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मनसबदारी मिली थी। जयसिंहजी और उनके भाई का दीवान काल सं. १८२५-१८५५ तक रहा। इनके विजयसिंह का झगड़ा इन्हीं ने निपटाया था। ये धार्मिक पुत्र कृपारामजी और ज्ञानचन्दजी भी दीवान हुए।
और अपने इष्ट के पक्के थे। सूर्य का इन्हें इष्ट था। दीवान रायचन्दजी छाबड़ा - दीवान जयपुर की गलता घाटी की चोटी पर जो सूर्य का मन्दिर बालचन्दजी के तृतीय पुत्र रायचन्दजी कुशल है, वह इन्हीं का बनाया हुआ है। आमेर आदि कई राजनीतिज्ञ, वीर और बड़े धर्मात्मा हए हैं। इनका राज्य जगह इन्होंने सूर्य के मन्दिर बनवाये थे। भानु सप्तमी सेवाकाल सं. १८५० से १८६४ तक का है। सं. को जो सूर्य रथ जयपुर में निकलता है, वह इन्हीं का १८६२ में उदयपुर महाराजा की लडकी कृष्णा कुमारी चलाया हुआ है। सं. १८०४ में इनका स्वर्गवास हो से विवाह करने के संबंध में जयपुर-जोधपुर में काफी गया।
तनाव हुआ। युद्ध के लिए कूच हो गया। पर जयपुर __इनके भाई राव फतहराम सं. १७९० से १८१३ के दीवान रायचन्द और जोधपुर के दीवान श्री इन्द्रराज तक, फतहराम के पुत्र भवानीराम सं. १८४३ से १८५५ सिंघवी के बीच-बचाव और प्रयत्न से युद्ध टला। पर तक तथा भवानीराम के पुत्र जोखीराम भी दीवान हुए यह सुलह स्थायी नहीं रही और पोकरण के ठाकुर द्वारा हैं। इस वंश ने काफी राज्य सेवा की है। जोधपुर की गद्दी पर धौकलसिंह को बिठाने के प्रयत्न
दीवान बालचन्द छाबड़ा-जयपुर के दीवानों में पुनः युद्ध भड़का । दीवान रायचन्द ने जगतसिंहजी में बालचन्द और उनके पत्र रामचन्द काफी विख्यात को काफी मना किया कि हमें ठाकुर पोकरण का पक्ष हुए हैं। बालचन्दजी का दीवान काल सं. १८१८ से लेकर जोधपुर पर चढ़ाई नहीं करना चाहिए, पर १८२९ तक था। जयपुर में उस समय सांप्रदायिक तत्त्व जगतसिंह ने नहीं मानी। फलतः युद्ध में विजय तो हुई उभर रहे थे। श्यामराम नामक एक सांप्रदायिक व्यक्ति पर काफी धन बर्बाद हो गया और जयपुर संकट में पड़ राजा के मुंह लगा हुआ था। उसने जैन दीवानों के साथ गया। शेखावटी आदि के कई झगड़े उस समय चल राजनैतिक विरोध को सांप्रदायिक रूप देकर जैन समाज रहे थे, जिन्हें रायचन्द्रजी ने निपटाये। पर काफी जुल्म ढाये। सं. १८१७ में ढूंढाड़ प्रान्त में जोधपुर युद्ध के समय सब फौजे जोधपुर थीं, अनेक जैन मन्दिर सांप्रदायिकता की लहर में नष्ट-भ्रष्ट जो जोधपुर की ओर से अमीरखाँ पिंडारी ने जयपुर पर हुए। राजस्थान पुरातत्त्व विभाग से प्रकाशित 'बुद्धि आक्रमण कर दिया और लूट-खसोट करने लगा। विलास' में इस घटना का सही वर्णन मिलता है। जगतसिंहजी ने जब यह सुना तो वे जयपुर रवाना हुए। दीवान बालचन्द उदार थे। सांप्रदायिक विद्वेष में न लुटेरे बड़ा जुल्म करने लगे। राजा हतोत्साह हो पड़कर नव निर्माण की ओर उन्होंने ध्यान दिया और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया तो दीवान रायचन्द ने वणिक अनेक नये मन्दिर खड़े करवा दिये। सं. १८२१ में बुद्धि से काम किया और एक लाख रुपया पिंडारी को विशाल इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव इनके सहयोग से देकर जगतसिंहजी को सकुशल जयपुर पहुँचाया और हुआ, जिसमें दूर-दूर से काफी यात्री आये। इससे पिंडारी को वापस लौटाया। संकुचित विचार वाले और भी चिढ़े और सं. १८२६- रायचन्दजी जहाँ गढ नीतिज वीर योद्धा और २७ में पुनः सांप्रदायिक आग फैली, जिसमें पण्डित कुशल प्रशासक थे। वे बड़े धर्मात्मा भी थे। इन्होंने सं. टोडरमलजी आदि विद्वानों की आहुति लगी। १८६१ में विशाल पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करायी। इनका
दीवान बालचन्दजी के पुत्र जयचन्दजी और स्वर्गवास सं. १८६४ में हो गया। इनके दत्तक पुत्र रायचन्दजी भी बड़े प्रतिभाशाली सज्जन थे । जयचन्दजी दीवान संघी मन्नालाल ने दीवानगिरी की और
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/32
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