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भगवान महावीर का सर्वोदय तीर्थ और श्रावकाचरण
0 प्रवीण चन्द्र छाबड़ा
भगवान महावीर की अनेकान्तिनी धारा और के लिए भी अपने से निर्धारित क्षेत्र में ही विहार करता दर्शन की स्वामी समन्तभद्राचार्य ने सर्वोदय-तीर्थ कह है और उपयोग के लिए अर्जन करता है। भोजन, वस्त्र, कर वन्दना की है। सर्वोदय-तीर्थ में उन्होंने श्रावक धर्म अलंकार आदि भोग सामग्री का परिमाण किए रहता के लिए आचार-संहिता का निर्माण किया, जिससे है। शरीरिक क्रियाओं में सावधान होता है। नियमित श्रावक के लिए पाँच अणुव्रत तथा सप्त शिक्षाव्रत व सामयिक, स्वाध्याय व ध्यान द्वारा भाव और भाषा को नियमों की अनुपालना के साथ ग्यारह चरणों (प्रतिमा) शुद्ध किए रहता है। अतिथि का सम्मान करता है। का निर्धारण किया। इन प्रतिमाओं का धारी होकर अपने शुद्ध अर्जन में से त्यागी, व्रतियों, मुनिराजों आदि श्रावक त्यागी विरागी होता हुआ वीतरागी होने का पथ को आहार देता है, सेवा करता है। अपने अर्जन का प्रशस्त करता है। अपनी साधना द्वारा श्रमण होने की एक भाग दान के लिए रखता है, जो सुपात्र, जन-सेवा तैयारी करता है। श्रावक, श्रमण धर्म की धुरी है, तथा लोक-कल्याण के लिए होता है। संवाहक है। श्रावक का दर्शन विशुद्ध होता है। गृहस्थ
श्रावक, गृहस्थ होकर भी लोकैषणा और होकर भी वह त्यागी-व्रती होता है। पद व सत्ता उसे प्रलोभन से अपने को बचाये रखता है। यह उसकी विमोहित नहीं करती। वह किसी को बाधता नहीं, अनपम साधना होती है। अपने सौख्य भाव से सबको बंधता भी नहीं है। वह अपना स्वामी स्वयं होता है।
अपना बनाये रखता है, सब में बाँट कर चलता है। अन्य के लिए भी स्वामी या दास नहीं होता है। वह
श्रावक व्रती होता है और व्रत साधन के लिए होते हैं। राष्ट्र और समाज गरिमामय होता है, जिसके नागरिक
कामना और आकांक्षा को लेकर व्रत वासना होता है, श्रावक होते हैं। श्रावक अपनी स्वतंत्रता के प्रति जहाँ
जो मूर्छा है, प्रमाद है। वह अपने सदाचरण को सावचेत है, वहाँ अन्य की स्वतंत्रता के प्रति संवदेनशील होता है। वह अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता और
धार्मिक और सामाजिक दायित्व मान कर चलता है,
उसका व्यापार नहीं करता । आचार, व्रत, नियम, बंधन करने भी नहीं देता।
नहीं होते, उपचार होते हैं। वह इनका दिखावा नहीं श्रावक, अतिचारी, अविचारी, मायाचारी और
करता और इनके लिए सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता। कपटचारी नहीं होता। वह मिथ्या दोषारोपण नहीं करता,
उनके लिए रूढ़िगत भी नहीं होता। रूढ़िगत होना जड़ चुगली के लिए नहीं होता, झूठी शपथ नहीं लेता। मिलावट व बनावट करने तथा चोर-बाजारी के लिए
के लिए होना है और दिखावा प्रवंचना है, धोखा है। नहीं होता। क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, राग
व्रत अपने को संयमी व साधनामय बनाये रखने तथा से अपने को शाबिचाता श्रावक अनुशासित किए रहने के लिए होते हैं। अपने लिए सीमा और परिधि निश्चित कर जीवन- श्रावक सनागरिक होता है। राष्ट्र और समाज जगत का व्यवहार करता है। श्रावक व्यापार व व्यवहार के लिए होता है। अपनी स्वतंत्रता के साथ अन्य की
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/38
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