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गरिष्ठ से गरिष्ठ पदार्थ खा सकता है, किन्तु उसके फल द्वारा कर्म/भाग्य में परिवर्तन किया जा सकता है। स्वरूप होनेवाले अजीर्ण से नहीं बच सकता। कर्मफल कायवाङ्मन: कर्मयोगः - योग द्वारा कर्म से बन्ध व भोगने में जीव स्वतंत्र नहीं है। कहीं-कहीं जीव उसमें मुक्त हुआ जा सकता है। संवर और निर्जरा कर्म मुक्ति स्वतंत्र भी होता है। जीव और कर्म का संघर्ष चलता का कारण है। संचित कर्म तपस्या द्वारा नष्ट हो जाते रहता है। जीव के काल आदि लब्धियों की अनुकूलता हैं। कोई फल डाली पर पक कर टूटता है और किसी होती है, तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों फल को प्रयत्न से पकाया जाता है। पकते दोनों हैं, की बहलता होती है; तब जीव उनसे दब जाता है। प्रक्रिया भिन्न है। जो सहज पक
का काल इसलिये कहीं जीव कर्म के अधीन है, तो कहीं कर्म लम्बा होता है, जो प्रयत्न से पकता है उसका काल जीव के अधीन। संयम, त्याग, तपस्या की ऊर्जा से छोटा है। कर्म का परिपाक भी ठीक इसी तरह है। विपाक से पूर्व भी कर्म को न्यून कर देता है। स्थिति निश्चित काल से पकना सविपाक कर्म निर्जरा है और
और फल शक्ति नष्ट कर उन्हें शीघ्र तोड़ डालने के लिये निश्चित काल से पूर्व तपस्या द्वारा निर्जरा अविपाक तपस्या की जाती है। पातंजल योगभाष्य में भी अदृष्ट निर्जरा है। इसी का नाम मोक्ष है। यद्यपि आत्मा कर्म जन्म वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ बतायी है। उनमें से का अनादि संबंध है। तथापि स्वर्ण-मृत्तिका, घी-दूध एक गति है – कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित की भाँति मिले हुये भी तपाग्नि से आत्मा से कर्म पुद्गल आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं। ध्यानाग्नि-ज्ञानाग्नि वा अलग किये जा सकते हैं। कषाय, राग, द्वेष को नष्ट सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणः।।
कर वीतरागी बन आत्मा मुक्त बन जाता है। कर्म हीनता इसी को जैनदर्शन में उदीरणा कहा है। पुरुषार्थ ही मुक्ति है।
०२२, श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर (राज.)
तत्त्व बोध जैन धर्म निर्वाणवादी धर्म है । वह निर्वाण को मानकर चलता है। धर्म की अंतिम मंजिल है निर्वाण। निर्वाणवादी धर्म से निर्वाण से पहले आत्मा का होना जरूरी है। धर्म का पहला बिन्द है आत्मा और अन्तिम बिन्द है निर्वाण । जैनाचार्यों ने आत्मा को देखा, अनुभव किया और जाना - आत्मा एक रूप में नहीं है, वह स्वरूपत: एक है, चैतन्यमय है, फिर भी विभाजित है। उसे तीन भागों में देखा गया - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा वह है, जो आत्मा के बाहर परिक्रमा कर रहा है, भीतर प्रविष्ट नहीं हो रहा है। मकान का दरवाजा बन्द है, व्यक्ति भीतर नहीं हो सकता। उसका कारण है मिथ्या दृष्टिकोण। जब तक दृष्टिकोण मिथ्या रहता है, अपनी आत्मा में अपना प्रवेश नहीं हो सकता। अपने ही घर में अपना प्रवेश निषिद्ध हो जाता है। बड़ा आश्चर्य है - अपना ही घर और अपने लिए प्रवेश निषिद्ध । इस स्थिति में जब आदमी बाहर भटकता है तो वह है कल्पना का साम्राज्य बहुत बढ़ा लेता है। आज के युग की जो सबसे बड़ी सामाजिक समस्या है, वह काल्पनिक दृष्टि। मनुष्य ने आवश्यकता के कुछ ऐसे मानदंड बना लिए, कृत्रिम रेखाएँ खींच लीं, विकसित व्यक्ति और विकसित समाज की अपनी अवधारणाएँ बना लीं
और वह उन्हें पाने की भाग-दौड़ में व्यथित होने लगा। सामाजिक समस्या का एक अनन्य उदाहरण है। आदमी काल्पनिक आवश्यकताओं के लिए क्या-क्या नहीं करता। उनकी पूर्ति के लिए किन दुःखद स्थितियों में वर्तमान युग का व्यक्ति जी रहा है। यह हमारे सामने बहुत स्पष्ट है। वर्टेड रसेल ने अपनी पुस्तक में लिखा है - अगर ये काल्पनिक आवश्यकताएँ समाप्त हो जाएँ तो समाज की सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी, समस्याओं का समाधान मिल जाएगा।
- आचार्य महाप्रज्ञ
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/50
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