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के १३वें वर्ष में खारवेल ने जैन साधुओं की केवली प्रणीत समस्त श्रुत द्वादशांग रूप था। खारवेल एक सभा बुलाई। इस सभा की जानकारी का स्रोत एक ने भी इसका उल्लेख चोयठ अंग अर्थात् ४+८=१२ अंग मात्र यहाँ अभिलेख है, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही किया है और इस प्रकार इस अनुश्रुति का सर्वप्रथम ही सम्प्रदायों की साहित्यिक अनुश्रुतियाँ इसके विषय लिखित प्रमाण इसी लेख में प्राप्त होता है। श्रुत की में मौन हैं। सम्भवतः इस सभा का उद्देश्य संघ भेद को व्युच्छित्ति का उल्लेख इस लेख में महावीर निर्वाण के रोकने और दोनों सम्प्रदायों में तात्त्विक विवादों पर १६५वें वर्ष में किया गया है, जो भी दोनों ही सम्प्रदायों समझौता कराने का एक महत् प्रयास था। संघ भेद के की साहित्यिक परम्पराओं से मेल खा जाता है। इस पोषक दोनों ही सम्प्रदायों के परवर्ती साहित्यकारों ने सभा का उद्देश्य अवशिष्ट श्रुत को संकलित और संरक्षित इस समझौते के प्रयास भुला देना ही यथेष्ठ समझा प्रतीत करना रहा प्रतीत होता है। कुछ ही दशक पूर्व बौद्धों होता है और इसलिये उसकी कोई चर्चा उन्होंने नहीं द्वारा कुछ वचनों के संकलन का ऐसा ही एक प्रयत्न की। ईस्वी सन् के प्रारम्भ के लगभग मथुरा में आरातीय मौर्य सम्राट अशोक के संरक्षण में मगध में किया जा यतियों या यापनियों के रूप में एक वर्ग ऐसा था जो चुका था। संघ भेद को गर्हित समझता रहा । ऐसा सम्भव है कि निषिद्या या चैत्य जो साधुओं के निवास स्थान उस वर्ग ने इस सभा की स्मृति को जीवित रखा हो परन्तु का ही एक अंग होता था जैसा कि रानी सिन्धुला ने उसका साहित्य उपलब्ध नहीं है।
बनवाया था, जिसकी खारवेल ने मथुरा में वन्दना की यह सभा विजय चक्र नामक प्रशासकीय खण्ड
थी और सन्निवेश जहाँ जिन प्रतिमा विराजमान होती में कुमारी पर्वत पर, जो उदयगिरी का प्राचीन नाम था,
थी और जिसकी खारवेल ने मगध में पूजा की थी। ईसा आयोजित की गई थी। इसमें सभी दिशाओं से आये पूर्व ४२४ में भी कलिंग में जैनों में मूर्ति पूजा का प्रचलन ३५०० साधुओं ने भाग लिया था। पर्वत के ऊपर था, क्योंकि उस समय नन्द राजा जिन प्रतिमा को अरहंत की निषिद्या के समीप का प्राग्भार सभा-स्थल
कलिंग से मगध उठा लाया था और उसे अपनी राजधानी था। यह प्राग्भार रानी सिन्धुला द्वारा निर्मित निषिद्या में प्रतिष्ठित किया था। मुथरा उस समय जैनों को से सटा हआ था। रानी सिन्धला की निषिद्या मंचपरी तीर्थराज था, जहाँ खारवेल ने स्तूप की पूजा की थी गुफा की ऊपरी मंजिल पर रही प्रतीत होती है जो कि और ‘सव गहणं' नामक उत्सव किया था। ‘सव हाथी गुफा के सम्मुख दक्षिण पूर्व को स्थित है। हाल
गहणं' का शुद्ध रूप सर्व ग्रहणम् हो सकता है। जिसका ही में पुरातात्विक खुदाई से हाथी गुफा की छत पर एक
अर्थ सब कुछ की प्राप्ति या सब कुछ का त्याग, दोनों पूजा-गृह के अवशेष भी प्रकाश में आये है, जोसम्भवतः
ही हो सकते हैं। दूसरा अर्थ सन्दर्भ की दृष्टि से अधिक अरहन्त निषिद्या के प्रतीक हैं। इस प्रकार चपरी और उपयुक्त है। ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त उत्सव के समय हाथी गुफा के बीच केस्थलको सभा-स्थल से पहिचाना 3
उसने अपने को सांसारिक कार्यों से स्वेच्छा से अलग जा सकता है। सभा मंडप के सम्मुख एक वैडूर्य मंडित
न कर लिया था। इस लेख में चार चिन्ह उत्कीर्ण मिलते
कर लि चोकोर स्तंभ स्थापित किया था। यह मानस्तंभ का हा
हैं जिनमें से स्वस्तिक और नन्द्यावर्त जैन धर्म से संबंधित प्रतिरूप रहा प्रतीत होता है। सभा मंडप की रचना हैं। इनका उल्लेख अष्ट प्रातिहार्यों में आता है। साथ की समवशरण के अनुरूप की गई प्रतीत होती है। इस सभा गुफाओं में जो लेख है उनसे यह भी ज्ञात होता है कि में द्वादशांग की वाचना की गई थी। साहित्य में 'वाचना' उस काल में जैन साधुओं के आवास के लिये पहाड का प्रयोग ऐसी सभाओं के लिए भी किया गया है। काट कर गुफायें बनाई जाती थी। दोनों ही सम्प्रदाय इस बारे में एक मत हैं कि
- ११३२, मनिहारों का रास्ता, जयपुर
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/36
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