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प्रवचनसार में ही गाथा २४५ में श्रमणों के दो एकदेश रत्नत्रय नहीं है किन्तु उसके साथ में जो भेद किये हैं - शुद्धोपयोगी अनास्रव होते हैं और शुभरागरूप शुभोपयोग रहता है, वह उस कर्म का शुभोपयोगी सास्रव होते हैं।
कारण है। वह श्लोक इस प्रकार है - ___इसकी टीका में अमृतचन्द्रजी ने यह प्रश्न उठाया असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। है कि जो मुनिपद धारण करके भी कषाय का लेश स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः॥ जीवित होने से शुद्धोपयोग की भूमिका पर चढ़ने में
इसका अन्वयार्थ इसप्रकार है - (असमग्रं) असमर्थ हैं, वे क्या श्रमण नहीं हो सकते? उत्तर में एकटेश रिलायं) रत्नत्रय को (भावयतः पालन प्रवचनसार की प्रारम्भ की गाथा ११ का प्रमाण देकर करने वाले के (य:कर्मबन्धोऽस्ति) जो कर्मबन्ध होता अमतचन्द्रजी ने जोर देकर कहा है कि शुभोपयोग का है. (स अवश्यं) वह अवश्य ही (विपक्षकृतः) विपक्ष धर्म के साथ एकार्थसमवाय है अर्थात् धर्म और राणाटिकत है।
मार रागादिकृत है। शुभोपयोग एक साथ रह सकते हैं, इसलिये धर्म का सद्भाव होने से श्रमण शुभोपयोगी भी होते हैं, किन्तु
यह तीन चरणों का अर्थ है। अन्तिम चरण
स्वतन्त्र है, वह उक्त कथन के समर्थन में युक्ति है कि वे शुद्धोपयोगी श्रमणों के तुल्य नहीं होते।
वह बन्ध रत्नत्रयकृत क्यों नहीं है , रागकृत क्यों है? आगे गाथा२५४ की टीका में अमृतचन्द्रजी ने
क्योंकि (मोक्षोपाय:) जो मोक्ष का कारण होता है वह कहा है कि श्रमणों के शुभोपयोग की मुख्यता नहीं
(बन्धनोपायो न ) बन्ध का कारण नहीं होता। आगे रहती, गौणता रहती है, क्योंकि वे महाव्रती होते हैं और
- अमृतचन्द्रजी ने अपने इसी कथन की पुष्टि की है कि महाव्रत या समस्त विरति शुद्धात्मा की प्रकाशक है,
जितने अंश में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र किन्तु गृहस्थों के तो समस्तविरति नहीं होती, अतः
है उतने अंश में बन्ध नहीं है, जितने अंश में राग है उनके शुद्धात्मा के प्रकाशन का अभाव होने से तथा
उतने अंश में बन्ध होता है। कषाय का सद्भाव होने से शुभोपयोग की मुख्यता है। तथा जैसे स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य की किरणों का
किन्तु इतने स्पष्ट कथन के होते हुए भी कुछ संयोग पाकर ईधन जल उठता है, उसी प्रकार गहस्थ विद्वान् उक्त श्लोक के चतुर्थ चरण को भी पहले के को राग के संयोग से शद्धात्मा का अनुभव होने से वह चरणों के साथ मिलाकर ऐसा अर्थ करते हैं कि वह शुभोपयोग क्रम से परमनिर्वाण सुख का कारण होने से
विपक्षकृत बन्ध अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, बन्धन मुख्य है।
का उपाय नहीं है। किसी भी सिद्धान्त ग्रन्थ में ___इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रजी ने श्रावक के
कर्मबन्ध को, भले ही वह पुण्यबन्ध हो, मोक्ष का शभोपयोग की मख्यता स्वीकार की है। सिद्धान्त तो अवश्य उपाय नहीं कहा है। फिर अमृतचन्द्रजी तो यह स्वीकार करता ही है। किन्तु वह शभोपयोग आगे ही लिखते हैं - शुद्धोपयोग सापेक्ष होना चाहिये। निज शुद्धात्मा ही 'आस्रवति यस्तु पुण्यं शुभोपयोगस्य सोऽयमपराधः।' उपादेय है इस प्रकार की रुचि शुभोपयोगी को होती है, जो पुण्य का आस्रव होता है, वह तो शुभोपयोग तभी वह शुभोपयोग, शुभोपयोग कहलाता है। का अपराध है।' जो ग्रन्थकार पुण्यास्रव को शुभोपयोग
अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय के अन्त में आचार्य का अपराध कहता है, वह उस अपराध को मोक्ष का अमृतचन्द्रजी ने कहा है कि एकदेश रत्नत्रय का पालन उपाय कैसे कह सकता है ? करनेवालों के जो कर्मबन्ध होता है, उसका कारण इस प्रकार मझे तो सिद्धान्त और अध्यात्म में
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/13
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