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अध्यात्म व अहिंसा
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0 क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी
__आज यह देखकर बड़ा हर्ष हो रहा है कि समझा जाता रहा, पर अब ऐसा समझना योग्य नहीं। आपके हृदय में जहाँ अहिंसा के प्रति प्रेम हैं, वहाँ अपने जीवन में नित्य ही निवास करने वाली अध्यात्म के प्रति भी कुछ कम आस्था नहीं है। विश्व तथा इस जीवन को अत्यन्त अन्धकारमय बना देने जैन मिशन के मंच पर अहिंसा सम्मेलन के साथ-साथ वाली प्रतिदिन की चिन्ताओं, व्याकलताओं व अध्यात्म सम्मेलन को भी स्थान मिलना इस बात का कलकलाहटों से भला कौन व्यक्ति अपरिचित है तथा साक्षी है।
कौन इन कुटिल चिन्ताओं से मुक्त होना नहीं चाहता। यद्यपि 'अध्यात्म' शब्द अपने विषय की सबके हृदय की एक ही आवाज है तथा एक ही समस्या सूक्ष्मता व गहनता के कारण कुछ जटिल सा प्रतीत है और वह यह कि किस प्रकार जीवन कुछ हल्का बन होता है तथा इसका विषय भी साधारणतया कुछ शुष्क पाये। आज का जीवन सर पर एक भार बन कर रह सा प्रतीत हुआ करता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं गया है। किस प्रकार इसे वास्तविक जीवन बनाया है। इसके विषय में शुष्कता की प्रतीति का कारण जाये। एक व्यक्ति के प्रति दूसरे व्यक्ति का तथा एक केवल विद्वजनों की कथन-पद्धति है। जो जटिल से देश के प्रति दूसरे देश का संकुचित दृष्टि से देखना जटिलतर बनाकर उपस्थित की जाती है। वास्तव में जीवन में बैठे हुए भय का परिचय देता है। इसका कारण अध्यात्म शब्द का अर्थ स्वभाव है। गीता में अध्यात्म क्या है तथा इस भय को किस प्रकार मिटाया जा सकता का लक्षण करते हुए बताया गया है कि अक्षर ब्रह्म है ? अर्थात् आत्मा का परम स्वभाव अध्यात्म कहलाता यद्यपि आज का विश्व भी इसी समस्या को है और स्वभाव क्योंकि नित्य ही अनुभव व प्रतीति में सुलझाने के प्रति प्रयत्नशील बना हआ है। वैज्ञानिक आने वाला नित्य है। अतः प्रत्यक्ष है और इसलिए उन्नति के इस युग में बराबर आगे बढ़ता चला जा रहा
है। यह आशा करता हुआ कि सम्भवतः वह इस अपना स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति जानता है, समस्या को सुलझा सके और मानव जीवन को सुन्दर इसलिए उसमें बैठे हुए दुःख व सुख से, चिन्ताओं व व निश्चिन्त बना सके। पर फल क्या निकल रहा है सो निश्चिन्तताओं व निराकुलताओं से, अशान्ति या शान्ति अदृष्ट नहीं है। चिन्ता व भय घटने की बजाय बराबर से, हिंसा या अहिंसा से, अकर्तव्य व कर्तव्यों से बढ़ते जा रहे हैं। मानव सृष्टि आज जीवन व मृत्यु के अपरिचित रहना असम्भव है। अध्यात्म अपना जीवन हिंडोले में झूल रही है। न जाने कब ये अणुबम विस्फुटित है, अपने जीवन का सार है, जिसको हर व्यक्ति पढ़ होकर जगत में प्रलय मचा दें और यह आज का भौतिक सकता है। अतः छिपा नहीं रह सकता और इसलिए विज्ञान सर्व विश्व को विनाश की गोद में सुलाकर स्वयं यह गुप्त नहीं कहा जा सकता। आज तक उसे हौआ भी वहीं विश्राम पा ले।
सरल।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/4
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