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स्वभाव का कहा गया है अर्थात् जिसप्रकार नमक की डली का एक-एक कण क्षार रस से व्याप्त है, उसीप्रकार शुद्धात्मा का एक-एक प्रदेश ज्ञायक स्वभाव से परिपूर्ण है। जब क्षायोपशमिक ज्ञान-चारित्र मोहजनित राग से सहित होता है, तब वह नाना ज्ञेयों में संलग्न रहता है किन्तु जब वह राग से रहित हो जाता है तब स्वरूप में स्थिर होता है।
राग से रहित पूर्ण वीतरागदशा को प्राप्त क्षायिकज्ञानी ही यथेच्छ स्वानुभव से परिपूर्ण हैं, उनकी स्तुति में जैसा आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रतिपादित किया है -
विशुद्धचित्पूरपरिप्लुतस्त्वमार्द एव स्वरसेन भासि। प्रालेयपिण्डः परितो विभाति सदाई एवाद्रवता युतोऽपि॥१४॥९ लघुतत्त्वस्फोट
विशुद्ध चैतन्य के पूर में सब ओर से डूबे हुए आप आत्मरस से अत्यन्त आर्द्र ही सुशोभित हो रहे हैं, क्योंकि बर्फ का पिण्ड घनरूपता से युक्त होने पर भी सर्वदा सब ओर से आर्द्र ही प्रतीत होता है अर्थात् जिसप्रकार बर्फ का पिण्ड यद्यपि द्रवता-तरलता से युक्त ही रहता है, उसमें से पानी झरता हुआ मालूम होता है, उसीप्रकार विशुद्ध चैतन्य के पूर से प्लावित रहने वाले शुद्धात्मा के अनुभावक एक मात्र ज्ञायकस्वभाव से परिपूर्ण होते हैं।
अरिहन्त या क्षायिकज्ञान के धारक आत्मा पारदर्शी होते हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो वे स्वानुभव से रहित होते तथा चैतन्यरूप वस्तु की महिमा में इच्छा को नहीं छोड़ते अर्थात् इच्छारहित आत्मदर्शी को स्वानुभवकर्ता स्वीकार किया गया है। इसी परम्परा का आश्रय लेकर कहा गया है -
अखण्डितः स्वानुभवस्तवायं समग्रपिण्डीकृत बोधसारः। ददाति नैवान्तरमुद्धतायाः समन्ततो ज्ञानपरम्पराया:॥१०/१०॥ लघुतत्त्वस्फोट
हे भगवन् ! जिसमें ज्ञान का सार सम्पूर्णरूप से एकत्र समाविष्ट किया गया है, ऐसा यह आपका कभी न खण्डित होने वाला स्वानुभव सब ओर से बहुत भारी ज्ञान की परम्परा को अवकाश नहीं देता है। इसका भाव यह है कि ज्ञान का फल स्वानुभूति है। जब स्वानुभव होता है तब विकल्पात्मक ज्ञान की परम्परा स्वयं समाप्त हो जाती है। स्वानुभव काल में ज्ञान और ज्ञेय का विकल्प समाप्त हो जाता है।
___ इस कथन से स्पष्ट है कि छद्मस्थ को शुद्धात्मा का पूर्ण अनुभव करना शक्य नहीं है। इस काल में छद्मस्थावस्था के धारक ही हैं। अत: मिथ्या प्रलाप न तो करना चाहिए और न सुनना चाहिए कि अविरत सम्यग्दृष्टि, शुद्धात्मा का पूर्ण अनुभव कर सकता है और इस पंचमकाल में भी उसके अनुभव करने वाले हैं, जो पूज्य/आराध्य हैं। पंचमकाल का कोई भी व्यक्ति ज्ञान और ज्ञेय के विकल्प से दूर नहीं रह सकता। अतः वास्तविक रूप से क्षायिकज्ञानी को ही पूर्णज्ञानी और निरन्तर स्वानुभूति कर्ता मानना चाहिए। इसीलिए नवीं स्तुति में कहा गया है -
निषीदस्ते स्वमहिम्न्यनन्ते निरन्तर प्रस्फुरितानुभूतिः। स्फुट: सदोदेत्ययमेक एव विश्रान्त विश्वोभिभरः स्वभावः॥१७॥१० लघुतत्त्वस्फोट
अन्तरहित स्वकीय आत्मा की महिमा में स्थित रहने वाले आपका यह एक ही स्वभाव सदा उदित रहता है, जो निरन्तर प्रकट हुई स्वानुभूति से सहित है, स्पष्ट है और जिसमें समस्त तरंगों का समूह ज्ञानसन्ततियाँ विकल्पों का जाल विश्रान्त हो जाता है, शान्त हो जाता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/30
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