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भरतपुर, कामा आदि स्थानों के संग्रहीत ग्रन्थभण्डारों अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, की आधुनिक पद्धति से व्यवस्था होनी चाहिए। उन्हें नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र आदि आगम ग्रन्थों पर संस्कृत रिसर्च-केन्द्र बना दिया जाना चाहिए, जिससे प्राकृत, में विस्तृत टीकाएँ लिखीं और उनके स्वाध्याय में वृद्धि अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा पर रिसर्च की। न्यायशास्त्र के ये प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने करने वाले विद्यार्थियों द्वारा उनका सही रूप से उपयोग अनेकान्त-जयपताका, अनेकान्तवाद प्रवेश जैसे किया जा सके। क्योंकि उक्त सभी भाषाओं में लिखित दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। समराइच्चकहा प्राकृतअधिकांश साहित्य राजस्थान के इन भण्डारों में उपलब्ध भाषा की इनकी सुन्दर कथाकृति है, जो गद्य-पद्य दोनों होता है। यदि ताड़पत्र पर लिखी हुई प्राचीनतम प्रतियाँ में ही लिखी हुई है। इसमें ९ प्रकरण हैं, जिनमें परस्पर
जैसलमेर के ग्रन्थ भण्डारों में संग्रहीत हैं तो कागज पर विरोधी दो पुरुषों के साथ-साथ चलने वाले ९ जन्मान्तरों लिखी हुई संवत् १३१९ की सबसे प्राचीन प्रति जयपुर का वर्णन किया गया है। इसका प्राकृतिक वर्णन एवं के शास्त्रभण्डार में संग्रहीत है। अभी कुछ वर्ष पूर्व भावचित्रण दोनों ही सुन्दर हैं। धूर्ताख्यान भी इनकी जयपुर के एक भण्डार में हिन्दी की एक अत्यधिक अच्छी रचना है। हरिभद्र सूरि के योगबिन्दु एवं प्राचीन कृति जिनदत्तचौपाई (रचनाकाल सं. १३५४) योगदृष्टिसमुच्चय भी दर्शनशास्त्र की अच्छी रचनाएँ उपलब्ध हुई है, जो हिन्दी भाषा की एक अनुपम कृति मानी जाती हैं। है। प्रसन्नता की बात है कि इधर १०-१५ वर्षों से भारत
महेश्वर सूरि भी राजस्थानी सन्त थे। इनकी के विभिन्न विश्वविद्यालयों में जैन साहित्य पर भी
प्राकृत भाषा की ज्ञानपञ्चमीकहा तथा अपभ्रंश की रिसर्च किया जाना प्रारम्भ हुआ है। विद्यार्थियों का
संयममंजरीकहा प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। जैन दृष्टिकोण से उधर और भी अधिक झुकाव हो सकता है यदि हम
लिखी गई दोनों ही कृतियों में कितनी ही सुन्दर कथाएँ इन भण्डारों को शोधकेन्द्र के रूप में परिवर्तित कर दें
हैं। ज्ञानपंचमीकहा में जयसेन, नंद, भद्रा, वीर, कमल और उनको अपने शोधप्रबन्ध लिखने में पूरी सुविधाएँ प्रदान करें। अब यहाँ राजस्थान के कुछ प्रमुख सन्तों
गुणानुराग, विमल, धरण, देवी और भविष्यदत्त की की भाषानुसार साहित्यिक सेवाओं पर प्रकाश डाला
कथाएँ हैं। कथाएँ सुन्दर, रोचक एवं धाराप्रवाह में
वर्णित हैं तथा एक बार प्रारम्भ करने के पश्चात् उसे जा रहा है -
छोड़ने को मन नहीं चाहता। प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य -
____ अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि हरिषेण भी चित्तौड़ के ___जम्बूद्वीप पण्णत्ति के रचयिता आचार्य पद्मनन्दि
निवासी थे। इनके पिता का नाम गोवर्द्धन था। धक्कड़ राजस्थानी सन्त थे। इसमें २३८९ प्राकृत गाथाएँ हैं,
उनकी जाति थी तथा श्री उजपुर से उनका निकास हुआ जिनमें जम्बूद्वीप का वर्णन किया गया है। प्रज्ञप्ति की रचना बारां (कोटा) नगर में हुई थी। उन दिनों मेवाड़
था। इन्होंने अपनी कृति धम्मपरिक्खा संवत् १०४४ में पर राजा शक्ति या सक्ति का शासन था और बारां मेवाड़
अचलपुर में समाप्त की थी। धम्मपरिक्खा अपभ्रंश की के अधीन था । ग्रन्थकार ने अपने आपको वीरनन्दि का ।
सुन्दर कृति है, जिसकी ११ संधियों में १०० कथाओं प्रशिष्य एवं बलनन्दि का शिष्य लिखा है। हरिभद्र सूरि का वर्णन किया गया है। यह कथा-कृति जैन समाज राजस्थान के दसरे सन्त थे जो प्राकत एवं संस्कत भाषा में बहुत प्रिय रही। राजस्थान में इसका विशेष प्रचार के जबर्दस्त विद्वान थे। इनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था। था। इसलिए यहाँ के कितने ही ग्रन्थभण्डारों में इस आगम ग्रन्थों पर उनका पूर्ण अधिकार था। इन्होंने कृति की पाण्डुलिपियाँ मिलती हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/30
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