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बन सकता है, परन्तु पाप कभी धर्म नहीं हो सकता । पर है । उतार-चढ़ाव, मान-अपमान, अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियों में अपने आपको विचलित न होने देने का मूल मन्त्र है। दूसरी बात यह है कि जब तक जीवजीव का सूक्ष्मतम भेद समझ में नहीं आवेगा, अहिंसा का पालन पूर्ण रूप से नहीं हो सकता। पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल में चेतना को सर्वज्ञ ही जान सकते हैं। वर्तमान विज्ञान की पहुँच से भी वह बहुत परे है । इसी कारण अन्य धर्मों में सूक्ष्म हिंसा से बचने का प्रावधान एवं सोच नहीं है, जितनी बारीकी से जैन श्रमणाचार की नियमावली में प्रतिपादित किया गया है।
राग-द्वेष त्यागे बिना मोक्ष नहीं
संपूर्ण सत्य की व्याख्या और सूक्ष्मतम विश्लेषण वही कर सकता है, जो स्वयं वीतरागी है। उसका न तो किसी के प्रति राग है और न किसी के प्रति द्वेष । जब तक राग और द्वेष रहेगा अपने भक्तों के प्रति ममत्व और अन्य की उपेक्षा होना संभव है । विश्व के इतिहास में शायद ही कहीं ऐसा दृष्टांत मिलता है कि भक्त अपने परम लक्ष्य को तब तक प्राप्त न कर सका, जब तक उसको अपने आराध्य के प्रति राग था । भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को भी तब तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई, जब तक कि उनका भगवान के प्रति राग समाप्त नहीं हुआ। आज जो साम्प्रदायिक कट्टरता से धर्म बदनाम हो रहा है, उसका रूप विकृत हो रहा है, अपने को ही अच्छा और अन्य को बुरा बतला कर घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है, उन सभी धर्म के ठेकेदारों को चिन्तन करना होगा कि कहीं उनका आचरण उनके आत्म-विकास में बाधक तो नहीं है ?
सम्यक्त्व ही साधना का केन्द्र -
भगवान महावीर ने मिथ्यात्व अथवा गलत धारणा, मान्यता, श्रद्धा को मोक्ष की साधना में सबसे अधिक बाधक माना। सम्यक्त्व (सही दृष्टि) के बिना सच्चा ज्ञान और आचरण सम्यक् नहीं हो सकता । उनकी साधना का लक्ष्य था समभाव से वीतरागता की प्राप्ति। समता ही धर्म का लक्षण है। वह विवादों से
महावीर का दर्शन सभी के लिए जीवन्त दर्शन है, अलौकिक दर्शन है। उसके अभाव में ज्ञानी का ज्ञान, पण्डित का पाण्डित्य, विद्वान की विद्वत्ता, धार्मिक का धर्माचरण, भक्तों की भक्ति, अहिंसकों की अहिंसा, न्यायाधीश का न्याय, राजनेताओं की राजनीति, वैज्ञानिकों की वैज्ञानिक शोध, चिकित्सकों की चिकित्सा, लेखकों का लेखन, कवि का काव्य अधूरा है। कहने का सारांश यही है कि महावीर के सिद्धान्तों से मतभेद रखना, उन्हें अस्वीकारना, चिन्तनशील, प्रज्ञावान, विवेकवान व्यक्ति के लिए संभव नहीं। फिर वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो ? उनके दर्शन में अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह का समग्र दर्शन है, जो शाश्वत सत्य की आधार-शिला पर प्ररूपित किया गया है ।
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कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम् । आत्मज्ञान विहिना मूढाः ते पच्यन्ते नरक निगूढ़ा : ॥ - काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर, 'मैं कौन हूँ' भावना कर । आत्म ज्ञान से विहीन मूढ़जन नरक में गिरते हैं।
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• इसप्रकार आत्मा के विषय - नीति तत्त्वसार
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/15
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