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मौन चिन्तन : चित्त की एकाग्रता
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डॉ. त्रिलोकचन्द कोठारी
दिनांक : २३ मई २००६ के मौन चिन्तन आपकी एकाग्रता पर अवलंबित है। व्यापार, व्यवहार, “तमोगुण और उसको जीतने के उपाय" ८०वें वर्ष शास्त्र-शोधन, राजनीति, कूटनीति किसी को भी ले में ११ जून में प्रवेश से पूर्व गीता प्रवचन के १४ वें लीजिये, इनमें जो कुछ यश मिलेगा, वह उन-उन पुरुषों अध्याय में उक्त विषय के बारे में दिया था आज का के चित्त की एकाग्रता के अनुसार मिलेगा। मौन चिन्तन गीता प्रवचन के अध्याय ६ में चित्त की व्यवहार हो या परमार्थ, चित्त की एकाग्रता के एकाग्रता के बारे में है ८०वें वर्ष में प्रवेश के साथ ही बिना उसमें सफलता मिलनी कठिन है। यदि चित्त आगे निरन्तर मेरे प्रिय विषयों से पूज्य आचार्य विनोबा एकाग्र रहेगा, तो फिर सामर्थ्य की कभी कमी न पड़ेगी। जी के धूलिया जेल में सन् १९२९ में हर रविवार को साठ वर्ष के बूढे होने पर भी किसी नौजवान की तरह दिये गये प्रवचन (गीता प्रवचन) में से निरन्तर अभ्यास उत्साह और सामर्थ्य दीख पड़ेगी। मनुष्य ज्यों-ज्यों करते हुये समय-समय पर चिन्तन प्रस्तुत करने का बुढ़ापे की तरह जाये, त्यों-त्यों उसका मन अधिक प्रयास करूंगा।
मजबूत होता जाना चाहिए। फल को ही देखिये न। ध्यान योग में तीन बातें मुख्य है - १. चित्त पहले वह हरा होता है, फिर पकता है, फिर सड़ता है. की एकाग्रता २. चित्त की एकाग्रता के लिए उपयक्त गलता है और मिट जाता है; परन्तु उसका भीतर का जीवन की परमितता और ३. साम्यदशा या सम-दृष्टि।
बीज उत्तरोत्तर कड़ा होता जाता है। यह बाहरी शरीर इन तीन बातों के बिना सच्ची साधना नहीं हो सकती।
सड़ जायेगा, गिर जायेगा, परन्तु बाहरी शरीर फल का चित्त की एकाग्रता का अर्थ है, चित्त की चंचलता पर
सार-सर्वस्व नहीं है। उसका सार-सर्वस्व, उसकी आत्मा अंकुश । जीवन की परिमितता का अर्थ है, सब क्रियाओं
तो है बीज । यही बात शरीर की है। शरीर भले ही बूढ़ा
. होता चला जाये, परन्तु स्मरण-शक्ति तो बढ़ती ही का नपा-तुला होना। सम-दृष्टि का अर्थ है विश्व की ।
रहनी चाहिए। बुद्धि तेजस्वी होनी चाहिए। परन्तु ऐसा ओर देखने की उदार दृष्टि। इन तीन बातों से ध्यान
होता नहीं। मनुष्य कहता है “आजकल मेरी स्मरणयोग बनता है। इस त्रिविध साधना के भी साधन है।
शक्ति कमजोर हो गयी है।" क्यों ? “अब बुढ़ापा आ वे हैं - अभ्यास और वैराग्य। इन पांचों बातों की
गया है।” तुम्हारा जो ज्ञान, विद्या या स्मृति है, वह थीड़ी-सी चर्चा हम यहां करें।
तुम्हारा बीज है। शरीर बूढ़ा होने से ज्यों-ज्यों ढीला पहले चित्त की एकाग्रता को लीजिये। किसी पड़ता जाय, त्यों-त्यों आत्मा बलवान होती जानी भी काम में चित्त की एकाग्रता आवश्यक है। व्यावहारिक चाहिए। इसके लिए एकाग्रता आवश्यक है। बातों में भी चित्त की एकाग्रता चाहिए। यह बात नहीं
एकाग्रता कैसे साधे ? भगवान् कहते हैं, आत्मा कि व्यवहार में अलग गुणों की जरूरत है और परमार्थ
___ में मन को स्थिर करके न किचिदपि चिन्तयेत्-दूसरा में अलग। व्यवहारों को शुद्ध करने का ही अर्थ है,
। कुछ भी चिन्तन न करें। परन्तु यह सधे कैसे? मन को परमार्थ । कैसा भी व्यवहार हो, उसका यश और अपयश 3
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/40
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