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आमेर में तीन शिखर का विशाल मंदिर बनवाना प्रारंभ में हुई, जिसके अनुसार वार्षिक खिराज (टैक्स) देना किया और सं. १७१६ में उसकी प्रतिष्ठा हुई। इसका तय हुआ। उस समय मुसाहिब रावल बैरीसालसिंह थे। शिलालेख म्यूजियम में मौजूद है। ये बड़े धर्मात्मा, संघीजी को यह गुलामी पसंद नहीं थी। अंग्रेज तीन बार कुशल राजनीतिज्ञ और सफल प्रशासक थे। पहले भी प्रयत्न कर चुके थे, पर सफलता न मिली।
दीवान कल्याणदास-ये मोहनदास के लड़के अब की रावलजी को पक्ष में लेकर यह संधि हुई, थे। औरंगजेग द्वारा शिवाजी की पकड़, कैद और जिससे रावलजी से भी कई लोग नाराज रहने लगे। छद्मवेश में निकलने आदि की सारी प्रतिदिन की घटनायें राजा जगतसिंह के युद्ध में रत रहने, शराबी और भोगदीवान परकालदास आगरा से इन्हें आमेर में लिख विलासी होने तथा अंग्रेजों के टैक्स आदि के कारण भेजते थे।
___ खजाना खाली हो गया और सन् १८१८ में राजा का दीवान अजीतदास - ये मोहनदास के तृतीय
अपुत्र अवस्था में स्वर्गवास हो गया। फलत: और लोग पुत्र थे। ये सं. १७७० में आयोजित भट्टारक देवेन्द्र
अपना हक जमाने लगे। पर भटियानी रानी गर्भवती कीर्ति के पट्टोत्सव में सम्मिलित हुए थे। जयपुर बसने
थी। सन् १८१९ में जयसिंह तृतीय का जन्म हुआ और
राजमाता राज्य कार्य देखने लगी। वह स्वतंत्रता प्रेमी के साथ ये जयपुर में आ गये और सं. १७८८ में विशाल मंदिर बनवाया।
थी। अंग्रेजों का दखल उसे पसंद नहीं था। संघी भी
इसी प्रकृति के थे। आर्थिक स्थिति को दृढ़ करने हेतु दीवान संघी हुकमचन्द - उक्त वंश में चार
संघीजी को राजस्व मंत्री बनाया गया पर मुसाहिब पीढ़ी बाद संघी हुकमचन्द और संघी झुंथाराम का नाम
रावलजी के साथ इनकी नहीं बनी। वे अंग्रेजों के मिलता है, जो प्रख्यात व्यक्ति थे। संघी हुकमचन्द
हिमायती थे और ये अंग्रेजों के विरोधी। फलत: दोनों फौज के इंचार्ज थे और सं. १८८१ से सं. १८९२ तक।
में अनबन बढ़ती गई और राजनैतिक पार्टियाँ बन गई। इनका राज्य सेवा काल माना जाता है। इनको राव
राजमाता ने रावलजी को बहुत समझाया, पर उन्हें
जानने बहादर का खिताब था। ये बड़े बहादुर और वीर थे। अंग्रेजों का बल था। संघीजी के विरुद्ध अंग्रेजों को जयपुर राजा के नाबालगी में ये संरक्षक भी थे। इन्होंने
भड़काया गया। राजनैतिक संघर्ष में कभी कोई एक मन्दिर बनवाया जो संघीजी की नसियाँ के नाम
शक्तिशाली बनता और कभी कौन। संघी मुख्यमंत्री से जाना जाता है। इनके पुत्र बिरधीचन्द भी दीवान थे,,
बना। उसने शेखावटी के झगड़े निपटाने का प्रयत्न जिनका सेवा काल सं. १८८८ के आसपास था। किया. राजस्व बढाया और जनता में अमन किया। पर
संघी झंथाराम - ये संघी हुकमचन्द के छोटे ज्यों ही राजमाता मरी और संयोगवश जयसिंह तृतीय भाई और बड़े प्रतिभा संपन्न, मेधावी राजनीतिज्ञ और भी १७ वर्ष की अवस्था में काल कवलित हो गये। शासन की अद्भुत योग्यता वाले व्यक्ति थे। इनका संघीजी के विरोधियों को मौका मिला और इन्हें बदनाम जीवन राजनैतिक उथल-पुथल में ही बीता । ये कठोर किया गया राजा का हत्यारा बताया। पर जयसिंहजी
और ईमानदार शासक थे। इनके मंत्रित्व काल में कोई की रानी चन्द्रावतजी ने इसे झूठा इल्जाम माना और चोरी नहीं होती थी। गिरी हुई कोई भी चीज या तो स्वयं संघी को ईमानदार और योग्य व्यक्ति पाया। संघी ने मालिक लेता या पुलिस। ये अपराधों पर कड़ी सजायें त्यागपत्र दिया पर स्वीकार नहीं किया। चन्द्रावत भी देते थे।
स्वतंत्रता प्रेमी थी। पर अंग्रेजों के कुचक्र चलते रहे और अंग्रेजों के साथ जयपुर की संधि सन् १८१७ वे कूटनीति से ताकत में आते रहे। अंग्रेजों के जमाने
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/30
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