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आज से लगभग २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने तीस वर्ष की आयु में मार्गशीर्ष महावीर के जन्म के समय भारत वर्ष में हिंसा का खुला कृष्णा दशमी को जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली, उसी ताण्डव नृत्य हो रहा था। पशुओं को यज्ञ में होमा जाता समय मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। सर्वप्रथम उनका था। अश्वमेध, गोमेध आदि यज्ञ होते रहते थे। यहाँ आहार राजा 'कूल' के यहाँ हुआ। पश्चात् बारह वर्ष तक कि नरमेध नाम का यज्ञ भी होता था, जिसमें रूप- तक आत्म-साधना में लीन हो गये। वैसाख शुक्ला यौवन सम्पन्न मनुष्यों तक की यज्ञ में आहुति दी जाती दशमी को केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई, अब वे महावीर थी। महिलाओं की इज्जत सुरक्षित नहीं थी। दिन में से भगवान महावीर हो गये। उसी समय सौधर्म की ही लूट-खसोट, डाँके, आगजनि होती रहती थी। आज्ञा से कुबेर ने समवशरण (धर्मसभा) की रचना की। जिनके कारण प्रजा भयाक्रान्त रहती थी। समस्त भारत गणधर का अभाव होने के कारण ६६ दिन तक की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी। शूद्रों को धर्म दिव्यध्वनि प्रगट नहीं हुई। निमित्त पाकर इन्द्रभूति गौतम का अध्ययन-श्रवण करना वर्जित था। उन्हें अधर्मी भगवान महावीर के प्रथम गणधर हुए। इस प्रकार ६६ और अस्पृश्य समझा जाता था। दास-दासी प्रथा का दिन बाद श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को भगवान का प्रथम बोलबाला था और इन पर घोर अत्याचार होता था। धर्मोपदेश हुआ। तीस वर्ष तक वे निरन्तर पृथ्वीतल पर चौराहों पर इनकी नीलामी होती थी और इन्हें बन्धक विहार करते रहे और समाज को सभी प्रकार की हिंसा बनाकर रखा जाता था। इस प्रकार की धार्मिक एवं का तर्क-संगत विरोध करने का उपदेश दिया। उन्होंने सामाजिक विषम परिस्थितियों के समय भगवान महावीर तर्क दिया कि संसार में प्रत्येक प्राणी (जीवमात्र) स्वतंत्र का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ। सम्पूर्ण संसार है, उसे भी जीने का उतना ही अधिकार है जितना हमें में शान्ति की लहर दौड़ गई। स्वर्गों में भी वादित्र बजने है। भगवान महावीर ने एक बहुत बड़ा मूल मंत्र दिया लगे जिससे यह ज्ञात हुआ कि पृथ्वी तल पर भगवान 'जिओ और जीने दो'। इस मंत्र के माध्यम से अहिंसा का जन्म हुआ है। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से सभी इन्द्र की पुनः स्थापना हुई। इसके सार को जन-जन तक पृथ्वी तल पर आये और भगवान का जन्म कल्याणक पहुँचाया गया, परिणाम यह हुआ कि उस समय व्याप्त मनाया। पाण्डुक-शिला पर भगवान का जन्माभिषेक धर्मान्धता दूर हुई। महावीर की सोच अत्यन्त व्यापक किया गया। सौधर्म इन्द्र ने शची के साथ सभी इन्द्रों थी। उनके उपदेश वाणी तक ही सीमित नहीं थे, उन्होंने सहित नृत्य-गान करके जन्म की खुशियाँ मनाईं और पहले स्वयं के जीवन में उतारा, अनुभव किया तत्पश्चात् भगवान का 'वर्धमान' नाम रखकर सभी वापस स्वर्ग उपदेश दिया। परिणाम स्वरूप अहिंसक समाज का को चले गये। भगवान जन्म से ही तीन ज्ञान - मति, निर्माण हुआ। भगवान ने आचरण की शुद्धि पर विशेष श्रुत, अवधि के धारक थे। उन्हें विद्याध्ययन की विशेष बल दिया। आवश्यकता नहीं थी। बाल्यकाल में अनेक घटनाएँ हुईं
उन्होंने कहा – 'जब तक मनुष्य का आचरण जिनके कारण उनका नाम वीर, महावीर, अतिवीर और शुद्ध नहीं होता, उस समय तक आत्मिक उत्थान होना सन्मति रखा गया। उस समय भारतवर्ष की जो सामाजिक संभव नहीं है।' इसके लिए महावीर ने अहिंसा, सत्य. परिस्थितियाँ थीं उनका महावीर ने बहुत बारीकी से अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पाँच नियम अध्ययन/चिंतवन किया और निर्णय किया कि मैं अपना ।
(व्रत) आवश्यक बताये। गृहस्थ के लिए अणुव्रत और जीवन जनता के उद्धार में ही लगाऊँगा। फलस्वरूप मुनि के लिए महाव्रत के रूप में पालन करने को कहा। उन्होंने विवाह नहीं किया और राज्य भार संभालने से
0 अमृत कलश, १५७ श्रीजी नगर, भी इंकार कर दिया।
दुर्गापुरा, जयपुर ३०२०१८ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/26
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