। माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ,
पूज्यपाद स्वामी ने भी विश्व कल्याण के लिए सदा ममात्मा विदधातु देव॥१॥
जो भावना के सूत्र/गान दिए हैं, वे निम्नप्रकार हैं(भावना द्वात्रिंशतिका)
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभुवतु हे भगवान् ! मेरा प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री भाव
बलवान्धार्मिको भूमिपालः। रहे, गुणिजनों में प्रमोद भाव रहे, दुःखीजनों के लिए
काले-काले च सम्यक् वर्षतु करुणाभाव रहे, दुर्जनों के प्रति माध्यस्थ भाव ।
मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।। (साम्यभाव) रहे। आत्मवत्परत्र कुशल वृत्ति चिन्तन
दुर्भिक्षं चौरमारिः क्षणमपि शक्तिस्त्याग तपसी च धर्माधिगमोयाः।
____ जगतां भास्म भूजीवलोके। (नीतिवाक्यामृतं) जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु । अपने ही समान दूसरे प्राणियों का हित
___ सततं सर्वसौख्यं प्रदायि॥१५॥ (कल्याण) चितवन, करना शक्ति के अनुसार पात्रों
(शान्ति भक्ति) को दान देना और तपश्चरण करना – ये धर्म प्राप्ति के उपाय हैं।
सम्पूर्ण प्रजा क्षेम/कुशल होवे, धार्मिक राजा “सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः।
(नेता) शक्ति सम्पन्न होवे, समय-समय पर इन्द्रदेव सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात् ॥”
(बादल) सुवृष्टि करे, रोग नाश को प्राप्त होवे, दुर्भिक्ष,
चोरी, डकैती, आतंकवाद, दुःख, कलह, अशान्ति एक सम्पूर्ण जीव जगत सुखी, निरोगी, भद्र, विनयी
क्षण के लिए भी इस जीव जगत् में न रहे। सब जीवों को सदाचारी रहे । कोई भी कभी भी थोड़े भी दुःख को प्राप्त
सुख प्रदान करने वाले जिनेन्द्र भगवान का धर्मचक्र न करे।
(क्षमा, अहिंसा, दया, सत्य, मैत्री, संगठन आदि) सतत् शिवमस्तु सर्वजगतः परहित निरता भवन्तु भूत गणाः। प्रवर्तमान रहें। दोषा प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।।
यस्तु सर्वाणि भूतानि, आत्मन्येवानुपश्यति। सम्पूर्ण विश्व मंगलमय हो, जीव समूह परहित
सर्वभूतेषु चात्मानं, ततो न विजुगुप्सते ।। में निरत रहें, सम्पूर्ण दोष विनाश को प्राप्त हो जावें, लोक में भी सदा सर्वदा सम्पूर्ण प्रकार से सुखी रहें।
(उपनिषद्) मा काषीत् कोऽपि पापानि, माचभूत कोपि दुःखितः।
जो अतनिरीक्षण के द्वारा सब भूतों (प्राणियों) मुच्चता जगदव्येषां, मति मैत्री निगद्यते ।।
को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा ___ कोई भी पाप कार्य को न करें, कोई भी दुःखी का सब भूता म, वह फिर किसा से घृणा नहा करता है। न रहे, जगत् दुःख-कष्ट-वैरत्व से रहित हो जावे, ॐ शान्तिः ! ॐ शान्तिः !! ॐ शान्तिः !!! इसीप्रकार की भावना को मैत्री भावना कहते हैं। यह मंत्र/गीत/श्लोक प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ एवं
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/5
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्त में बोला जाता है। माना जाता है कि नौवीं इसे पहली बार १८९६ में इंडियन नेशनल शताब्दी में जापान में किमिमाय नामक देशभक्ति गीत कांग्रेस की सभा में गाया गया। 'जन गण मन' देश गाया जाता था। यह गीत ही विश्व का प्रथम राष्ट्रीय का राष्ट्रगान है । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की इस रचना गीत था। पहली बार १८१६ में अग्रेजों का प्रथम राष्ट्रीय को संविधान सभा ने २४ जनवरी १९५० को मान्यता गीत 'गॉड सेव द क्वीन' (किंग) गाया गया था, दी। इसे पहली बार १९११ में हुए कलकत्ता अधिवेशन जिसकी रचना जॉन कुल ने की थी। संयुक्त राज्य में गाया गया। इस का पहला प्रकाशन टैगोर द्वारा अमेरिका का राष्ट्रीय गीत १८१२ में युद्ध के दौरान संपादित 'तत्त्वबोधिनी' पत्रिका में भारत विधाता शीर्षक लिखा गया था। ताइवान और जोर्डन के राष्ट्रीय गीत से हुआ। इसके पहले के पाँच छन्दों को ही अपनाया केवल चार पंक्ति के हैं।
गया। (नरेश कुमार बंका) हमारे देश का राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् है, जिसे राष्ट्रगान को इस गीत से गाया जाता है कि बंकिमचन्द्र चटर्जी ने लिखा
लगभग ५२ सेकेण्ड में यह समाप्त हो जाता है। 0
प्रस्तुति - निशा, शर्मिला,
सम्पर्क सूत्र - आचार्य श्री कनककन्दीजी गुरुदेव, C/ डॉ. नारायण लाल कच्छारा, ५५ रविन्द्र नगर, उदयपुर फोन-०२९४-२४९१४२२
चेतोहरायुवतयः सुहृदानुकूलाः,
सद्वान्धवाः प्रणयगर्व गिराश्च भृत्याः। गर्जन्तिदन्तिनिवहा तरलातुरंगाः, राजा -- मेरे चित्त को हरने वाली स्त्री है, मित्र मेरे अनुकूल हैं, मेरे भाई बन्धु बड़े सज्जन हैं, मेरे नौकरों को घमंड बिलकुल नहीं है, मेरे द्वारे परे हाथी गरज रहे हैं,घोड़े हिनहिना रहे हैं; मैं ऐसी सम्पदा वाला हूँ। इस प्रकार तीन चरणों को राजा बार-बार गुनगुना रहा था, तब चौथा चरण चोर ने कहा- सम्मीलनेनयनयो नहिं किंचिदस्ति।
चोर - अर्थात् आँख बन्द होने पर तुम्हारा कुछ भी नहीं है।
एक वृद्धा स्त्री की कमर बहुत ही झुक गई थी, उससे एक लड़के ने हंसकर पूछा
अधः पश्यसि किं माते पतितं तव किं भुवि ।
रे रे मूर्ख न जानासि गतं तारुण्य मौक्तिकम् ॥ हे माता ! तू नीचे को क्या देख रही है ? क्या तेरा कुछ जमीन में गिर गया है ? (स्त्री ने जवाब दिया) अरे मूर्ख तू नहीं जानता मेरी जवानी रूपी मोती गिर गया है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/6
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन समाज - जागो !
a
- ऐलक श्री धैर्यसागर जी (संघस्थ मुनि श्री सुधासागरजी)
सभ्य मनुष्यों के समूह का नाम है समाज । एक बैठे हैं या मंदिर व मूर्तियों के प्रति हमारी भक्ति, श्रद्धा निश्चित-नियम, मर्यादाओं, सदाचार, सांस्कृतिक व समर्पण नष्ट हो गए हैं ? मात्र पूजा, पाठ, दर्शन कर रीति-रिवाजों की कल्पना के विचारों में एकमत होकर लेने से कल्याण नहीं हो जाता है, हमें इसके साथ मूर्ति, संगठनात्मक दायित्व को पूरा करने वाला समूह समाज मंदिर, पंच परमेष्ठी की भक्ति सेवा के रूप में सुरक्षा के नाम से जाना जाता है। विभिन्न विचारों के भिन्न- संवर्धन भी करना होगा। भारत वर्ष में आज सबसे भिन्न समूहों ने अपनी पहचान के लिए अलग-अलग अधिक यदि किन्हीं मन्दिरों से मूर्ति आदि चोरी हो रही नाम से समाज गठित कर ली है।
हैं तो हैं दिगम्बर जैन मन्दिरों से। आखिर ऐसा क्यों? जैन तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित धर्म संस्कति कभी विचार किया? विचार करना होगा चोरी के कारणों के अनुसार चलने वाला समूह जैन समाज के रूप में पर, चोरी के रास्तों पर और चोरी के रोकथाम के लिए। पहचाना जाता है। जैन अनुयायियों ने धर्म संस्कृति के इतिहास समाज का मुखड़ा होता है। प्राचीन अनुरूप अपने सामाजिक कायदे-कानून बनाए और ऐतिहासिक सुकृत प्रेरणादायक इतिहास प्राणों के समान आत्म कल्याणक पंच परमेष्ठियों की आराधना के लिए होता है। जिससे किसी भी समाज की गौरवशाली जिनमन्दिर बनाये और उनमें जिनप्रतिमाएं स्थापित परम्परा का ज्ञान होता है । जीवनादर्श की पहचान होती की। भगवान जिनेन्द्र की वाणी जो जैनाचार्यों द्वारा है। जिन्हें अपनाकर व्यक्ति जीवन, समाज, देश में संकलित शास्त्ररूप ग्रन्थों में लिपिबद्ध कराया। शान्ति-आनंद स्थापित कर सकता है। इतिहास व
भारत भूमि पर सर्वाधिक प्राचीन मंदिर व मूर्तियाँ ऐतिहासिक धरोहर प्रतिस्पर्धा की चपेट में आते रहे जैन समाज की धरोहर के रूप में सर्वाधिक और प्राचीन हैं तो संरक्षण-संवर्धन की सुखद छाया तले अपने वजूद हैं, जिन्हें देखने से लगता है कि जैन समाज के पूर्वजों से दुनिया को प्रेरणा भी देते रहे हैं। में अगाध श्रद्धा-भक्ति समर्पण थी। उन्होंने हमें जिसप्रकार मंदिर-तीर्थक्षेत्र-मूर्तियों पर कब्जा आत्मशक्ति-कल्याण के लिए ऐसी अद्भुत धरोहर जमाने के लिए विधर्मियों की मुहिम चल रही है और सौपी है, जिसकी सुरक्षा एवं संवर्धन करना जैन समाज हमारी अदूरदर्शिता, असंगठन, एकता शक्ति का अभाव, का दायित्व बनता है।
समयोचित कार्यवाही का अभाव, पूर्व सुरक्षा कारणों वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जहाँ देखो, वहाँ मर्ति आदि का अभाव, सुरक्षा योजना का अभाव, जागरुकता का चोरियाँ आये दिन देखने-सनने में आ रही हैं। क्या अभाव, एक अच्छे नेतृत्व का अभाव, कार्य-कर्ताओं वजह है कि हम अपने पूर्वजों की थाती को सुरक्षा प्रदान का असहयोग, निष्क्रियता की सक्रियता के चलते नहीं कर पा रहे? क्या ऐसा मानना उचित होगा कि हमारे प्रतिस्पर्धी बन सफल हो रहे हैं। ठीक इसीप्रकार चोरी पूर्वजों ने हमें यह थाती सौंपकर उचित नहीं किया? क्या में भी पूर्व नियोजित षड्यन्त्र तो नहीं हैं। इस संबंध में बनिया समाज के नाम पर हम अपने पुरुषत्व को खो काफी कुछ लिखा जा सकता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/7
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुछ चोरों के पकड़े जाने के बाद जो चोरी के आज यह भी विडम्बना देखने में आ रही है कि कारण सामने आए, वो इसप्रकार हैं - पुराने जीर्ण- जो मंदिर जंगलों/गाँवों से चोरी होती है उनके लिए शहरी शीर्ण दरवाजे, पुराने ताले, लोगों का दोनों समय कम समाज के अन्दर कोई चिन्गारी नहीं भड़कती है। जैसे
आना-जाना, बूढ़े चौकीदार-व्यास-माली, मंदिर में गाँवों-तीर्थों-जंगलों की मूर्ति-मंदिरों से इनका कोई प्रवेश करने वालों पर दृष्टि नहीं, दिन में मंदिर में किसी सरोकार ही नहीं है। क्या वो हमारे आराध्य नहीं हैं या का नहीं रहना और मात्र दरवाजे लटके रहना, अपरिचित ऐतिहासिक महत्व नहीं रखते। क्या उनकी सुरक्षा करना मजदूरों, बढ़ई, पेन्टर, कारीगर, बिजली, मिस्त्री आदि मात्र उन्हीं गाँवों वालों की/तीर्थकमेटी वालों की है। का मंदिर में आना, मंदिरों में लम्बे समय तक ताले डले अन्ततोगत्वा गाँव वालों की तीर्थकमेटी वालों की संख्या रहना, समाज के घर के अभाव में, मंदिरों के आस- कम होने से प्रशासक पर अपना दबाब नहीं बना पाते पास किसी का नहीं रहना, सूनापन बना रहना, हैं और लम्बी प्रक्रिया से जूझ नहीं पाने से मर्ति आदि चौकीदार-माली-व्यास को बहुत कम वेतन देना, चोरों मिलते नहीं हैं। पुलिस प्रशासन बिना कार्यवाही के मात्र को बहुत कम सजा मिलना, सजा का भय न होना। आश्वासन देते रहते हैं, क्योंकि उनके पास अनेकों कार्य
जैनियो जागो !!! श्रमण संस्कृति प्राचीन संस्कृति होते हैं। बिना अच्छे दबाब के वो अन्वेषण ही नहीं है। सर्वोदयी, सर्वजनहिताय, अहिंसामयी, नर से करते हैं। ऐसा पुलिस वालों से ही पता चला है। नारायण. प्रत्येक आत्मा को परमात्मा बनाने की संस्कति ।
सबसे बड़ी विडम्बना तो तब होती है कि शहरों है। ऐसी परमोपकारी संस्कृति के आराधना स्थल, में एक मंदिर में चोरी होती है तो दूसरे मंदिर वाले या आराध्य देव लुट रहे हैं और फिर भी हम सो रहे हैं।
कालोनी वाले उनके आन्दोलनों में भाग तक नहीं लेते। अपने संसार के कार्यों में मशगूल हैं। नेतागिरी में,
मात्र अपने मंदिरों तक सीमित रहने की सोच संस्कृति राजनीति में, पंथ व्यामोह में, गुटबाजी में, भेदभाव में,
के लिए खतरनाक है। ध्यान रहे किसी भी मंदिर की मौजमस्ती में लगे हुए हैं। क्या ऐसे लोगों को सच्चा
चोरी से हमारा इतिहास तो मिटता ही है एवं श्रद्धा टूटती श्रद्धान कहा जा सकता है ? क्या वो जैन कहला सकते ।
है। भक्ति नष्ट होती है, क्योंकि प्रत्येक मूर्ति साक्षात् हैं ? क्या वो देव-शास्त्र-गुरु के भक्त कहला सकते
जीवित भगवान है उनकी प्राण-प्रतिष्ठा जो होती है। हैं ? विगत दिनों हुई जनसंख्या गिनती में जैनसमाज
कोई पाषाण या धातु मात्र की नहीं है। अत: चोरी के को शत-प्रतिशत शिक्षित पाया गया। किन्तु निष्क्रियता
समाचार सुनते ही अपने भगवान को बचाने के लिए से संस्कृति के आधार जिनबिम्बों की चोरी होना हमारी
कदम नहीं उठाते हो तो आपका धर्म आप से पूछेगा शैक्षणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
कि तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति समर्पण का क्या औचित्य है? हमारे तीर्थंकर क्षत्रिय थे और हम उनके भक्त
उठो, जागो, एकता संगठन के साथ आगे भले क्षत्रिय नहीं हैं, अपने आराध्य की भी रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें फिर अपने नाम के साथ जैन लिखने
___ बढ़ो! जहाँ-जहाँ पर जागृति एवं संगठनात्मक प्रक्रिया पर विचार कर लेना चाहिए या फिर अपने आपको पुरुष
दिखाई गई, वहाँ पर मूतियाँ मिली है। चोरी से बचने मानने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। चोरी पर चोरी हो
न के लिए लम्बे समय की खोजबीन से पता चला कि रही हैं, किन्तु सुरक्षा के कोई बन्दोबस्त नहीं किए जा
यदि निम्नलिखित उपाय शीघ्र कर लिए जाएँ तो ९५% रहे हैं। यहाँ तक की संगठित होकर प्रशासन पर भी कोई से ९९% तक चोरियाँ रुक सकती हैं - दबाब नहीं बना रहे हैं। नेतृत्व के अभाव में अयोजनाबद्ध १. प्रत्येक मंदिर में जीर्ण-शीर्ण दरवाजे खिड़की आन्दोलन कर शक्ति को नष्टकर शान्त बैठ जाने वालों हों तो बदले जावें। को और क्या माना जा सकता है।
२. प्रत्येक मंदिर के प्रत्येक दरवाजों में इन्टरलॉक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/8
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी होना चाहिए। मात्र सौ डेड सौ रुपये का आता है।
३. प्रत्येक मंदिर में सेन्सर लगना चाहिए, प्रत्येक दरवाजे पर सेन्सर चिप लगना चाहिए और सेन्सर से १२-१५ फोन जुड़ना चाहिए । जिससे कोई भी घुसा तो तत्काल सेन्सर का सायरन चालू हो जाएगा और फोन बज उठेंगे। तत्काल लोग दौड़ पड़ेंगे। चोर स्वतः ही आवाज (सायरन) सुन भागेगा । मात्र १०-१२ हजार का खर्चा आयेगा ।
४. थोड़ा और खर्चा करें तो कैमरे लगायें । मात्र २-३ हजार का कैमरा, एक छोटी टी. वी., चौकीदार, माली, व्यास के कमरे में फिट करें तो उस पर देखरेख हो जायगी और साथ में सूटिंग रिकार्ड हो जाती है, जिससे चोर तक पहुँच शीघ्र हो जाती है। आज इतने अच्छे वैज्ञानिक उपकरण आ गये हैं, फिर क्यों न अपनाये जायें।
५. प्रत्येक मंदिर की प्रत्येक वेदी पर काँच के दरवाजे लॉक सहित लगावें ।
६. छोटी प्रतिमायें (९ इंच तक) को गोदरेज की तिजोरियाँ फिट कराकर रखें। खास तौर पर धातु की प्रतिमाएँ ।
७. प्रत्येक मंदिर के चौक में लोहे के जाल लगायें, क्योंकि चोर आजू-बाजू से चढ़कर चौक में कूँ जाते हैं।
८. मंदिर में कौन आ रहा है, कौन जा रहा है इस पर नजर रहे। इसके लिए चौकीदार, माली, व्यास को ताकीद करें। इसके लिए उसके वेतन में बढोत्तरी करें। तो वो सावधानी से इस कार्य को करेगा ।
९. मंदिर समय पर खुलें, समय पर बन्द हों, ताला लगे और खोलने - बन्द करते समय मंदिर कमेटी के कोई भी सदस्य उपस्थित रहें । कमेटी भगवान की सेवक / सुरक्षक होती है, मालिक नहीं; क्योंकि भगवान का कोई मालिक नहीं होता है। सेवक के रहते चोरी होना, सेवक का दोष है, पाप है।
माली को रखा जाये, जिससे उसके परिवार के सदस्यों की नजर रहेगी या फिर मंदिर की दीवाल से सटे आजूबाजू में रखा जाये। तभी मंदिर पर नजर रखी जा सकती है। साथ ही चौकीदार - व्यास पर भी नजर रखें, उनके किनसे संबंध हैं, कौन उनके पास आ जा रहे हैं।
११. चौकीदार - व्यास - माली जवान लगाने चाहिए । १२. चौकीदार व्यास- माली के पास टार्च, डण्डा, सीटी होना ही चाहिए । १३. मंदिर में परिचित कारीगर, मजदूर, पेन्टर, बढ़ई ( कारपेन्टर), बिजली मिस्त्री आदि को ही प्रवेश देवें। भले पैसा ज्यादा लग जाए लेकिन परिचितों से ही कार्य कराना चाहिए ।
१४. मंदिर के आस-पास सूना नहीं होना चाहिए। पुजारी - माली - चौकीदार समाज के लोगों को रहना चाहिए - ऐसी व्यवस्था हो ।
१५. यदि कहीं की समाज स्थानान्तरित हो अन्यत्र चली गई है तो उसे जिनप्रतिमाओं को साथ ले
ना चाहिए। या किसी सुरक्षित जगह पर विराजमान करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया है तो आसपास की समाज को चाहिए कि वो उस मंदिर की प्रतिमाओं को सुरक्षित करें । अन्यत्र स्थापित करें। या फिर वहाँ पर किसी गरीब जैनों को आजीविका देकर बसावें । प्रतिमाएँ उठाने के बाद वहाँ पर चरण चिन्ह स्थापित कर दें और एक शिलालेख लिखा दें कि यहाँ की प्रतिमाएँ वहाँ पर गई हैं तथा जहाँ पर जाएँ, वहाँ पर भी लिखा दें कि ये समस्त प्रतिमाएँ वहाँ से लायी गई हैं। इससे इतिहास सुरक्षित रहेगा ।
१६. मंदिरों में भक्तों की संख्या बढ़े, इसके प्रयास किये जाने चाहिए। प्रत्येक शहर की बहुसंख्यक समाज को चाहिए कि वो एक ऐसी टोली बनाये जो हर रविवार को अलग-अलग मंदिरों में पूजा-अभिषेक का कार्यक्रम रखें। ऐसा करते हुए पूरे जिले के मंदिरों में जाना चाहिए । इससे वहाँ के निवासी जागृत होते हैं, कमेटियाँ जागृत होंगी। समाज तथा कमेटी के जागरण से मंदिरों की सुरक्षा
१०. मंदिर परिसर में ही चौकीदार - व्यास- व्यवस्थाएँ चुस्त-दुरुस्त होंगी ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/9
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७. प्रत्येक जिले स्तर पर एक कमेटी गठित तभी उनके अस्तित्व का वास्तविक उद्देश्य सार्थक होना चाहिए। उसमें प्रत्येक गाँव-शहर के मंदिर का होगा। यदि ऐसे संगठनों के रहते सांस्कृतिक धरोहर नष्ट एक सदस्य होना चाहिए। कहीं भी मूर्ति चोरी होवे तो होती रही तो दोष इनका ही होगा। पीढियाँ इन्हें माफ वो सदस्य तत्काल कमेटी को सूचित करें। और कमेटी नहीं करेंगी। समाज भी लानते देगी। चोरों से खतरा अपने बेनर तले प्रशासन पर जबरदस्त दबाब बनाये। कम है और अपनी निष्क्रियता से खतरा ज्यादा है। विधिवत् योजनाबद्ध तरीके से आन्दोलन करे। ऐसा न उपरोक्त उपायों पर विचार कर शीघ्र अपनाये जाने की होने पर समस्त जिलों की कमेटियों से सम्पर्क करे और आवश्यकता है, वरना जितना विलम्ब से कदम उठेगा। प्रदेश स्तर पर कार्यवाही करे। शासन से बातचीत कर उससे कई गुना हानि हो चुकी होगी। ध्यान रहे ! एक दबाब बनाये। ऐसा करने से पुलिस वालों की नींद दिन करना यही होगा। खुलती है। तब आपके भगवान मिल सकते हैं। ध्यान विचारणीय बात है कि जब कहीं चोरी हो जाती रहे ! ज्यादा लम्बा समय निकलने से चोर एवं प्रतिमा है. तो दःख होता है। लोग भगवान की उपासना शरु तक पहुँच बनाना मुश्किल होता है।
कर देते हैं, व्रत, नियम, उपवास करते हैं, एक-दो बार १८. एक चोर पकड़े जाने के बाद पुन: मंदिरों धरना-प्रदर्शन करके शान्त हो जाते हैं। शक्ति और धन की चोरी करता है या दूसरे करते हैं। इसका कारण है खर्च करके कुछ नहीं पाते हैं। इधर-उधर दौड़-धूप सजा का कोई विशेष प्रावधान नहीं है। जिससे चोरों करके थक जाते हैं। मूर्ति आदि मिलना भाग्य भरोसे को कोई खोफ हो। अत: जैन समाज को सरकार से रह जाता है। क्यों न सुरक्षा की नसीहत लेकर कुछ इसमें कोई उचित कार्यवाही की माँग करना चाहिए। इन्तजाम कर लिए जाएँ। क्योंकि प्रतिमाएँ एक जीवित भगवान के समान मानी घर-दुकान की सुरक्षा के लिए सारे उपाय यहाँ जाती हैं, प्रतिष्ठित होती हैं। भारतीय संस्कृति में प्रतिष्ठा तक की स्वयं ही लगे रहते हैं, तो फिर मर्तियों की क्यों में प्राण-प्रतिष्ठित किये जाते हैं । अतः उनका अपहरण नहीं? क्या वो जड, पाषाण या धातु है? क्या श्रद्धा करना या क्षत-विक्षत करना हत्या के समान श्रेणी का समर्पण भक्ति पर चोट नहीं पहँचती? क्या मर्ति के अपराध बनता है, अत: दण्ड व्यवस्था भी वैसी होनी नाबालिग श्रेणी में आने से सुरक्षा करने का हमारा चाहिए। प्रचार-प्रसार ऐसा होना चाहिए कि आमजन दायित्व नहीं बनता? क्या निष्क्रियता नपुंसकता नहीं को राहत हो जाए कि मंदिर मूर्ति भी एक जीवित तत्त्व है? चोर भगवान की प्रतिमा को कहाँ-कहाँ डालता है? है। उनके साथ छेड़खानी करना भारी अपराध-दण्ड का क्या यह विचार कर आपकी आत्मा नहीं काँपती है? भागीदार होना है। सरकार से चोरी रोकने के लिए यदि आपके उत्तर नकारात्मक हैं तो आप जैन नहीं हैं, कानन को कठोर करने की मांग के लिए भारत में जहाँ- जिनेन्द्र भक्त नहीं हैं। जहाँ चोरियाँ हुई हैं उनकी जानकारियाँ एकत्रित करके
प्रत्येक व्यक्ति समाज की एक इकाई है। उसे दिखाना चाहिए। जैनपत्र-पत्रिकाओं में सूचना देकर ये
इकाई बनकर आगे आकर इस विषय में अपना तनजानकारियाँ हासिल की जा सकती हैं।
मन-धन-समय का अंशदान करके दूसरे को बिना बोले १९. दिगम्बर जैन समाज की पंचायते, दिगम्बर ही प्रेरणा देना चाहिए तभी दहाई, फिर सैकड़ा-हजारजैन महासमिति, जैन महासभा, जैन सोश्यल ग्रुप, लाख की संख्या में लोग जुड़ते जायेंगे। दिगम्बर जैन युवा परिषद्, वीरसेवा दल महाराष्ट्र, "धर्मो रक्षति रक्षितः", स्थानीय संस्थाएँ आगे आकर अपनी संस्कृति के मुख्य । प्रतीक मंदिर मूर्तियों की रक्षा के क्षेत्र में आगे आयें। “प्रभु बचेंगे तो हम बचेंगे"
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/10
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन संस्कृति वेदपूर्व है
हिन्दू संस्कृति का आविर्भाव आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के मिश्रण से हुआ तथा जिसे हम वैदिक संस्कृति कहते हैं। वह वैदिक और प्राग्वैदिक संस्कृतियों के मिलन से उत्पन्न हुई थी। यह अनुमान कई प्रकार की युक्तियों पर आधारित है। भारतीय संस्कृति के विवेचन में हमारे सामने कुछ ऐसी शंकाएँ खड़ी होती हैं, जिनका समाधान न तो इस स्थापना से हो सकता है कि हिन्दू संस्कृति सोलह आने आर्यों का निर्माण है, न इस स्थापना से कि वैदिक संस्कृति केवल प्राग्वैदिक संस्कृति का विकास मात्र है। डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने ऐसी कई शंकाओं का उल्लेख अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति का विकास : वैदिक धारा' में किया है।
पाणिनि का समय हम लोग ई.पू. ७वीं सदी मानते हैं। पाश्चात्यों के मतानुसार उनका काल ई. पू. ५वीं सदी से इधर नहीं माना जा सकता। पाणिनि ने श्रमण-ब्राह्मण-संघर्ष का उल्लेख 'शाश्वतिक विरोध' के उदाहरण के रूप में किया है। अवश्य ही शाश्वत शब्द सौ-दो सौ वर्षों का अर्थ नहीं देता, वह इससे बहुत अधिक काल का संकेत करता है। अतएव, यह मानना युक्तियुक्त है कि श्रमण संस्था भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व विद्यमान थी और ब्राह्मण इस संस्था को समझते थे । श्रमणों और ब्राह्मणों के बीच सर्पनकुल संबंध का उल्लेख बुद्धोत्तर साहित्य में बहुत अधिक हुआ है, किन्तु पाणिनि के उल्लेख से यह स्पष्ट भासत होता है कि श्रमण-ब्राह्मण संघर्ष बौद्ध मत का कहीं प्राचीन है।
पौराणिक हिन्दू धर्म निगम और आगम,
दोनों
स्व. श्री रामधारी सिंह 'दिनकर'
पर आधारित माना जाता है। निगम वैदिक विधान है। आगम प्राग्वैदिक काल से आती हुई वैदिकेतर धार्मिक परम्परा का वाचक है । पुराण और पौराणिक धर्म उतने नवीन नहीं है, जितना नवीन उन्हें पश्चिम के विद्वानों ने सिद्ध किया है। 'यह कहना संभव है कि इतिहास - पुराणों का आरंभ अथर्ववेद के काल में हुआ । अथर्थवेद में कहा गया है कि ऋग्वेद, सामवेद, पुराणों के साथ यजुर्वेद तथा छन्द ब्रह्मदेव से उत्पन्न हुए (११/७/ २४)। शतपथ-ब्राह्मण के (११/५/७/९) ब्रह्म यज्ञ में इतिहास तथा पुराणों के पठन का फल बतलाया गया है और कहा गया है कि अश्वमेध में (१३/४/३/१३) पुराण तथा वेद का पठन किया जाय ।' (वैदिक संस्कृति का विकास : लक्ष्मण शास्त्री जोशी)
पुराणों का उल्लेख धर्मसूत्रों में भी है तथा मनुस्मृति, विष्णुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति एवं ऋविधान में भी । रामायण और महाभारत तो पुराणों के नाम कई बार लेते हैं। इन सारे प्रमाणों से यह अनुमान अत्यधिक सुदृढ़ हो जाता है कि पुराणों की परम्परा वेदों की परम्परा से कम प्राचीन नहीं........ ।
डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने यह भी अनुमान लगाया है कि भारतीय संस्कृति में जो कई परस्पर विरोधी 'युग्म' हैं, उनका भी कारण यही है कि यह संस्कृति, आरंभ से ही, सामासिक रही है। उदाहरणार्थ - भारतीय समाज में एक द्वन्द्व तो कर्म और संन्यास को लेकर है, दूसरा प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच तथा तीसरा स्वर्ग
और नरक की कल्पनाओं को लेकर। यह विषय सचमुच विचारणीय है । अत्यन्त प्राचीन काल से भारत की
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/11
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानसिकता दो धाराओं में विभक्त रही है। एक धारा कहती है कि जीवन सत्य है और हमारा कर्तव्य यह है कि हम बाधाओं पर विजय प्राप्त करके जीवन में जय लाभ करें एवं मानव- -बन्धुओं का उपकार करते हुए यज्ञादि से देवताओं को भी प्रसन्न करें, जिससे हम इस और उस, दोनों लोकों में सुख और आनन्द प्राप्त कर सकें। किन्तु दूसरी धारा की शिक्षा यह है कि जीवन नाशवान है। हम जो भी करें, किन्तु हमें रोग और शोक से छुटकारा नहीं मिल सकता, न मृत्यु से हम भाग सकते हैं। हमारे आनन्द की स्थिति वह थी, जब हमने जन्म नहीं लिया था। जन्म के कारण ही हम वासनाओं की जंजीर में पड़े हैं। अतएव हमारा श्रेष्ठ धर्म यह है कि उन सुखों को पीठ दे दें, जो हमें ललचा कर संसार बाँधते हैं। इस धारा के अनुसार मनुष्य को घर-बार छोड़कर संन्यास ले लेना चाहिए और देह - दंडनपूर्वक वह मार्ग पकड़ना चाहिए, जिससे आवागमन छूट जाय ।
अनुमान यह है कि कर्म और संन्यास में से कर्म तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति में से प्रवृत्ति के सिद्धांत प्रमुख रूप से वैदिक हैं तथा संन्यास और निवृत्ति के सिद्धांत अधिकांश में प्राग्वैदिक मान्यताओं से पुष्ट हुए होंगे। किन्तु, आश्चर्य की बात है कि भारतीय अध्यात्म शास्त्र और दर्शन पर जितना प्रभाव संन्यास और निवृत्ति का है, उतना प्रभाव कर्म और प्रवृत्ति के सिद्धांतों का नहीं है। अथवा आश्चर्य की इसमें कोई बात नहीं है। ऋग्वेद के आधार पर यह मानना युक्तिसंगत है कि आर्य पराक्रमी मनुष्य थे। पराक्रमी मनुष्य संन्यासी की अपेक्षा 'कर्म को अधिक महत्व देता है । दुःखों से भाग खड़ा होने के बदले वह डटकर उनका सामना करता है। आर्यों का यह स्वभाव कई देशों में बिल्कुल अक्षुण्ण रह गया । विशेषतः यूरोप में उनकी पराक्रम-शीलता पर अधिक आँच नहीं आयी । किन्तु कई देशों की स्थानीय संस्कृति और परिस्थितियों ने आर्यों के भीतर भी पस्ती डाल दी एवं उनके मन को आर्यों की वैदिक संस्कृति के चारों ओर अपना जो विशाल जाल फैला
दिया, उसे देखते हुए यह सूक्ति काफी समीचीन लगती है कि 'भारतीय संस्कृति के बीच वैदिक संस्कृति समुद्र टापू के समान है।'
वैदिक और आगमिक तत्त्वों के बीच संघर्ष, कदाचित् वेदों के समय भी चलते होंगे, क्योंकि आगम हिंसा के विरुद्ध थे और यज्ञ में हिंसा होती थी । इस दृष्टि से जैन और बौद्ध धर्मों का मूल आगमों में अधिक, वेदान्त में कम मानना चाहिए। हाँ, जब गीता रची गयी, तब उनका रूप भागवत आगम का रूप हो गया। सांस्कृतिक समन्वय के इतिहास में भगवान कृष्ण का चरम महत्व यह है कि गीता के द्वारा उन्होंने भागवतों की भक्ति, वेदान्त के ज्ञान और सांख्य के दुरूह सूक्ष्म दर्शन को एकाकार कर दिया ।
कदाचित् महाभारत के पूर्व तक अक्षुण्ण रहा था। आर्यों का उत्साह और प्रवृत्तिमार्गी दृष्टिकोण, महाभारत की हिंसा ने भारत के मन को चूर कर दिया । वहीं से शायद यह शंका उत्पन्न हुई कि यज्ञ सद्धर्म नहीं है और जीवन का ध्येय सांसारिक विजय नहीं, प्रत्युत मोक्ष होना चाहिए। महाभारत की लड़ाई पहले हुई, उपनिषद् कदाचित् बाद को बने हैं।
करने की प्रेरणा कर्मठता से आती है, प्रवृत्तिमार्गी संसार को सत्य मानकर जीवन के सुखों में वृद्धि विचारों से आती है। इसके विपरीत, मनुष्य जब मोक्ष को अधिक महत्व देने लगता है, तब कर्म के प्रति उसकी श्रद्धा शिथिल होने लगती है। मोक्ष-साधना के साथ, भीतर-भीतर यह भाव भी चलता है कि इन्द्रियतर्पण का दंड परलोक में नरकवास होगा। यह विलक्षण बात है कि वेदों में नरक और मोक्ष की कल्पना प्रायः नहीं के बराबर है। विश्रुत वैदिक विद्वान डॉ. मंगलदेव शास्त्री ने लिखा है – 'बहुत से विद्वानों को भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि वैदिक संहिताओं में मुक्ति अथवा दुःख शब्द का प्रयोग एक बार भी हमको नहीं मिला ।' अन्यत्र उन्होंने यह भी लिखा है कि 'नरक शब्द ऋग्वेद संहिता, शुक्ल यजुर्वेद - वाजसनेयिमहावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/12
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
माध्यन्दिन-संहिता तथा साम-संहिता में एक बार भी अतएव, पुराणकार प्रत्येक धर्मप्राण साधु और पण्डित नहीं आया है। अथर्व वेद संहिता में नारक शब्द केवल को प्रसंगानुसार ऋषि या मुनि कहने में कोई अनौचित्य एक बार प्रयुक्त हुआ है।'
नहीं मानते थे। जब बौद्ध और जैन आन्दोलन खड़े हुए, अब यह विश्वास दिलाना कठिन है कि जिस बौद्धों और जैनों ने प्रधानता ऋषि शब्द को नहीं, मुनि निवृत्ति का भारत के अध्यात्म-शास्त्र पर इतना अधिक शब्द को दी। इससे भी यही अनुमान दृढ़ होता है कि प्रभाव है, वह आर्येतर तत्त्व थी। किन्त, आर्यों के मुनि परम्परा प्राग्वैदिक रही होगी। 'ऋषि परम्परा और प्राचीन साहित्य में निवत्ति विरोधी विचार इतने प्रबल मुनि परम्परा के संबंध में, संक्षेप में हम इतना ही कहना हैं कि निवृत्तिवादी दृष्टिकोण को आर्येतर माने बिना चाहते हैं कि दोनों की दृष्टियों में हमें महान भेद प्रतीत काम चल नहीं सकता।
होता है। जहाँ एक का झुकाव (आगे चलकर) इसीप्रकार ऋषि और मुनि शब्दों का युग्म भी
हिंसामूलक मांसाहार और तन्मूलक असहिष्णुता की विचारणीय है। ऋषि शब्द का मौलिक अर्थ मन्त्रदृष्टा
ओर रहा है, वहीं दूसरी का अहिंसा तथा तन्मूलक है, किन्तु मन्त्रों के द्रष्टा होने पर भी वैदिक ऋषि गृहस्थ
निरामिषता तथा विचार-सहिष्णुता (अथवा होते थे और सामिष आहार से उन्हें परहेज नहीं था।
अनेकान्तवाद) की ओर रहा है। इनमें से एक मूल में पुराणों में ऋषि और मुनि शब्द प्राय: पर्यायवाची समझे
वैदिक और दूसरी मूल में प्राग्वैदिक प्रतीत होती है।'
(डॉ. मंगलदेव शास्त्री)। इस अनुमान की पुष्टि इस बात गये हैं, फिर भी विश्लेषण करने पर यह पता चल जाता
से भी होती है कि महंजोदरो की खुदाई में योग के प्रमाण है कि मुनि गृहस्थ नहीं होते थे। उनके साथ ज्ञान, तप, योग और वैराग्य की परम्पराओं का गहरा संबंध था।
मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ऋषि और मुनि दो भिन्न संप्रदायों के व्यक्ति समझे जाते
थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी थे। ‘मुनि शब्द का प्रयोग वैदिक संहिताओं में बहुत
प्रकार लिपटी हुई है, जैसे कालान्तर में वह शिव के ही कम हुआ है। होने पर भी उसका ऋषि शब्द से कोई
साथ समन्वित हो गयी। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों संबंध नहीं है।' (डॉ. मंगलदेव शास्त्री)। पुराणों में
का यह मानना अयुक्ति-युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव, ऋषि और मुनि के प्रायः पर्यायवाची होने का एक
वेदोल्लिखित होने पर भी वेद पूर्व हैं। . कारण तो यही मानना होगा कि पुराणों का आधार
। 'संस्कृति के चार अध्याय' वैदिक और प्राग्वैदिक संस्कृतियों का समन्वित रूप है।
पृष्ठ ३०-३३ से साभार (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद)
जिस जीवन के लिए प्राणी महान पाप करके धन उपार्जित करता है, वह जीवन शरद ऋतु के मेघ के समान शीघ्र नष्ट हो जाता है।
कदाचित् बालू में पानी और आकाशपुरी में महापुरुष भले ही प्राप्त हो जावें, परन्तु इस असार संसार में सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता।
'वीरदेशना' से साभार
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/13
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
। पहली प्रतिमा काम सम्पन्न ।
बाहुबली प्रतिमा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
श्रीमती चन्द्रकला जैन
श्रवणबेलगोला के गोम्मटेश्वर बाहुबली भगवान १२००० मुनियों के संघ सहित दक्षिण भारत चले गये। की पावन प्रतिमा ने १०२५ वसन्त, हेमन्त, ग्रीष्म, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी भद्रबाहु मुनि से दीक्षा ग्रहण शरद, शिशिर काल देखे तथा मध्य युग में सहस्र जीवन कर ली और मुनि संघ के साथ वह दक्षिण भारत चले संघर्ष, उत्थान-पतन, सुख-दुःखमूलक परिसर-परिवेश गये। देखे। उस पावन प्रतिमा की आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त
भद्रबाहु ने विशाख मुनि को मुनिसंघ का आचार्य चक्रवर्ती के सान्निध्य में सेनापति चामुण्डराय ने सन् पद देकर मुनिसंघ को चोलपाण्डय आदि राज्यों की ९८१ ई. में अपनी माता के निमित्त इन्द्रगिरि पहाड़ी यात्रा के निमित्त भेज दिया और स्वयं वन प्रवर्जित मुनि पर प्रतिष्ठा सम्पन्न करायी थी।
चन्द्रगुप्त के साथ कटवप्र पर्वत पर रुक गये। वहाँ गोम्मटेश्वर और श्रवलबेलगोला दोनों ही शब्द उन्होंने तपस्यायें की और आयु के अंत में समाधिकन्नड़ भाषा के हैं। कन्नड़ में “बेल" का अर्थ है सफेद मरणपूर्वक प्राणों का विसर्जन किया। गुरु के पश्चात्
और “गोल” का अर्थ है सरोवर। सफेद मूर्ति और भी चन्द्रगुप्त उसी पहाड़ी पर १२ वर्षों तक कठिन कल्याणी सरोवर के मेले से इस स्थान को श्रवणबेलगोला तपस्याओं की साधना करते रहे। उन्होंने भी समाधिकहते हैं। यहीं कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान बाहुबली की मरण द्वारा देह त्याग का लाभ लिया। जिस पहाड़ी पर विशाल मूर्ति उत्तर दिशा की ओर उन्मुख विराजमान श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रमुनि ने तपस्या की, उसका है। वह मानव जाति को संसार की अनित्यता का मौन नाम बाद में चन्द्रगिरि पड़ा। जिस गुफा में वे निवास संदेश दे रही है। हिंसा-अहंकार, माया-लोभ की करते थे, उसका नाम चन्द्रगुफा पड़ा। निस्सारता का उज्वल दृष्टान्त प्रस्तुत कर रही है और आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जब युवराज थे, लोगों का भक्ति और मुक्ति तीर्थ बनी हुई है। तब उनका विवाह कच्छ और महाकच्छ राजा की
विन्ध्यगिरि दक्षिण विस्तार में इन्द्रगिरि राजकुमारियों यशस्वी और सुनन्दा से हुआ। यशस्वी (दोड्डगिरि) और चन्द्रगिरि (चिक्कवेट) नाम की से भरतादि एक सौ पुत्र और ब्राह्मी नामक कन्या एवं पहाड़ियों की तलहटी में स्थित वसती (बस्ती) का नाम सुनन्दा से एक पुत्र बाहुबली और सुन्दरी नामक कन्या श्रवणबेलगोला है। इसका शांत वातावरण समशीतोष्ण का जन्म हुआ था। जब महाराज ऋषभदेव को नीलांजना ऋतुएँ साधकों के लिए अति अनुकूल हैं। इसे दक्षिण का नृत्य देखते-देखते वैराग्य हो गया, तब वे युवराज काशी, जैनबद्री, देवलपुर और मोहम्मदपुर भी कहा भरत को उत्तराखण्ड का और राजकुमार बाहुबली को जाता है।
दक्षिण का शासन सौंपकर स्वयं मुनि दीक्षा लेकर उत्तर भारत में जब १२ वर्षों के अकाल की तपस्या करने वन खण्ड को चले गये। संभावना श्रुतकेवली भद्रबाहु को लगी तो मुनि भद्रबाहु महाराजा भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/14
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रगट हुआ। उन्होंने चतुरंगिणी सेना के साथ छह खण्ड पृथ्वी पर दिग्विजय की। लौटने पर राजधानी अयोध्या के प्रवेश द्वारा पर चक्ररत्न अटक गया। एक भी शत्रु शेष रहने पर चक्ररत्न राजधानी में प्रवेश नहीं करता है। विचार-विमर्श पश्चात् ज्ञात हुआ कि महाराजा भरत
अनुज पोदनपुर के महाराजा बाहुबली ने अभी तक महाराजा भरत की अधीनता स्वीकार नहीं की है, जिससे उनका चक्रीत्व पूर्ण न होने से चक्ररत्न राजधानी में प्रवेश नहीं कर पा रहा था ।
भरत ने अनुज बाहुबली को कहलाया कि बाहुबली आकर मेरे चक्रीत्व यज्ञ का स्वयं समापन करें। तब बाहुबली ने इसको धमकी समझा। तब बाहुबली ने अपने दूत से कहलवा दिया कि पोदनपुर का शासन स्वतंत्र है और रहेगा, उसे अधीनता स्वीकार नहीं है। वह अपनी महत्ता युद्धभूमि में स्वीकार कराये । दोनों ओर की चतुरंगिणी सेनायें रणभूमि में आ जुटी, तब मंत्रिपरिषद्, सेनाध्यक्ष और सेनापतियों का मण्डल वहाँ एकत्रित हो गया। युद्ध आरम्भ होने वाला ही था, तभी सेनापतियों ने कहा - सगे भाईयों के युद्ध में हम सेनापति सम्मिलित नहीं होंगे। द्वन्द्व युद्ध से वे लोग जय-विजय का स्वयं निर्णय करें। तब दोनों भाईयों ने मंत्रिपरिषद् और सेनापतियों की बात से सहमति जताई और द्वन्द युद्ध की घोषणा कर दी। जिसमें जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध निश्चित हुए। तीनों युद्ध में बाहुबली विजयी रहे, फिर पराजित भरत ने बाहुबली पर चक्र
घात किया। लेकिन चक्र बाहुबली की तीन प्रदक्षिणा करके भरत के पास लौट गया और बाहुबली की जयपराजय से आकाश गुंजायमान हो गया। भरत ग्लानि से क्षुब्ध मलिन मुख लिए पृथ्वी को देखते खड़े थे। वह चाह रहे थे कि पृथ्वी फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ ।
दूसरी ओर बाहुबली के मस्तिष्क में द्वन्द्व मचा हुआ था । ज्येष्ठ भ्राता ने सत्ता के लोभ में विवेक को भुला दिया है। यही महत्वाकांक्षा विनाश की मूल है।
मेरा मार्ग पिता वाला है, मुनिदीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने का है। मैंने राज्य संपदा के लोभ में आकर बड़े भाई भरत का अपमान कर अपकीर्ति कमाई । मैंने बाहु बल के अहंकार से द्वन्द्व युद्ध किया है। मुझे उनके चक्रीत्व यज्ञ में सहायक होना चाहिए था, किन्तु मैंने विघ्न डाला। मेरे पिता ने जिस राज्य संपदा को तृण समान समझ कर त्यागा था उसी का मैं लोभी बना। धिक्कार है मुझे, मैं अब इस मायावी का त्याग कर मुनि दीक्षा लूंगा और कठिन तपस्याओं की आराधना साध मोक्ष संपदा का वरण करूँगा। बाहुबली भरत के चरणों से लिपट क्षमा- पश्चाताप के आंसू बहा रहे थे। मेरे अहम् ने मुझसे ये सारे अकृत्य कराये हैं, आपको शारीरिक और मानसिक क्लेश मैंने दिया है। हमारे ९९ भाईयों और दोनों बहिनों ने पिता के महान विचारों को समझा और उनका पथ अनुसरण किया। उस आदर्श को मेरे अहंकार ने मुझे भुलवा दिया था। आज मेरी आँखें खुल गई हैं। मैं वन को जा रहा हूँ, मुनिव्रत धारणकर मोक्ष प्राप्त करूँगा। तभी स्वयं चक्रवर्ती भरत, उपस्थित मंत्रिपरिषद्, सेनानायक, सैनिक उपस्थित प्रजागण सभी के द्वारा बाहुबली की जयकार से गगन गुंजित हो उठा ।
तभी वह कामदेव की साक्षात् प्रतिमूर्ति सारे राजसी ठाठ-बाटों को छोड़कर वन को प्रस्थान कर गये । गहन वन के मध्य पहुँच कर महाराजा बाहुबली ने अपने राजसी वस्त्राभूषणों को उतार फेंका, दिगम्बर बन गये और शिलाखण्ड पर पालथी मार कर बैठ गये हाथों की मुट्ठियों से कुन्तल केश राशि उखाड़ फेंकी और वहीं पर खड्गासन में खड़े हो गये। तीन बार “ॐ नमः सिद्धेभ्यः” कह कर ध्यानस्थ हो गये। दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष, मास पर मास बीतते रहे । ऋतुओं जाड़ा-गर्मी, वर्षा के झंझावात आये, चले गये । परन्तु तपस्वी अचल- अटल बना उसी भूमिखण्ड तपस्या में लीन रहा। कंटीली वन लतायें जांघों से होती बाहुओं से लिपटती कानों तक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/15
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
के पधारे
ला
पहुँच रही थीं। पांवों के पंजों के निकट बिच्छु, सर्प और दी कि जो भगवान बाहुबली की तीर्थयात्रा को चलना चीटियाँ बिल बनाकर बसेरा ले रही थे, परन्तु बाहुबली चाहे नि:संकोच चल सकता है। गंगवंशीय नरेश राचमल उग्र साधना में दत्तचित्त लगे थे।
य संघ तब चकवर्ती भारत ने तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के सहित नित्य आगे बढ़ते मंजिल पार कर रहे थे। एक समवशरण में जाकर अरहंत भगवान से जिज्ञासा प्रकट दिन ऐसा आया कि उस दुर्गम पथ पर अनेक प्रयासों की. कि भगवन ! तपस्वी बाहबली को इतनी कठोर के बाद भी आगे बढ़ना असंभव हो गया। तब वह तपस्या के बाद भी कैवल्य क्यों नहीं हो रहा है? इन्द्रगिरि पर विचार-विमर्श के लिए रुक गये। दिनभर तीर्थंकर की वाणी खिरी - वत्स ! तपस्वी बाहबली के विचार विनिमय के पश्चात् भी कोई समाधान न के मन में एक भारी शल्य चुभ रही है कि मैं जिस भूमि निकला, तभी रात्रि में सब लोग निद्रा में अलमस्त थे, पर खडा हँ. वह चक्रवर्ती भरत की है। जिस समय उन्हें तब शासन देवी ने आचार्य नेमिचन्द्र, चामुण्डराय और इस शल्य का समाधान मिल जायेगा. उसी समय उन्हें उनकी माता को एक साथ स्वप्न देकर कहा कि कल मोक्ष हो जायेगा। तब भरत चक्रवर्ती ने समवशरण से प्रात:काल ऊषावेला से पूर्व अपने सब नित्य कर्मों से सीधे बाहुबली के चरणों में साष्टांग नमस्कार करते हुए निवृत्त होकर इन्द्रगिरि की सबसे ऊँची चोटी पर चढ़कर कहा - भगवन् ! आप कहाँ भूले हुए हैं। यह पृथ्वी चामुण्डराय सामने वाली बड़ी पहाड़ी सबसे ऊँची चोटी न कभी किसी की रही है, न कभी रहेगी। आप इस की बड़ी शिला का छेदन स्वर्ण बाण से कर दे। भगवान बात का त्याग करें कि यह धरती भरत की है। यह सुनते बाहुबली की प्रतिमा के संघ को दर्शन होंगे। ही तपस्वी बाहुबली को कैवल्य प्राप्त हो गया। इन्द्र ने शासन देवी के आदेशानुसार पुलकित मन से देवपरिषद् के साथ आकर भगवान बाहुबली का कैवल्य चामुण्डराय ने स्वर्ण बाण से सामने वाली पहाड़ी की महोत्सव उस भूमि पर मनाया और भरत चक्रवर्ती ने सबसे ऊँची और बड़ी चट्टान को बींध दिया। दशों उस तपस्या भूमि पर रत्नों से उनके कद की प्रतिमा का दिशायें प्रतिध्वनित हो उठीं। बींधी शिला की परतें झरने निर्माण करा कर उस भूमि पर उसकी स्थापना कर उस का क्रम कुछ देर तक चला और उस शिला में कामदेव स्थल को तीर्थधाम बना दिया। दूर-अतिदूर से भक्त सरीखा अति सुन्दर एक मुख बाहुबली भगवान का जन वहाँ की यात्रा के लिए आने लगे, लेकिन कालक्रम प्रगट हो गया। संघ ने भगवान बाहुबली की प्रतिमा के ने उस तीर्थधाम पर अपनी काली छाया बिखेरना आरंभ मुख दर्शनकर अपने को सराहा। भगवान गोम्मटेश्वर कर दिया। वह तीर्थ दुर्गम बन गया। मार्ग पर यात्रियों के जयकार से दोनों पहाड़ियाँ गुंजायमान हो उठीं। जय का आना-जाना बंद हो गया।
गोम्मटेश्वर, जय बाहुबली। एक दिन श्री आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती चामुण्डराय ने मूर्ति बनाने के लिए शिल्पियों ने अपने शिष्य वीरवर चामुण्डराय की माता को उस को बुलाया। जैसी मूर्ति की आकृति बताई गई, तीर्थ की महानता का बखान सुनाया। माता प्रतिज्ञा से शिल्पकारों की छैनी उस बड़ी चट्टान को काटकर वैसी बैठी कि मैं जब तक उस तीर्थ की यात्रा कर उस ही आकृति बनाने में दत्तचित्त हो गई। चामुण्डराय ने बाहुबली भगवान की प्रतिमा के दर्शन न कर लूंगी, तब अपने राज्य के प्रधान शिल्पी अरिष्टनेमी को यह कार्य तक दूध और दूध से निर्मित वस्तुओं का उपभोग नहीं सौंपा था, उसे मुँह माँगा स्वर्ण देने की स्वीकृति दी थी। करूँगी। चामुण्डराय को माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हुई। उन शिल्पकारों ने तन्मयता से ५७ फुट उन्नत कामदेव उन्होंने नगर और निकटवर्ती स्थलों में घोषणा करवा सरीखी मानव आकृति को संतुलित रूप में सृजित कर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/16
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुनिया का आठवाँ आश्चर्य बना दिया। ऐसी प्रतिमा तैयार हुई कि चामुण्डराय की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था। उनके मन में अहं पैदा हुआ कि यह प्रतिमा मैंने बनवाई है। मूर्ति स्थापित हो जाने के बाद चामुण्डराय ने अभिषेक के लिए मनों दूध एकत्र कराया, पर उस दूध से मूर्ति की जंघा से नीचे का अभिषेक नहीं हो सका। गुरु की सलाह पर एक वृद्धा, जिसका सरल मन निष्काम भक्ति-भाव, अगाध वात्सल्य से अभिषेक के लिए एक दूध का कटोरा लाई थी। उसके दूध के कटोरे से अभिषेक कराया गया तो वह दूध पूरे शरीर पर पहुँच गया, तब चामुण्डराय का मान गल गया और सरलता के पुजारी बन गये । इस प्रकार से ५७ फुट उन्नत नग्न बिना आधार की यह प्रतिमा पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर आज एक हजार से अधिक वर्षों से भारतीय और विदेशी भक्तों का तीर्थधाम बनी हुई है। यह धाम
आज अन्तर्राष्ट्रीय तीर्थस्थल है। प्रतिमा के मस्तकाभिषेक की परम्परा प्रतिमा के स्थापना दिवस से १२ वर्षों के बाद की है।
सन् १९५२ ई. के मस्तकाभिषेक के अवसर पर मैसूर नरेश श्रीमन्त महाराज कृष्णराज ने कहा था - "जिस प्रकार भगवान बाहुबली के अग्रज चक्रवर्ती भरत ने साम्राज्य के अनुरूप इस देश का नाम भरत, बाद में भारतवर्ष कहलाया, उसी प्रकार यह मैसूर राज्य की भूमि भी भगवान गोम्मटेश्वर के आध्यात्मिकसाम्राज्य की प्रतीक है।”
अतः आज हमें १०२५ वर्ष के महोत्सव की में अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए आनन्द पवित्र बेला में भगवान बाहुबली गोम्मटेश्वर के चरणों की प्राप्ति हो रही है।
-
- बी-४१७, प्रधान मार्ग, मालवीय नगर, जयपुर १७
वीर - प्रार्थना
→ पं.अनूपचन्द न्यायतीर्थ
हे सन्मति ! सन्मति दो सबको, विघ्न समूल नष्ट हो जाय सत्य, अहिंसा फैल जगत में, सच्चे सुख का बोध कराय जिस बिहार के कुण्ड ग्राम में, जन्म लिया था वह अब आज धूं-धूं कर जल रहा समूचा, आतंकित है पूर्ण समाज फैल रही हैं लपटें उसकी, सारा देश भस्म हो जाय बचा सके उपदेश आपके, ऐसा कोई करो उपाय मानव में मानवता आवे, मानस में हो प्रेम प्रचार रूढ़ि अंध विश्वास मिटे सब, बन जावे हर व्यक्ति उदार लूट पाट अन्यायी चोरी, दूर भगा दे भ्रष्टाचार
पर उपकार भावना जागे, कष्टों से हो बेड़ा पार
दीन दुखी दलितों की सेवा करने में होवे विश्वास
बैर परस्पर भूल जाय सब, विश्व मैत्री होय विकास
७६९, गोदीकों का रास्ता, किशनपोल, जयपुर (राज.) ३०२००३
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/17
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैशाली में अनुभूत करें महावीर दर्शन
0 डॉ राजेन्द्र कुमार बंसल
.. श्रद्धा के दीपक कई प्रकार के होते हैं। कुछ यह बात अलग हैं कि जिसको वे दैनिक जीवन जलते ही बुझ जाते हैं, कुछ अधजले बुझ जाते हैं और में जीते हैं या अपनाये हुए हैं, उसे वे उन शब्दों या कुछ ऐसे अद्भुत होते हैं जो सदियों तक एक दीप से संज्ञाओं में अभिव्यक्त नहीं कर सकते, जो शास्त्रों में दूसरे दीप को जलाते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी अनवरत जलते निहित है। ही रहते हैं और भविष्य में भी जलते रहेंगे। इसीप्रकार
इस विवाद को दृष्टि ओझल कर कि भगवान कुछ जन्म जयन्तियाँ या विशिष्ट दिवस (जैसे दीक्षा या
महावीर की जन्मभूमि विदेह-कुण्डपुर कहाँ है? लेखक आचार्यारोहण आदि) केन्द्रित होते हैं, जहाँ-जहाँ व्यक्ति
श्री अखिल बंसल तथा डॉ. ऋषभ चन्द्र फौजदार ने जाता है उसकी उपस्थिति में वहाँ मनाते हैं। कुछ जन्म निर्णय किया कि वैशाली के जन जीवन पर महावीर जयन्तियाँ पंथ या सम्प्रदाय के विशेष के सदस्य मनाते
के प्रभाव का मूल्यांकन किया जाये। इस दृष्टि से दिनांक हैं। जैसे कबीर, हनुमान, बुद्ध जयन्तियाँ आदि तथा
१३ एवं १४ फरवरी २००४ को वासोकुण्ड वैशाली के कुछ जन्मजयन्तियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें सभी वर्ण और जातियों के व्यक्ति स्व- प्रेरणा से प्रतिवर्ष पीढ़ी दर पीढ़ी
बुद्धजीवियों, राजनियकों और विविधस्तरीय नागरिकों
का साक्षात्कार किया और वैशाली जनों की सभ्यता मनाते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी जलने वाले श्रद्धा के दीप और
संस्कृति, सधर्मपना, प्राकृतिक मनोहारी पर्यावरण आदि पीढ़ी दर पीढ़ी सभी के द्वारा मनाई जाने वाली जन्म
के आह्लादकारी अनुभव सर्व-हिताय प्रस्तुत हैं। जयन्तियाँ या अन्य उत्सव उस महान व्यक्तित्व की विराटता के सचक हैं. जिसने अपनी आत्मीक शक्ति १. महावीर सब के थे, सब के लिये थे और के दिव्य साये में अनवरत प्रवाह रूप से सभी जीवों सर्व काल सब के रहेगे- इसकी पुष्टि हुई दो वीघा पवित्र की पीड़ा को अपने में छुपा कर समानता, भ्रातत्व भाव, अहिल्य भूमि से जो महावीर की जन्म स्थली के रूप समता, सहिष्णुता, संयम, त्याग, अविरोध समर्पण में वासोकुण्ड में लगभग डेढ सौ पीढ़ियों से बिनासहजता का संदेश दिया है। ऐसा विराट व्यक्तित्त्व है जुती, पावन, पीडाहारी मानी जाती है। इस पवित्र भूमि वर्द्धमान-महावीर का जिसका, अनुभव होता है वैशाली पर चैत्र सुदी तेरस के दिन सैकड़ों नागरिक जाति-भेद जिला स्थित वासोकण्ड, और वैशाली जिला वासियों भूलकर जलूस रूप में जाते हैं, अक्षत अर्पित कर वहाँ के हृदय पटल पर जो सदियों से वर्ण-जाति का भेद की पावन मिट्टी मांथे पर लगाते हैं और अपने श्रद्धाभुला कर अपने आराध्य वर्द्धमान-महावीर को जीवन सुमन अपने आराध्य महावीर को समर्पित करते हैं। की श्वासों में स्पंदित होते देखे जाते हैं। जैनत्व कहिये इसमें सभी वर्ण के व्यक्ति सम्भवित होते हैं। यह जानने या महावीर के दर्शन-सिद्धान्तों को यथार्थ जीवन में योग्य है कि ७ वीं शताब्दि के वाद वहाँ कोई जैनधर्मी उतारने की सहजकला, वैशाली वासियों में सहज देखी निवास नहीं करता। सन् १९४५ से जन्म-जयंति की जा सकती है।
शोभायात्रा महावीर भक्तों द्वारा बौना (बावन) पोखर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/18
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन मंदिर से तीन किलोमीटर दूर वासोकुण्ड तक विशेषता इस दृष्टि से सहज परिलक्षित होती है। वैशाली प्रात:काल निकलती है।
वासी अतिथियों को कुछ न कुछ खिला कर ही विदा २. दीपावली के दिन, जो महावीर का निर्वाण करते हैं। दिवस है, वहाँ के लोग अहिल्य भूमि जाकर दीपक ७. धर्म और धार्मिकता का आधार सत की जलाते हैं और अपने आराध्य को नमन करते हैं। स्वीकृति पवित्र भाव, पवित्र भावना त्याग और समर्पण
३. शादी-विवाह के अवसरों पर अहिल्य भमि है। यह गुण वैशाली वासियों में विद्यमान हैं । वे गुणग्राही जाकर नमन करते हैं, अगरवत्ती जलाते हैं। हैं और सहज ईर्ष्या भाव से मुक्त हैं। अपने आराध्य
को समर्पित हैं। ४. महावीर ने कहा कि सभी जीव समान हैं। व्यक्ति अपने कर्म से छोटा-बढ़ा होता है। सब के मध्य
इसका एक प्रमाण है वहाँ के साधनहीन एवं सद्भाव-सहिष्णुता होना अपेक्षित है। इसकी पुष्टि होती
साधारण गृहस्थ जीवन चलाने वाले क्षत्रिय परिवारों के है अहिल्य भूमि के सामने प्रति वर्ष श्रावण शक्ला के महामना महानुभाव जिन्होंने अपनी दो वीघा अहिल्य प्रथम मंगल या शनिवार को, जब सभी वर्ण-जातियों
भूमि ‘भगवान महावीर' को दान में समर्पित करदी। के व्यक्ति सर्व भेद भूलकर एक झंडे के नीचे महावीर
इतना ही नहीं जब वैशाली में प्राकृत शोध संस्थान की एवं अन्य देवताओं की जय बोल कर परस्पर प्रसाद
स्थापना का प्रस्ताव आया, तब वहाँ के सामान्य निर्धन
भू-स्वामियों ने अदम्य उत्साह के साथ बिना किसी फल वितरण कर खाते हैं। इस जन समूह में पासवान
प्रसिद्धि या प्रलोभन के अपनी प्राणप्यारी भूमि दान में (हरिजन) क्षत्रिय, कहार, ब्राह्मण, कुम्हार, मुसलमान, भूमिहार आदि सभी सम्मलित होते हैं और ऊँच
समर्पित करदी। इन दान दाताओं में पासवान (हरिजन) नीचगत भेद भूल कर प्रसाद ले-देकर खाते हैं सर्व
मुसलमान आदि भी सम्मलित थे। ये दान कर्ता हैं -
अभूचक ग्राम वासी सर्व श्री काली साह, जनक राय, समानता और अपनत्व की ऐसी मिशाल दुर्लभ है।
महावीर राय, मूसाराय और याकूवमियाँ; फतेहपुर ५. वैशाली के जन जीवन में महावीर के सत् निवासी केशव नारायण सिंह, वासोकुण्ड निवासी सर्वश्री - सत्य स्वरूप, सदाचार, सद्भाव, सहिष्णुता, खेलावनसिंह, दहाउर पासवान, बिजलीसिंह, महावीर अविरोध आदि सिद्धान्तों का विशेष महत्व है। ब्रह्मचर्य पासवान, महावीर सिंह, महेन्द्रसिंह और शांतिसिंह व्रत का व्यापक प्रभाव वहाँ के जन-जीवन में देखने तथा इब्राहिमपुर निवासी श्री नथुनी सिंह। इनमें कोई को मिला। क्षत्रिय, भूमिहार -जथरियों की प्रत्येक भी धार्मिक नहीं था। सभी साधारण गृहस्थ थे किन्तु पीढ़ी में एक-दो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत लेते हुए चले आ उनकी दानशीलता के समक्ष हमारा दान-अहंकार सहज रहे हैं। अन्य जातियों में भी इस व्रत का अस्तित्व देखा ही गलित हो जाता है। सभी को नमन । गया।
८. गृहस्थों के आत्म विकास के लिये महावीर ६. जैनाचार के व्रतों में अतिथि संविभाग व्रत ने ग्यारह श्रेणियाँ-प्रतिमाएँ निर्धारित की। इनमें सातवीं का विशेष महत्व है। इसी व्रत के आधार पर श्रमण ब्रह्मचर्य और दशवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है। वैशाली चर्या अवलंबित है। वैशाली में परम्परा से 'अतिथि के लोक जीवन में उनका विशिष्ट स्थान है। प्रत्येक देवो भव:' के अनुसार अतिथियों को देव तुल्य मान परिवार में वृद्ध पुरुष का विशेष सम्मान करते हैं। उसे कर उनका सत्कार किया जाता है। अतिथियों का परिवार से पृथक अकेले में रखकर उसकी सेवा करते सम्मान करने वाली नारियाँ भी शिष्ट-शालीन होती हैं। हैं ताकि वह गृह-गृहस्थी के झंझटों से मुक्त रहे । यथा गंगा नदी के उत्तर और दक्षिण भाग के जन मानस की समय बिना मांगे भोजन-पानी, दवाई एवं सेवा आदि
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/19
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वत: करते हैं। यह जैनाचार की १०वीं प्रतिमा के अनुरूप आचरण है। जहाँ वृद्ध पुरुष रहते हैं उसे बथान कहते हैं। यह परम्परा प्रायः प्रत्येक परिवार में होती है।
९. महावीर के सिद्धान्तों का आधार है अहिंसाअपरिग्रह आत्म-साधना । अहिंसा में भी द्रव्य-अहिंसा के साथ भाव-अहिंसा का विशिष्ट महत्व है। किसी को भावात्मक रूप से पीड़ा न हो, इसका आधार सूत्र है - अविरोध, सहिष्णुता, सद्भाव और आत्मनिष्ठा । महावीर ने अपने जीवन में कभी किसी का विरोध, बहिष्कार, तिरष्कार नहीं किया। मात्र अपनी सत्स्वरूप की बात कहीं, उसी से जो उनके पास गया जो जैसा विद्यमान था, उसे कहा। किसी में फेरफार या परिवर्तन की बात नहीं कही। उन्होंने अपनी ओर से किसी को आमंत्रित नहीं किया। पूछे जाने पर महावीर ने सहज भाव से वस्तु स्वरूप का यथार्थ कथन किया। विरोध बहिष्कार हिंसा सूचक है। उनके जीवनकाल में अनेक एक पक्षीय मत-मतांतर, कथित सर्वज्ञ - तीर्थंकर घोषित हुए, किन्तु उन्होने किसी को चुनौती नहीं दी। जो महावीर से द्वेष रखते थे; उन्हें भी समत्व भाव से देखासत्स्वरूप समझा इस भाव का प्रत्यक्ष में अनुभव होता वैशाली वासियों में महावीर क्षत्रिय काश्यपगौत्री थे। विद्यमान क्षत्रिय काश्यपगौत्री अपने को महावीर का वंशज कहते हैं । महावीर ज्ञातृ-नाथ कुल के थे। विद्यमान जथरिया जाति के व्यक्ति अपने को महावीर को वंशज मानते हैं। अन्य जाति के उन्हें अपना आराध्य मानते हैं, वे जैन नहीं हैं। वे एक दूसरे की मान्यता से परिचित हैं किन्तु परस्पर किसी का विरोध या बहिष्कार नहीं करते। सब के प्रति सद्भाव सहिष्णुता बनाऐ रखते हैं, क्योकि उनके अनुसार विरोध और असद्भाव भावहिंसा है जो महावीर के दर्शन के विपरीत है, असहज है । सब के व्यवसाय अलग हैं, परिस्थितियाँ अलग हैं किन्तु उनमें परस्पर अविरोध-भाव विद्यमान है। अहिंसाभाव अहिंसा के सूत्र विद्यमान हैं। इसी कारण वैशाली में कभी धार्मिक उन्माद रूप संघर्ष विरोध नहीं हुआ। विभिन्न धर्मों के बीच या एक ही धर्म के विविध पक्षों
के बीच द्वंद नहीं हुआ, बुद्ध वैशाली के विध्वंस के अप्रत्यक्ष निमित्त बने थे, जो उनकी कर्म भूमि थी। यह जानते हुए भी महावीर और बाद में वैशाली वासियों ने बौद्धों और बुद्ध का विरोध या बहिष्कार नहीं किया, किन्तु सहज रूप से बुद्ध को भुला दिया। बौद्ध स्तूप हैं किन्तु बौद्ध नहीं । महावीर का कोई मंदिर या जैन नहीं, किन्तु वैशाली के लोक जीवन में जन-मन में २६०० वर्ष बाद भी महावीर विद्यमान हैं और आगे अनेक सहस्रों वर्षों तक विद्यमान रहेंगे। यह है अहिंसा का जीवंत व्यवहारिक रूप। जैन कुल में अपने जैन कहने वालों से आग्रह विनम्र अनुरोध है कि वे अपनी ओर देखें और निर्णय करें कि कौन महावीर के दर्शन की यथार्थ भूमि पर खड़ा है। यह कैसा समाज जो मतधारा-विचारधारा, पूजा पद्यति की भिन्नता, साधुओं के व्यक्तित्व की निष्ठा एवं अन्य क्षुद्र कारणों से एकदूसरों को अपमानित या बहिष्कार करता है और शांति की रक्षा हेतु राज्यशासन या पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ता हो । विग्रह एवं विद्रोह, पुरस्कार और तिरस्कार, पक्षपात, गुटबाजी, चालाकी भरी प्रवृत्तियाँ मानव जीवन की भीषण त्रासदी हैं जिसका महावीर से दूर का भी सम्बन्ध नहीं। महावीर की अहिंसा का प्रत्यक्ष अनुभव वैशाली के जन-जीवन में अनुभूत करना इष्ट है।
१०. जीवन का जो सूत्रधार प्रेरणा स्रोत होता है वह जीवन की हर श्वास को स्पंदित करता है। वैशाली ही क्या सम्पूर्ण विहार में चैत्र माह उल्लास पूर्वक मनाया जाता है, जिसमें चैतागीत गाये जाते हैं। चैत्र मास भगवान राम और महावीर का जन्म माह है। महावीर भी चैता में स्मरण किये जाते हैं। एक नमूना, वहाँ की वज्रिका लोकभाषा में। कहवाँ खरौना,
बौना खम्भा अशोक बाटे काहे बाटे वासो कुण्ड नगरिया हो रामा
इहवाँ खरौना,
बौना खम्भा अशोक बाटे, यहाँ बाटे
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/20
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
वासो कुण्ड नगरियाँ हो रामा
इहवाँ भइले महावीर जनवाँ हो रामा । ११. बौना पोखर में दो फुट अवगाहना की गुप्त कालीन श्यामवर्णीय अतिशयकारी अति मनोज्ञ भगवान महावीर की प्रतिमा अन्य वैष्णव प्रतिमाओं के साथ प्राप्त हुई जिसे स्थानीय लोगों की भावनानुसार वहीं जैन मंदिर बना कर स्थापित करदी । इस मंदिर से ही प्रतिवर्ष महावीर की जन्म-जयंति की शोभा यात्रा अजैन बन्धुओं द्वारा प्रारम्भ कर वासो कुण्ड तक जाती है।
राजबहादुर,
१२. देश के प्रतिष्ठा प्राप्त राजनेता, दार्शनिक, इतिहासज्ञ, विधिवेत्ता न्यायाधिपति, सरस्वति पुत्र और धर्माचार्य सभी ने धर्म-जाति का भेद भुला कर वैशाली वासोकुण्ड के महावीर को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये। इनमें प्रमुखतम हैं - सर्वश्री देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी, डॉ.राधा कुमुद मुखर्जी, डॉ. कृष्णसिंह, डॉ. के. एम. मुशी, डॉ. कैलाश नाथ काटजू, डॉ. हीरालाल जैन, आर. आर. दिवाकर, डॉ. जाकिर हुसैन, डॉ. सम्पूर्णानन्द, पं. विनोदानन्द झा, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, मद्भूषि अनन्त शयनम् आयंगर, विजयेन्द्रसूरि, आचार्य तुलसी (दो बार ), कृष्णवल्लभ सहाय, विद्या चरण शुक्ल, डॉ. कर्णसिंह, दरोगा प्रसाद राय, देवकान्त बरुआ, आर. डी. भण्डारे (दो बार ), डॉ. प्रतापचन्द्र चन्द्र, न्यायमूर्ति भुवनेश्वर प्रसाद सिंह, न्यायमूर्ति कृष्ण वल्लभ नारायण सिंह, सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. सुविमल चन्द्र सरकार, डॉ. ए.आर. किदवई (५बार), डॉ. जगन्नाथ मिश्र, विन्देश्वरी दुवे (दो बार), डॉ. शंकर दयाल शर्मा, भागवत झा आजाद, राजीव गांधी, जगन्नाथ पहाडिया, लालू प्रसाद यादव,(कई बार ), मोहम्मदशफी कुरैशी, फिल्म अभिनेता सुनीलदत्त, बैजयन्ती माला, , जैनाचार्य भरत सागार जी, आनन्द सागर जी मौन प्रिय, डॉ. योगेद्र मिश्र, जे. सी. माथुर अन्य अनेकों केन्द्रीयप्रांतीय मंत्रीगण अधिकारी आदि । अभी दि. १०/ २।०४ को विद्यमान प्रधान मंत्री अटल विहारी वाजपेयीजी ने वैशाली रेलवे स्टेशन का शिलान्यास
किया। महावीर की जन्म भूमि और भारतीय गणतंत्र की पुरोद्या वैशाली का आकर्षण सभी को वहाँ खींच लाती है। महावीर का सिद्धान्त अहिंसा अविरोध और हितों की रक्षा ही हमारी देश नीति का केन्द्र बिन्दु है ।
१३. सर्व श्री नागेन्द्र सिंह, भूतपूर्व विधायक महावीर की वैज्ञानिकता और आदर्श के गीत लिखते हैं। श्री अमीर नाथ मिश्र मधुवन ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा महावीर को समर्पित की है। वे गीत लिखते हैं और जनता को प्रेरित करते हैं । ज्ञी अनिल कुमार सिंह वासोकुण्ड (महावीर वंशज) वर्द्धमान महावीर शिशु विद्यालय - स्वचालित में छात्रों को महावीर की शिक्षा देते हैं। बुद्धटोला के निवासी शाकाहारी एवं अस्तेय व्रतधारी हैं। विदेशी पर्यटक वासोकुण्ड स्थित महावीर हैं। वहाँ की रज सिर पर लगाते हैं और पीपल के पत्ते जन्मभूमि स्मारक पर जाकर अपनी श्रद्धा अर्पित करते स्मृति स्वरूप ले जाते हैं। भगवान महावरी स्मारक का अनावरण देशरत्न बाबू डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी ने दि. २३/ ४/१९५६ को किया था । अपने वैशाली अभिनन्दन ग्रंथ की भूमिका लिख कर उसको गौरवान्वित किया था। एक ब्राह्मण महानुभाव जैन गृहस्थाचार का अभ्यास खोज अपेक्षित है। कर रहे हैं। और भी अनेक विधाएँ हैं जिनकी सम्यक्
-
१४. अविरोध संयम धार्मिक सहिष्णुता और सौहार्द वैशाली की विशिष्टता और शालीन संस्कृति है । बौद्ध स्तूप पर एक समाधि है जहाँ मजार पर हिन्दू मंदिर से चादर चढ़ती है। खुदाई में एक कब्रिस्तान मिला, जिसकी तीस डेसीमल भूमि महादेव मंदिर के निर्माण हेतु दान में दी गयी । सत् - सत्य को प्रधानता दी जाती है।
१५. वासोकुण्ड - वैशाली के निवासी यह जानते हैं कि पटना - हाजीपुर के मध्य चार मील चौडा गंगा नदी का घाट पार करना कठिन और जोखिम भरा होने के कारण जैन धर्मावलम्बी पावापुरी से राजगृही आतेजाते समय नालंदा के निकट बड़गाँव में स्थित महावीर मंदिर को कुण्डलपुर प्रतीकात्मक मानकर वहीं से महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/21
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
वासोकुण्ड-वैशाली को नमन कर लेते हैं। यद्यपि कोई आकांक्षा भी नहीं है और इसीकारण उनकी आस्था सर्वप्रमाणों ने एवं परम्परागत आस्था के प्रकाश में - पवित्र भूमि यथावत बनी है और उन्हें प्रेरणा देती है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग एवं सरकारों ने सभी इच्छक विद्वतजन वैशाली कुण्डलपुर वासोकुण्ड को महावीर की जन्मभूमि घोषित किया है। (वासोकुण्ड) महावीर के अमर निरंतरित प्रभाव को गंगा पर बृहत् पुल बन जाने के बाद भी कोई जैनी अनभत कर जीवन्त जैनत्व को समझें, इसी भावना से वासोकुण्ड आता है या नहीं आता। इससे वहाँ के सब को सादर नमन । महावीर को जीवन अर्पण। निवासियों को कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। उन्हें महावीरमय - अहिंसामय हो जाना है -
जगत के जीवों के कल्याण के लिये अपने से अभिनंदन है, वंदन है दया के देवता महावीर-प्रभु ने
मनोविकारों से मुक्ति है, आत्मसिद्धि है। अहिंसा, अपरिग्रह, अविरोधभाव, निज ज्ञायक आत्मा के आश्रय से समता, सहिष्णुता का उपदेश दिया। वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू की प्रेरणा से हिंसा-अहिंसा क्या है? समझना जरूरी है मोह-राग-द्वेष रहित आत्मा जीवन-मरण, सुख-दुख लाभ-अलाभ सिद्ध-परमात्मा बनता है कर्मोदयजन्य/ईश्वरकृत हैं।
विशुद्ध अहिंसक बनता है। कोई किसी का भला-बुरा नहीं कर सकता आत्मा के मोह-राग-द्वेष भाव ही हिंसा हैं सभी स्वतंत्र स्वाधीन, स्वरचित प्रभु हैं। असावधानी, अयत्नाचार क्रिया हिंसा है महावीर ने कहा – जगत जीवों से भरा है, जो इनसे बचकर,आत्मानुभूति करता है अहिंसक, पावन जीवन जीने के लिए वह विशुद्धात्मा बन, परमात्मा बनता है। निरंतर जागरुक रहो,
मन-वचन-काय के माध्यम से हिंसा होती है सोने, उठने बैठने, बोलने आदि में
इसके मूल स्रोत हैंताकि किसी जीव की हिंसा न हो
अज्ञान, अनैतिकता, असदाचार, आहार, अध:कर्म, निरंतर जागरुकता से,
असावधानी पूर्वक त्रियोग की क्रिया। स्व-पर सभी निर्भय होते हैं।
जिन्हें हिंसा से वचना है और मलिन विचार भाने की शृंखला अशुभ है आत्मा का अभिनंदन करना है, उन्हें पावन विचार भावों की सत् शृंखला शुभ है प्रथम स्तर पर ज्ञानी, नैतिक, सदाचारी होना होगा अशुभ-शुभ से संसार चक्र चलता है । शुद्ध-सात्विक आहार करना होगा। यह विभाव-विकृति ही हिंसा है
संयम, समता, धरना होगा। स्वभाव-स्वीकृति अहिंसा है, सिद्धि है। महावीर ने, जो मंगल सूत्र दिये, शुभ-अशुभ के परे, पराश्रय-परिग्रह के परे उन्हें भाव बोध सहित जीवन का अंग बनाकर अपने को जानने-जानने मात्र को भावना/क्रिया महावीर मय, अहिंसामय हो जाना है। निज शुद्ध ज्ञायक परमात्मा का
0 बी, ३६९, ओ.पी.एम., अमलाई-४८४-११७
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/22
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐतिहासिक अतिशय क्षेत्र घोघा
.
- महेन्द्र कुमार जैन पाटनी
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र घोघा गुजरात वर्तमान में घोघा में तीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं, राज्य के भावनगर शहर से २० किलोमीटर दूर स्थित जिनके नाम हैं - दांडिया देरासर, गुजराती देरासर व है। भावनगर से हर एक घंटे में घोघा के लिए बसें चौपड़ा देरासर। इन मंदिर के पास तीन श्वेताम्बर मंदिर मिलती हैं। घोघा खम्भात की खाड़ी के तट पर बसा भी हैं। श्वेताम्बर मंदिरों की मूर्तियाँ दिगम्बर जैन मंदिरों है। प्राचीन काल में घोघा बहुत बड़ा व्यापारिक नगर में स्थापित जैन प्रतिमाओं से प्राचीन हैं। दिगम्बर जैन था तथा बंदरगाह था। यहाँ पर बड़े-बड़े व्यापारी धर्मशाला में २ अच्छे कमरे बने हैं, शौच व स्नानागार विशेष रूप से जैन व्यापारी रहते थे, जो सुदूर पूरब भी अच्छे बने हुए हैं। पानी व विद्युत सुविधा है। मंदिर देशों को माल का निर्यात करते थे। तथा वहाँ से प्रबन्ध में लगे कर्मचारी भी प्रांगण में ही रहते हैं। इस बंदरगाह में ही वहाँ की वस्तुओं का आयात करते श्वेताम्बर समाज की नियमित भोजनशाला सुचारू थे। घोघा से शत्रुञ्जय तीर्थ ६० किलोमीटर है तथा चलती है। गिरनार २१० किलोमीटर है।
क्षेत्र का प्रबन्ध भावनगर दिगम्बर जैन समाज ___करीब २०० वर्ष पूर्व यहाँ लगभग १२०० द्वारा किया जाता है। भावनगर दिगम्बर जैन समाज ने जैन परिवार निवास करते थे, परन्तु प्लेग की बीमारी मंदिरों का जीर्णोद्धार/नवीनीकरण करवाया है तथा फैलने से सभी परिवार नष्ट हो गये। आज घोघा में धर्मशाला का निर्माण करवाया है। एक भी जैन परिवार निवास नहीं करता है। सिर्फ
यहाँ के अतिशयों की इस प्रदेश में विशेष चर्चा मंदिर के प्रबन्ध में लगे कर्मचारी का परिवार ही
सुनी जाती है। कहते हैं कि कभी-कभी रात्रि में मंदिर निवास करता है।
से घंटों की आवाज सुनाई पड़ती है। एक पौराणिक आख्यान है कि राजा श्रीपाल
___ प्राचीन समय में घोघा बहुत ही समृद्धिशाली कोटिभट ६ माह तक समुद्र में डूबते-तैरते हुए घोघा
नगर था । जब तक गुजरात की राजसत्ता चालुक्य वंशी नगरी के तट पर पहुँचे। वहाँ के जैन मंदिरों के विशेष
भीमदेव द्वितीय, त्रिभुवपाल और बघेल वंश के हाथ रूप से सहस्रकूट चैत्यालय के कपाट बंद थे। कोई भी
में रही, यहाँ का वैभव बढ़ता रहा। ये सभी राजा प्रायः इसे खोलकर दर्शन नहीं कर सकता था। श्रीपाल कोटिभट ने जैसे ही इसमें पैर का अंगूठा लगाया, वे सहस्रकूट
जैन धर्मानुयायी थे। जब गुजरात की राज्यसत्ता मुसलमान चैत्यालय के वज्र कपाट खुल गये तथा सभी को
शासकों के हाथ में आई, घोघा का व्यापार समाप्त हो
गया, वैभव समाप्त हो गया। उस समय जैन व्यापारी सहस्रकूट चैत्यालय व जिन मंदिर के दर्शन करने का
भी अन्य स्थलों पर चले गए। सौभाग्य मिला।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/23
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्र दर्शन - नगर के मध्य में जो जिनालय प्राचीन समय में इन प्रतिमाजी पर भक्त जन है, उसमें प्रवेश करते ही धातु के पंच सहस्रकूट चैत्यालय बरतन भर-भर के दूध चढ़ाते थे। कहा जाता है कि के दर्शन होते हैं। इसकी ऊँचाई साढ़े तीन फुट है। इन पर आस्था रखने से मनुष्य के सभी कार्य सिद्ध हो चौड़ाई एक फुट सवा इंच है। यह सहस्रकूट चैत्यालय जात है। १५४१ का प्रतिष्ठित है। इस मंदिर में १००८ श्री
घोघा के मंदिरों में जिन प्रतिमा की पीठासन पर अजितनाथ भगवान और १००८ चन्द्रप्रभु भगवान की
प्रतिष्ठा काल अंकित नहीं है, इन्हें चतुर्थ काल की पाषाण प्रतिमाएँ चौथे काल बताई जाती हैं। मंदिर के प्रतिमा मानते हैं । सम्भवतः ऐसी प्रतिमाएँ ११-१२वीं कम्पाउंड में भगवान आदिनाथ की श्वेत पाषाण की
शताब्दी की हो सकती हैं। पद्मासन प्रतिमा है। इसके समवशरण में एक स्फटिक
यहाँ भी पाषाण मूर्तियों के ऊपर समुद्र की की मूर्ति तथा ३० धातु की प्रतिमाएँ हैं। क्षारयुक्त वायु का दुष्प्रभाव पड़ा है। मूर्तियों पर धब्बे
पड़ गये हैं। तथा पाषाण के पालिश की चमक भी दांडिया देरासर में मूलनायक भगवान आदिनाथ
धुंधली पड़ गयी है। की १५३७ में प्रतिष्ठित मूर्ति है। यहाँ पर भट्टारकजी की
घोघा हमारा प्राचीन क्षेत्र है। गुजरात की यात्रा गद्दी भी है। भगवान आदिनाथ की यह मूर्ति अत्यन्त
करने वालों को घोघा की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। अतिशय सम्पन्न है।
डाक बंगलों से समुद्र के दृश्य का भी अवलोकन करना चौपड़ा देरासर में मूलनायक श्री १००८ चाहिए। तथा वहाँ आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने चंद्रप्रभुजी की भव्य पद्मासन पाषाण प्रतिमा चतुर्थ के लिए यथोचित दान भी देना चाहिए। कालीन बताई जाती है। इसके अलावा इसमें भगवान घोघा का पता इसप्रकार है - शान्तिनाथ की सफेद पाषाण की १४९२ में प्रतिष्ठित - श्री दिगम्बर जैन मंदिर हुम्मड़ डेला घोघा प्रतिमा भी है। १००८ भगवान नेमिनाथ की श्याम
पोस्ट-घोघा-३६४११० पाषाण की १४४३ में प्रतिष्ठित प्रतिमा भी विराजमान
जिला भावनगर (गुज.) है। यह प्रतिमा भी बहुत ही भव्य व आकर्षक है।
फोन नं. ०२७८-२८२३५२
OD-127, सावित्री पथ, बापूनगर, जयपुर
नमि जिन-प्रतिमा जिन-भवन, जिन-मारग उरु आनि। पंच परम पद पद प्रणमि प्रणमि जिनेश्वर वाणि॥ जिन-प्रतिमा अरु जिन-भवन, कारण सम्यक् ज्ञान । कृत्रिम और अकृत्रिम तिनहिं नमूं धरि ध्यान ॥ वृषभ आदि अति वीर सों, चौबीसों जिनराय । विघन हरण मंगल करण, वन्दूं शीश नवाय ॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/24
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन संस्कृति संरक्षण एवं संर्वद्धन पाण्डुलिपि/प्राचीन मूर्तियां/ शिलालेख/ चित्रकला
0 सुरेश चन्द्र जैन बारौलिया
संस्कृति मानव के भूत-वर्तमान और भावी धरोहर व विरासत को सुरक्षित संरक्षित कर भावी जीवन का सर्वांगीण विकास है। यह मानव जीवन की पीड़ियों को हस्तान्तरित करना ही अपना परम कर्तव्य एक प्रेरक शक्ति है। जीवन की प्राण वायु है जो चैतन्य है। धार्मिक प्रभावना एवं जीवन के विकास का निर्माण भाव को साक्षी प्रदान करती है। राष्ट्र का लोक हितकारी करने हेतु समाज का विश्वास प्राप्त कर जैन आचार्यों तत्त्व संस्कृति है। संस्कृति का अर्थ संस्कार सम्पन्न ने सबसे बड़ा कार्य साहित्य के निर्माण में तथा उनके जीवन है। यह जीवन जीने की कला पद्धति है। विश्व धर्मानुयायिओं ने उसके प्रचार-प्रसार में प्राचीनकाल से की प्रचीनतम संस्कृतियों में जैन संस्कृति का अपना ही सक्रिय योगदान किया है और आज भी कर रहे हैं। विशेष महत्व रहा है। इसके उदात्त सिद्धान्तों में उन्होंने सहस्रों ग्रन्थ, ताडपत्र, भोजपत्र, कपड़े एवं प्रायोगिकता व्यावहारिकता और व्यापकता के सनातन कागज पर लिखकर भारतीय ज्ञान की परम्परा को तत्त्व सतत विद्यमान हैं। अपने विराट स्वरूप में अद्वितीय सुरक्षित रखा है। आज भी अनेकों मन्दिरों में वृहद
और अप्रितम रही है। भारतीय धर्म और संस्कृति की ग्रंथगार सुरक्षित है। उससे जैन धर्म की तथा उसके मौलिक विशेषताओं में जैन धर्म का अवदान सर्वाधिक अनुयायिओं की कला की अभिलाषा एवं अनेकों रहा है। यही भारत का प्राचीनतम धर्म है। ज्ञानानुराग का परिचय मिलता है। वर्तमान में उपलब्ध
__जैन कला साहित्य एवं संस्कृति को सुरक्षित ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य विवरणों से यह स्पष्ट है रखने व इसकी निरन्तरता को बनाये रखने में जैन कि जैन आचार्य एवं विद्वानों के द्वारा रचित ग्रन्थों की तीर्थक्षेत्रों मन्दिरों साधु-साध्वियों विद्वानों, गुरुकुल संख्या प्रचुर मात्रा में है। इनकी विशालता का आभास शिक्षण संस्थाओं तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर इससे सहज हो जाता है कि जैन आचार्यों द्वारा प्रामाणिक पर किये गये प्रयत्नों तथा स्वाध्याय, प्रवचन, शास्त्र ग्रन्थ जो प्रकाश में आये हैं उनमें उनसे पूर्ववर्ती आचार्यों भण्डारों आदि की अहम भूमिका रही है, किन्तु इन द्वारा रचित ग्रन्थों के सन्दर्भ या उदाहरण प्रचुरता से प्रयत्नों के बाद भी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व मिलते हैं। जिन ग्रन्थों के सन्दर्भ मिलते हैं उनमें से की बहुत सी अमूल्य सामग्री की उचित संरक्षण व अधिकांश अप्रकाशित दुर्लभ या अप्राप्त हैं। अनेकों देखरेख के अभाव में यत्र-तत्र विखरी हई है। हमारी हस्तलिखित ग्रन्थ पाण्डुलिपियाँ आज सुलभ नहीं हैं। महत्वपूर्ण मूर्तियां दुर्लभग्रन्थ व कलात्मक सामग्री उचित अथवा उनके अनुवाद प्रकाशन की व्यवस्था नहीं हुई एवं वैज्ञानिक रीति के संरक्षण के अभाव में या तो नष्ट है। हमारी अज्ञानता, अदूरदर्शिता, उदासीनता के कारण हो रही हैं अथवा क्षीण हो रही हैं ऐसे समय में हमारा अपनी अमूल्य धरोहर काल के गाल में समा चुकी है। कर्तव्य है कि हमारी कला व संस्कृति की इस अमूल्य भगवान महावीर स्वामी एवं गौतम गणधर द्वारा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/25
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राप्त भाव - श्रुतज्ञान का आलम्बन बना कर हमारे आचार्यों मनीषियों ने केवल आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक शास्त्रों की रचना अनेकों विषयों पर करके जैन दर्शन को विश्व दर्शन का गौरव दिलाया था। सोने के चिड़िया के नाम से प्रसिद्ध इस पवित्र भारत भूमि पर समयसमय पर अनेकों विदेशी यात्री आये और हमारी पाण्डुलिपियों को सात समुद्र पार विदेश ले गये। हमारी सुरक्षा, संरक्षण के अभाव में कितने ले गये उसकी गणना तो नहीं की जा सकती है फिर भी विभिन्न खोजों के आधार पर एकत्रित सामग्री प्राप्त की है, उस आधार पर विक्रम सम्वत की पांचवी सदी में चीनी यात्री फाहयान भारत आया, वह १५२० ताडपत्र पर लिखित पाण्डुलिपियों को ले गया । विक्रम सम्वत् की सातवीं में चीनी यात्री हुएनसांग प्रथम बार १५५० ग्रन्थ तथा दूसरी बार २१७५ ग्रन्थ अपने साथ ले गया। इसके बाद सन् ४६४ में २५५० ताडपत्र पाण्डुलिपियों को ले गया। जर्मनी में ५००० पुस्तकालय हैं, वर्लिन के केवल एक ही पुस्तकालय में १२००० हस्तलिखित ग्रन्थों की गणना में अधिकांश जैनग्रन्थ हैं, अमेरिका वांशिगटन के एक ही पुस्तकालय में २० हजार ग्रन्थ हैं उनमें से अधिकांश जैन ग्रन्थ हैं। लन्दन शहर के एक ही पुस्तकालय में २० हजार हस्तलिखित ग्रन्थ हैं। फ्रांस में पेरिस स्थित विब्लियोथिक नामक पुस्तकालय में १२ हजार ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत भाषा के जैन ग्रन्थ हैं। रूस के एक राष्ट्रीय पुस्तकालय में १२ हजार भारत से गये हुये हैं। इटली में ६००० ग्रन्थ प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के भारत से गये हुये हैं। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का पंचास्तिकाय ग्रन्थ का फारसी अनुवाद हुआ था वह भी आज भारत में न होकर विदेशों में है । आचार्य शर्ववर्म प्रणीत कातंत्र व्याकरण का भाटे भाषा में अनुवाद एवं उसी पर २७ प्रकार की टीकाऐं लिखी हुई हैं उनका भूटान, तिव्वत, वर्मा लंका में आज कल अध्ययन होता है। आज गन्धहस्तिमाहभाष्य जैसे अनुपम अद्वितीय ग्रन्थ के अस्तित्त्व का यूरोप के किसी
भण्डार में रहने का संकेत मिल रहा है। जिस ग्रन्थ को प्राप्त करने के लिये २ लाख का इनाम घोषित हुआ है। हमें विदेशों से शिक्षा लेनी चाहिये कि हमारी अमूल्य धरोहर को प्राचीन पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण कर उनके प्रकाशन की व्यवस्था करनी चाहिये। जैसा की विदेशों के लोग इसमें रुचि ले रहे हैं। हम जाग्रत होकर इन शास्त्र भण्डारों की अमूल्य निधि को प्रमाणिक अक्षम भण्डार के रूप में सुरक्षित करने के लिये सम्पूर्ण अपेक्षावृत्ति को छोड़ उनके संरक्षण करने का प्रयास करें। अन्यथा दीमक, चूहे, एवं मौसम का दुष्प्रभाव इन भण्डारों की ज्ञाननिधि को समाप्त कर देगा और हम मातृविहीन हो जायेंगे ।
जिस प्रकार जैन पाण्डुलिपियों पर रोमांचकारी अत्याचार हुऐ हैं। वैसे ही जैन मन्दिरों, मूर्तियों, स्मारकों, स्तूपों पर खूब जुर्म ढाये गये हैं। बड़े-बड़े जैन तीर्थ मन्दिर, स्तूप और मूर्ति भंजकों ने धराशायी किये हैं। अफगानिस्तान, कश्मीर, सिन्धु, विलोचिस्तान, पंजाब, तक्षशिला तथा बंगलादेश आदि प्राचीन संस्कृति के बहुमूल्य क्षेत्रों में विनाश की लीलाऐं चलती रही हैं। प्रथम जैन मन्दिर का विध्वंश सन् १०३५ में वाराणसी में हुआ। जिसको श्री निभालितिगन ने लूटा। मोहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्धीन ऐवक ने सन् १९९४ में आक्रमण किया। मुसलमान इतिहासकार लिखते हैं कि बनारस में १००० मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया एवं उसकी सम्पत्ति व बनारस की लूट का सामान १४०० ऊंटों पर लाद कर ले गये । इतिहासकार श्री कुवेरनाथ शुक्ल लिखते कि सन् १४९४ से १४९६ तक सिकन्दर लोदी पुनः मन्दिरों को वरवाद करता रहा। एक हस्तलिखित ग्रन्थ जिसका नाम सामायिक नित्य प्रतिक्रमण पाठ है उसका सन्दर्भ देकर बतलाया है कि १५६२ में भेलपुर में पार्श्वनाथ मन्दिर था वह मन्दिर १४९४ से १४९६ में नष्ट किया गया फिर १५६२ में उसे पुनः बनाया गया। अनेकों जैन मूर्तियों, मन्दिरों गुफाओं शिलालेखों आदि को बौद्धों का बना लिया महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/26
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
गया, जो कुछ बच पाया उसका जीर्णोद्धार करते समय हमारे प्राचीन तीर्थों मन्दिर-मूर्तियों के प्रति हमने असावधानी अविवेक और अज्ञानता के कारण संहारात्मक अपराध किये जा रहे हैं, हमारे इतिहास व उनके शिला लेखों आदि को मिटा दिया। आज भी प्राचीन परम्परा को विंध्वसित किया जा रहा है। इससे प्रतिमाओं के प्रक्षालन आदि करते समय वालाकूची अनेकों प्रश्न खड़े हैं। जैनत्व की सुरक्षा का प्रश्न भी से मूर्ति के लेख घिस जाने दिये गये हैं। अनेकों मूर्तियाँ खड़ा है। प्राचीन तीर्थ या मन्दिर नहीं हों तो हम प्राचीन अन्य धर्मियों के हाथ में चले जाने से अन्य देवी नहीं कहला सकते। प्राचीन तीर्थ मन्दिर जैनत्व को देवताओं के रूप में पूजे जाने से जैन इतिहास पुरातत्व प्रगट करते हैं। इनसे हमारी सुरक्षा है, जैनत्व की सुरक्षा एवं कला सामग्री की भारी क्षति पहुंची है। पुरातत्व- है प्राचीन तीर्थ का नाश हमारे प्राचीन इतिहास को नष्ट वेत्ताओं की अल्प अज्ञानता पक्षपात तथा उपेक्षा के कर देगा और भविष्य में भी करता रहेगा। यह आज कारण भी जैन पुरातत्व सामग्री को अन्य की मान कर चिन्ता का विषय है हमें उनकी सुरक्षा, संरक्षण कैसे हो जैन इतिहास के साथ खिलवाड़ किया गया हैं। जाये, विचार करना होगा तभी हमारा अस्तित्व बना
जैन संस्कृति व कला के क्षेत्र में महान योगदान रहेगा। है। विश्व प्रसिद्ध श्रमणवेलगोला में गोमटेश्वर तथा आज हमारे अनेकों संत, आचार्य संगोष्ठियों, मूडबद्री में कारकल में बाहुवलि की विश्व की आश्चर्य- साहित्यक एवं शैक्षिणिक स्तर पर महत्वपूर्ण कार्य कर जनक मूर्तियां हैं। आबूपर्वत पर देलवाड़ा जैन मन्दिर रहे हैं। इनमें भाग लेने वाले विद्वान आपस में सम्पर्क में ११वीं शताब्दी के जैन मन्दिर भारतीय कला प्रतिभा कर पुरानी जिज्ञासाओं को संतुष्ट तथा नई जिज्ञासाओं शिल्पी की अंलकृत पाषाण आकृतियों में अपनी चरम को जन्म देते हैं। ये संगोष्ठियां संस्कृति के संरक्षण एवं पराकाष्ठा पर मिलती है। कला मर्मज्ञों की नजर में उनके विकास में स्थायी महत्व के कार्य करती हैं। ताजमहल की समानता रखता है। बड़वानी नगर के सामान्य श्रावक को इसका तत्काल कोई फल नजर पास चूलगिरी में ८४ फीट ऊंची जैन तीर्थंकर आदिनाथ नही आता है, लेकिन उनको ज्ञात होना चाहिये कि जैन की विशालकाय प्रतिमा आज भी विद्यमान है। संस्कृति का इतिहास और महत्व ऐसे ही परोक्ष प्रयासों पालीताना में २८०० जैन मन्दिर पर्वत पर शोभायमान से प्रकाशित होता रहा है और संस्कृति के संरक्षण में हैं। ग्वालियर के गोपाचल पर्वत पर चट्टानों में जैन सहभागी बनता रहा है। मूर्तियों के नमूने हैं वे १५वीं सदी के हैं। उड़ीसा की
- सुरेश चन्द जैन बारौलिया हाथी गुफा कन्दरा आदि मिलते हैं। मथुरा में पाये जाने
बी- ६७७, कमला नगर, आगरा (उ.प्र.) वाले जैन स्तूप सबसे पुराने हैं। प्राचीन काल में भी मन्दिरों की सुरक्षा की जाती रही है। जैन साहित्य
तृणं लघु तृणात्तूलं, तूलादपि च याचकः । मूर्तियों की सुरक्षा और संरक्षण के प्रमुख उदाहरण हैं वायुना किंन नीतोऽसौ, मामयं याचयिष्यति ॥ कि सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्रों ने भरत चक्रवर्ती
___ तृण सब से हलका होता है, तृण से रूई द्वारा बनाये हुये ७२ जिनालयों की मन्दिरों की रक्षा के
हलकी होती है, रूई से भी हलका मांगने वाला लिये भारी उद्योग किया था और उनके चारों ओर खाई
होता है। फिर भी उसे हवा क्यों नहीं उड़ा ले खोद कर भागीरथी के जल से उसे पूर्ण कर दिया था।
जाती, इसलिये कि शायद वह मुझसे भी कुछ ताकि वह सुरक्षित रह सकें। लंकाधिपति रावण भी इन
मांगे। मन्दिरों के दर्शन के लिये कई बार आया था।
__ - नीति शतक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/27
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
जयपुर के जैन दीवान
जयपुर निर्माण से पूर्व जयपुर राजवंश के पूर्वजों का इस ढूंढाड़ प्रान्त में एक हजार वर्ष से दौरदौरा रहा है । विक्रम की १०-११वीं शती से यह कछवाहा वंश मध्यप्रदेश से आकर राजस्थान में बसा है और विभिन्न स्थानों पर इन्होंने अपनी राजधानियाँ बनाई हैं। तभी से जैनों का इनके साथ विशेष सम्पर्क रहा है। नरवर (ग्वालियर) से आकर इस वंश ने सर्वप्रथम दौसा में जो उस समय धवलगिरि के नाम से विख्यात था अपनी राजधानी बनाई। दौसा के बाद खोह रेबारियान जो शान्तिनाथजी की खोह के नाम से प्रसिद्ध है वहाँ राजधानी बनी। इसके बाद रामगढ़ पर अधिकार हुआ और फिर आमेर में । यह सब स्थान परिवर्तन १११२वीं शताब्दी में हो गया। तत्पश्चात् विक्रम संवत् १७८४ में जयपुर बसाया गया। इस सुन्दर नगर को बसाने वाले अद्भुत प्रतिभाशाली महाराजा सवाई जयसिंह थे जिनका शासन काल वि. सं. १७५६ से १८०० तक था। वे जैनों के काफी सम्पर्क में थे। कर्नल टाड ने अपने ग्रन्थ में लिखा है- जैनियों को ज्ञानशिक्षा में श्रेष्ठ जानकर जयसिंहजी उन पर अत्यन्त
अनुग्रह रखते थे। ऐसा भी प्रकट होता है कि उन्होंने जैनियों के इतिहास और धर्म के संबंध में स्वयं शिक्षा प्राप्त की थी। (पृष्ठ - ६०१ )
--
उक्त राजवंश जब नरवर से इधर आया, तब कई जैन घराने साथ आये प्रतीत होते हैं। पहले भी इस प्रान्त में जैन काफी थे व्यापार बढ़ा हुआ था। महाराजा सोढदेव सं. १०२३ में दौसा में राज्य गद्दी पर बैठे - उस समय निरभैराम छाबड़ा नामक जैन दीवान थे -
पण्डित भंवरलाल न्यायतीर्थ
ऐसा उनके वंशजों से ज्ञात हुआ है। इनके बाद इस वंश में कई जैन दीवान हुए हैं।
११वीं शती से लेकर शताधिक जैन दीवान हुए हैं, पर उनका कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता । लेखक को अब तक करीब ५५ जैन दीवानों की जानकारी मिली है, पर वे सब १६वीं शताब्दी के बाद के हैं। पहले की खोज अपेक्षित है। यहाँ प्रमुख जैन दीवानों का परिचय दिया जा रहा है 1
सं. १७४७ से १७७६ तक था। इनके पिता और दादा रामचन्द्र छाबड़ा - इनका दीवान काल वि. भी दीवान रह चुके थे। इन्होंने राज्य की महत्वपूर्ण सेवायें की थी । अन्तिम मुगल सम्राट औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उनके लड़कों में राज्यगद्दी के लिए लड़ाई हुई। विजयी के विपक्ष में रहने के कारण तथा अन्य कारणों से आमेर पति जयसिंह से बहादुरशाह ने नाराज होकर सं. १७६४ में आमेर पर अपना प्रबन्धक
नियुक्त कर दिया और जयसिंह को आमेर छोड़ उदयपुर चला जाना पड़ा। उनके साथ दीवान रामचन्द्र आदि भी थे। दीवान रामचन्द्र राज्य खोकर कैसे बैठते ? कुछ
फौजें एकत्र कीं, कुछ और उपाय किये और स्वयं आमेर के प्रबन्धकों पर टूट पड़े और उन्हें मार भगाया। दीवानजी वीर थे और स्वाभिमानी भी । विभिन्न इतिहासकारों ने फौज आदि के संबंध में विभिन्न रूप से वर्णन करते हुए रामचन्द्र के नेतृत्व को स्वीकार किया है और मुगलों से आमेर खाली कराने का श्रेय इन्हें ही दिया है। मुगल दरबार में इससे रामचन्द्र के प्रति नाराजगी स्वाभाविक थी। शाहजादा जहाँ दाराशाह ने १७ जुलाई, सन् महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/28
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
थे।
१७०९ के अपने पत्र में उदयपुर वालों को लिखा था राज्य सेवा में विशिष्ट कार्य करने से सं. १७६७ में इन्हें कि जयसिंह के नौकर रामचन्द्र दीवान ने नालायक और ९०० बीघा जमीन मिली। जयपुर की ओर से बसवा बेहूदा कार्यवाही की - बादशाही नौकरों से लड़ाई की। और बाद में टोंक के प्रबन्धक रहे। सं. १८१४ में इन्हें अत: जयसिंह उसे निकाल दें। इससे दीवान रामचन्द्र और जागीरें मिलीं और सं. १८१५ में इनका स्वर्गवास का आमेर पर कब्जा करना स्पष्ट है।
हो गया। दीवान रामचन्द्र जयसिंह के अधिक प्रिय थे। दीवान भीमसिंह-ये किशनचन्दजी के लड़के उस समय और भी दीवान थे, पर प्रमुख रामचन्द्र ही थे। सं. १८५५ से सं. १८५९ तक प्रधान दीवान रहे।
वैसे सं. १८१६ से सं. १८६७ तक इनका राज्य सेवा दीवान रामचन्द्र के दादा बल्लशाह थे। मुगल काल था। सं. १८६७ में इनका स्वर्गवास हुआ। इस बादशाह औरंगजेब के समय में छत्रपति शिवाजी के प्रकार इस वंश ने पाँच-छह पीढ़ी तक उच्च पद पर पास महाराजा रामसिंह की तरफ से बलशाहजी से रहकर राज्य की सेवा की। सुलह की बातचीत की थी और शिवाजी को कैद कर महामंत्री मोहनदास-ये मिर्जा राजा जयसिंह लेने पर उन्हें छुड़ाकर लाने में पूरा सहयोग दिया था। के महामंत्री थे। मिर्जा राजा का राज्यकाल सं. १६७८ यह संवत् १७२३ की घटना है।
से सं. १७२४ तक का था। मोहनदास के पूर्वज एवं बलशाह के पत्र एवं रामचन्द्र के पिता विमलदास वंशज में अनेक व्यक्ति दीवान हुए हैं। बड़जात्या गोत्रीय भी दीवान थे, जो जाटों के साथ युद्ध में काम आये मोहनदास संघी कहलाते थे। इनके पूर्वजों में संघी उदा थे। लालसोट के पास इनकी छत्री बनी थी। ये वीर का नाम सर्वप्रथम मिलता है। ‘करकंडु चरित' की योद्धा थे। रामगढ़ में विमलपुरा नामक मोहल्ला इन्हीं के प्रशस्ति में इनका नाम आया है। इनके पौत्र डालू ने नाम से बसा था। इनकी हवेली वहाँ थी। सं. १६६३ में व्रत के उद्यापन में यह ग्रन्थ भेंट किया दीवान रामचन्द्र धार्मिक व्यक्ति थे। आमेर और
था। उदा के पुत्र मल्लिदास के लिए 'संघभार' धुरन्धर रामगढ़ के बीच साहीवाड ग्राम में आपने संवत् १७४७
'संघही' शब्दों का प्रयोग शिलालेखों में हुआ है। में एक मंदिर बनवाया था, जो आज मौजूद है। जब
इनके नाम कहीं मालीजै भौंसा, कहीं मल्लिदास, कहीं रामचन्द्रजी राजा जयसिंह के साथ उज्जैन में रहते थे,
___ मालू और कहीं श्रीमाला मिलते हैं। ये बड़े प्रतिभा तो वहाँ भी एक मंदिर बनवाया और जब दिल्ली में रहते
सम्पन्न व्यक्ति थे। इन्हीं के नाम से इनका वंशज आज थे, तो वहाँ भी मंदिर बनवाया। संवत् १७७० में
भी मालावत कहलाता है। भट्टारक देवेन्द्र कीर्ति के पट्ट महोत्सव में आप अगुआ
मल्लिदास के लड़के डालू थे, जो राज्य में थे। इनका जीवन धार्मिक था। राज्य सेवा के विशेष दीवान थे। ये बड़े ईमानदार और स्वाभाविक थे। किसी अवसरों पर इन्हें राज्य से इनामें, जागीर आदि मिले के बहकावे में आकर राजा नाराज हो गये और इन पर हैं। सांभर पर जयपुर-जोधपुर में तनाजा होने पर आपने जुर्माना कर दिया। डालू के भाई खेतसी थे और उनके ही आधा-आधा हिस्सा का बटवारा कर झगडा मिटाया लड़के मोहनदास। इनका जन्म सं. १६४५-५० के था। फलत: आपको सालाना नमक मिलने का पट्टा बीच होना संभव है। सं. १६६३ में इनका विवाह भी दिया गया था।
हुआ। ये बड़े विचक्षण थे। इनका राज्य सेवा काल दीवान किशनचन्द - ये रामचन्द्र के पुत्र थे।
१ मिर्जा राजा जयसिंह के राज्यकाल के प्रारंभ से ही था
और सं. १७१६ के बाद तक रहा। सं. १७१४ में इन्होंने महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/29
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमेर में तीन शिखर का विशाल मंदिर बनवाना प्रारंभ में हुई, जिसके अनुसार वार्षिक खिराज (टैक्स) देना किया और सं. १७१६ में उसकी प्रतिष्ठा हुई। इसका तय हुआ। उस समय मुसाहिब रावल बैरीसालसिंह थे। शिलालेख म्यूजियम में मौजूद है। ये बड़े धर्मात्मा, संघीजी को यह गुलामी पसंद नहीं थी। अंग्रेज तीन बार कुशल राजनीतिज्ञ और सफल प्रशासक थे। पहले भी प्रयत्न कर चुके थे, पर सफलता न मिली।
दीवान कल्याणदास-ये मोहनदास के लड़के अब की रावलजी को पक्ष में लेकर यह संधि हुई, थे। औरंगजेग द्वारा शिवाजी की पकड़, कैद और जिससे रावलजी से भी कई लोग नाराज रहने लगे। छद्मवेश में निकलने आदि की सारी प्रतिदिन की घटनायें राजा जगतसिंह के युद्ध में रत रहने, शराबी और भोगदीवान परकालदास आगरा से इन्हें आमेर में लिख विलासी होने तथा अंग्रेजों के टैक्स आदि के कारण भेजते थे।
___ खजाना खाली हो गया और सन् १८१८ में राजा का दीवान अजीतदास - ये मोहनदास के तृतीय
अपुत्र अवस्था में स्वर्गवास हो गया। फलत: और लोग पुत्र थे। ये सं. १७७० में आयोजित भट्टारक देवेन्द्र
अपना हक जमाने लगे। पर भटियानी रानी गर्भवती कीर्ति के पट्टोत्सव में सम्मिलित हुए थे। जयपुर बसने
थी। सन् १८१९ में जयसिंह तृतीय का जन्म हुआ और
राजमाता राज्य कार्य देखने लगी। वह स्वतंत्रता प्रेमी के साथ ये जयपुर में आ गये और सं. १७८८ में विशाल मंदिर बनवाया।
थी। अंग्रेजों का दखल उसे पसंद नहीं था। संघी भी
इसी प्रकृति के थे। आर्थिक स्थिति को दृढ़ करने हेतु दीवान संघी हुकमचन्द - उक्त वंश में चार
संघीजी को राजस्व मंत्री बनाया गया पर मुसाहिब पीढ़ी बाद संघी हुकमचन्द और संघी झुंथाराम का नाम
रावलजी के साथ इनकी नहीं बनी। वे अंग्रेजों के मिलता है, जो प्रख्यात व्यक्ति थे। संघी हुकमचन्द
हिमायती थे और ये अंग्रेजों के विरोधी। फलत: दोनों फौज के इंचार्ज थे और सं. १८८१ से सं. १८९२ तक।
में अनबन बढ़ती गई और राजनैतिक पार्टियाँ बन गई। इनका राज्य सेवा काल माना जाता है। इनको राव
राजमाता ने रावलजी को बहुत समझाया, पर उन्हें
जानने बहादर का खिताब था। ये बड़े बहादुर और वीर थे। अंग्रेजों का बल था। संघीजी के विरुद्ध अंग्रेजों को जयपुर राजा के नाबालगी में ये संरक्षक भी थे। इन्होंने
भड़काया गया। राजनैतिक संघर्ष में कभी कोई एक मन्दिर बनवाया जो संघीजी की नसियाँ के नाम
शक्तिशाली बनता और कभी कौन। संघी मुख्यमंत्री से जाना जाता है। इनके पुत्र बिरधीचन्द भी दीवान थे,,
बना। उसने शेखावटी के झगड़े निपटाने का प्रयत्न जिनका सेवा काल सं. १८८८ के आसपास था। किया. राजस्व बढाया और जनता में अमन किया। पर
संघी झंथाराम - ये संघी हुकमचन्द के छोटे ज्यों ही राजमाता मरी और संयोगवश जयसिंह तृतीय भाई और बड़े प्रतिभा संपन्न, मेधावी राजनीतिज्ञ और भी १७ वर्ष की अवस्था में काल कवलित हो गये। शासन की अद्भुत योग्यता वाले व्यक्ति थे। इनका संघीजी के विरोधियों को मौका मिला और इन्हें बदनाम जीवन राजनैतिक उथल-पुथल में ही बीता । ये कठोर किया गया राजा का हत्यारा बताया। पर जयसिंहजी
और ईमानदार शासक थे। इनके मंत्रित्व काल में कोई की रानी चन्द्रावतजी ने इसे झूठा इल्जाम माना और चोरी नहीं होती थी। गिरी हुई कोई भी चीज या तो स्वयं संघी को ईमानदार और योग्य व्यक्ति पाया। संघी ने मालिक लेता या पुलिस। ये अपराधों पर कड़ी सजायें त्यागपत्र दिया पर स्वीकार नहीं किया। चन्द्रावत भी देते थे।
स्वतंत्रता प्रेमी थी। पर अंग्रेजों के कुचक्र चलते रहे और अंग्रेजों के साथ जयपुर की संधि सन् १८१७ वे कूटनीति से ताकत में आते रहे। अंग्रेजों के जमाने
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/30
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
में आजादी के दीवानों की जो स्थिति सारे देश में हुई, मूठ देने का रिवाज ही उठ गया। इन्होंने कई ग्रन्थ वही संघी और उनके साथियों की भी हुई। राजा की लिखाये । लालजी सांड के रास्ते में स्थित छोटे दीवानजी हत्या का अपराध लगाया पर उसमें विरोधियों को का मंदिर इन्हीं का बनाया हुआ है। ये राज्य और जनता सफलता नहीं मिली। राज्य विद्रोह के षड्यन्त्र का के खैरख्वाह थे और साथ ही स्वतंत्रता प्रेमी। अंग्रेजी अपराध जो देश प्रेमियों के लिए लगाया जाता था उसी राज्य जयपुर में न जमने देने में इनका सहयोग था । संघी के तहत सं. १८९२ में इन्हें किले के अन्दर कैद किया शृंथाराम के सहयोगी थे। फलत: अंग्रेज और अंग्रेजों गया। वहीं लगभग सं. १८९५ में चुनारगढ़ किले में के हिमायती इनके विरोधी हो गये। इन्हें गिरफ्तार किया उनका स्वर्गवास हो गया।
गया और अन्त में देशप्रेमियों को जो सजा दी जाती इसप्रकार अंग्रेजों और उसके पक्षपातियों का है, वह अमरचन्द को दी गई। फाँसी के तख्ते पर लटक एक कांटा निकल गया। कई इतिहासकारों ने संघी को कर सदा के लिए अमर हो गये, पर आजादी के अंकुर बदनाम किया है, पर वे इतिहासकार अंग्रेजों से या बढ़ते रहे। विरोधियों से प्रभावित थे। निष्पक्ष इतिहासकार संघी दीवान राव कृपाराम पांड्या - जयपुर के को ईमानदार ही पायेंगे।
इतिहास में इस वंश की महान सेवायें हैं। इनके पूर्वज दीवान श्योजीराम एवं अमरचन्द - जयपुर चाढमलजी बड़े प्रतापी नररत्न थे। चम्पावती नाम के इतिहास में दीवान अमरचन्द बड़े प्रख्यात हो गये चाटसू इन्हीं के नाम से पड़ा - ऐसा विख्यात है। ये हैं। देश और जनता की सेवा में हँसते-हँसते प्राणों की चाटसू के रहने वाले थे और वहाँ चौधरी थे। इस वंश बलि देने वाले इस अमर शहीद का नाम सदा याद में दीवान राव जगरामजी की मुगल दरबार में पहुँच थी। रहेगा। इनके पिता श्योजीराम भी दीवान थे। तीन ये जयपुर के सं. १७७० से १७९० तक दीवान थे। राजाओं महाराजा पृथ्वीसिंह (सं. १८२४ से १८३५), इनके पुत्र राव कृपाराम बड़े विलक्षण व्यक्ति प्रतापसिंह (सं. १८३५ से १८६०) और जगतसिंह थे। इनका दीवान काल तो सं. १७८० से १७९० तक (सं. १८६० से १८७५) के शासन काल में सं. १८३४ ही था पर ये मुगल दरबार में आमेर की ओर से से १८६७ तक श्योजीरामजी के दीवान होने का उल्लेख प्रतिनिधि थे। बादशाह का इन पर काफी अनुग्रह था। मिलता है। ये बड़े धर्मात्मा और वीर पुरुष थे। मनिहारों लक्ष्मी की इन पर दया थी। इतिहासकार कर्नल टाड् के रास्ते के स्थित बड़े दीवानजी का जैन मन्दिर तथा इन्हें दिल्ली पति का कोषाध्यक्ष मानता है। जयपुर निर्माण दि. जैन संस्कृत कॉलेज भवन इन्हीं का बनाया हुआ में इन्होंने एक करोड़ रुपये दिये थे। इनकी पुत्री के
विवाह में महाराजा जयसिंहजी हथलेवा में कछ गाँव दीवान अमरचन्द का दीवान काल सं. १८६० की जागीर देना चाहते थे पर स्वयं धनिक, बादशाह से १८९२ तक का है। इन्होंने बचपन से धार्मिक शिक्षा तथा राजा के कृपा पात्र होते हुए भी समाज को महत्व ग्रहण की। ये विलक्षण प्रतिभाशाली और शान्त स्वभाव दिया और मात्र दो रुपये हथलेवा में राजाजी से दिलवाये. के थे। गरीबों के सेवक, समाज सधारक और मक दानी जो रिवाज आज भी प्रचलित है। मुगल दरबार में थे। विवाह में लड़की वालों को निकासी के समय मठ अत्यधिक पहुँच होने से रजवाड़ों के बहुत से काम ये (मुट्टीभर रकम) देने का रिवाज उस जमाने में था। गरीब करवा देते थे। अतः सभी रजवाड़ों में इनकी धाक थी। लोगों को इससे परेशान देख आपने दो आने देने का आमेर राज्य की ओर से कई विशेष सेवाओं रिवाज चालू किया जो गत २५ वर्ष पूर्व था। आज तो के कारण इन्हें इनामें मिली हैं। मुगल दरबार से इन्हें
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/31
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनसबदारी मिली थी। जयसिंहजी और उनके भाई का दीवान काल सं. १८२५-१८५५ तक रहा। इनके विजयसिंह का झगड़ा इन्हीं ने निपटाया था। ये धार्मिक पुत्र कृपारामजी और ज्ञानचन्दजी भी दीवान हुए।
और अपने इष्ट के पक्के थे। सूर्य का इन्हें इष्ट था। दीवान रायचन्दजी छाबड़ा - दीवान जयपुर की गलता घाटी की चोटी पर जो सूर्य का मन्दिर बालचन्दजी के तृतीय पुत्र रायचन्दजी कुशल है, वह इन्हीं का बनाया हुआ है। आमेर आदि कई राजनीतिज्ञ, वीर और बड़े धर्मात्मा हए हैं। इनका राज्य जगह इन्होंने सूर्य के मन्दिर बनवाये थे। भानु सप्तमी सेवाकाल सं. १८५० से १८६४ तक का है। सं. को जो सूर्य रथ जयपुर में निकलता है, वह इन्हीं का १८६२ में उदयपुर महाराजा की लडकी कृष्णा कुमारी चलाया हुआ है। सं. १८०४ में इनका स्वर्गवास हो से विवाह करने के संबंध में जयपुर-जोधपुर में काफी गया।
तनाव हुआ। युद्ध के लिए कूच हो गया। पर जयपुर __इनके भाई राव फतहराम सं. १७९० से १८१३ के दीवान रायचन्द और जोधपुर के दीवान श्री इन्द्रराज तक, फतहराम के पुत्र भवानीराम सं. १८४३ से १८५५ सिंघवी के बीच-बचाव और प्रयत्न से युद्ध टला। पर तक तथा भवानीराम के पुत्र जोखीराम भी दीवान हुए यह सुलह स्थायी नहीं रही और पोकरण के ठाकुर द्वारा हैं। इस वंश ने काफी राज्य सेवा की है। जोधपुर की गद्दी पर धौकलसिंह को बिठाने के प्रयत्न
दीवान बालचन्द छाबड़ा-जयपुर के दीवानों में पुनः युद्ध भड़का । दीवान रायचन्द ने जगतसिंहजी में बालचन्द और उनके पत्र रामचन्द काफी विख्यात को काफी मना किया कि हमें ठाकुर पोकरण का पक्ष हुए हैं। बालचन्दजी का दीवान काल सं. १८१८ से लेकर जोधपुर पर चढ़ाई नहीं करना चाहिए, पर १८२९ तक था। जयपुर में उस समय सांप्रदायिक तत्त्व जगतसिंह ने नहीं मानी। फलतः युद्ध में विजय तो हुई उभर रहे थे। श्यामराम नामक एक सांप्रदायिक व्यक्ति पर काफी धन बर्बाद हो गया और जयपुर संकट में पड़ राजा के मुंह लगा हुआ था। उसने जैन दीवानों के साथ गया। शेखावटी आदि के कई झगड़े उस समय चल राजनैतिक विरोध को सांप्रदायिक रूप देकर जैन समाज रहे थे, जिन्हें रायचन्द्रजी ने निपटाये। पर काफी जुल्म ढाये। सं. १८१७ में ढूंढाड़ प्रान्त में जोधपुर युद्ध के समय सब फौजे जोधपुर थीं, अनेक जैन मन्दिर सांप्रदायिकता की लहर में नष्ट-भ्रष्ट जो जोधपुर की ओर से अमीरखाँ पिंडारी ने जयपुर पर हुए। राजस्थान पुरातत्त्व विभाग से प्रकाशित 'बुद्धि आक्रमण कर दिया और लूट-खसोट करने लगा। विलास' में इस घटना का सही वर्णन मिलता है। जगतसिंहजी ने जब यह सुना तो वे जयपुर रवाना हुए। दीवान बालचन्द उदार थे। सांप्रदायिक विद्वेष में न लुटेरे बड़ा जुल्म करने लगे। राजा हतोत्साह हो पड़कर नव निर्माण की ओर उन्होंने ध्यान दिया और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया तो दीवान रायचन्द ने वणिक अनेक नये मन्दिर खड़े करवा दिये। सं. १८२१ में बुद्धि से काम किया और एक लाख रुपया पिंडारी को विशाल इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव इनके सहयोग से देकर जगतसिंहजी को सकुशल जयपुर पहुँचाया और हुआ, जिसमें दूर-दूर से काफी यात्री आये। इससे पिंडारी को वापस लौटाया। संकुचित विचार वाले और भी चिढ़े और सं. १८२६- रायचन्दजी जहाँ गढ नीतिज वीर योद्धा और २७ में पुनः सांप्रदायिक आग फैली, जिसमें पण्डित कुशल प्रशासक थे। वे बड़े धर्मात्मा भी थे। इन्होंने सं. टोडरमलजी आदि विद्वानों की आहुति लगी। १८६१ में विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करायी। इनका
दीवान बालचन्दजी के पुत्र जयचन्दजी और स्वर्गवास सं. १८६४ में हो गया। इनके दत्तक पुत्र रायचन्दजी भी बड़े प्रतिभाशाली सज्जन थे । जयचन्दजी दीवान संघी मन्नालाल ने दीवानगिरी की और
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/32
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
फौजबख्शी रहे।
९. ताराचन्द बिलाला पुत्र केशवदास - सं. १७७३ दीवान विजैराम तोतका-ये सवाई जयसिंह से १७९० तक। के समय में दीवान थे। जयसिंहजी की बहिन का विवाह १०. रावकृपाराम पांड्या पुत्र जगराम – सं. १७८० मुगल बादशाह अपने साथ करना चाहता था। राजा
से १७९० तक। द्वारा इन्कार करना बड़ा मुश्किल था। पर जब राजा ११. फतहराम पांड्या पुत्र राव जगराम - जयपुर में नहीं थे, दीवान विजैराम ने बंदी के हाडा सं. १७९० से १८१३ तक। बुधसिंहजी के साथ उनका विवाह कर दिया। मुगल १२. भगतराम पांड्या पुत्र राव जगराम - सं. १७९२ बादशाह नाराज हुए पर रणबांकुरे बूंदी के हाडों और जयपुर से बैर मोल लेना उचित न समझा। मन मसोस १३. विजयराम छाबड़ा पुत्र तोलूराम - कर रह गये। सवाई जयसिंहजी दीवान विजैराम से बड़े १४. नैनसुख तेरापंथी - सं. १७६९ से १७७०। खुश हुए और ताम्र पत्र देते हुए उसमें लिखा कि १५. श्रीचन्द छाबड़ा – सं. १७७० से १७७१ । “शाबाश ३, तुमने कछावा वंश का धर्म रखा, महान १६. कन्हीराम बैद पुत्र खेमकरण – सं. १८०७ से कार्य किया। हमें जो रोटी मिलेगी, उसमें आधी तुम्हें
१८२०। बांटकर खायेंगे और हमारे वंशज इस वायदे से नहीं १७. केसरीसिंह कासलीवाल - सं. १८०८ से फिरेंगे।” इन्होंने और भी कई महत्वपूर्ण कार्य किये। १८१७ । यहाँ जानकारी की दृष्टि से जयपुर में हुए जैन १०
१८. रतनचन्द शाह – सं. १८२३ से १८२५ । दीवानों को संक्षिप्त तालिका प्रस्तुत की जा रही है -
' १९. आतमराम खिन्दूका पुत्र ऋषभदास - सं. १८१४
से १८३५। १. मोहनदास - मिर्जा जयसिंह के महामंत्री, स. २०. मौजीराम छाबड़ा - १७१४ के शिलालेख के आधार पर।
२१. बालचन्द छाबड़ा पुत्र मौजीराम – सं. १८१८ २. कल्याणदास पुत्र मोहनदास-सं. १७७० में मौजूद
से १८२९।
२२. नैनसुख खिन्दूका पुत्र मुकन्ददास – सं. १८२१ ३. विमलदास छाबड़ा - आमेरपति विशनसिंह (सं.
से १८२६। १७४६-५६) के दीवान थे।
२३. जयचन्द शाह पुत्र रतनचन्द – सं. १८२४ से ४. रामचन्द्र छाबड़ा - सं. १७४७ से १७७६ तक
१८३५। दीवान रहे।
२४. मोतीराम संघी गोधा पुत्र नन्दलाल - सं. १८२५ ५. फतहचन्द छाबड़ा - सं. १७६५ से १७७१ तक
से १८३४। दीवान रहे।
२५. अमरचन्द सोगानी पुत्र भामाराव - सं. १८२९ ६. किशन चन्द छाबड़ा - सं. १७६७।।
से १८३४। ७. भीवचन्द छाबड़ा पुत्र किशनदास - सं. १८५५ २७ जयचन्द छाबड़ा - सं. १८२९ से १८५५ । से १८५९ तक।
२७. जीवराज संघी -- सं. १८३० से १८४०। ८. जगराम पांड्या -- सं. १७७४ से १७९०।
२८. मोहनराम पुत्र जीवराज संघी - सं. १८३४ से
१८६७ १. यह विवरण जयपुर जैन डायरेक्टरी (पृष्ठ १-१८ से १-२०) से साभार उद्धृत किया गया है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/33
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८९
२९. भागचन्द पुत्र सीताराम - सं. १८४२ से १८४६। ४२. अमोलक चन्द खिन्दूका पुत्र नोनदराम – सं. ३०. श्योलाल खिन्दूका पुत्र रतनचन्द - सं. १८३४ १८८२ से १८८६। से १८६७।
४३. संघी झुथाराम पुत्र मोतीराम – सं. १८८१ से ३१. भगतराम बगड़ा पुत्र सुखराम – सं. १८४२ से १८९१। १८८५।
४४. संघी हुकमचन्द पुत्र मोतीराम – सं. १८८१ से ३२. भवानीराम पांड्या पुत्र फतेहराम – सं. १८४३ से १८५५।
४५. बिरदीचन्द पुत्र हुकमचन्द संघी – सं. १८८६ ३३. सदासुख छाबड़ा पुत्र जयचन्द – सं. १८५७ से से १८९९ । १८६४।
४६. संपतराय खिन्दूका पौत्र आरतराम -सं. १८९१ ३४. राव जाखीराम पुत्र भवानीराम -
से १८९६। ३५. अमरचन्द पाटनी - सं. १८६० से १८९२। ४७. मानकचन्द ओसवाल - सं. १९०६ से १९१२। ३६. श्योजीलाल छाबड़ा पुत्र चैनराम – सं. १८६५ ४८. संघी नन्दलाल गोधा पुत्र अनूपचन्द-सं. १८१३ से १८७५।
ये १८२८ ३७. मन्नालाल छाबड़ा पुत्र रामचन्द – सं. १८६६ ४९. किशोरदास महाजन - सं. १७४९ से १७७९ । से १८६९।
५०. गंगाराम महाजन पुत्र कालूराम – सं. १८४० से ३८. कृपाराम छाबड़ा पुत्र जयचन्द – सं. १८६९ से १८४५। १८७५।
५१. कृपाराम छाबड़ा रामचन्द के भतीजे-सं. १८६९ ३९. लखमीचन्द छाबड़ा पुत्र जीवनराम - सं. १८७४ से १८७५ । से १८८१।
५२. रायचन्द - ४०. लखमीचन्द गोधा पुत्र भगतराम - सं. १८७४ ५३. प्यारेलाल कासलीवाल – सं. १९७६ से से १८८१।
१९७९। ४१. नोनदराम खिन्दूका पुत्र आरतराम - सं. १८७४ ५४. नथमल गोलेछा – माधोसिंहजी के समय में से १८८१।
दीवान थे। 0 वीर प्रेस, मनिहारों का रास्ता, जयपुर
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगत स्पृहः । वीतराग भयक्रोधः स्थिति धीर्मुनिरुच्यते॥
- दुःखों की प्राप्ति होने पर, जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये है - ऐसा स्थिर बुद्धि मुनि कहा जाता है।
- गीता २/५६
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/34
.
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनधर्म का प्राचीनतम अभिलेखीय प्रमाण
पण्डित ताराचन्द्र पाटनी, ज्योतिषाचार्य
उडीसा प्रदेश में भुवनेश्वर के पास उदयगिरी- व्याख्या ‘पखिणसंसितेहि' है जिसका संस्कृत रूपान्तर खण्डगिरी पहाडियों में कुछ प्राचीन गुफायें हैं, जिनका ‘प्रक्षिप्त-संसृता' होगा। इसका अर्थ यह है कि जिसने निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शती में किया था। पूर्वी भारत आवागमन छोड़ दिया है। निम्नलिखित गाथा में आचार्य में इस प्रकार पहाड में से काटकर बनाई गई गुफाओं कुन्दकुन्द ने भी अरहंत की इस प्रकार व्याख्या की हैका ये अब तक ज्ञात सर्व प्राचीन उदाहरण है। इनमें जरवाहि-जन्ममरणं चउगडगमणं च पुण्ण पावं च। से अधिकांश मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों से हतण दोस कम्मे हउ णाणमयं च अरहंतो ।। मिलती जुलती ब्राह्मी लिपि में लेख है। इन अभिलेखों
मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध में सबसे अधिक महत्वपूर्ण उदयगिरी पर हाथी गुम्फा के मुखभाग पर उत्कीर्ण दस पंक्तियों का ‘आर्य महाराज
संघ का निर्देश भी इस लेख में मिलता है। खारवेल महामेघवाहन चेतिराज वंशवर्धन कलिंगाधिपति श्री
स्वयं को ‘उवासग' (उपासक, श्रावक) कहता है खारवेल' का लेख है, जिसमें उसके राज्यकाल के १३
और यह व्याख्या भी करता है कि श्रावक वह है जो वर्षों का क्रमिक विवरण है।
व्रतों का पालन करता है और पूजा में रत रहता है। यह
भी संकेत है कि व्रतों के पालने से दिव्य तेज की प्राप्ति हाथी गम्फा अभिलेख के महत्वपूर्ण होती है। जीव और देह (पुदगल अजीव) के द्वैत का उल्लेख - इस लेख में तीन घटनाओं के समय का
" भी उल्लेख है। खारवेल का यह कथन कि उसका देह उल्लेख है। यथा वर्ष १०३ में कलिंग नगरी में नन्दराज ।
पर आश्रित है, जैन दर्शन में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता द्वारा तनसुलियवाट नहर का निकालना, वर्ष ११३ में ।
और जीव अजीव के पारस्परिक सम्बन्धों की धारणा तमिल देशों के संघ का गठन और वर्ष १६५ में द्वादशांग ।
__ से पूरी तरह मेल खाता है। ‘श्रमण' की व्याख्या मुख्य कल (श्रुत) की व्युच्छिति। ऐतिहासिक घटनाओं
‘सुविहित' की गई है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन साधु ने तारतम्य की दृष्टि से यह काल-निर्देश महावीर निर्वाण
की जो विशेषता निम्न लिखित गाथा में बताई है वह की काल गणना के अनुसार किया गया प्रतीत होता है। उक्त काल गणना के प्रयोग का यह अभिलेख प्रथम
सुविहित ही है - पुष्ट प्रमाण माना जा सकता है।
देहादि संग रहिओ माण्क साएहिं सयल परिचत्तो। ‘णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भाविलिंगी हवे साहू ।। आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं' जैन साधुओं के चार प्रकारों का भी यहाँ उल्लेख का जैनों में वही महत्त्व और लोक प्रियता है जो 'बुद्धं है। सर्व प्रथम श्रमण का उल्लेख है जो मात्र आत्म सरणं गच्छामि, धम्म सरणं गच्छामि, संघं सरणं साधना करते थे और संसार से पूर्णतः अलिप्त थे। उनके गच्छामि' का बौद्धों में और गायत्री मंत्र का वैदिकों में। बाद ज्ञानी और तपस्वी ऋषि का उल्लेख है। ज्ञानी श्रुत इस उल्लेख से यह भी पुष्ट होता है कि शुद्ध पाठ 'अरहंत' के ज्ञाता थे और तपस्वी ऋषि तप साधना पर विशेष है न कि 'अरिहंत' । 'अरहंत' की प्राचीनता लिखित बल देते थे। अन्त में संघयन का उल्लेख है। ये संघ व्याख्या भी इस लेख की पंक्ति १४ में मिलती है। यह नायक थे। लगभग १७२ वर्ष ईसा पूर्व, अपने राज्यकाल
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/35
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
के १३वें वर्ष में खारवेल ने जैन साधुओं की केवली प्रणीत समस्त श्रुत द्वादशांग रूप था। खारवेल एक सभा बुलाई। इस सभा की जानकारी का स्रोत एक ने भी इसका उल्लेख चोयठ अंग अर्थात् ४+८=१२ अंग मात्र यहाँ अभिलेख है, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही किया है और इस प्रकार इस अनुश्रुति का सर्वप्रथम ही सम्प्रदायों की साहित्यिक अनुश्रुतियाँ इसके विषय लिखित प्रमाण इसी लेख में प्राप्त होता है। श्रुत की में मौन हैं। सम्भवतः इस सभा का उद्देश्य संघ भेद को व्युच्छित्ति का उल्लेख इस लेख में महावीर निर्वाण के रोकने और दोनों सम्प्रदायों में तात्त्विक विवादों पर १६५वें वर्ष में किया गया है, जो भी दोनों ही सम्प्रदायों समझौता कराने का एक महत् प्रयास था। संघ भेद के की साहित्यिक परम्पराओं से मेल खा जाता है। इस पोषक दोनों ही सम्प्रदायों के परवर्ती साहित्यकारों ने सभा का उद्देश्य अवशिष्ट श्रुत को संकलित और संरक्षित इस समझौते के प्रयास भुला देना ही यथेष्ठ समझा प्रतीत करना रहा प्रतीत होता है। कुछ ही दशक पूर्व बौद्धों होता है और इसलिये उसकी कोई चर्चा उन्होंने नहीं द्वारा कुछ वचनों के संकलन का ऐसा ही एक प्रयत्न की। ईस्वी सन् के प्रारम्भ के लगभग मथुरा में आरातीय मौर्य सम्राट अशोक के संरक्षण में मगध में किया जा यतियों या यापनियों के रूप में एक वर्ग ऐसा था जो चुका था। संघ भेद को गर्हित समझता रहा । ऐसा सम्भव है कि निषिद्या या चैत्य जो साधुओं के निवास स्थान उस वर्ग ने इस सभा की स्मृति को जीवित रखा हो परन्तु का ही एक अंग होता था जैसा कि रानी सिन्धुला ने उसका साहित्य उपलब्ध नहीं है।
बनवाया था, जिसकी खारवेल ने मथुरा में वन्दना की यह सभा विजय चक्र नामक प्रशासकीय खण्ड
थी और सन्निवेश जहाँ जिन प्रतिमा विराजमान होती में कुमारी पर्वत पर, जो उदयगिरी का प्राचीन नाम था,
थी और जिसकी खारवेल ने मगध में पूजा की थी। ईसा आयोजित की गई थी। इसमें सभी दिशाओं से आये पूर्व ४२४ में भी कलिंग में जैनों में मूर्ति पूजा का प्रचलन ३५०० साधुओं ने भाग लिया था। पर्वत के ऊपर था, क्योंकि उस समय नन्द राजा जिन प्रतिमा को अरहंत की निषिद्या के समीप का प्राग्भार सभा-स्थल
कलिंग से मगध उठा लाया था और उसे अपनी राजधानी था। यह प्राग्भार रानी सिन्धुला द्वारा निर्मित निषिद्या में प्रतिष्ठित किया था। मुथरा उस समय जैनों को से सटा हआ था। रानी सिन्धला की निषिद्या मंचपरी तीर्थराज था, जहाँ खारवेल ने स्तूप की पूजा की थी गुफा की ऊपरी मंजिल पर रही प्रतीत होती है जो कि और ‘सव गहणं' नामक उत्सव किया था। ‘सव हाथी गुफा के सम्मुख दक्षिण पूर्व को स्थित है। हाल
गहणं' का शुद्ध रूप सर्व ग्रहणम् हो सकता है। जिसका ही में पुरातात्विक खुदाई से हाथी गुफा की छत पर एक
अर्थ सब कुछ की प्राप्ति या सब कुछ का त्याग, दोनों पूजा-गृह के अवशेष भी प्रकाश में आये है, जोसम्भवतः
ही हो सकते हैं। दूसरा अर्थ सन्दर्भ की दृष्टि से अधिक अरहन्त निषिद्या के प्रतीक हैं। इस प्रकार चपरी और उपयुक्त है। ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त उत्सव के समय हाथी गुफा के बीच केस्थलको सभा-स्थल से पहिचाना 3
उसने अपने को सांसारिक कार्यों से स्वेच्छा से अलग जा सकता है। सभा मंडप के सम्मुख एक वैडूर्य मंडित
न कर लिया था। इस लेख में चार चिन्ह उत्कीर्ण मिलते
कर लि चोकोर स्तंभ स्थापित किया था। यह मानस्तंभ का हा
हैं जिनमें से स्वस्तिक और नन्द्यावर्त जैन धर्म से संबंधित प्रतिरूप रहा प्रतीत होता है। सभा मंडप की रचना हैं। इनका उल्लेख अष्ट प्रातिहार्यों में आता है। साथ की समवशरण के अनुरूप की गई प्रतीत होती है। इस सभा गुफाओं में जो लेख है उनसे यह भी ज्ञात होता है कि में द्वादशांग की वाचना की गई थी। साहित्य में 'वाचना' उस काल में जैन साधुओं के आवास के लिये पहाड का प्रयोग ऐसी सभाओं के लिए भी किया गया है। काट कर गुफायें बनाई जाती थी। दोनों ही सम्प्रदाय इस बारे में एक मत हैं कि
- ११३२, मनिहारों का रास्ता, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/36
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिंसक शाकाहार : स्वास्थ्य का आधार
अहिंसा परमो धर्म: अहिंसा सभी धर्मों का सार है; आरोग्य का आधार है। अहिंसा रूपी धुरी के चारों ओर ही धर्म रूपी पहिया चलता है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में भी कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषियों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषधि, वन में जैसे सार्थवाह आधारभूत है। वैसे ही, 'अहिंसा' प्राणियों के लिए आधारभूत है । अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है।
इसी प्रकार भगवान महावीर ने दशवैकालिक सूत्र में भी सभी प्राणियों की भलाई के साधन के रूप में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ तथा प्रथम स्थान प्रदान किया है। जैन ग्रन्थ भगवती आराधना में बताया गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है । सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान ) है ।
अहिंसा स्वस्थ जीवन का आधार है । स्वस्थ जीवन का अर्थ है – शरीर, मन एवं आत्मा का संतुलन सच्चे स्वास्थ्य का अर्थ है - जीवन शक्ति का ओतप्रोत होना, जिसमें जीवन के शारीरक एवं मानसिक कार्य बराबर होते रहें। जीवन के क्षण-क्षण में आनन्द, उत्साह तथा आशा का निर्झर स्रोत लगातार बहता रहे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार “सिर्फ बीमारी, शारीरिक एवं मानसिक नैबर्त्य से मुक्ति ही स्वास्थ्य नहीं कहलाता है बाल्कि व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक स्थिति में पूर्ण समन्वय ही स्वास्थ्य है । "
आहार स्वास्थ्य का आधार बिन्दु है। इसी इर्दगिर्द सारा जीवन है । प्राणिमात्र का अस्तित्व आहार
डॉ. किरण गुप्ता
से संभव होता है, आहार से हमारे आचार-विचार एवं व्यवहार में परिवर्तन होता है। भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है
सात्विक, अहिंसक, नैतिक होना चाहिए। मानव समाज इसलिए आहार का स्रोत शुद्ध, पवित्र, मूलतः शाकाहारी ही है। शाकाहार का अर्थ है वनस्पति जन्य खाद्यान्न, जो अहिंसात्मक रूप से प्राप्त किया गया हो अर्थात् फल-सब्जियाँ, सूखे मेवे, अन्न-दालें, दूधदही इत्यादि । स्वस्थ जीवन का भौतिक आधार शाकाहार है। आयुर्विज्ञान की दृष्टि से शाकाहार में सक्रिय औषधीय रसायन होते हैं। जो डाइयूरेटिक, एनलजेसिक, एन्टीपायरेटिक, एण्टीइन्फेलेमेटरी, एण्टीडायरिया, एण्टीहिस्टामिनिक, एन्टीमलेरियल, एग्मेनेगॉग, कोलेगॉग, लक्सेटिव, सुडोरीफिक, एण्टीडोट, एमिटिक, एण्टीएमिटिक, एण्टीहाईपरटेन्सिव, एण्टीवायरल, एण्टीमाईकोटिक, एण्टीस्पास्मोडिक, महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/37
'अन्नाद भवंति भूतानि' - भोजन करना जीवन का अत्यन्त अहम् अंग है। बीमारी और स्वास्थ्य इसी भोजन पर निर्भर करता है। पेट के खराब होते ही शरीर के अन्य अंगों की जीवन उर्जा नष्ट होने लगती है । वे निष्क्रिय एवं निष्प्राण होकर मुरझाने लगते हैं। पेट के स्वस्थ होते ही समस्त अवयव प्रफुल्लित एवं निरोगी रहते हैं । सक्रिय एवं सजीव हो उठते हैं। आधुनिक आयुर्विज्ञानियों का मत है कि पेट के आन्तिरिक सूक्ष्म जैव पर्यावरण वातावरण, इन्टेस्टाइनल माइक्रोबाइलोजिकल इन्वायरमेंट जितना सशक्त एवं सबल होगा उतनी ही हमारी जीवनी शक्ति सशक्त एवं सबल होती है । परिणामतः हम स्वस्थ रहते है । 'तन स्वस्थ तो मन भी स्वस्थ ।' आहार का मनुष्य के मन पर भी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि जैसा खायेगा अन्न, वैसा बनेगा मन ।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
एण्टीस्टरिलिटी आदि का कार्य सफलता के साथ करते शरीर को रोग मुक्त करते हैं। विभिन्न प्रयोगों एवं खोजों हैं तथा अपना घातक दुष्प्रभाव भी नहीं डालते हैं। से यह सिद्ध हो गया है कि अंकुरित अनाज में जैव
विश्वविख्यात जैविक आहार विशेषज्ञ डा. एन रसायन किण्वन एवं, खमीरीकरण प्रक्रिया द्वारा उच्चतम विग्मोर ने एक अदभुत प्रयोग का उल्लेख किया है। किस्म का प्रोटीन, विटामिन बी. बी. बी. बी. विटामिन चूहों के दो समहों में से एक समूह को माँस, मदिरा सी आदि एन्जाइम पैदा हो जाते हैं जो मांसाहार में नहीं आदि हिंसक उत्तेजक खाद्य पदार्थ दिए गए तथा दसरे होते। अंकुरित अनाजों, फलों व सब्जियों से एमिनो समह को फलों का रस. घास एवं अंकरित अन्न आदि एसिड की पूर्ति भी आसानी से हो जाती है। किण्व जैविक आहार दिया गया। अध्ययन से पाया गया कि अहारों में स्टार्च, कार्बोज, प्रोटीन, लोहा, कैल्सियम उत्तेजक खाद्य खाने वाले चहों में हिंसात्मक प्रवत्ति तथा विटामिन की गुणवत्ता बढ़ जाने से उनकी अवचूषण आलेले कामयाबीन निकासी पाई गई। क्षमता भी बढ़ जाती है। दही में स्थित उपयोगी असंख्य ___इसके विपरीत जैविक आहार खाने वाले चूहों
सूक्षम जीवाणु आँतों के सामान्य स्वास्थ्य के लिए में अद्भुत सौहार्द भाव था। अत: हम कह सकते हैं
विटामिन बी आदि पोषक तत्त्व संश्लेषित करते हैं जो कि सही रूप से स्वास्थ्य की उपलब्धि हेतु संतुलित,
- मासांहार में किसी भी कीमत पर नहीं मिलते। नियमित, जैविक शाकाहार एवं पोषण का महत्व है।
कार्बनिक जैव आहार के प्रयोग से व्यक्ति के हमारे शरीर के स्वर निर्माण व विकास के दुगुण ईष्यो, द्वेष, घृणा, हिसा लोभ, क्रोध, मोह इत्यादि लिए ८० प्रतिशत क्षारीय व २० प्रतिशत अम्लीय
का रूपान्तरण हो जाता है। व्यक्ति के अन्दर दूसरों के आहार की आवश्यकता होती है। इन तत्त्वों के समानुपात
तथा अपने प्रति सहानुभूति, उदारता, प्रेम, स्नेह, करुणा, से जैव विद्युत चुम्बकीय जीवनी शक्ति का निर्माण व
मैत्री, मुदिता, संयम, सेवा, सहनशीलता, सहकारिता, संवर्धन होता है जो कि अहिंसक शाकाहार द्वारा ही
निर्भयता, प्रसन्नता, स्वच्छता आदि उदात्त विचारों संभव है।
तथा सद्गुणों का विकास होता है। मानवीय सौहार्द के
भाव का सम्वर्द्धन होता है, जो कि अहिंसक आहार जापानी आयुर्विद ताकेशी हिरायामा १लाख टा
लाख द्वारा ही संभव है। २८ हजार लोगों पर १६ वर्ष तक निरंतर खोज के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पीले तथा हरे रंग
मनुष्य के शरीर की संरचना भी शाकाहारी ही (पालक,गाजर, पपीता आदि) क्षारीय जैविक आहारों
है। मनुष्य के दाँत, जबडे, पेट की आँते, पाचन व लाल में एण्टी ऑक्सीडेन्ट, बीटा कैराटिन एवं टॉकेफेरॉल,
ग्रंथियाँ सभी अधिकतर गुरील्ला जाति के वानरों से ओमेगा-३, पॉली अनसेचुरेटेड वसा तथा रफेज की
मिलती है जो केवल फल खाकर असाधारण शक्ति प्राप्त अधिकता होने से व्यक्ति दीर्घजीवी होता है तथा कैंसर,
करते हैं। मनुष्य के आगे के दाँतों की बनावट भी फल अल्सर, हृदय रोग जैसे घातक रोगों से मुक्त रहता है,
___ काटने के उपयुक्त ही है। मानसिक अवसाद, तनाव से दूर रहता है, जो इन रोगों हिंसक जीवों के दाँत लंबे, नुकीले और दूरकी जड है। इसी प्रकार ब्रिटेन के नाटिंधम यनिवर्सिटी दूर होते हैं जिनसे वे जीवों का मांस फाड़कर निगल के शोधकर्ताओं ने २६३३ वयस्कों पर तथा साउथ जाते हैं । उनका आमाशय छोटा और गोल होता है और टैम्पटन यनिवार्सिटी के वैज्ञानिकों ने २३१ लोगों पर आँते उनके शरीर से ३ से ७ गुना अधिक लंबी होती शोध अध्ययन किया कि सेव, टमाटर, संतरा, गाजर, हैं। अतः यह सिद्ध हुआ कि मनुष्य फल भक्षी जीव नाशपती आदि आहारों में पाए जाने वाले एंटी ऑक्सीडेंट है और उसका स्वाभाविक भोजन मात्र फल है। लाइकोपिन, बीटा कैरोटिन, कैथिन्स शरीर में पाए जोने किसी जीव के स्वाभाविक भोजन को जाँचने वाले फ्री रेडिकल्स व ऑक्सीडेंटों का सफाया करके की दूसरी कसौटी है खाद्य वस्तु विशेष को उसकी
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/38
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वाभाविक दशा में खाने को उस जीव विशेष का जी चाहना । उसकी ओर आकर्षित होना । जैसे- शेर का बच्चा शिकार ढूँढता है, मृगशावक दूब ढूँढता है । लोमड़ी का बच्चा चूहे आदि का शिकार करता है। और आज के इस कृत्रिमता के जमाने में भी एक फल से लदे वृक्ष को देखकर किस मनुष्य के मुँह में पानी नहीं भर आता?
यह भ्रम है कि मांस उर्जा एवं शक्ति का स्रोत है । शक्ति की माप अश्व-शक्ति है और अश्व शाकाहारी है । शक्तिशाली जानवर हाथी, गैंडा, घोडा इत्यादि शाकाहारी होते हैं। विश्व के प्रख्यात दार्शनिक एवं वैज्ञानिक भी प्रायः शाकाहारी हुए हैं। आइन्सटीन शाकाहार के प्रबल समर्थक थे । जार्ज बनार्ड शॉ कहा करते थे कि पेट कब्रिस्तान नहीं है कि वहाँ मुर्दे (मांस) को दफनाया जाय ।
हिंसक आहार के घातक प्रभाव को देखते हुए पूरे विश्व में शाकाहार आन्दोलन प्रभावी बन गया है। जनसाधारण के आकर्षण के केन्द्र राजकुमारी डायना, प्रिंस चार्ल्स, माइकल जैक्सन तथा अभिनेत्री सारा माइल्स व हेल्लीमिल्स जैसे लोग मांसाहार छोड़कर शाकाहार अपना चुके हैं। इसका बहुत बड़ा कारण स्वास्थ्य व सौन्दर्य है।
मांसाहार के सम्बन्ध में बड़ी ही भ्रान्त धारणा है कि मांसाहार का प्रोटीन श्रेष्ठ किस्म का है और इस श्रेष्ठ किस्म के प्रोटीन के अभाव में व्यक्ति का शारीरिक विकास व मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों, साहित्यकारों व दार्शनिकों के जीवन का अध्ययन करने के बाद ज्ञात हुआ है कि वे जीवनपर्यन्त शाकाहारी थे। भगवान महावीर जिन्होंने अहिंसा को परम धर्म माना है, के विषय में कहा जाता है कि उनके जैसा सुन्दर एवं स्वस्थ शरीर एवं मन कभी हुआ ही नहीं । उनके चित्र से भी ऐसा ही प्रतीत होता है।
भगवान युद्ध, पूज्य बापू, जार्ज बर्नाड शॉ, महर्षि रमन, अरविन्द, रजनीश, महेश योगी, कबीर, आचार्य तुलसी, तुलसीदास, महात्मा ईसा, स्वामी रामतीर्थ, वैज्ञानिकों में डॉ. हेनरी, सी. शेरमन, जैक
सी. हूमंड, सर हेनरी रामसन, डॉ. अल्बर्ट श्विबजर, डॉ. तादाने, डॉ. कार्ल ऐंडर्स, डॉ. सी. बी. रमण, एम. विश्वेश्वरैया आदि हजारों नाम हैं। जिन्होंने अपनेअपने क्षेत्र में विश्व को दिशा-निर्देश दिया और वे सभी शाकाहारी थे। वर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम तो पूर्णत: शाकाहारी हैं।
महान वैज्ञानिक डॉ. अल्बर्ट आइन्सटीन ने एक बार बड़े दु:ख के साथ कहा था " यद्यपि बाह्य परिस्थितियों ने मुझे शाकाहारी होने के पथ पर कुछ रोड़े अटका रखे हैं तो भी मैं शाकाहार का पूर्ण समर्थक हूँ..... मानव मनोभावों को शाकाहार भौतिक रूप से प्रभावित करता है...... आनेवाली मानव जाति के भविष्य में शाकाहार महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा । "
मांसाहारी फास्ट फूड में स्थित सोडियम नाइट्रेट कैंसर उत्पन्न करता है। विश्व के विभिन्न देशों में किये गये वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि प्रायः फास्टफूड में फाइबर्स, प्राकृतिक सेलुलोस, डेक्ट्रिन्स, पैक्ट्रिन्स आदि तन्तुमय आहार तत्त्वों की कमी होती है, जिससे अपेंडिसाइटिस, पित्ताशय की पथरी, पाइल्स, अल्सर, कैंसर, कोलेस्टॉल वृद्धि, कोरोनरी आरटरी डिजिस, आँतों का कैंसर, खून की विषाक्तता, मोटापा, मधुमेह, चर्मरोग, रक्त के थक्के बनना तथा पाचन सम्बन्धी अनेक रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
हमारा शरीर एक जैव रासायनिक कारखाना है, अतः इसका ईंधन भी जैव रासायनिक ही होना चाहिए। यही विज्ञान एवं प्रकृति सम्मत है। कार्बनिक जैव आहार (शाकाहार) जीवन्त शरीर का सर्वश्रेष्ठ ईंधन है । मन का आधार है, मस्तिष्क की खाद है। अत: शाकाहार ही आरोग्य की निशानी है, जीवन का शृंगार है। शाकाहार ही हमें विश्व बन्धुत्व की ओर प्रेरित करता है। यदि हम चाहते हैं
-
" सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभागभवेत् । ” तो हमें अहिंसक शाकाहार को अपनाना ही
होगा ।
→ प्राकृतिक चिकित्सालय, बापूनगर, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/39
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
मौन चिन्तन : चित्त की एकाग्रता
388
डॉ. त्रिलोकचन्द कोठारी
दिनांक : २३ मई २००६ के मौन चिन्तन आपकी एकाग्रता पर अवलंबित है। व्यापार, व्यवहार, “तमोगुण और उसको जीतने के उपाय" ८०वें वर्ष शास्त्र-शोधन, राजनीति, कूटनीति किसी को भी ले में ११ जून में प्रवेश से पूर्व गीता प्रवचन के १४ वें लीजिये, इनमें जो कुछ यश मिलेगा, वह उन-उन पुरुषों अध्याय में उक्त विषय के बारे में दिया था आज का के चित्त की एकाग्रता के अनुसार मिलेगा। मौन चिन्तन गीता प्रवचन के अध्याय ६ में चित्त की व्यवहार हो या परमार्थ, चित्त की एकाग्रता के एकाग्रता के बारे में है ८०वें वर्ष में प्रवेश के साथ ही बिना उसमें सफलता मिलनी कठिन है। यदि चित्त आगे निरन्तर मेरे प्रिय विषयों से पूज्य आचार्य विनोबा एकाग्र रहेगा, तो फिर सामर्थ्य की कभी कमी न पड़ेगी। जी के धूलिया जेल में सन् १९२९ में हर रविवार को साठ वर्ष के बूढे होने पर भी किसी नौजवान की तरह दिये गये प्रवचन (गीता प्रवचन) में से निरन्तर अभ्यास उत्साह और सामर्थ्य दीख पड़ेगी। मनुष्य ज्यों-ज्यों करते हुये समय-समय पर चिन्तन प्रस्तुत करने का बुढ़ापे की तरह जाये, त्यों-त्यों उसका मन अधिक प्रयास करूंगा।
मजबूत होता जाना चाहिए। फल को ही देखिये न। ध्यान योग में तीन बातें मुख्य है - १. चित्त पहले वह हरा होता है, फिर पकता है, फिर सड़ता है. की एकाग्रता २. चित्त की एकाग्रता के लिए उपयक्त गलता है और मिट जाता है; परन्तु उसका भीतर का जीवन की परमितता और ३. साम्यदशा या सम-दृष्टि।
बीज उत्तरोत्तर कड़ा होता जाता है। यह बाहरी शरीर इन तीन बातों के बिना सच्ची साधना नहीं हो सकती।
सड़ जायेगा, गिर जायेगा, परन्तु बाहरी शरीर फल का चित्त की एकाग्रता का अर्थ है, चित्त की चंचलता पर
सार-सर्वस्व नहीं है। उसका सार-सर्वस्व, उसकी आत्मा अंकुश । जीवन की परिमितता का अर्थ है, सब क्रियाओं
तो है बीज । यही बात शरीर की है। शरीर भले ही बूढ़ा
. होता चला जाये, परन्तु स्मरण-शक्ति तो बढ़ती ही का नपा-तुला होना। सम-दृष्टि का अर्थ है विश्व की ।
रहनी चाहिए। बुद्धि तेजस्वी होनी चाहिए। परन्तु ऐसा ओर देखने की उदार दृष्टि। इन तीन बातों से ध्यान
होता नहीं। मनुष्य कहता है “आजकल मेरी स्मरणयोग बनता है। इस त्रिविध साधना के भी साधन है।
शक्ति कमजोर हो गयी है।" क्यों ? “अब बुढ़ापा आ वे हैं - अभ्यास और वैराग्य। इन पांचों बातों की
गया है।” तुम्हारा जो ज्ञान, विद्या या स्मृति है, वह थीड़ी-सी चर्चा हम यहां करें।
तुम्हारा बीज है। शरीर बूढ़ा होने से ज्यों-ज्यों ढीला पहले चित्त की एकाग्रता को लीजिये। किसी पड़ता जाय, त्यों-त्यों आत्मा बलवान होती जानी भी काम में चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। व्यावहारिक चाहिए। इसके लिए एकाग्रता आवश्यक है। बातों में भी चित्त की एकाग्रता चाहिए। यह बात नहीं
एकाग्रता कैसे साधे ? भगवान् कहते हैं, आत्मा कि व्यवहार में अलग गुणों की जरूरत है और परमार्थ
___ में मन को स्थिर करके न किचिदपि चिन्तयेत्-दूसरा में अलग। व्यवहारों को शुद्ध करने का ही अर्थ है,
। कुछ भी चिन्तन न करें। परन्तु यह सधे कैसे? मन को परमार्थ । कैसा भी व्यवहार हो, उसका यश और अपयश 3
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/40
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिल्कुल शान्त करना बड़े महत्व की बात है। विचारों में दो नासा-पुट। इस तरह बिल्कुल एक-से होकर भी के चक्र को जोर से रोके बिना एकाग्रता होगी कैसे? एक मनुष्य देवतुल्य होता है, तो दूसरा पशु-तुल्य । ऐसा बाहरी चक्र तो किसी तरह रोक भी लिया जाय, परन्तु क्यों होता है? एक ही परमेश्वर के बाल-बच्चे हैं, 'सब भीतरी चक्र तो चलता ही रहता है। चित्त की एकाग्रता एक ही खानि के।' तो फिर यह फर्क क्यों पड़ता है? के लिये ये बाहरी साधन जैसे-जैसे काम में लाते हैं, इन दो व्यक्तियों की जाति एक है, ऐसा विश्वास नहीं वैसे-वैसे भीतर के चक्र अधिक वेग से चलने लगते होता। एक नर का नारायण है, तो दूसरा नर का वानर । हैं। आप आसन जमाकर तनकर बैठ जाइये, आँखें मनुष्य कितना ऊंचा उठ सकता है, इसका स्थिर कर लीजिये। परन्तु इतने से मन एकाग्र नहीं हो नमूना दिखानेवाले लोग पहले भी हो गये हैं और आज सकेगा। मुख्य बात यह है कि मन का चक्र बन्द करना भी हमारे बीच हैं। यह अनुभव की बात है। इस नरसधना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मन की स्थिति बदले देह में कितनी शक्ति है, इसको दिखानेवाले संत पहले बिना एकाग्रता नहीं हो सकती। मन की स्थिति शुद्ध हो गये हैं और आज भी हैं। इस देह में रहकर यदि मनुष्य होनी चाहिए। केवल आसन जमाकर बैठने-से वह प्राप्त ऐसी महान करनी कर सकता है, तो फिर भला मैं क्यों नहीं हो सकती। इसके लिए हमारे सब व्यवहार शुद्ध न कर सकंगा? मैं अपनी कल्पना को मर्यादा में क्यों होने चाहिए। व्यवहार शुद्ध करने के लिए उसका उद्देश्य बांध लँ? जिस नर देह में रहकर दूसरे नर वीर हो गये, बदलना चाहिए। व्यवहार व्यक्तिगत लाभ के लिए, वही नर देह मुझे भी मिली है, फिर मैं ऐसा क्यों? कहींवासना-तृप्ति के लिए अथवा बाहरी बातों के लिए नहीं न-कहीं मुझसे भल हो रही है। मेरा यह चित्त सदैव करना चाहिए।
बाहर जाता रहता है। दूसरे के गुण-दोष देखने में वह व्यवहार तो हम दिनभर करते रहते हैं। आखिर बहुत आगे बढ़ गया है। परन्तु मुझे दूसरे के गुण देखने दिन भर की खटपट का हेतु क्या है? 'यह सारा परिश्रम, की जरूरत क्या है? “दूसरे के गुण-दोष क्यों देखू? इसलिए तो किया था कि अन्त की घड़ी मीठी हो।' मुझ में क्या उनकी कमी है?" सारी खटपट, सारी दौड-धूप इसीलिए न कि हमारा भगवान ने चित्त की एकाग्रता के लिए इस तरह अतिम दिवस मधुर हो जाये? जिंदगी भर कडुआ विष बैठो, इस तरह आँखें रखो, इस तरह आसन जमाओं क्यों पचाते हैं ? इसीलिए कि अंतिम घड़ी, वह मरण, आदि सूचनाएँ नहीं दीं, ऐसी बात नहीं है। परन्तु इन पवित्र हो जाये। दिन की अंतिम घड़ी शाम को आती सबसे लाभ तभी होगा, जब पहले चित्त की एकाग्रता है। आज के दिन का सारा काम यदि पवित्र भाव से के हम कायल हों। मनुष्य के चित्त में पहले यह जम किया होगा, तो रात की प्रार्थना मधुर होगी। वह दिन जाय कि चित्त की एकाग्रता आवश्यक है, फिर तो का अंतिम क्षण यदि मधुर हो गया, तो दिन का सारा मनुष्य स्वतः ही उसकी साधना और मार्ग ढूँढ़ निकालेगा। काम सफल हुआ समझो। तब मन एकाग्र हो जायेगा। एकाग्रता के लिए ऐसी जीवन-शुद्धि आवश्यक
- Kothari Bhawan, है। बाह्य वस्तुओं का चितंन छूटना चाहिए। मनुष्य
B-79, Sainik Farms, Lane W-3, की आयु बहुत नहीं है। परन्तु इस थोडी सी आयु में
Western Avenue, भी पारमेश्वरीय सुख का स्वाद लेने की सामर्थ्य है। दो
New Delhi-110062 मनुष्य बिल्कुल एक ही सांचे में ढले, एक-सी छाप लगे हुए, दो आँखें, उनके बीच एक नाक और उस नाक
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/41
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
38993GRA
22082908298
मुनि परंपरा के निर्वाहक आचार्य भरतसागरजी
0 चंदनमल जैन 'अजमेरा'
परम पूज्य ज्ञान दिवाकर उपसर्ग विजेता, मर्यादा अनुवाद किया है। आपकी सत्साहित्य प्रकाशन प्रसारण शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति बागड़ धरा के महर्षि गुरु पुंगव में विशेष अभिरुचि थी। गुरुदेव भरत सागर जी अपने १०८ आचार्य भरत सागर जी महाराज को तीर्थराज ज्ञान-ध्यान की मधुर सुरभि से चहुँ दिशि को सुरभित सम्मेदशिखरजी में सन् १९७२ में कार्तिक शुक्ला कर चुके थे। एवं भव्यजनों को सन्मार्ग का अवबोध प्रतिपदा के दिन उनके गुरु परम पूज्य आचार्य १०८ कराकर जैन धर्म की अपूर्व प्रभावना कर चुके थे। विमल सागर जी द्वारा मुनिपद पर दीक्षित किया गया। आपके इस महत्कार्य में गणिनी परम पूज्य १०५ उन्हें भरत चक्रवर्ती के समान विरक्त ज्ञान-ध्यान में लिप्त आर्यिका स्याद्वादमती माताजी का एवं ब्र. प्रभा बहिन भावों से विशुद्ध परिणामों की निर्मलता देख भरत सागर का योग मिला। नाम दिया।
आचार्य भरत सागर जी में संघ संचालन की मुनि भरत सागर जी गुरु भक्ति के प्रति प्रगाढ़ अद्भुत क्षमता थी। मैंने स्वयं ने प्रत्यक्ष सम्मेदशिखरजी, अनुराग रखते थे। अनवरत अध्ययन-अध्यापन में निरत सोनागिरजी, जयपुर, निवाई, बांसवाड़ा, लोहारिया, रहते। वे अपनी प्रवचन-शैली से गुरुवर्य को प्रभावित कुचामन आदि विख्यात स्थानों पर उनके अनुशासित कर गये। अतः उन्हें उपाध्याय पद से संस्कारित किया रहकर स्वाध्याय, प्रवचन उपदेशादि को सुना। वे परम गया। वास्तव में वे संघ में उपाध्याय पद के सुयोग्यतम तपस्वी रस परित्यागी महर्षि थे। मुनि थे।
उनके पावन प्रयास से भारतवर्षीय अनेकांत विधि का विधान विचित्र होता है। पौष कृष्ण विद्वत्परिषद् की स्थापना हुई, जो जैन साहित्य जगत द्वादशी को सन् १९९४ गुरुवार के दिन आचार्य विमल में अपना वर्चस्व रखती है। सागरजी तपोनिधि, तीर्थराज पर समाधिस्थ हो गये। परम पूज्य आचार्य भरत सिन्धु को युगों तक पूर्व में निश्चित हो चुका था कि इन्हें ही पट्टाचार्य बनाया जाना जाता रहेगा, उनका मार्ग-दर्शन सदैव चिरस्मणीय जायेगा। आपने सोनागिरि तीर्थक्षेत्र में प्रायश्चित शास्त्र रहेगा।
__ रहेगा। ०९/अ, आयतन, एकता पथ रहस्य शास्त्रों का अध्ययन कराया था। पूरा संघ इनसे
श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर (राज.) लाभान्वित हुआ।
आचार्य पद पर रहते हुए आपने अलौकिक जिस प्रकार दूध पौष्टिक होने के दर्पण, तिरने की कला, वीर शासन जयंती पुस्तकें साथ-साथ औषधिस्वरूप भी है, उसी लिखी हैं।
प्रकार विद्वत्ता लौकिक प्रयोजन-साधक
होती हुई मोक्ष का कारण भी होती है। धम्मरसायन (प्राकृत) का भी आपने हिन्दी में
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/42
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
सीख - संकलन
जीवनोपयोगी कितनी ही बातें नीति शास्त्र के ग्रन्थों में अथवा अनेक कहावतों में उपलब्ध हैं। जन साधारण की जानकारी हेतु उन्हें संकलित किया गया है । आशा है लाभप्रद सिद्ध होंगी।
नीतिकार कहते हैं
१. मनुष्य जीवन में सुखी रहने के लिए निम्न बातों की आवश्यकता है आय का साधन होना, शरीर का निरोग होना, प्रियवादिनी भार्या का होना, आज्ञाकारी पुत्रों का होना तथा न्यायपूर्वक पैसा कमाने वाली विद्या का होना ।
२. मनुष्य को विद्यावान, विद्वान तथा विवेकी होना आवश्यक है। विद्या से विनय, नम्रता आती है। विनयी होने पर पात्रता, योग्यता और योग्यता से धन आता है। धन से धर्म किया जाता है। तथा धर्म से सुख प्राप्त होता है।
३. मिट्टी के कच्चे घड़े में जो संस्कार, निशान कर दिये जाते हैं, वे कभी नहीं मिटते। उसीप्रकार बच्चों में जो प्रारंभ में अच्छे विचार या संस्कार भर दिये जाते हैं, वे सदा ही बने रहते हैं, कभी नहीं मिटते ।
४. उस पुत्र से कोई मतलब नहीं है, जो न विद्वान हो तथा न धर्मात्मा हो ।
५. धन-संपत्ति का, यौवन-युवावस्था का, प्रभुता तथा पद का एवं अज्ञानता का अभिमान करना बुरा है। जहाँ उपरोक्त चारों प्रकार के अभिमान एक ही जगह हों तो कहना ही क्या ?
पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ
६. मनुष्य जब तक किसी पद पर है, उसका सभी सम्मान करते हैं। पद से हटने पर उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। जैसे नाखून और बालों का शरीर से अलग हो जाने पर ।
७.
. नीतिकारों ने निम्न बातों को विश्वास करने योग्य नहीं माना है। नदी में कभी भी बाढ़ आ जाने, शस्त्रधारी का, सींग वाले जानवर का तथा बड़े नाखून वाले प्राणियों का – इनसे कभी भी जीवन समाप्त हो
सकता है।
८. राजा, जोगी, अग्नि, जल इनकी उल्टी रीति अर्थात् इनमें बदलाव आने पर सुरक्षित रहना मुश्किल है।
९. मनुष्य निम्न छह अवगुणों को रहते उन्नति नहीं कर सकता - निद्रा, तन्द्रा (ऊँघना), भय, क्रोध तथा आलस्य ।
१०. सज्जनों का स्वभाव नारियल के समान ऊपर से कठोर तथा अन्दर से नम्र होता है और दुर्जनों का स्वभाव बेर के समान अर्थात् ऊपर से नरम तथा अंदर से कठोर होता है ।
११. खल अर्थात् दुर्जन मनुष्यों की विद्या विवाद के लिए, धन मद के लिए और शक्ति दूसरों को दु:ख के लिए होती है, जबकि सज्जनों की विद्या ज्ञान प्रदान के लिए, धन दान के लिए और शक्ति निर्बलों की रक्षा के लिए होती है ।
C
- ७६९, गोदीकों का रास्ता, किशनपोल, जयपुर (राज.)
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/43
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
बदलती जीवन शैली - अहिंसा एकमात्र विकल्प
0 हेमन्त कुमार जैन
अनादि काल से यह संसार और जीव की जाती थी, अब तो केवल पैसा बनाने के लिए। परिवर्तनशील है, पर विगत कुछ वर्षों से जीवन शैली कन्याओं की गर्भावस्था में ही हत्या कर दी जाती है, में बड़ी तेजी से बदलाव आये हैं। सामाजिक, आर्थिक, इससे लिंगानुपात में भयंकर अन्तर आ गया है। अब राजनैतिक, धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में ऐसा हुआ है। विवाह योग्य लड़कियाँ आसानी से नहीं मिल पाती हैं।
घर का रहन-सहन, बुजुर्गों के प्रति व्यवहार. अब तो हालात इतने बदतर हो गये हैं कि विदेशों से सादगी व अनुशासन का वातावरण विकृत हो रहा है। अनेक प्रकार के अभक्ष्य पदार्थ उदारीकरण और परिवार बिखर रहे हैं, संसार सागर में हिचकोले खाती वैश्वीकरण के बहाने भारत के बाजारों में खुले आम पारिवारिक जीवन नैया को संभालने वाले बड़े बुजुर्गों
: आने लगे हैं। इसी संदर्भ में कुछ समय पूर्व लगभग रूपी लंगर उखड़े जा रहे हैं।
१४०० वस्तुओं पर मात्रात्मक प्रतिबंध पूर्णरूप से
हटाकर सभी प्रकार के अभक्ष्य पदार्थ जैसे मांस, मछली, सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों में सीमा से हाईब्रिड (संकर) बीज, काठ कबाड, जहरीले ज्यादा आडम्बर प्रदर्शन व फिजूलखची बढ़ गई है। कीटनाशक, रासायनिक खाद, बेरोकटोक हमारे देश स्वाध्याय में रुचि नहीं, पर अखबार हाथ में आ जाने में आने शुरु हो गये हैं। बाजारू खाद्य पदार्थों को खाकर पर पूरा पढ़कर ही छूट पाता है।
अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करना असंभव है। श्रम करने का महत्व नहीं रहा, पहले सभी अपवाद रूप से कुछ समझदार शिक्षित डॉक्टर परिवार गृहकार्य अपने हाथों से ही सम्पन्न करते थे। जैसे पानी मैंने देखे हैं जो यथाशक्ति कोई भी बाजारू खाद्य पदार्थ भरना, चक्की चलाना, घर की सफाई, कपड़े, बर्तन नहीं खाते। आदि करते हुए भी प्रसन्नचित्त एवं स्वस्थ रहते थे। आज गलत सरकारी नीतियों के कारण जगहमीलों पैदल चल लेते थे, पर काश ! आज अनेक जगह शराब, गुटखा, सिगरेट, मांस, अंडे की दुकानें प्रकार की सुविधाएँ होते हुए भी मानसिक तनावों से खुलती जा रही हैं। बड़े-बड़े पाल्ट्री फार्म खोले जा रहे त्रस्त स्त्री-पुरुष अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हैं और प्रायः विदेशी मुर्गियाँ भी चोरी छिपे भारत में रहते हैं। देशी दवायें व प्राकृतिक रहन-सहन छोड़कर लाई जा रही हैं। उनमें कुछ रोगग्रस्त भी होती हैं और मंहगी डाक्टरी दवाओं के चक्कर में फँसकर अपना जब यहाँ मुगियाँ को संक्रमण फैलता है, तो लाखों की स्वास्थ्य एवं धन लुटा रहे हैं।
संख्या में सभी मुर्गियाँ मार दी जाती है। ऐसे ही मैडकाउ __पहले गुरु-शिष्य संपर्क बराबर रहने से विद्यार्थी बीमारी की वजह से इंग्लैण्ड में कुछ वर्ष पूर्व ६० लाख अनुशासित एवं चारित्रवान होते थे, गुरु एवं माता- दुधारू गायों का कत्लेआम कर दिया गया था। यह पिता का पूरा आदर होता था। अब तो बताने में भी बीमारी गायों को मांस खिलाने से हुई थी। कामशर्म आती है। पहले शिक्षा जीवन बनाने के लिए ग्रहण वासना प्रदीप्त करने हेतु चीन आदि देशों में शेर व गैंड़े
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/44
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
के विभिन्न अंगों की मांग बढ़ गई है और यही कारण पानी पिलाने वाला भी कोई नहीं है। लेकिन “अब है कि भारत में सरिस्का, रणथम्भौर व काजीरंगा के पछताये का होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।" अभ्यारण्यों में शेर और गैंड़े लुप्त प्रायः हो रहे हैं। अब हमें भविष्य के सुधार के लिए सोच समझकर
हमारे देश के किसानों, कुटीर उद्योगों में मेहनत चलना चाहिए। मजदूरी करने वालों पर कुठाराघात होने से आये दिन जनसंख्या वृद्धि भी इस वातावरण के लिए सैकड़ों लोग बेरोजगारी, मंहगाई के कारण आत्म हत्याएं काफी जिम्मेवार है। इसकी चिन्ता प्रायः शिक्षित व कर रहे हैं। हमारे देश में अंग्रेजी पढ़े नौजवान देश समझदार व्यक्तियों को ही रहती है। अत: वे तो अपनी छोड़कर बाहर जाने में ही अपना भला समझते हैं। संख्या को सीमित रखना चाहते हैं, पर अशिक्षित एवं शिक्षा ही उन्हें ऐसी दी जाती है कि जिससे देश, धर्म जाति परस्त लोग हर प्रकार से अपनी संख्या बढ़ाकर व परिवार के प्रति जिम्मेदारी व आस्था समाप्त हो रही डैमोक्रेसी लोकतंत्र का नाजायज फायदा उठा रहे हैं। है। आज शास्त्रीय संगीत गाने, बजाने व सुनने वालों आज पैसे वाले और अधिक धनी तथा निर्धन और की संख्या प्राय: नगण्य सी रह गई है और विदेशी भौंड़े अधिक निर्धन बनते जा रहे हैं। गाँवों को छोड़ शहरों पॉप संगीत पर अर्द्धनग्न युवक-युवतियाँ थिरकते दिखाई में भागने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। अतः दोनों देते हैं। कंडोम संस्कृति का प्रचार हो रहा है, इससे जगह बेरोजगारी व निठल्लापन बढ़ रहा है, आतंकवाद एड्स की रोकथाम के बहाने अप्राकृतिक यौनाचार को बढ़ने का यह भी एक कारण है, जिससे बड़े-बड़े राष्ट्र प्रोत्साहन मिल रहा है।
प्रभावित हो रहे हैं। पर समस्याएँ हिंसा व युद्ध से नहीं इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी माता-पिता व सुलझ सकती। अहिंसा को सही मायने में समझने की गुरुओं की है। वे चाहें तो अपनी संतानों व शिष्यों को जरूरत है। सही मार्गदर्शन कर सकते हैं। ऐसे कई संपन्न वृद्ध दंपत्ति 0 ७२९, किसान मार्ग, बरकत नगर, जयपुर हैं, जिनकी संतानें विदेशों में जा बसी हैं और यहाँ उन्हें
___ फोन : ०१४१-२५९४५७६
सुभाषित वचन १. कषाय अज्ञान से प्रारम्भ होती है और ज्ञान पर समाप्त होती है। २. कण भर भी यदि धर्म जीवन में आ जावे, तो मण भर ग्रंथों से अधिक है। ३. धर्मात्मा का जीवन गुलाब के फूल की तरह है, जो काँटों में पल कर भी सौंदर्य और सुगंधि लुटाता
रहता है। ४. मृत्यु एक अनिवार्य तथ्य है उसे किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता। उसे सहज भाव से स्वीकार ____ कर लेने में ही शांति है। सत्य को स्वीकार करना ही सन्मार्ग है। ५. लाखों रुपयों का व्यय करने पर हम श्री वीर प्रभु का उतना प्रभाव दिखाने में समर्थ नहीं हो सकते
जितना कि उसके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का पालन करने से दिखा सकते हैं। ६. शान्ति चाहिए तो पर-दोषान्वेषण और आलोचना की आदत छोड़ दो।
- रामबाबू जैन लुहाड़िया, ३ श्रीजी नगर, दुर्गापुरा ,जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/45
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिगम्बरत्व का महत्व
8888
स्व. डॉ. ज्योति प्रसाद जैन
मोक्ष-प्राप्ति के लिए साधक की चरम अवस्था आदिदेव ऋषभ थे। जिनदीक्षा लेने के उपरान्त उन्होंने में दिगम्बरत्व अनिवार्य है, किन्तु वह अन्तरंग एवं दिगम्बर मुनि के रूप में तपश्चरण करके केवलज्ञान एवं बाह्य, दोनों ही प्रकार का युगपत् होना चाहिए, तीर्थंकर पद प्राप्त किया था। उनके भरत-बाहुबली तभी उसकी सार्थकता है। यह मार्ग दुस्साध्य है। आदि अनेक सुपुत्रों और अनगिनत अनुयायियों ने इसी यही कारण है कि लगभग एक सवा करोड़ जैनों की दिगम्बरमार्ग का अवलम्बन लेकर आत्म-कल्याण संख्या में २५० सौ के करीब ही दिगम्बर मुनि हैं। वे किया है। भगवान ऋषभ के समय से लेकर अद्य पर्यन्त सभी दिगम्बरत्व के साधक हैं और प्रायः २८ मूलगुणों यह दिगम्बर मुनि परम्परा अविच्छिन्न चली आयी है। का निरतिचार से पालन करते हैं। इसमें सन्देह नहीं है बीच-बीच में मार्ग में काल दोष से विकार भी उत्पन्न कि दिगम्बर मुनि अपनी अत्यन्त कठोरचर्या, व्रत, हुए, चारित्रिक शैथिल्य भी आया, किन्तु संशोधननियम, संयम तथा शीत-उष्ण-दंश-मशक-नाग्न्य- परिमार्जन भी होते रहे हैं। लज्जा आदि बाईस परीषहों को जीतने एवं नाना प्रकार जैन परम्परा का स्वयं वह श्वेताम्बर संप्रदाय के उपसर्गों को सहन करने में सक्षम होता है। उसका भी, जो जैन साध के लिए दिगम्बरत्व को अपरिहार्य जीवन एक खुली पुस्तक होता है। ज्ञान की उसमें कमी नहीं मानता और साधुओं को सीमित-संख्यक, बिन या आधिक्य हो सकता है। संस्कारों या परिस्थितिजन्य सिले श्वेतवस्त्र धारण करने की अनुमति देता है, इस दोष भी लक्ष्य किये जा सकते हैं अथवा दिगम्बर मुनि तथ्य को मान्य करता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के आदर्श की कसौटी पर भी वह भले ही पूरा-पक्का तथा अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर अपने जीवन न उतर पाये, तथापि अन्य परम्पराओं के साधुओं में अचेलक अथवा दिगम्बर ही रहे थे. अन्य अनेक की अपेक्षा अपने नियम-संयम, तप एवं कष्ट पुरातन जैन मनि दिगम्बर रहे तथा यह कि जिनमार्ग में सहिष्णुता में वह श्रेष्ठतर ही ठहरता है । फिर जो मुनि जिनकल्पी साधुओं का श्रेष्ठ एवं श्लाघनीय रूप अचेलक आदर्श को अपने जीवन में चरितार्थ करते हैं, उन है। कला क्षेत्र में भी ८वीं-९वीं शती ई. से पूर्व की मुनिराजों की बात ही क्या है, वे सच्चे साधु या सच्चे प्रायः सभी उपलब्ध तीर्थकर या जिनप्रतिमाएँ गुरु ही आचार्य-उपाध्याय-साधु के रूप में पंच-परमेष्ठी दिगम्बर ही हैं और वे उभय सम्प्रदायों के अनुयायियों में परिगणित हैं, वे मोक्षमार्ग के पूजनीय एवं अनुकरणीय द्वारा समान रूप से पूजनीय रहीं, आज भी हैं। कालान्तर मार्गदर्शक होते हैं। वे तरण-तारण होते हैं। उन्हीं के में सांप्रदायिक भेद के लिए श्वेताम्बर साधु जिन लिए कहा गया है -
मूर्तियों में भी लंगोट का चिह्न बनवाने लगे। मुकुट, धन्यास्ते मानवा: मन्ये ये लोके विषयाकुले। हार, कुण्डल, चोली-आंगी, कृत्रिम नेत्र आदि का विचरन्ति गतग्रन्थाश्तुरंगे निराकु लाः॥ प्रचलन तो इधर लगभग दो अढ़ाई सौ वर्ष के भीतर इस दिगम्बर मार्ग के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ही हुआ है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/46
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन परम्परा में नहीं, अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी श्रेष्ठतम साधकों के लिए दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा की गयी प्राप्त होती है । प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहन जोदड़ो से प्राप्त अवशेषों में कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ मिला है। स्वयं ऋग्वेद में वातरशना (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख हुआ हैं । कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय आरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को श्रमणधर्मा एवं ऊर्ध्वरेतस (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है । श्रीमद्भागवत में भी वातरशना मुनियों का उल्लेख हैं तथा वहाँ व अन्य अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को विष्णु का एक प्रारम्भिक अवतार सूचित करते हुए दिगम्बर चित्रित किया गया है। ऐसे उल्लेखों के आधार पर स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री का अभिमत है कि 'वातरशनाश्रमण' एक प्राग्वैदिक मुनि परम्परा थी और वैदिक धारा पर उसका प्रभाव स्पष्ट है ।
कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रन्थों, वृहत्संहिता, भर्तृहरिशतक तथा क्लासिकल संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख एवं दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । ब्राह्मण परम्परा के ६ प्रकार के सन्यासियों का विधान है, जिनमें तुरीयातीत श्रेणी के सन्यासी दिगम्बर ही रहते थे। जड़ भरत, शुकदेव मुनि आदि कई दृष्टान्त भी उपलब्ध हैं । परमहंस श्रेणी के साधु भी प्राय: दिगम्बर रहते हैं । मध्यकालीन साधु अखाड़ों में भी एक अखाड़ा दिगम्बरी नाम से प्रसिद्ध है। पिछली शती के वाराणसी - निवासी महात्मा तेलंग स्वामी नामक सिद्ध योगी, जो रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे प्रबुद्ध संतों एवं सुधारकों द्वारा भी पूजित हुए, सर्वथा दिगम्बर रहते थे । बौद्ध भिक्षुओं के लिए नग्नता का विधान नहीं है, किन्तु स्वयं गौतम बुद्ध ने अपने साधना काल में कुछ समय तक दिगम्बर मुनि के रूप में तपस्या की थी । यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी सहज नग्नत्व को निर्दोषता का सूचक एवं श्लाघनीय माना गया है।
जलालुद्दीन रूमी, अलमन्सूर, सरमद जैसे सूफी संतों ने दिगम्बरत्व की सराहना की। सरमद तो सदा नंगे रहते ही थे। उनकी दृष्टि में तो 'तने उरियानी (दिगम्बरत्व ) से बेहतर नहीं कोई लिबास, यह वह लिबास है जिसका न उल्टा है न सीधा ।' सरमद का कौल था कि 'पोशानीद लबास हरकारा ऐबदीद, बे ऐबारा लबास अयानीदाद' - पोशाक तो मनुष्य के ऐबों को छिपाने के लिए है, जो बेऐब-निष्पाप हैं, उनका परिधान तो नग्नत्व ही होता है। नन्द-मौर्य कालीन यूनानियों ने भारत के दिगम्बर मुनियों (जिम्नोसोफिस्ट) के वर्णन किये हैं। युवान च्वांग आदि चीनी यात्रियों ने भी भारत के विभिन्न स्थानों में विद्यमान दिगम्बर ( लि-हि) साधुओं या निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है। सुलेमान आदि अरब सौदागरों और मध्यकालीन यूरोपीय पर्यटकों में से कई ने उनका संकेत किया है। डॉ. जिम्मर जैसे मनीषियों का मत है कि प्राचीन काल में जैनमुनि सर्वथा दिगम्बर ही रहते थे ।
वास्तव में दिगम्बरत्व तो स्वाभाविकता और निर्दोषिता का सूचक है। महाकवि मिल्टन ने अपने काव्य 'पैरेडायज लॉस्ट' में कहा है कि आदम और हव्वा जब तक सरलतम एवं सर्वथा सहज निष्पाप थे, स्वर्ग के नन्दन कानन में सुखपूर्वक विचरते थे, किन्तु जैसे ही उनके मन विकारी हुए उन्हें उस दिव्यलोक से निष्कासित कर दिया गया। विकारों को छिपाने के लिए ही उनमें लज्जा का उदय हुआ और परिधान (कपड़ों) की उन्हें आवश्यकता पड़ी। महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था - 'स्वयं मुझे नग्नावस्था प्रिय है, यदि निर्जन वन में रहता होऊँ तो मैं नग्न अवस्था में रहूँ ।' काका कालेलकर ने क्या ठीक ही कहा है - 'पुष्प नग्न रहते हैं । प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं खोयी है, ऐसे बालक भी नग्न घूमते हैं। उनको इसकी शरम नहीं आती है और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता। लज्जा की बात जाने दें, इसमें किसी प्रकार का अश्लील, बीभत्स, जुगुप्सित, अरोचक हमें लगा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/47
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
है, ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं। छवि का दर्शन करने से तो स्वयं दर्शक के कारण यही है कि नग्नता प्राकृतिक स्थिति के साथ मनोविकार शान्त हो जाते हैं। अब चाहे वह छवि स्वभाव-शुदा है। मनुष्य ने विकृत ध्यान करके अपने किसी सच्चे साधु की हो अथवा जिनप्रतिमा की विकारों को इतना अधिक बढ़ाया है और उन्हें उल्टे हो। आचार्य सोमदेव कहते हैं कि समस्त प्राणियों रास्तों की ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभाव सुन्दर नग्नता के कल्याण में लीन ज्ञान-ध्यान तपः पूत मुनिजन सहन नहीं होती। दोष नग्नता का नहीं, अपने कृत्रिम यदि अमंगल हों, तो लोक में फिर और क्या ऐसा जीवन का है।'
है जो अमंगल नहीं होगा। वस्तुत: निर्विकार दिगम्बर सहज वीतराग - शोधादर्श ५९ (जुलाई २००६ ई.) से साभार
महावीर गीत
जिनके गुण को गाकर प्राणी दूर करें सब दुःख। ऐसे महावीर प्रभु को पाकर, हावें हम सब सुख ॥टेक॥ माँ त्रिशला ने जन्म दिया था सिद्धारथ ने पाला था, तीन लोक का राज दुलारा करता रोज उजाला था। हिंसा छोड़ अहिंसा में रत दूर किये सब दुःख,
जिनके गुण को गाकर ॥१॥ तीस वर्ष तक राजपाठ कर दिव्य चक्षु से जान लिया, नश्वर काया जग ये सारा निज में खुद का भान किया। परम दिगम्बर मुद्रा धरिके, बदला अपना रुख,
जिनके गुण को गाकर ॥२॥ जंगल में रह घोर तपस्या करके पाप मिटाये हैं, केवलज्ञान ज्योति को पाकर घर-घर दीप जलाये हैं। वाणी जिनकी वीतरागमय देती सबको सुख,
जिनके गुण को गाकर ॥३॥ आप जिओ सबको जीने दो यह उपदेश सुनाया है, परम अहिंसा धर्म है सच्चा करके यही दिखाया है। उन जैसा यदि बनना है तो जग से मोड़ो मुख,
जिनके गुण को गाकर ॥४॥ - कवि हृदय प्रखर वक्ता परम पूज्य श्री विनम्र सागरजी महाराज संघस्थसंत शिरोमणि वात्सल्यमूर्ति राष्ट्रसंत परमपूज्य आचार्य श्री विरागसागरजी महाराज
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/48
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
3908788888888888888888888888
आचार्य कुन्दकुन्द और उनके उपदेश
0 श्रीमती अर्चना जैन
अद्रि में ऊँचाई होती है किन्तु गहराई नहीं, नन्दि संघ की पट्टावली के सम्पादक प्रो. हार्नले अर्णव में गहराई होती है; किन्तु ऊँचाई नहीं। यदि के अनुसार उनका जन्म ई. पू. १०८ में माघशुक्ल पंचमी किसी में गहराई और ऊँचाई एक साथ देखनी हो तो को हुआ। ज्ञान प्रबोध ग्रन्थ के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द वह जिनपंथी महामुनि में देखनी चाहिए। जिनपंथी के माता-पिता पारांपुर के राजा कुमुदचन्द्र के राज्य में महामुनि में ज्ञान की गहराई और चारित्र की अमाप रहने वाले क्रमश: कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठी थे। ११ वर्ष ऊँचाई सहजरूप में आंकी जा सकती है। जिनपंथी की अल्पायु में ही उन्होंने मुनिदीक्षा धारण कर ली थी। महामुनि परम्परा में आचार्य मुनीन्द्र कुन्दकुन्द का स्थान
३३ वर्ष वे मुनि पद पर रहे। ४४ वर्ष की आयु में उन्होंने
आचार्य पद को सुशोभित किया। ५१ वर्ष १०/१ माह बड़े महत्त्व का है।
वे इस पद पर आसीन रहे और अन्त में ७५ वर्ष १०/ किसी भी मंगल कार्य के पूर्व जैन धर्मावलम्बियों १ माह की अवस्था में उन्होंने देह त्याग दी। में श्लोक पढ़ने की परम्परा है।
प्राकृत साहित्य उवं प्राच्य शिलालेखों में उनके मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी। पाँच नाम मिलते हैं - दक्षिण भारत में आन्ध्र प्रदेश के मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैन धर्मोऽस्तु मङ्गलम्॥ कौण्डकुन्दपुर में जन्म लेने से वे कुन्दकुन्द कहलाए।
स्पष्ट है कि भगवान महावीर और उनकी दिव्य ‘पद्मनन्दि' उनका गुरू प्रदत्त मुनि नाम था। अपनी वाणी के धारक एवं द्वादशाङ्ग आगम के प्रणेता गौतम
पोला सुदीर्घ दृष्टि सम्पन्नता एवं प्रज्ञा-प्रखरता से वे गृद्धगणधर के बाद जैनधर्म में कुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता
पिच्छाचार्य बने। सतत स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व
लेखन में संलग्न रहने से अपनी ग्रीवा की वक्रता से दी गई है। कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक,
' बेखबर वे वक्रग्रीवाचार्य हुये और लघु वय धारी होने प्राकृत साहित्य के अग्रणी प्रतिभा तर्क प्रधान दार्शनिक ,
पर भी ज्ञान-प्रज्ञा के धनी वे ऐलाचार्य' नाम से विख्यात शैली में लिखे गये अध्यात्म विषयक साहित्य के युग
। हुये।
में प्रधान आचार्य हैं। अध्यात्म जैन वाङ्मय एवं प्राकृत .
आचार्य कुन्दकुन्द के परम्परा गुरू भद्रबाहु को साहित्य के विकास में उनका अप्रतिम योगदान रहा है।
माना जाता है। परन्तु उनके साक्षात् गुरू का नाम उनकी महत्ता इसी से जानी जा सकती है कि उनके
' विवादास्पद ही है। समयसार के संस्कृत टीकाकार पश्चाद्वर्ती आचार्यों की परम्परा आज अपने को ।
| जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के गुरू का नाम श्री कुमारनन्दि कुन्दकुन्दाम्नायी कहकर गौरवान्वित समझती हैं। सिद्धान्त देव बताया है। जबकि नन्दिसंघ की पट्टावली
कुन्दकुन्दाचार्य का जीवन परिचय-आचार्य में कुन्दकुन्दाचार्य के गुरू का नाम जिनचन्द्र बताया है। कुन्दकुन्द के विशाल साहित्य उपलब्ध होने पर भी आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुड़ों की रचना उनका प्रमाणिक परिचय नहीं मिलता है। किन्तु की। उनमें वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों में पंचास्तिकाय आलोचन-प्रत्यालोचन पद्धति से उनके विषय में जो संग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, रयणसार, भी सामग्री उपलब्ध हुई है, वह इसप्रकार है- अष्टपाहुड, बारस अणुपेक्खा, दर्शनभक्ति आदि प्रमुख
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/49
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैं। इनमें से प्रारम्भ के तीन ग्रन्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र के रत्नत्रयी हैं । आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्य श्रमण और श्रावक / साधु व गृहस्थ दोनों के हितार्थ प्रशस्त मार्ग का निदर्शन है।
आचार्य कुन्दकुन्द के उपदेश - आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य प्राकृत भाषा में लिखे गए। वह समय प्राकृत भाषा का स्वर्ण युग माना जाता था । आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्य / दर्शन सभी प्राणी वर्ग के लिए उपदेश से भरपूर है।
इनका सारांश निम्न प्रकार है
१. शुभोपयोग – जो आत्मा देव, यति, गुरू की पूजा में, दान में, गुणव्रत महाव्रत रूप उत्तमशीलों में और उपवासादि शुभ कार्यों में लीन रहता है, वह शुभोपयोगी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने साहित्य में शुभोपयोग को श्रावक और श्रमण दानों के लिए आवश्यक बताया है; जिससे प्राणी असद् से सद् की ओर उन्मुख होता है और जीवन को सक्रिय रखने के लिए श्रम के संस्कार जगाने की संस्तुति करता है । शुभोपयोग स्वर्ग प्राप्ति का साधक है।
२. शुद्धोपयोग - शुभोपयोग शुद्धोपयोग का साधक है तथा यह मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है । कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार जो संयम तप से युक्त है, राग रहित है; सुख-दुख जिनको समान दिखते हैं; ऐसा श्रमण शुद्धोपयोगी है। परिपूर्ण शुद्धोपयोग हो जाने से आत्मा अरहंत तथा सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं अर्थात् प्राणी प्रभु हो जाता है।
३. लोक-कल्याण - कुन्दकुन्दाचार्य लोक कल्याण दृष्टि से कहते हैं कि कल्याण का ठेका उच्च कुल या उच्च जाति वालों ने ही नहीं लिया है क्योंकि देह, कुल और जाति वन्दनीय नहीं है, वन्दनीय हैं गुण । जिसमें हैं वह वन्दनीय है और गुण का विकास प्रायः सभी मनुष्यों में सम्भव है।
४. भेद विज्ञान - भेद विज्ञान मोक्ष का कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य के अनुसार संसार
में जो भी कर्म से बंधे हैं, वे सभी भेद विज्ञान के अभाव में बंधे हैं अर्थात् आत्मा और कर्म की एकता के मानने से ही संसार है। वहाँ अनादि से जब तक भेद - विज्ञान नही है, तब तक वह कर्म से बंधता ही है। अतः कर्म बन्ध का मूल भेद - विज्ञान का अभाव है।
५. कर्म बन्धन का ह्रास - कर्म बन्धन का कारण मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग है। जब तक जीव को आत्मा और आस्रव के कारण राग द्वेषादि भावों के पृथकत्व का ज्ञान नहीं होता तब तक यह जीव क्रोधादिक के परभाव होने पर भी उनमें निज - एकत्व भाव से वर्तता है, ऐसी स्थिति में उसमें कर्म बन्ध होता है। कुन्दकुन्दाचार्य ने आत्मस्थिति को कर्म निर्जरा का कारण बतलाया है। जो प्राणी बन्ध और आत्मा के स्वभावों को जानकर जो बन्ध के कारणों से विरक्त होता है, वह कर्मों से मुक्त होता है ।
६. आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार - शील से ही सिद्धि है । जिस प्रकार रत्नों से भरा समुद्र जल सहित होने पर ही शोभा पाता है; उसी प्रकार तपविनय, दान आदि सहित आत्मा शीलयुक्त होने पर ही शोभा पाता है, क्योंकि शील सहित होने पर उसे निर्वाण पद प्राप्त होता है।
1
७. चारित्र ही धर्म है - आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार त्रिरत्न रूप सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है । उनके अनुसार जो व्यक्ति जीव अजीव पदार्थों एवं स्व-पर का भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है । परद्रव्यों से राग-द्वेष छोड़कर ज्ञान में स्थिर होने पर निश्चय चारित्र होता है; जो सच्चा मोक्षमार्ग है।
८. सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का महत्त्व सम्यक्त्व मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। इसी भाव को व्यक्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिनेन्द्र देव के शासन में ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र इन चारों समायोग होने पर जो संयम गुण होता है, उससे मोक्ष होता है।
O जीव विज्ञान, शिक्षाविभाग, व्याख्याता, आई.सी.जी.आई.ई., आर. डी. मानसरोवर, जयपुर
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007 4/50
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
20838
न्यायाचार्य पं. माणिकचंदजी कोन्देय
0 लेखक : एस.सी.जैन (अंग्रेजी) 0 अनुवादक : डॉ. जिनेश्वरदास जैन (हिन्दी)
न्यायाचार्य पण्डित माणिकचंदजी कोन्देय के वे भारत के दो प्रसिद्ध शिक्षण केन्द्रों – गोपाल देहावसान से जैन समाज को अत्यन्त आघात पहुँचा। सिद्धान्त विद्यालय मुरैना, ग्वालियर एवं जम्बू विद्यालय, उनका बिछोह हमें हर समय खलता रहेगा और उनकी सहारनपुर (उ.प्र.) के प्रोफेसर व प्रिंसिपल रह चुके हैं, अनुपस्थिति भविष्य में हर पल याद दिलाती रहेगी। वे जिनके निर्देशन में कई पंडित व विद्वान इन विद्यालयों महान पाण्डित्य, निस्वार्थभाव के आदर्श मर्तिरूप थे। से अध्ययन कर निकले हैं। उन्होंने कई प्रतियोगताओं. श्री कोन्देयजी द्वारा २०वीं शती में रचित 'तत्त्वार्थ- संगोष्ठियों एवं विद्वत्सम्मेलनों में भाग लेकर जैन दर्शन चिंतामणि' पुस्तक को पढकर. मैंने अपनी (एस.सी. को प्रसिद्धि दिलवाई। उन्होंने अपने अन्तिम दिन जैन) पस्तक 'जैन धर्म की प्रस्तावना' पेज १४ में उन्हें फिरोजाबाद (उ.प्र.) में बिताए। उन लेखक-श्रृंखला में डाला है, जिन्होंने आचार्य जैन दर्शन अनेकान्त व स्याद्वाद सिद्धान्तों के उमास्वामी कृत 'तत्त्वार्थ-सूत्र' की टीकाएँ लिखी हैं। परिप्रेक्ष्य में, अस्तित्व ज्ञान (विद्या) एवं अभिव्यक्ति उनकी इस रचना से उनकी चिन्तन की गहराई, के आधार पर परस्पर विरोधी गुणों का नियमीकरण एवं सबोधगम्य अभिव्यक्ति मनाओं की पलता समन्वय कराता है। दर्शन संबंधी ऐसे कठिन सिद्धान्तों परिलक्षित होती है। आचार्य विद्यानंद द्वारा रचित
का विश्लेषण करने के लिए लेखक में एक असाधारण 'श्लोकवार्तिक' पुस्तक को सामने रखकर मिलान करें
योग्यता होनी चाहिए। श्री कोन्देयजी में अपने विद्यार्थी तो पायेंगे कि 'तत्त्वार्थचिंतामणि' पुस्तक पाँच हजार
जीवन से अपनी उम्र की परिपक्वता प्राप्त होने तक पृष्ठों में फैली ७ वाल्यूमों में बँटी हुई है। श्री कोन्देयजी
प्रकृति देय ऐसी प्रतिभा प्राप्त थी। ने इस पुस्तक में आचार्य विद्यानंद द्वारा प्रतिपादित
विरोधाभासी गुणों का समन्वय करने की जैनदर्शन का विस्तृत विवेचन किया है। आचार्य विद्यानंद कला वह कला है, जो कि न किसी युक्ति से और न ने अपनी रचना श्लोक-वार्तिक' में आचार्य उमास्वामी
- ही किसी परंपरा से खंडित की जा सके। ऐसी कला द्वारा रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' की टीका की है और आचार्य के धारक (पदवी) जो आचार्य समन्तभद्र ने अपनी उमास्वामी ने भगवान महावीर की दिव्यध्वनि द्वारा पुस्तक
" पुस्तक 'आप्त-मीमांसा' में भगवान महावीर को दी प्रतिपादित जैन सिद्धान्तों का संकलन किया है। इस
__ थी, वही योग्यता श्री कोन्देयजी के साथ भी लागू हो
" सकती है, क्योंकि इनकी पुस्तक 'तत्त्वार्थ चिंतामणि' प्रकार हम देखते हैं कि श्री कोन्देयजी ने अपनी पुस्तक
व उनकी अन्य रचनाओं में ये कला आश्चर्यकारी 'तत्त्वार्थ चिंतामणि' पुस्तक में पृष्ठ दर पृष्ठ उस जैन
तर्कों से सफलता पूर्वक की गई स्पष्ट झलकती है। दर्शन का विस्तृत विवेचन किया है, जिसे जिनागम
उन्होंने अपने तर्कों में न तो जैनागम की उपेक्षा की है कहते हैं।
और न ही जैनागम के लिए तर्कों की उपेक्षा की है। श्री कोन्देयजी का जीवन एक शिक्षक के रूप इससे उनका बेजोड़ अध्ययन परिलक्षित होता है। में भी कम प्रसिद्ध व प्रतिस्पर्धा पूर्ण नहीं है। इनके द्वारा जैन दर्शन का मर्मस्पर्शी तुलनात्मक अध्ययन
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/51
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
व चिन्तन भविष्य में उत्पन्न होने वाले नये विचारों में बीजरूप सहायक होगा। वे दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में सिद्धान्त सृजन के लिए अग्रदूत थे। श्री कोन्देयजी का व्यक्तित्व व कर्तृत्व भावी पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणास्रोत होगा। उनका उदाहरण चिन्तकों व शोध कर्ताओं के लिए दीपस्तंभ का कार्य करेगा। पं. कौन्देयजी जैसे व्यक्ति के लिए उपयुक्त आदर्श श्रद्धांजली ऐसे स्मारक के निर्माण से होनी चाहिए, जिसमें कोई मार्बल या लाल पत्थर न हो, किन्तु एक ऐसी शिक्षण संस्था के निर्माण से हो, जो उनकी याद को अमर कर दे और उनके जीवन के लक्ष्य को साकार कर दे, ताकि भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन सिद्धान्त जनजन तक पहुँच सके। इसी लक्ष्य को लेकर पंडितजी ने अपना जीवन बिताया था ।
→
मेरा चेतन निज घर आया
हजारीलाल बज, जयपुर
मेरा चेतन निज घर आया आनन्द हुआ चहुँ ओर आज मेरा चेतन निज घर आया ॥ १ ॥
पर घर फिरत बहुत दिन बीते, कभी न निज घर पाया, जन्म-मरण को, रोग-शोक के भूख-प्यास के
सभी दुःखों से मुक्त हुआ मेरा चेतन निज घर आया ॥ २ ॥
काय बली मैं, मनोबली मैं, इन्द्रिय शक्ति से हूँ महान, आरोग्यवान मैं ;
अन्य सभी भी अपने में पूरण है सुन्दर, सुन्दर-सुन्दर इस महा लोक में
मैं भी सुन्दर
मेरा चेतन निज घर आया ॥ ३ ॥
ज्ञान बिना तप कैसा ?
प्रमोद रावका
प्राचीन काल में प्रतिष्ठान नगर में तपोदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था। उसने बचपन में अपने पिता के बहुत बार समझाने एवं ताड़ने पर भी विद्याध्ययन नहीं किया। बाद में सभी से निन्दनीय होने पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ और वह विद्या की सिद्धि के लिए गंगा नदी के किनारे तपस्या करने लगा ।
वहां उसे इस प्रकार उग्र तप करते देख इंद्र भी विस्मित हो गए और ब्राह्मण का वेष धारण कर तपोदत्त
रोकने के लिए उसके पास पहुँचे। वहां आकर इंद्र ने गंगा के किनारे की बालू रेत को उठा उठा कर नदी में फेंकना प्रारंभ कर दिया और लहरों को देखने लगा।
ब्राह्मण वेषधारी इंद्र को ऐसा करते देख तपोदत्त अपना मौन तोड़कर उससे पूछा- हे ब्राह्मण ! तुम यह क्या कर रहे हो ? बार-बार पूछने पर द्विजाकृति इंद्र ने उत्तर दिया- गंगा नदी में प्राणियों को पार उतरने के लिए एक पुल बना रहा हूँ ।
सुनकर तपोदत्त बोला “क्या तुम मूर्ख हो गए हो। गंगा की धारा में बहने वाली बालू से भी कभी पुल बना है?"
यह सुनकर वह द्विज रूप धारक इंद्र कहने लगा- “यदि तुम यह जानते हो कि बालू से कभी पुल नहीं बन सकता तो बिना विद्याध्ययन - बिना ज्ञान और विवेक के तप करके साधना के लिए कैसे उद्यत हो रहे हो ? यह तो ऐसा है - जैसे खरगोश के सींगों की इच्छा करना या हवा में चित्र खींचना । अतः तुम्हारा यह प्रयत्न भी व्यर्थ है। बिना विद्याध्ययन के तप, बिना अक्षरों के लिखने जैसा है। यदि ऐसा ही हो जाए तो अध्ययन की क्या आवश्यकता है ? कोई भी विद्याप्रयास न करे। "
इंद्र के इस प्रकार के तर्क से तपोदत्त तप को छोड़ घर जाकर विद्याध्ययन संलग्न हो गया । उपाचार्य, मेयो कॉलेज, अजमेर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/52
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
Cपला
श्री दिगम्बर जैन भव्योदय अतिशय क्षेत्र रैवासा
- जे. के. जैन
राजस्थान की मरुवृन्दावन सीकर नगरी के निकट श्री चन्द्रप्रभ भगवान की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा राजस्थान अरावली पर्वत की श्रृंखला की तलहटी में अपनी में सर्वप्रथम सम्पन्न हुई थी। भव्यता एवं ऐतिहासिकता को संजोये हुए, श्री दिगम्बर सेठ नथमलजी छाबड़ा ने रैवासा में इस विशाल जैन भव्योदय अतिशय क्षेत्र रैवासा विद्यमान है। इसी मंदिर का निर्माण करवा कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा क्षेत्र पर वीर निर्माण संवत् १६७४ विक्रम संवत् १२०५ करवाई। में निर्मित अति भव्य आदिनाथ जिनालय है,
यहाँ कई अतिशयपूर्ण घटनाएँ हुई हैं। एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने भी इस मंदिर के बारे में सुना और वह इस मंदिर को लूटने के लिए एवं खण्डित करने के लिए सेना के साथ चल पड़ा। औरंगजेब को सेना सहित आता हुआ जानकर श्रावकों ने उसके भय से श्रीजी को तलघर में विराजमान कर दिया लेकिन बादशाह तथा उसकी सेना ज्यों ही मन्दिर के निकट पहुँची बादशाह और उसकी सेना को मधुमक्खियों ने घेर लिया तथा उनके शरीर को काटने लगी। बादशाह
और उसकी सेना पीड़ा से छटपटाने लगी तथा भाग खड़ी हुई और इस तरह वह संकट टल गया। कहते हैं कि इस तरह की कई चमत्कारपूर्ण घटनाएँ यहाँ हुई हैं।
इस प्राचीन जैन मन्दिर की एक विशेषता
यह है कि इसमें स्थित खम्भों की गिनती कोई सही जिसमें अति मनोज्ञ आदिनाथजी की प्रतिमाजी ढंग से नहीं कर पाया। यहाँ एक और अद्भुत अतिशय विराजमान है तथा पास में विशाल नशियाँजी है जिसमें हुआ कि चार बार शान्तिनाथजी की पीतल की प्रतिमा चन्द्रप्रभ भगवान की पद्मासन विशाल प्रतिमा विराजमान चोर ले गये, लेकिन कुछ दिन बाद पुन: वापिस आकर है। उल्लेखनीय है कि यहाँ पर नशियाँजी में विराजमान वेदी पर विराजमान हो गये।
RA
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/53
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह पावन पवित्र भूमि सैंकड़ों वर्षों से अपने उन्होंने इस क्षेत्र का नाम श्री दिगम्बर जैन भूगर्भ में पवित्र तीर्थंकर सुमतिनाथ भगवान की प्रतिमा भव्योदय अतिशय क्षेत्र रैवासा रखा तथा शेखावटी के को सुरक्षित किए हुए थी।
भव्यजनों को सम्बोधित किया कि भूगर्भ से प्राप्त इस अलौकिक अतिशयकारी असाधारण सुमतिनाथ भगवान की प्रतिमा का इतना अतिशय है जिनप्रतिमा ने भी फाल्गुन शुक्ला दूज वीर निर्वाण संवत् कि यह क्षेत्र श्री महावीरजी, तिजारा, पदमपुरा के २४७४ की रात्रि को ब्रह्ममुहर्त में सुदर्शन नामक एक समान अतिशयकारी क्षेत्र बनकर भव्य जीवों की आधिसाधारण व्यक्ति को दर्शन दिये तथा स्वप्न में ही यक्ष व्याधि, ताप-संताप को दूरकर अतिशय पुण्यार्जन प्रान ने इस व्यक्ति के लिए उस स्थान पर दिग्दर्शन किया जिस करने में निमित्त बन सकता है। भूगर्भ में यह प्रतिमा विराजमान थी।
क्षेत्र पर दिनांक २८/१०/९८ से ५/११/९८ प्रात:काल उठकर उस व्यक्ति ने समाज के तक अष्टाह्निका पर्व में वृहद्स्तर पर श्री १००८ सिद्धचक्र श्रेष्ठियों को स्वप्न के अलौकिक दृश्य का बखान किया महामण्डल विधान के शुभ अवसर पर भूगर्भ से प्राप्त तदनुसार उस भूमि का पूजन आदि करके खुदाई शुरु सुमतिनाथ भगवान की स्वर्ण जयन्ती महोत्सव विशाल की गई। पाँच-सात फीट खोदने के बाद फाल्गुन शुक्ला स्तर पर मुनि श्री के सानिध्य में मनाया गया। इस तीज वीर निर्माण संवत् २४७४ की दोपहर के समय अवसर पर अतिशयकारी चमत्कारी प्रतिमा का प्रथम में पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ भगवान की मनोहारी बार १००८ कलशों से महा-मस्तकाभिषेक कर नवीन प्रतिमा का दर्शन हआ। चारों तरफ लोगों में हर्ष की वेदी पर विराजमान की गई तथा इसी अवसर पर लहर फैल गई। हजारों व्यक्ति दर्शन को आने लगे। महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी का स्टेच्यु भी विराजमान लेकिन राजकीय सत्ता की प्रतिकूलता के कारण उसका किया गया। सुमतिनाथ भगवान की चरण स्थली अधिक प्रचार-प्रसार न करके उसे मंदिर की परिक्रमा स्थापित की गई। में स्थित तलघर में विराजमान कर दी गई।
पंचकल्याणक व गजरथ महोत्सव १५ अगस्त १९४७ को जैसे ही आजादी का मुनि पुंगव १०८ श्री सुधासागरजी महाराज के शंखनाद हुआ वैसे ही लोगों ने अपने आराध्य को सानिध्य में दिनांक २४ फरवरी से १ मार्च ०१ में यहाँ तलघर से निकाल कर मन्दिर की वेदी पर विराजमान जिनबिम्ब पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ, जिसमें कर स्वतंत्रतापूर्वक पूजन करने लगे। ___ सवा सात फुट की पद्मासन सहस्रफणी पार्श्वनाथ,
हमारे सातिशय पुण्य से सन्त शिरोमणि आचार्य शांतिनाथ व चौबीसी की स्थापना हुई। विद्यासागर महाराज के परम शिष्य श्रमण संस्कृति संस्थान सांगानेर एवं ज्ञानोदय तीर्थ नारेली के प्रेरक आध्यात्मिक सन्त परम पूज्य मुनि श्री सुधासागरजी
- १५२ नेमीसागर कालोनी, महाराज, क्षुल्लक द्वय श्री गम्भीरमलजी एवं श्री
जैन मंदिर के पास, वैशाली नगर, जयपुर धैर्यसागरजी महाराज के पावन चरण इस क्षेत्र पर पड़े। दिनांक १ जून से ३० जून तक संघ क्षेत्र पर विराजमान
रहा।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/54
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
MESSASRemic
मानवाधिकार एवं जैन दर्शन
- न्यायमूर्ति एन. के. जैन
मानवाधिकार की अवधारणा जैन दर्शन की दया रखना अहिंसा है। आचार्य अमृतचन्द ने अहिंसा अहिंसा, समता, अपरिग्रह एवं अनेकान्त, स्याद्वाद से का विस्तृत वर्णन किया है। उनके मत में किसी को जुड़ी है। अहिंसा में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता, जीने की मारना, (मन-वचन-काय से) पीड़ा पहुँचाना ही हिंसा स्वतंत्रता, जन्मना स्वतंत्रता, अन्तश्चेतना की स्वतंत्रता, नहीं है, वरन् झूठ बोलना, निन्दा करना, बेगार लेना, शोषण से मुक्ति, उत्पीड़न से मुक्ति, बेगार पर रोक का किसी वस्तु-संपत्ति का अपहरण करना (चोरी), अनर्गल अधिकार गर्भित है तथा समता में समानता का अधिकार कामुकता एवं धन संचय एवं उसके प्रति गृद्धता का गर्भित है।
भाव ही हिंसा ही है। इसके साथ ही अपनी आत्मा में विषमताओं को नष्ट करने का अमोघ उपाय राग-द्वेषादि दूषित प्रवृत्तियों का जन्म भी हिंसा ही है। अपरिग्रह है। अपरिग्रह व सन्तोष अहिंसा के ही विस्तृत एवं उक्त सभी का अभाव अहिंसा है। रूप हैं। वैचारिक स्वतंत्रता में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको अपने समान समझने एवं अच्छा बर्ताव जुड़ी है, जो जैन दर्शन के प्रमुख आधार स्तम्भ अनेकान्त करने का संदेश भी अहिंसा के अन्तर्गत ही है। सभी व स्याद्वाद में देखी जा सकती है।
जीवों में चैतन्य की व्याप्ति है। अतः सभी जीव स्वभाव यद्यपि अहिंसा अपने निषेधात्मक रूप में हिंसा एवं शक्ति की अपेक्षा समान हैं। सभी जीवों में ज्ञान, के अभाव परक है, यही जीवों को जीने की, सुरक्षा दर्शन, सुख, तप, वीर्य की शक्ति का भण्डार भरा पड़ा की, शोषण से अभाव की, बेगार से सुरक्षा की, उत्पीड़न है। लेकिन शक्ति अपेक्षा समान होते हुए भी शक्ति की से सुरक्षा की स्वतंत्रता प्रदान करती है। दास प्रथा से व्यक्तता में असमानता है जो परतंत्रता की जननी है। मुक्ति दिलाती है। अपने विधेयात्मक रूप में अहिंसा, लेकिन परतंत्रता जीव की स्वयं की बनायी हुई है। मैत्री, प्रमोद, करुणा, दया आदि का प्रसार करती है। उसकी हिंसात्मक वृत्तियों एवं स्वभाव की आत्मघाती जो मानव को जीवन के प्रति भलाई व सहयोग करना वृत्तियों के कारण वह परतंत्र बना हुआ है। लेकिन स्वयं सिखाती है। मानव की मानव को सहायता मानवाधिकार अपने आत्मबल से वह स्वतंत्र हो सकता है एवं पूर्ण का मूलभूत सूत्र भी है।
सुखी हो सकता है। अहिंसा हमें सिखाती है कि हम जीवों को न समानता के संदर्भ में आत्मीयता का विस्तार मारें, उन्हें चोट न पहुँचायें, उन पर मनमाना अत्याचार ही सच्ची अहिंसा है, सच्ची समानता है। सब जीवों के न करें, बालकों व महिलाओं का शोषण न करें, उन्हें प्रति समता भाव का व्यवहार अहिंसा ही तो है। यू.एन. उत्पीड़न से बचायें, मानवता एवं मानव कल्याण की ओ. के घोषणा पत्र में भाई-चारे, सहयोग व समानता भावना अहिंसा में ही समायी है।
का उल्लेख है। जैन धर्म में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जैन मान्यतानुसार तो प्राणी मात्र के प्रति करुणा, परस्पर सहयोग का सूचक है। मेरी भावना में हम नित्य
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/55
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________ प्रति मैत्री व सहयोग की भावना ही भाते हैं। व्यक्ति श्रमण होता है। प्रथमानुयोग में कर्म भूमि की आज जोगरीबी-अमीरी की विषमता है। लिंग- व्यवस्था, श्रमण धारा प्रवृत्ति प्रधान एवं निवृत्ति प्रधान भेद, जाति-भेद, वर्ण-भेद, भाषा-भेद, धर्म-संप्रदाय है। दोनों क्षेत्रों में पुरुषार्थ अथवा श्रम को आवश्यक भेद, दास-स्वामी भेद, नस्ल-भेद, राष्ट्रीयता-भेद. माना गया है, लेकिन श्रम को महत्व देते हुए भी जैन प्रान्तीयता-भेद की जो विषमताएँ हैं. वे सभी हिंसा को मान्यता बेगारी लेने की पक्षधर नहीं है। बेगार लेना प्रश्रय देने वाली एवं बढावा देने वाली हैं। अहिंसा के स्वार्थ के लिए दूसरे का शोषण करना है, जबकि जैन मूल में उक्त सभी विषमताओं का समाधान है। जैन धर्म की मान्यतानुसार अपने कार्य के लिए स्वयं ही कर्म मान्यतानुसार जन्म से कोई भी शद्र-ब्राह्मण, अमीर- करना पड़ता है। मनुष्य स्वयं ही पुरुषार्थ कर दुःख दूर गरीब नहीं होता। सभी जीव हैं, व्यक्ति जो कर्म करता कर सकता है। है वही कहलाता है। लेकिन व्यक्तित्व के विकास में दास प्रथा एवं बेगारी पर रोक एक मानवाधिकार उनमें किसी भी आधार पर भेद-भाव नहीं किया जा है। अहिंसा के अतिचारों में अतिभारारोपण का आशय सकता। जीवन-यापन हेतु प्रदत्त स्वतंत्रता व समानता भी यही है। जीवों पर अथवा अपने आश्रितों या के अधिकार में ऊँच-नीच या छोटे-बड़े का भेद-भाव अनाश्रितों पर अपनी शक्ति से अधिक कार्यभार का अथवा कम-ज्यादा का भेद-भाव नहीं किया जा आरोपण अतिभारारोपण है। दास प्रथा में गुलाम व्यक्ति सकता। अपने को बड़ा कहने एवं अपनी प्रशंसा करने को अपनी शक्ति से अधिक कार्य करवाया जाता है एवं वाला तथा दूसरे को नीचा दिखाने एवं दूसरे की निंदा ऊँचा बढ़ने का विरोध किया जाता है। उन्हें दबाये ही करने वाला व्यक्ति नरकगामी होता है। रखा जाता है। बिना मूल्य दिए श्रम करवाया जाता, जैन धर्म की संपूर्ण आचार संहिता ही अतिभारारोपण दिये श्रम करवाया जाता है एवं शक्ति मानवाधिकार एवं मानव कल्याण के कर्तव्यों से जडी से अधिक श्रम करवाया जाता है। अतिभारारोपण व हुई है। अहिंसावत के अतिचार एवं भावनाओं में अन्नपान विरोध में इसी आचरण का वर्णन है कि किसी विवेचित क्रियाएँ एवं आचरण सीधे मानवाधिकार से भी जीव पर उसकी शक्ति से अधिक (कार्य का) बोझा संबंध रखती हैं। न लादा जाय एवं कार्य का उचित मुआवजा दिया ___ संपूर्ण जगत के प्राणीमात्र के कल्याण की भावना जाय। कार्य का पर्याप्त लाभ श्रम करने वाले को दिया जाय। भाने से कोई भी तीर्थंकर पद प्राप्त करता है। तीर्थंकर प्रकृति हमें सिखाती है कि संसार की जो सेवा करने धार्मिक स्वतंत्रता विचारों की स्वतंत्रता से ही की इच्छा रखता है, वही संसार का स्वामी बन जाता संबंधित है। धार्मिक स्वतंत्रता वैचारिक अहिंसा का ही है। सेवा भाव एवं परोपकार की भावना से व्यक्ति दास परिणाम है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य. शौचादि नहीं बनता अपितु स्वामी बन जाता है। जगत पूज्य बन दशलक्षण धर्म भी मानव धर्म ही हैं। जैन धर्म गणों की जाता है। अत: मानवाधिकारों की रक्षा करने वाला. पूजा में विश्वास रखता है। जो जीव वीतरागी, सर्वज्ञ सेवा करने वाला दास नहीं अपित जगत का स्वामी बन और हितोपदेशी है वही भगवान है। चाहे उसका नाम जाता है। जैन धर्म में स्व-पर के दुःखों को दूर करने कुछ भा क्या न हो। का उपाय करने का चिन्तवन 'अपाय विचय' नामक धर्मध्यान कहलाता है। जैन दर्शन में श्रम का महत्व पुरुषार्थ' से बताया - अध्यक्ष, राजस्थान राज्य मानवाधिकार आयोग गया है। 'श्रम' से ही श्रमण शब्द बना है। सर्वश्रेष्ठ श्रमी आर-३, तिलक मार्ग, सी स्कीम, जयपुर-०४ ___ फोन नं. 0414-2222519 महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/56