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________________ दर्शन प्राप्त करने वाले के ही होता है और वही करण ही होते हैं। यहाँ पर चार आवश्यक होते हैं। (१) गुण लब्धि में प्रवेश करता है। ३४वें बंधापसरण में अस्थिर, संक्रमण, (२) गुणश्रेणी निक्षेप (३) स्थिति काण्डक अशुभ, अयशस्कीर्ति, अरति शोक व असाता वेदनीय घात (४) अनुभागकाण्डक घात। की बंध व्युत्छित्ति होती है। इन छ: प्रकृतियों का प्रमत्त पाप प्रकृति का अनुभाग अनन्त गुणा हीन हो सयंत गुणस्थान में बंध होता है और अप्रमत्त गुणस्थान जाता है और पुण्य प्रकृति का अनुभाग अनन्त गुणा में इन छ: प्रकृतियों का संवर होता है। अतः प्रायोग्य अधिक हो जाता है। इसका बहुत भाग निकलने पर लब्धि के अन्त में यह जीव अप्रमत्तवर्ती शुभ भाव कर अन्तरकरण होता है, जिसमें दर्शन मोहनीय प्रकृति का लेता है जब ही करण लब्धि में प्रवेश करता है। अतः द्रव्य प्रथम स्थिति में तथा दूसरी स्थिति में निक्षेपण कर सम्यक्दर्शन को प्राप्त करने के लिए उपरोक्त परिणाम देता है और अन्तरकरण में दर्शन मोहनीय की सत्ता नहीं बल पूर्वक करने पड़ते हैं। श्रावक सामायिक काल में रहती। अनिवृत्तिकरण काल समाप्त होने पर दर्शन अप्रमत्तवर्ती शुभ भाव कर लेता है ऐसा कथन रत्नकरण्ड मोहनीय के तीन टुकड़े हो जाते हैं और वे उपशम हो श्रावकाचार, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, अनगार धर्मामृत तथा जाते हैं सम्यक् दर्शन हो जाता है और यह जीव अनादि महापुराण आदि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। अत: करणलब्धि काल से जिसको प्राप्त नहीं किया था उस सम्यक दर्शन में प्रवेश करने के लिए उपरोक्त परिणाम बल पूर्वक को प्राप्त कर लेता है। करण लब्धि में परिणाम आत्मा करने पड़ते हैं। वही जीव उछलकर करण लब्धि में के सम्मुख होते हैं और अनन्त-अनन्त गुणे विशुद्ध होते प्रवेश कर सकता है। जाते हैं। उसी के बल पर दर्शन मोहनीय का उपशम, करण लब्धि :- (१) अधःप्रवृत्तकरण में । क्षयोपशम कर लेता है। बाद में केवली भगवान के समानवी जीव के परिणाम समान भी होते हैं और सानिध्य में क्षायिक सम्यक् दर्शन प्राप्त करके मुनिलिंग असमान भी होते हैं। धारण करते हैं। तप के बल पर आठों कर्मों का क्षय करके सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेता है। ऐसी सिद्ध (२) अपूर्वकरण लब्धि में जीव के परिणाम अवस्था सब लोग प्राप्त करें - इसी भावना के साथ अपूर्व-अपूर्व ही होते हैं। सादृश्य नहीं होते हैं। विराम लेता हूँ। (३) अनिवृत्तिकरण लब्धि में समान वर्ती जीव के परिणाम समान होते हैं और असमानवर्ती के असमान 0 बाबूलाल जैन, छावनी-कोटा आत्मानस्नापयेन्नित्यम् ज्ञानवारिणा चारुणा। येन निर्मलतां याति जनो जन्मान्तरेष्वपि ॥ - आत्मा को नित्य ही ज्ञान रूपी पवित्र जल से स्नान कराना (स्वाध्याय से आत्मोन्मुख) चाहिये; जिससे मानव भव-भवान्तरों में भी निर्मलता को प्राप्त होता है। अर्थात् आत्मशुद्धि होती है। - चाणक्य महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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