________________
3933
साधु समाधि सुधा साधन एवं आचार्य-स्तुति
8280056402255000000000.sasarad
o आचार्य श्री विद्यासागर जी
यहाँ समाधि का अर्थ मरण से है । साधु का अर्थ ध्यान ही नहीं। अपनी त्रैकालिक सत्ता को पहिचान है श्रेष्ठ/अच्छा अर्थात् श्रेष्ठ/आदर्श मृत्यु को साधु- पाना सरल नहीं है। समाधि वही है, जिसमें मौत को समाधि कहते हैं। ‘साधु' का दूसरा अर्थ 'सज्जन' है। मौत के रूप में नहीं देखा जाता है, जन्म को भी अपनी अतः सज्जन के मरण को ही साधु-समाधि कहेंगे। ऐसे आत्मा का जन्म नहीं माना जाता। जहाँ न सुख का आदर्श मरण को यदि हम एक बार भी प्राप्त कर लें, विकल्प है और न दु:ख का। तो हमारा उद्धार हो सकता है।
आज ही एक सज्जन ने मुझ से कहा - 'महाराज! जन्म और मरण किसका? हम बच्चे के जन्म कृष्ण जयन्ती है आज।' मैं थोड़ी देर सोचता रहा । मैंने के साथ मिष्टान्न वितरण करते हैं। बच्चे के जन्म के समय पूछा - 'क्या कृष्ण जयन्ती मनाने वाले कृष्ण की बात सभी हँसते हैं, किन्तु बच्चा रोता है। इसलिए रोता है मानते हैं। कृष्ण गीता में स्वयं कह रहे हैं कि मेरी जन्म कि उसके जीवन के इतने क्षण समाप्त हो गये। जीवन जयन्ती न मनाओ। मेरा जन्म नहीं, मेरा मरण नहीं। के साथ ही मरण का भय शुरु हो जाता है। वस्तुतः मैं तो केवल सकल ज्ञेय ज्ञायक हूँ। त्रैकालिक हूँ। मेरी जीवन और मरण कोई चीज नहीं है। यह तो पुद्गल सत्ता तो अक्षुण्ण है।' अर्जुन युद्ध भूमि में खड़े थे। का स्वभाव है, वह तो बिखरेगा ही।
उनका हाथ अपने गुरुओं से युद्ध के लिए नहीं उठ रहा आपके घरों में पंखा चलता है। पंखे में तीन था। मन में विकल्प था कि कैसे मारूँ अपने ही गुरुओं पंखड़ियाँ होती हैं। ये सब पंखे के तीन पहल हैं और को।' वे सोचते थे चाहे मैं भले ही मर जाऊँ, किन्तु जब पंखा चलता है तो एक मालूम पड़ते हैं । ये पंखुड़ियाँ मेरे हाथ से गुरुओं की सुरक्षा होनी चाहिए। मोहग्रस्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की प्रतीक हैं। हम उसकी शाश्वतता ऐसे अर्जुन को समझाते हुए श्रीकृष्ण ने कहा - को नहीं देखते, केवल जन्म-मरण के पहलुओं से जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्धवो जन्म मृतस्य च। चिपके रहते हैं, जो भटकने/घुमाने वाला है।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। समाधि ध्रुव है, वहाँ न आधि है, न व्याधि है जिसका जन्म है, उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है और न ही कोई उपाधि है। मानसिक विकार का नाम और जिसकी मृत्यु है, उसका जन्म भी अवश्य होगा। आधि है, शारीरिक विकार व्याधि है। बुद्धि के विकार यह अपरिहार्य चक्र है। इसलिए हे अर्जुन ! सोच नहीं को उपाधि कहते हैं। समाधि मन, शरीर और बुद्धि से करना चाहिए। परे है। समाधि में न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है और अर्जन ! उठाओ अपना धनष और क्षत्रिय धर्म न विषाद । जन्म और मृत्यु शरीर के हैं। हम विकल्पों का पालन करो। सोचो, कोई किसी को वास्तव में मार में फँसकर जन्म-मृत्यु का दुःख उठाते हैं। अपने अन्दर नहीं सकता। कोई किसी को जन्म नहीं दे सकता। प्रवाहित होने वाली अक्षुण्ण चैतन्य धारा का हमें कोई इसलिए अपने धर्म का पालन श्रेयस्कर है। जन्म-मरण
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/6
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org