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अपनी रचनाओं के अन्त में इस तरह के कार्य की यहु चरितु पुन भंडारू, अत्यधिक प्रशंसा करते। इसके दो उदाहरण देखिये -
___ जो वरु पढइ सु नर मह सारु । १. जो पढइ पढावइ एक चित्तु,
तहि परदमणु तुही फल देई, सइ लिहइ लिहावइ जो णिरुत्तु ।
संपति पुत्रु अवरु जसु होई॥७००॥ आयण्णई मण्णई जो पसत्थु,
ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने में बड़ा परिश्रम करना परिभावइ अहिणिसु एउ सत्थु ।। पड़ता था। शुद्ध प्रतिलिपि करना, सुन्दर एवं सुवाच्य जिप्पइ ण कसायहि इंदिएहिं, अक्षर लिखना एवं दिन भर कमर झुकाये ग्रन्थलेखन तो लियइ ण सो पासंडि एहि । का कार्य प्रत्येक के लिये सम्भव नहीं था। उसे तो सन्त तहो दुक्किय कम्मु असेसु जाइ, एवं संयमी विद्वान ही सम्पन्न कर सकते थे। इसलिये सो लहए मोक्ख सुक्खभावइ ।। वे ग्रन्थ के अन्त में कभी-कभी उसकी सुरक्षा के
- श्रीचन्द्रकृत रत्नकरण्ड लिये निम्न शब्दों में पाठकों का ध्यान आकर्षित किया २. मनोहार प्रबन्ध ए गुंथ्यो करि विवेक। करते थे - प्रद्युमन गुण सूत्रिकरी, सब वन कुसुम अनेक ॥१०॥ भग्नपृष्ठि कटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधो मुखम्। भवीयण गुणि कंठि करो, एह अपूरव हार। कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् ॥ घरि मंगल लक्ष्मी घणी, पुण्य तणो नहिं पार ॥११॥ इन सन्तों के सुरक्षा के विशेष नियमों के कारण भणि भणाति साभलि, लिखि लिखावइ एह। राजस्थान में ग्रन्थों का एक विशाल संग्रह मिलता है। देवेन्द्रकीर्ति गच्छपती कहि, स्वर्ग मुक्ति लहि तेह। कितने ही ग्रन्थ-संग्रहालय तो अब भी ऐसे हैं, जिनकी
- भ. देवेन्द्रकीर्ति कृत प्रद्युम्नप्रबन्ध किसी भी विद्वान द्वारा छानबीन नहीं की गई है। लेखक इसी तरह कवि सधारु ने तो ग्रन्थ के पढ़ने, को राजस्थान के ग्रन्थ भण्डारों पर शोध-निबन्ध लिखने पढ़ाने, लिखने और लिखवाने का जो फल बतलाया के अवसर पर राजस्थान के १०० से भी अधिक भण्डारों है वह और भी आकर्षक है -
को देखने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। ऐहु चरितु जो वांचइ कोइ,
___यदि मुस्लिमयुग में धर्मान्ध शासकों द्वारा इन सो नर स्वर्ग देवता होइ। शास्त्रभण्डारों का विनाश नहीं किया जाता एवं हमारी हलुवइ धर्म खपइ सो देव,
ही लापरवाही से सैकड़ों-हजारों ग्रन्थ चूहों, दीमक एवं मुकति वरंगणि मागइ एम्ब ।।६९७।। शीलन से नष्ट नहीं होते तो पता नहीं आज कितनी जो फुणि सुणइ मनह धरि भाउ,
अधिक संख्या में इन भण्डारों में ग्रन्थ उपलब्ध होते। ___ असुभ कर्म ते दूरि हि जाइ। फिर भी जो कुछ अवशिष्ट हैं, उनका यदि विविध जोर वखाणइ माणुसु कवणु,
दृष्टियों से अध्ययन कर लिया जावे, उनकी सम्यक् रीति तहि कहु तूसइ देव परदवणु॥ से ग्रन्थसूचियाँ प्रकाशित कर दी जावें तथा प्रत्येक अरु लिखि जो लिखियावइ साथु,
अध्ययनशील व्यक्ति के लिए वे सुलभ हो सकें तो हमारे सो सुर होइ महागुण राथु। आचार्यों, साधुओं एवं कवियों द्वारा की हुई साहित्यजोर पढावइ गुण किउ विलउ,
साधना का वास्तविक उपयोग हो सकता है। जैसलमेर, सो नर पावइ कंचण भलउ॥६९८॥ नागौर, बीकानेर, चुरू, आमेर, जयपुर, अजमेर,
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/29
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