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अनुभाग । कर्म-पुद्गलों का आत्मा के साथ एकीभूत आयु कर्म जीव को चार गतियों में से किसी होना प्रदेश बन्ध है। कर्म परमाणु का कार्य-भेद के एक में जन्म दिलाता है। नाम कर्म के उदय से जीव अनुसार आठ वर्गों में विभक्त होना प्रकृति बन्ध है। कर्म शुभाशुभ शरीर पाता है। गोत्र कर्म के उदय से जीव की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, उच्च, निम्न बनता है। अन्तराय से आत्मशक्ति का वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय। कर्म प्रतिघात होता है। चार अघातिया कर्म परमाणुओं का का आत्मा के साथ निश्चित समय तक रहना स्थिति विलय मुक्ति के समय एक साथ होता है। चार घातिया बन्ध है। स्थिति पकने पर कर्म का उदय में आकर कर्मों के नाश से अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य आत्मा से अलग होने की अवधि स्थिति बन्ध कर्म की प्राप्ति होती है। आत्मा की ओर कर्म परमाणुओं का पुद्गलों में रस की तीव्रता मंदता का निर्धारण अनुभाग आना आस्रव, आत्मा के साथ कर्मों का संयोग बंध, बन्ध है।
आत्मा में कर्म परमाणु का आना रुक जाना संवर, बन्ध के उक्त चारों प्रकार एक साथ होते हैं। आत्मा से कर्मों का हटाना निर्जरा, आत्मा से कर्म कर्म की व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं। आत्मा परमाणुओं का पूर्णतः नष्ट होना मोक्ष है। के साथ कर्म-पुद्गलों के आश्लेष या एकीभाव की कर्म शास्त्र की भाषा में शरीर नाम कर्म के उदय दृष्टि से प्रदेश बन्ध सबसे पहला है। इसके होते ही उनमें काल में चंचलता रहती है। मानसिक, वाचिक और स्वभाव निर्माण, काल-मर्यादा और फल शक्ति का शारीरिक क्रिया से आत्मप्रदेशों में कम्पन होता है। निर्माण होता है।
उसके द्वारा कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है। शुभ चेतना के दो रूप हैं, ज्ञान - वस्तुस्वरूप का
परिणति के समय शुभ और अशुभ परिणति के समय विमर्श करना और दर्शन – वस्तु स्वरूप का ग्रहण ।
अशुभ कर्म परमाणुओं का आकर्षण होता है । मोह कर्म करना। इनके आवरण ज्ञानावरण और दर्शनावरण जिनसे के उदय से जीव राग-द्वेष में परिणत होता है; तब वह आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुण का अवरोध होता है । आत्मा अशुभ कर्मों का बंध करता है। मोह रहित प्रवृत्ति करते को विकत बनाने वाले पुदगल मोहनीय हैं। इसके दो समय शरीर नाम कर्म के उदय से जीव शुभ कर्म का भेद - दर्शन मोह व चारित्र मोह। श्रद्धा को विकत बंध करता है। ज्ञानावरण के उदय से तीव्र दर्शनावरण (विपरीत) करने वाला दर्शन मोह और कषाय के द्वारा का उदय तीव्र होता है। दर्शनावरण के उदय से तीव्र आत्मा के चारित्र गुण को विकत बनाने वाला चारित्र दर्शनमोह का उदय तीव्र होता है। दर्शन मोह के उदय मोह है। आत्म शक्ति का प्रतिरोध करने वाले पुद्गल
से तीव्र मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय अन्तराय कहलाते हैं। ये चारों घातिया कर्म हैं। उनके से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है। इस क्षय के लिये आत्मा को आत्मोन्मुखी तीव्र प्रयत्न करना
कर्म बंध का मुख्य हेतु कषाय है। कषाय के मूल में होता है।
राग-द्वेष हैं और राग-द्वेष के मूल में मिथ्यात्व है। ज्ञानावरण के उदय से जीव ज्ञातव्य विषय को
जैन दर्शन कर्म-फल का नियमन करने के लिये नहीं जानता। दर्शनावरण के उदय से जीव दष्टव्य विषय ईश्वर को आवश्यक नहीं समझता। कर्म-परमाणुओं को नहीं देख पाता। सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव में जीवात्मा के संबंध से एक विशिष्ट परिणाम होता है। सुख की अनुभूति करता है। असातावेदनीय के उदय वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, से दुःख की अनुभूति होती है। मोहनीय के उदय से जीव पुद्गल-परिणाम आदि उदयानुकूल सामग्री से विपाक मिथ्यात्वी बनता है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र प्रदर्शन में समर्थ हो जीवात्मा के संस्कारों को विकृत - ये चार अघातिया कर्म हैं।
करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है। सही अर्थ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/48
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