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जैन परम्परा में नहीं, अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी श्रेष्ठतम साधकों के लिए दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा की गयी प्राप्त होती है । प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहन जोदड़ो से प्राप्त अवशेषों में कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ मिला है। स्वयं ऋग्वेद में वातरशना (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख हुआ हैं । कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय आरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को श्रमणधर्मा एवं ऊर्ध्वरेतस (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है । श्रीमद्भागवत में भी वातरशना मुनियों का उल्लेख हैं तथा वहाँ व अन्य अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को विष्णु का एक प्रारम्भिक अवतार सूचित करते हुए दिगम्बर चित्रित किया गया है। ऐसे उल्लेखों के आधार पर स्व. डॉ. मंगलदेव शास्त्री का अभिमत है कि 'वातरशनाश्रमण' एक प्राग्वैदिक मुनि परम्परा थी और वैदिक धारा पर उसका प्रभाव स्पष्ट है ।
कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रन्थों, वृहत्संहिता, भर्तृहरिशतक तथा क्लासिकल संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख एवं दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । ब्राह्मण परम्परा के ६ प्रकार के सन्यासियों का विधान है, जिनमें तुरीयातीत श्रेणी के सन्यासी दिगम्बर ही रहते थे। जड़ भरत, शुकदेव मुनि आदि कई दृष्टान्त भी उपलब्ध हैं । परमहंस श्रेणी के साधु भी प्राय: दिगम्बर रहते हैं । मध्यकालीन साधु अखाड़ों में भी एक अखाड़ा दिगम्बरी नाम से प्रसिद्ध है। पिछली शती के वाराणसी - निवासी महात्मा तेलंग स्वामी नामक सिद्ध योगी, जो रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे प्रबुद्ध संतों एवं सुधारकों द्वारा भी पूजित हुए, सर्वथा दिगम्बर रहते थे । बौद्ध भिक्षुओं के लिए नग्नता का विधान नहीं है, किन्तु स्वयं गौतम बुद्ध ने अपने साधना काल में कुछ समय तक दिगम्बर मुनि के रूप में तपस्या की थी । यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी सहज नग्नत्व को निर्दोषता का सूचक एवं श्लाघनीय माना गया है।
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जलालुद्दीन रूमी, अलमन्सूर, सरमद जैसे सूफी संतों ने दिगम्बरत्व की सराहना की। सरमद तो सदा नंगे रहते ही थे। उनकी दृष्टि में तो 'तने उरियानी (दिगम्बरत्व ) से बेहतर नहीं कोई लिबास, यह वह लिबास है जिसका न उल्टा है न सीधा ।' सरमद का कौल था कि 'पोशानीद लबास हरकारा ऐबदीद, बे ऐबारा लबास अयानीदाद' - पोशाक तो मनुष्य के ऐबों को छिपाने के लिए है, जो बेऐब-निष्पाप हैं, उनका परिधान तो नग्नत्व ही होता है। नन्द-मौर्य कालीन यूनानियों ने भारत के दिगम्बर मुनियों (जिम्नोसोफिस्ट) के वर्णन किये हैं। युवान च्वांग आदि चीनी यात्रियों ने भी भारत के विभिन्न स्थानों में विद्यमान दिगम्बर ( लि-हि) साधुओं या निर्ग्रन्थों का उल्लेख किया है। सुलेमान आदि अरब सौदागरों और मध्यकालीन यूरोपीय पर्यटकों में से कई ने उनका संकेत किया है। डॉ. जिम्मर जैसे मनीषियों का मत है कि प्राचीन काल में जैनमुनि सर्वथा दिगम्बर ही रहते थे ।
वास्तव में दिगम्बरत्व तो स्वाभाविकता और निर्दोषिता का सूचक है। महाकवि मिल्टन ने अपने काव्य 'पैरेडायज लॉस्ट' में कहा है कि आदम और हव्वा जब तक सरलतम एवं सर्वथा सहज निष्पाप थे, स्वर्ग के नन्दन कानन में सुखपूर्वक विचरते थे, किन्तु जैसे ही उनके मन विकारी हुए उन्हें उस दिव्यलोक से निष्कासित कर दिया गया। विकारों को छिपाने के लिए ही उनमें लज्जा का उदय हुआ और परिधान (कपड़ों) की उन्हें आवश्यकता पड़ी। महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था - 'स्वयं मुझे नग्नावस्था प्रिय है, यदि निर्जन वन में रहता होऊँ तो मैं नग्न अवस्था में रहूँ ।' काका कालेलकर ने क्या ठीक ही कहा है - 'पुष्प नग्न रहते हैं । प्रकृति के साथ जिन्होंने एकता नहीं खोयी है, ऐसे बालक भी नग्न घूमते हैं। उनको इसकी शरम नहीं आती है और उनकी निर्व्याजता के कारण हमें भी लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नहीं होता। लज्जा की बात जाने दें, इसमें किसी प्रकार का अश्लील, बीभत्स, जुगुप्सित, अरोचक हमें लगा
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/47
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