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________________ में आजादी के दीवानों की जो स्थिति सारे देश में हुई, मूठ देने का रिवाज ही उठ गया। इन्होंने कई ग्रन्थ वही संघी और उनके साथियों की भी हुई। राजा की लिखाये । लालजी सांड के रास्ते में स्थित छोटे दीवानजी हत्या का अपराध लगाया पर उसमें विरोधियों को का मंदिर इन्हीं का बनाया हुआ है। ये राज्य और जनता सफलता नहीं मिली। राज्य विद्रोह के षड्यन्त्र का के खैरख्वाह थे और साथ ही स्वतंत्रता प्रेमी। अंग्रेजी अपराध जो देश प्रेमियों के लिए लगाया जाता था उसी राज्य जयपुर में न जमने देने में इनका सहयोग था । संघी के तहत सं. १८९२ में इन्हें किले के अन्दर कैद किया शृंथाराम के सहयोगी थे। फलत: अंग्रेज और अंग्रेजों गया। वहीं लगभग सं. १८९५ में चुनारगढ़ किले में के हिमायती इनके विरोधी हो गये। इन्हें गिरफ्तार किया उनका स्वर्गवास हो गया। गया और अन्त में देशप्रेमियों को जो सजा दी जाती इसप्रकार अंग्रेजों और उसके पक्षपातियों का है, वह अमरचन्द को दी गई। फाँसी के तख्ते पर लटक एक कांटा निकल गया। कई इतिहासकारों ने संघी को कर सदा के लिए अमर हो गये, पर आजादी के अंकुर बदनाम किया है, पर वे इतिहासकार अंग्रेजों से या बढ़ते रहे। विरोधियों से प्रभावित थे। निष्पक्ष इतिहासकार संघी दीवान राव कृपाराम पांड्या - जयपुर के को ईमानदार ही पायेंगे। इतिहास में इस वंश की महान सेवायें हैं। इनके पूर्वज दीवान श्योजीराम एवं अमरचन्द - जयपुर चाढमलजी बड़े प्रतापी नररत्न थे। चम्पावती नाम के इतिहास में दीवान अमरचन्द बड़े प्रख्यात हो गये चाटसू इन्हीं के नाम से पड़ा - ऐसा विख्यात है। ये हैं। देश और जनता की सेवा में हँसते-हँसते प्राणों की चाटसू के रहने वाले थे और वहाँ चौधरी थे। इस वंश बलि देने वाले इस अमर शहीद का नाम सदा याद में दीवान राव जगरामजी की मुगल दरबार में पहुँच थी। रहेगा। इनके पिता श्योजीराम भी दीवान थे। तीन ये जयपुर के सं. १७७० से १७९० तक दीवान थे। राजाओं महाराजा पृथ्वीसिंह (सं. १८२४ से १८३५), इनके पुत्र राव कृपाराम बड़े विलक्षण व्यक्ति प्रतापसिंह (सं. १८३५ से १८६०) और जगतसिंह थे। इनका दीवान काल तो सं. १७८० से १७९० तक (सं. १८६० से १८७५) के शासन काल में सं. १८३४ ही था पर ये मुगल दरबार में आमेर की ओर से से १८६७ तक श्योजीरामजी के दीवान होने का उल्लेख प्रतिनिधि थे। बादशाह का इन पर काफी अनुग्रह था। मिलता है। ये बड़े धर्मात्मा और वीर पुरुष थे। मनिहारों लक्ष्मी की इन पर दया थी। इतिहासकार कर्नल टाड् के रास्ते के स्थित बड़े दीवानजी का जैन मन्दिर तथा इन्हें दिल्ली पति का कोषाध्यक्ष मानता है। जयपुर निर्माण दि. जैन संस्कृत कॉलेज भवन इन्हीं का बनाया हुआ में इन्होंने एक करोड़ रुपये दिये थे। इनकी पुत्री के विवाह में महाराजा जयसिंहजी हथलेवा में कछ गाँव दीवान अमरचन्द का दीवान काल सं. १८६० की जागीर देना चाहते थे पर स्वयं धनिक, बादशाह से १८९२ तक का है। इन्होंने बचपन से धार्मिक शिक्षा तथा राजा के कृपा पात्र होते हुए भी समाज को महत्व ग्रहण की। ये विलक्षण प्रतिभाशाली और शान्त स्वभाव दिया और मात्र दो रुपये हथलेवा में राजाजी से दिलवाये. के थे। गरीबों के सेवक, समाज सधारक और मक दानी जो रिवाज आज भी प्रचलित है। मुगल दरबार में थे। विवाह में लड़की वालों को निकासी के समय मठ अत्यधिक पहुँच होने से रजवाड़ों के बहुत से काम ये (मुट्टीभर रकम) देने का रिवाज उस जमाने में था। गरीब करवा देते थे। अतः सभी रजवाड़ों में इनकी धाक थी। लोगों को इससे परेशान देख आपने दो आने देने का आमेर राज्य की ओर से कई विशेष सेवाओं रिवाज चालू किया जो गत २५ वर्ष पूर्व था। आज तो के कारण इन्हें इनामें मिली हैं। मुगल दरबार से इन्हें महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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