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मानवाधिकार एवं जैन दर्शन
- न्यायमूर्ति एन. के. जैन
मानवाधिकार की अवधारणा जैन दर्शन की दया रखना अहिंसा है। आचार्य अमृतचन्द ने अहिंसा अहिंसा, समता, अपरिग्रह एवं अनेकान्त, स्याद्वाद से का विस्तृत वर्णन किया है। उनके मत में किसी को जुड़ी है। अहिंसा में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता, जीने की मारना, (मन-वचन-काय से) पीड़ा पहुँचाना ही हिंसा स्वतंत्रता, जन्मना स्वतंत्रता, अन्तश्चेतना की स्वतंत्रता, नहीं है, वरन् झूठ बोलना, निन्दा करना, बेगार लेना, शोषण से मुक्ति, उत्पीड़न से मुक्ति, बेगार पर रोक का किसी वस्तु-संपत्ति का अपहरण करना (चोरी), अनर्गल अधिकार गर्भित है तथा समता में समानता का अधिकार कामुकता एवं धन संचय एवं उसके प्रति गृद्धता का गर्भित है।
भाव ही हिंसा ही है। इसके साथ ही अपनी आत्मा में विषमताओं को नष्ट करने का अमोघ उपाय राग-द्वेषादि दूषित प्रवृत्तियों का जन्म भी हिंसा ही है। अपरिग्रह है। अपरिग्रह व सन्तोष अहिंसा के ही विस्तृत एवं उक्त सभी का अभाव अहिंसा है। रूप हैं। वैचारिक स्वतंत्रता में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको अपने समान समझने एवं अच्छा बर्ताव जुड़ी है, जो जैन दर्शन के प्रमुख आधार स्तम्भ अनेकान्त करने का संदेश भी अहिंसा के अन्तर्गत ही है। सभी व स्याद्वाद में देखी जा सकती है।
जीवों में चैतन्य की व्याप्ति है। अतः सभी जीव स्वभाव यद्यपि अहिंसा अपने निषेधात्मक रूप में हिंसा एवं शक्ति की अपेक्षा समान हैं। सभी जीवों में ज्ञान, के अभाव परक है, यही जीवों को जीने की, सुरक्षा दर्शन, सुख, तप, वीर्य की शक्ति का भण्डार भरा पड़ा की, शोषण से अभाव की, बेगार से सुरक्षा की, उत्पीड़न है। लेकिन शक्ति अपेक्षा समान होते हुए भी शक्ति की से सुरक्षा की स्वतंत्रता प्रदान करती है। दास प्रथा से व्यक्तता में असमानता है जो परतंत्रता की जननी है। मुक्ति दिलाती है। अपने विधेयात्मक रूप में अहिंसा, लेकिन परतंत्रता जीव की स्वयं की बनायी हुई है। मैत्री, प्रमोद, करुणा, दया आदि का प्रसार करती है। उसकी हिंसात्मक वृत्तियों एवं स्वभाव की आत्मघाती जो मानव को जीवन के प्रति भलाई व सहयोग करना वृत्तियों के कारण वह परतंत्र बना हुआ है। लेकिन स्वयं सिखाती है। मानव की मानव को सहायता मानवाधिकार अपने आत्मबल से वह स्वतंत्र हो सकता है एवं पूर्ण का मूलभूत सूत्र भी है।
सुखी हो सकता है। अहिंसा हमें सिखाती है कि हम जीवों को न समानता के संदर्भ में आत्मीयता का विस्तार मारें, उन्हें चोट न पहुँचायें, उन पर मनमाना अत्याचार ही सच्ची अहिंसा है, सच्ची समानता है। सब जीवों के न करें, बालकों व महिलाओं का शोषण न करें, उन्हें प्रति समता भाव का व्यवहार अहिंसा ही तो है। यू.एन. उत्पीड़न से बचायें, मानवता एवं मानव कल्याण की ओ. के घोषणा पत्र में भाई-चारे, सहयोग व समानता भावना अहिंसा में ही समायी है।
का उल्लेख है। जैन धर्म में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जैन मान्यतानुसार तो प्राणी मात्र के प्रति करुणा, परस्पर सहयोग का सूचक है। मेरी भावना में हम नित्य
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/55
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