________________
भगवान महावीर और उनका जीवन दर्शन
भगवान महावीर को समझने के लिए मात्र उनके वर्तमान को जानना ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए उनके पूर्व हजारों-हजारों वर्षों के काल को समझना भी आवश्यक है। भगवान महावीर जैनधर्म के भरतक्षेत्र के वर्तमान युग के चौबीस तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर हुए है ।
इस युग में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव हुए, उन्होंने असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प – इन षट्कर्मों का प्रजा को उपदेश दिया और उस पर चलने से ही सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। वे अंक और लिपि विद्या के स्रष्टा थे। प्रजा को धर्म का उपदेश दिया और उस पर चलने से ही सुख की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया । ऋषभदेव द्वारा प्रशस्त मार्ग का अनुसरण भगवान अजितनाथ ने किया और इसे आगे बढ़ाया। इसी प्रकार आगे के तीर्थंकर अनुसरण करते हुए आगे आगे बढ़ते गये। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि महावीर का जीव पूर्व में ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि था। ऋषभदेव के ज्ञान में यह बात आ गई थी कि यही मरीचि का जीव आगे जाकर चौबीसवाँ अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा। जब मरीचि को यह पता लगा कि मैं आगे जाकर इस युग का अन्तिम तीर्थंकर महावीर होने वाला हूँ। तो वह उन्मत्त होकर विचरण करने लगा और मनगढ़न्त तत्त्वों का उपदेश देने लगा। आगे जाकर यही मरीचि सांख्यमत का संस्थापक बना । कुतप के प्रभाव से मरकर पुरुरवा भील हुआ, सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ, पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग में देव हुआ यह इसका चौथा भव था ।
इस प्रकार भव भ्रमण करता हुआ तेईसवें भव
Jain Education International
ज्ञानचन्द रांवका
में सिंह के रूप में जन्म लिया । एक दिन यह सिंह भूख से पीड़ित होकर एक हरिण को पकड़ कर खा रहा था उस समय दो चरण ऋद्धि मुनि आकाश गमन करते हुए वहाँ उतरे और उस सिंह को संबोधन दिया - " हे जीव ! तूने जो त्रिपृष्ट नारायण के भव में राजमद से घोर पापार्जन किया था, उसके परिणाम स्वरूप नरकों में घोर यातनाएँ सही और अब भी तू दीन पशुओं को मारमार कर खा रहा है और पापार्जन कर रहा है। मुनिराज के वचनों को सुन कर उसे जाति स्मरण हो गया और अपने पूर्व भवों को याद करके हरिण को छोड़ कर आँखों से अश्रुधारा बहाते हुए निश्चल खड़ा रहा। उन मुनिराज ने उसे निकट भव्य और अन्तिम तीर्थंकर जानकर धर्मोपदेश दिया तथा पशु मारने और मांस खाने का त्याग कराया, सम्यक्त्व को ग्रहण कराया, जो बराबर अन्तिम तीर्थंकर महावीर के भव तक बना रहा। अन्त में संन्यास पूर्वक मरण कर वह सिंह स्वर्ग में देव हुआ ।
पुन: संसार भ्रमण करता हुआ ३१वें भव में नन्द राजा हुआ और प्रोष्ठिल मुनिराज के पास धर्म का स्वरूप सुन कर जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। इसी मध्य षोडश कारण भावनाओं का चिन्तवन करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया और समाधि पूर्वक मरण करके प्राणत स्वर्ग में देव हुआ । यहाँ आयु पूर्ण करके राजा सिद्धार्थ के महावीर नाम का पुत्र होता है । पूर्व भव के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आध्यात्मिक विकास की चरमोत्कर्ष स्थिति तक पहुँचना किसी एक भव की साधना का परिणाम नहीं है इसके लिए अनेकों भवों तक साधना करनी पड़ती है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/25
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org