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है। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने प्रथमानुयोग का स्वरूप निम्न प्रकार लिखा है -
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि समाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ अन्वयार्थ :(समीचीनः बोधः) सम्यग्ज्ञान (प्रथमानुयोग अर्थख्यानं) प्रथमानुयोग के कथन को (बोधति) जानता है । वह प्रथमानुयोग (चरितं पुराणमपि पुण्य) चरित्र और पुराण के रूप में पुण्य पुरुषों का कथन करता है। (बोधि- समाधि - निधानं ) वह प्रथमानुयोग रत्नत्रय की प्राप्ति का निधान है, उत्पत्ति स्थान है । (पुण्यं) पुण्य होने का कारण है । अतः उसे पुण्य स्वरूप कहा है।
चरित्र और पुराण का अन्तर स्पष्ट करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि “एक पुरुषाश्रिता कथा चरितं ' एक पुरुष संबंधी कथन को चरित कहते हैं तथा त्रिषष्ठि शलाका पुरुषाश्रिता कथा पुराणं अर्थात् त्रेषठ शलाका पुरुष सम्बन्धी कथा को पुराण कहते हैं । 'तदुभयमपि प्रथमानुयोग शब्दाभिधेयं' चरित एवं पुराण - इन दोनों को प्रथमानुयोग कहा है। "
पुराणों के कथानकों में कथावस्तु को सर्वांगीण एवं प्रयोजनों की पूर्ति हेतु कुछ कथन काल्पनिक भी होते हैं। जैसे कि - तीर्थंकरों के कल्याणकों में इन्द्रगण आये और उन्होंने स्तुति की। यह तो सत्य है तथा इन्द्र स्तुति अपनी भाषा में अन्य प्रकार की थी और ग्रन्थकार अपनी भाषा में अन्य प्रकार से ही स्तुति करना लिखा; परन्तु स्तुति का प्रयोजन अन्यथा नहीं हुआ।
पुराणों का प्रयोजन प्रगट करते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं कि “प्रथमानुयोग में तो संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति इत्यादि निरूपण से जीवों को धर्म में लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों, वे भी उससे धर्मसन्मुख होते हैं; क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपण को नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओं को जानते हैं, उनके पढ़ने में उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोग में सरल कथन होने से उसे वे भली-भाँति समझ जाते हैं। पुराणों में महन्तपुरुषों के पुण्य-पाप की कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पाप को छुड़ाकर धर्म में लगाने का प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओं के लालच से तो उन्हें पढ़ते सुनते हैं और फिर पाप को बुरा, धर्म को भला जानकर धर्म में रुचिवंत होते हैं। इसप्रकार आत्मबुद्धियों को समझाने के लिये यह अनुयोग प्रयोजनवान है।"
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इस तरह हम देखते हैं कि जैन पुराण मानवीय मूल्यों के सगज प्रहरी तो हैं ही, प्राणीमात्र की जीवन की सुरक्षा करने में मददगार, उन्हें अभयदान देने-दिलाने
सक्रिय भूमिका निभाने वाले और आत्मार्थियों को, मुमुक्षुओं को मुक्ति का मार्ग दिखाने में भी अग्रगण्य हैं। - प्राचार्य श्री टोडरमल दि. जैन सिद्धान्त महाविद्यालय ए-4, बापूनगर, जयपुर-302015
सरलार्थ :- क्रोधादि कषाय रूपी रोगों के लिए सच्ची औषधि शास्त्र है; सातिशय पुण्य परिणाम एवं पुण्यकर्म के बंध के लिए सर्वोत्तम कारण शास्त्र है; जीवादि सात तत्त्वों, छह द्रव्यों, नौ पदार्थों के सम्यक् परिज्ञान के लिए शास्त्र ही चक्षु है और इसभव तथा परभव के सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए भी शास्त्र ही है।
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- योगसार प्राभृत, ४२९ : आचार्य अमितगति
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1 /39
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