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कर्म सिद्धान्त एवं समाज - न्याय व्यवस्था
डॉ. महिमा बासल्ल
स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, रूप मूर्त- पुद्गलों का निमित्त पाकर अर्थात् शरीर की इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण करने पर आत्मा राग-द्वेष एवं मोह रूप में परिणमन करती है, इसी से कर्मों का बंधन होता है । कर्मों का उत्पादक मोह तथा उसके बीज राग एवं द्वेष हैं। कर्म की उपाधि से आत्मा का शुद्ध स्वभाव आच्छदित हो जाता है। कर्मों के बंधन से आत्मा की विरूप अवस्था हो जाती है। बंधनों का अभाव अथवा आवरणों का हटना ही मुक्ति है। मुक्ति की दशा में आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाती है। इस तथ्य को भारतीय दर्शन स्वीकार करते हैं । आत्मा के "आवरणों” को भिन्न नामों द्वारा व्यक्त किया गया है। किन्तु मूल अवधारणा में अंतर नहीं है। आत्मा के आवरण को जैन दर्शन कर्म- पुद्गल, बौद्ध दर्शन तृष्णा एवं वासना, वेदान्त दर्शन अविद्याअज्ञान के कारण माया तथा योग दर्शन प्रकृति के नाम से अभिहित करते हैं ।
आध्यात्मिक दृष्टि से कर्म सिद्धान्त पर बड़ी गहराई से विचार हुआ है उसके सामाजिक सन्दर्भों की प्रासंगिकता पर भी विचार करना अपेक्षित है। आध्यात्मिक दृष्टि से व्यक्ति माया के कारण अपना प्रकृत स्वभाव भूल जाता है। राग-द्वेष से प्रमत्त जीव इन्द्रियों के वशीभूत होकर मन, वचन, काय से कर्मों का संचय करता है। जैसे दूध और पानी परस्पर मिल जाते हैं, वैसे ही कर्म पुद्गल के परमाणु आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार लौह-पिण्ड को अग्नि में डाल देने पर उसके कण-कण में अग्नि परिव्याप्त हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा के असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त-अनन्त कर्म वर्गणा के पुद्गल संश्लिष्ट हो जाते हैं।
जीव अनादि काल से संसारी है । दैहिक स्थितियों से जकड़ी हुई आत्मा के क्रियाकलापों में शरीर (पुद्गल) सहायक एवं बाधक होता है। आत्मा का गुण चैतन्य और पुद्गल का गुण अचैतन्य है । आत्मा एवं पुद्गल भिन्न धर्मी हैं फिर भी इनका अनादि प्रवाही संबंध है। आत्मा एवं शरीर के संयोग से "वैभाविक” गुण उत्पन्न होते हैं। ये हैं - पौद्गलिक मन, श्वास-प्रश्वास, आहार, भाषा। ये गुण न तो आत्मा के हैं और न शरीर के हैं। दोनों के संयोग से ही ये उत्पन्न होते हैं। मनुष्य की मृत्यु के समय श्वासप्रश्वास, आहार, एवं भाषा के गुण तो समाप्त हो जाते हैं किन्तु पुद्गल - कर्म के आत्म प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाने के कारण एक “पौद्गलिक” शरीर उसके साथ निर्मित हो जाता है जो देहान्तर करते समय उसके साथ रहता है।
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आवरणों को हटाकर मुक्त किस प्रकार हुआ जा सकता है ? कर्त्तावादी सम्प्रदाय परमेश्वर के अनुग्रह शक्तिपात, दीक्षा तथा उपाय को इसके हेतु मान लेते हैं। जो दर्शन जीव में ही कर्मों को करने की स्वातंत्र्य शक्ति मानकर जीवात्मा के पुरुषार्थ को स्वीकृति प्रदान करते हैं तथा कर्मानुसार फल प्राप्ति में विश्वास रखते हैं। वे साधना मार्ग तथा साधनों पर विश्वास रखते हैं। कोई शील, समाधि तथा प्रज्ञा का विधान करता है। कोई श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन का उपदेश देता है। जैनदर्शन सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के सम्मिलित रूप को मोक्ष-मार्ग का कारण मानता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/51
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