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धम्मपरिक्खा के अतिरिक्त राजस्थान के ग्रन्थसंग्रहालयों में अपभ्रंश भाषा की १०० से भी अधिक रचनाएँ मिलती हैं । स्वयम्भू, पुष्पदन्त, वीर, नयनन्दि, सिंह, लक्ष्मण (लाख), रइधू आदि कवियों की रचनाएँ राजस्थान में विशेष रूप से प्रिय रही हैं । यहाँ के भट्टारकों एवं यतियों ने अपभ्रंश कृतियों की प्रतिलिपियाँ करवाकर भण्डारों में स्थापित करने में विशेष रुचि ली और यह परम्परा १५वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक अधिक रही। अपभ्रंश की इन कृतियों के लिये जयपुर, आमेर एवं नागौर के भण्डार विशेषत: उल्लेखनीय हैं । अपभ्रंश साहित्य का अधिकांश भाग इन्हीं भण्डारों में संग्रहीत है । "
संस्कृत साहित्य
राजस्थान के अधिकांश सन्त संस्कृत के भी विद्वान थे। संस्कृत साहित्य से उन्हें विशेष रुचि थी और इस भाषा में उन्होंने श्रावकों के लिए पुराण, काव्य, चरित्र, कथा, स्तोत्र एवं पूजा साहित्य का भी सृजन किया था । १७वीं शताब्दी तक संस्कृत रचनाओं को पढ़ने की जनसाधारण में विशेष रुचि रही, इसीलिए प्राकृत एवं अपभ्रंश ग्रन्थों पर भी संस्कृत में टीकाएँ एवं टिप्पण लिखे जाते रहे। किसी विषय पर यदि नवीन रचनाओं का लिखा जाना सम्भव नहीं हुआ तो प्राचीन साहित्य की प्रतिलिपियाँ करवा कर शास्त्र भण्डारों में रखी गयीं । राजस्थान के सिद्धर्षि सम्भवत: प्रथम जैन सन्त थे, जिन्होंने उपदेशमाला पर संस्कृत टीका लिखी और उपमितिभवप्रपंच कथा को संवत् ९०६ में समाप्त किया । चन्द्रकेवलिचरित इनकी एक और रचना है, जिसे इन्होंने संवत् ९७४ में पूर्ण किया था। १२वीं शताब्दी में होनेवाले आचार्य हेमचन्द्र से भी राजस्थानी जनता कम उपकृत नहीं है। इनके द्वारा लिखे हुये साहित्य का इस प्रदेश में विशेष प्रचार रहा। यही कारण है उनके द्वारा निबद्ध साहित्य दोनों ही सम्प्रदायों के शास्त्र भण्डारों में समान रूप से पाया जाता है। हेमचन्द्राचार्य संस्कृत के उद्भट विद्वान थे और उन्होंने जो कुछ इस भाषा में लिखा वह
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प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । १५वीं शताब्दी में राजस्थान में भट्टारक सकलकीर्ति का उदय विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सकलकीर्ति संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । ये पहिले मुनि थे और बाद में इन्होंने अपने आपको भट्टारक घोषित किया था तथा संवत् १४४२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गादी की स्थापना की । इन्होंने २८ से भी अधिक संस्कृत रचनाएँ लिखी, जो राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध होती हैं। सकलकीर्ति के पश्चात् उनकी परम्परा में होनेवाले भट्टारक भुवनकीर्ति, ब्रह्म जिनदास, भट्टारक ज्ञानभूषण, विजयकीर्ति, शुभचन्द, सकलभूषण, सुमतिकीर्ति, वादिभूषण आदि अनेक शिष्य संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे। इन सन्तों ने संस्कृत भाषा के कितने ही ग्रन्थ लिखे, श्रावकों से आग्रह करके ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाईं और शास्त्र भण्डारों में विराजमान कीं। ब्रह्म जिनदास की १२ से अधिक रचनाएँ मिलती हैं, जिनमें रामचरित (पद्मपुराण), हरिवंशपुराण एवं जम्बूस्वामीचरित के नाम उल्लेखनीय हैं।
भट्टारक ज्ञानभूषण की अकेली तत्त्वज्ञानतरंगिणी (सं. १५६०) उनकी संस्कृत की विद्वत्ता को बतलाने के लिये पर्याप्त है। शुभचन्द्र तो अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक थे। इनकी संस्कृत रचनाएँ प्रारम्भ से ही लोकप्रिय रही हैं। इनकी २४ संस्कृत रचनाएँ तो उपलब्ध हो चुकी हैं। ये षट्रभाषा कवि चक्रवर्ती कहलाते थे। तथा त्रिविधविद्याधर (शब्दागम, युक्त्यागम तथा परमागम के ज्ञाता ) थे। इनकी प्रसिद्ध कृतियों में चन्द्रप्रभचरित्र, करकुण्डचरित्र, कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, जीवन्धर चरित्र, पाण्डव पुराण, श्रेणिक चरित्र, चारित्रशुद्धि विधान आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आचार्य सोमकीर्ति १५वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान थे । ये काष्ठासंघ में होनेवाले ८७वें भट्टारक थे तथा भीमसेन के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में सप्तव्यसन था, प्रद्युम्नचरित्र एवं यशोधरचरित्र रचनाएँ कीं। तीनों ही लोकप्रिय रचनाएँ हैं और शास्त्र भण्डारों में मिलती हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान ब्र. रायमल्ल ने भक्तामर स्तोत्र की वृत्ति लिखकर अपनी महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/31
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