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इस आप्रवचन से सिद्ध है कि सल्लेखना में मुनि विविधपण्यदानादानसञ्चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्टः। था श्रावक मरने की चाह नहीं करता, बल्कि बाह्य कारणों तद्विनाशकारणे चकुतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । से मृत्यु के अनिवार्य हो जाने पर उससे भय त्याग देता दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते। है और अपने अहिंसादि व्रतों की रक्षा करते हुए मृत्यु एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसञ्चये प्रवर्तमानः तदाका वरण करता है। इस प्रकार सल्लेखाना आत्महत्या श्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते नहीं है, अपितु बाह्य कारणों से मृत्यु के अनिवार्य हो स्वगुणाविरोधेन परिहरति । जाने पर अपने धर्म की रक्षा का प्रयत्न है।
दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं?
तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत्? आत्महत्या करने वाला क्रोध, शोक, विषाद,
____(सवार्थसिद्धि ७/२२)। भय, निराशा आदि के आवेग में मृत्यु के कारण स्वयं अनुवाद - शंका: चूंकि सल्लेखना में अपने जुटाता है, सल्लेखनामरण में मृत्यु के कारण बाहर से अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, आते है। आत्महत्या में मनुष्य स्वयं ही फाँसी लगाता इसलिए यह आत्मघात है। समाधान: ऐसा नहीं हैं, है, कुएं में कूदता है, आग में जलता है, जहर खाता है क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद (राग-द्वेष-मोह) का अभाव या अपने को गोली मार लेता है। लेकिन सल्लेखना- है। 'प्रमत्तयोग से (राग-द्वेष-मोह के कारण= क्रोधादि मरण दूसरों के द्वारा प्राणघातक उपसर्ग किये जाने पर, के आवेग में) प्राणों का घात करना हिंसा है' यह पहले प्राणघातक प्राकृतिक विपदा आने पर अथवा प्राणघातक (तत्त्वार्थसत्र/अध्याय ७ सूत्र १३ में) कहा जा चुका असाध्यरोग या अतिवृद्धावस्था हो जाने पर होता है। है। किन्तु सल्लेखनाव्रतधारी के प्रमाद नहीं होता, आरे इसमें भी विशेषता यह है कि सल्लेखनाव्रतधारी क्योंकि उसमें रागादि का अभाव होता है। जो मनुष्य मरते समय न तो क्रोध के आवेग में रहता है, न शोक
रागद्वेषमोह से आविष्ट होकर विष, शस्त्र आदि उपकरणों के, न भय के, न विषाद के और न निराशा के। वह परम ।
से अपना वध करता है, वह आत्मघाती होता है। शान्तभाव में स्थित रहता है।
सल्लेखना को प्राप्त मनुष्य में रागद्वेष मोह नहीं होते, सल्लेखना आत्महत्या क्यों नहीं है ? इसका अतः वह आत्मघाती नहीं होता। कहा भी गया है - खुलासा पाँचवीं शताब्दी ई. के जैनाचार्य पूज्यपाद स्वामी _ "जिनेन्द्रदेव ने यह उपदेश दिया है कि ने निम्नलिखित शब्दों में किया है -
रागादिभावों की उत्पत्ति न होना अहिंसा है और उनका "स्यान्मतमात्मवधः प्राप्नोति, स्वाभिसन्धि- उत्पन्न होना हिंसा।" . पूर्वकायुरादिनिवृत्ते:? नैष दोषः,अप्रमत्तत्वात् । इसके अतिरिक्त मरना कोई मरना नहीं चाहता। 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्युक्तम् । न चास्य जैसे कोई व्यापारी अपने घर में अनके प्रकार की विक्रेय प्रमादयोगोऽस्ति। कुतः? रागाद्यभावात्। रागद्वेषमोहा- वस्तुओं का संग्रह और देनलेन करता है, उसे अपने विष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मान ध्नतः घर का विनाश इष्ट नहीं होता। फिर भी यदि कहीं से स्वघातो भवति। न सल्लेखना प्रतिपन्नस्य रागादयः उसके विनाश का कारण उपस्थित हो जाय, तो वह सन्ति ततो नात्मवधदोषः। उक्तं च -"
यथाशक्ति उसे टालने का प्रयत्न करता है। किन्तु यदि रागदीणमणुप्पा अहिंसगत्तं ति देसि समये। टालना संभव न हो, तो घर में रखी विक्रय सामग्री को तेसिं च उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिद्दिट्टा ॥ नष्ट होने से बचाने की कोशिश करता है, इसी प्रकार किं च मरणास्यानिष्ट त्वाद्यथा वणिजो गृहस्थ भी अपने शरीररूपी घर में व्रत-शीलरूप सामग्री
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/59
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