________________ प्रति मैत्री व सहयोग की भावना ही भाते हैं। व्यक्ति श्रमण होता है। प्रथमानुयोग में कर्म भूमि की आज जोगरीबी-अमीरी की विषमता है। लिंग- व्यवस्था, श्रमण धारा प्रवृत्ति प्रधान एवं निवृत्ति प्रधान भेद, जाति-भेद, वर्ण-भेद, भाषा-भेद, धर्म-संप्रदाय है। दोनों क्षेत्रों में पुरुषार्थ अथवा श्रम को आवश्यक भेद, दास-स्वामी भेद, नस्ल-भेद, राष्ट्रीयता-भेद. माना गया है, लेकिन श्रम को महत्व देते हुए भी जैन प्रान्तीयता-भेद की जो विषमताएँ हैं. वे सभी हिंसा को मान्यता बेगारी लेने की पक्षधर नहीं है। बेगार लेना प्रश्रय देने वाली एवं बढावा देने वाली हैं। अहिंसा के स्वार्थ के लिए दूसरे का शोषण करना है, जबकि जैन मूल में उक्त सभी विषमताओं का समाधान है। जैन धर्म की मान्यतानुसार अपने कार्य के लिए स्वयं ही कर्म मान्यतानुसार जन्म से कोई भी शद्र-ब्राह्मण, अमीर- करना पड़ता है। मनुष्य स्वयं ही पुरुषार्थ कर दुःख दूर गरीब नहीं होता। सभी जीव हैं, व्यक्ति जो कर्म करता कर सकता है। है वही कहलाता है। लेकिन व्यक्तित्व के विकास में दास प्रथा एवं बेगारी पर रोक एक मानवाधिकार उनमें किसी भी आधार पर भेद-भाव नहीं किया जा है। अहिंसा के अतिचारों में अतिभारारोपण का आशय सकता। जीवन-यापन हेतु प्रदत्त स्वतंत्रता व समानता भी यही है। जीवों पर अथवा अपने आश्रितों या के अधिकार में ऊँच-नीच या छोटे-बड़े का भेद-भाव अनाश्रितों पर अपनी शक्ति से अधिक कार्यभार का अथवा कम-ज्यादा का भेद-भाव नहीं किया जा आरोपण अतिभारारोपण है। दास प्रथा में गुलाम व्यक्ति सकता। अपने को बड़ा कहने एवं अपनी प्रशंसा करने को अपनी शक्ति से अधिक कार्य करवाया जाता है एवं वाला तथा दूसरे को नीचा दिखाने एवं दूसरे की निंदा ऊँचा बढ़ने का विरोध किया जाता है। उन्हें दबाये ही करने वाला व्यक्ति नरकगामी होता है। रखा जाता है। बिना मूल्य दिए श्रम करवाया जाता, जैन धर्म की संपूर्ण आचार संहिता ही अतिभारारोपण दिये श्रम करवाया जाता है एवं शक्ति मानवाधिकार एवं मानव कल्याण के कर्तव्यों से जडी से अधिक श्रम करवाया जाता है। अतिभारारोपण व हुई है। अहिंसावत के अतिचार एवं भावनाओं में अन्नपान विरोध में इसी आचरण का वर्णन है कि किसी विवेचित क्रियाएँ एवं आचरण सीधे मानवाधिकार से भी जीव पर उसकी शक्ति से अधिक (कार्य का) बोझा संबंध रखती हैं। न लादा जाय एवं कार्य का उचित मुआवजा दिया ___ संपूर्ण जगत के प्राणीमात्र के कल्याण की भावना जाय। कार्य का पर्याप्त लाभ श्रम करने वाले को दिया जाय। भाने से कोई भी तीर्थंकर पद प्राप्त करता है। तीर्थंकर प्रकृति हमें सिखाती है कि संसार की जो सेवा करने धार्मिक स्वतंत्रता विचारों की स्वतंत्रता से ही की इच्छा रखता है, वही संसार का स्वामी बन जाता संबंधित है। धार्मिक स्वतंत्रता वैचारिक अहिंसा का ही है। सेवा भाव एवं परोपकार की भावना से व्यक्ति दास परिणाम है। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य. शौचादि नहीं बनता अपितु स्वामी बन जाता है। जगत पूज्य बन दशलक्षण धर्म भी मानव धर्म ही हैं। जैन धर्म गणों की जाता है। अत: मानवाधिकारों की रक्षा करने वाला. पूजा में विश्वास रखता है। जो जीव वीतरागी, सर्वज्ञ सेवा करने वाला दास नहीं अपित जगत का स्वामी बन और हितोपदेशी है वही भगवान है। चाहे उसका नाम जाता है। जैन धर्म में स्व-पर के दुःखों को दूर करने कुछ भा क्या न हो। का उपाय करने का चिन्तवन 'अपाय विचय' नामक धर्मध्यान कहलाता है। जैन दर्शन में श्रम का महत्व पुरुषार्थ' से बताया - अध्यक्ष, राजस्थान राज्य मानवाधिकार आयोग गया है। 'श्रम' से ही श्रमण शब्द बना है। सर्वश्रेष्ठ श्रमी आर-३, तिलक मार्ग, सी स्कीम, जयपुर-०४ ___ फोन नं. 0414-2222519 महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org