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तीर्थंकर मूर्तियों को छत्र के नीचे पद्मासन में ध्यानलीन दर्शाने की परम्परा प्रथम शती ईसा पूर्व से दृष्टिगोचर होती है।' सर्वतोभद्र जिन प्रतिमाओं के ऊपर छेद व नीचे खूँट निकली पाते हैं। ऊपर के छेद पर छत्र लगाया जाता था।
छत्र चौकोर और वृत्ताकार दोनों ही प्रकार के उपलब्ध होते हैं।
जिन - छत्र
डॉ. शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी
एक वर्गाकार छत्र मथुरा संग्रहालय के संग्रह में चौवियापाड़ा
मथुरा से अधिग्रहीत हुआ है। जिसे मैंने १९७४ में मूल स्थान पर देखा था। इस पर चारों ओर अष्ट मांगलिकों
का अंकन है, बीच में छेद है। इसी छेद में दण्ड लगाकर मूर्ति के ऊपर सुशोभित किया जाता था ।
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पूर्व कुषाण काल से जैन कला में स्तूप बनाए जाने की भी परम्परा रही है। आयागपट्टों, स्तम्भों के मध्य, शिर पर स्तूप किन्नरों द्वारा पूजित तथा मथुरा
संग्रहालय के लवण शोभिका लेख के स्तूप के ऊपर हर्मिका के ऊपर छत्र का अंकन और इसके दोनों ओर मोटी मालाएँ हवा में लहराती हुई दर्शायी गई हैं। तीर्थंकरों के मध्य स्तूप (जे-६२३ रा. सं. ल.)
लखनऊ संग्रहालय के जैन कला संकलन में दो लघुकाय और एक छत्र बृहत्काय है। छोटे छत्र तो
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/1
जिनप्रतिमाओं को जहाँ पहले एक छत्र के नीचे विराजित पाते हैं, वही मध्यकाल में त्रिछत्र की प्रथा प्रचलित दृष्टिगोचर होती है।
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