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अहिंसक शाकाहार : स्वास्थ्य का आधार
अहिंसा परमो धर्म: अहिंसा सभी धर्मों का सार है; आरोग्य का आधार है। अहिंसा रूपी धुरी के चारों ओर ही धर्म रूपी पहिया चलता है। प्रश्न व्याकरण सूत्र में भी कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषियों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषधि, वन में जैसे सार्थवाह आधारभूत है। वैसे ही, 'अहिंसा' प्राणियों के लिए आधारभूत है । अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है।
इसी प्रकार भगवान महावीर ने दशवैकालिक सूत्र में भी सभी प्राणियों की भलाई के साधन के रूप में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ तथा प्रथम स्थान प्रदान किया है। जैन ग्रन्थ भगवती आराधना में बताया गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है । सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान ) है ।
अहिंसा स्वस्थ जीवन का आधार है । स्वस्थ जीवन का अर्थ है – शरीर, मन एवं आत्मा का संतुलन सच्चे स्वास्थ्य का अर्थ है - जीवन शक्ति का ओतप्रोत होना, जिसमें जीवन के शारीरक एवं मानसिक कार्य बराबर होते रहें। जीवन के क्षण-क्षण में आनन्द, उत्साह तथा आशा का निर्झर स्रोत लगातार बहता रहे।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार “सिर्फ बीमारी, शारीरिक एवं मानसिक नैबर्त्य से मुक्ति ही स्वास्थ्य नहीं कहलाता है बाल्कि व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक स्थिति में पूर्ण समन्वय ही स्वास्थ्य है । "
आहार स्वास्थ्य का आधार बिन्दु है। इसी इर्दगिर्द सारा जीवन है । प्राणिमात्र का अस्तित्व आहार
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डॉ. किरण गुप्ता
से संभव होता है, आहार से हमारे आचार-विचार एवं व्यवहार में परिवर्तन होता है। भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है
सात्विक, अहिंसक, नैतिक होना चाहिए। मानव समाज इसलिए आहार का स्रोत शुद्ध, पवित्र, मूलतः शाकाहारी ही है। शाकाहार का अर्थ है वनस्पति जन्य खाद्यान्न, जो अहिंसात्मक रूप से प्राप्त किया गया हो अर्थात् फल-सब्जियाँ, सूखे मेवे, अन्न-दालें, दूधदही इत्यादि । स्वस्थ जीवन का भौतिक आधार शाकाहार है। आयुर्विज्ञान की दृष्टि से शाकाहार में सक्रिय औषधीय रसायन होते हैं। जो डाइयूरेटिक, एनलजेसिक, एन्टीपायरेटिक, एण्टीइन्फेलेमेटरी, एण्टीडायरिया, एण्टीहिस्टामिनिक, एन्टीमलेरियल, एग्मेनेगॉग, कोलेगॉग, लक्सेटिव, सुडोरीफिक, एण्टीडोट, एमिटिक, एण्टीएमिटिक, एण्टीहाईपरटेन्सिव, एण्टीवायरल, एण्टीमाईकोटिक, एण्टीस्पास्मोडिक, महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/37
'अन्नाद भवंति भूतानि' - भोजन करना जीवन का अत्यन्त अहम् अंग है। बीमारी और स्वास्थ्य इसी भोजन पर निर्भर करता है। पेट के खराब होते ही शरीर के अन्य अंगों की जीवन उर्जा नष्ट होने लगती है । वे निष्क्रिय एवं निष्प्राण होकर मुरझाने लगते हैं। पेट के स्वस्थ होते ही समस्त अवयव प्रफुल्लित एवं निरोगी रहते हैं । सक्रिय एवं सजीव हो उठते हैं। आधुनिक आयुर्विज्ञानियों का मत है कि पेट के आन्तिरिक सूक्ष्म जैव पर्यावरण वातावरण, इन्टेस्टाइनल माइक्रोबाइलोजिकल इन्वायरमेंट जितना सशक्त एवं सबल होगा उतनी ही हमारी जीवनी शक्ति सशक्त एवं सबल होती है । परिणामतः हम स्वस्थ रहते है । 'तन स्वस्थ तो मन भी स्वस्थ ।' आहार का मनुष्य के मन पर भी प्रभाव पड़ता है, क्योंकि जैसा खायेगा अन्न, वैसा बनेगा मन ।
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