________________
कि अवश्यंभावी मरण में राग-द्वेष, मद-मोहादि के दया के लिए कारण है। वसुनन्दी आचार्य ने कहा बिना की गई सल्लेखना से पुरुष का आत्मघात नहीं भी है - है क्योंकि सल्लेखना में कषाय को क्षीण किया जाता “आगम में रागादि की अनत्पत्ति को अहिंसा है और जहाँ कषाय आवेश नहीं है वहाँ आत्महत्या नहीं कहा है और उसकी उत्पत्ति को ही जिनेन्द्र भगवान ने होती है। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि प्रमत्त योग से प्राण हिंसा कहा है।" सल्लेखना में प्रवर्तमान पुरुष अवश्य का व्यपरोपण करना हिंसा है। जो पुरुष शुद्ध अन्तःकरण ही मरण आगत होने पर निज आत्म गण की विराधना से सल्लेखना करता है उसके प्रमाद का योग नहीं होता नहीं करता हआ धीरे-धीरे देह को त्याग करता है। है। सल्लेखना युक्त पुरुष राग-द्वेष, मोह-क्रोधादि में जिसप्रकार आत्मगुणों का विनाश नहीं हो तथा कषाय प्रवर्तन नहीं करता है। इसलिए उसका आत्म-वध नहीं का विनाश हो उसीप्रकार प्रयत्न करता है। किस प्रकार है। रागादि सहित अशुभ भाव में प्रवर्तन करने वालों जो स्वकीय आत्मघात करता है, उसकी सल्लेखना हो का ही आत्मघात होता है अन्य के नहीं। इसलिए सकती है ? जो सल्लेखना करता है उसका आत्मघातीसल्लेखना की भावना करनी चाहिए।
रूपी पातक नहीं होता है। आत्मघाती कौन ? -
व्रतधारी को स्वयं मोक्ष मिलता - या हि कषायऽऽविष्टः, कुम्भकजलधूमकेतुविष शस्त्रैः। इति यो व्रत-रक्षार्थं सतत पालयति सकल-शीलानि। .. व्यपरोपयति प्राणान्, न तस्य स्यार्ल्सयमात्मवधः॥ वरयति पतिं वरेण स्वयमेव तमुत्सका शिवपदश्री॥ रागादि सद्भाव से अशुभ भाव से प्राण विमोचन
इस प्रकार जो पुरुष सतत् अहिंसादि व्रत की करने पर सल्लेखना नहीं होती है, इसप्रकार दिग्दर्शन रक्षा के लिए सप्तशील को पालन करता है तथा करते हैं ।।१७८।।
सल्लेखना को करता है, वह शिव पदवीश्री को वरण निश्चय से कषाय से आविष्ट पुरुष कुम्भक, करता है। जिसप्रकार पति इच्छुक कन्या स्वेच्छा से श्वास निरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्र आदि के द्वारा पति को वरण करती है, उसीप्रकार शिव श्री/मोक्ष प्राणों को, इन्द्रियों को नाश करता है, उस पुरुष के लिए लक्ष्मी उत्कंठित होकर स्वयमेव व्रत पालक पुरुषों का
आत्मवध होता है। राग-द्वेष, मोहादि से युक्त श्वास आदर से वरण करती है ।।१८०।। निरोध से, विष-भक्षण से, कूप-पतन से, अग्नि प्रवेश उपर्युक्त वर्णन से सिद्ध होता है कि समाधिसे, पर्वत से गिरकर, शस्त्रादि के प्रयोग से आत्मा का
मरण परम अहिंसा है; क्योंकि अवश्यंभावी मरण हनन करता है, वह पुरुष आत्मघात पातक को प्राप्त
(जिससे मरण को किसी भी प्रकार से रोका नहीं जा होता है। उसकी सल्लेखना नहीं होती है। सकता है, टाला नहीं जा सकता है) काल में स्वसल्लेखना अहिंसा भाव -
पर को किसी भी प्रकार से कष्ट दिये बिना समता नीयन्तेऽत्र कषायाः हिंसाया हेतवो यतस्तनताम। पूर्वक मरण को वीरता से वरण किया जाता है। प्राण सल्लेखनामपि ततः प्रादुरहिंसा प्रसिद्धयर्थम् ॥१७९॥ घातक रोग आदि के अचानक आक्रमण के कारण जिसके कारण से इस सल्लेखना में मुनिश्वरों
तो तत्काल (कुछ समयावधि में) समाधि ग्रहण का
__विधान है, क्योंकि सम्यक् रूप से कषाय (क्रोध, के द्वारा हिंसा के कारणभूत क्रोधादि कषायों को मंद किया जाता है, इसलिए सल्लेखना को मनियों ने मान, माया, लोभ आदि) तथा शरीर को कश अहिंसा की प्रसिद्धि के लिए कहा है। सल्लेखना भी
" (क्षीण) किया जाता है। मुख्यतः कषाय क्षीण होने
था महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/54
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org