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शेखचिल्ली ने तेल की मटकी अपने सिर पर रख ली। विस्तार बहुत हो गया, योग, बौद्ध, वैशेषिक, चलते-चलते वह सोचता है कि दो पैसों से अमुक चीज सांख्य, वेदांती आदि मोक्ष का स्वरूप कैसा मानते हैं, लाकर बाजार में बेचूंगा तो दो आने हो जायेंगे और उस स्वरूप में कहाँ क्या कमी है? इसकी चर्चा जरूरी दो आने की अमुक चीज लाकर बेचूंगा तो दो रुपये थी। यह भी बताना था कि किस -किस गुणस्थान में हो जावेंगे। धीरे-धीरे मैं बड़ा आदमी हो जाऊंगा एक किन-किन कर्म प्रकृतियों का क्षय होकर अंत में मोक्ष मकान बनवा लूगा, घर में स्त्री आ जाएगी, बाल-बच्चे प्राप्त होता है। परन्तु इसकी आवश्यकता नहीं समझ कर हो जावेंगे, दोपहर के समय बच्चे आकर कहेंगे - दादा गौण कर दिया है। रोटी हो गई, भोजन कर लो। तब मैं अकड़कर कहूँगा शुद्धनय से आत्मा का जो स्वभाव कहा है, कि कर लूँगा, अभी क्या जल्दी है ? इसी धुन में उसने उसी को प्राप्त करने का प्रयत्न होना चाहिए। सिर हिलाया, जिससे तेल की मटकी नीचे गिरकर फूट
जो पस्सदि अप्पाणं अवद्धपुढे अणण्णय णियदं । गई, तेल वह गया। तेलिन कहती है - यह तूने क्या
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं विजाणाहि ॥ किया ? हमारी मटकी फोड़ दी, तेल बेकार कर दिया।
जो आत्मा को अवद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, शेखचिल्ली ने कहा कि तेरी तो मटकी ही फूटी है, पर अविशेष और पर के संयोग से रहित देखता है, उसे मेरी तो गृहस्थी चौपट हो गई। वास्तव यही दशा संसार शुद्धनय जानो। यही भाव अमतचंद्रस्वामी ने के प्राणियों की हो रही है।
‘आत्मस्वभावं परभावभिन्न' तथा 'एकत्वं नियतस्य करिष्यामि करिष्यामि करिष्यमीतिचिन्तया। शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः' आदि कलश काव्यों में मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्मृतं॥ कहा है।
करने-करने की चिन्ता में यह जीव मरने की आजकल वक्ता लोग श्रोताओं को प्रसन्न करने बात भूल जाता है। अपनी इच्छाओं को निरंतर बढ़ाता का प्रयत्न करते हैं। इसलिए इधर-उधर की चर्चा करके ही रहता है। पर उनकी पूर्ति नहीं कर पाता। एक कवि भगवान महावीर के आत्मतत्त्व के सिद्धान्त को अछूता ने कहा है -
छोड़ देते हैं। परन्तु यह निश्चित है कि उसके छोड़ देने नि:स्वो निष्कशतं शती
से न श्रोताओं को लाभ होगा और न वक्ताओं का दशशतं लक्षं सहस्राधिपो, वक्तापन सफल होगा। कहा है - लक्षेशः क्षितिपालितां
विद्वन्मन्यतया सदस्यतितरामुद्दण्ड बाग्ऽम्वराः, क्षितिपतिश्चक्रेशतां वांछति।
शृंगारादिरसैः प्रमोदजनकं व्याख्यान मातन्वते। चक्रेशः पुनरिंद्रतां सुरपति
एते च प्रतिसद्य संति वहवो व्यामोह विस्तारिणो, ब्राह्मं पदं वांछति,
येभ्यस्तत्परमात्म तत्त्वविषयं ज्ञानं तु ते दुर्लभाः।। ब्रह्माविष्णुपदं हरिहरपदं ह्याशावधिं को गतः॥
अपने को विद्वान मानने वाले तथा सभा में
उद्दण्ड वचनों का आडंवर करने वाले वक्ता शृंगारादि जिसके पास कुछ नहीं है वह सौ मुहरें चाहता
रसों से आनंद जनक व्याख्यान करते हैं, सो व्यामोह है, सौ मुंहरे वाला हजार चाहता है, हजार वाला लाख चाहता है, राजा चक्रवर्ती होना चाहता है, ब्रह्मा-विष्णु
को विस्तृत करने वाले ऐसे वक्ता घर-घर में विद्यमान
हैं परन्तु जिनसे परमात्म तत्त्व विषयक ज्ञान प्राप्त होता पद की इच्छा रखता है और विष्णु शंकर बनना चाहता है। वास्तव में आशा की सीमा को कौन प्राप्त हआ है? ह व वक्ता दुलभ है। अर्थात् कोई नहीं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/3
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